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रविवार, 9 अगस्त 2015

रात काले बादलो की

रात काले बादलो की

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
                                 ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
                                      रामपुर, जबलपुर
                                      मो.9425806252

आ  गई सजधज संवर बारात काले बादलो की
छा गई नभ मे उमडकर पांत काले बादलो की

जल रहे थे सब धरा पर तेज झुलसाती तपन थी
सुधि भुलाये से पडे थे लोग व्याकुल तब बदन की
तभी दर्षन दे सुहावन दो अमृत बूंदे गिराकर
दे गई थी सूचना बदली पवन संग आगमन की
कान मे कुछ कह सलोनी बात काले बादलो की

धरा पुलकित लोग प्रमुदित प्रकृति पै नव रंग छाया
मधुरता वातावरण मंे भर मलय वातास आया
मिली शीतलता बदन को सांस को आभास मीठा
लहरती ठंडी फुहारो ने सुखद उत्सव रचाया
आई फिर बरसात ले सौगात काले बादलो की

समाया उल्लास धरती गगन के हर एक कण मे
सिंधु लहरे ले चला हर नयन मे हर एक मन मे
सभी जड चेतन मगन से प्राण जैसे हो गये सब
मौन उत्कंठा अपरिमित भर रही सपने नयन मे
रात भर सोने न देगी रात काले बादलो की

Raghuvansham : kalidash Mahakavya by Prof C B Shrivastava

श्रीमद् भगवत गीता : प्रो सी बी श्रीवास्तव 'विदग्ध': हिन्दी पद्यानुवादक प्रो सी बी श्रीवास्तव 'विदग्ध'

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

muktika / hindi gazal

विशेष आलेख: 

मुक्तिका / ग़ज़ल

संजीव
*

मुक्तिका: संस्कृत साहित्य से हिंदी में और अरबी-फ़ारसी साहित्य से उर्दू में एक विशिष्ट शिल्प की काव्य रचनाओं की परंपरा विकसित हुई जिसे ग़ज़ल या मुक्तिका कहा जाता है. इसमें सभी काव्य पंक्तियाँ समान पदभार (वज़्न) की होती हैं. इसके साथ सभी पंक्तियों की लय अर्थात गति-यति समान होती है. पहली दो पंक्तियों में तथा इसके बाद एक पंक्ति को छोड़कर हर दूसरी पंक्ति में तुकांत-पदांत (काफ़िया-रदीफ़) समान होता है. रचना की अंतिम द्विपदी (शे'र) में रचनाकार अपना नाम/उपनाम दे सकता है.

गीतिका: गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र मात्रिक छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है. इस छंद का मुक्तिका या ग़ज़ल से कुछ लेना-है.
उदहारण : 
रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका 
क्यों बि सारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीति का 
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये 
पाद पंकज हीय में धरि, जन्म को फल पाइए
इस छंद में तीसरी, दसवीं, स्रहवींऔर चौबीसवीं मात्राएँ लघु होती हैं.


हिंदी ग़ज़ल को भ्रमवश 'मुक्तिका' नाम दे दिया गया है जो उक्त तथ्य के प्रकाश में सही नहीं है. मुक्तिका सार्थक है क्योंकि इस शिल्प की रचनाओं में हर दो पंक्तियों में भाव, बिम्ब या बात पूर्ण हो जाती है तथा किसी द्विपदी का अन्य द्विपदियों से कोई सरोकार नहीं होता।

कवि (शायर) = कहने / लिखनेवाला.

द्विपदी (शे'र बहुवचन अशआर) = दो पंक्तियाँ जिनका पदभार (वज़्न) तथा छंद समान हो.

शे'र = जानना, अथवा जानी हुई बात.  
 
पंक्ति (मिसरा) = शे'र का आधा हिस्सा , दो मिसरे मिलकर शे'र बनता है. शे'र के दोनों मिसरों का एक ही छंद में तथा किसी बह्र के वज़्न पर होना जरूरी है. द्विपदी में ऐसा बंधन है तो पर कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है.
पदांत / पंक्त्यान्त (रदीफ़, बहुवचन रदाइफ) = पंक्ति दुहराया जानेवाला अक्षर, शब्द या शब्द समूह.

तुकांत (काफ़िया, बहुवचन कवाफ़ी) = रदीफ़ के पहले प्रयुक्त ऐसे शब्द जिनका अंतिम भाग समान हो.

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में पहली दो पक्तियाँ मुखड़ा (मतला) हैं. 'लगे हैं' पदांत (रदीफ़) है जबकि 'आ' की मात्रा तथा 'ने' तुकांत (काफ़िया) है. काफ़िया केवल मात्रा भी हो सकती है.

पदांत (रदीफ़) छोटा हो तो ग़ज़ल कहना आसान होता है किन्तु उस्ताद शायरों ने बड़े रदीफ़ की गज़लें भी कही हैं. मोमिन की प्रसिद्ध ग़ज़ल के दो अशआर:
कभी हममें तुममें भी चाह थी, कभी हममें तुममें भी राह थी 
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेशतर, वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो

यहाँ 'आशना' तथा 'ज़रा' कवाफी हैं जिनमें सिर्फ बड़े आ की मात्रा समान है जबकि सात शब्दों का रदीफ़ ' तुम्हें याद हो कि न याद हो' है.

