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रविवार, 29 जून 2025

जून २९, उष्ण कटिबन्ध, बुंदेली, सड़गोड़ासनी, चौपाई, दोहा, मुक्तिका, सरस्वती, तुलसी

सलिल सृजन जून २९
अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिक्स) दिवस
*
२०१६ में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय दिवस हर साल २९ जून को मनाया जाता है। यह दिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की अनूठी विशेषताओं और उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका, सामने आने वाली चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने का भी एक अवसर है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के आसपास का क्षेत्र है, जो कर्क रेखा (२३.४°N) और मकर रेखा (२३.४°S) के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में पूरे वर्ष गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता होती है, और इसमें दो मुख्य मौसम होते हैं: गीला और शुष्क। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी की लगभग ३६% भूमि को कवर करते हैं और दुनिया की आधी से अधिक जैव विविधता का घर है।
***
तुलसी
तुलसी में गजब की रोगनाशक शक्ति है। विशेषकर सर्दी, खांसी व बुखार में यह अचूक दवा का काम करती है। इसीलिए भारतीय आयुर्वेद के सबसे प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में कहा गया है।
- तुलसी हिचकी, खांसी,जहर का प्रभाव व पसली का दर्द मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित वायु खत्म होती है। यह दूर्गंध भी दूर करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली दिल के लिए लाभकारी, त्वचा रोगों में फायदेमंद, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और मूत्र से संबंधित बीमारियों को मिटाने वाली है। यह कफ और वात से संबंधित बीमारियों को भी ठीक करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गंध, हर तरह के दर्द, कोढ़ और आंखों की बीमारी में लाभकारी है। तुलसी को भगवान के प्रसाद में रखकर ग्रहण करने की भी परंपरा है, ताकि यह अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही शरीर के अंदर पहुंचे और शरीर में किसी तरह की आंतरिक समस्या पैदा हो रही हो तो उसे खत्म कर दे। शरीर में किसी भी तरह के दूषित तत्व के एकत्र हो जाने पर तुलसी सबसे बेहतरीन दवा के रूप में काम करती है। सबसे बड़ा फायदा ये कि इसे खाने से कोई रिएक्शन नहीं होता है।
तुलसी की मुख्य जातियां- तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है।
- रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी कहा जाता है।
- श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है।
- तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, लेकिन इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में यह रामबाण दवा है।
- एक अन्य जाति मरूवक है, जो कम ही पाई जाती है। राजमार्तण्ड ग्रंथ के अनुसार किसी भी तरह का घाव हो जाने पर इसका रस बेहतरीन दवा की तरह काम करता है।
मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी - मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी, जैसे मलेरिया में तुलसी एक कारगर औषधि है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर पीने से मलेरिया जल्दी ठीक हो जाता है। जुकाम के कारण आने वाले बुखार में भी तुलसी के पत्तों के रस का सेवन करना चाहिए। इससे बुखार में आराम मिलता है। शरीर टूट रहा हो या जब लग रहा हो कि बुखार आने वाला है तो पुदीने का रस और तुलसी का रस बराबर मात्रा में मिलाकर थोड़ा गुड़ डालकर सेवन करें, आराम मिलेगा।
- साधारण खांसी में तुलसी के पत्तों और अडूसा के पत्तों को बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से बहुत जल्दी लाभ होता है।
- तुलसी व अदरक का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से खांसी में बहुत जल्दी आराम मिलता है।
- तुलसी के रस में मुलहटी व थोड़ा-सा शहद मिलाकर लेने से खांसी की परेशानी दूर हो जाती है।
- चार-पांच लौंग भूनकर तुलसी के पत्तों के रस में मिलाकर लेने से खांसी में तुरंत लाभ होता है।
- शिवलिंगी के बीजों को तुलसी और गुड़ के साथ पीसकर नि:संतान महिला को खिलाया जाए तो जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है।
- किडनी की पथरी में तुलसी की पत्तियों को उबालकर बनाया गया काढ़ा शहद के साथ नियमित 6 माह सेवन करने से पथरी मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है।
- फ्लू रोग में तुलसी के पत्तों का काढ़ा, सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है।
- तुलसी थकान मिटाने वाली एक औषधि है। बहुत थकान होने पर तुलसी की पत्तियों और मंजरी के सेवन से थकान दूर हो जाती है।
- प्रतिदिन 4- 5 बार तुलसी की 6-8 पत्तियों को चबाने से कुछ ही दिनों में माइग्रेन की समस्या में आराम मिलने लगता है।
- तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है। इससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है।
- तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है।
- तुलसी के पत्तों को तांबे के पानी से भरे बर्तन में डालें। कम से कम एक-सवा घंटे पत्तों को पानी में रखा रहने दें। यह पानी पीने से कई बीमारियां पास नहीं आतीं।
- दिल की बीमारी में यह अमृत है। यह खून में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करती है। दिल की बीमारी से ग्रस्त लोगों को तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए।
२९-.६.२०२५
***
जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
***
एक पत्र
"आदरणीया मंजूषा मन,
आप आचार्य संजीव 'सलिल' से चार वर्ष पूर्व मिलीं और इतना कुछ लिख डाला, हम दादा को विगत २५ वर्षों से
जानते हैं।
'लोकतंत्र का मकबरा' काव्य-संग्रह का लोकार्पण उन्होंने कृपाकर हमारे लखनऊ आवास पर आकर श्री गिरीश नारायण पाण्डेय, वरि०साहि० एवं तत्कालीन आयकर आयुक्त के कर-कमलों द्वारा लखनऊ नगर के साहित्य -कारों के बीच इं०अमरनाथ और इं० गोविन्दप्रसाद तथा इं०संतोष प्रकाश माथुर ,संयुक्त प्र०नि०सेतु निगम एवं अध्यक्ष 'अभियान' की उपस्थिति में कराया था।
बाद में वे इन्स्टीट्यूटशन्स आफ़ इन्जीनियर्स आफ़ इण्डिया आदि की पत्रिका से सम्बद्ध होकर हिन्दी की सेवा में अभूतपूर्व कार्य करते रहे।
नर्मदा विषयक उनके कार्य का सानी नहीं तो महादेवी वर्मा से प्राप्त आशीष जगत् विख्यात है।
हमने आचार्य संजीव 'सलिल' को सदैव की भाँति सरल, गम्भीर, स्मित हास्य-युक्त उनका व्यक्तित्व मोहित करता है।
आपने उनके विषय में जो भी कहा अक्षरश: सत्य है।"
-देवकी नन्दन'शान्त',साहित्यभूषण, 'शान्तम्',१०/३०/२,इन्दिरानगर, लखनऊ-२२६०१६(उ०प्र०), मो० 9935217841;8840549296
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
डॉ. बाबू जोसफ, वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
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मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
२९-६-२०२१
***
धर्म सत्र
दोहा सलिला
*
मर्म धर्म का कर्म है, मत अकर्म लें मान।
काम करें निष्काम मन, तन प्रभु-अर्पित जान।।
*
माया ममता मोह को, कहें नहीं निस्सार।
संयम सहित विचारिए, कब कितना है सार।।
*
अन्य करें या ना करें, क्या यह सोचें आप।
वही आप अपनाए, जीवन हो निष्पाप।।
*
सत्य न जड़ होता कभी, चेतन बदले नित्य।
है असत्य में भी निहित, होता नित्यानित्य।।
*
जो केवल पद चाहते, करें नहीं कर्तव्य।
सच मानें होता नहीं, उनका कोई भविष्य।।
***
२९-६-२०२०
***
शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
२९-६-२०२०
सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
२९.६.२०१८
***
समस्यापूर्ति
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद)
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
२९-६-२०१७
* **
नीति का दोहा
व्याघ्रानां महत् निद्रा, सर्पानां च महद् भयम् ।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं, तस्मात् जीवन्ति जन्तवः ।।
.
शेरों को नींद बहुत आती है, सांपों को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।
.
नाहर को निंदिया बहुत, नागराज भयभीत।
फूट विप्र में हुई तो, गई जिंदगी जीत।। -सलिल
***
एक दस मात्रिक रचना
दशावातार छंद
*
चाँदनी में नहा
चाँदनी महमहा
रात-रानी हुई
कुछ दिवानी हुई
*
रातरानी खिली
मोगरे से मिली
हरसिंगारी ग़ज़ल
सुन गया मन मचल
देख टेसू दहा
चाँदनी में नहा
*
रंग पलाशी चढ़ा
कुछ नशा सा बढ़ा
बालमा चंपई
तक जुही मत मुई
छिप फ़साना कहा
चाँदनी में नहा
*
रचना-प्रतिरचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है
अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है
द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
२९-६-२०१६
***
दोहे
वीणा की झंकार में, शब्दब्रम्ह है व्याप्त
कलकल ध्वनि है 'सलिल' की, वही सनातन आप्त
*
गौरैया चहचह करे, कूके कोयल मोर
सनसन चलती पवन में, छान्दसता है घोर
*
नाद ताल में, थाप में, छिपे हुए हैं छंद
आँख मूँद सुनिए जरा, पाएंगे आनंद
*
सुन मेघों की गर्जना, कजरी आल्हा झूम
कितनों का दिल लुट गया, तुझको क्या मालूम
*
मेंढक की टर-टर सुनो, झींगुर की झंकार
गति-यति उसमें भी बसी, कौन करे इंकार
*
सरगम सुना रही बरखा, हवा सुनाती छंद
दसों दिशाओं में छाया है, पल-पल नव आनंद
*
सूरज साथ खेलता रहता, धरती गाती गीत
नेह-प्रेम से गुंथी हुई है, आस-श्वास की रीत
२९-६-२०१५
***
दो कवि एक कुण्डलिया
नवीन चतुर्वेदी
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
२९-६-२०१५
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
२९-६-२०१४
***
पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
२९.६.२०१२
***
गीत
कहे कहानी, आँख का पानी.
