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मंगलवार, 18 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत :

काल बली है 
बचकर रहना 

सिंह गर्जन के  
दिन न रहे अब 
तब के साथी?
कौन सहे अब? 
नेह नदी के 
घाट बहे सब 
सत्ता का सच 
महाछली है 
चुप रह सहना 

कमल सफल है 
महा सबल है 
कभी अटल था 
आज अचल है 
अनिल-अनल है 
परिवर्तन की 
हवा चली है 
यादें तहना 

ये इठलाये 
वे इतराये 
माथ झुकाये 
हाथ मिलाये 
अख़बारों 
टी. व्ही. पर छाये 
सत्ता-मद का 
पैग  ढला है 
पर मत गहना 

बिना शर्त मिल 
रहा समर्थन 
आज, करेगा 
कल पर-कर्तन 
कहे करो 
ऊँगली पर नर्तन  
वर अनजाने 
सखा पुराने 
तज मत दहना 

***

shubhkamanayen shri yograj prabhakar

श्री योगराज प्रभाकर को जन्म दिवस पर अशेष शुभ कामनाएं  


योगराज हैं प्रभाकर, सृजन योग में दक्ष  
कम ही लोगों में लगन है इनके समकक्ष 

बहुआयामी सृजन से, दिखा रहे हैं राह 
हिंदी-सेवा-व्रती हैं, कौन पा सका थाह 

शतजीवी हों दिन-ब-दिन, बढ़े सृजन की शक्ति
सहयोगी शत-शत जुटें, रख हिंदी-प्रति भक्ति 

navgeet mahotsav 2014

नवगीत महोत्सव 2014 : दूसरा दिन
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गोमती नगर, लखनऊ के ’कालिन्दी विला’, विभूति खण्ड के परिसर में ’नवगीत महोत्सव 2014’ का दूसरा दिन आज सम्पन्न हुआ. आयोजन में देश भर से गीति-काव्य के नवगीत विधा के मूर्धन्य विद्वानों ने इस विधा की वैधानिकता तथा इसके शिल्प पर प्रकाश डाला. विधा के विभिन्न विन्दुओं को समेटते हुए प्रथम सत्र में विद्वानों ने नवगीत की दशा और दिशा, इसकी संरचना, इसके रचाव पर चर्चा की. डॉ. जगदीश व्योम ने नयी कविता तथा नवगीत के मध्य के अंतर को रेखांकित किया. रचनाओं के शिल्प में गेयता-लय की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए डॉ. जगदीश व्योम ने कहा कि प्रस्तुतियों में छंदों और लय का हो गया अभाव हिन्दी रचनाओं के लिए घातक सिद्ध हुआ. कविताओं के प्रति पाठकों द्वारा बन गयी अन्यमन्स्कता का मुख्य कारण यही रहा कि कविताओं से गेयता निकल गयी. कवितायें अनावश्यक रूप से बोझिल हो गयीं. डॉ. धनन्जय सिंह की उद्घोषणा इन अर्थों में व्यापक रही कि नवगीत संज्ञा नहीं वस्तुतः विशेषण है. आपने कहा कि आजकी मुख्य आवश्यकता शास्त्र की जड़ता मुक्ति है न कि शास्त्र की गति से मुक्ति. डॉ. धनन्जय सिंह के व्याख्यान का शीर्षक ’नवगीत की दशा और दिशा’ था. ’रचना के रचाव तत्त्व’ पर बोलते हुए डॉ. पंकज परिमल ने कहा कि शब्द, तुक, लय, प्रतीक मात्र से रचना नहीं होती, बल्कि रचनाकार को रचाव की प्रक्रिया से भी गुजरना होता है. रचाव के बिना कोई भाव शाब्दिक भले हो जायें, रचना नहीं हो सकते. आपने रचना प्रक्रिया में अंतर्क्रिया तथा अंतर्वर्ण की सोदाहरण व्याख्या की. प्रथम सत्र के आज के अन्य वक्ताओं में डॉ. मधुकर अष्ठाना तथा राम सेंगर प्रमुख थे. द्वितीय दिवस का यह सत्र कार्यशाला के तौर पर आयोजित हुआ था, जिसके अंतर्गत उद्बोधनों के बाद अन्यान्य नवगीतकारों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के वक्ताओं ने समुचित उत्तर दिये. 



सहभागी नवगीतकार: 

भोजनावकाश के बाद दूसरे सत्र में विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित कुल छः नवगीत-संग्रहों का लोकार्पण हुआ. जिसके उपरान्त विभिन्न विद्वानों ने समीक्षकीय चर्चा की. रोहित रूसिया के नवगीत-संग्रह ’नदी की धार सी संवेदनाएँ’ पर डॉ. गुलाब सिंह ने समीक्षा की. वरिष्ठ गीतकार डॉ. महेन्द्र भटनागर के नये संग्रह ’दृष्टि और सृष्टि’ पर बृजेश श्रीवास्तव ने समीक्षा प्रस्तुत की. ओमप्रकाश तिवारी के नवगीत-संग्रह ’खिड़कियाँ खोलो’ पर सौरभ पाण्डेय ने समीक्षा प्रस्तुत की. यश मालवीय के संग्रह ’नींद काग़ज़ की तरह’ पर निर्मल शुक्ल ने समीक्षा प्रस्तुत की. तथा, निर्मल शुक्ल के नवगीत-संग्रह ’कुछ भी असंभव’ पर मधुकर अष्ठाना ने समीक्षा प्रस्तुत की. पूर्णिमा वर्मन के नवगीत-संग्रह ’चोंच में आकाश’ पर आचार्य संजीव सलिल ने समीक्षा प्रस्तुत की. सभी समीक्षकों ने नवगीत-संगहों भाव तथा शिल्प पक्षों पर खुल कर अपनी बातें कहीं. सत्र का संचालन डॉ. अवनीश सिंह चौहान किया. 
तीसरे सत्र में आयोजन की परिपाटी के अनुसार आमंत्रित रचनाकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया. इस वर्ष के आमंत्रित कवियों में चेक गणराज्य से पधारे डॉ. ज्देन्येक वग्नेर, वीरेन्द्र आस्तिक, ब्रजभूषण गौतम, शैलेन्द्र शर्मा, पंकज परिमल तथा जयराम जय थे। इस अवसर पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश भट्ट कमल तथा चन्द्रभाल सुकुमार जी भी ने नवगीतकारों के बीच उपस्थित रहे। नवगीत पाठ के पूर्व अभिव्यक्ति-अनुभूति संस्था की ओर से कल्पना रामानी को उनके संग्रह ’हौसलों के पंख’, अवनीश सिंह चौहान को ’टुकड़ा काग़ज़ का’ तथा रोहित रूसिया को ’नदी की धार सी संवेदनाएँ’ के लिए सम्मानित तथा पुरस्कृत किया गया. विद्वानों द्वारा नवगीत विधा के बहुमुखी विकास की संभावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही ’नवगीत महोत्सव 2014’ का समापन हुआ।.



