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शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

लघुकथा संबंधी जानकारी -
कृपया, अपने नगर के लघुकथाकारों के नाम और चलभाष/दूरभाष नीचे टिप्पणी में प्रस्तुत करें। आपके पास जो लघुकथा संकलन हों उनकी जानकारी निम्न क्रम में दें- पुस्तक का नाम,लघुकथाकार का नाम, ISBN क्रमांक, आवरण सजिल्द / पेपरबैक, बहुरंगी / एकरंगी / दोरंगी, आकार, पृष्ठ संख्या, मूल्य, प्रकाशक का नाम पता, लघुकथाकार का नाम- पता, चलभाष, ई मेल। यह जानकारी शोध छात्रों के लिए उपयोगी होगी।
जिलेवार लघुकथाकार-
जबलपुर
०१. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, २. अशोक श्रीवास्तव 'सिफर' ९४२५१६४८९६, ३. कुँवर प्रेमिल ९३०१८२२७८२, ३. प्रदीप शशांक ९४२५८६०५४०, ४. धीरेन्द्र बाबू खरे ९४२५८६७६८४, ५. सुरेश तन्मय ९८९३२६६०१४, १५. रमेश सैनी, ६. रमाकांत ताम्रकार, ७. ओमप्रकाश बजाज, ८. सनातन कुमार बाजपेयी ९०७४३ ६४५१५, ९. १०. गीता गीत,