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
***

रविवार, 22 जून 2025

जून २२, बरसाती जंगल दिवस, न्याय प्रक्रिया, सॉनेट, पूर्णिका, कहमुकरी, सड़गोड़ासनी, सरस्वती, सवैया

सलिल सृजन जून २२
बरसाती जंगल दिवस
*
सॉनेट 
खत्म नहीं जिज्ञासा होती
हर जिज्ञासु अमर होता
ज्ञान समुद में खाता गोता
मति निकाल लाती मोती।
आशा नव सपने बोती
पौरुष नहीं हारकर रोता
धैर्य नहीं विपदा में खोता
पंक सलिल-धारा धोती।

सरगम लय-रस ताना-बाना
शब्द भाव के रंग चढ़ाए
निशि नित चादर बुने मौन रह।
कहे कबीर न जोड़-बचाना
खाली हाथों आए-जाए
रहा हमेशा कभी कौन कह?
२२.६.२०२५
०0०
पूर्णिका
भोर भई सूरज टेरत रे!
उसा बुलाउत पथ हेरत रे!
.
छिमा माँग भू माँ पे पग धर
बिलम नें कर आलस घेरत रे!
.
बगुला भगत बजाउत घंटी 
भोग तके, माला फेरत रे!
.
आस किरन कुररी की नाईँ
अँधियारा लोफर छेरत रे!
.
'सलिल' दनादन भोग गटक खें
भगतन खौं ठाकुर पेरत रे!
२२.६.२०२५
०0०
विमर्श:
न्याय प्रक्रिया बदलाव जरूरी
*
न्याय क्या?
निर्बल-असहाय को उसका अधिकार दिलाना।
देनेवाला- न्यायाधीश
माध्यम- अधिवक्ता
प्रक्रिया- वाद स्थापित करना।
सुलभता नहीं, सहजता नहीं, सरलता नहीं।
अत्यंत खर्चीली, समयखाऊ, जटिल, उलझन भरी, कानूनी दाँव-पेंच में सत्य की हत्या।
वकालतनामा- मुवक्किल से सभी अधिकार छीनकर वकील को देता है।
वकील मनमानी करता है। फीस लेकर भी पेशी पर नहीं जाता, तारीख बढ़ना कर बार-बार पैसे माँगता है, वाद के सत्य को छिपाकर जीत के लिए झूठे साक्ष्य और साक्षी गढ़कर न्यायालय की आँख में धूल झोंकता है।
कोढ़ में खाज यह कि मुवक्किल के हित संरक्षण के स्थान पर वकील और न्यायपालिका अपने संरक्षण की माँग करते हैं।
अनेक असामाजिक तत्व वकील बन गए हैं जो न्याय पालिका और मुवक्किल दोनों में दहशत फैलाते हैं।
सड़-गल रही व्यवस्था बदलें।
न्याय प्राप्ति के लिए वकील की आवश्यकता समाप्त की जाए।
जूरी प्रणाली लागू की जाए। वाद स्थापित करते समय ही वादी पूरा घटनाक्रम और दस्तावेज न्यायालय और प्रतिवादी को दे। प्रतिवादी अपना उत्तर न्यायालय व वादी को निर्धारित समय सीमा में उपलब्ध कराए। पहली पेशी में जूरी दोनों को सुनकर शेष दस्तावेज या साक्षी प्रस्तुत करने हेतु दूसरी पेशी दे। सामान्य प्रकरणों में तीसरी, महत्वपूर्ण प्रकरणों में पाँचवी पेशी में फैसला हो। न्यायडीश की सहायता के लिए वकील जूरी सदस्य हो जीसे मानदेय/भत्ता मिले। वादी-प्रतिवादी जूरी शुल्क न्यायालय में जमा करें, वकील को फीस न दें।
इससे न्याय प्रक्रिया सरल, सस्ती, सुलभ, शीघ्र तथा निष्पक्ष होगी।
कुछ वर्षों में वाद प्रकरणों के अंबार कम और समाप्त होने लगेंगे।
२२.४.२०२३
***
कविता के शब्द
यदि "आपके दिमाग़ में कविता के शब्द उस तरह नहीं आते हैं जैसे पेड़ों पर पत्ते, तो बेहतर होगा कि आप कविता लिखने के बारे में सोचें ही नहीं। यानी अच्छी कविता वही लिख सकते हैं जिन्हें कविता के शब्द सोचने की ज़रूरत न पड़े । वे ख़ुद-ब-ख़ुद आने शुरू हो जाएँ और कविता बनती जाए ।"
- जाॅन कीट्स
कथा लिखती हूँ इतिहास नहीं
"मैंने जितना भी लिखा है शत-प्रतिशत मेरा भोगा हुआ यथार्थ है, यह मैं नहीं कह सकती क्योंकि मैं कथा लिखती हूँ, इतिहास नहीं । मेरा काम है कहानी को ढूँढ़ना, किन्तु अगाध जलराशि से इस कथा-मीन को पकड़ने में केवल कल्पना के काँटे से ही काम नहीं चलता, यथार्थ के आटे की गोली भी उतनी ही आवश्यक होती है।"
- शिवानी (रमेश बतरा/सतीश चंद्र धींगड़ा के किसी प्रश्न पर - 1983)
*
कहमुकरी
जिसने जन्म दिया पाला है
कदम-कदम देखा-भाला है
जिसका सिर पर हाथ हमेशा
क्या सखि! दाता?
ना सखि पिता।
थाम कलाई नाजुक कोमल
बात करे मुस्काकर पल-पल
मैं न सकी उसको फटकार
क्या सखि सजना?
ना, मनिहार।
जैसे ही आए, छा जाए
बिना कारण ही शोर मचाए
पड़े न उसको पल भर कल
क्या सखि प्रियतम?
न, सखी बादल।
पता नहीं पड़ती गहराई
रौद्र नहीं, छवि शांत सुहाई
दे उपहार न पूर्व बताकर
सखि! घरवाला
नहिं रत्नाकर।
जब मिलती तभी मिलता चैन
मिलती नहीं तो मन बेचैन
अँखियों को भाए ज्यों सखियाँ
उत्तर बिंदिया?
नहिं सखी निंदिया।
याद भुलाए से नहिं भूले
पलक बंद नैनों में झूले
संग सेज पर आए, भाए
यारां बन्नी?
ना रे! निन्नी।
बीन बिना वह बीन बजा ले
गैरों से अपनापन पाले
नहीं तनिक भी रखता अंतर
बूझूँ? मच्छर
ना रे! झींगुर।
बिन मंडप वह डाले फेरे
मंत्र पढ़े, सजनी को टेरे
भैंस बराबर उसको अक्षर
लालबुझक्कड़?
नहिं रे मच्छर।
बिन चेताए करता हमला
रोक न पाता कोई अमला
बिन कारण होता हमलावर
पाक-चाइना?
ना सखि! मच्छर।
जब बोले तब मन को भाए
मौन रहे तो याद न जाए
पंथ हेर मन होता बेकल
क्या वह नूपुर?
ना रे हूटर।
सचमुच है वह बिल्कुल अपना
नाप न पाता कोई नपना
जब दिखता तब बहुत लुभाता
गुइयाँ सजना?
ना सखि! सपना।
स्वप्न दिखाकर तोड़ा करता
मँझधारों में छोड़ा करता
करा न कहता, कहा न करता
समझी, बेटा
ना सखि! नेता।
२२-६-२०२२
•••
मैया शारदे! पत रखियो
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
***
शारद वंदन
*
बीना लेकर प्रगट हों, बीनावादिनी साथ
कृपा कोर कर हो सदय, रखो सीस पै हाथ
मोरी मति चकरानी है, ऐ मैया! मोए बचा लइयो
मो खों गैल भुलानी है, ऐ मैया! पार लगा दइयो
जनम-जनम की मैली चादर
रीती सत करमन की गागर
सदय नईं नटराज हो रए
दया नईँ कर रए नटनागर
प्रभु की कृपा करानी है, रमा-उमा लै आ जइयो
तनक न जानौं पूजन-वंदन
नईँ जुट रए अच्छत्-चंदन
प्रगट नें होते चित्रगुप्त जू
सदय नें होते गिरिजानंदन
दरसन की जिद ठानी है, ऐ मैया! दरस दिला दइयो
सारद! हंसबाहिनी माता
सकल भुवन तुमरे जस गाता
नीर-छीर मति दो ममतामई!
कलम लए कर रऔ जगराता
अलंकार रस छंद न जानूँ, भगतें सुझा लिखा लइयो
११-६-२०२०
***
शारद वंदना
सतमात्रिक नवान्वेषित छंद
सूत्र : ननल।
*
सुर सति नमन
नित कर अमन
*
मुख छवि प्रखर
स्वर-ध्वनि मधुर
अविचल अजर
अविकल अमर
कर नव सृजन
सुरसति नमन
*
पद दल असुर
रच पद स-सुर
कर जननि घर
मम हृदयपुर
कर गह सु मन
सुरसति नमन
*
रस बन बरस
नित धरणि पर
शुभ कर मुखर
सुख रच प्रचुर
शुभ मृदु वचन
सुरसति नमन
२२-६-२०२०
***
नवान्वेषित सवैया
गणसूत्र - जरज रजर जर।
वर्ण यति - ८-८-८ ।
मात्रा यति - १२-१२-१२।
*
तलाशते रहे कमी, न खूबियाँ निहारते, प्रसन्नता कहाँ मिले?
विरासतें रहे हमीं, न और को पुकारते, हँसी-खुशी कहाँ मिले?
बटोरने रहे सदा, न रंकबंधु हो सके, न आसमां-जमीं मिले।
निहारते रहे छिपे, न मीत प्रीत पा सके, मिले- कभी नहीं मिले ।
२२-६-२०१९
९४२५१८३२४४
***
हम अभियंता...
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...
*
अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.
वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.
साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.
'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
***
पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।
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विमर्श
प्रश्न: भारतीय बोलियाँ हिंदी का हिस्सा हैं या नहीं?
हिस्सा हैं तो अलग मान्य क्यों?,
हिस्सा नहीं हैं तो उनके साहित्यकारों को हिंदी का माना जाए या नहीं??
