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गुरुवार, 22 जून 2017

samiksha

पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार 
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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 [पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
                   अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और  मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है।  विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी  ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।     
                   इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। 
                   गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है। 
                   कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश
रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
                   निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी। 
                   भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते  / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई। 
                   राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
                   'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने।  प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख  प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
                   'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के /  आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
                   'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा  'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
                  'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
                   डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
                  'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
                  'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों  के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
                  'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें ....  पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
                  डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
                  'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
                  शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
                  हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
                  'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
                  'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
                  'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
                  सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े  रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं।  'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
                  ''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
                  संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
                  'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
                    संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा  चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
                  कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं  ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें  / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
                  'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।
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बुधवार, 21 जून 2017

hindi chhand kosh

हिंदी छंद कोष
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आपने हिंदी का शब्द कोश, मुहावरा कोश, लोकोक्ति कोश देखा होगा. मेरी जानकारी में अब तह हिंदी का छंद कोश प्रकाशित नहीं हुआ है। कृपया अपना मत दें
१. क्या हिंदी के छंद कोष की आवश्यकता है?
२. अपने मत का कारण बताएं।
३. छंद कोष में क्या-क्या जानकारी होनी चाहिए?
४. क्या हिंदी के छंदों के साथ लोक गीतों और लोक भाषाओँ के छंद भी दिए जाना चाहिए?
५. क्या हिंदी में लिखे जा रहे हिंदीतर भाषाओँ के छंद भी सम्मिलित किए जाएँ?
६. छंद कोष की पृष्ठ संख्या और कीमत क्या हो?
७. क्या आप छंद कोष की प्रति अग्रिम आरक्षित करना चाहते हैं?
८. छंद कोष में कौन-कौन से अध्याय होने चाहिए?
९. क्या आप अपने नगर में छंद कोष पर कार्यशाला का आयोजन करने का दायित्व लेंगे?
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उत्तरापक्षी: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
९४२५१ ८३२४४
salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 19 जून 2017

shuddhdhvani chhand

२४ जून १५६४ महारानी दुर्गावती शहादत दिवस पर विशेष रचना

















छंद सलिला: ​​​शुद्ध ध्वनि छंद
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १८-८-८-६, पदांत गुरु

लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
.
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''

सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ

वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला

सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा

हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें

रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना

बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा

भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है

बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने

नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
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टिप्पणी: कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

बुधवार, 14 जून 2017

muktak

चंद मुक्तक
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कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न  माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी  स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आयी ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पायें एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिये नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिये नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

doha muktika

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

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doha

दोहा सलिला

आम खास का खास है......

संजीव 'सलिल'

*

आम खास का खास है, खास आम का आम.

'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..

आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.

आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..

पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.

चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..

दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.

अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..

छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .

पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..

लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.

सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..

चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.

'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..

तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.

चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..

हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.

अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..

लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.

बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..

आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.

चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..

'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.

उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..

चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.

सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..

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१४-६-२०११ 

muktak

मुक्तक
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती 
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती 
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम 
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती 
*

baal geet

बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***

geet

अतिथि रचना
'कौन संकेत देता रहा'
कुसुम वीर
*
भोर में साथ उषा के जागा रवि, साँझ आभा सिन्दूरी लिए थी खड़ी 
कौन संकेत देता रहा रश्मि को, रास धरती से मिलकर रचाती रही
पलता अंकुर धरा की मृदुल कोख में, पल्लवित हो सृजन जग का करता रहा
गोधूलि के कण को समेटे शशि,चाँदनी संग नभ में विचरता रहा
सागर से लेकर उड़ा वाष्पकण, बन कर बादल बरसता-गरजता रहा
मेघ की ओट से झाँकती दामिनी, धरती मन प्रांगण को भिगोता रहा
उत्तालित लहर भाव के वेग में तट के आगोश से थी लिपटती रही
तरंगों की ताल पे नाचे सदा, सागर के संग-संग थिरकती रही
स्मित चाँदनी की बिखरती रही, आसमां' को उजाले में भरती रही
कौन संकेत देता रहा रात भर, सूनी गलियों की टोह वो लेती रही
पुष्प गुञ्जों में यौवन सरसता रहा, रंग वासन्त उनमें छिटकता रहा
कौन पाँखुर को करता सुवासित यहाँ, भ्रमर आ कर मकरन्द पीता रहा
झड़ने लगे शुष्क थे पात जो, नई कोंपल ने ताका ठूँठी डाल को
​शाख एक-दूजे से पूछने तब लगी, क्या जीवन का अंतिम प्रहर है यही
साँसों के चक्र में ज़िंदगी फिर रही, मौत के साये में उम्र भी घट रही
कब किसने सुना वक़्त की थाप को, रेत मुट्ठी से हर दम फिसलती रही
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सोमवार, 12 जून 2017

hasya kavita

एक रचना 
ठेंगा
*
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता 
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता? 
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया उमा सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
नहीं किसी से एक सम्हलती, चार-चार को विहँस सम्हाले
ठेंगे का पुरुषार्थ गज़ब है, चारों हो हँस साथ दबा ले
'ही' हो या 'शी' रूप न बदले ठेंगा कभी न ठेंगी होता
है समाजवादी पक्का यह, कभी ना अपना धीरज खोता
बाप-चचा रह गए देखते, पूत-भतीजे के ठेंगे को
पंजे ने पंचर की सैकिल, सैकिल ने पटका पंजे को
 अन्शंबाज मुख्यमंत्री ने कृषकों को ठेंगा दिखलाया
आश्वासन से करी आरती, नव वादों का भोग लगाया
 ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
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शुक्रवार, 9 जून 2017

भोपाल प्रवास.

भोपाल प्रवास :
मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के साहित्यिक अनुष्ठान 'गीत प्रसंग' में सहभागी होने आज रात्रि जबलपुर से भोपाल प्रस्थान, वापिसी रविवार शाम जन शताब्दी एक्सप्रेस से. मैं हॉटल रेसीडेंसी, महाराणा प्रताप नगर में ठहरूँगा. संपर्क ९४२५१८३२४४. कार्यक्रम स्थल: मायाराम सुरजन स्मृति भवन, पी. एंड टी. चौराहा, शास्त्री नगर भोपाल, संध्या ४ बजे से.