विजय किसलय, १०. दिनेश नंदन तिवारी, ११. १२. गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, १३ सुरेंद्र सिंह सेंगर, १४. विजय बजाज, १६. प्रभात दुबे, १७. पवन जैन, १८. नीता कसार, १९. मधु जैन, २० शशि कला सेन, २१. प्रकाश चंद्र जैन, २२. अनुराधा गर्ग, २३. सुनीता मिश्र, २४. आशा भाटी, २५. राकेश भ्रमर, २६. २८ छाया त्रिवेदी, २९.रामप्रसाद अटल, ३०.अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे, ३१. अर्चना मलैया, ३२ बिल्लोरे, ३३. अरुण यादव, ३४. आशा वर्मा, ३५, मिथलेश बड़गैयां, ३६. सुरेंद्र सिंह पवार, ३७. मनोज शुक्ल, ३८ आचार्य भगवत दुबे, ३९. गार्गीशरण मिश्र ४०. विनीता श्रीवास्तव, ४१. डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे, ४२. राजेश पाठक प्रवीण,
***
लघुकथा साहित्य -
१९८६-
१. नेताजी की वापसी, बलराम, जयश्री प्रकाशन दिल्ली, क्राउन आकार, सजिल्द, पृष्ठ १०३, ६ व्यंग्य, ११ लघुकथाएँ, १४ छोटी कहानियाँ।
२.
२००४
१. गद्य सप्तक २, उमाशंकर मिश्र (सं), सजिल्द, बहुरंगी, २१.७ से. मी. x १३.७ से. मी., पृष्ठ १४३, मूल्य १५०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ११ बी १३६ नेहरू नगर गाज़ियाबाद।
२.
२०१२-
१. पहचान, राधेश्याम पाठक, आवरण पेपरबैक , बहुरंगी, २१.५ से.मी. x १४.० से.मी., पृष्ठ १०८, मूलतः १५०/-, शब्दप्रवाह साहित्य मंच ए ९९ व्ही. डी. मार्केट उज्जैन ४५६००६ प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क औदुम्बर भवन एल आई जी ११-१४ सांदीपनि नगर उज्जैन ४५६००६, ९८२६८१६६१९।
२. निर्वाचित लघुकथाएं, अशोक भैया (सं), तृतीय संस्करण (प्रथम २००५, द्वितीय २००६), ISBN ८१-८२३५-०३१-x, पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ २५५, १०५/-, साहित्य उपक्रम प्रकाशन, ९६५४७३२१७४, संपादक संपर्क १८८२ सेक्टर ३ अर्बन एस्टेट करनाल १३२००१। ३. आधुनिक हिंदी लघुकथाएं, त्रिलोक सिंह ठकुरेला (सं),सजिल्द बहुरंगी, २२.५ से. मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, १५०/-, अरिहंत प्रकाशन राजू साड़ी के ऊपर, सोजती गेट जोधपुर, ०२९१२६५७५३०, संपादक संपर्क ९९ रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबूरोड ३०७०२६, ९४६०७१४२६७, ०२९७४२२१४२२ ।
२०१३-
मुखौटों के पार, मो. मोईनुद्दीन अतहर, अयन प्रकाशन दिल्ली, isbn ९७८-७४०८-६५२-५, पृष्ठ ९६, मूल्य २००/- सजिल्द
- पत्रिका लघुकथा अभिव्यक्ति, संपादक मोहम्मद मोईनुद्दीन अतहर (अब स्वर्गीय), प्रकाशन बन्द,२००४ से २०१६ तक छपी।
२०१६-
१. हरियाणा से लघुकथाएँ : अशोक भाटिया (सं.), २. मधुदीप की ६६ लघुकथाएँ: उमेश महादोषी, ३. भगीरथ की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप, ४. बलराम अग्रवाल की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-१६-४, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २०८, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ५. सतीश दुबे की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ६. कमल चोपड़ा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-२०-१, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २७२, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ७. अशोक भाटिया की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ८. सतीशराज पुष्करणा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ९. मधुकान्त की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), १०. चलें नीड़ की ओर: कान्ता राय (सं.), ११. बूँद बूँद सागर: जितेन्द्र जीतू, नीरज सुधांशु (सं.), १२. समसामयिक लघुकथाएँ, सं. त्रिलोकसिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN ९७८-९३-८५५९३-८९-५, प्रकाशन राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृष्ठ १४४, मूल्य २००/- ११ लघुकथाकारों की ११ रचनाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय, १३. आँखों देखी लघुकथा: विकास मिश्र (सं.), १४. लघुकथा अनवरत: सुकेश साहनी-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (सं.), १५. आदिम पुराकथाएँ (पुराकथा संकलन) वसन्त निरगुणे (सं.), १६. ज़ख्म,१५ संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६, १७. अंदर एक समंदर, लघु कथा संग्रह, डॉ. सुरेश तन्मय, सजिल्द १०४ पृष्ठ, २२०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नयी दिल्ली, १८. एक पेग जिंदगी, पूनम डोगरा, लघुकथा संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-८६८१०-५१-X, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १३८, मूल्य२८०/-, समय साक्ष्य प्रकाशन १५, फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, दूरभाष ०१३५ २६५८८९४, १९. बड़ा भिखारी, रमेश मनोहरा, ISBN ९७८-८१-७४०८-८८८-८ आवरण,सजिल्द, बहुरंगी, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क शीतला गली, जावरा रतलाम ४५७२२६, ९७५२९३१४८१, २०. अनसुलझा प्रश्न, किशन लाल शर्मा, आवरण सजिल्द रंगीन, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य २२०, अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क १०३ रामस्वरूप कॉलोनी आगरा २८२०१०, ९७६०६१७००१। २१. आँखों देखी, विकास मिश्र (सं), पेपरबैक, ISBN १३-९७८-९३-८५१४६-३७-४ बहुरंगी, २०.५ से. मी. x १३.५ से.मी., पृष्ठ ८८, मूल्य १२०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ६९५ न्यू कोटगांव, जी.टी.रोड गाज़ियाबाद २०१००८, ९८१८२४९९०२, २२. पथ का चुनाव, कांता रॉय, १३८ कहानियाँ, पृष्ठ १६५, ३९५/-,आकार २२.५ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली,
*

chhand-bahar 3

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम 
करें दुश्मनों को ख़तम 
*
न पीछे हटेंगे कदम 
न आगे बढ़ेंगे सितम 
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक 
सदाचार, धर्मो-करम 
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
***

muktak / muktika

मुक्तक
जी से लगाया है जी ने जो जी को
जी में बसाया है जी ने भी जी को
जीना न आया, जीना गए चढ़
जी ना ना जी के बिना आज जी को
*
मुक्तिका 
*
पहले कहते हैं आभार 
फिर भारी कह रहे उतार 
*
सबसे आगे हुए खड़े
कहते दिखती नहीं कतार
*
फट-फट कार चलाती वे
जो खुद को कहतीं बेकार
*
सर पर कार न धरते क्यों
जो कहते खुद को सरकार?
*
असरदार से शिकवा क्यों?
अ सरदार है गर सरदार
*
छोड़ न पाते हैं घर-द्वार
कहते जाना है हरि-द्वार
*
'मिथ' का 'लेश' नहीं पाया
जब मिथलेश हुई साकार
***