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भारत की सभी बोलियाँ भाषाएँ हिंदी की बहनें हैं. विद्यापति भारत और हिंदी के भी हैं. आपस में फूट डालने का कार्य निंदनीय है. सूर को ब्रज, तुलसी को अवधी, जगनिक और ईसुरी को बुंदेली, चंद बरदाई को राजस्थानी, खुसरो-कबीर को उर्दू का कवि बताकर हिंदी को विपन्न करने की दुर्बुद्धि हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है. हम हिंदीभाषी तो भारत की हर भाषा और बोली के हर रचनाकार को अपनाते हैं. हिंदी महासागर है. होना तो यह चाहिए कि हर भाषा बोली के सामान्य प्रयोग में आनेवाले शब्द हिंदी शब्दकोष में उसी तरह सम्मिलित किये जाएँ जैसे अंग्रेजी विश्व की विविध भाषाओँ के शब्द लेती है. भारत की सब भाषाओँ केबहु उपयोगी शब्दों से समृद्ध हिंदी उन्हें तभी अपनी लगेगी जब हिंदी में वे अपने शब्द भी पायेंगे. आवश्यकता डॉ. प्रभाकर माचवे जैसे बहुभाषा-बोलीविद होने की है. सब एक-दुसरे की बोलीओं में लिखें. साहित्यकार को राजनीति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. सियासत सिया के सत से पूरी तरह दूर है. साहित्यकार शब्द-सेतु बनाकर ही सद्भावना-सेतु बना सकेगा.
२२-६-२०१७
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विमर्श :
हिंदी की शब्द सलिला
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आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है.
इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा।
संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि।
हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला,
हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला,
हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,
अपनी आवश्यकता हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली व्यापक में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
***
गीत
अपने अम्बर का छोर
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
*
हल धर कर
हलधर से, हल ना हुए सवाल
पनघट में
पन घट कर, पैदा करे बवाल
कूद रहे
बेताल, मना वैलेंटाइन
जंगल कटे,
खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल
पजर गयी
अमराई, कोयल झुलस गयी-
नैन पुतरिया
टँगी डाल पर, रोये भोर.…
*
लूट सिया-सत
हाय! सियासत इठलायी
रक्षक पुलिस
हुई भक्षक, शामत आयी
अँधा तौले
न्याय, कोट काला ले-दे
शगुन विचारे
शकुनी, कृष्णा पछतायी
युवा सनसनी
मस्ती मौज मजा चाहें-
आँख लड़ायें
फिरा, न पोछें भीगी कोर....
*
सुर करते हैं
भोग प्रलोभन दे-देकर
असुर भोगते
बल के दम पर दम देकर
संयम खो,
छलकर नर-नारी पतित हुए
पाप छिपायें
दोष और को दे-देकर
मना जान की
खैर, जानकी छली गयी-
चला न आरक्षित
जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर....
*
सरहद पर
सर हद करने आतंक डटा
दल-दल का
दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा
बढ़ी अमीरी
अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी
अंतर में पलता
अंतर, बढ़ नहीं पटा
रमा रमा में
मन, आराम-विराम चहे-
कहे नहीं 'आ
राम' रहा नाहक शोर....
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
२२-६-२०१४
***
सनातन साहित्य : वेद, पुराण स्मृतियाँ
हमारा पारम्परिक सनातन साहित्य विश्व मानवता की अमूल्य धरोहर है. इसकी एक झलका निम्न है। इस में आप भी अपनी जानकारी जोड़िये:
*
वेद हमारे धर्मग्रन्थ हैं । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा – इन चार ऋषियों को एक साथ दिया था । वेद मानवमात्र के लिये हैं ।
वेद चार हैं ----
१. ऋग्वेद – इसमें तिनके से लेकर ब्रह्म – पर्यन्त सब पदार्थो का ज्ञान दिया हुआ है । इसमें १०,५२२ मन्त्र हैं ।
२. यजुर्वेद – इसमें कर्मकाण्ड है । इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है । इसमें १,९७५ मन्त्र हैं ।
३. सामवेद – यह उपासना का वेद है । इसमें १,८७५ मन्त्र हैं ।
४. अथर्ववेद – इसमें मुख्यतः विज्ञान – परक मन्त्र हैं । इसमें ५,९७७ मन्त्र हैं ।
उपवेद – चारों वेदों के चार उपवेद हैं । क्रमशः – आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद ।