द्विपदी / मुक्तक / बैत = स्फुट (फुटकर) कही गयी द्विपदी या अवसर विशेष पर कही गयी द्विपदी। इनकी प्रतियोगिता (मुकाबला) को अंत्याक्षरी (बैतबाजी) कहा जाता है.

आरंभिका / उदयिका (मतला): मुक्तिका दो पंक्तियाँ जिनमें समान पदांत-तुकांत हो मुखड़ा (मतला) कही जाती हैं. सामन्यतः एक मतले का चलन (रिवाज़) है किन्तु कवि (शायर) एक से अधिक मतले कह सकता है. दूसरे मतले को मतला सनी, तीसरे मतले को मतला सोम, चौथे मतले को मतला चहारम आदि कहा जाता है. उस्ताद शायर शौक ने १० मतलों की ग़ज़ल भी कही है, जिसमें रदीफ़ भी है. गीत में मुखड़ा, स्थाई अथवा संगीत में टेक पंक्तियाँ जो भूमिका निभाती हैं लगभग वैसी ही भूमिका मुक्तिका में आरंभिका या मतला की होती है.

अंतिका / मक़्ता: मुक्तिका की अंतिम द्विपदी मक़्ता कहलाती है. रचनाकार चाहे तो इन पन्क्तियों में अपना नाम या उपनाम (तखल्लुस) या दोनों रख सकता है.  

उपनाम (तखल्लुस): बहुधा प्रसिद्ध शायरों के असली नाम लोग भूल जाते हैं, सिर्फ उपनाम याद रह जाते हैं, जैसे नीरज, बच्चन, साहिर आदि. कुछ शायर नाम को ही तखल्लुस बना लेते हैं. यथा- फैज़ अहमद फैज़, अपने स्थान का नाम भी तखल्लुस का आधार हो सकता है. जैसे: बिलग्रामी, गोरखपुरी आदि. शायर एक से अधिक तखल्लुस भी रख सकते हैं. यथा मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ने 'असद' तथा 'ग़ालिब' तखल्लुस रखे थे. शायर मतले और मक़ते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग कर सकते हैं.

हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन 'फ़राज़' हम
बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी
.
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा?

परामर्श (इस्लाह): इसे आम बोलचाल में 'सलाह' कहा जाता है. इसका उद्देश्य सुधार होता है. साहित्य के क्षेत्र में रचनाकार किसी विद्वान गुरु (उस्ताद) को अपनी रचना दिखाकर उसके दोष दूर करवाता है तथा रचना की गुणवत्ता वृद्धि के लिये परिवर्तन (बदलाव) करता है. यही इस्लाह लेना है. रचना-विधान की जानकारी तथा रचना सामर्थ्य हो जाने पर गुरु (उस्ताद) शिष्य (शागिर्द) को परामर्श मुक्त (फारिगुल इस्लाह) घोषित करता है, तब वह स्वतंत्र रूप से काव्य .रचना कर सकता है.हिंदी में अब यह परंपरा बहुत कम है. रचनाकार प्राय: किसी से नहीं सीखते या आधा-अधूरा सीखकर ही लिखने लगते हैं.

भार (वज़्न): काव्य पंक्तिओं को जाँचने के लिये मापदंड या पैमाने यह हैं, इन्हें छंद (बह्र) कहते हैं. बह्र का शब्दार्थ 'समुद्र' है. छंद में अभिव्यक्ति के सम्भावना समुद्र की तरह असीम-अथाह होती है इस भावार्थ में 'बह्र' छंद का पर्याय है. हिंदी में काव्य पंक्तिओं के छंद की गणना मात्रा तथा वारं आधारों पर की जाती है तथा उन्हें मात्रिक तथा वर्णिक छंद में वर्गीकृत किया गया है. उर्दू में लय खण्डों का प्रयोग किया गया है.

तक़तीअ: तक़तीअ का शब्दकोषीय अर्थ 'टुकड़े करना' है. हिंदी का छंद-विन्यास उर्दू का तक़तीअ है. शब्द-विभाजन गण या गण समूह (रुक्न बहुवचन अरकान) के भार पर आधारित होता है.

गण (रुक्न): रुक्न का शाब्दिक अर्थ स्तम्भ है. छंद रचना में गण (शब्द समूह) स्तम्भ के तरह होते हैं जिन पर छंद-भवन का भार होता है. गण ठीक न हो तो छंद ठीक हो ही नहीं सकता।

छंद (बह्र): संस्कृत-हिंदी पिंगल के धारा, प्रामणिका, रसमंजरी आदि छंदों की तरह उर्दू में भी कई छंद ( बह्रें) हैं. जैसे  बह्रे-रमल, बह्रे-हज़ज आदि. कुछ नयमों का पालन कर नये अरकान तथा छंद बनाये जा सकते हैं. अरबी फ़ारसी में प्रचलित मूल बह्रें १९ हैं जिनमें से ७ में एक ही रुक्न की आवृत्ति (दुहराव) होता है. इन्हें मुदर्रफ़ बह्र (एकल छंद) कहा जाता है. शेष १२ बह्रों में एक से अधिक अरकान का प्रयोग किया जाता है. ये मुरक्कब बह्रें (यौगिक छंद) कहलाती हैं.

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

शोध लेख:

शोधपरक लेख :

मालवांचल के काया गीतों में व्याप्त जीवन दर्शन

स्वर्णलता ठन्ना


चित्रांकन
संदीप कुमार मेघवाल
लोक जीवन से जुड़ाव का मुख्य स्त्रोत गीत ही है। यदि लोकजीवन का स्पन्दन लयात्मकता के साथ हो, लोगों के दुख-दर्द की सही अभिव्यक्ति गीतों में हो तो ये गीत जनमानस की भावनाओं के संवाहक होने के साथ सही अर्थों में जनगीत बन जायेंगे। गीतों की सबसे लोकप्रिय शैली लोकगीत है। ‘लोकगीत’  का अर्थ है लोक परिवेश से जन्मा एवं वहीं की गायन शैली मे गाया जाने वाला गीत। यानी एक ऐसा गीत जो लोकरंग एवं लोकतत्वों को अपने में समाहित किए हो और लोककंठों द्वारा लोकधुनों में गाया जाय। वैसे गीत तो मानव जीवन का स्वर है मनुष्य की जययात्रा का वरदान है। पाश्चात्य दाशर्निक हीगेल ने गीत के सम्बन्ध मे लिखा है - ‘‘गीत सृष्टि की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इच्छा, विचार और भाव उसके आधार होते हैं।“  डॉ. राजेश सिंह ने अपनी पुस्तक ‘नवगीत का उद्भव एवं विकास’ में गीत एवं संगीत को परिभाषित करते हुए लिखा है -‘राग-रागिनियों से सज्जित गान को संगीत कहा गया है और छन्दबद्ध गेय रचनाओं को गीत।1

लोकगीतों के बारे में हम कह सकते हैं कि संपूर्ण संसार में मानव के अविर्भाव से लोकगीतों का उद्गम माना जाता है। यद्यपि लोकगीतों के जन्म की कोई निर्धारित काल रेखा नहीं है, परन्तु मौलिक परम्परा के अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में ये निरन्तर असीम अतीत के गर्भ में छिपे उद्गम स्त्रोत की ओर इंगित करते हैं। लोकगीतों की अनंत प्रवाहमयी परम्परा की प्राचीनता के संबंध में पं. रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है- ”जब से पृथ्वी पर मनुष्य है, तब से गीत भी है। जब तक मनुष्य रहेंगे, तब तक गीत भी रहेंगे। मनुष्यों की तरह गीतों का भी जीवन-मरण साथ चलता रहता है। कितने ही गीत तो सदा के लिए मुक्त हो गए। कितने ही गीतों ने देशकाल के अनुसार भाषा का चोला बदल डाला, पर अपने असली स्वरूप को कायम रखा। बहुत से गीतों की आयु हजारों वर्ष की होगी। वे थोडे फेरबदल के साथ समाज में अपना अस्तित्व बनाये हुए है।2

        लोकगीत समय के साथ चलते हैं। समय और स्थान के अनुसार उनमें नाम और शब्द बदलते हैं, गीत वही रहता है, धुन वही रहती है। इस प्रकार परम्परागत अनजाने काल में निर्मित वे धुनें कण्ठ-कण्ठ से यात्रा करती हुई आज तक आ पहुँची हैं। उन गीतों में भजन है, प्रकृति के गीत है, जन्मपूर्व से मृत्यु तक के संस्कार गीत है। उन गीतों में स्थान, जाति एवं समुदाय के अनुसार स्वराघात या पारिवारिक विशेषता के कारण हल्के-फुल्के पाठांतर चाहे मिल जाए लेकिन मूल स्वर सबका एक ही रहता है। लोक साहित्य श्रुति साहित्य है। वैदिक साहित्य अपरिवर्तनशील पुरूष गीत है। लोकगीत परिवर्तनशील महिला गीत है। परन्तु अनुष्ठान के बिना दोनों पूर्ण नहीं होते। सब गीत विशेष अवसर, अनुष्ठान या कर्म से संबंधित है। ऐसे गीतों की अटूट परम्परा पूरे देश में है।3
   
        गीत महिलाओं की प्रेरणा शक्ति हैं, वे गीतों में हंसती हैं, गीतों में रोती हैं, गीतों में ढाढस पाती हैं, ढाढस देती हैं। वे गीतों के संसार में रमती रहती हैं। गीत की गति के साथ हंसिया भी चलता रहता है। पनघट से भरी गगरी गीतों से और रसीली हो जाती है। घट्टी की धुन में रूक-रूक कर एकाकी गीत नीरव को निरंतर रागिनी से भरता रहता है। गीत प्रीत के, गीत विरह के, गीत उलाहने के, गीत प्रतीक्षा के, गीत किस-किस के नहीं?4  लोकगीतों पर अपनी परिभाषा में डॉ. श्रीधर मिश्र कहते है - ‘अनुभूतियों के ज्वार में मानव का मन भंवर की भांति चक्कर काटता है, ऐसी स्थिति में हृदय के कोने से कोयल की भांति प्रेरणा उपजती है। शब्द मुखरित होते हैं, लय लिपट जाती है और गीत कंठ से निःसृत होने लगते हैं।’

        भारतीय जन अपने उल्लास, उमंग, शोक, विपदा, दर्द, खुशी सारे अनुभावों को लोकगीतों के माध्यम से जीवन में व्यक्त करते हैं। फिर चाहे वह हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मनाए जाने वाले संस्कार ही क्यों न हो, सभी समारोह में लोकगीतों की गूंज सुनाई दे ही जाती है। हिन्दुओं में षोडश संस्कार माने जाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार लगभग सभी जातियों में किसी न किसी रूप में मनाये जाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में प्रायः गीत गाये जाते हैं। सभी संस्कारों के गीत उन परिस्थितियों को दर्शाते और संबल देते प्रतीत होते हैं। इन्हीं लोकगीतों की शृंखला में आते हैं, मृत्यु के समय गाये जाने वाले गीत। मृत्यु संस्कार मानव जीवन का अंतिम संस्कार है यद्यपि मृत्यु का अवसर शोक और रुदन का होता है किन्तु फिर भी कहीं-कहीं गीत गाने की प्रथा प्रचलित है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत शोक, करुणा और विलाप से युक्त होते हैं।

       मृत्यु गीतों की प्राचीनता पर विचार करते हुए ऋगवेद के कुछ सूक्तों को प्रभाव रूप में उपस्थित किया जा सकता है। ऋगवेद में मृत व्यक्ति के प्रति शोक प्रकट  करने के अनेक सूक्त मिलते है। मृत व्यक्ति की आत्मा किस मार्ग से स्वर्ग जाएगी, उसकी रक्षा को कौन रक्षक रहेंगे आदि का वर्णन ऋगवेद की ऋचाओं में बड़े रोचक ढंग से किया गया है। मृतात्मा के लिए कहा गया है-          
प्रेहि-प्रेहि पथिमि पूव्येभिः,यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः।
उमा राजाना स्वधया मदन्ता,यमं पशेयासि वरूणं देवम्।।-ऋगवेद 10।14।7

       रामायण और महाभारत में विशेष व्यक्तियों की मृत्यु पर विलाप के अनेक प्रसंग आये हैं ऐसे प्रसंगों को मृत्यु-गीतों की श्रेणी में रखा जा सकता है। कालिदास ने कुमारसंभव में रति का बड़ा मर्मस्पर्शी विलाप कराया है।5 रघुवंश में भी महाकवि ने इंदुमति की अकाल मृत्यु पर राजा अज का जो शोक व्यक्त किया गया है वह विश्व साहित्य में अद्वितीय है। श्रीमद्भागवत में कृष्ण द्वारा कंस के संहार हो जाने पर उसकी रानियां घोर विलाप करती है ।6 उर्दू साहित्य में मृत्यु के अवसर पर प्रचलित शोक गीतों को मर्सिया कहते हैं। ये ’मर्सिया’  करुणा और शोक से युक्त अत्यंत मार्मिक प्रभाव मन पर डालते हैं। अंग्रेजी में भी किसी व्यक्ति की मृत्यु पर कुछ पेशेवर स्त्रियां बुलाई जाती है। जो मृत व्यक्ति के गुणों का वर्णन करती हुई विलाप करती है। यह विलाप एक विशेष प्रकार की लय में बद्ध होता है।7  केवल साहित्य में ही नहीं, बल्कि साहित्य से इतर ग्रामीण क्षेत्र के लोकगीतों में भी मृत्यु के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों की प्रथा अत्यंत प्राचीन है। इन गीतों के लिए कोई विशेष छन्द या राग का निर्धारण नहीं है। भारत के विभिन्न प्रांतों में इन गीतों के विविध रूप व्याप्त हैं। भोजपुरी, अवधी आदि क्षेत्रों में मृत्यु गीत गाने की किसी विशेष प्रथा का प्रचलन नहीं है। मृत्यु के पश्चात तेरहवें दिन मृत व्यक्ति का श्राध्द होता है, जिसे तेरहवीं कहा जाता है। इस अवसर पर ब्राह्मणों एवं कुटुम्बियों को भोज दिया जाता है। तेरहवीं के दिन स्त्रियां अनेक गीत गाती है जिनमें निर्वेद भाव की प्रधानता होती है। अवधी क्षेत्र में इस अवसर पर देवी के भजन गाये जाते है ।8

      मालवा प्रान्त में भी मृत्यु के अवसर पर गीत गाने की प्रथा का प्रचलन है। मृत्यु के अवसर पर गाये जाने वाले इन गीतों को ‘मसविणया’गीत कहा जाता है। निमाड़ में मृत्युगीतों को ‘मसाण्या’अथवा ‘कायाखो’ गीत कहते हैं किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर आत्मा की उभरता और शरीर की नश्वरता सम्बन्धी पारम्परिक गीत गाए जाते हैं। मसाण्या गीतों में आत्मा को दुलहन की उपमा दी गई है और शरीर को दुल्हा कहा गया है। मसाण्या गीत प्रायः मृत्यु के अवसर पर ही गाये जाते हैं, अन्य समय में गाना प्रतिबंधित होता है। मालवा व निमाड़ की संस्कृति में अनेक साम्य है। यही साम्य इन गीतों में भी मिलता है। अन्य प्रान्तों की तरह मालवा में भी मृत व्यक्ति के घर तेरह दिन का शोक रखा जाता है। इन तेरह दिनों तक स्त्रियां प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए एवं मृतक के परिजनों को संसार की नश्वरता बताते हुए भजन गाती हैं, जिनमें निर्वेद भाव की प्रधानता होती है। यह भजन मुख्यतः काया पर पर आधारित होते है, इसलिए मालवी में इन्हें ‘काया भजन’ भी कहा जाता है।

       इन काया भजनों में जीवन के प्रति अनासक्ति एवं मृत्यु के बाद की दुनिया के प्रति चिंता का भाव प्रकट होता दिखता है। जीवन में वह एक क्षण भी आ जाता है, जब शरीर की शक्ति चूक जाती है, सांसारिक आकर्षण सारे टूट जाते हैं और मनुष्य सारे आकर्षणों से विलग होकर दुनिया के बारे में सोचने लगता है। इन विरक्ति के भावों में गूंथें ये गीत मनुष्य को सोचने पर विवश कर देते हैं कि वे इस जगत से क्या लेकर जा रहें हैं, और उन्होंने इस दुनिया में रहकर क्या कमाया। धन, दौलत अथवा परोपकार या सत्कर्म। ये गीत महिला गीत है। प्रायः सभी संस्कार गीत महिलाओं द्वारा ही समूह में गाए जाते हैं। ये समवेत गीत बिना वाद्य के ही गाए जाते हैं।   मालवा की स्त्रियां जीव को अनेक नामों से उपमित करती हुई उसे दुनिया की नश्वरता के बारे में बताती हुई गाती है.

हंसा छोड़ों नगरी, जम से बिगड़ी
जम से बिगड़ी, हरि से सुधरी
हंसा छोड़ों नगरी, जम से बिगड़ी
घड़ी दोई घड़ी दोई ठहरो जमराजा
बेट्या फिरे बिलखी-बिलखी
हंसा छोड़ों नगरी, जम से बिगड़ी
जम से बिगड़ी, हरि से सुधरी
घड़ी दोई घड़ी दोई ठहरो जमराजा
बेटा बऊ फिरे बिलख्या-बिलख्या
हंसा छोड़ों नगरी, जम से बिगड़ी
जम से बिगड़ी, हरि से सुधरी

      गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो प्राणी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है, इस संसार में कोई भी सदा के लिए नहीं रहता, इस सत्य को मालवा की स्त्रियां बड़े रोचक ढंग से उद्घाटित करती हुई अपने भजन में इसे शामिल कर लेती है, जिसमें स्वयं को केन्द्र में रखकर कहा गया है कि मुझे कौन सा इस दुनिया में रहना है, मुझे तो सब छोड़ कर एक दिन चले जाना है, अर्थात देह के भीतर आश्रय लेने वाला जीव सदा के लिए इस देह को धारण किये नहीं रहता, उसे तो एक-ना-एक दिन इसे छोड़ कर चलें जाना है। साथ ही मृत्युभोज की कुरीति पर व्यंग्य करते हुए महिलाएं गाती है -

म्हारे कई रेणो रे माया रा लोभी, एक दिन जाणो रे,
म्हारे काई रेणो रे
उन्ना भोजन कदी ए नी जीम्या, ठंडा से दिन काड्या रे
मरवा पाछे लाडू बंधाया, म्हारे काई जीमणो रे
एक दिन जाणो रे,
म्हारे कई रेणो रे माया रा लोभी, एक दिन जाणो रे,
म्हारे काई रेणो रे
ठंडी छाया कदी ए नी बैठ्या, तडका में दिन काड्या रे
मरवा पाछे तम्बू तणाया, म्हारे काई भैणो रे
एक दिन जाणो रे
म्हारे कई रेणो रे माया रा लोभी, एक दिन जाणो रे,
म्हारे काई रेणो रे
नया कपड़ा कदी ए नी पेर्या, फाट्या में दन काड्या रे
मरवा पाछे मिसरू पेराया, म्हारे काई पेरनो रे
एक दिन जाणो रे
म्हारे कई रेणो रे माया रा लोभी, एक दिन जाणो रे,
म्हारे काई रेणो रे...।

       मानव जीवन बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है। मानव को ईश्वर ने असीम क्षमताएं प्रदान की है कि वह अपनी भक्ति और समर्पण से मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। अपने सांसारिक जीवन में जब उसका अंत समय निकट आता है तो वह मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करता है कि मेरे अंत समय में आप ही मुझे लेने आए। शुभ मुहुर्त हो, शुभ दिन हो और जीवात्मा को लेने स्वयं भगवान पधारें, तो मनुष्य को मोक्ष निश्चित ही प्राप्त हो जाएगा। ऐसे ही भाव इस भजन में आते हैं।

तू ही आजे रे गोपाल, लेवा म्हने तू ही आजे
जेठ मत आजे, आषाढ़ मत आजे,
सावण में आजे रे गोपाल
तू ही आजे रे गोपाल, लेवा म्हने तू ही आजे
नौमी मत आजे, दसमी मत आजे,
ग्यारस को आजे रे गोपाल
तू ही आजे रे गोपाल, लेवा म्हने तू ही आजे
दिन मत आजे, रात मत आजे,
भोर की वेरा, आजे रे गोपाल
तू ही आजे रे गोपाल, लेवा म्हने तू ही आजे

      जीवन में अनेक कठिनाइयों झेलते रहने वाला जीव जब अपनी अंतिम यात्रा पर निकलता है तो वह देखता है कि जीते-जी जो लोग उससे बोलते नहीं थे वे ही आज दुनिया को दिखाने के लिए रो रहे हैं। इस नश्वर शरीर के खत्म हो जाने पर दुखी हो रहे हैं, और मृत्युभोज का आयोजन कर रहे हैं। जिस मनुष्य को जीते-जी अच्छा भोजन भी प्राप्त न हुआ हो उसके मरने के बाद उसकी आत्मा की शांति के लिए भोज दिए जा रहे हैं। देखा जाए तो इस भजन के माध्यम से समाज की एक बड़ी कुरीति की ओर ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की गई है, मृत्युभोज जैसी कुरीति पर व्यंग्य किया गया है -

सांवरिया म्हाने रंज आवे रे एक दिन रो
जीवता जीव प्रभु लाड्या बऊ नी बोल्या
झूठी काया पे माथा फोड्या रे
सांवरिया म्हाने रंज आवे रे एक दिन रो
जीवता जीव प्रभु ठंडा वासी जीम्या
झूठी काया रा लाडू बाट्या रे
सांवरिया म्हाने रंज आवे रे एक दिन रो
जीवता जीव प्रभु फाटा टूटा पेर्या
झूठी काया रा मिसरू रार्या रे
संवरिया म्हाने रंज आवे रे एक दिन रो

      काया में बसने वाले जीव को कहीं हंस तो कहीं भंवरे की उपमा देते हुए महिलाएं गाती हुई कहती है कि मानव जीवन बार-बार नहीं मिलता, इसलिए जितना हो सकें इस जीवन के माध्यम से उपकार करते रहना चाहिए। विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से मानव को समझाने की चेष्टा की गई है।-

भंवरा मिल कर मौज उड़ा ले, जिंदगी मिले ना बारम्बार
भंवरा मिले ना दूजी बार, जिंदगी मिले ना बारम्बार
भंवरा मिल कर मौज उड़ा ले, जिंदगी मिले ना बारम्बार
प्रीत करो तो ऐसी कर जो, जैसे रूई कपासा
जीवता जीवे तो तन को ढंकता, मर्या पे कफन औडाए
भंवरा मिल कर मौज उड़ा ले, जिंदगी मिले ना बारम्बार
प्रीत करो तो ऐसी कर जो, जैसे लोटा, डोर
अपना कंठ तो बांध लिया रे, तुझको दिया पिलाय
भंवरा मिल कर मौज उड़ा ले, जिंदगी मिले ना बारम्बार
प्रीत करो तो ऐसी कर जो, जैसे दीया, जोत
अपने तन को जला दिया रे, तुझको दिया उजास
भंवरा मिल कर मौज उड़ा ले, जिंदगी मिले ना बारम्बार


       मानव जीवन मिलना हीरे के समान अमूल्य बताते हुए महिलाएं गाती है कि इस हीरे रूपी मनुष्य जीवन को सांसारिकता की मिट्टी में मिला कर यूं ही बरबाद नहीं करना चाहिए। यह जीवन बहुत छोटा और पानी के बुलबुले के समान क्षणिक है जो कभी भी खत्म हो सकता है। इसकी सार्थकता इसी में है कि तुम सबके साथ अच्छा व्यवहार करो और अपनी जिंदगी को सार्थक बनाओ।

तेरा मनुष जनम अनमोल रे, तू माटी में मत रोल रे
अब तो मिला है, फिर ना मिलेगा
कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं
तू बुदबुदा है पानी का, मत कर तू गर्व जवानी का
एक कमाई कर ले रे भाई, पता नहीं जिंदगानी का
तू मीठा सब से बोल रे, तू माटी में मत रोल रे
अब तो मिला है फिर ना मिलेगा
कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं
तेरा मनुष जनम........

      तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ अर्थात मनुष्य जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार उसका जीवन निर्धारित होता है। मालवी के इस भजन में यही बात कही गई है कि कर्म के अनुसार मनुष्य की अलग-अलग गति होती है। अपने कर्म के माध्यम से मनुष्य अपना भाग्य स्वयं बनाता है। इसलिए उसे अपने कर्माे के अनुसार ही जन्म प्राप्त होता है दृ 

ओ संता मत दीजो माता बाई ने दोस,
करमा री गति न्यारी-न्यारी
ओ संता मत दीजो जामण जाई ने दोस,
करमा री गति न्यारी-न्यारी.....
ओ संता एक माटी रा करवा चार
चारा री गति न्यारी-न्यारी
ओ संता पेलो है दूध केरा ठाम
दूजो है दही के री जामणी
ओ संता तीजो है पाणी रोपा ने
चौथो जंगल रूठियो
ओ संता मत दीजो माता...
ओ संता एक बेला रा तुम्बा चार
चारा री गति न्यारी-न्यारी
ओ संता पेलो है तन्दुरा री तान
दूजा में जल बरस्या
ओ संता तीजो है सतगुरु रे हाथ
चौथो तो बेले लागियो
ओ संता मत दीजो माता...

      इस तरह हम देखते हैं कि लोकजीवन में व्याप्त लोकगीतों का संसार सत्य का संसार है। इन लोकगीतों में जीवन का दर्शन समाहित है। देख जाए तो लोकगायक के अन्तरभावों का वास्तविक चित्रण वहाँ रहता है। जटिलता, दुरूहता और गोपनीयता का लोकगीतों में नितान्त अभाव रहता है। हृदय में उत्पन्न होने वाले राग-विराग के सीधे-सच्चे भावों का सीधा और निश्चल प्रकटीकरण लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। कृत्रिम साज-सज्जा से परे स्वाभाविक उक्तियों का सौंदर्य वहां लक्षित होता है। लोकगीत की उस विशाल और व्यापक सौंदर्य राशि के समक्ष संसार की सम्पूर्ण कृत्रिमता तुच्छ है।9 

संदर्भ - 
1. गीत लोक जीवन-स्पंदन की कलात्मक अभिव्यक्ति, यायावरी मासिक पत्रिका, जनवरी, 2014 
2. रामनरेश त्रिपाठी -कविता कौमुदी (परिवर्धित संस्करण) तीसरा भाग  (ग्राम गीत) पृष्ठ - 78
3. मालवी भाषा और साहित्य-म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, संपादक- डॉ. हरिमोहन बुधोलिया, पृष्ठ- 10
4. डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, मालवी संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ- 407
5. मदनेन विना कृता रतिः क्षणमात्रं कितस जीवतीति मे।
  अर्चनीयमिदं व्यवस्थितं रमणा, त्वामनुयामि यद्यपि।।  कालिदास, कुमारसंभव  
6. हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करूणानाथ वत्सल।
   त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रथाः।।
   त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरूषषम।
   न षोभते व्यभिव निवृतोत्सव मंगवा।। - श्रीमद्भागवत, दशमस्कन्ध, अध्याय 44, श्लोक 44-45 
7. उंतजपतमदहव जीम जनकल व विसोवदहे. चंहम - 27     
8. विद्या चौहान-लोकगीतों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, कानपुर ।
9. पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी-हिंदी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ- 138
10. काया भजन संकलन - 1. अयोध्या ठन्ना, रतलाम 2. द्वारका गलगामा, खेड़ावदा, उज्जैन 3. निर्मला धाकड़, डोसीगांव, रतलाम, 4. आनंदी धाकड़, साजोद, धार, आदि।   
   
स्वर्णलता शोध अध्येता (हिंदी) हिंदी अध्ययनशाला उज्जैन।
पता- 84, गुलमोहर कालोनी,रतलाम (म.प्र.)457001,swrnlata@yahoo.in
साभार:अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati),  वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

Hindi kavita ki atma chhand: -sanjiv

विशेष लेख माला:
हिंदी कविता की आत्मा छंद : एक अध्ययन
संजीव
*
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है । वेद के 6 अंगों 1. छंद, 2. कल्प, 3. ज्योतिष , 4. निरुक्त, 5. शिक्षा तथा 6. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है ।

छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते ।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले ।।

वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार माना जाता है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है ।

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।

अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है । काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है ।

काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेनच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।

विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे । वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा भाषा या काव्यशास्त्र से आजीविका के साधन न मिलने के कारण सामान्यतः अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में "कविता के प्रति अरुचि" के रूप में दृष्टव्य है । काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप से परिचित छात्र पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटायी है ।

छंद विषयक चर्चा के पूर्व कविता से सम्बंधित आरंभिक जानकारी दोहरा लेना लाभप्रद होगा ।

कविता के तत्वः

कविता के २ तत्व -१. बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, षब्द योजना, अलंकार, तुक आदि)
तथा २. आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।

कविता के बाह्य तत्वः

लयः भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके।

छंदः मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली तथा हृदयग्राही होती है।

रचना प्रक्रिया के आधार पर छंद के २ वर्ग मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। प्रत्येक वर्ग के अंतर्गत कई जातियों में विभक्त अनेक प्रकार के छंद हैं. कुछ छंदों के उपप्रकार भी हैं. ये ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं।

शब्दयोजनाः
कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो। शब्द योजना को लयानुसार रखने पर प्रायः गद्य व्याकरण के क्रम अथवा अन्य नियमों का व्यतिक्रम हो सकता है।

तुकः
काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार पदांत व तुकांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफ़िया व रदीफ़ कहते हैं ।

अलंकारः
अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है । अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष माने गये हैं । अलंकार के 2 मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं ।

कविता के आंतरिक तत्वः

रस:
कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं। रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर कहा गया है । जो कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी वह सफल कविता कही जाती है । रस के १० प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत, अद्भुत तथा वात्सल्य हैं। कुछ विद्वान विरोध या विद्रोह  को ग्यारहवाँ रस मानने के तर्क देते हैं किन्तु वह अभी स्वीकार्य नहीं है।

अनुभूतिः
गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृदस्पर्शी होता है चूँकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है, कविता हृदय को ।

भावः
रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस का अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, षांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता ।

आगामी लेख में हम सर्वाधिक लोकप्रिय छंद "चौपाई" का आनंद लेंगे ।

navgeet :

संजीव


महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका

आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका

एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका

लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली 
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
***

hasya salila

हास्य सलिला:
संवाद
संजीव
*
'ए जी! कितना त्याग किया करती हैं हम बतलाओ
तुम मर्दों ने कभी नहीं कुछ किया तनिक शरमाओ
षष्ठी, करवाचौथ कठिन व्रत करते हम चुपचाप
फिर भी मर्द मियाँ मिट्ठू बनते हैं अपने आप'

"लाली की महतारी! नहीं किसी से कम हम मर्द
करें न परवा निज प्राणों की चुप सहते हर दर्द
माँ-बीबी दो पाटों में फँस पिसते रहते मौन
दोनों दावा करें अधिक हक़ उसका, टोंके कौन?
व्रत कर इतने वर माँगे, हैं प्रभु जी भी हैरान
कन्याएँ कम हुईं न माँगी तुमने क्यों नादान?
कह कम ज्यादा सुनो हमेशा तभी बनेगी बात
जीभ कतरनी बनी रही तो बात बढ़े बिन बात
सास-बहू, भौजाई-ननद, सुत-सुता रहें गर साथ
किसमें दम जो रोक-टोंक दे?, जगत झुकाये माथ"

' कहते तो हो ठीक न लेकिन अगर बनायें बात
खाना कैसे पचे बताओ? कट न सकेगी रात
तुम मर्दों के जैसे हम हो सके नहीं बेदर्द
पहले देते दर्द, दवा दे होते हम हमदर्द
दर्द न होता मर्दों को तुम कहते, करें परीक्षा
राज्य करें पर घर आ कैसे? शिक्षा लो, दे दीक्षा'

*** 

सोमवार, 3 अगस्त 2015

navgeet

नवगीत   :
संजीव 
*
दहशत की दीवार पर 
रेंग रहे हैं लोग 
शांति व्यवस्था को हुए
हैं कैंसर सम रोग
*
मक्खी देख प्रचार की
जिव्हा लपलपा भाग
चाह रहे हैं गप्प से
लपकें सबका भाग
जान-बूझकर देश का
लूट बिगाड़ें भाग
साध्य रहा इनको सदा
अपना निज यश-भोग
जा बैठे हैं शीर्ष पर
सचमुच यह दुर्योग
दहशत की दीवार पर
रेंग रहे हैं लोग
शांति व्यवस्था को हुए
हैं कैंसर सम रोग
*
मकड़ी जैसे बुन रही
दहशतगर्दी जाल
पैसा जिनको साध्य वे
साथ जुड़ें बन काल
दोषी को हो दण्ड तो
करते व्यर्थ बवाल
न्याय कड़ा हो, शीघ्र हो
'सलिल' सुखद संयोग
जन विरोध से बंद हो
यह प्रचार-उद्योग
दहशत की दीवार पर
रेंग रहे हैं लोग
शांति व्यवस्था को हुए
हैं कैंसर सम रोग
*
छात्रवृत्ति-व्यापम रचें
नित्य नेता इतिहास
खाल लपेटे शेर की
नेता खाता घास
झंडा-पंडा कोई हो
सब रिश्वत के दास
लोकतंत्र का कर रहे
निठुर-क्रूर उपहास
जन-शोषण-आतंक मिल
करते हैं सम भोग
जनगण आहत -प्रताड़ित
हर चेहरे पर सोग
दहशत की दीवार पर
रेंग रहे हैं लोग
शांति व्यवस्था को हुए
हैं कैंसर सम रोग
*

navgeet

नवगीत:
संजीव 
*
पहन-पहन 
घिस-छीज गयी 
धोती छनकर
छितराई धूप
*
कृषक-सूर्य को
खिला कलेवा
उषा भेजती
गगन-खेत पर
रश्मि-बीज
देता बिखेर रवि
सकल भूमि पर
देख-रेखकर
नव उजास
पल्लव विकसे
निखर गया
वसुधा का रूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
हवा बहुरिया
चली मटककर
दिशा ननदिया
खीझे चिढ़कर
बरगद बब्बा
खांस-खँखारें
नीम झींकती
रात जागकर
फटक रही है
आलस-चोकर
उठा गौरैया
ले पर -सूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
लिव इन रिश्ते
पाल रही है
हर सिंगार संग
ढीठ चमेली
ठेंगा दिखा
खाप को खींसें
रही निपोर
जुही अलबेली
चाँद-चाँदनी
झाँक देखते
छवि, रीझा है
नन्ना कूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

kruti charcha:

कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
संजीव
*
[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष  ९४१२३ १६७७९,  ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं. 

कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.  

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.' 

डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'

विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की  अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम 
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें'  (संस्कारी छंद)

जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:

विसंगति: 
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे. 
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी  
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
 . 
पैरों में जलता मरुथल है   (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
.
आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी   (महादेशिक जातीय छंद)
.

किंकर्तव्यविमूढ़ता:  
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे? 
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी  (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)  
.

आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर 
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें।
अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें 
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में /  कुछ तो नया करें 
यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?  

डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है. 

कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत 
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ  
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला 
(यौगिक जातीय छंद)
डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी 
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं. 
काँप रहे हैं / गोली कंचे 
इधर कटारी / उधर तमंचे 
क्यों रोता है? / बोल कबीरा 
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी 
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी  
भोले सपने / हँसी दूधिया 
अट्टहास कर / हँसता बनिया 
आँख जलाकर / बना ममीरा 
(वासव जातीय छंद)
अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके 
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके 
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा 
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक 
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए) 

चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.'' 

यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद  का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती  देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार 
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार      (दोहा) 
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)  
यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या,  स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि. 

यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है. 

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