मंगलवार, 11 नवंबर 2014

THANKS RAIPUR

रायपुर धन्यवाद!

गत १० अक्टूबर को रायपुर आया था. रायपुर में १९५७-५८ में अक्षर ज्ञान पाया, यहीं मुझसे बड़ी बहन और मेरे विवाह हुए और अब जीवन संगिनी के कर्क रोग की रेडिएशन चिकित्सा संजीवनी अस्पताल में हुई। पिछली अनेक रचनाएँ संजीवनी अस्पताल और शैलेन्द्र नगर में हुईं।
आज १२ बजे कानपूर के लिए प्रस्थान, १२-१४ कानपुर प्रवास १४ -१७ लखनऊ प्रवास है।
संभवतः १८ को गृहनगर जबलपुर पहुँच सकूँगा। श्रीमती जी को बेटा मनवन्तर अपने साथ लेकर जबलपुर पहुंचेगा।
कानपूर-लखनऊ में मित्रों से मिलकर नव ऊर्जा मिलेगी ही।
एक बार फिर रायपुर धन्यवाद!

एक यह विश्वास पलता भी ढहा


जानते परिणति बुझेंगे अंतत:
दीप फिर भी सांझ में जलते रहे 
 
झोलियाँ खाली थीं खाली ही रहीं
औ हथेली एक फ़ैली रह गई 
हाथ की रेखाओं में है रिक्तता
एक चिट्ठी चुन के चिड़िया कह गई  
चाल नक्षत्रों की   बदलेगी नहीं 
ज्योतिषी ने खोल कर पत्रा कहा
दिन बदलते वर्ष बारह बाद हैं
एक  यह विश्वास पलता भी ढहा
 
पर कलाई थाम कर निष्ठाओं की
पाँव पथ में रात दिन चलते रहे

भोर खाली हाथ लौटी सांझ को
चाह ले पाए बसेरा रात से
दोपहर ने लूट थे पथ में लिए
वे सभी पाथेय  जो भी साथ थे 
धूप का बचपन लुटा यौवन ढला
एक भी गाथा न लेकिन बन सकी
रिस रही थी उम्र दर्पण देखते
अंततोगत्वा विवश हारी थकी

एक लेकर आस लौटेंगे सुबह
इसलिए हर सांझ को सूरज ढले

रंग दिये पत्थर कई सिन्दूर से
व्रत किये परिपूर्ण सोलह, सोम के
देवताओं के ह्रदय पिघले नहीं
जो बताया था गया है  मोम के
पूर्णिमा की सत्यनारायाण  कथा
और हर इक शुक्र बाँटे गुड़ चने
पर न जाने क्या हुआ, छँटते नहीं
छाये विधि के लेख पर कोहरे घने

आस्थायें ले अपेक्षायें खड़ीं
एक दिन उपलब्धि   मिल ले गले

सोमवार, 10 नवंबर 2014

geet:

दो चित्र : एक नवगीत 
(सोरठा-दोहा गीत)



कई झाड़ुएँ साथ
जहाँ- न कचरा वहाँ हैं
लचक न जाएँ हाथ
थामे हैं होकर सजग

कचरा मन में सड़ रहा  
कैसे होगा दूर
प्यार प्रदर्शन कर रहे
पेशेवर हो क्रूर
सिर्फ शरीरों से किया
कृत्य हुआ बेनूर
लगता है वीभत्स यह
तजिए, बनें न सूर

होते हैं आरम्भ
प्रेम-सफाई घरों से
हुआ प्रदर्शित दम्भ
वृथा प्रदर्शन- लें समझ

देख-देख यह कृत्रिमता
सच को आती शर्म
गर्व करें अनुभव विहँस
ये नादां बेशर्म
है प्रचार के लिए ही
यह नौटंकी कर्म
काश समझ पाते तनिक
प्रेम-कर्म का मर्म

किसे पड़ेगा फर्क
आप थूक या चूम लें
करते रहें कुतर्क
उड़ी हँसी, जग घूम लें

हो विनम्र झुककर करें
साफ़-सफाई आप
तनकर चलती नायिका
रूप गया जग-व्याप
मन से जब तक दर्प का
हटे न कचरा- शाप
पुण्य बताकर कर रही
तब तक जानें पाप

जन-मन से अनजान  
अख़बारों की खबर बन
घटा रहीं आधार 
हे माँ! हेमा आज तन  

देह-देह की चाहकर
हुई देह के संग
गेह न पाया प्रेम ने
हुआ रंग बदरंग
इतने पर ही क्यों रुकें?
आगे करिए जंग
बेशर्मी से उतारें
चाहें कपडे तंग

देख अशोभन कृत्य
पशु भी लज्जित हो रहे
दानव मानव भेस में 
काहे को दुःख बो रहे

अवनत करते जा रहे 
उन्नति के सोपान 
मुर्दा शूकर कर लिए 
कहें करो गोदान 
माटी में देंगे मिला 
जनक-जननि की आन 
घर से निकले आज ये 
मन में यह हठ ठान 

नहीं साथ में आरहे 
बंधु-बांधवी शर्म कर 
नज़र मिला ना पा रहे 
खुद से गर्हित कर्म कर 

***

navgeet:

नवगीत:

मौन सुनो सब, गूँज रहा है 
अपनी ढपली 
अपना राग 

तोड़े अनुशासन के बंधन 
हर कोई मनमर्जी से 
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से 
भ्रान्ति क्रांति की 
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट 
कुछ के आदर्शों की खातिर 
बहुजन को हो कष्ट 
दोष व्यवस्था के सुधारना 
खुद को उसमें ढाल 
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या 
जिसे रहे हम टाल?