वेदांग - ज्योतिष: नेत्र (सौरमंडल, मुहूर्त आदि), निरुक्त, कान: (वैदिक शब्द-व्याख्या आदि), शिक्षा: नासिका ( वेद मंत्र उच्चारण), व्याकरण: मुख (वैदिक शब्दार्थ), कल्प: हाथ (सूत्र / कल्प साहित्य- धर्म सूत्र: वर्ण, आश्रम आदि, श्रोत सूत्र: वृहद यज्ञ विधान, गृह्य सूत्र: लघु यज्ञ विधान, संस्कार, शुल्व सूत्र: वेदी निर्माण), छंद: पैर (काव्य लक्षण, आदि) ।
पुराण - मुख्य १८ ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव, नारदीय, श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, वायु (ब्रम्हांड) । स्कंद पुराण का एक भाग नर्मदापुराण के नाम से प्रकाशित है। सेठ गोविन्ददास ने गांधी पुराण लिखा किन्तु वह इस श्रेणी में नहीं है।
उपनिषद – अब तक प्रकाशित होने वाले उपनिषदों की कुल संख्या २२३ है , परन्तु प्रामाणिक उपनिषद ११ ही हैं । इनके नाम हैं --- ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , माण्डूक्य , तैत्तिरीय , ऐतरेय , छान्दोग्य , बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर ।
ब्राह्मण ग्रन्थ – इनमें वेदों की व्याख्या है । चारों वेदों के प्रमुख ब्राह्मणग्रन्थ ये हैं ---
ऐतरेय , शतपथ , ताण्ड्य और गोपथ ।
दर्शनशास्त्र – आस्तिक दर्शन छह हैं – न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , पूर्वमीमांसा और वेदान्त ।
स्मृतियाँ – स्मृतियों की संख्या ६५ है। मुख्य १८ स्मृतियाँ मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, अंगिरस, यम, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, दक्ष, गौतम, शातातप तथा वशिष्ठ रचित हैं।
इनके अतिरिक्त आरण्यक, विमानशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
२२-६-२०१४
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शनिवार, 7 जून 2025

जून ७, समीक्षा, गीता, कामरूप, सड़गोड़ासनी, श्री श्री, माँ, हरिगीतिका, शारदा, शोकहर, शुभंगी, छंद



गीता हिंदी रूपांतरण
(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६,
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित)
गीता अध्याय ५ : कर्म-सन्यास योग
*
पार्थ- कर''पूर्व सन्यास कर्म हरि!, फिर कह कर्मयोग अच्छा।
अधिक लाभप्रद दोनों में से, एक मुझे कहिए निश्चित''।।१।।
*
हरि- ''सन्यास- कर्म दोनों ही, मुक्ति राह हैं दिखलाते।
किन्तु कर्म सन्यास से अधिक, कर्म योग ही उत्तम है।।२।।
*
जाने वह सदैव सन्यासी, जो न द्वेष या आस करे।
द्विधामुक्त हो बाहुबली! वह, सुख से बंधनमुक्त रहे।।३।।
*
सांख्य-योग को भिन्न बताते, कमज्ञानी विद्वान नहीं।
रहे एक में भी थिर जो वह, दोनों का फल-भोग करे।।४।।
*
जो सांख्य से मिले जगह वही, मिले योग के द्वारा भी।
एक सांख्य को और योग को, जो देखे वह दृष्टि सही।।५।।
*
है सन्यास महाभुजवाले!, दुखमय बिना योग जानो।
योगयुक्त मुनि परमेश्वर को, शीघ्र प्राप्त कर लेता है।।६।।
*
योगयुक्त शुद्धात्मावाले, आत्मजयी इंद्रियजित जो।
सब जीवों में परमब्रह्म को, जान कर्म में नहीं बँधे।।७।।
*
निश्चय ही कुछ किया न करता, ऐसा सोचे सत-ज्ञानी।
देखे, सुन, छू, सूँघ, खा, जा, देखे सपना, साँसें ले।।८।।
*
बात करे, तज दे, स्वीकारे, चक्षु मूँद ले या देखे।
इंद्रिय में इन्द्रियाँ तृप्त हों, इस प्रकार जो सोच रहे।।९।।
*
करे ब्रह्म-अर्पित कार्यों को, तज आसक्ति रहे करता।
हो न लिप्त वह कभी पाप में, कमल पत्र ज्यों जल में हो।।१०।।
*
तन से, मन से, याकि बुद्धि से, या केवल निज इंद्रिय से।
योगी करते कर्म मोह तज, आत्म-शुद्धि के लिए सदा।।११।।
*
युक्त कर्म-परिणाम सभी तज, शांति प्राप्त नैष्ठिक करते।
दूर ईश से भोग कर्म-फल, मोहासक्त बँधे रहते।।१२।।
*
सब कर्मों को मन से तजकर, रहे सुखी संयमी सदा।
नौ द्वारों के पुर में देही, करता न ही कराता।।१३।।
*
कर्तापन को नहिं कर्मों को, लोक हेतु प्रभु सृजित करे।
कर्मफल संयोग न रचते, निज स्वभाव से कार्य करे।।१४।।
*
कभी नहीं स्वीकार किसी का, पाप-पुण्य प्रभु करते हैं।
अज्ञान-ढँके ज्ञान की भाँति, जीव मोहमय रहते हैं।।१५।।
*
ज्ञान से अज्ञान वह सारा, नष्ट जिसका हो चुका हो।
ज्ञान उसका प्रकाशित करता, परमेश्वर परमात्मा को।।१६ ।।
*
उस मति-आत्मा-मन वाले जन, प्रभुनिष्ठा रख आश्रय ले।
जाते अपनी मुक्ति राह पर, ज्ञान मिटा सब कल्मष दे।।१७।।
*
विद्या तथा विनय पाए जन, ब्राह्मण में गौ-हाथी में।
कुत्ते व चांडाल में ज्ञानी, एक समान दृष्टि रखते।।१८।।
*
इस जीवन में सर्गजयी जो, उसका समता में मन रहता।
है निर्दोष ब्रह्म जैसे वे, सदा ब्रह्म में वह रहता।।१९।।
*
नहीं हर्षित सुप्रिय पाकर जो, न विचलित पा अप्रिय को हो।
अचल बुद्धि संशयविहीन वह, ब्रह्म जान उसमें थिर हो।।२०।।
*
बाह्य सुखों से निरासक्त वह, भोगे आत्मा के सुख को।
ब्रह्म-ध्यान कर मिले ब्रह्म में, मिल भोगे असीम सुख वो।।२१।।
*
इंद्रियजन्य भोग दुख के हैं, कारण निश्चय ही सारे।
आदि-अंतयुत हैं कुंतीसुत!, नहीं विवेकी कभी रमे।।२२।।
*
है समर्थ वह तन में सह ले, जो तन तजने के पहले।
काम-क्रोध उत्पन्न वेग को, नर योगी वह सुखी रहे।।२३।।
*
जो अंतर में सुखी; रमणकर अंतर अंतर्ज्योति भरे।
निश्चय ही वह योगी रमता, परमब्रह्म में मुक्ति वरे।।२४।।
*
पाते ब्रह्म-मुक्ति वे ऋषि जो, सब पापों से दूर रहे।
दूर द्वैत से; आत्म-निरत वह, सब जन का कल्याण करे।।२५।।
*
काम- क्रोध से मुक्त पुरुष की, मन पर संयमकर्ता की।
निकट समय में ब्रह्म मुक्ति हो, आत्मज्ञान युत सिद्धों की।।२६।।
*
इंद्रिय विषयों को कर बाहर, चक्षु भौंह के मध्य करे।
प्राण-अपान वायु सम करके, नाक-अभ्यंतर बिचरे।।२७।।
*
संयम इंद्रिय-मन-मति पर कर, योगी मोक्ष परायण हो।
तज इच्छा भय क्रोध सदा जो, निश्चय सदा मुक्त वह हो।।२८।।
*
भोक्ता सारे यज्ञ-तपों का, सब लोकों के देवों का।
उपकारी सब जीवों का, यह जान मुझे वह वरे सदा।।२९।।
***
दोहा-
बंदौं सारद मात खौं, हंस बिराजीं मौन
साँसों में ऐंसी बसीं, ज्यों भोजन में नौन
*
टेक-
ओ बीनावाली सारदा!, बीना दो झनकार
हंसबिराजीं मोरी माता, मंद-मंद मुसकांय
हांत जोर ठाँड़े बिधि-हरि-हर, रमा-उमा सँग आँय
ओ बीनावाली सारदा! डालो दृष्टि उदार
कमल आसनी मोर म'तारी, ध्वनि-अच्छर मा बास
मो पे किरपा करियो मैया!, मम उर करो निवास
ओ बीनावाली सारदा!, बिनती हाँत पसार
तुमनें असुरों की मति फेरी, मोरी बिपदा टारो
भौत घना तम छाओ मैया!, बनकें जोत उबारो
ओ बीनावाली सारदा!, दया-दृष्टि दो डार
***
शारद वंदना
छंद - हरिगीतिका
मापनी - लघु लघु गुरु लघु गुरु
*
माँ शारदे!, माँ तार दे....
कर शारदे! इतनी कृपा, नित छंद का, नव ग्यान दे
रस-भाव का, लय-ताल का, सुर-तान का, अनुमान दे
सपने पले, शुभ मति मिले, गति-यति सधे, मुसकान दे
विपदा मिटे, कलियाँ खिलें,
खुशियाँ मिलें, नव गान दे
६-६-२०२०
***
मतिमान माँ ममतामयी!
द्युतिमान माँ करुणामयी
विधि-विष्णु-हर पर की कृपा
हर जीव ने तुमको जपा
जिह्वा विराजो तारिणी!
अजपा पुनीता फलप्रदा
बन बुद्धि-बल, बल बन बसीं
सब में सदा समतामयी
महनीय माँ, कमनीय माँ
रमणीय माँ, नमनीय माँ
कलकल निनादित कलरवी
सत सुर बसीं श्रवणीय माँ
मननीय माँ कैसे कहूँ
यश अपरिमित रचनामयी
अक्षर तुम्हीं ध्वनि नाद हो
निस्तब्ध शब्द-प्रकाश हो
तुम पीर, तुम संवेदना
तुम प्रीत, हर्ष-हुलास हो
कर जीव हर संजीव दो
रस-तारिका क्षमतामयी
***
मुक्तिका
*
कृपा करो माँ हंसवाहिनी!, करो कृपा
भवसागर में नाव फँसी है, भक्त धँसा
रही घेर माया फंदे में, मातु! बचा
रखो मोह से मुक्त, सृजन की डोर थमा
नहीं हाथ को हाथ सूझता, राह दिखा
उगा सूर्य नव आस जगा, भव त्रास मिटा
रहे शून्य से शू्न्य, सु मन से सुमन मिला
रहा अनकहा सत्य कह सके, काव्य-कथा
दिखा चित्र जो गुप्त, न मन में रहे व्यथा
'सलिल' सत्य नारायण की सच सिरज कथा
७-६-२०२०
***
श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस।
जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास।।
*
हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल।
जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हाल।।
*
धन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष।
काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष।।
*
गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत।
गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत।।
*
जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ।
जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ।।
*
लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल।।
लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल।।
*
गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास।
अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस।।.
