कुल पेज दृश्य

शनिवार, 14 मई 2016

meera-tulsi sanvad

मीरां - तुलसी संवाद 

कृष्ण भक्त मीरां बाई और रामभक्त तुलसीदास के मध्य हुआ निम्न पत्राचार शंका समाधान के साथ पारस्परिक विश्वास और औदार्य का भी परिचायक है इष्ट अलग -अलग होने और पूर्व परिचय न होने पर भी दोनों में एक दूसरे के प्रति सहज सम्मान का भाव उल्लेखनीय है काश हम सब इनसे प्रेरणा लेकर पारस्परिक विचार - विनिमय से शंकाओं का समाधान कर सकें-

राजपरिवार ने राजवधु मीरां को कृष्ण भक्ति छोड़कर सांसारिक जीवन यापन हेतु बाध्य करना चाहा। पति भोजराज का प्रत्यक्ष विरोध न होने पर हबी ननद ऊदा ने मीरां को कष्ट देने में कोई कसर न छोड़ी। प्रताड़ना असह्य होने पर मीरां ने तुलसी को पत्र भेजा-


स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।


हे कुलभूषण! दूषण को मिटानेवाले, गोस्वामी तुलसीदास जी सादर प्रणाम। आपको बार - बार प्रणाम करते हुए निवेदन है कि मेरे ागनिक शोकों को हरने की कृपा करें। हमारे घर के जितने स्वजन (परिवारजन) हैं वे हमारी पीड़ा बढ़ा रहे हैं यहाँ 'उपाधि' शब्द का प्रयोग व्यंगार्थ में है, व्यंग्य करते हुए सम्मानजनक शब्द इस तरह कहना कि उसका विपरीत अर्थ सुननेवाले को अपमानजनक लगकर चुभे और दर्द दे। साधु - संतों के साथ बैठकर भजन करने पर वे मुझे अत्यधिक क्लेश देते हैं। आप मेरे माता - पिता के समकक्ष तथा ईश्वर के भक्तों को सुख देनेवाले हैं । मुझे समझाकर लिखिए कि मेरे लिए क्या करना उचित है?


मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसीदास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


तुलसी के समक्ष धर्म संकट यह था कि उनसे एक भक्त और राजरानी मार्गदर्शन चाह रही थी जिसके इष्ट भिन्न थे वे मन भी कर सकते थे, मौन भी रह सकते थे। मीरा को राजपरिवार के विपरीत जाने को कहते तो राज परिवार की नाराजी झेलनी पड़ती, मीरां के कष्ट भी बढ़ाते। राज परिवार की बात मानने को कहते तो मीरां को इश्वर भक्ति छोड़नी पड़ती जो स्वयं ईश्वर भक्त होने के नाते तुलसी कर नहीं सकते थे। तुलसी ने आदर्श और व्यवहार में समन्वय बैठाते हुए उत्तर में बिना संबोधन किये मीरां को मार्गदर्शन दिया ताकि मीरा पर परपुरुष का पत्र मिलने का आरोप न लगाया जा सके। तुलसी ने लिखा- जिसको भगवान राम और भगवती सीता अर्थात अपना इष्ट प्रिय न हो उसे परम प्रिय होने भी करोड़ों शत्रुओं के समान घातक समझते हुए त्याग देना चाहिए। (यहाँ मीरां को संकेत है कि वे राजपरिवार और राजमहल त्याग दें, जिसका मीरां ने पालन भी किया और कृष्ण मंदिर को निवास बन लिया)। जीवन में जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब वहीँ तक मान्य हैं जहाँ तक भगवान् की उपासना में बाधक न हों। आज अंजान किस काम का जो आँख हो फोड़ दे अर्थात वह नाता पालने योग्य नहीं है जिसके कारण अपना इष्ट भगवद्भक्ति छोड़ना पड़े। इससे अधिक और क्या कहूँ?

***

शुक्रवार, 13 मई 2016

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग 
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***



लघुकथा
कानून के रखवाले
*

'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?

प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***
लघुकथा के प्रभाव में वृद्धि के लिए इसके लम्बे संवाद को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित कर पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है. नए लघुकथाकार दोनों की तुलना कर इनके प्रभाव में अंतर को आंक सकते हैं.
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*

'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'

वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"

अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'

"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।

प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***

बुधवार, 4 मई 2016

" सिंहस्थ कुंभ धार्मिक ही नही एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन "

" सिंहस्थ कुंभ धार्मिक ही नही एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन "

विवेक रंजन श्रीवास्तव
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२ , vivek1959@yahoo.co.in

    भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है . भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं . प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है . और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है .द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा , नेपाल में पशुपतिनाथ , व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है .
        इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं .मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई . प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है .शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है .
       भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर , पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है .जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है .  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं .
        इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर , चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं .चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा  , नर्मदा नदी की परिक्रमा , जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं . हरिद्वार , प्रयाग , नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं ,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं . आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है , स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार , जीवन शैली में जोड़ने का कार्य , विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं . ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है , जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है . पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं . सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है .  उज्जैन का खगोलीय महत्व , महाकाल शिवलिंग , हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है .
      प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है . आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं , आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा .समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है . वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है , शारीरिक और मानसिक शुचिता का . जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है , गुरु दीक्षायें दी जाती हैं . इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत , संकल्प और प्रयास करता है . धार्मिक यात्रायें होती हैं . लोगों का मिलना जुलना , वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है . धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है . पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है ,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है .
     जब ऐसे विशाल , महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य ,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं ,कला  विकसित होती है .  प्रिंट मीडिया , व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोज की  व्यापक चर्चा हो रही  है . लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है . अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं . सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं , जिनमें साधु संतो , मनीषियो और जन सामान्य की , साहित्यकारो , लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है . सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो , चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है . विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है . क्षेत्र का विकास होता है , व्यापार के अवसर बढ़ते हैं . जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है .  
    यह सभागार देश भर से लेखन व प्रिंट तथा आभासी दुनिया के प्रकाशन जगत से जुड़े विद्वानो से भरा हुआ है , मेरी अपील है कि यदि अब तक आपने सिंहस्थ को लेकर कोई रचना नहीं की है तो अब अवश्य कीजीये और हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान जरूर दीजीये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है , क्योकि मेरे अभिमत में   कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है , और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा . 

      

       

विवेक रंजन श्रीवास्तव

रविवार, 1 मई 2016

संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ [अन्तिम भाग]

गतांक से आगे....

[.......पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा कि कैसे ’निराला’ जी ने हिन्दू बोर्डिंग हाऊस इलाहाबाद के प्रांगण मे होने वाले कवि सम्मेलन का सभापति बनने का ’क्षेम’ जी का अनुरोध अस्वीकार कर दिया था। अब क्षेम जी के बारे में आगे पढ़िए....    आनन्द.पाठक]
संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’      भाग 2
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक

........उन दिनों क्षेम जी से मेरी इतनी पटा करती थी कि कभी कभी वह अपने दिल का दर्द भी कहा करते थे ।उन्हें इस बात का बड़ा दु;ख था कि वे अपने पिता का अन्तिम दर्शन नहीं कर पाए।हुआ यूँ कि क्षेम जी उन दिनों कोई परीक्षा दे रहे थे।घर वालों ने सोचा कि निधन का समाचार देने से परीक्षा कुप्रभावित हो जायेगी।अत: उन्हें सूचित करना आवश्यक नहीं समझा ।परीक्षा समाप्त होने पर जब क्षेम जी घर गए तो उन्हें यह दुखद समाचार सुनने को मिला। वह बताते थे कि परीक्षा तो अगले साल भी दी जा सकती थी पर पिता जी का अन्तिम दर्शन तो अगले साल नहीं हो सकता था।
पिता जी के अन्तिम दर्शन न कर पाने का आघात तो लगा ही था साथ ही साथ आर्थिक आघात भी लगा। घर से मिलने वाला पढ़ाई का खर्च आर्थिक हिचकोले खाने लगा। पैसा कभी कभी समय पर नहीं आ पाता था ,कभी कभी तो बिल्कुल ही नहीं आ पाता था।लगता था कि मात्र रस्म अदायगी ही की जा रही है।गनीमत यह थी कि उन दिनों राजा साहब जौनपुर के यहाँ से मिलने वाली एक छात्रवृति इन्हें भी मिल गई । वही छात्रवृति, इनकी गाड़ी को खींचे चली जा रही थी। क्षेम जी कोई शाहखर्च वाले आदमी नहीं थे और न ही कंजूस थे। हाँ ,उन्हें कुशल मितव्ययी अवश्य कहा जा सकता था।फिर भी, कभी कभी कुछ न कुछ कमी हो ही जाया करती थी जो इधर-उधर की आय से पूरी हो जाया करती थी । इधर-उधर से मेरा तात्पर्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली कविताओं से मानदेय के रूप में  मिलने वाले राशि से है। उन दिनों, इलाहाबाद पत्र-पत्रिकाओं का गढ़ था। क्षेम जी मिलनसार व्यक्ति तो थे ही ,अनेक सम्पादकों से उनका गहरा परिचय भी था। कविताएं भी उच्च कोटि की करते थे। उच्च कोटि की कवितायेँ होने के कारण मानदेय पाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी।क्षेम जी की ख्याति उन दिनों बढ़ती ही जा रही थी । इलाहाबाद से बाहर उन्हें काव्य-पाठ का आमन्त्रण मिलता  रहता था। उन दिनों काव्य-पाठ के लिए कोई मानदेय नहीं मिलता था ।हाँ ,आने-जाने का मार्ग-व्यय अवश्य मिल जाया करता था ,जिसमें से कुछ न कुछ बच ही जाया करता था। पर कितना बचता था ,निश्चित नहीं था।एक बार की एक मनोरंजक घटना याद आ रही है ,जब  वह भी नहीं मिला।
एक बार ,कानपुर में एक वॄहत कवि-सम्मेलन का आयोजन था।पूर्वांचल के कवियों को ले आने का भार -कोई श्री कृष्ण बाबू थे -उन पर था।उनका कोटा 12-कवियों का था।उन्होने क्षेम जी को 3-कवियों का कोटा दिया । उन 3-कवियों में ,एक तो क्षेम जी स्वयं थे। बाक़ी दो में से उन्होने एक मुझे ,यानी रमेश चन्द्र पाठक और दूसरे कवि श्री अद्भुत नाथ मिश्र को लिया।हम दोनो हास्य रस के कवि थे।निश्चित समय पर ,हम तीनों बड़ी लाईन के स्टेशन पर पहुँच गए। श्री कृष्ण बाबू के साथ हो लिए जिनके साथ 9-आदमी और भी थे। डब्बे में हम सभी को एक साथ एक जगह नहीं मिली ,फलत: हम 6-कवि एक साथ एक जगह बैठे और बाक़ी 6-कवि उसी डब्बे में पीछे कहीं अन्य जगह पर बैठे।हम लोगों के साथ हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन भी बैठे थे। थोड़ी देर बाद टी0टी0 महोदय आये और टिकट माँगा।श्री कॄष्ण बाबू ने 3-टिकट दिखा दिए और शेष के लिए 50-50 का कोड वर्ड बोला। टी0टी0 लोगों की भाषा में 50-50 का मतलब होता है कि जितना रेल का किराया बनता है उसका 50% आप नगद ले लें और अपने पास रख लें।टी0टी0 महोदय की स्वीकृति मिलने पर श्री कृष्ण बाबू उनका हिस्सा दे ही रहे थे कि पास में बैठे बाबा नागार्जुन बीच में बोल उठे कि कई महाकवि उधर पीछे भी बैठे है।टी0टी0 महोदय ने श्री कृष्ण बाबू की ओर देखा। श्री कॄष्ण बाबू ने अपनी क्षेंप मिटाते हुए कहा-उन लोगों को मैने अपने साथ नहीं बुलाया है मगर जब ये लोग बिना बुलाए ही मेरे साथ हो लिए हैं तो उनका भी 50-50 कर दे रहा हूँ। किसी बड़े स्टेशन पर उक्त टी0टी0 साहब की ड्यूटी बदल गई ।पुराने वाले टी0टी0 ने नए वाले टी0 टी0 से परिचय कराते हुए कहा कि कानपुर स्टेशन पर आप इनसे मिल लीजिएगा।
कानपुर स्टेशन पहुँच कर हम लोग उस नए वाले टी0टी0 से भेंट की और उन्होने निकास गेट पर खड़े टी0टी0 महोदय से कोड वर्ड में जाने क्या बात की कि हम सब लोग बाहर आ गए।
कानपुर में 2-दिन रुकना हुआ जिसका सारा प्रबन्ध उन लोगों ने किया जो अपने आवास पर काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित किया करते थे। वहीं मैने आज के प्रसिद्ध गीतकार कवि श्री गोपाल दास ’नीरज’ और उस युग के प्रसिद्ध कवि बलबीर सिंह  ’रंग’ से पहली बार मुलाकात हुई थी। फिर बाद में कभी न हो सकी।
कानपुर से वापस भी हम सब उसी ’फ़ार्मूले’ से आए। इलाहाबाद स्टेशन से छात्रावास तक इक्के का किराया ,श्री कृष्ण बाबू ने ,क्षेम जी को दे दिया था । मेरा अनुमान है कि उसमें से क्षेम जी को कुछ भी नहीं बचा होगा ।
एक दिन की बात है । शाम का समय था कुछ बूँदा बाँदी हो रही थी। छात्रावास से बाहर जाने का वातावरण नहीं था।अत: क्षेम जी के कमरे के बाहर ही मण्डली जम गई।बरसाती हवा भी बह रही थी।सभी हल्के-फ़ुल्के मूड में थे।क्षेम जी ने कहा 4-5 तो हमीं लोग हैं और इस छात्रावास में 5-6 और भी अच्छे कवि हैं। अन्य छात्रावास के कवियों को मिला कर 30-32 कवि हो जाते हैं।इतने लोग जब हिन्दी काव्याकाश में उदित होंगे तो आकाश चमक उठेगा।इस पर मेरे बगल में बैठे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि ऐसा नहीं होगा।यहाँ से जाने के बाद कितनों की काव्य-तरणी हिचकोले खा खा कर डूब  जायेगी। केवल 1-2 की ही किनारे पँहुचेगी।बात जब आगे बढ़ी तो क्षेम जी ने पूछना शुरु किया कि यहाँ से जाने के बाद कौन क्या क्या करेगा? सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि मैं तो कविता की डगर
पर चलता ज़रूर रहूँगा पर पेट-पूजा के लिए कोई नियमित और ठोस आजीविका ढूँढनी पड़ेगी। जब राजा राम मिश्र जी से यही प्रश्न किया गया तो उन्होने कहा कि मेरी भारी भरकम काया देखिए ।यह काव्य-पाठों से नहीं भरेगी और मुझे इस के लिए पूछता ही कौन है? मै तो सरकारी नौकरी करूँगा। जब यही प्रश्न अद्भुत नाथ मिश्रा जी से पूछा गया तो उनका उत्तर था कि आप लोगों को तो पता ही है कि इस समय मैं सी0ओ0डी0 [सेन्ट्रल आर्डिनेन्स डिपो] में कार्यरत हूँ ,वहाँ से हटने या हटाए जाने पर ही कुछ सोचूँगा। जब मुझसे पूछा गया तो मैने कहा कि मैं तो पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक बनूँगा और आप की कविता संग्रहों को मैं ही प्रकाशित करूँगा।इस पर क्षेम जी ने कहा ठीक ही तो है कि मुझे कोई प्रकाशक नहीं ढूंढना पड़ेगा।आजकल कविताओं के प्रकाशक मिलते ही कहाँ हैं ।फिर मैने कहा -आप ने हम सबका तो पूछ लिया परन्तु आप ने अपना नहीं बताया ।इस पर क्षेम जी ने कहा मैं कविता की राह तो नहीं छोड़ूगा पर ठोस व सुनिश्चित आय व आजीविका के लिए अध्यापक बनना चाहूँगा। पर मैं इसे भाग्य की विडम्बना ही कहूँगा कि जो आदमी उनकी [क्षेम जी की] रचनाओं का प्रकाशक बनना चाह्ता था आज उसके पास कवि [क्षेम जी] की कृतियों की एक प्रति भी नहीं है।
आगे चल कर वही बातें सत्य साबित हुई। श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ’दिनमान’ के सम्पादक बने।श्री राजाराम जी उत्तरप्रदेश सरकार में शिक्षा विभाग में अधिकारी बने।श्री अद्भुत नाथ मिश्रा जी होम्योपैथिक डाक्टर बने और मैं वकील बना।श्री क्षेम जी माहाविद्यालय में प्रवक्ता बने।कविता की डगर पर सर्वेश्वर दयाल्ल सक्सेना जी ही कुछ चले । मैं भी कुछ चला पर मौन होकर।परन्तु सही ढंग से क्षेम जी ही चले -कृत संकल्प हो कर चलते रहे।
चलते चलाते एक और बात की चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ । जौनपुर के प्रसिद्ध टी0डी0 कालेज [तिलकधारी सिंह कालेज] में इतिहास-प्रवक्ता की रिक्ति विज्ञापित हुई। हवा मैं तैरती हुई कुछ अफ़वाहों के कारण मैं प्रार्थना-पत्र देने का इच्छुक नहीं था ,पर क्षेम जी के यह कहने पर कि अफ़वाहें  झूठी हैं ,ऐसा कुछ नही है । क्षेम जी के आग्रह की इस पृष्ठ भूमि में कदाचित यह भावना रही हो कि नियुक्ति हो जाने पर जन्म भर के लिए साथ हो जायेगा ।मैने प्रार्थना पत्र दे दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए प्राप्तांक भी अच्छे थे । मेरे साथ जितने भी लोग साक्षात्कार के लिए बुलाए गए थे और  साक्षात्कार में शामिल हुए थे उन सबमें मेरा पलड़ा भारी था।साक्षात्कार समिति के कई सदस्य मेरे पक्षधर थे। श्री हृदय नारायण जी प्रधानाचार्य महोदय श्री क्षेम जी के अत्यन्त निकट के व्यक्ति थे फिर भी मुझे सफ़लता नहीं मिली। मेरी जगह ,वाराणसी के उदयप्रताप कालेज के प्रवक्ता श्री लौटू सिंह गौतम के सुपुत्र जी का चयन हो गया। जिन अफ़वाहों को क्षेम जी ने निराधार कहा था वो निराधार न होकर सही साबित हुआ। क्षेम जी बड़े दुखी हुए।उनके द्वारा बुना गया भविष्य का ताना-बाना टूट गया।उनको मैने समझाया कि यह तो मेरा ही दुर्भाग्य था कि सपने सत्य में न ढले। दुखों को आत्मसात करते हुए भारी मन से क्षेम जी ने अपने आवास से विदा किया।
आजीविकाऒं के आयाम विभिन्न होने के कारण भौगोलिक दूरियाँ बढ़ गईं।धीरे धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हुआ।संवाद हीनता बढ़ने लगी। अपनी ओर से संवाद हीनता का दोषी मैं स्वयं था। वकालत व्यवसाय में व्यस्तता भी एक कारण था।जहाँ तक मुझे याद है  कि उनका अन्तिम पत्र उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आया था जिसमें उनका लिखा एक वाक्य आज भी मुझे विशेष रूप से उद्वेलित कर रहा है । उन्होने लिखा था कि पत्र उसी चारपाई पर बैठ कर लिख रहा हूँ और बिस्तर भी वही है।