कोयल का कूकना गलत है 
कहे जा रहा 
हर दिन काग 

संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो 
मिले न सहमत उसे मसल दो 
पिंगल के भी नियम न  माने 
कविपुंगव की नयी नसल दो 
गण, मात्रा,लय, 
यति-गति तज दो  
शब्दाक्षर खुद  
अपने रच लो 
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?

ढपली ले, 
जो चाहो भज लो 
आज़ादी है मनमानी की 
हो सब देख निहाल   

रोक-टोक मत 
कजरी तज  
सावन में गायें फाग 
*

रविवार, 9 नवंबर 2014

kruti charcha: khidkiyan kholo

कृति चर्चा:

'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो

संजीव
*
[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]

साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के  तक पहुँच सके। 

इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात सरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि  अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।   

ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले  ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है।  ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है। 

नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा,  गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।  

अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को 'कंकरीट' किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है। 

ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम'  से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। 

ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'।  नीरज जी ने  'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में  लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।

'कलावती के गाँव' शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा  छिपाने का उद्घाटन है: 'गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेल मसाला-आटा / सारी नौटंकी / जला कई दिन बाद / कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी'। 

सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीति को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खद्दरवालों  / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है। 

'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा  'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।  

'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है',  दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीटा  / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।

इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा  थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।  

ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।

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-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४, ०७६१ २४१११३१

शनिवार, 8 नवंबर 2014

kruti charcha: chonch men akash

कृति चर्चा :

पारम्परिक नवता की तलाश: चोंच में आकाश  

चर्चाकार: संजीव 

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[कृति विवरण: चोंच में आकाश, नवगीत संग्रह, पूर्णिमा बर्मन, प्रथम संस्करण २०१४, डिमाई आकार, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद] 

आदिमानव ने सलिल प्रवाह की कलकल, परिंदों के कलरव, मेघों के गर्जन पवन की सन-सन से उत्पन्न ध्वनियों से अभिभूत होकर उसके विविध प्रभावों हर्ष, विषाद, भय आदि की अनुभूति की। कलकल एवं कलरव ने उसे ध्वनियों के आरोह-अवरोहजनित नैरन्तर्य और माधुर्य का परिचय दिया। कालांतर में इन ध्वनियों को दुहराते हुए ध्वनिसंकेतों के माध्यम से पारस्परिक संवाद स्थापित कर मानव ने कालजयी आविष्कार किया। विविध मानव समूहों ने मूल एक होते हुए भी उनसे अपनी उच्चारण क्षमता के अनुसार विविध भाषाओँ क विकास किया। ध्वनि संकेतों का स्थान ध्वनि खण्डों ने लिया। कालांतर में ध्वनि खंड शब्दों में बदले और शब्दों का सातत्य सूक्ष्म और लघु गीतों का वाहक हुआ। छंद की गति-यति ने लय निर्धारण कर गीत की सरसता को समृद्ध किया तो स्थाई  या मुखड़े की आवृत्ति ने अंतरों को एक सूत्र में पिरोते हुए भाव-माला बनाकर शब्द चित्र को पूर्णता प्रदान की। छंदबद्ध हर रचना गेय होने पर भी गीत नहीं होती। गीत में लय, गति, ताल, मुखड़ा तथा अन्तरा होना आवश्यक है। गीत में शिथिलता, नवता का भाव तथा बिम्ब-प्रतीकों का बासीपन, दीर्घता तथा  छायावाद की अस्पष्टता होने पर उसके असमय काल कवलित होने की उद्घोषणा ने नवजीवन का पथ प्रशस्त किया। गीत के शिल्प और कथ्य का जीर्णोद्धार होने पर नवगीत का भवन प्रगट हुआ   

आरम्भ में गीत के शिल्प में प्रगतिवादी कविता का कलेवर अपनाने के पश्चात नव गीत क्रमशः लयात्मकता, पारम्परिकता और अधुनातनता की त्रिवेणी को एक कर वह रूपाकार पा सका जिससे साक्षात कराता है हिंदी को विश्ववाणी के रूप में समर्थ होते देखने की इच्छुक सरस्वतीपुत्री पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संग्रह 'चोंच में आकाश। नवगीत में  'नव गति, नव लय, ताल, छंद नव' तो होना ही चाहिए। पूर्णिमा जी की 'नवल दृष्टि' छंद, बिम्ब, प्रतीक, जीवन मूल्य, पारम्परिक लोकाचार, अधुनातनता तथा समसामयिक संदर्भो के सप्त तत्वों का सम्मिश्रण कर नवगीतों की रचना करती है। नवगीत को प्रगतिवादी कविताओं की प्रतिक्रिया और हर परंपरा के विरोध में शब्दास्त्र माननेवालों को इन नवगीतों में नवता की न्यूनता अनुभव हो तो यह उनकी संकुचित दृष्टि का सीमाबाह्य सत्य को न देख सकने का दोष होगा। पूर्णिमा जी ने भारतीय संस्कृति की उत्सवधर्मी लोकाचारिक परंपरा की पड़ती जमीन पर उग आयी जड़ता की खरपतवार को अपनी सामयिक परिस्थितियों के बखर तथा संवेदनशीलता के हल से अलग कर सांगीतिक सरसता के बीज मात्र नहीं बोये अपितु विदेशी धरती पर पनप रही विश्व संस्कृति और  भारत के नगर-ग्रामों में परिव्याप्त पारम्परिक सभ्यता के उर्वरकों का प्रयोग कर नवत्व के समीरण से पाठकों / श्रोताओं को आनंदित होने का अवसर सुलभ कराया है।   

भाषिक प्रयोग :

