कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

मुक्तक

मुक्तक
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।। 
सूपनखा सें चाल-चलन कर 
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना 
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना 
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना 
*
वाह! शब्दों की क्या ख़ूब जादूगरी
चाह, रस-भाव की भी हो बाजीगरी 
बिम्ब, रूपक, प्रतीकों से कर मित्रता 
हो अलंकार की भी तो कारीगरी 
*
ज़िन्दगी को प्रीत का उत्सव बनाइये 
बन्दगी को नित्य महोत्सव मनाइये 
सीमा पे जो डटा हुआ है रात-दिन 'सलिल' 
ले सीख उससे देश के कुछ काम आइये
*
उत्सव नित्य मनाइए, बाल शुभाशा-दीप 
श्रम-सीकर अवगाहिए, बनकर मोती-सीप 
वर्धन हो धन-धन्य का, तुलसी पूजें आप
राँगोली डालीं 'सलिल', ड्योढ़ी-आँगन लीप
*
सरहद के बाहर चलकर, चलिए बम फोड़ें 
आतंकी हौसले सभी हम मिलकर तोड़ें 
शत-शत मुक्तक लिखें सुनें दोनों शरीफ जब 
सर टकराकर आपस में, झट दुनिया छोड़ें 
*

आँख दिखाकर, डरा-डराकर कहती 'डरती हूँ' 
ठेंगा दिखा-दिखाकर कहती 'तुझ पर मरती हूँ' 
गले लगाती नहीं नायिका, नायक से कहती 
'जाओ भाड़ में,समय हो गया अब मैं चलती हूँ 

*
जब 'अशोक' मन, 'व्यग्र' हो करता शब्द प्रहार 
तब 'नीरव' में 'ॐ' की गूँज उठे झनकार
'कलानाथ' रसधार में झलकाते निज बिम्ब 
'रामानुज' से मिल रहे 'ममता' लिए अपार

*
कुछ ग़लत हैं आचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है 
बस चुप रहें प्राचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है 
दीवार की शोभा बढ़ाते, चित्र भाते ही नहीं 
थूकें तमाखू-पान खा, बाकी सभी कुछ ठीक है 
*

लाजवाब आप हो गुलाब हुए
स्नेह की अनपढ़ी किताब हुए 
हमको उत्तर नहीं सूझा जब भी 
आपके प्रश्न ही जवाब हुए
*
हाय रे! हुस्न रुआंसा क्यों है?
ख्वाब कोई हुआ बासा क्यों है?
हास्य-जिंदादिली उपहार समझ
दूर श्वासा से हुलासा क्यों है?
*
हाँ कह दूँ तो पत्नी पीटे, झूठ अगर ना बोलूँ
करूँ वंदना प्रेम आपसे है रहस्य क्यों खोलूँ ?
रोना है सौभाग्य हमारा, सब तनाव मिट जाता
क्यों न हास्य कर प्रेम-तराजू पर मैं खुद को तोलूँ
*
आप = स्वयं, आत्मा सो परमात्मा = ईश्वर

*
आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना 
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
*

भोर से संझा हुई,कर कार्य, रवि जब थक चला 
तिमिर छा जाए न जग में सोच, चिंतित जब ढला 
कौन रोके तम?, बढ़ा लघु दीप बोला-' शक्ति भर
मैं हरूँगा' तभी दीवाली मनाने का सलिल' प्रचलन चला
*

करे मुक्त मन मुदित हो, जगवाणी में बात 
हिंदी कह -पढ़-लिख सतत, हो जग में विख्यात 
परभाषा का मोह तज, जनभाषा को जान 
जो बढ़ते उनको नहीं, लगता है आघात
*

दीपावली 
*
सत्य-शिव-सुन्दर का अनुसन्धान है दीपावली 
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली 
अकेले लड़कर तिमिर से, समर को चुप जीतता
जो उसी दीपक के यश का गान है दीपावली
*
अँधेरे पर रौशनी की जीत है दीपावली
दिलों में पलती मनुज की प्रीत है दीपावली
मिटा अंतर से सभी अंतर मनों को जोड़ दे
एकता-संदेश देती रीत है दीपावली
*
स्वदेशी की गूँज, श्रम का मान है दीपावली
भारती की कीर्ति, भारत-गान है दीपावली
चीन की उद्दंडता को दंड दे धिक्कारता
देश के जनगण का नव अरमान है दीपावली
***