क्षेम जी ! मेरी भी पत्नी का देहान्त हो चुका है  ,पर मैं किसे पत्र लिखूँ । आप तो चले गए । मैं लिखूँ भी तो क्या लिखूँ !पत्र पढ़ने वाला और पढ़ कर व्यथा और वेदना समझने वाले आप तो अब इस संसार में हैं नहीं । अपनी वेदना अपनी कविता के एक पंक्ति में इस प्रकार व्यक्त किया है-----

इशारे कहीं से चले आ रहे हैं 
सदन छोड़ना है ,समय आ रहा है **

आजकल मेरी स्थिति इस प्रकार से हो गई है जिसे हिन्दी के एक कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है

प्रवाहित साँस जीता-जागता शव हूँ

इन काव्य पंक्तियों के साथ मैं कवि श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ जी को श्रद्धांजलि के रूप में यह लेख समाप्त करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि कवि की आत्मा को शान्ति प्रदान करें।

[नोट ** पिता जी [श्री रमेश चन्द्र पाठक ] की भी मृत्य दिनांक 09-10-2015 को हो गई

प्रस्तुतकर्ता

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शनिवार, 30 अप्रैल 2016

एक संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र -श्रीपाल सिंह -’क्षेम’


[भूमिका : ।कहते हैं ,जीवन के अन्तिम दिनों में चेतन या अवचेतन मन में अवस्थित  घटनाएँ ,खट्टी-मीठी यादें ,किसी चलचित्र के ’फ़्लैश बैक’ की भाँति एक एक कर के सामने आने लगती है । संभवत: पिताश्री के साथ भी ऐसा ही हुआ हो और  लेखनीबद्ध कर दिया ।वह अपने जीवन काल में अनेक विभूतियों से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित रहे । इन्ही विभूतियों में से एक थे श्री श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ । जो हिन्दी के प्रेमी हैं उन्हें क्षेम जी के परिचय की आवश्यकता नहीं है ।क्षेम जी जौनपुर [उ0प्र0] के निवासी थे और अपने समय में हिन्दी के  एक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गीतकार थे।क्षेम जी के बारे में विशेष जानकारी इन्टेर्नेट पर ,कविताकोश आदि पर भी उपलब्ध है यहाँ पर दुहराने की आवश्यकता नही हैं।  

प्रथम कड़ी में श्री ’क्षेम’ जी के संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ । यह पिता जी की किताब  - मेरी स्मृति के पात्र - [अप्रकाशित] से लिया गया है । क्षेम जी अब इस दुनिया में नहीं हैं ,पिता श्री भी नहीं है । भगवान उन दोनों की आत्मा को शान्ति प्रदान करें

पिता श्री के इस संस्मरणात्मक लेख पर आप सभी का ’आशीर्वाद’ चाहूंगा ----------------प्रस्तुतकर्ता ---आनन्द.पाठक [09413395592]
------------------------------------------
संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’      क़िस्त 1
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक

समाचार पत्र में मैने ज्यों ही पढ़ा कि श्री श्रीपाल सिंह क्षेम का निधन दिनांक 22-अगस्त सन 2011 को हो गया तो मैने समाचार पत्र को अलग रख, विस्मृतियों में खो गया।आज के दिन बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा -क्योंकि इस बात को जानने वाले अब इस संसार में होंगे भी नहीं- कि वह इलाहाबाद विश्वविद्यालयीय युग में मेरे अभिन्न मित्रों में से एक थे।वह समय 1945 से 1949 तक का था ।वह  काल  समाप्त होने पर भौगोलिक दूरियाँ बढ़ती चली गईं। जब तक उनका सम्बन्ध मेरा ज़िला ग़ाज़ीपुर [उ0प्र0] के ग्राम मैनपुर [शहर मुख्यालय से 20-25 कि0मी0] से था तो मैनपुर आते-जाते समय वह तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद मेरे आवास पर  घंटे दो घंटे रुका करते थे । हाल चाल का आदान-प्रदान होता था। कुछ नई ,कुछ पुरानी बातें भी हुआ करती थीं।इसी बहाने हम एक दूसरे की काव्य-प्रगति के से भी अवगत हो जाया करते थे।कभी कभी यूँ ही और कभी कभी कविताओं का सस्वर पाठ भी हो जाया करता था। पर मैनपुर से उनका सम्बन्ध समाप्त होते ही उनका आना-जाना भी बन्द हो गया और फिर हम दोनों का सम्पर्क भी शनै: शनै: कम होता चला गया।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय जीवन में उनका दर्शन प्रथम बार ’यूनिवर्सिटी यूनियन हाल’ मेंआयोजित एक स्थानीय कवि-सम्मेलन में हुआ था जिसमें बहुत से कवियों ने अपनी अपनी कवितायें सुनाई थीं। उनमें से कुछ तो ’तुकबन्दी’ से थोड़ा ही ऊपर थीं। कुछ मात्र शब्द जाल थीं। उस कवि सम्मेलन में पढ़ी गईं कविताओं में से जिस कविता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह श्री क्षेम जी की ही कविता थी। उनके छात्रावास के बारे में जानकारी प्राप्त किया तो मालूम हुआ कि वह मेरे ही छात्रावास-हिन्दू बोर्डिंग हाउस’  में ही रहते थे।अन्धे को आँख मिली , बाँछे खिल गईं।अब मित्रता स्थापित कर निकट आने में सहूलियत हो गई। सुबह पता किया तो उनके कमरे का नम्बर भी मालूम हो गया।मित्रता के प्रथम चरण का सूत्र यहीं से शुरु हुआ। कुछ दिन तक चलने वाली यह सलाम बन्दगी.हाल-चाल,पूछ ताछ में बदलने लगी । निकटता बढ़ने के साथ साथ बातचीत की परिधि भी बढ़ने लगी।
एक एक कर के कितने ही भूले बिसरे चित्र मानस पटल पर उभरने लगे।उभरते ,थोड़ी देर ठहरते फिर विलुप्त हो जाते। ’ क्या भूलूँ क्या याद करूँ’-वाली स्थिति मेरे सामने भी आने लगी।आँखें बन्द कर स्मृतियों में खोता चला जा रहा था।समाचार पत्र सामने आगे पढ़े जाने की प्रतीक्षा में था ,परन्तु पढ़ने की इच्छा नहीं हो रही थी।
..... क्षेम जी  मुझसे जेष्ठ थे।मैं उस समय बी0ए0 प्रथम वर्ष में था और वे कदाचित बी0ए0 द्वितीय वर्ष के छात्र थे।आयु में भी वो मुझसे बड़े थे पर विद्यार्थी जीवन में 3-4 साल की घटोत्तरी-बढ़ोत्तरी का कोई ख़ास महत्व नहीं होता।हम सभी उस समय सम-वयस्क की श्रेणी में आते थे । और इस श्रेणी में आने के कारण बातचीत का धरातल लगभग समान ही होता था।मेरे परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी समान था।वे कवि थे और मैं काव्य रसिक- ऊपर से थोड़ी बहुत तुकबन्दी भी कर लेता था जिसे वह कभी कभी मुझे ’कपि महोदय’ संबोधित कर मेरी रचनाएं संशोधित भी कर दिया करते थे। उनकी दुबली पतली नाटी काया में कवियों के लिए बड़ी स्नेह और  ममता भरी थी।
इसी ममता के चलते ,आपसी मेल-जोल बढ़ाने के लिए एक कवि-मित्र संघ बना रखा था । हिन्दू बोर्डिंग हाउस वाले संघ में हम कुल 5-सदस्य थे-एक तो वह स्वयं जिला जौनपुर के ,दूसरे श्री राजाराम मिश्र ’राजेश’ जी उन्हीं के जिला जौनपुर के ,तीसरा मैं स्वयं रमेश चन्द्र पाठक ,चौथे श्री अदभुत नाथ मिश्र जिला बलिया के और पाँचवे श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना -[अभी जिला का नाम  याद नही आ रहा है]
हमलोगों का मिलना जुलना लगभग प्रतिदिन साँझ-सबेरे हुआ करता था।
इसी मेल जोल की विचारधारा वाले वे तथा उनके कुछ अन्य मित्रों ने इलाहाबाद शहर में -’परिमल’- नामक एक साहित्यिक संस्था की स्थापना भी की थी जो उन दिनों  स्थानीय साहित्यिक लेखकों तथा कवियों का अनूठा केन्द्र बन गया था जहाँ लेख ,कहानी,कविता,काव्य-पाठ पर आलोचनात्मक चर्चाएँ हुआ करती थी ।हम हिन्दू बोर्डिंग वाले इसके सदस्य नहीं थे फिर भी उसकी गतिविधियों में रुचि लिया करते थे जो क्षेम जी से सुनने को मिल जाया करती थी ।पता नहीं अब वह -परिमल -संस्था है या नहीं । यह तो शायद कोई इलाहाबाद वाला ही बता सकता है ।यदि होगी भी तो मेरा अनुमान है कि उसके मूल संस्थापकों में से शायद ही कोई आज के दिन इस धरती पर होगा।मेरे विचार से ’ क्षेम’ जी ही उसकी अन्तिम कड़ी के रूप में थे।
उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक ;हिन्दी-समिति’ हुआ करती थी जिसका मंत्री -विभाग के छात्र-गण ही चुना करते थे। एक साल ,उक्त मंत्री पद के लिए श्री क्षेम  
 जी खड़े हो गए। उनके विरुद्ध एक कोई श्री महेन्द्र प्रताप जी खड़े थे । महेन्द्र प्रताप जी मेरे लिए नए नहीं थे । वाराणसी के जिस ’क्वीन्स कालेज’ से वो यहां आए थे उसी कालेज से मैं भी यहाँ आया था अत: वे वाराणसी के दिनों  से परिचित थे। लेकिन उनसे मेरा यह परिचय मात्र नमस्ते-बन्दगी तक ही सीमित था जब कि क्षेम जी से मेरा परिचय नमस्ते बन्दगी से बहुत आगे बढ़ कर मित्रता की दहलीज़ भी पार कर चुका था।जम कर दोनों तरफ़ से पैरवी हुई मगर क्षेम जी को सफलता हाथ न लगी । भावावेश में अपनी हार का जो कारण बताया वो सार्वजनिक करने योग्य नहीं है।मैने ढाढस बँधाया कि चुनावों में तो हार-जीत लगी ही रहती है ।आप तो रोज ही  यह देखते सुनते  रहते हैं ,इसके लिए इतना दुखी होने की क्या ज़रूरत है ? अगले साल फिर प्रयास किया जायेगा।लेकिन क्षेम जी एक कवि हॄदय  वाले अति भावुक व्यक्ति थे। उन्हे सहज होने में कई दिन लग गए। तब बाद में उन्होने विश्वविद्यालय आना शुरु किया।
हिन्दू बोर्डिंग हाउस एक विशाल छात्रावास है जिसमे लगभग 200 से अधिक कमरे हैं पर उनमें रहने वाले छात्रों की संख्या इस से कुछ अधिक ही थी।इसी छात्रावास में एक हाल भी था जिसमें 60-70
की संख्या में दर्शकगण आसानी से बैठ सकते थे । क्षेम जी व हम लोग सदा इसका उपयोग साहित्यिक गतिविधियों के लिए किया करते थे -कभी तुलसी जयन्ती ,कभी भारतेन्दु जयन्ती कभी कुछ कभी कुछ मनाया करते थे। कवि-गोष्ठियां तो आए दिन हुआ करती थी। विश्वविद्यालय कालीन आयु में ऐसा  होता  ही है कि हर कोई कवि नहीं तो ’काव्य-रसिक’ अवश्य बन जाया करता  है।
एक बार हम लोगों ने एक विराट कवि-सम्मेलन कराने की सोचा। छात्रावास के आस-पास काफी खुली भूमि थी। उसी भूखण्ड के किसी ओर आयोजित करने का निश्चय किया गया और छात्रावासों से सम्पर्क किया गया ।सभी ने यथा सम्भव सहयोग करने की स्वीकृति दे दी।सभापति पद के लिए ’निराला’ जी का नाम सबको पसन्द आया क्योंकि निराला जी का काव्य-पाठ हम लोगों ने कभी सुना नहीं था। औरों को तो हम लोग कई बार सुन चुके थे।विकल्प के तौर पर दूसरा नाम ’महादेवी वर्मा’ जी का तय हुआ था।पहले निराला जी से सम्पर्क साधने का निश्चय हुआ। निराला जी के साथ एक ख़तरा यह भी था कि पता नहीं कब उनका इरादा [मूड] बदल जाएऔर इन्कार कर जाएँ । इसलिए मूड भाँपने के लिए 2-दिन पहले श्री क्षेम जी और मैं छात्रावास से चला। उन दिनों ’निराला’ जी मुहल्ला दारागंज ]इलाहाबाद] में रहा करते थे।पता लगाते लगाते हम दोनों उनके आवास पर पहुँचे। एक पुराने मकान के दूसरी मंज़िल पर उनका निवास था। सीढियों के सहारे ऊपर गए ,कमरा भीतर से बन्द था। दरवाजे को धीरे से थपथपाया तो भीतर से आवाज़ आई-’रुको’।हम लोग रुक गए लेकिन कुछ देर तक भीतर कोई हरकत नहीं मालूम हुई तो फिर दस्तक दिया तो फिर वही आवाज़ आई-’रुको’। फिर हम लोग 3-4 मिनट तक रुके रहे। फिर वही निस्तब्धता मिली तो एक बार फिर हिम्मत कर के दरवाज़ा थपथपाया तो इस बार कपाट खुल गया। सामने एक लम्बी-चौड़ी बलिष्ठ मानव काया प्रकट हुई। जब देखा तो ख़याल आया कि लोगों ने इन्हें ’महाप्राण’ की संज्ञा यूँ ही नहीं दे रखी है।कमरे में पड़ी हुई एक जीर्ण चारपाई की तरफ़ इशारा करते हुए बैठने को कहा। इस पर मैने ’क्षेम’ जी का हाथ धीरे से दबाते हुए मैने कहा -बैठ जाइए नहीं तो पिटने का डर है।
 जब हम दोनो बैठ गए तो प्रश्न हुआ- कौन हो तुम लोग?
क्षेम जी ने उत्तर दिया-विश्वविद्यालय के हिन्दू बोर्डिंग हाउस से आए हैं
दूसरा प्रश्न हुआ -क्यों आए हो?
 हम लोगो ने बताया कि हम लोगो ने एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया है उसी के सभापतित्व के लिए आप को आमन्त्रित करने आए हैं।
निराला जी ने कहा -ज़माना हुआ मैने कवि-सम्मेलनों में आना जाना छोड़ दिया है ।सभापति बनने की तो बात ही नहीं । मैं नहीं आऊँगा ।तुम लोग किसी और को सभापति बना लो।
इस पर क्षेम जी ने दुबारा अनुरोध किया । दुबारा भी उसी आशय का उत्तर मिला। इसके बाद निराला जी असहज हो गए। कमरे में चहल कदमी करते हुए बड़बड़ाने लगे।कहने लगे.....
जानते हो तुम लोग कि जब गंगा में तैरते तैरते जवाहर लाल डूबने लगे तो किसने बचाया था ?.....मालूम है हिन्दी के प्रश्न पर वायसराय से झगड़ा किसने किया था...?
हमलोगो ने कवि जी की असहजता की अनेक बातें सुन रखी थीं आज प्रत्यक्ष देख भी लिया। थोड़ी देर बाद जब वह सहज हुए तो बोले -कह दिया न कि नहीं जाएँगे।
क्षेम जी ने अन्तिम  प्रयास के तौर पर, अन्तिम बार अनुरोध करते हुए कहा -हम लोग विद्यार्थी हैं आप के लड़के के समान है ,आप पिता तुल्य हैं ।लड़को का कहना मान लीजिए .....
इस पर महाकवि निराला जी ने कहा--लड़कों को भी चाहिए कि बाप का कहना मान लें
उन्हें अपने इरादे से हटते न देख हमलोग निराश हो कर छात्रावास लौट आए..।