पारम्परिक काव्य मानकों की लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने कुछ भाषिक प्रयोग किये हैं। परीक्षकीय दृष्टि इन्हें काव्य दोष कह सकती है किन्तु नवता की तलाश में प्रयोगधर्मी  नवगीतकार ने इन्हें अनजाने नहीं जान-बूझकर प्रयोग किया है, ऐसा मुझे लगता है तथापि इन पर चर्चा होनी चाहिए। नव प्रयोग करना दो बाँसों  से बँधी रस्सी पर चलने की तरह दुष्कर होता है, संतुलन जरा सा डगमगाया तो परिणाम विपरीत हो जाता है। पूर्णिमा जी ने यह खतरा बार-बार उठाया है, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की वृद्धि हेतु ऐसे प्रयोग आवश्यक हैं।    

'रामभरोसे' में  'नफरत के एलान बो रहे', 'आँसू-आँसू गाल रो रहे' ऐसे ही प्रयोग हैं। एलान किया जाता है बोया नहीं जाता है। 'बोने' की क्रिया एक से अनेक की उत्पत्ति हेतु होती है। 'नफरत का एलान' उसे शतगुणित  करने हेतु हो तो उसे 'नफरत को बोना' कहा जाना  ठीक लगता है किंतु 'गाल का रोना'?  रुदन की क्रिया पीड़ाजनित होती है, अपनी या अन्य की पीड़ा से व्याकुल-द्रवित होना रुदन का उत्स है। आँख से अश्रु बहना भौतिक क्रिया है, मन या दिल का रोना भावनात्मक अभिव्यक्ति है। शरीरविज्ञान का 'दिल' धड़कने, रक्तशोधन तथा पंप करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता पर साहित्य का दिल भावनात्मक अभिव्यक्ति में भी सक्षम होता है।सामान्यतः 'गाल' का स्पर्श अथवा चुम्बन प्रेमाभिव्यक्ति हेतु तथा गाल पर प्रहार चोट पहुँचाने के लिये होता है। रोने की क्रिया में गाल का योगदान नहीं होता  अतः 'गाल का रोना' प्रयोग सटीक नहीं लगता।  

'सकल विश्व के विस्तृत प्रांगण / मंद-मंद बुहरें' के संदर्भ में निवेदन है कि क्रिया 'बुहारना' का अर्थ झाड़ना या स्वच्छ करना होता है 'बुहारू' वह उपकरण जिससे सफाई की जाती है। किसी स्थान को बुहारा जाता है, वह अपने आप कैसे 'बुहर' सकता है? यहाँ तथ्यपरक काव्य दोष प्रतीत होता है 

ओंकार या अनहद नाद को सृष्टि कहा गया है. 'शुभ ओंकार करें' से ध्वनित होता कि  कोई 'अशुभ ओंकार' भी हो सकता है जबकि ऐसा नहीं है। ओंकार तो हमेशा शुभ ही होता है, यह काव्य दोष शुभ के स्थान पर 'नित' के प्रयोग से दूर किया जा सकता है

एक नवगीत में प्रयुक्त 'इस डग पर हम भी हैं' (पृष्ठ ५४) के सन्दर्भ में निवेदन है कि 'डग' का अर्थ कदम होता है. जैसे ५ डग चलो या ५ कदम चलो, वह अर्थ यहाँ उपयुक्त नहीं प्रतीत होता, यहाँ 'डग' को 'मग' के अर्थ में लिया गया है। यदि 'इस डग पर हम भी हैं' को 'इस मग पर हम भी हैं' किया जाए तो अर्थ अधिक स्पष्ट होता है मग = मार्ग

'जिस भाषा में बात शुरू की / वह बोली ही बदल गयी' (पृष्ठ ५५) में भाषा और बोली का प्रयोग समानार्थी के रूप में हुआ प्रतीत होता है पर वस्तुतः दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न हैं। 'भाषा' में बात करें तो  'भाषा' ही बदलेगी  

सटीक शब्द चयन: 

नवगीत कमसे कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ समाहित करने की कला है। यहाँ भाव या कल्पना को विस्तार देने का स्थान ही नहीं होता। पूर्णिमा जी सटीक शब्दचयन में निपुण हैं। वे सुदीर्घ विदेश प्रवास के बावजूद जमीन से जुडी हैं। देशज शब्दों ने उनके नवगीतों को जनमानस की अभिव्यक्ति करने में सक्षम बनाया है। दियना, पठवाई  (भोजपुरी), गलबहियाँ, सगरी, मिठबतियाँ, टेरा, मुण्डेरा, बिराना, सतुआ, हूला, मुआ, रेले, हरियरी, हौले, कथरी, भदेस, भिनसारा, चौबारा, खटते, हिन्दोल, दादुर, बाँचो आदि शब्द इन नवगीतों को भोर की हवा के झोंके की ताज़गी देते हैं। समृद्धि, तरह आदि शब्दों के देशज रूपों समरिधि, तरहा  का प्रयोग बिना हिचक किया गया है। तौलने की क्रिया में तौले गये पदार्थ के लिये 'तुलान' शब्द का प्रयोग पूर्णिमा जी की जमीनी पकड़ दर्शाता है। यह शब्द हिंदी के आधुनिक शब्दकोशों में भी नहीं है। हिंदी की भाषिक क्षमता पर संदेह करनेवालों को ऐसे शब्द एकत्रकर शब्दकोशों में जोड़ना चाहिए। 

संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त पूर्णिमा जी की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्द होना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह कि इन शब्दों के प्रयोग से भाषा कलिष्ट या बोझिल नहीं हुई अपितु प्राणवान हुई है। स्वहित, समेकित, वल्कल, अभिज्ञान, नवस्पन्दन, नवता, वातास, मकरंद, अलिंद आदि शब्द कोंवेंटी पाठकों को कठिन लग सकते हैं पर सामान्य हिंदी पाठक के लिए सहज ग्राह्य हैं। 

हिंदी की अरबी-फ़ारसी शब्दप्रधान शैली उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्द पूर्णिमा जी के लिए पराये नहीं है। हिंदी को विश्ववाणी का रूप पाने के लिए अन्य भाषाओँ-बोलिओं के शब्दों को अपनी प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार आत्मसात करना ही होगा। जश्न, ख्वाब, वक़्त, खुशबू, अहसास,  इन्तिज़ार, रौशनी, सफर, दर्द, ज़ख्म, गुलदस्ता, बेकल पैगाम आदि उर्दू शब्द तथा मीडिया, टी. वी., फिल्म, लैंप, टाइप, ट्रेफिक, लॉन आदि अंग्रेजी शब्द यथावसर प्रयुक्त हुए हैं। 