मैं औरों की धुन पर कलम चलाऊँ क्यों?, मिली प्रेरणा माँ से जो वह गाऊँगा
नहीं बिकेगी कलम, न लूँगा मोल कभी, नेह-नर्मदावत मैं बहता जाऊँगा
अभिनंदन-सम्मान न मेरा ध्येय रहा, नई कलम से गीत नए रचवाऊँगा
शपथ शब्द-अक्षर की चित्रगुप्त मुझको, शीश रहे या जाए, नहीं झुकाऊँगा
*


मुक्तक

समस्या पूर्ति 
मुक्तक 
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल 
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*

samiksha

पुस्तक सलिला
एक पेग जिंदगी’ लघुकथा के नाम 
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
*
[पुस्तक विवरण एक पेग जिंदगी, पूनम डोगरा, लघुकथा संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-८६८१०-५१-X, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १३८, मूल्य२८०/-, समय साक्ष्य प्रकाशन १५, फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, दूरभाष ०१३५ २६५८८९४]
*
            कहना और सुनना चेतना का गुण है. जो प्राणी जितना अधिक चैतन्य होता है उतना अधिक अनुभव कर अनुभूति को अन्यों से कहता और अन्यों की अनुभूति को उनसे सुनता है.  कहना, सुनना और गुनना मानव सभ्यता का वैशिष्ट्य है. कहना-सुनना लेखक-पाठक या वक्ता-श्रोता के मध्य सह-अनुभूति का संपर्क-सेतु बनाकर अनुभूतियों को साझा करता है. चिरकाल से लोक कथा, बुजुर्गों द्वारा बच्चों को सुनाये गए किस्से, पर्व कथाएँ, धार्मिक कहानियाँ, प्रेम कहानियाँ, रोमांचक कहानियाँ, बोध कथाएँ, उपदेश कथाएँ, दृष्टांत कथाएँ, जातक कथाएँ, अवतार कथाएँ, शौर्य कथाएँ, सृष्टि उत्पत्ति कथाएँ, प्रलय कथाएँ आदि भारत और अन्य विकसित देशों में कही-सुनी जाती रही हैं.  ये कथाएँ गद्य और पद्य दोनों में कही-सुनी जाती रही हैं.                                                              
            आधुनिक हिंदी का विकास और भारत की स्वतंत्रता इन दो घटनाओं ने हिंदी को राष्ट्र भाषा के पथ से होते हुए विश्व वाणी बनने के पथ पर सतत आगे बढ़ाया. हिंदी के उद्भव काल में तत्कालीन विदेश संप्रभुओं की भाषा अंग्रेजी के साहित्य को देख-सुन कर नकल करने की प्रवृत्ति विकसित होना स्वाभाविक है. कोंग्रेसियों द्वारा सत्ता और साम्यवादियों द्वारा शिक्षा संस्थानों की बन्दरबांट ने हिंदी-साहित्य और समीक्षा में साम्यवादी वर्ग संघर्ष सिद्धांत को बढ़ाने के लिए असंगतियों, विसंगतियों, विडंबनाओं, टकरावों, शोषण आदि के एकांगी चित्रण को विधान का रूप दे दिया. फलत:, समीक्षकों द्वारा नकारे जाने से बचने के लिए रचनाकारों विशेषकर लघुकथाकारों, व्यंग्यकारों तथा नवगीतकारों ने अपने सर्जन से उल्लास, उत्साह, सद्भाव, सहकार, समरसता, बन्धुत्व आदि को वर्जित मानकर बाहर ही रखा. इस पृष्ठभूमि में मूलत: देहरादून निवासी, अब साल्टलेक सिटी अमेरिका निवासी पूनम डोगरा की सद्य प्रकाशित कृति ‘एक पेग जिंदगी’ वर्तमान लघुकथा की झलक प्रस्तुत करती है.
            कृति की भूमिका में चर्चित लघुकथाकार कांता रॉय कुछ रचनाओं में ‘मैत्रेयी पुष्पा जी की कहानियों के तेवर, अमृता प्रीतम जी की शैली, तथा चित्रा मुद्गल जी का विन्यास’ अनुभव करती हैं. मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पूनम जी लघुकथाओं के विषय अपने चतुर्दिक घट रही घटनाओं से चुनती हैं, वे घटना के कारण, प्रभाव तथा निराकरण को लेकर चिंतन करती हैं और तब लघुकथा को रूपाकार प्रदान करती हैं. इन लघुकथाओं के विषय दैनंदिन  जीवन से लिए गए हैं.
            स्त्री-विमर्श पूनम जी का प्रिय विषय है. छोटी कहानी ‘एक पेग जिंदगी’, ‘वैलेंटाइन’ तथा कड़वे घूँट में हिंदी की संन्य लघुकथाओं से कुछ लंबी, कहानियों से कुछ छोटी, अंग्रजी की शोर्ट स्टोरी की तरह हैं. स्त्री-पुरुष संबंधों पर केन्द्रित लघुकथाओं में पूनम जी की संयत भाषा, संतुलित विचारदृष्टि  उन्हें एकांगी होने से बचाती है.
            गरम गोश्त, सॉरी, उसका नाम, अश्क, इज्ज़त, आखिरी किश्त, चुपड़ी रोटी जैसी लघुकथाएँ कम शब्दों में अधिक संप्रेषित करने में समर्थ हैं. ‘डोज़-ए-इन्सुलिन, सॉरी, बोन्डिंग, रिफ्युजिए, ओवर टाइम, कनेक्शन, फुल सर्किल ट्रेनिंग कैम्प, करेंसी, शो, लव, ब्लैक एंड व्हाइट, लव यू आलवेज, वैलेंटाइन’ जैसे आंग्ल शीर्षक रखने की विवशता समझ से परे है. इनसे कथा या कृति की विशेषता में कोई वृद्धि नहीं होती.
            पूनम जी ने कुछ लघुकथाओं में हास्य का पुट देने का प्रयास कर एक खतरा उठाया है. आरम्भ में कुछ स्वनामधन्य साहित्यकारों ने लघुकथा को चुटकुला कहकर नकारा था. ‘माधुरी अलानी जूही फलानी’ में नेताओं पर व्यंग्य, ‘हाय मेरा दिल’ में दो पुराने मित्रों द्वारा एक-दुसरे से उम्र के प्रभाव  छिपाने के प्रयास से उपजा सहज हास्य नई लीक बनाने का प्रयास है. कहते हैं ‘लीक तोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत / ली-लीक तीनों चलें कायर भीत कपूत’. पूनम जी द्वारा अपनी लीक आप बनाने की आलोचना तो होगी पर उन्हें इसे समृद्ध करना चाहिए .
           पूनम जी हिंदी के प्रचलित शब्दों के साथ तत्सम-तद्भव शब्दों, देशज शब्दों, उर्दू-अंग्रेजी शब्दों का मुक्त भाव से प्रयाग करती हैं. सारत:, पूनम जी की यह प्रथम लघुकथा कृति उनमें विधा की समझ, शब्द-भण्डार, भाषा-शैली, नव प्रयोग का साहस और घटनाओं को कथा रूप देने की सामर्थ्य के प्रति आश्वस्त करता है. मेरी कामना है ‘अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा’.

संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.              

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

geet

कार्य शाला 
नव गीत-  
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
(मुखड़ा ३ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+११+११ =३४)  
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
(अंतरा- ४ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+१२+१२+१२=४८)
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
(सम मुखड़ा- ३ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+१२+११=३५)
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
(मुखड़ा ३ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+११+११ =३४)
*

रूप देख गमक उठे
चहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
(अंतरा- ४ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+१२+१२+१२=४८)
मंजरी में गीत की
खिलखिलाये सिर्फ प्यार
गिन -गिन दिन आज का।
(सम मुखड़ा- ३ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+१३+११=३६ )
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
(मुखड़ा ३ पंक्तियाँ, मात्राएँ १२+११+११ =३४)
*

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

muktak

प्रश्न- 
आप फ़िल्मों में गीत क्यों नहीं लिखते?
उत्तर 
मुक्तक 
*
मैं औरों की धुन पर कलम चलाऊँ क्यों?, मिली प्रेरणा माँ से जो वह गाऊँगा
नहीं बिकेगी कलम, न लूँगा मोल कभी, नेह-नर्मदावत मैं बहता जाऊँगा
अभिनंदन-सम्मान न मेरा ध्येय रहा, नई कलम से गीत नए रचवाऊँगा
शपथ शब्द-अक्षर की चित्रगुप्त मुझको, शीश रहे या जाए, नहीं झुकाऊँगा
*