[क्रमश:----शेष अगली कड़ी में\
[ मेरे स्मृति के पात्र : [अप्रकाशित संग्रह ] से


प्रस्तुतकर्ता
आनन्द.पाठक
09413395592 

रविवार, 17 अप्रैल 2016

" इस बार सिंहस्थ स्नान करें तो जी भर दर्शन भी करें नर्मदा जल का "

 " इस बार सिंहस्थ स्नान करें तो जी भर दर्शन भी करें नर्मदा जल का "

विवेक रंजन श्रीवास्तव
अधीक्षण अभियंता
औ बी ११ विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर जबलपुर

         कुंभ मेले की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही मानी जाती है , मान्यता है कि  आदि शंकराचार्य ने इनकी विधिवत शुरुआत की थी. पौराणिक कथानक के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश हेतु देवताओ और राक्षसों के युद्ध के दौरान धरती पर अमृत की कुछ बूंदें छलक गई थी. ये पवित्र स्थान जहाँ अमृत घट छलका था ,  गंगा तट पर हरिद्वार, गंगा यमुना सरस्वती संगम स्थल पर प्रयाग, क्षिप्रा तट पर उज्जैन और गोदावरी के किनारे नासिक थे।  ग्रहों की निर्धारित स्थितयो के पुनर्निर्मित होने के अनुसार जो लगभग हर 12 वर्षों में वैसी ही बनतीं हैं , क्रमशः हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयाग), नासिक और उज्जैन में लगभग बारह वर्षों के अन्तराल से कुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ के आयोजन के ६ वर्षो के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है . हरिद्वार में पिछला कुंभ २०१० में आयोजित हुआ था ,यहां अगला कुंभ मेला २०२२ में संपन्न होगा . प्रयाग में पिछला कुंभ २०१३ में भरा था . नासिक में पिछला कुंभ २०१५ में संपन्न हुआ . उज्जैन में पिछला कुंभ २००४ में आयोजित हुआ था .   अमृत-कुंभ के लिये स्वर्ग में बारह दिन तक संघर्ष चलता रहा था  , ये १२ दिन पृथ्वी के अनुसार १२ वर्ष के बराबर होते हैं , इसीलिये हर १२ वर्षो में कुंभ का आयोजन किये जाने की परम्परा बनी .  प्रत्येक १४४ वर्षो में हरिद्वार तथा प्रयाग में आयोजित कुंभ को महा कुंभ के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है .
उज्जैन के इस विशाल आयोजन के बाद अब २०१९ में प्रयाग मे अर्धकुंभ , २०२१ में नासिक में अर्धकुंभ के बाद २०२२ में हरिद्वार में कुंभ का भव्य आयोजन होगा , उसी वर्ष उज्जैन में अर्धकुंभ भी आयोजित होगा . उज्जैन में अगला कुंभ २०२८ में संपन्न होगा .
         उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के आने पर यहाँ महाकुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ कुम्भ महापर्व के नाम से देशभर में जाना जाता है। सिंहस्थ कुम्भ महापर्व के अवसर पर उज्जैन का धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व स्वयं ही कई गुना बढ़ जाता है। साधु-संतों का एकत्र होना, सर्वत्र पावन स्वरों का गुंजन, शब्द एवं स्वर शक्ति का आत्मिक प्रभाव यहाँ प्राणी मात्र को अलौकिक शान्ति प्रदान करता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारम्भ होती हैं और वैशाख माह की पूर्णिमा तक यह चलता है .

        द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकाल, 52 शक्तिपीठों में से एक माँ हरसिद्धि, महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन 7 पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है. उज्जैन के अतिरिक्त अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका को मोक्षपुरी होने का गौरव प्राप्त है . भगवान शिव नें त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था. पुरातन 4 प्रमुख कुंभ स्थलों में से एक उज्जयिनी, 12 शक्तियों में से 1 गढ़कालिका, 9 नारायणों का स्थल, षष्ठ गणेश का स्थल, मातृकाओं का स्थल, भैरव स्थल, श्मशान स्थल, वल्लभाचार्य जी की बैठक, पाशुपत सम्प्रदाय की प्रमुख स्थली, नाथ सम्प्रदाय के सर्वोच्च गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की कर्मस्थली होने से उज्जैन के धार्मिक महत्व का वर्णन शब्दों की सीमा से परे है . पावन क्षिप्रा नदी के तट के कारण  युगों-युगों से असंख्य लोगों को उज्जैन ने यात्रा के लिए आमंत्रित किया है . .

इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान
        २००९ में उज्जैन में अभूतपूर्व सूखा पड़ा और पानी की आपूर्ति के लिये शासन को  ट्रेन की व्यवस्था तक करनी पड़ी , शायद तभी क्षिप्रा में सिंहस्थ के लिये वैकल्पिक जल स्त्रोत की व्यवस्था करने की जरूरत को समझा जाने लगा था . ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की स्वीकृति दी गई . इस परियोजना की कामयाबी से महाकाल की नगरी में पहुंची मां नर्मदा . इससे  क्षिप्रा नदी को नया जीवन मिलने के साथ मालवा अंचल को गंभीर जल संकट से स्थायी निजात हासिल होने की उम्मीद है। नर्मदा के जल को बिजली के ताकतवर पम्पों की मदद से कोई 50 किलोमीटर की दूरी तक बहाकर और 350 मीटर की उंचाई तक लिफ्ट करके क्षिप्रा के प्राचीन उद्गम स्थल तक  इंदौर से करीब 30 किलोमीटर दूर उज्जैनी गांव की पहाड़ियों पर जहां क्षिप्रा  लुप्त प्राय है , लाने की व्यवस्था की गई है . नर्मदा नदी की ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के खरगोन जिले स्थित सिसलिया तालाब से पानी लाकर इसे क्षिप्रा के उद्गम स्थल पर छोड़ने की परियोजना से नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवाहित होगा और तकरीबन 115 किलोमीटर की दूरी तय करता हुआ प्रदेश की प्रमुख धार्मिक नगरी उज्जैन तक पहुंचेगा . ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की बुनियाद 29 नवंबर 2012 को रखी गयी थी। इस परियोजना के तहत चार स्थानों पर पम्पिंग स्टेशन बनाये गये हैं। इनमें से एक पम्पिंग स्टेशन 1,000 किलोवॉट क्षमता का है, जबकि तीन अन्य पम्पिंग स्टेशन 9,000 किलोवाट क्षमता के हैं। परियोजना के तीनों चरण पूरे होने के बाद मालवा अंचल के लगभग 3,000 गांवों और 70 कस्बों को प्रचुर मात्रा में पीने का पानी भी मुहैया कराया जा सकेगा। इसके साथ ही, अंचल के लगभग 16 लाख एकड़ क्षेत्र में सिंचाई की अतिरिक्त सुविधा विकसित की जा सकेगी।
        नर्मदा तो सतत वाहिनी जीवन दायिनी नदी है , उसने क्षिप्रा सहित साबरमती नदी को भी नवजीवन दिया है .गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में  डाला जाता है , लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया जाता है  बिजली के पम्प से नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थिति तदनुरूप है .
        नर्मदा का धार्मिक महत्व अविवादित है , विश्व में केवल यही एक नदी है जिसकी परिक्रमा का धार्मिक महत्व है . नर्मदा के हर कंकर को शंकर की मान्यता प्राप्त है , मान्यता है कि स्वयं गंगा जी वर्ष में एक बार नर्मदा में स्नान हेतु आती हैं , जहां अन्य प्रत्येक नदी या तीर्थ में दुबकी लगाकर स्नान का महत्व है वही नर्मदा के विषय में मान्यता है कि सच्चे मन से पूरी श्रद्धा से नर्मदा के दर्शन मात्र से सारे पाप कट जाते हैं तो इस बार जब सिंहस्थ में क्षिप्रा में डुबकी लगायें तो नर्मदा का ध्यान करके श्रद्धा से दर्शन कर सारे अभिराम दृश्य को मन में अवश्य उतार कर दोहरा पुण्य प्राप्त करने से न चूकें , क्योकि इस बार क्षिप्रा के जिस जल में आप नहा रहे होंगे वह इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल होगा .

vivek1959@yahoo.co.in

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

kazi nazrul islaam

इनलाइन चित्र 1
काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीयता
                                                          आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
विश्व का महानतम लोकतंत्र भारत अनेकता में एकता, विविधता में समानता, विशिष्टता में सामान्यता और स्व में सर्व के समन्वय और सामंजस्य का अभूतपूर्व उदाहरण था, है और रहेगा। समय-समय पर पारस्परिक टकराव, संघर्ष और विद्वेष के तूफ़ान आते-जाते रहे किन्तु राष्ट्रीयता, समानता, सहयोग, सद्भाव और वैश्विक चेतना के सनातन तत्व भारत में सदा व्याप्त रहे। स्वाधीनता सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योति रखनेवाले महापुरुषों में २४ मई १८९९ को जन्में तथा २९ अगस्त १९७६ को दिवंगत अग्रणी बांग्ला  कवि, संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा, दार्शनिक, गायक, नाटककार तथा अभिनेता काजी नज़रुल इस्लाम अग्रगण्य रहे हैं
अवदान-सम्मान 
वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, देशप्रेमी तथा बंगलादेश के राष्ट्रीय कवि हैं। भारत और बांग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कवि' कहे गये। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार' तथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है। कोल्कता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कार से सम्मनित कर खुद को धन्य किया रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की।भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जरी किया बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये
जन्म, परिवार तथा संघर्ष-
अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के शासनकाल में एक मुसलमान परिवार बंगाल के हाजीपुर को छोड़कर बर्दवान के पुरुलिया गाँव में आ बसा था परिवार के किसी सदस्य के काज़ी होने के बाद से परिवार के सभी सदस्य नाम के साथ काजी जोड़ने लगे इसी वंश के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून  माँ काली से पुत्र देने हेतु प्रार्थना किया करती थी। उन्होंने २४ मई को एक पुत्र जन्मा जिसे कालांतर में काजी नज़रुल इस्लाम के नाम से जाना गया उनका १ बड़ा भाई, २ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन थी  केवल ८ वर्ष की उम्र में उनके वालिद जो एक मज़ार और मस्जिद की देख-रेख करते थे, का इंतकाल हो गया अभाव और गरीबी इतनी कि लोग उन्हें 'दुक्खू मियाँ' कहने लगे। हालात से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में फजल अहमद के मार्गदर्शन में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी पढ़ने के साथ-साथ भागवत, महाभारत, रामायण, पुराण और कुरआन आदि पढ़कर पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना करने लगे
रानीगंज,  बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे कक्षा में प्रथम आये। यहाँ आजीवन मित्र रहे निबारनचंद्र घटक तथा शैलजानंद मुखोपाध्याय से मित्रता हुई जो बाद में बांगला के प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार हुए। किसी विषय में अनुत्तीर्ण होने पर वे आसनसोल लौटकर माथुरन हाई स्कूल में श्री कुमुदरंजन मलिक के विद्यार्थी रहे। परीक्षा शुल्क की व्यवस्था न होने पर वे पढ़ाई छोड़कर समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटो' में सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिखने लगे और केवल ११ वर्ष की आयु में इस दल के मुख्य 'कवियाल' बने उन्होंने रेल गार्डों के घरों में काम किया, अब्दुल वहीद बेकारी में १रु. मासिक पर काम किया साथ ही संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी बजाना जारी रखा जिससे प्रभावित होकर पुलिस सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला उन्हें अपने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला देश ले गये। अंग्रेज बंगालियों को सेना के अयोग्य भीरु मानते थे किंतु स्कूल की अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़कर १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनी' में यहाँ सैनिक शिक्षा लेने लगे।उन्हें ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा उत्तर-पश्चिम सीमांत पर भेज दिया गया। वहाँ से कराची आकर ;कारपोरल' के निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में १९१९ में 'हवलदार' हो गये। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा (आवारा की आत्मकथा) तथा जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्ति' प्रकाशित होने पर उन्हें ख्यति मिली
एक पंजाबी मौलवी की मदद से उनहोंने फारसी सीखी और फारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़' का अनुवाद आरम्भ किया जो राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण १९३० में छप सकी। दूसरा अनुवाद 'काब्यापारा' १९३३ में तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम' १९५९-६० में छपी ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल न २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर उन्हें श्रद्धान्जलि दी बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ ने 'मुस्लिम भारत' समाचार पत्र कार्यालय में उनसे भेंट कर उन्हें अपना मित्र बनाकर नज्म 'लीचीचोर' माँग ली और मार्च-अप्रैल १९२१ में नजरुल को अपने साथ पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँव, जिला तिपेरा, हैड ऑफिस कोमिल्ला ले गये। अली अकबर के मित्र वीरेंद्र के पिता श्री इंद्र कुमार सेनगुप्त, माँ बिराजसुन्दरी, बहिन गिरिबाला, बहिन की १३ वर्षीय पुत्री प्रमिला (दोलन) उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। नजरुल बिराजसुंदरी को 'माँ' कहते। २ माह बाद अली अकबर की विधवा बहिन की बेटी नर्गिस बेगम के अस्त नजरुल का निकाह १७ जून १९२१ को होने के निमंत्रण पत्र बँट  जाने के बाद अली अकबर द्वारा घर जमाई बनने की शर्त रखी जाने पर नजरुल निकाह रद्द कर दौलतपुर से कोमिल्ला लौट आये। उनकी कई कवितायेँ और गीत नर्गिस के लिये ही थेअंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर अंग्रेजी-विरोध के कारण नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। 'धूमकेतु' पत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के कारण १९२३ में उन्हें एक वर्ष का कारावास दिया गया, छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। १८ जून १९२१ से ३ जुलाई तक नजरुल सेनगुप्त परिवार के साथ रहे नज्म 'रेशमी डोर' में ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतो, आमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखकर और 'स्नेहातुर' कविता में नजरुल ने सेनगुप्त परिवार से स्नेहिल संबंधों को अभिव्यक्त किया वे इस नैराश्य काल में एकमात्र आशावादी कविता 'पलक' लिख सके। ब्रम्ह समाज से जुडी उक्त प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह कर लिया 
विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम संतान तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी, इसका दूसरा भाग १९५२ में छपा। 'दारिद्र्य'शीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल' का प्रथम अनुवाद किया
सांप्रदायिक सद्भाव के अग्रदूत 
नजरुल की कृष्णभक्ति परक रचनाओं में आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में, अरे अरे सखि बार बार छि छि, अगर तुम राधा होते श्याम, कृष्ण कन्हैया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ, चक्र सुदर्शन छोड़ के मोहन तुम बने बनवारी, जन-जन मोहन संकटहारी, जपे त्रिभुवन कृष्ण के नाम, जयतु श्रीकृष्ण श्री कृष्ण मुरारी, झूले कदम के डार पे झूलना किशोर-किशोरी, झूलन झुलाए झाउ झक झोरे, तुम प्रेम के घन श्याम मैं प्रेम की श्याम-प्यारी, तुम हो मेरे प्रेम के मोहन मैं हूँ प्रेम अभिलाषी, देखो री मेरो गोपाल धरो है नवीन नट की साज , नाचे यशोदा के अँगना में शिशु गोपाल, प्रेम नगर का ठिकाना कर ले, मेरे तन के तुम अधिकारी ओ पीताम्बरधारी, यमुना के तीर पर सखी री सुनी मैं, राधा श्याम किशोर प्रीतम कृष्ण गोपाल, श्याम सुन्दर मन मन्दिर में आओ, सुन्दर हो तुम मनमोहन हो मेरे अंतर्यामी, सोवत-जागत आठूं जान रहत प्रभु मन में तुम्हरो ध्यान, हर का भजन कर ले मनुआ आदि नजरुल की प्रमुख कृष्ण भक्ति रचनाएँ हैं
टैगोर तथा शरत से प्रभावित नजरुल के लिखे दाता कर्ण, कवि कालिदास, शकुनि वध आदि नाटक खूब लोकप्रिय हुएवे यथार्थ पर आधारित, प्रेम-गंध पूरित, देशी रागों और धुनों से सराबोर, वीरता, त्याग और करुणा प्रधान नाटक लिखते और खेलते थे पारंपरिक रागों का शुद्ध प्रस्तुतीकरण करने के साथ आधुनिक धुनों में भी ओजस्वी बांगला ३००० से अधिक गीति-रचना तथा अधिकांश का गायन कर संगीत की विविध शैलियों को उन्होंने समृद्ध किया। इसे 'नजरूल गीति' या 'नजरुल संगीत' के नाम से जाना जाता है। विद्रोही, धूमकेतु, भांगरगान, राजबन्दिर, जबानबंदी तथा नजरुल गीति उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावली, भाग १, पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता विहीनविचारों का दर्पण है- 
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है 
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं
चोटी में हिंदुत्व नहीं, शायद पांडित्य है
जैसे कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व  नहीं, शायद मौल्वित्व है
और इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को, 
बालों को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है 
आज जो लड़ाई छिड़ती है 
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है 
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा 
इंसान तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर
कविता में विद्रोह मंत्र-  
अपनी कविताओं के माध्यम से नज़रूल ने देश के प्रति बलिदान और विदेशी शासन के प्रति विद्रोह के भाव जगाये। मुसलमान होते हुए भी वे माँ काली के समर्पित भक्त थे। उनकी अनेक रचनाएँ माँ काली को ही समर्पित हैं। भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करने पर उनकी रचनाओं  ने उन्हें 'विद्रोही कवि' का विरुद दिलवाया अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध भी उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कवि, गायक, संगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचार, सामाजिक अनाचार, निर्बल के शोषण, साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात् बांगला के दूसरा महान कवि हैं। स्वाभिमानी, समन्ता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ते हुए किसी शायर को अपना उस्ताद नहीं बनाया। अपने धर्म निरपेक्ष सिद्धांतों के अनुसार वे मस्जिद में इबादत और माँ काली की पूजा में विरोधाभास नहीं मानते थे
एक अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही है। नजरुल के लोकप्रिय नाटकों में १. चाशार शौंग, २. शौकुनी बोध, ३. राजा युधिष्ठिर, ४. दाता कोर्ना (कर्ण), ५. अकबर बादशाह, ६. कॉबि (कवि) कालिदास , ७. बिद्यान होतुम (विद्वान उल्लू), ८. आले आ १९२५-३१, ९. मधुमाला, १०. झली मली १९३०, ११. मधुमाला १९५९-६० मुख्य हैं 'भंगार गान' में नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाट, भेंगे फेल कार-रे लोपात, रक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदी' अर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाट, रक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीर' अर्थात कहो, हे वीर कहो की मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुम घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'बिजली' में यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भरी मांग के कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया
नजरुल ने धूमकेतु पत्रिका का प्रकाशन सन १२ अगस्त १९२२ से रवीन्द्र नाथ ठाकुर, शरत चन्द्र चटर्जी, बारीन्द्र कुमार घोष आदि विभूतियों के आशीष से आरंभ कर 'जागिये दे रे चमक मेरे, आछे जारा अर्ध चेतन! (' अर्धचेतना में जो अब भी चमको उन्हें जगाओ रे!') सन्देश दिया। धूमकेतु में की गयी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बाद में काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२), दो निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८), रूद्र मंगल, 'वशीर बंसी' तथा 'भंगारन' में प्रकाशित की गयीं जिन्हें सरकार ने अवैध घोषित कर दिया 
नजरुल रूसो के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की क्रांति से बहुत प्रभावित थे। १६ जनवरी १९२३ में नजरुल को कैद होने के बाद धूमकेतु का प्रकाशन बंद हो गया। १९६१ में धुन्केतु शीर्षक से उनका निबन्ध संकलन छपा। साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया बनकर नजरुल ने नौजूग (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग बानी'(युगवाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया नजरुल की क्रन्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त  सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल में भूख-हड़ताल की, टैगोर के लिखित अनुरोध पर भी अनशन न तोडा तो उनकी माँ को स्वयं काराग्रह पहुँचकर अनशन तुडवाना पड़ाकारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैं, हममें भी जोश जाग रहा है, हम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से हम 'मार्च पास्ट' के समय ऐसे ही गीत गायेंगे। इनके गीत गाने और सुनने से हमें कैद भी कैद नहीं लगेगी ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीटी और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये।व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को ही कठिनाई में डाला है)
शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थीं गीत 'मरन-मरन' में 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसार' में जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेली? अलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल जनगन को निर्भयता का पाठ पढ़ा रहे थे। सन १९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर  पैक्ट' गीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा की हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारामें विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे हैं। फिर एक बार संगठित हों, जाति, धर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांति, साम्य, अन्न, वस्त्र आदि अर्जित करें।सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मद, अरिंदम (शत्रुजयी), सव्यसाची (अर्जुन) और अनिरुद्ध (जिसे रोक न जा  सके, श्रीकृष्ण का पौत्र) रखे 
स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखा क्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह की अंग्रेजों के उठे सर देखकर तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। प्रत्यक्षत: कुछ न कहकर परोक्षत: कहने की यही शैली दुष्यंत ने आपातकाल में 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं' लिखकर अपनायी नर्गिस बेगम विवाह न हो पाने के बाद भीनजरुल को भुला न सकीं और बार-बार मिलने की चेष्टा करतीं एक जुलाई १९३७ को एच एम् व्ही कंपनी के लिए रिकोर्ड गीत की पहली पंक्ति 'जार हाथ दिये माला, दिते पारो नाईं / कैनी मने राखा तारे? भूल जाओ तारे, भूले जाओ एके बारे।' (न हाथों में माला देकर भी न दे सकीं / क्यों करती हो याद?, बिसारो, भुला दो उसे एकदम)
नजरुल ने कोमिल्ला में रहते हुए गाँधी जी के आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर जनानुभूतियों को अभिव्यक्ति दे अपर लोकप्रियता पाई। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? ट्रीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल) 
नजरुल गाँधी-दर्शन से पूर्णत: सहमत न थे।उनके अनुसार 'राजबंदी जवानों का लक्ष्य स्पष्ट है,गाँधी जी जिसे दुष्ट सरकार कहते हैं उसकी और अधिक वैध तथा सामूहिक उपकरणों से भर्त्सना करना ही आज उद्दिष्ट है। कवि ईश्वर की एक ऐसी चुनी हुई आवाज़ है जो सदैव यथार्थ और सत्य का पृष्ठपोषण करती है। वह ईश्वर और न्याय का पक्ष ग्रहण करती है और सभी घृणा योग्य उपकरणों को नष्ट-भ्रष्ट करने का साधन है।' उर्दू शायर फैज़ अहमद 'फैज़' ने कारावास में लिखा था 'मताए लौहो-कलम छीन गयी तो क्या गम है?/ कि खूने-दिल में डुबो ली हैं अंगुलियाँ मैंने/ज़बां पर मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है/हरेक हलक-ए-जंजीर में ज़बां मैंने