*
गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार।
गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार।।
*
मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव।
मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव।।
*
वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य।
दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य।।
*
नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार।
उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार।।
*
है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश।
डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश।।
*
शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ।
गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ।।
*
बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन।
गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन।।
*
सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ।
लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ।।
७.६.२०१८
***
सड़गोड़ासनी 3
श्री श्री आइए
*
श्री श्री आइए मन-द्वारे,
चित पल-पल मनुहारे।
सब जग को देते प्रकाश नित,
हर लेते अँधियारे।
मृदु मुसकान अधर की शोभा,
मीठा वचन उचारे।
नयनों में है नेह-नर्मदा,
नहा-नहा तर जा रे!
मेघ घटा सम छाओ-बरसो,
चातक प्राण पुकारे।
अंतर्मन निर्मल करते प्रभु,
जै-जैकार गुँजा रे।
श्री-चरणों की रज पाना तो,
खुद को धरा बना रे।
कल खोकर कल सम है जीवन,
व्याकुल पार लगा रे।
लोभ मोह माया तृष्णा तज
गुरु का पथ अपना रे!
श्री-वचनों का अमिय पानकर
जीवन सफल बना रे!
६.६.२०१८ 
***
मुक्तक:
*
मुक्त मन से रचें मुक्तक, बंधनों को भूलिए भी.
विषधरों की फ़िक्र तजकर, चंदनों को चूमिये भी.
बन सकें संजीव मन में, देह ले मिथिलेश जैसी-
राम का सत्कार करिए, सँग दशरथ झूमिये भी.
*
ज्ञान-कर्मेन्द्रिय सुदशरथ, जनक मन को संयमित रख.
लख न कोशिश-माथ हो नत, लखन को अविजित सदा लख.
भरत भय से विरत हो, कर शत्रु का हन शत्रुहन हो-
जानकी ही राम की है जान, रावण याद सच रख.
७-६-२०१८
***
समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
***
***
एक रचना-
*
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
मर्ज कर्ज का बढ़ाकर
करें नहीं उपचार.
उत्पादक को भिखारी
बना करें सत्कार.
गोली मारें फिर कहें
अन्यों का है काम.
लोकतंत्र का हो रहा
पल-पल काम तमाम.
दे सर्प-दंश
रोग का
उपचार कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
व्यापम हुआ गवाह रहे
हैं नहीं बाकी.
सत्ता-सुरा सुरूर चढ़ा,
गुंडई साकी.
खाकी बनी चेरी कुचलती
आम जन को नित्य.
झूठ को जनप्रतिनिधि ही
कह रहे हैं सत्य.
बाजीगरी ही
आंकड़ों की
आप कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
कर-वृद्धि से टूटी कमर
कर न सके कर.
बैंकों की दे उधार,गड़ी
जमीन पे नजर.
पैदा करो, न दाम पा
सूली पे जा चढ़ो.
माला खरीदो, चित्र अपना
आप ही मढ़ो.
टूटे न नींद,
हो न खलल
ज़हर पीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
७-६-२०१७
***
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है , कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित , निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा , हरी पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो , हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
*********
७-६-२०१४
***
कामरूप छंद
*
लक्षण छंद:
कामरूप छंद , दे आनंद , रचकर खुश रहिए
मुँहदेखी नहीं , बात हमेशा , खरी-खरी कहिए
नौ निधि सात सुर , दस दिशाएँ , कीर्ति गाथा कहें
अंत में अंतर , भुला लघु-गुरु , तज- रिक्त कर रहें
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. गले लग जाओ , प्रिये! आओ , करो पूरी चाह
गीत मिल गाओ , प्रिये! आओ , मिटे सारी दाह
दूरियाँ कम कर , मुस्कुराओ , छिप भरो मत आह
मन मिले मन से , खिलखिलाओ , करें मिलकर वाह
२. चलें विद्यालय , पढ़ें-लिख-सुन , गुनें रहकर साथ
करें जुटकर श्रम , रखें ऊँचा , हमेशा निज माथ
रोप पौधे कुछ , सींच हर दिन , करें भू को हरा
प्रदूषण हो कम , हँसे जीवन / हर मनुज हो खरा
३. ईमान की हो , फिर प्रतिष्ठा , प्रयासों की जीत
दुश्मनों की हो , पराजय ही / विजय पायें मीत
आतंक हो अब , खत्म नारी , पा सके सम्मान
मुनाफाखोरी , न रिश्वत हो , जी सके इंसान
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
७-६-२०१४
***
अंतरजाल पर पहली बार :
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
 *
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
शांति दग्ध उर को मिली.
मुरझाई कलिका खिली.
शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
'हे माँ! सब पर दया कर...
*
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
७-६-२०१०
***
एक रचना
*
कथा-गीत:
मैं बूढा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारों.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढा बरगद हूँ यारों..
***
बाल कविता :
तुहिना-दादी
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
***
७-६-२०१०