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो 
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है 
तुम्हारा रहेगा 
तुम्हारे बिना ना 
हमारा रहेगा 
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
***




बुधवार, 16 नवंबर 2016

chhnd bahar dou ek hain

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं १
*
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
इस लय पर रचनाओं (मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि) का स्वागत है।

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

भाषा गीत

हिंदी वंदना 
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की 
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की 
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम 
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की 
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू 
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली 
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली, 
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, 
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम 
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी 
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी, 
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका, 
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़ 
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़ 
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर 
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़ 
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम 
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम 
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम 
**** 
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।

गीत

समस्यापूर्ति 
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर 
गीत रचो पंछियों पर 
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*

सोमवार, 14 नवंबर 2016

baal geet

बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***

रविवार, 13 नवंबर 2016

geet

एक रचना
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

navgeet

देव उठानी एकादशी पर नव गीत सोये बहुत देव अब जागो * सोये बहुत देव! अब जागो... तम ने निगला है उजास को। गम ने मारा है हुलास को। बाधाएँ छलती प्रयास को। कोशिश को जी भर अनुरागो... रवि-शशि को छलती है संध्या। अधरा धरा न हो हरि! वन्ध्या। बहुत झुका अब झुके न विन्ध्या। ऋषि अगस्त दक्षिण मत भागो... पलता दीपक तले अँधेरा । हो निशांत फ़िर नया सवेरा। टूटे स्वप्न न मिटे बसेरा। कथनी-करनी संग-संग पागो... **************

doha , muktak

दोहा दुनिया 
दिन-दिन बेहतर हो सृजन, धीरज है अनिवार्य
सधते-सधते ही सधें, जीवन में सब कार्य *
तन मिथिला मिथलेश मन, बिंब सिया सुकुमार राम कथ्य संजीव हो, भाव करे भाव-पार *
काव्य-कामिनी-कांति को, कवि निरखे हो मुग्ध
श्यामल दिलवाले भ्रमर, हुए द्वेष से दग्ध 
*
कमी न हो यदि शब्द की, तो भी खर्चें सोच 
दृढ़ता का मतलब नहीं, गँवा दीजिए लोच 
*
शब्द-शब्द में निहित हो, शुभ-सार्थक संदेश


मुक्तक 
*
जय शारदा मनाऊँ आपको?
छंद-प्रसाद चढ़ाऊँ आपको 
करूँ कल्पना, मिले प्रेरणा 
नयनारती सुनाऊँ आपको।।

*
बाल मुक्तक
जगा रही आ सुबह चिरैया
फुदक-फुदक कर ता-ता-थैया
नहला, करा कलेवा भेजे 
सदा समय पर शाला मैया
*
मुक्तक 
मुक्त हुआ मन बंधन  तजकर मुक्त हुआ 
युक्त हुआ मन छंदों से संयुक्त हुआ 
दूर-दूर तन रहे, न देखा नयनों ने 
धन्य हुआ मैं हिंदी हेतु प्रयुक्त हुआ 
*
सपने में भी फेसबुक दिखती सारी रात 
चलो, कार्य शाला चलो नाहक करो न बात 
इसको मुक्तक सीखना, उसे पूछना छंद 
मात्रा गिनते जागकर ज्यों निशिचर की जात
*
षट्पदी 
*
नत मस्तक है है हर कवि लेता बिम्ब उधार 
बिना कल्पना कब हुआ कवियों का उद्धार?
कवियों का उद्धार, कल्पना पार लगाती 
जिससे हो नाराज उसे ठेंगा दिखलाती
रहे 'सलिल' पर सदय, तभी कविता दे दस्तक
धन्य कल्पना होता है हर कवि नतमस्तक
*

navgeet

देव उठनी एकादशी (गन्ना ग्यारस) पर नवगीत:
* देव सोये तो सोये रहें हम मानव जागेंगे राक्षस अति संचय करते हैं दानव अमन-शांति हरते हैं असुर क्रूर कोलाहल करते दनुज निबल की जां हरते हैं अनाचार का शीश पकड़ हम मानव काटेंगे भोग-विलास देवता करते बिन श्रम सुर हर सुविधा वरते ईश्वर पाप गैर सर धरते प्रभु अधिकार और का हरते हर अधिकार विशेष चीन हम मानव वारेंगे मेहनत अपना दीन-धर्म है सच्चा साथी सिर्फ कर्म है धर्म-मर्म संकोच-शर्म है पीड़ित के आँसू पोछेंगे मिलकर तारेंगे

शनिवार, 5 नवंबर 2016

samiksha

पुस्तक सलिला –
‘मुक्ति और अन्य कहानियाँ’ सामाजिक जुड़ाव की विरासत 

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मुक्ति और अन्य कहानियाँ, राजेंद्र वर्मा, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN ९७८-८१-७७७९-४६२-५, आकार २१ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य १००/-, साहित्य भंडार प्रकाशन, ५० चाहचन्द, जीरो रोड इलाहबाद २११००३, दूरभाष ०५३२२४००७८७, २४०२०७२, कहानीकार सम्पर्क ३/२९ विकास नगर, लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६rajendrapverma]

*
               शहरे-लखनऊ की तासीर में नजाकत-नफासत और बगावत इन्द्रधनुष के रंगों की तरह घुली हुई है. अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा और यशपाल जैसे कालजयी रचनाकारों की धरती पर चलनेवाली कलमें सामाजिकता की विरासत को हर विधा में रोपती रहें यह स्वाभाविक है. अपनी तरुणाई में नागर जी के सीधे संपर्क में आये भाई राजेंद्र वर्मा को नागर जी की अमर रचना ‘नाच्यों बहुत गुपाल’ सुनकर उसकी पांडुलिपि का लेखन करने का सौभाग्य मिला. ‘कम लिखो, अच्छा लिखो, जो लिखो सच्चा लिखो’ के पक्षधर राजेन्द्र, प्रेमचंद और उक्त त्रिमूर्ति के कथा साहित्य को पढ़कर ‘कहानी’ के आशिक बने लेकिन गत ३४ साल में १७ कहानियाँ लिखने का पराक्रम कर संतुष्ट इसलिए हैं कि व्यंग्य लेख, नवगीत, कवितायेँ, हाइकु आदि अनेक विधाओं में जी भरकर लिखा, छपे और चर्चित हुए. अविरल मंथन के संपादक के रूप में इन विधाओं के सारगर्भित विशेषांक निकालने की प्रक्रिया ने उन्हें बहुविधाविद बना दिया. सीखना-सिखाना उनका शौक ही नहीं व्यसन भी है. समाज के शोषित-दलित वर्ग के दर्द को समझने-कहने को लेखन का ध्येय और धर्म माननेवाली जिजीविषा के लिए कलम शस्त्र और शास्त्र दोनों होती है.
               ‘मुक्ति’ कहानी में गाँव-गाँव, गली-गली, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँच चुके जहरीली राजनीति के दंश से नष्ट होते संबंधों का जीवंत शब्दांकन है. ‘कल्पवास’ में बैंक में नौकरी की आस में जिस-तिसकी बेदाम गुलामी करते हंसा की व्यथा-कथा मर्मस्पर्शी है. ‘नौकरी चीज ही ऐसी होती है, शुरु में स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने पर कष्ट होता है लेकिन कष्ट के बदले जब हर महीने बँधी-बँधाई रकम मिलने लगती है तो स्वाभिमान को तिल-तिल मारना तथा दूसरों का शोषण करना जीवन का अभीष्ट बना जाता है. कैसी विडंबना है- लक्ष्मी ही हमसे मनुष्यता छिनती है, फिर भी हम लक्ष्मी की कृपा पाने को क्या-क्या नहीं करते?’ इस सत्य को हर नौकरीपेश व्यक्ति जब-तब जीता ही है.’ 
               अभिभावक अपने अधूरे सपने अपनी संतान द्वारा पूरे किये जाते देखना चाहें यह तो ठीक है किन्तु इन सपनों का बोझ उठाने में अशक्त हुए कंधे टूट ही न जाएँ इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है, अन्यथा त्रासदी होते देर नहीं लगती. ‘सॉरी पापा’ कहानी इसी पर केन्द्रित है. कांस्टेबल रंजीत अपने बेटे अमित को कस्बे से शहर, हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में भेजता है जहाँ अमित कभी उपहास, कभी गलत संगत, कभी बीमारी का शिकार होता है. माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने पर अंतत: आत्महत्या कर लेता है. 
               कहानी ‘क्षमा’ शहरीकरण के दबाव में दम तोड़ते पारिवारिक रिश्तों पर केन्द्रित है. नायक सुरेन्द्र और उसका छोटा भाई भिन्न शिक्षा, रूचि और नौकरी के चलते अपने और परिवारों के बीच समन्वय नहीं बैठा पाते, फलत: उनके पति-बच्चे और माता-पिता भी बिखरकर रह जाते हैं. ’पूत’ कहानी का शनिचरा जन्म के पूर्व पिता और जन्म के समय माँ को खो चुकता है. गाँव की स्त्रियाँ उसे पाल-पोस बड़ा करती है. अपने आश्रयदाता के पुत्र सजीवन को कुसंगति से बचाने के प्रयास में शनिचरा मारा जाता है. ग्रामीण समाज के पारंपरिक मूल्यों पर आधारित यह कहानी आँखें गीली करने की सामर्थ्य रखती है. 
               ‘दंश’ एक युवा विधवा करीमन को शराफत का दिखावा करते हबीब मियाँ द्वारा छले जाने और अपने बेटे के लिए लौटकर जीवन संघर्ष करने की कहानी है. विडम्बना यह कि वह अपने बच्चे के सवालों का जवाब भी नहीं दे पाती. ‘काँटा’ कहानी में अपने मामा के आश्रय में पलती अनाथ नासमझ रनिया मामा के भाई और अन्यों की हवस का शिकार हो जाती है. विवाह किये जाने पर ३ माह के गर्भ का पता लगते ही ससुराल से निकाल दी जाती है. प्रसव पश्चात् बच्चे के न रहने पर पुन: पति के पास लौटती है. ‘बेबसी’ साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित कहानी है. साम्प्रदायिकता और राजनीति के अंतर्संबंध को कहानीकार ने बेलाग तरीके से उद्घाटित किया है. ‘रौशनीवाला’ दो बाल मित्रों की कहानी है. होशियार कन्हैया दूसरा औसत. कमजोर अजय की मदद करता है. समय का फेर कन्हैया जिस बरात में रौशनी उठाता है वह संपन्न व्यापारी हो चुके अजय की है. मित्र से मिले या न मिले की उहापोह में फंसा कन्हैया बारातियों द्वारा धकिया कर निकल दिया जाता है. सवेरे अपनी पत्नी को मायके भेजकर लौटते समय कन्हैया की साइकिल से एक कार टकरा जाती है. ड्राइवर से गुत्थमगुत्था कन्हैया को पहचान अजय उसे अपनी पत्नी से मिलवाता है. सच्ची मित्रता अमीरी-गरीबी से परे होती है का संदेश देती है यह कहानी. 
               विधुर पिता के सेवानिवृत्त होने पर उसके जमाधन और पेंशन पर नजर गड़ाए पुत्रों-पुत्रवधुओं को समेटे है कहानी ‘नवारम्भ’. संपन्न बेटे-बहू धन लेकर वापिस करने की नियत नहीं रखते. अपनी उपेक्षा से खिन्न वृद्ध पिता मकान पर ऋण लेकर वृद्धाश्रम चले जाते हैं और अपने मित्र के साथ मिलकर अपनी साहित्यिक रूचि के अनुकूल पत्रिका प्रकशन और पुस्तक लेखन में व्यस्त हो जाते हैं. मकान पर कर्ज़ का पता चलने पर बीटा-बहु उभें ले जाने आते हैं पर पिता अपने कार्य में निमग्न मुस्कुराते हैं. यह कहानी स्वार्थी संतानों पर तीखा व्यंग्य है. सूरज उगता है शहरी चमक-दमक में निहित भ्रष्टाचार और ग्रामीण जीवन की सरलता के परिप्रेक्ष्य में संदेश देती है कि गाँव के शिक्षित नवयुवक शासकीय योजनाओं का लाभ लेकर ग्रामोन्नयन करें. ‘मोहनदास’ अपना समस्त धन विद्यालय निर्माण में लगा देते हैं. उनके अनुसार जिसे खुद पर विश्वास नहीं होता वही देवी-देवताओं का आश्रय गहता है. कर्मवाद का संदेश देती है यह कहानी. ‘श्रद्धांजलि’ कहानी संबंधों के पीछे छिपी धन लोलुपता की प्रवृत्ति पर प्रहार करती है. 
               संस्मरणात्मक व्यंग्यकथा ‘राम नगरिया’ में राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार यत्र-तत्र मीठी चुटकियाँ लेता है. ‘कल्पवास के अलग-अलग कारण हैं. पापी लोग पाप धोने के लिए कल्पवास करते हैं तो कामी लोग अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए. गंगा मैया हर डुबकी लगनेवाले का काम करती हैं.पापियों के पाप धो देती हैं और उनका लोक-परलोक सुधारकर स्वर्ग में रिजर्वेशन करा देती हैं. बच्चे न होनेवाली महिलाओं के बच्चे होना शुरू हो जाते हैं. नौकरी न मिलनेवाले बेटे का पिता जब कल्पवास करता है तो सरकार तुरंत ही एक नौकरी की व्यवस्था कर देती है, रुके हुए विवाह फटाफट तय हो जाते हैं, धेज्लोभु श्वसुर बाहें जलाने के बावजूद जेल जाने से बच जाते हैं...’ 
               राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार ‘सीनियर सिटिजन कवि’ में और उभर कर सामने आता है.वे भ्रष्टाचार पर प्रहार कर साहित्यिक जगत में हो रहे कदाचार पर चुटकियाँ लेते है- ‘इंटरनेट के ज़माने में कविता हर किसी की लुगाई है. गद्य-कविता ने जब से अँगड़ाई ली है, प्रत्येक हिंदी साहित्य का प्रत्येक स्नातक उसका आशिक हो गया. परास्नातक तो विशेषज्ञ है. पी.एच-डी.वाला कवि-अलिच्क दोनों है. स्नातक की बेरोजगारी जब पहली वर्ष्गांठ मानती है तो किसी-न-किसी कविता का जन्म अवश्य होता है.’ 
               ‘मोनालिसा की मुस्कान’ में राजेंद्र जी ने संपादक-काल के मजेदार अनुभवों को इस्तेमाल किया है. जगह-जगह उनका प्रखर व्यंग्यकार मुखर हो उठता है. ‘...जल्दी ही सीख मिली कि हिंदी का बड़ा साहित्यकार बनने के लिए अंग्रेजी के कम से कम दो अखबार पढ़ना जरूरी है...’, ‘मुझे एक बात बहुत परेशान कर रही थी कि इतना बड़ा साहित्यकार जो बाल-शोषण और नारी-शोषण के विरुद्ध प्रगतिशील साहित्य लिख रहा है वह भला बाल-नौकर क्यों रखेगा? मैं उनके बाल-नौकर रखने पर मन-ही-मन नाराजगी जता ही रहा था कि शीघ्र ही मेरी धारणा टूटी. उनहोंने स्वयं ही बताया कि यह लड़का उनका भतीजा है. एक एक्सीडेंट में अनाथ हो गया है...’, ‘गद्य कविता मुझे बोर करती है और खास तौर पर वह जो अमिधा में लिखी गयी हो. कारण वह सीधे-सीधे समझ में आ जाती है और कवि की कलई खोल देती है, पाठकको तत्काल निराश कर देती है, हाँ, उसमें बिम्बों की जटिलता, प्रतीकों की असाध्यता अथवा अर्थ की दुरूहता हो तो सर खपाने में ‘टाइम-पास’ हो जाता है. अर्थ खोलने के लिए कविता को आलोचक की दरकार होती है. अब चाहे अर्थ खुलना हो या अनर्थ, क्या हर कविता को आलोचक मिल सकता है? अगर मिल ही जाए, तो क्या पाठक कविता को समझने के लिए तब तक इंतजार करे जब तक कि आलोचक महोदय की मेहरबानी न हो जाए.’ ऐसे सवाल उठाना और पाठक को सोचने-समझने के लिए प्रेरित करना राजेंद्र जी की कहानी-कला का वैशिष्ट्य है. इससे उनकी कहानी पाठक के मस्तिष्क में पढ़ने के बाद भी लंबे समय तक उपस्थित रहती है. 
               संग्रह की अंतिम कहानी’ लक्ष्मी से अनबन’ में उनकी सोच विचित्र किन्तु सत्य न होकर सत्य किन्तु शोचनीय है. ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे... जहाँ लक्ष्मी की पूजा होगी वहाँ भ्रष्टाचार अपने आप पूज जायेगा, आप पूजें या न पूजें.’ 
‘नए नए प्रयोगों के कारण आज कहानी का जो शिल्प विकसित हुआ है, वह विविधवर्णी है. प्रत्येक वर्ण का अपना आकर्षण है. वह चाहे नैरेटिव (वर्णनात्मक)हो, डायरी, पत्र या संवाद शैली में हो– उसमें अलग प्रकार की कला की प्रतिष्ठा हुई है.” राजेंद्र जी यह कहते ही नहीं हैं अपितु अपनी हर कहानी में शैल्पिक नवता को अपनाते भी हैं. 
               कहानीकार की वैचारिक प्रतिबद्धता कहानियों में व्यक्त होना स्वाभाविक है.धर्मिक-पाखंड पर प्रहार करते हुए वे ठीक ही कहते हैं- “इस पूजा से क्या होंगा? यह तो सारी दुनिया करती है. तो क्या लक्ष्मी सारी दुनिया को धनवान बना दें?” अपंगों के प्रति उपहास और तिरस्कार की सामाजिक प्रवृत्ति पर ‘मुक्ति’ कहानी में सार्थक और सटीक तंज किया गया है. राजेंद्र जी का कहानी लेखन न तो सतही है, न वे भावनाओं को उभाड़ते हैं. वे पत्रों के चरित्र चित्रण और घटनाओं के क्रम को श्रंखलाबद्ध कर पाठक की सोच वहाँ ले जा पाते हैं, जहाँ चाहते हैं. इस प्रक्रिया के कारन पाठक को कहानी अन्य द्वारा थोपी हुई नहीं, स्वयं के अंतर्मन से निसृत प्रतीत होती है. राजेंद्र जी कहानी नहीं कहते, वे समाज में व्याप्त विसगतियों के नासूर की शाब्दिक शल्यक्रिया के लिए कहानी को औजार बनाते हैं. कथ्य को आरोपित न कर, कथानक के अन्दर से उभरने देना, सहज बोधगम्य भाषा शैली, शब्दों का सम्यक चयन, यत्र-तत्र तत्सम-तद्भव शब्दोब, मुहावरोंयुक्त अभिव्यक्ति, लोकोक्तियों, जन-मान्यताओं का प्रयोग, सिमित किन्तु सार्थक संवाद उनकी कहानी कला का वैशिष्ट्य है. सारत:, विवेच्य संग्रह की कहानियाँ पाठक को अगले संग्रह को प्रतीक्षा हेतु प्रेरित करने के साथ अगली सत्रह कहानियों के लिए चौंतीस वर्ष प्रतीक्षा न कराने का दायित्व भी कहानीकार पर डाल देती है. 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com
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शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

गीत

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      
गीत  
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..

अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..

था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..

बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..

राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..

नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..

'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..

'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..

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