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रविवार, 3 मई 2015

ghanakshari: sanjiv

घनाक्षरी
संजीव
.
गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए  
.
कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
.


doha salila: sanjiv

दोहा सलिला,
अखबारी दोहे
संजीव
.
कॉफी नाकाफी हुई, माफी दो सरकार
ऊषा हाज़िर हो गयी, ले ताज़ा अखबार
.
चाय-पिलाऊँ प्रेम से, अपनेपन के साथ
प्रिय मांगे अखबार तो, लगे ठोंक लूँ माथ
.  
बैरन है अखबार यह, प्रिय को करता दूर
बैन लगा दूँ वश चले, मेरा अगर हुज़ूर
.
चाह चाय की अधिक या, रुचे अधिक अखबार
केर-बेर के संग सी, दोनों की दरकार
.
नज़र प्यार के प्यार पर, रखे प्यार से यार
नैन न मिलते नैन से, बाधक है अखबार
.  

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव 
हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं. 
कह रहे हमसे फफोले हाथ के 
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं 
आबलों को शूल से शिकवा नहीं 
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं. 
*
कलश महलों के न हमको चाहिए 
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं. 
स्वेद गंगा में नहाते रोज ही 
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है. 

***

शनिवार, 2 मई 2015

nazm: sanjiv

नज़्म:  
संजीव
ग़ज़ल 
मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर 
पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को 
अर्थ देते हैं
गले मिलकर
 मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और 
आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें: 
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
**

arti: devaraha babaji

आरती:
देवरहा बाबाजी
संजीव
*
जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर,
नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को,
अमृत मन्त्र बोलते.
सत-चित-आनंदलीन,
समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!,
देव-लीन, थिर-अदीन.
नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित,
प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल,
मौन अधिक, वाणी मित.
योगिराज त्यागी हे!,
प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक,
जीवित धनभागी हे..
'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*

ghanakshari chhand: sanjiv

घनाक्षरी सलिला: २
संजीव, छंद
घनाक्षरी से परिचय की पूर्व कड़ी में घनाक्षरी के लक्षणों तथा प्रकारों की चर्चा के साथ कुछ घनाक्षरियाँ भी संलग्न की गयी हैं। उन्हें पढ़कर उनके तथा निम्न भी रचना में रूचि हो  का प्रकार तथा कमियाँ बतायें, हो सके तो सुधार  सुझायें। जिन्हें घनाक्षरी  रचना में रूचि हो लिखकर यहाँ प्रस्तुत करिये. 

चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही 
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे  / अग्नि इसलिए दही 
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके 
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही 



शुक्रवार, 1 मई 2015

ghanakshari: kalpana mishra bajpeyi

घनाक्षरी: 

कल्पना मिश्रा बाजपेई सरस्वती 

धवल वस्त्र धारणी सुभाषिनी माँ शारदे     ८-८  
वीणा-पाणि वीणा कर धारती हैं प्रेम से      ८-७ 
मुख पे सुहास माँ का देखते ही बन रहा      ८-८ 
जग सारा विस्मित है प्यारी छवि देख के   ८-७ 
अहम का नाश करो बुद्धि में प्रकाश भरो     ८-८ 
मेरा मन साधना में नेह से लगाइए           ८-७
"कल्पना" के भावों को भाववान कीजिये    ७-७
खुशियों से भर जाए मन मेरा देख के॥      ८-७ 

चन्द माहिया : क़िस्त 20




:1:
तुम सच से डरते हो
क्या है मजबूरी
दम सच का भरते हो?

:2:

मालूम तो था मंज़िल
राहें भी मालूम
क्यों दिल को लगा मुश्किल

:3:

कहता है जो कहने दो
चैन नहीं दिल को
बेचैन ही रहने दो

;4:

ता उम्र वफ़ा करते
मिलते जो हम से
कुछ हम भी कहा करते

:5:
ये हाथ न छूटेगा
साँस भले छूटे
पर साथ न छूटेगा

-आनन्द.पाठक
09413395592

GHANAKSHARI CHHAND: SANJIV

घनाक्षरी: एक परिचय 
संजीव 
*
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है. घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती. अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत्  उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है. इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं. वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते. इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है. समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है. वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।    

२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.  
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.  
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि. 
५ वर्ण. = वातानुकूलित, पर्यावरण आदि. 

घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं; 

१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण। 
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।

३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण ।

४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।

५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।

६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।

७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।

८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।

९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण। 

___


bhojpuri doha : sanjiv

भोजपुरी दोहा :
संजीव 
दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११ मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष स्वतः मिट जाता है. अ, इ, उ, ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ गिनी जाती हैं
*
कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..
*
कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.
*
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..
*
जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति न मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की और कोई चाह शेष न रही.
*
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..
*
अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर भोग-विलास करनेवाला निम्न है.
*
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..
*
सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
*
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..
*
ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.
*
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..
*
शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख बाँटने कोई नहीं आएगा. इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:
*
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..
*
फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..
समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.
*
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..
*
दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.
*
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..
*
किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर परेशान हो जाते हैं..
*

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
जो हुआ सो हुआ
.
बाँध लो मुट्ठियाँ
चल पड़ो रख कदम
जो गये, वे गये
किन्तु बाकी हैं हम
है शपथ ईश की
आँख करना न नम
नीलकण्ठित बनो
पी सको सकल गम
वृक्ष कोशिश बने
हो सफलता सुआ
.
हो चुका पूर्व में
यह नहीं है प्रथम
राह कष्टों भरी
कोशिशें हों न कम
शेष साहस अभी
है बहुत हममें दम
सूर्य हैं सच कहें
हम मिटायेंगे तम
उठ बढ़ें, जय वरें
छोड़कर हर खुआ
.
चाहते क्यों रहें
देव का हम करम?
पालते क्यों रहें
व्यर्थ मन में भरम?
श्रम करें तज शरम
साथ रहना धरम
लोक अपना बनाएंगे
फिर श्रेष्ठ हम
गन्स जल स्वेद है
माथ से जो चुआ
**

रचना-प्रति रचना महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश-संजीव

मुक्तिका: ग़ज़ल 
miktika/gazal

संजीव वर्मा 'सलिल' 
sanjiv verma 'salil'
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर 
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर 
nirjeev ko sanjeev banane ki baat kar
hare huon ko jang jitane ki baat kar 

'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा 
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'bhoo mafiye' bhoochal kahe: mat jameen daba 
jo jod li hai usko lutane kee baat kar 

'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी 
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर 
aankhen milayen maut se kahtee hai zindagi 
'aa, marne ke baad jilaane ki baat kar'

तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले   
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर 
toone giraye hain makan, baki hain hausale  
kaanon ke beech fool khilane kee baat kar 

हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है 
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर 
he nath pashupati! rooth mat too neelkanth hai 
hmse zar ko amiy banane kee baat kar

पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी 
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर 
patthar se kaleje men rahe sneh salil bhee 
aa vedana se gng bahane kee baat kar 

नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा 
चल इस धरा पे  स्वर्ग बसाने  की बात कर 
nepaal palta raha vishwas hamesha
chal is dhara pe swarg basane kee baat kar 
*** 

facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

एक कविता : दो कवि 
शिखा:
एक मिसरा कहीं अटक गया है

दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के

जो बहती है तुम तक

जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे

और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
कई बार सोचा निकाल ही दूँ उसे

तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?

फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके

पर ये भी तो सच है

कि मिसरे पूरे न हों तो
ग़ज़ल मुकम्मल नहीं होती
संजीव
                                                                                                                                                     ग़ज़ल मुकम्मल होती है तब
                                                                                                                  
जब मिसरे दर मिसरे                                                                                                                          

दूरियों पर पुल बनाती है बह्र                                                                                                                  

और एक दूसरे को अर्थ देते हैं                                                                                                                

गले मिलकर मक्ते और मतले                                                                                                            

काश हम इंसान भी                                                                                                                            

साँसों और आसों के मिसरों से                                                                                                                    
पूरी कर सकें                                                                                                                                      