geet

एक रचना
* क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? मत करें संकोच सच कहिये, नहीं शर्माइये। * मिली आज़ादी चलायें जीभ जब भी मन करे कौन होते आप जो कहते तनिक संयम वरें? सांसदों का जीभ पर अपनी, नियंत्रण है नहीं वायदों को बोल जुमला मुस्कुराते छल यहीं क्या कहूँ? कैसे कहूँ? क्या ना कहूँ समझाइये? क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? * आ दिवाली कह रही है, दीप दर पर बालिये चीन का सामान लेना आप निश्चित टालिए कुम्हारों से लें दिए, तम को हराएँ आप-हम अधर पर मृदु मुस्कराहट हो तनिक भी अब न कम जब मिलें तब लग गले सुख-दुःख बता-सुन जाइये क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? * बाप-बेटे में न बनती, भतीजे चाचा लड़ें भेज दो सीमा पे ले बंदूक जी भरकर अड़ें गोलियां जो खाये सींव पर, वही मंत्री बने जो सियासत मात्र करते, वे महज संत्री बनें जोड़ कर कर नागरिक से कहें नेता आइये एक रचना * क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? मत करें संकोच सच कहिये, नहीं शर्माइये। * मिली आज़ादी चलायें जीभ जब भी मन करे कौन होते आप जो कहते तनिक संयम वरें? सांसदों का जीभ पर अपनी, नियंत्रण है नहीं वायदों को बोल जुमला मुस्कुराते छल यहीं क्या कहूँ? कैसे कहूँ? क्या ना कहूँ समझाइये? क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? * आ दिवाली कह रही है, दीप दर पर बालिये चीन का सामान लेना आप निश्चित टालिए कुम्हारों से लें दिए, तम को हराएँ आप-हम
अधर पर मृदु मुस्कराहट हो तनिक भी अब न कम जब मिलें तब लग गले सुख-दुःख बता-सुन जाइये क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब कुछ लिखूँ, बतलाइये? *

सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

kundalini

एक कुंडलिनी - दो कवि  
*
है मंदिर घर आपका / मेरे चारों धाम । मुझको इस घर से मिले/ जीवन के आयाम ।। - मिथलेश
जीवन के आयाम, नाप लूँ गति-यति के सँग
दसों दिशाओं में प्रयास का बिखरे तब रँग 
मिले सफलता कहाँ, कभी कब कहिये सत्वर
शब्द-ब्रम्ह को पूज रहे, वह मंदिर है घर - संजीव
*
लोहा भी सोना हुआ, पारस हो जब पास 
पाएँगे हम मंज़िलें, मन में है विश्वास - मिथलेश
मन में है विश्वास, आस हर पूरी होगी 
हों सच्चे इंसान, नहीं भगवान न योगी 
रचें कुंडली रोला के पहले रख दोहा
मोम रहे मन 'सलिल' भले ही तन हो लोहा - संजीव
*



muktak

प्रश्नोत्तरी मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये। 
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।। 
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं 
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
इसे पढ़िए, समझिये और प्रश्नोत्तरी मुक्तक रचिए। कव्वाली में सवाल-जवाब की परंपरा रही है। याद करें सुपर हिट कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज़ को राज़ रहने दो'
***
मुक्तक-
आस माता, पिता श्वास को जानिए
साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
***

मुक्तक सलिला
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो 
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·

कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
मुक्तक-
रचनामृत का पान किया है मनुआ हुलस गया 
गीत, गज़ल, कविता, छंदों से जियरा पुलक गया 
समाचार, लघुकथा, समीक्षा चटनी, मीठा, पान 
शब्द-भोज से तृप्त आत्मा-पंछी कुहुक गया 
***
मुक्तक एक-रचनाकार दो 
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें 
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ 
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें 
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर

kavitta

कवित्त 
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम 
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए। 
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का 
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
***

मुक्तक 
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।। 
सूपनखा सें चाल-चलन कर 
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*

वाह! शब्दों की क्या ख़ूब जादूगरी
चाह, रस-भाव की भी हो बाजीगरी 
बिम्ब, रूपक, प्रतीकों से कर मित्रता 
हो अलंकार की भी तो कारीगरी 
*

वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना 
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना 
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना 
दीपावली 
*
सत्य-शिव-सुन्दर का अनुसन्धान है दीपावली 
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली 
अकेले लड़कर तिमिर से, समर को चुप जीतता
जो उसी दीपक के यश का गान है दीपावली
*
अँधेरे पर रौशनी की जीत है दीपावली
दिलों में पलती मनुज की प्रीत है दीपावली
मिटा अंतर से सभी अंतर मनों को जोड़ दे
एकता-संदेश देती रीत है दीपावली
*
स्वदेशी की गूँज, श्रम का मान है दीपावली
भारती की कीर्ति, भारत-गान है दीपावली
चीन की उद्दंडता को दंड दे धिक्कारता
देश के जनगण का नव अरमान है दीपावली
*

सरहद के बाहर चलकर, चलिए बम फोड़ें 
आतंकी हौसले सभी हम मिलकर तोड़ें 
शत-शत मुक्तक लिखें सुनें दोनों शरीफ जब 
सर टकराकर आपस में, झट दुनिया छोड़ें 
***
मुक्तक 
*
भोर से संझा हुई,कर कार्य, रवि जब थक चला 
तिमिर छा जाए न जग में सोच, चिंतित जब ढला 
कौन रोके तम?, बढ़ा लघु दीप बोला-' शक्ति भर
मैं हरूँगा' तभी दीवाली मनाने का सलिल' प्रचलन चला
*

आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना 
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
*

कुछ ग़लत हैं आचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है
बस चुप रहें प्राचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है 

दीवार की शोभा बढ़ाते, चित्र भाते ही नहीं
थूकें तमाखू-पान खा, बाकी सभी कुछ ठीक है 

*
जब 'अशोक' मन, 'व्यग्र' हो करता शब्द प्रहार 
तब 'नीरव' में 'ॐ' की गूँज उठे झनकार
'कलानाथ' रसधार में झलकाते निज बिम्ब 
'रामानुज' से मिल रहे 'ममता' लिए अपार

*
आँख दिखाकर, डरा-डराकर कहती 'डरती हूँ' 
ठेंगा दिखा-दिखाकर कहती 'तुझ पर मरती हूँ' 
गले लगाती नहीं नायिका, नायक से कहती 
'जाओ भाड़ में,समय हो गया अब मैं चलती हूँ 

*
लाजवाब आप हो गुलाब हुए
स्नेह की अनपढ़ी किताब हुए 
हमको उत्तर नहीं सूझा जब भी 
आपके प्रश्न ही जवाब हुए
*
हाय रे! हुस्न रुआंसा क्यों है?
ख्वाब कोई हुआ बासा क्यों है?
हास्य-जिंदादिली उपहार समझ
दूर श्वासा से हुलासा क्यों है?
*
हाँ कह दूँ तो पत्नी पीटे, झूठ अगर ना बोलूँ
करूँ वंदना प्रेम आपसे है रहस्य क्यों खोलूँ ?
रोना है सौभाग्य हमारा, सब तनाव मिट जाता
क्यों न हास्य कर प्रेम-तराजू पर मैं खुद को तोलूँ
==
आप = स्वयं, आत्मा सो परमात्मा = ईश्वर

*

badhaaee geet - lori

नया प्रयोग 
बधाई गीत 
*
बधाई गाओ सखियों! झूला झुलाओ 
लली न रोने पाए, गले से लगाओ 
*
नन्हें से हाथों में किस्मत की चाबी
माथे पर काजल का टीका सजाओ
*
कोयल सी वाणी बोले, षड रस घोले
शहद लाओ मैया! हँसकर चटाओ
*
चंचल से पैरों से नापेगी दुनिया
चाँदी की पैंजन बुआ पहनाओ
*
नटखट से नैनों में सपने हजारों
चाचा ले गोद में दुनिया दिखाओ
*
रोने न देना जी लोरी सुनाओ
थपकी दे निंदिया भैया! कराओ
*
लोरी
*
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
सपनों में आएँगे कान्हा दुआरे
'चल खेल खेलें' तुझको पुकारें
माखन चटा, तुझको मिसरी खिलाएँ
जसुदा बलैयाँ लें तेरी गुड़िया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
साथी बनेंगे तेरे ये तारे
छिप-छिप शरारत करते हैं सारे
कोयल सुनाएगी मीठी सी लोरी
सुंदर मिलेगी सपनों की दुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
जागेगी जब, तभी होगा सवेरा
पल में मिट जायेगा सारा अँधेरा
हौले-हौले तुझको आगे है जाना
मुश्किल मिटने की कोशिश है गुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

muktak

मुक्तक 
*
नेहा हों श्वास सभी 
गेहा हो आस सभी 
जब भी करिये प्रयास 
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*

laghukatha

लघुकथा 
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल 

एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था। 

इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी। 

जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
*

समीक्षा


शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी


*
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव रमा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नी है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नवीं शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.

लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.

सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.

सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
***
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
----------------------------