नजरुल कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह करने के लिए ही उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत है, भेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के निर्देशों की पूर्ति करने यत्न ही किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतार, मरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि निशीथे, यात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वन, विकट मरुस्थल / सागर का विस्तार /निशा-तिमिर में, हमें लाँघना, पथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- आमरा शक्ति, आमरा बल, आमरा छात्र दल (हमारी शक्ति, हमारा बल, हमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- चल रे चल चल, ऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तल, अरुण प्रान्तेर तरुण दल, चल रे चल चल (चलो रे चलो, नभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में युवकों, आगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्या कहानी संग्रह ब्याथार दान १९२२, १९९२, रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं         
संगीत में दक्षता- 
नजरुल में शैशव से हो संगीत के प्रति अभिरुचि, लग्न तथा प्रतिभा की त्रिवेणी प्रवाहित थी।उनके ग्राम के शास्त्रीय संगीत के प्रकन्द विद्वान क्षितीश्चन्द्र कांजीलाल ने इसे तराशा-निखारा। नसरुल की हारमोनियम, ढोलक और तबला वादन ततः साथ-साथ गायन में महारत थी। उन्होंने लगभग ४००० गीत रचे। 'छन्दसी' नामक गीति काव्य में उन्होंने दस संस्कृत-छंदों का प्रयोग किया।आकाशवाणी के लिये 'नव राग मालिका' के अंतर्गत लगभग ५०० प्रेम-गीत रचे। नजरुल ने  उदासी भैरव, रूद्र भैरव, आशा भैरव, अरुण रंजनी, योगिनी, देवयानी चांपा, संध्या मालती, वनकुंतला, शंकरी, मीनाक्षी, रूप्म्न्जरी, निर्झणी (निर्झरिणी) शिव सरस्वती, रक्त हंस सारंग आदि अनेक नये रागों का शोध किया हिंदी-उर्दू के प्रसिद्द कवी आमिर खुसरो की तरह नजरुल ने भी कई तालों का अविष्कार किया जिनमें बीस मात्रा की नौनंद ताल तथा सात मात्रा की प्रियाछ्न्द ताल मुख्य हैं उनहोंने बांगला भाषा, संगीत, भावों और अनुभूतियों के अनुकूल रागों के प्रयोग को प्राथमिकता दी उनकी रचनाओं में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत, अरबी संगीत नीर-क्षीर की तरह प्रवाहमान होते रहे। १९३० से १९४० के मध्य उन्होंने प्रतिदिन कम से कम १२ गीत तथा कुल ४००० गीत रचे जिनमें से आधे आज भी प्राप्त हैं तथा शेष को शोधा जाना आवश्यक है
नजरुल के गीत बाउल, झूमर, संथाली आदि तथा सँपेरों के भठियाली, भाउआ आदि लोक गीतों पर आधारित, काव्यात्मक सौन्दर्य तथा श्रेष्ठ संगीतात्मकता से परिपूर्ण हैं। नजरुल ने बांगला काव्य में सर्वप्रथम 'गजल' काव्य विधा का प्रयोग कर औरों को राह दिखाई। उनकी आत्मकथा 'बांडुलेयेर आत्मकाहिनी' जुलाई १९१९ में 'बंगला-मुस्लिम साहित्य पत्रिका में छपी प्रथम काव्य संग्रह 'बोधान' तथा उपन्यास 'बंधनहारा १९२० में प्रकाशित हुआ। राष्ट्रभाषा परिषद् वर्धा के तत्वावधान में नजरुल की जीवनि, प्रमुख कवितायेँ व गीत गोपाल हालदार के संपादन में छपे। १९३२ से ३५ के मध्य उनके ८०० गीत १० संग्रहों में छप चुके थे जिनमें से ६०० शास्त्रीय रागों तथा लोक संगीत की कीर्तन धुनों पर आधारित और ३० राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण थे। उनके अनेक गीतों में राग भैरव का प्रभाव दृष्टव्य है।   
  • गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर के बांगला उपन्यास 'गोरा' के चलचित्रीकरण में नजरुल संगीत निर्देशक रहे। सचिन सेनगुप्ता के नाटक 'सिराजुद्दौला' में नजरुल का गीत-संगीत कमाल का था। सं १९३८ में वे कोलकाता रेडियो स्टेशन में समस्त कार्यक्रमों के अधिष्ठाता थे। उन्होंने संगीताधारित डोक्युमेंट्रियाँ हारामोनी, नव्राग मल्लिका आदि प्रसारित कीं। नजरुल के गीतों में फीरोजा बेगम, सुपर्वा सरकार, अंगूरबाला, इंदु बाला, अंजली मुखर्जी, ज्ञानेंद्र प्रसाद मुखर्जी, नीलोफर, यास्मीन, मानवेन्द्र मुखर्जी, कनिका मजूमदार, दिपाली नाग, सुकुमार मित्रा, महेंद्र मित्रा, धीरेन बासु, पूर्बी दत्ता, फिरदौस आरा, शाहीन समद, सुष्मिता गोस्वामी आदि ने अपनी आवाज़ देने का सौभाग्य पाया। एच एम् व्ही कंपनी ने नजरुल के सुयोग्य शिष्यों सचिन देव बर्मन, जोथिका रॉय, सुपर्वा सरकार, के मलिक, गीता बासु, सीता चौधरी आदि के लिये रिकार्ड बनाये। कमल-काँटा, नदी में ज्वार, मेरी कैफियत, भिखारी तुम कौन हो,आज भी रोये मन में कोयलिया, सावन की रात में गर स्मरण तुम आये के लिए नजरुल चिरकाल तक याद किये जायेंगे
​​
​​नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। उन्होंने कई चित्रपटीय गीतों में संगीत दिया। उनके कालजयी गीतों में से कुछ 'ये किसका तसव्वुर है (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), वो कब के आये भी (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), एक लफ्ज़ मुहब्बत का (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), चौरंगी है ये चौरंगी (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), झूमे-झूमे मन मतवाला (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), आजा री निंदिया तू (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कैसे खेलन जावे सावन मां कजरिया (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी),सारा दिन छत पीटी हाथ हूँ दुखाई रे (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), जो उनपे गुजरती है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), हम इश्क के मारों का इतना ही फसाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कोई उम्मीद बर नहीं आती (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार मिर्ज़ा ग़ालिब), आओ मेरी बिगड़ी के बनानेवाले (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार आरजू लखनवी), दिल संगे मलामत का हर चाँद निशाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी)' आदि हैं
सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल अज्ञात रोग से ग्रस्त होकर बधिर हो गये। कोलकाता तथा कराँची में स्वस्थ्य लाभ न होने पर चिंतित शुभचिंतकों ने 'नजरूल ट्रीटमेंट सोसायटी' गठित की श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संस्तुति पर उन्हें लन्दन भेजा गया वियना में मस्तिष्क रोग विशेषज्ञों ने उन्हें 'मोरबस पिक्स' नामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त पाया। सन १९६२ में उनकी पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी।सं १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये और  अगस्त १९७६ को  परलोकवासी हुए। नजरुल इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओं, अपनी यादों, अपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेष, विखंडन, अविश्वास, आतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्ष, नजरुल की राष्ट्रीयता, नजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। काजी नजरुल इस्लाम के एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-  
"महाविद्रोही रण क्लांत 
आमि शेई दिन होबो क्लांत 
जोबे उतपीड़ितेर क्रंदनरोल 
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना 
अत्याचारीर खंग-कृपाण  
भीम रणेभूमे रणेबे ना 
विद्रोही ओ रणेक्लांत 
आमि शेई दिन होबो शांत"
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब 
आह या चीत्कार दुखी की 
आग न नभ में लगा सकेगी 
और बंद तलवारें होंगी 
चलना अत्याचारी की जब 
तभी शांत  मैं हो पाऊँगा 
तभी शांत मैं हो जाऊँगा)
*************************

    गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

    चन्द माहिया :क़िस्त 32

    :1:

    माना कि तमाशा है
    कार-ए-जहाँ यूँ सब
    फिर भी इक आशा है

    :2:
    दरपन तो दरपन है
    झूट नहीं बोले
    क्या बोल रहा मन है ?

    :3:
    छाई जो घटाएं हों
    दिल क्यूँ ना बहके
    सन्दल सी हवाएं हों

    :4:
    जितना देखा है फ़लक
    उतना ही होगा
    बातों में सच की झलक

    :5:
     कैसा ये नशा ,किसका ?
    कब देखा उस को ?
    एहसास है बस जिसका

    -आनन्द पाठक
    09413395592