पूर्णिमा जी ने इन गीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग कर गीत के कथ्य को सरसता दी है। तन-मन, धन-धान्य, ताने-बाने, ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, जीर्ण-शीर्ण, आप-धापी, रेले-मेले, यहाँ-वहाँ-सभी कहाँ, जगर-मगर आदि शब्द युग्मों से भाषा प्राणवंत हुई है।   

भाषिक चेतना : 

अन्य नवगीत संग्रहों से अलग हटकर यह कृति हिंदी की वैश्विकता को रेखांकित करती है।'हिंदी अपने पंख फैलाये उड़ने को तैयार' तथा 'अब भी हिंदी गानों पर मन / विव्हल होता है' पूर्णिमा जी के हिंदी प्रेम को उद्घाटित करता है। यथास्थान मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग ने नवगीतों को भाषा को सरसता दी है। ढोल पीटना, लीप-पोत देना, चमक-दमक आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग दृष्टव्य है। आजकाल नवगीतों में विशिष्ट शब्द-चयन  से सहजता पर सलीके को वरीयता देने का जो चलन दीखता है उसे पूर्णिमा जी विनम्रता से परे कर सुबोधतापरक वैविध्य और नवता से अपनी बात कह पाती हैं। 'अधभर गगरी छलकत जाए' मुहावरे का मनोहर प्रयोग देखें: 'कब तक ढोऊँ अधजल घट यह / रह-रह छलके नीर' 

भाषिक प्रवाह: 

पूर्णिमा जी के इन नवगीतों में भाषा का स्वाभाविक प्रवाह दृष्टव्य है : ' माटी की / खुशबू में पलते / एक ख़ुशी से / हर दुःख छलते / बाड़ी चौक गली अमराई / हर पत्थर गुरुद्वारा थे / हम सूरज / भिन्सारा थे, दुनिया ये आनी-जानी है / ज्ञानी कहते हैं फानी है / चलाचली का / खेला है तो / जग में डेरा कौन बनाये / माया में मन कौन रमाये आदि में मन रम सा जाता है।  

अलंकार:

नवगीतों में मुखड़े / स्थाई होने के कारण अन्त्यानुप्रास होता ही है, प्रायः अंतरों में भी अनुप्रास आ ही जाता है। पूर्णिमा जी पदांत की समता को खींच-तान कर नहीं मिलतीं अपितु सम उच्चारण के शब्द अपने आप ही प्रवाह में आते हुए प्रतीत होते हैं: जर्जर मन पतवार सखी री! / छूटे चैतन्य अनार सखी री,  जिनको हमने नहीं चुना / उनको हमने नहीं गुना / अपना मन ही नहीं सुना, नीम-नीम धरती है, नीम-नीम छत / फूल-फूल बिखरी है बाँटती रजत / टाँकती दिशाओं में रेशमी अखत / थिरकेगी तारों पर मंद्र कोई गत, सोन चंपा महकती रही रात भर / चाँदनी सुख की झरती रही रात भर / दीठि नटिनी ठुमकती रही रात भर / रूप गंधा लहकती रही रात भर / धुन सितारों की बजती रही रात भर जैसे अँतरे रस नर्मदा में अवगाहन कराकर पाठक को आत्मानंदित होने का अवसर देते हैं। उपमा पूर्णिमा जी का प्रिय अलंकार है घुंघरू सी कलियाँ, रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ, आरती सी दीप्त पँखुरी, अनहद का राम किला, गुलमोहर सी ज्वालायें, तितली सी इच्छाएँ,  मकड़ी के जालों सी  निराशाएँ  जैसी अनेक मौलिक उपमाएं सोने में सुहागा हैं। टुकड़े-टुकड़े टूट जायेंगे / मनके मनके में यमक की सुंदर छवि दृष्टव्य है। 


आध्यात्मिक चेतना:


प्रकृति के सानिंध्य में आध्यात्मिक चेतना की और झुकाव स्वाभाविक है। ओंकार, अनहद, कमल, चक्र, ज्योति, प्रकाश, घट, चैतन्य, अशोक, सुखमन आदि शब्द पाठक को आध्यात्मिक भावलोक में ले जाते हैं। पिंगल की परंपरा के अनुसार इस नवगीत संग्रह का श्री गणेश गणेश वंदना से उचित ही हुआ है। मन मंदिर में दिया जलने का स्नेहिल अनुरोध समाहित किये दूसरे नवगीत में ' चक्र गहन कर्मों के बंधन / स्थिर रहे न धीर / तीन द्वीप और सात समंदर / दुनिया बाजीगीर' आध्यात्मिक प्रतीकों से युक्त है। 'कमल खिला' शीर्षक नवगीत में 'चेतन का द्वार खुला / सुखमन ने / जीत लिया अनहद का राम किला / कमल खिला' फिर आध्यात्म संसार से साक्षात कराता है। 'झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया' का कबीरी रंग 'अनबन के ताने को / मेहनत के बाने को / निरानंद विमल मिला / सुधियों ने / झीनी इस चादर को आन सिला / कमल खिला' में दृष्टव्य है

पर्यावरणीय चेतना: 

सामान्यतः नवगीत संग्रह में पर्यावरणीय चेतना होना आवश्यक नहीं होता, न ही यह समलोचकीय मानक है किंतु इस संग्रह के शीर्षक से अंत तक पर्यावरण के प्रति नवगीतकार की चेतना जाने-अनजाने प्रवाहित हुई है। उसकी अनदेखी कैसे संभव है? 'चोंच में आकाश' शीर्षक नभ और नभचरों के प्रति पूर्णिमा जी की संवेदना को अभियक्त करता है। नभचर हों तो थलचर और जलचर भी आ ही जायेंगे और नभ के साथ वायु, ध्वनि धूम्र का होना स्वाभाविक है। पर्यावरणविदों का चिंतन और चिंता के इन केन्द्रों को केंद्र में रखनेवाली कृति पर्यावरणीय चेतना की वाहक न हो, यह कैसे संभव है? 

न्यूटन ने कहा था: मुझे खड़े होने के लिये जमीन दो, मैं आकाश को हाथों में उठा लूँगा। पंछी के हाथ उसके पंख होते हैं। इसलिए न्यूटन का विचार पंछी कहे तो यही कहेगा 'तुम मुझे उड़ने के लिये पंख दो, मैं आकाश को चोच में भर लूँगा'। 'चोंच में आकाश' परोक्षतः जिजीविषाजयी पखेरू की जयगाथा ही है। वह पखेरू जिसके उड़ाते ही 'शिव' भी 'शव' हो जाता है। यह प्राण-पखेरू पक्षियों, पशुओं, पौधों, पुष्पों और आध्यात्मिक प्रतीकों के रूप में इस संग्रह में सर्वत्र व्याप्त है। कमल, अमलतास, कचनार, गुलमोहर, हरसिंगार, महुआ, पलाश, बोगनविला, चंपा आदि पुष्प-वृक्ष, महुआ, अनार जिसे फल-वृक्ष, ताड़ सा रस-वृक्ष, नीम सा औषधि-वृक्ष, बोनसाई, घास, दूब आदि हरियाली, तितली, केका, मयूर, पाखी, चिड़िया, कोयलिया, विहग, पक्षी आदि नभचर, मछली, सर्प,हरिण, खरगोश आदि प्राणी इस संग्रह को जीवंत कर रहे हैं। 

पर्यावरण के प्रति चिंता  बार-बार अभिव्यकर होती है: छाया मिले न रंग फाग के / मौसम सूने गए बाग़ के /  जंगलों खिलती आग / कैसे उठे दिलों में राग / स्वारथ हवस चढ़ा आँखों पर / अब क्या खड़ा बावरा सोचे? आदि  

संगीत चेतना: 

नवगीत के जन्मदाता निराला जी पारम्परिक संगीत के साथ-साथ बंग संगीत के भी जानकार थे. संभवतः इसी कारण वे लय तथा रस को क्षति पहुँचाये बिना छंद के रूपाकार में, गति-यतिजनित परिवर्तन कर नव छंदों और नवगीतों का सृजन कर सके। इस संग्रह को पढ़ने से पूर्णिमाजी की संगीत सम्बन्धी जानकारी की पुष्टि होती है। इकतारा, संतूर, ढोल, करताल, दादरी, मल्हार आदि की यथास्थान उपस्थिति से नवगीत माधुर्यमय हुए हैं। 'थिरकेगी तारों पर मंद्र /कोई गत' में 'मंद्र' तथा 'गत' का अर्थवाही प्रयोग पूर्णिमा जी के अवचेतन में क्रियाशील सांगीतिक चेतना ही प्रयोग कर सकती है।  

शैल्पिक नवता: 

'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत' की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए पूर्णिमा जी ने शब्दों को सामान्य से हटकर विशिष्ट अर्थ संकेतन हेतु प्रयोग किया है। इस दिशा में अनन्य कबीर  जिन्होंने प्रचलित से भिन्नार्थों में अनेक शब्दों का प्रयोग किया और वे जनसामान्य तथा विद्वानों में समान रूप से मान्य भी हुए। इसलिए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को भाषा का डिक्टेटर भी कहा। पूर्णिमा जी भाषा की डिक्टेटर न सही भाषा की सशक्त प्रयोक्ता तो हैं ही। मरमरी उंगलियाँ, मूँगिया हथेली, चितवन की चौपड़, परंपरा के खटोले, प्यार की हथेली, चैत की छबीली जैसी सटीक अभिव्यक्तियाँ पूर्णिमा जी का वैशिष्ट्य है। 'जगह बनाती कोहनियाँ  / घुटने बोल गये, आस की शक्ल में सपनों को / लिये जाती है,  मन में केका-पीहू जगता, काले बालों में चाँदी ने लड़ियाँ डाली हैं, विलसिता से व्याकुल हर चित / आचारों में निरा दुराग्रह, हर हिटलर की वाट लग गयी, परंपरा की / घनी धरोहर और / प्रगति से प्यार मंदिर दियना बार सखी री! / मंगल दियना बार, अपने छूटे देस बिराना' आदि पंक्तियाँ शब्द-शक्ति की जय-जयकार करती प्रतीत होती हैं। 

व्यंग्य परकता: 

'नवता नए व्याकरण खोले / परंपरा के उठे खटोले / आभिजात्य की नयी दूकान / बोनसाई के ऊँचे दाम' में परंपरा विरोधियों पर प्रखर व्यंग्य प्रहार है। राम भरोसे शीर्षक गीत व्यंग्य  से सराबोर है: अमन-चैन के भरम पल रहे / राम भरोसे । राजनैतिक गतिविधियों और उनके आकाओं पर चुटीला व्यंग्य देखें: कैसे-कैसे शहर जल रहे राम भरोसे / जैसा चाहा बोया-काटा / दुनिया को मर्जी से बाँटा / उसकी थाली अपना काँटा / इसको डाँटा उसको चाँटा / राम नाम की ओढ़ चदरिया / कैसे आदम जात छल रहे / राम भरोसे।कथनी-करनी के अंतर पर    इसी गीत में शब्द बाण है: दया-धर्म नीलाम हो रहे / नफरत के एलान बो रहे / आँसू-आँसू गाल रो रहे / बारूदों के ढेर ढो रहे / जप कर माला विश्व शांति की / फिर भी जग के काम चल रहे / राम भरोसे। मुफलिसी में फकीराना मस्ती सारे दुखों की दवा बन जाती है:  भाड़ में जाए रोटी-दाना/ अपनी डफली पाना गाना / लाख मुखौटा चढ़े भीड़ में / चेहरा लेकिन है पहचाना 

मूल्यांकन:

नवगीत संग्रहों की सामान्य लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने इस संग्रह के ५५ गीतों को स्वस्ति गान - २ गीत, फूल-पान १० गीत, देश गाम १४ गीत, मन मान १२ गीत तथा धूप धान १७ गीत शीर्षक पञ्चाध्यायों में व्यवस्थित किया है 

प्रख्यात नवगीतकार यश मालवीय जी ने ठीक ही कहा है कि पूर्णिमा जी ने मौसम को शिद्दत से महसूस करते हुए उससे मन के मौसम का संगम कराकर गीत के रूप विधान में कुछ ऐसा नया जोड़ दिया है की बात नवगीत से भी आगे चली गयी है।  

नचिकेता जी ने इन गीतों में नवगीत की बँधी लीक का अंधानुकरण न होने से अस्वीकृति की कहट्रे को इन्गित करते हुए कहा है: 'मुमकिन है कि  इनके गाँठहीन, सहज और सुबोध गीतों में कुछ जड़सूत्री आधुनिकतावादियों को कोई प्रयोगधर्मी नवीनता दिखाई न दे, इसलिए वे इन्हें नवगीत मानने से ही इंकार कर दें' 

नवगीत के मूल तत्वों में शिल्प के अंतर्गत मुखड़ा और अन्तरा होना आवश्यक है. मुखड़ा तथा अँतरे की अंतिम पंक्ति का मुखड़े के सामान पदभार व सम पदांत का होना सामान्यतः आवश्यक है, इस शिल्प बंधन को पूर्णिमा जी ने सामान्यतः स्वीकारा है किन्तु 'ढूंढ तो लोगे'  शीर्षक गीत में मुखड़ा नहीं है। इस गीत में ७-७ पंक्तियों के ४ पद हैं। ' नमन में मन' में प्रथम पद में ७ पंक्तियाँ है शेष ३ पदों में ८-८ पंक्तियाँ है। एक पंक्ति कम होने से प्रथम पद को ७ पंक्ति का मुखड़ा कहा सकते हैं। शैल्पिक प्रयोगधर्मिता का परिचय देते इस संग्रह के गीतों में १ पंक्ति से ७ पंक्ति तक  के मुखड़े हैं। 

पदांत और पंक्त्यांत में तुक बंधन का पालन होते हुए भी भिन्नता है: कहीं सिर्फ मात्रा का साम्य है जैसे क्यों पलाश गमलों में रोपे / उसको बात बात में टोके / अब क्या खड़ा बावरा सोचे तथा जैसे हों कागज़ के खोखे में केवल 'ए' की मात्रा की समानता है जबकि 'बोगन विला' शीर्षक नवगीत में में फूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, झूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, हूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया में केवल प्रथम अक्षर भिन्न है जबकि ऊ की मात्रा के साथ ला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया का पदांत है। निस्संदेह ऐसे शैल्पिक प्रयोग के लिए नवगीतकार का शब्द भण्डार समृद्ध और भाषिक पकड़ असाधारण होना आवश्यक है। 

नवगीतों में गेयता पर पठनीयता के हावी होने से असहमत पूर्णिमा जी ने इन गीतों को सहजता, स्वाभाविकता, रागात्मकता, सामूहिकता तथा संगीतात्मकता से संस्कारित किया है। वे यथार्थ के नाम पर गद्यात्मक ठहराव न आने देने के प्रति सचेष्ट रही हैं राष्ट्र और राष्ट्र भाषा के प्रति उनकी चिंता इन गीतों में व्यक्त हुई है: तिरंगा और मेरी माटी मेरा देश ऐसे ही नवगीत हैं। 

सारतः पूर्णिमा बर्मन जी के ये नवगीत उन्हें  पाठकों-श्रोताओं के लिए सहज ग्रहणीय बनाते है। किताबी समीक्षक भले ही यथार्थ वैषम्य और विसंगतियों की कमी को न्यूनता कहें किन्तु मेरे मत में इससे उनके गीत दुरूह, नीरस और असहज होने से बचे हैं। अपने वर्तमान रूप में ये गीत आम जन की बात  आमजन की भाषा में कह सके हैं। इनकी ताकत है और वैशिष्ट्य यह है की ये ज़ेहन पर वज़न नहीं डालते, पढ़ते-सुनते ही मन को छू पते हैं और दुबारा पढ़ने-सुनने पे अरुचिकर नहीं लगते। यह पूर्णिमा जी का प्रथम नवगीत संग्रह है। उनके सभी पाठकों - श्रोताओं की तरह अगले संकलन की प्रतीक्षा करते हुए मैं भी यही कहूँगा 'अल्लाह करे जोरे कलम और ज़ियादा'   
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-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv @gmail.com, ९४२५१ ८३२४४, ०७६१ २४१११३१

geetika chhand:

छंद सलिला:
गीतिका छंद
संजीव 
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छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
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charcha: shabd aur arth

चर्चा :

शब्द और अर्थ 

शब्द के साथ अर्थ जुड़ा होता है। यदि अन्य भाषा के शब्द का ऐसा अनुवाद हो जिससे अभीष्ट अर्थ ध्वनित न हो तो उसे छोड़ना चाहिए जबकि अभीष्ट अर्थ प्रगट होता है तो ग्रहण करना चाहिए ताकि उस शब्द का अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सके। 

'चलभाष' या 'चलित भाष' से गतिशीलता तथा भाषिक संपर्क अनुमानित होता है। इसका विकल्प 'चलवार्ता' भी हो सकता है। कोई व्यक्ति 'मोबाइल' शब्द न जानता हो तो भी उक्त शब्दों को सार्थक पायेगा। अतः, ये हिंदी के लिये उपयुक्त हैं। 

साइकिल का वास्तविक अर्थ चक्र होता है। चक्र का अर्थ भौतिकी, रसायन, युद्ध विज्ञान, यातायात यांत्रिकी में भिन्न होते हैं।  

अंग्रेजी में 'बाइसिकिल' शब्द है जिसे हम विरूपित कर हिंदी में 'साइकिल' वाहन के लिये प्रयोग करते हैं. यह प्रयोग वैसा ही है जैसे मास्टर साहब को' मास्साब' कहना। अंग्रेजी में भी बाइ = दो, साइकिल = चक्र भावार्थ दो चक्र का (वाहन), हिंदी में द्विचक्रवाहन। जो भाव व्यक्त करता शब्द अंग्रेजी में सही, वही भाव व्यक्त करता शब्द हिंदी में गलत कैसे हो सकता है? 

संकेतों के व्यापक ताने-बाने को नेट तथा इसके विविध देशों में व्याप्त होने के आधार पर 'इंटर' को जोड़कर 'इंटरनेट' शब्द बना। इंटरनेशनल = अंतर राष्ट्रीय सर्व स्वीकृत शब्द है। 'इंटर' के लिये 'अंतर' की स्वीकार्यता है (अंतर के अन्य अर्थ 'दूरी', फर्क, तथा 'मन' होने बाद भी)। ताने-बाने के लिये 'जाल' को जोड़कर अंतरजाल शब्द केवल अनुवाद नहीं है, वह वास्तविक अर्थ में भी उपयुक्त है।   

टेलीविज़न = दूरदर्शन, टेलीग्राम =दूरलेख, टेलीफोन = दूरभाष जैसे अनुवाद सही है पर इसी आधार पर टेलिपैथी में 'टेली' का भाषांतरण 'दूर'  नहीं किया जा सकता। 'पैथी' के लिये हिंदी में उपयुक्त शब्द न होने से एलोपैथी, होमियोपैथी जैसे शब्द यथावत प्रयोग होते हैं।  

दरअसल अंग्रेजी शब्द मस्तिष्क में बचपन से पैठ गया हो तो समानार्थी हिंदी शब्द उपयुक्त नहीं लगता। भाषा विज्ञान के जानकार शब्दों का निर्माण गहन चिंतन के बाद करते हैं।

geet: rakesh khandelwal


गीत:

रिश्ता क्या है तुमसे मेरा

राकेश खण्डेलवाल 

तुमने मुझसे प्रश्न किया है रिश्ता क्या है तुमसे मेरा
सच पूछो तो इसी प्रश्न ने मुझको भी आ आ कर घेरा
 
तुम अपनी वैयक्तिक सीमा के खींचे घेरे में बन्दी
मैं गतिमान निरन्तर, पहिया अन्तरिक्ष तक जाते रथ का
तुम हो सहज व्याख्य निर्देशन बिन्दु बिन्दु के दिशाबोध का
लक्ष्यहीन दिग्भ्रमित हुआ मैं यायावर हूँ भूला भटका
 
तुम अंबर की शुभ्र ज्योत्सना, मैं कोटर में बन्द अँधेरा
सोच रहा हूँ मैं भी जाने तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
तुम प्रवाहमय रस में डूबी, मधुशाला की एक रुबाई
मैं अतुकान्त काव्य की पंक्ति, जो रह गई बिना अनुशासन
मैं कीकर के तले ऊँघता जेठ मास का दिन अलसाया
तुम अम्बर की हो वह बदली, जो लाकर बरसाती सावन
 
तुम संध्या का नीड़, और मैं जगी भोर का उजड़ा डेरा
प्रश्न तुम्हारा कायम ही है तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
लेकिन फिर भी कोई धागा, जोड़े हुए मुझे है तुमसे
हम वे पथिक पंथ टकराये हैं जिनके आ एक मोड़ पर
एक अजाना सा आकर्षण हमें परस्पर खींच रहा है
समझा नहीं, कोशिशें की हैं गुणा भाग कर घटा जोड़ कर
 
प्रश्न यही दोहराता आकर हर दिन मुझसे नया सवेरा
जो तुमने पूछा है रिश्ता क्या है तुमसे बोलो मेरा

"Rakesh Khandelwal rakesh518@yahoo.com
sabhar: ekavita

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

muktak:

मुक्तक:

हमको फ़ख़्र आप पर है, हारिए हिम्मत नहीं 
दूरियाँ दिल में नहीं, हम एक हैं रखिये यकीं 
ज़िन्दगी ज़द्दोज़हद है, जीतना ही है हमें 
ख़त्म कर सब फासले, हम एक होंगे है यकीं 

hamko fakhra aap par hai, harie himmat naheen 
dooriyan dil men naheen, ham ek hain rakhiye yakeen  
zindgi zaddozahad hai, jeetna hee hai hamen 
khatm kar sab faasale, ham ek honge hai yakeen 
*

doha:

दोहा सलिला:

चीज न कोई भी दिखी, सबमें थे भगवान
चीज हुए भगवान भी, हाय - हाय इंसान

रीति - नीति से कब बना, यह आदम इंसान
प्रीति पालकर हो सका, हर मानव रस-खान

परमपिता के निकट ही, मिले पिता को ठौर
पुत्र बिसूरे पर नहीं, जाकर पूजे और
*


gotr aur vivah

एक गोत्र में शादी क्यों नही होती है ....

वैज्ञानिक कारण हैं.. एक दिन डिस्कवरी पर जेनेटिक
बीमारीयों से सम्बन्धित एक ज्ञानवर्धक कार्यक्रम देख रहा था ... उस प्रोग्राम में एक
अमेरिकी वैज्ञानिक ने कहा की जेनेटिक बीमारी न हो इसका एक ही इलाज है और
वो है "सेपरेशन ऑफ़ जींस".. मतलब अपने नजदीकी रिश्तेदारो में विवाह नही करना चाहिए ..
क्योकि नजदीकी रिश्तेदारों में जींस सेपरेट नही हो पाता और
जींस लिंकेज्ड बीमारियाँ जैसे हिमोफिलिया, कलर ब्लाईंडनेस, और एल्बोनिज्म होने की १००% चांस होती है ..
फिर मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब उसी कार्यक्रम में ये दिखाया गया की आखिर हिन्दूधर्म में करोड़ो सालो पहले जींस और डीएनए के बारे में कैसे
लिखा गया है ? हिंदुत्व में कुल सात गोत्र होते है
और एक गोत्र के लोग आपस में शादी नही कर सकते ताकि जींस सेपरेट रहे.. उस वैज्ञानिक ने कहा की आज पूरे विश्व को मानना पड़ेगा की हिन्दूधर्म ही विश्व का एकमात्र
ऐसा धर्म है जो "विज्ञान पर आधारित" है !
गर्व से कहे हम हिन्दू है.
जय सनातन, जय हिन्द