ज़िंदगी की ग़ज़ल                                                                                                                              

जिसे गुनगुनाकर कहें: आदाब अर्ज़                                                                                                        

आ भी जा ऐ अज़ल! 
**

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
यमकीय दोहा   
संजीव
.
अंतर में अंतर पले, तब कैसे हो स्नेह
अंतर से अंतर मिटे, तब हो देह विदेह
अंतर = मन / भेद
.
देख रहे छिप-छिप कली, मन में जागी प्रीत
देख छिपकली वितृष्णा, क्यों हो छू भयभीत?
छिप कली = आड़ से रूपसी को देखना / एक जंतु
.
मूल्य बढ़े जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य गिरे जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य = कीमत, जीवन के मानक
.
अंचल से अंचल ढँकें, बची रह सके लाज
अंजन का अंजन करें, नैन बसें सरताज़
अंचल = दामन / भाग या हिस्सा, अंजन = काजल, आँख में लगाना
.
दिनकर तिमिर अँजोरता, फैले दिव्य प्रकाश
संध्या दिया अँजोरता, महल- कुटी में काश
अँजोरता  = समेटता या हर्ता, जलाता या बालता
***

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015


navgeet: sanjiv

​​
नवगीत:
संजीव 
धरती काँपी,
नभ थर्राया 
महाकाल का नर्तन 
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की 
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल  
भू की फटती छाती 
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में 
जा जो पीर मिटा दे 
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा 
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर 
इमारतें करें 
चेतना-कर्तन 
धरती काँपी,
नभ थर्राया 
महाकाल का नर्तन 
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर 
आँसू धार बहायें 
देख मौत का तांडव चुप 
पशु-पक्षी धैर्य धरायें 
ध्वंस पीठिका निर्माणों की, 
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के 
बीज अगिन बोना है 
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े 
हास, न बचे विखंडन 
**

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

DOHA

कल और आज :
कल का दोहा 
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर
.
​आज का दोहा 
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता लघु हो हीन
'सलिल' लघुत्तम चाहता, दैव महत्तम छीन

doha salila: sanjiv

 दोहा सलिला:
संजीव
.
रूठे थे केदार अब, रूठे पशुपतिनाथ
वसुधा को चूनर हरी, उढ़ा नवाओ माथ
.
कामाख्या मंदिर गिरा, है प्रकृति का कोप
शांत करें अनगिन तरु, हम मिलकर दें रोप
.
भूगर्भीय असंतुलन, करता सदा विनाश
हट संवेदी क्षेत्र से, काटें यम का पाश
.
तोड़ पुरानी इमारतें, जर्जर भवन अनेक
करे नये निर्माण दृढ़, जाग्रत रखें विवेक
.
गिरि-घाटी में सघन वन, जीवन रक्षक जान
नगर बसायें हम विपुल, जिनमें हों मैदान
.
नष्ट न हों भूकम्प में, अपने नव निर्माण
सीखें वह तकनीक सब, भवन रहें संप्राण
.
किस शक्ति के कहाँ पर, आ सकते भूडोल
ज्ञात, न फिर भी सजग हम, रहे किताबें खोल
.
भार वहन क्षमता कहाँ-कितनी लें हम जाँच
तदनसार निर्माण कर, प्रकृति पुस्तिका बाँच
.
     

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें. 
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
भूगर्भी चट्टानें सरकेँ,
कांपे धरती.
ऊर्जा निकले, पड़ें दरारें
उखड़े पपड़ी
हिलें इमारत, छोड़ दीवारें
ईंटें गिरतीं
कोने फटते, हिल मीनारें
भू से मिलतीं
आफत बिना बुलाये आये
आँख दिखाये
सावधान हो हर उपाय कर
जान बचायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
द्वार, पलंग तले छिप जाएँ
शीश बचायें
तकिया से सर ढाँकें
घर से बाहर जाएँ
दीवारों से दूर रहें
मैदां अपनाएँ
वाहन में हों तुरत रोक
बाहर हो जाएँ
बिजली बंद करें, मत कोई
यंत्र चलायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
बाद बड़े झटकों के कुछ
छोटे आते हैं
दिवस पाँच से सात
धरा को थर्राते हैं
कम क्षतिग्रस्त भाग जो उनकी
करें मरम्मत
जर्जर हिस्सों को तोड़ें यह
अतिआवश्यक
जो त्रुटिपूर्ण भवन उनको
फिर गिरा बनायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
है अभिशाप इसे वरदान
बना सकते हैं
हटा पुरा निर्माण, नव नगर
गढ़ सकते हैं.
जलस्तर ऊपर उठता है
खनिज निकलते
भू संरचना नवल देख
अरमान मचलते
आँसू पीकर मुस्कानों की
फसल उगायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.

haiku: sanjiv

हाइकु सलिला:
संजीव 

सागर माथा 
नत हुआ आज फिर 
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी