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बुधवार, 20 मार्च 2013

बाल कविता: जल्दी आना ... संजीव 'सलिल'

बाल कविता:

जल्दी आना ...











संजीव 'सलिल'
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.

माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
***



 

मंगलवार, 19 मार्च 2013

geet faguni purwaee sanjiv verma 'salil'

गीत:
फागुनी पुरवाई
संजीव 'सलिल'
*
फागुनी पुरवाई में महुआ मदिर जब-जब महकता
हवाओं में नाम तब-तब सुनाई देता गमककर.....

टेरती है, हेरती है पुनि लुका-छिपि खेलती है.
सँकुचती है एक पल फिर निज पगों को ठेलती है.
नयन मूंदो तो दिखे वह, नयन खोलो तो छिपे वह
परस फागुन का अनूठा प्रीत-पापड़ बेलती है.

भाविता-संभाविता की भुलैयां हरदम अबूझी
करे झिलमिल, हँसे खिलखिल, ठगे मन रसना दिखाकर.....

थिर, क्षितिज पर टिकी नज़रें हो सुवासित घूमती हैं.
कोकिला के कंठ-स्वर सी ध्वनि निरंतर चूमती हैं.
भुलावा हो या छलावा, लपक लेतीं हर बुलावा-
पेंग पुरवैया के संग, कर थाम पछुआ लूमती हैं.

उहा-पोही धूप-छाँही निराशा-आशा अँजुरी में
लिए तर्पण कर रहा कोई समर्पण की डगर पर.....

फिसलकर फिर-फिर सम्हलता, सम्हलकर फिर-फिर फिसलता.
अचल उन्मन में कहाँ से अवतरित आतुर विकलता.
अजाना खुद से हुआ खुद, क्या खुदी की राह है यह?
आस है या प्यास करती रास, तज संयम चपलता.

उलझ अपने आपसे फिर सुलझने का पन्थ खोजे
गगनचारी मन उतरता वर त्वरा अधरा धरा पर.....

क्षितिज के उस पार झाँके, अदेखे का चित्र आँके.
मिट अमिट हो, अमिट मिटकर, दिखाये आकार बाँके.
चन्द्रिका की चमक तम हर दमक स्वर्णिम करे सिकता-
सलिल-लहरों से गले मिल, षोडशी सी सलज झाँके.

विमल-निर्मल प्राण-परिमल देह नश्वर में विलय हो
पा रही पहचान खोने के लिए मस्तक नवाकर.....
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

सोमवार, 18 मार्च 2013

fact of the day

Photo: GOOD NIGHT ALL FRIEND,S KAL SUBAH MILAGA
भारत माँ के लाल बहादुर ने जीता लाहौर.
अमर शहीदों का अब तक है यह नन्हा सिरमौर।।

Photo: ये वही शास्त्री जी है जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री रहते समय लाहौर पे ऐसा कब्ज़ा जमाया था की पुरे विश्व ने जोर लगा लिया लेकिन लाहौर देने से इनकार कर दिया था | आख़िरकार उनकी एक बड़ी साजिस के तहत हत्या कर दी गयी | जिसका आज तक पता नहीं लगाया जा सका है |

1. जब इंदिरा शाश्त्रीजी के घर (प्रधान मंत्री आवास ) पर पहुची तो कहा कि यह तो चपरासी का घर लग रहा है, इतनी सादगी थी हमारे शास्त्रीजी में...

2.जब 1965 मे पाकिस्तान से युद्ध हुआ था तो शासत्री जी ने भारतीय सेना का मनोबल इतना बड़ा दिया था की भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना को गाजर मूली की तरह काटती चली गयी थी और पाकिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा जीत लिया था ।

3.जब भारत पाकिस्तान का युद्ध चल रहा तो अमेरिका ने भारत पर दबाव बनाने के लिए कहाथा की भारत युद्ध खत्मकर दे नहीं तो अमेरिकाभारत को खाने के लिए गेहू देना बंद कर देगातो इसके जवाब मे शास्त्री जी ने कहाकीहम स्वाभिमान से भूखे रहना पसंद करेंगे किसी के सामने भीख मांगने की जगह । और शास्त्री जी देशवासियों से निवेदन किया की जब तक अनाज की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक सब लोग सोमवार का व्रत रखना चालू कर दे और खाना कम खाया करे ।

4.जब शास्त्री जी तस्केंत समझोते के लिए जा रहे थे तो उनकी पत्नी के कहा की अब तो इस पुरानी फटी धोती कीजगह नई धोती खरीद लीजिये तो शास्त्री जी ने कहा इस देश मे अभी भी ऐसे बहुत से किसान है जो फटी हुई धोती पहनते है इसलिए मै अच्छे कपडे कैसे पहन सकता हु क्योकि मै उन गरीबो का ही नेता हूँ अमीरों का नहीं और फिरशास्त्री जी उनकी फटी पुरानी धोती को अपने हाथ से सिलकर तस्केंत समझोते के लिए गए ।

5. जब पाकिस्तान से युद्ध चल रहा था तो शास्त्री जी ने देशवासियों से कहा की युद्ध मे बहुत रूपये खर्च हो सकते है इसलिएसभी लोग अपने फालतू केखर्च कम कर देऔर जितना हो सके सेना को धन राशि देकर सहयोगकरें । और खर्च कम करने वाली बात शास्त्री जी ने उनके खुद के दैनिक जीवन मे भी उतारी । उन्होने उनके घर के सारे काम करने वाले नौकरो को हटा दिया था और वो खुद ही उनके कपड़े धोते थे, और खुद ही उनके घर की साफ सफाई और झाड़ू पोंछा करते थे ।

6. शास्त्री जी दिखन?े मे जरूर छोटे थे पर वो सच मे बहुत बहादुर और स्वाभिमानी थे ।

7. जब शास्त्री जी की मृत्यु हुई तो कुछ नीचलोगों ने उन पर इल्ज़ाम लगाया की शास्त्री जी भ्रस्टाचारी थे पर जांच होने के बाद पता चला की शास्त्री जी केबैंक के खाते मे मात्र365/- रूपये थे । इससे पता चलता है की शास्त्री जी कितने ईमानदार थे ।

8. शास्त्री जी अभी तक के एक मात्र ऐसे प्रधान मंत्री रहे हैं जिनहोने देश के बजट मे से 25 प्रतिशत सेना के ऊपर खर्च करनेका फैसला लिया था । शास्त्री जी हमेशा कहते थे की देश का जवान और देश का किसान देश के सबसे महत्वपूर्ण इंसान हैं इसलिए इन्हे कोई भी तकलीफ नहीं होना चाहिए और फिर शास्त्री जी ने 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया ।

9.जब शास्त्रीजि तस्केंत गए थे तो उन्हे जहर देकर मार दिया गया था और देश मे झूठी खबर फैला दी गयी थी की शास्त्री जी की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई । और सरकार ने इस बात पर आज तक पर्दा डाल रखा है ।

10 शास्त्री जी जातिवाद के खिलाफ थे इसलिए उन्होने उनके नाम के आगे श्रीवास्तव लिखना बंद कर दिया था ।

हम धन्य हैं की हमारी भूमि पर ऐसे स्वाभिमानी और देश भक्त इंसान ने जन्म लिया । यह बहुत गौरव की बात है की हमे शास्त्री जी जैसे प्रधान मंत्री मिले ।
जय जवान जय किसान !
शास्त्री जी ज़िंदाबाद !
इंकलाब ज़िंदाबाद !.

apna apna zameer

Photo: 1-> मुझे 2 लाख रुपये नहीं अपने शहीद पति का कटा हुआ सर चाहिए : हेमराज की पत्नी
2-> मुझे डिएसपी पद से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं : UP DSP की पत्नी
अब बतायेँ देशभक्त कौन ? मुवावब्जे का असली हकदार कौन ?

Photo: 1-> मुझे 2 लाख रुपये नहीं अपने शहीद पति का कटा हुआ सर चाहिए : हेमराज की पत्नी
2-> मुझे डिएसपी पद से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं : UP DSP की पत्नी
अब बतायेँ देशभक्त कौन ? मुवावब्जे का असली हकदार कौन ?

joke of the day

Photo

thought of the day dr. a.p.j.abdulkalam

Photo

स्त्री - पुरुष के संपत्ति अधिकार -तसलीमा नसरीन

बांगला देश में मुस्लिम उत्तराधिकार: शरिया के अनुसार स्त्री - पुरुष के संपत्ति अधिकार 
सन्दर्भ: छोटे-छोटे दुःख, तसलीमा नसरीन, २४-२८. 

= मृत औरत को कोई संतान या संतान की संतान न हो तो औरत की जायदाद का १/२  हिस्सा उसके पति को मिलता है. मृत औरत की कोई संतान हो (पति की जायज़ सन्तान न हो तो भी) पति को १/४  हिस्सा मिलेगा. मृत पति की सन्तान या संतान की संतान हो तो पति की संपत्ति में बीबी को १/४ हिस्सा तथा पति की संतान होने पर १/८ हिस्सा मिलता है. 

= किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति का  १/३ हिस्सा माँ को तथा २/३ हिस्सा पिता को मिलता है. २ या २ से अधिक भाई-बहिन हों तो  माँ को १/६ भाग तथा  पिता को ५/६ भाग मिलता है. भाई-बहिनों को कुछ नहीं मिलता क्योंकि उनके माँ-बाप मौजूद होते हैं. 

= उत्तराधिकार-लाभ के मामले में  बेटी का भाग १/२, दो से अधिक बेटियां हों तो सबको मिलकर २/३ भाग  मिलता है. बेटा भी हो तो हर बेटे को बेटी से दोगुना भाग मिलता है. 

= काका और फूफी को २/३ तथा मामा और खाला को १/३ भाग मिलता है. 
(सार: सुन्नी उत्तराधिकार कानून में माता-पिता, बेटे-बेटी के हक समान नहीं हैं.) 
बांगला देश में हिन्दू उत्तराधिकार : (मिताक्षरा तथा दायभाग प्रणाली )

= दायभाग प्रणाली के अनुसार व्यक्ति स्वार्जित संपत्ति मनमर्जी से हस्तांतरित कर सकता है. मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के ३ वर्ग- सपिंड जो पिंडदान में भाग लें, साकुल्य जो श्राद्ध के समय पिंड पर लेप करें तथा समानोदक जो श्राद्ध में पिंड पर जल चढ़ाएं हैं. मातृ-पितृकुल की ३ पीढ़ी (नाना, नाना के पिता, नाना के पिता के पिता - पिता, पितामह, प्रपितामह) सपिंड मान्य हैं चूंकि मृत व्यक्ति अपने जीवन-काल में उन्हें पिंडदान करता. मृत व्यक्ति के श्राद्ध में जो व्यक्ति पिंड दान करते हैं वे सब (पुत्र, पोत, पड़पोता, नाती, पोते/पोती के पुत्र ) तथा मृतक के पूर्वजों को पिंड दान करते रहे व्यक्ति मृतक के सपिंड होते हैं.

= सपिंडों के अग्राधिकार: आधार क्रम १. पुत्र, २. पौत्र, ३. प्रपौत्र, ४. विधवा पत्नी (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र जिन्दा न हों तो) ५. बेटी (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, विधवा पत्नी जिन्दा न हों तो) बदचलन/पुत्रहीना बेटी उत्तराधिकारी नहीं हो सकती. ६. नाती (बेटी की मौत के बाद सपिंड के नाते), ७. पिता, ८. माँ (बदचलन न हो तो), ९. भाई, १०. भाई का बेटा, ११. भाई के बेटे का बेटा, १२. बहिन का बेटा, १३. पितामह, १४.पितामही, १५. पिता का भाई, १६. चचेरा/तयेरा भाई, १७.चचेरे/तयेरे भाई का बेटा, १८. फुफेरा भाई, १९. पिता के पिता के पिता, २०. पिता के पिता की माँ, २१. पिता का फूफा, २२. उसका बेटा, २३. उसका पौत्र, २४. पिता के पिता की बहिन का पुत्र, २५. पुत्र की कन्या का पुत्र, २६. पुत्र के पुत्र की कन्या का पुत्र, २७. भाई के पुत्र की कन्या का पुत्र, २८. फूफा की कन्या का पुत्र, २९. फूफा के पुत्र की कन्या का पुत्र, ३०. पिता के फूफा की कन्या का पुत्र, ३०. पिता के फूफा की कन्या का पुत्र, ३१. पिता के फूफा के पुत्र की बेटी का पुत्र, ३२. माँ का पिता, ३३. माँ का भाई, ३४.उसका पुत्र, ३५. उसका पौत्र, ३६. माँ की बहिन का पुत्र, ३७. माँ के पिता का पिता, ३८. उसका पुत्र, ३९. उसका पौत्र, ४०. उसका प्रपौत्र, ४१. उसकी बेटी का बेटा, ४२. माता के पिता के पिता का पिता, ४३. उसका पुत्र, ४४. उसका पौत्र, ४५. उसका प्रपौत्र , ४६. उसकी बेटी का पुत्र, ४७. माँ के पिता के पुत्र की बेटी का पुत्र, ४८. उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र, ४९. माँ के पिता के पिता के बेटे की बेटी का पुत्र, ५०उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र,५१.माँ के पिता के पिता के पिता की बेटी का पुत्र, ५२. उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र.

सार: वरीयता पिता, पुत्र, पुत्र, प्रपौत्र वर्ग को. बीबी, बेटी, माँ को मर्द उत्तराधिकारी न होने पर भी सशर्त (बदचलन/पुत्रहीन न हो तो ही). नाती तथा भांजा सूची में बाद में ही सही किन्तु हैं पर बहिन, उसकी बेटी, बहिन की नातिन सूची में नहीं हैं। पिता के भाई-भतीजे तथा उनके पोते सूची में सम्मिलित किन्तु पिता की बहिन तथा उसकी बेटी सूची में नहीं हैं. पिता के फूफा-काका, उनके बेटे-पोते, पिता के पिता की बहिन का बेटा, उसकी बेटी का पुत्र भी सूची में है किन्तु काका-फूफा की बेटी, पितामह की बहिन की बेटी या बेटे की बेटी की बेटी नहीं है. माँ के भाई-पिता, मामा का बेटा, पोता, पड़पोता हिस्सेदार हैं किन्तु माँ की बहिन-माँ, मामा की बेटी-नातिनों का कोई हक नहीं है. माँ की बहिन हिस्सेदार नहीं है पर उसी बहिन का पुत्र हिस्सेदार है. माँ के प्रपिता के पुत्र की बेटी हिस्सेदार नहीं है पर उसी का पुत्र हिस्सेदार है. सार यह की जायदाद भिन्न गोत्र में भले ही चली जाए पर स्त्री को न मिले. स्त्री का हिस्सा इस तरह है कि उससे बाद की पुरुष पीढ़ी को पहले पात्रता है, अपना क्रम आने तक स्त्री जीवित ही नहीं रह पाती और वंचित हो जाती है.   

साकुल्य और समानोदक भी पिता के पिता, तस्य पिता, बेटे के बेटे, उसके बेटे, उसके पोते-प्द्पोते ही हकदार हैन. इस तालिका में स्त्री का नामोनिशान  नहीं है. 

रविवार, 17 मार्च 2013

गीति रचना: पाती लिखी संजीव 'सलिल'

गीति रचना:
पाती लिखी
संजीव 'सलिल'
*
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
गीत, गजल, कविताएँ, छंद,
अनगिन रचे मिला आनंद.
क्षणभंगुर अनुभूति रही,
स्थिर नहीं प्रतीति रही.
वाह, वाह की चाह छले
डाह-आह भी व्यर्थ पले.
कैसे मिलता कभी सुनाम?
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
नाम हुए बदनाम सभी,
और हुए गुमनाम कभी.
बिगड़े, बनते काम रहे,
गिरते-बढ़ते दाम रहे.
धूप-छाँव के पाँव थके,
लेकिन तनिक न गाँव रुके.
ठाँव दाँव के मेटो राम!
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
सत्य-शील का अंत समीप,
घायल संयम की हर सीप.
मोती-शंख न शेष रहे,
सिकता अश्रु अशेष बहे.
मिटे किनारे सूखी धार,
पायें न नयना नीर उधार.
नत मस्तक कर हुए अनाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
लिखता कम, समझो ज्यादा,
राजा बना मूढ़ प्यादा.
टेढ़ा-टेढ़ा चलता है
दाल वक्ष पर दलता है.
दु:शासन नित चीर हरे
सेवक सत्ता-खेत चरे.
मन सस्ता मँहगा है चाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*

एक ग़ज़ल : कोई नदी जो उनके......... आनन्द पाठक






एक ग़ज़ल : 
कोई नदी जो उनके.........
आनन्द पाठक
*
कोई नदी जो उनके घर से गुज़र गई है
चढ़ती हुई जवानी पल में उतर गई है
 
बँगले की क्यारियों में पानी तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में सूखी नहर गई है
 
परियोजना तो वैसे हिमखण्ड की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर जाने किधर गई है
 
हर बूँद बूँद तरसी मेरी तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके आँगन ठहर गई है
 
"छमिया’ से पूछना था ,थाने बुला लिए थे
’साहब" से पूछना है ,सरकार घर गई है
 
वो आम आदमी है हर रोज़ लुट रहा है
क्या पास में है उसके सरकार डर गई है !
 
ख़ामोश हो खड़े यूँ क्या सोचते हो "आनन’?
क्योंकर नहीं गये तुम दुनिया जिधर गई है ?
 anand pathak akpathak317@yahoo.co.in

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

muktika, andheron ko raushan... sanjiv 'salil'

मुक्तिका :
अंधेरों को रौशन ...
संजीव 'सलिल'
*
अंधेरों को रौशन किया, पग बढ़ाया
उदासी छिपाकर फलक मुस्कुराया

बेचैनी दिल की न दिल से बताई
आँसू छिपा लब विहँस गुनगुनाया

निराशा के तूफां में आशा का दीपक
सही पीर, बन पीर मन ने जलाया

पतझड़ ने दुःख-दर्द सहकर तपिश की
बखरी में बदरा को पाहुन बनाया

घटायें घुमड़ मन के आँगन में नाचीं
न्योता बदन ने सदन खिलखिलाया

धनुष इंद्र का सप्त रंगी उठाकर
सावन ने फागुन को दर्पण दिखाया

सीरत ने सूरत के घर में किया घर
दुःख ने लपक सुख को अपना बनाया

'सलिल' स्नेह संसार सागर समूचा
सतत सर्जना स्वर सुना-सुन सिहाया

-------------------------------------

hindi kavita manoshi chatterji

कविता 
मानोशी चटर्जी
* 
मैं जब शाख़ पर घर बसाने की बात करती हूँ  
पसंद नहीं आती 
उसे मेरी वह बात, 
जब आकाश में फैले   
धूप को बाँधने के स्वप्न देखती हूँ,  
तो बादलों का भय दिखा जाता है वह,  
उड़ने की ख़्वाहिश से पहले ही   
वह चुन-चुन कर मेरे पंख गिनता है,  
धरती पर भी दौड़ने को मापता है पग-पग,  
और फिर जब मैं भागती हूँ,  
तो पीछे से आवाज़ देता है,  
मगर मैं नहीं सुनती  
और अकेले जूझती हूँ...  
पहनती हूँ दोष,  
ओढ़ती हूँ गालियाँ,  
और फिर भी सर ऊँचा कर  
खु़द को पहचानने की कोशिश करती हूँ  
क्या वही हूँ मैं?   
चट्टान, पत्थर, दीवार ...  
अब कुछ असर नहीं करता...  
मगर मैंने तय किये हैं रास्ते  
पाई है मंज़िल  
जहाँ मैं उड़ सकती हूँ,   
शाख़ पर घर बसाया है मैंने  
और धूप मेरी मुट्ठी में है...  
Manoshi Chatterjee <cmanoshi@gmail.com>


गुरुवार, 14 मार्च 2013

गीत: समय की शिला पर: संजीव 'सलिल', अचल वर्मा, राकेश खंडेलवाल, श्रीप्रकाश शुक्ल, इंदिरा प्रताप,

गीत:
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर 
अचल वर्मा
समय की शिला पर लिखे गीत कितने 
और गा गा के सबको सुना भी दिए । 
मगर सुन के अबतक रहा चुप जमाना 
यूँ मिटते गए हैं तराने नए ॥

शिलालेख मिटने न पाए कभी
पढा उसने जिसने भी की कोशिशें ।
है भाषा अलग इस शिलालेख की 
रहीं तंग दिल में नहीं ख्वाहिशें ॥

समय की शिला ये शिला है अलग 
कोई रूप इसका समझ में न आया ।
सभी दिल ही दिल में रहे  चाहते पर 
सभी दिल हैं काले ये रंग चढ न पाया ॥

जो दिल साफ़ होते चमकते ये मोती 
ये यूँ कालिमा में ही घुल मिल न जाते ।
समय तो छिपाए रहेगा ये मोती 
मिटेगा न जब तक सभी पढ हैं पाते ॥ 
achal verma <achalkumar44@yahoo.com>
 *
समय की शिला पर
राकेश खंडेलवाल 
*
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर 
मगर ज़िंदगी ने किसी कशमकश में  रखा आज तक उन सभी को भुलाकर 
किसी एक भाषा में सीमित नहीं है, न ही देश कालों की सीमा में बंदी 
धरा के किसी छोर से न अछूते  न बंध  कर रहे एक नदिया के तट से 
समय सिन्धु के तीर की रेतियो   में रहे अंकिता हिम के ऊंचे शिखर पर 
बने  चिह्न पग के धरा से गगन पर  उठे बालि  के सामने एक वट से 
पिलाए गए थे हमें बालपन से सदा संस्कृति की घुटी में मिला कर
 उन्हें आज हम भूलने लग गए हैं, रहे चिह्न जितने समय की शिला पर 
बुने जा रहे कल्पना के घरोंदे दिवास्वप्न   की रूप रेखा बना कर 
 भले जानते पार्श्व में यह ह्रदय के कि  परछाइयों की न   पूजा हुई है
 न कोई कभी चिह्न बनता  कहीं पर धरा हो भले या शिला हो समय की 
हवा के पटल पर करें कोशिशें नित, ज़रा चित्र कोई ठहरता नहीं है 
मगर आस रहती है खाके बनाती खिंचे सत्य दर्पण के सारे भुला कर 
यही  सोचती शेष हो न सकेंगी, बनी अल्पना जो समय की शिला पर 
उगी भोर से ढल रहे हर दिवस की यही साध बस एक पलती रही है
मुडे पग कभी भी किसी मोड से तो शिला लेख में सब बने चिह्न ढल ले
रहें दूर कितने प्रयासों के पनघट, न तीली उठे न ही बाती  बटी  हो 
मगर नाम की एक महिमा बने औ' ढली सांझ के साथ में दीप जल लें 
सपन की गली में उतरती निशा भी लिए साथ जाती सदा ही बुलाकर 
चलो नींद में ही सही चिह्न छोड़ें, सभी आज अपने समय की शिला पर 
*
समय की शिला पर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
*
 समय की शिला पर हैं कुछ चित्र अंकित ,   
   आज के युग में जो भ्रान्ति फैला रहे हैं 
        औचित्य जिनका न कुछ शेष दिखता 
            चलना गतानुगति ही सिखला रहे हैं  

साधन नहीं थे कोई आधुनिक जब, 
    रीते ज़हन को जो करते सुचालित  
      चित्र अंकित किये कल्पना में जो सूझे  
         कोई था  अंकुश जो करता नियंत्रित 

दायित्व है अब, नए चिंतकों का 
     आगे आयें, समीक्षा करें मूल्यवादी 
          तत्व जो बीज बोते, असमानता का 
                मिटायें उन्हें  हैं जो जातिवादी 

हैं कुछ मूल्य, जो मापते अस्मिता को 
     व्यक्ति के वर्ण और देह के रंग से   
          लिंग भेद को ,कुछ न भूले अभी भी 
             कलुष ही बिछाया विकृत सोच संग से   
  
समय आगया है हटायें ये पन्ने 
    लिखें वो भाषा जो सब को समेटे 
        विकासोन्मुखी हों, नीतियाँ हमारी 
           समय की शिला पर पड़े धब्बे मेंटे   
*
समय की शिला पर
 इंदिरा प्रताप
समय की शिला पर जो कुछ लिखा है,
न मैनें पढ़ा है, न तुमने पढ़ा है,
जीवन के इस लम्बे सफ़र में,
बहुत कुछ गुना है, बहुत कुछ बुना है,
मुझको-तुमको, सबको पता है,
चिता ही हमारी अंतिम दिशा है,
जीवन जो देगा सहना पड़ेगा,
फिर भी हँसना-हँसाना पड़ेगा,
संसार के हो या हो वीतरागी,
चलना पड़ेगा, चलना पड़ेगा,
रहता नही है कुछ भी यहाँ पर,
जानकर फिर भी जीवन को ढोना पड़ेगा।
*
समय की शिला पर
प्रणव भारती
*
समय की शिला पर सभी खुद रहा है,
समय है सनातन , समय चुप् रहा है। 
समय  तो सिखाता सदा सबकी कीमत,
न कोई है अच्छा ,न कोई बुरा है------। 
समय की-------------------------------खुद रहा है। 
समय सीख देता ,समय देता अवसर ,
हमीं डूब जाते भ्रमों में यूँ  अक्सर,
समय सर पे चढकर है डंके बजता,
समय मांग करता सदा कुछ सिखाता । 
समय से कभी भी कहाँ कुछ छिपा है?
समय की ------------------------------खुद रहा है। 
अनुत्तरित,अनबुझे प्रश्न हैं समय-शिला पर ,
सोये-जागों के चेहरे हैं समय-शिला पर ।
समय दिखाता कितनी ही तस्वीरें हमको
समय सिखाता कितनी ही तदबीरें हमको ।  
हम करते हैं जब मनमानी समय बताये,
समय ने कितनी बार तमों को सदा हरा  है। 
समय-----------------------------------खुद रहा है। 
समय बहुत कम जीवन में इसको न खोएं,
समय बीत जाने पर क्यों फिर व्यर्थ ही रोएँ !
समय माँग करता पल-पल हम रहें जागते,
समय माँग करता पल-पल हम रहें भागते । 
समय नचाता नाच उसे जो जहाँ मिला  है। 
समय की-------------------------------------खुद रहा है॥ 
Pranava Bharti <pranavabharti@gmail.com>
*
समय की शिला पर
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने

बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने

जिए शान से साल  पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने

हुए इस कदर लोग  मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने

ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/mcgupta44 
*

बुधवार, 13 मार्च 2013

रचना - प्रति रचना: एस.एन.शर्मा, संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना:
रचना :
रहस्य 
एस.एन.शर्मा
*
सुमुखि तुम कौन !
निमन्त्रण देती  रहतीं मौन

उदयांचल से बाल किरण तुम
उतर धरा के वक्षस्थल पर
आलिंगन  भर थपकी देकर
चूम चूम सरसिज के अधर
           नित्य नवल अभियान लिए
           फैलातीं उजास तम रौंद
                    सुमुखि तुम कौन  !

नए प्रात की अरुणाई सी 
रवि प्रकाश की अगुवाई  सी
सारा जग आलोकित करतीं
चढ़े दिवस की तरूणाई सी
           सम्पूर्ण प्रकृति  की छाती  पर
           छाईं बन  सत्ता सार्वभौम
                    सुमुखि तुम कौन  !

सांध्य गगन के स्वर्णिम दर्पण
 में होतीं प्रतिबिंबित  तुम
अस्ताचल के तिमिरांचल में
फिर विलीन हो जातीं तुम
          खो कर  तुम्हें रात भर  ढरता
          ओसकणो में विरही व्योम  
                   सुमुखि तुम कौन 

 -------------------------------------

प्रति रचना :
सुमुखी तुम कौन…?
संजीव 'सलिल'
 *
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*

वातायन से शयन कक्ष में घुस लेती हो झाँक।
तम पर उजयारे की छवि अनदेखी देतीं टाँक ।।
रवि-प्रेयसी या प्रीत-संदेशा लाईं भू  के नाम-
सलिल-लहरियों में अनदेखे चित्र रही हो आँक ।

पूछ रहा है पवन न उत्तर दे रहती हो मौन.
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
शीत ग्रीष्म में परिवर्तित हो पा तेरा सत्संग।
आलस-निद्रा दूर भगा दे, मन में जगा उमंग।।
स्वागतरत पंछी कलरव कर गायें प्रभाती मीत-
कहीं नहीं सब कहीं दिखे तू अजब-अनूठा ढंग।।
सखी नर्मदा, नील, अमेजन, टेम्स, नाइजर दौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
प्राची से प्रगटीं पश्चिम में होती कहाँ  विलीन?
बिना तुम्हारे अम्बर लगता बेचारा श्रीहीन।।
गाल गुलाबी रतनारे नयनों की कहीं न समता-
हर दिन लगतीं नई नवेली संग कैसे प्राचीन??
कौन देश में वास तुम्हा?, कहाँ बनाया भौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*

shahadat katha: captain jaswant singh rawat




स्मरण :
*1962 में शहीद भारतीय फौजी, आज भी दे रहा ड्यूटी*

*1962 में शहीद भारतीय फौजी , जो आज भी दे रहा ड्यूटी*

1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्‍त दी थी...लेकिन उस युद्ध में हमारे देश कई जांबाजों ने अपने लहू से गौरवगाथा लिखी थी...आज हम एक ऐसे शहीद की बात करेंगे, जिसका नाम आने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्‍मान से सिर झुका देते हैं... वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई,

इससे भी ज्‍यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है...

शहीद राइफलमैन को मिलता है हर बार प्रमोशन...

उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं...उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं...सेना के रजिस्‍टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्‍हें प्रमोश भी मिलते हैं...

अब वो कैप्‍टन बन चुके हैं...इनका नाम है- "कैप्‍टन जसवंत सिंह रावत।"

महावीर चक्र से सम्‍मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है...ऐसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते... बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है...

पूरे तीन दिन तक चीनियों से अकेले लड़ा था वो जांबाज...

अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में बाबा जसवंत सिंह ने वो ऐतिहासिक जंग लड़ी थी... वो 1962 की जंग का आखिरी दौर था...चीनी सेना हर मोर्चे पर हावी हो रही थी...लिहाजा भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया...पूरी बटालियन लौट गई, लेकिन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे...बाबा जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल सिंह के साथ और फिर दो स्‍थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की...बाबा जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर राईफल तैनात कीं और इस अंदाज में फायरिंग करते गए मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हैं...उनके साथ केवल दो स्‍थानीय लड़कियां थीं, जिनके नाम थे, सेला और नूरा।

चीनी परेशान हो गए और तीन दिन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं...तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया...

इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए...बाबा जसवंत ने खुद को गोली मार ली...

"भारत माता का ये लाल नूरांग में शहीद हो गया।"

चीनी सेना भी सम्मान करती है शहीद जसवंत का...

चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वे हैरान रह गए...चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए...20 अक्‍टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई...चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्‍मान स्‍वरूप न केवल उनका कटा हुआ सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ति भी भेंट की...

उस शहीद के स्मारक पर भारतीय-चीनी झुकाते है सर...जिस जगह पर बाबा जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे...

उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है... इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है...उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है...स्‍थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते हैं...वो जानते हैं बाबा वहां हैं और देश की सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं...

"वो जानते हैं बाबा शहीद हो चुके हैं... वो जानते हैं बाबा जिंदा हैं... बाबा अमर हैं..."
जयहिंद।

1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्‍त दी थी...लेकिन उस युद्ध में हमारे देश कई जांबाजों ने अपने लहू से गौरवगाथा लिखी थी...आज हम एक ऐसे शहीद की बात करेंगे, जिसका नाम आने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्‍मान से सिर झुका देते हैं... वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई,

इससे भी ज्‍यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है...

शहीद राइफलमैन को मिलता है हर बार प्रमोशन...

उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं...उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं...सेना के रजिस्‍टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्‍हें प्रमोश भी मिलते हैं...

अब वो कैप्‍टन बन चुके हैं...इनका नाम है- "कैप्‍टन जसवंत सिंह रावत।"

महावीर चक्र से सम्‍मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है...ऐसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते... बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है...

पूरे तीन दिन तक चीनियों से अकेले लड़ा था वो जांबाज...

अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में बाबा जसवंत सिंह ने वो ऐतिहासिक जंग लड़ी थी... वो 1962 की जंग का आखिरी दौर था...चीनी सेना हर मोर्चे पर हावी हो रही थी...लिहाजा भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया...पूरी बटालियन लौट गई, लेकिन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे...बाबा जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल सिंह के साथ और फिर दो स्‍थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की...बाबा जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर राईफल तैनात कीं और इस अंदाज में फायरिंग करते गए मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हैं...उनके साथ केवल दो स्‍थानीय लड़कियां थीं, जिनके नाम थे, सेला और नूरा।

चीनी परेशान हो गए और तीन दिन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं...तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया...

इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए...बाबा जसवंत ने खुद को गोली मार ली...

"भारत माता का ये लाल नूरांग में शहीद हो गया।"

चीनी सेना भी सम्मान करती है शहीद जसवंत का...

चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वे हैरान रह गए...चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए...20 अक्‍टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई...चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्‍मान स्‍वरूप न केवल उनका कटा हुआ सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ति भी भेंट की...

उस शहीद के स्मारक पर भारतीय-चीनी झुकाते है सर...जिस जगह पर बाबा जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे...

उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है... इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है...उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है...स्‍थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते हैं...वो जानते हैं बाबा वहां हैं और देश की सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं...

"वो जानते हैं बाबा शहीद हो चुके हैं... वो जानते हैं बाबा जिंदा हैं... बाबा अमर हैं..."
जयहिंद।
आभार :
सचिन श्रीवास्तव

himachli gazal : dwijendra 'dwij'


हिमाचली ग़ज़ल
द्विजेन्द्र 'द्विज'







मंगलवार, 12 मार्च 2013

चित्र पर कविता : संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता :

प्रस्तुत है एक दिलचस्प चित्र। इसका अवलोकन करें और लिख भेजें अपने मनोभाव



चित्र पर कविता :

सामयिक रचना:
१. अन्दर बाहर
संजीव 'सलिल'
*
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये अपनों पर नहीं भौकते,
वे अपनों पर गुर्राते हैं.
ये खाते तो साथ निभाते,
वे खा-खाकर गर्राते हैं.
ये छल करते नहीं किसी से-
वे छल करते, मुटियाते हैं.
ये रक्षा करते स्वामी की,
वे खुद रक्षित हो जाते हैं. 
ये लड़ते रोटी की खातिर
उनमें लेकिन मेल हो रहा
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये न जानते धोखा देना,
वे धोखा दे ठग जाते हैं.
ये खाते तो पूँछ हिलाते,
वे मत लेकर लतियाते हैं.
ये भौंका करते सचेत हो-
वे अचेत कर हर्षाते हैं.
ये न खेलते हैं इज्जत से,
वे इज्जत ही बिकवाते हैं. 
ये न जोड़ते धन-दौलत पर-
उनका पेलमपेल हो रहा.
अन्दर बाहर खेल हो रहा...
*

२. एक विधान
सन्तोष कुमार सिंह
 *
 घूमा करते तुम कारों में,
हम आवारा घूम रहे।
हम रोटी को लालायत हैं,
तुम नोटों को चूम रहे।।
भूख के मारे पेट पिचकता,
हमको तुम भी भूल गए,
तुमको खाने इतना मिलता,
पेट तुम्हारे फूल गए।।
मानव सेवा हमने की है,
वफादार कहलाते हम।
लेकिन खाते जिस थाली में,
करते छेद उसी में तुम।।
जल-जंगल के जीवों को तो,
आप सुरक्षा करो प्रदान।
जिससे हो कल्याण हमारा,
रच दो ऐसा एक विधान।।

santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
3. एक रचना
एस.एन.शर्मा 'कमल'
 *

हमारे माननीय सत्ता  भवन में
भारी बहस  के बाद बाहर आ रहे है
वहाँ बहुत भौंकने के बाद थक गए
अब खुली हवा खा रहे हैं
 हर रंग और ढंग के  मिलेंगे यह सभी 
कुछ सफेदपोश
 कुछ काले लबादे ओढे विरोधी 
तो कुछ नूराँ कुश्ती वाले भदरंगी
सत्ता को डरा धमाका कर  यह 
कुछ टुकड़े ज्यादह पा जाते हैं 
विरोध में भौंकते नहीं अघाते हैं
पर सत्ता को गिराने वाले
 मौको पर कन्नी काट जाते हैं
सत्ता के पक्षमें तब दुम हिलाते हैं
कुत्ते की जात दो कौड़ी की हाँडी में
पहचानी जाती  है
पर इनकी हांडी करोड़ों में  खरीदी
और  बेची जाती है

कुछ कुत्ते जेल भवन और 
सत्ता भवन आते जाते  हैं
जेल में भी सत्ता के दामाद जैसी
खातिर पाकर मौज उड़ाते हैं
हर जगह  अधिकारी कर्मचारी 
सलाम बजाते हैं

इन कुत्तों की  महिलाओं से नहीं बनती
वे रसोई से लेकर  सड़क तक
इनसे डरती हैं
मंहगाई और बलात्कार तक इनकी
तूती  बजती   है 
इसलिए इनसे कन्नी काट कर
जैसा चित्र में है 
किनारे किनारे चला करतीं

अब  यह डाइनिग हाल में
छप्पन भोग चखने जायेंगे
बाहर इनको चुनने वाले
बारह रुपये की  एक रोटी सुन
भूखे  रह जायेंगे
 न सम्हले हैं न सम्हलायेंगे 
पांच साल बाद फिर
इन्हें  चुन लायेंगे

*
४. कुछ सतरें ---
   प्रणव भारती 
*

किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे  हैं,हमरे जीवन -प्राण खो गए । 

धूप में हमको खड़ा कर गए,छप्पन भोग का देकर लालच,
खुद ए .सी में जा बैठे हैं,कड़ी धूप  में हमें सिकाकर । 
एक नजर न फेंकी हम पर कैसे दोस्त हैं हमने जाना ,
आज समझ लेंगे हम उनको ,जिनको अब तक न पहचाना । 
कारों में भी 'लॉक ' लगाकर ड्राइवर जाने कहाँ खो गये। 
कैसी बेकदरी कर दी है,आज तो हम सब  खफा हो गये।

कन्या एक चली है बाहर,जाने क्या लाई अंदर से?
हम तो जो हैं ,सो हैं मितरा ,तुम क्यों खिसियाए बन्दर से? 
तुमने तो वादों की पंक्ति खड़ी करी थी हमरे सम्मुख,
अब क्यों छिप बैठे हो भीतर ,न जानो मित्रों का दुःख-सुख।
चले थे जब हम सभी घरों  से ,कैसे खिलखिलकर हंसते थे,
यहाँ धूप में सुंतकर हम सब गलियारों की ख़ाक बन गए । 

किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे  हैं,हमरे जीवन-प्राण खो गए ॥ 
*
किरण 
*
ऐ सफ़ेद पोषक वालों!
निवेदन करने आयें हैं तुमसे,
सीख लिया तुमने
भोंकना, झगडना और गुर्राना,
और कुछ पाने के लिए दुम हिलाना
लेकिन एक गुजारिश है
सीख लो कुछ वफ़ादारी हमसे,
पूरी जाति हो रही है बदमान तुमसे !
kiran yahoogroups.com
*            
 



sachitra kavya panktiyan -sharad sigh

चिंतन सलिला: १ महा शिव रात्रि :

चिंतन सलिला: १
महा शिव रात्रि :
यह स्तम्भ चौपाल है जहाँ आप स्वस्थ्य चर्चा कर सकते हैं बिना किसी संकोच और पूर्वाग्रह के--
१. वर्तमान परिवेश में धार्मिक पर्वों और धार्मिक साहित्य की प्रासंगिकता?
२. शिव का स्वरूप और अवदान...
स्वागत है आपके विचारों का...
*
इंदिरा प्रताप : 
प्रिय संजीव भाई ,
महा शिवरात्री पर आपका यह योग दान मुझे बहुत सराहनीय लगा ,मैं ऐसी ही  कल्पना कर रही थी कि आप कुछ अवश्य लिखेंगे | मेरे लिय धार्मिक पर्वों का बहुत महत्त्व है शायद इसका कारण है कि ये हमें अपनी जड़ों से बांधे रखने का, आधुनिकता के इस युग में एक एक सशक्त माध्यम है | मेरे विचार से हमारे मनीषियों ने जो आचार - विचार बनाए थे वह देश और काल के माप दंड पर अच्छी तरह तोल कर बनाए थे | मैं मानती हूँ कि समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी होता है और समय के साथ चलने के लिए उन्हें बदलना ही चाहिए | लेकिन पुरातन सब त्यागने योग्य है मैं नहीं मानती | सार - सार ग्रहण करने  की आवश्यकता होती है | धर्म के आश्रित हो मनुष्य अपने आप को बुरे काम से बचा सकता था | आज समाज में जो अनैतिकता फैली हुई है उसका कारण भी यही है कि हमने अपने पुराने धर्म ग्रंथों और मनीषियों की बातो को नकार दिया है | धर्म किस तरह मनुष्य के जीवन से जुड़ता था उसका एक उदाहरण देना चाहूँगी , पंचवटी की परिकल्पना शायद इस लिए की गई थी कि हमारे मनीषी उन पांच पेड़ों को सुरक्षित रखना चाहते थे जो बहुत महत्त्व पूर्ण थे उन्हें मंदिर के सामने स्थापित कर दिया ,एक तो मंदिर के प्रांगन में होने के कारण उनपर कोई प्रहार नहीं करेगा और वह नष्ट होने से बाख जाएँगे , दूसरे पुराने समय में लोग मंदिरों को ही रस्ते में विश्राम स्थल की तरह प्रयोग करते थे जिससे उनको छाया मिल सके और बेल फल जो बहुत गुण कारी मन जाता है और उसके पात्र को शिव जी से जोड़ दिया | आज भी भारत के ग़रीब इलाकों में पथिकों के लिए यही व्यवस्था है |इसी तरीके से हमारे मनीषियों ने धर्म का बाना पहनाकर पेड़ों की पूजा कर वाई और उन्हें सुरक्षित किया तो दूसरी और उसे सामाजिक परिवेश से भी जोड़ दिया | सीता को पंचवटी से जोड़ कर उसे सामाजिक ,धार्मिक और पवित्रता की  आस्था से जोड़ दिया | हर पर्व अपने में एक कल्याणकारी रूप छिपाए है ,बस ज़रूरत है तो उसे स्वस्थ विचारों के साथ उसका विश्लेषण करने की | 
एक अनुरोध --- यह मेरे अपने  विचार हैं इस से किसी का सहमत होना आवश्यक नहीं है | इंदिरा
*




संजीव 'सलिल'
दिद्दा!

वन्दे मातरम.
महाभारतकार के अनुसार 'धर्मं स: धारयेत' अर्थात वह जो धारण किया जाए वह धर्म है.

प्रश्न हुआ: 'क्या धारण किया जाए?'

उत्तर: 'वह जो धारण   करने योग्य है.'

प्रश्न: 'धारण  करने योग्य है क्या है?

उत्तर: वह जो श्रेष्ठ है? 

प्रश्न: श्रेष्ठ क्या है?

उत्तर वह जो सबके लिए हितकर है.

डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुसार धर्म लंबे समय की राजनीति और राजनीति तत्कालीन समय का धर्म है.

उक्तानुसार धर्म सदैव प्रासंगिक और सर्वोपयोगी होता है अर्थात जो सबके लिए नहीं, कुछ या किसी के लिए हितकर हो वह धर्म नहीं है.

साहित्य वह जो सबके हित सहित  हो अर्थात व्यापक अर्थ में साहित्य ही धर्म और धर्म ही साहित्य है.

साहित्य का सृजन अक्षर से होता है. अक्षर का उत्स ध्वनि है. ध्वनि का मूल नाद है... नाद अनंत है... अनंत ही ईश्वर है.

इस अर्थ में अक्षर-उपासना ही धर्मोपासना है. इसीलिये अक्षर-आराधक को त्रिकालदर्शी, पूज्य और अनुकरणीय कहा गया, उससे समाज का पथ-प्रदर्शन चाह गया, उसका शाप अनुल्लन्घ्य हुआ. अकिंचन गौतम के शाप से देवराज इंद्र भी न बच सका.

धर्म समय-सापेक्ष है. समय परिवर्तन शील है. अतः, धर्म भी सतत गतिशील और परिवर्तन शील है, वह जड़ नहीं हो सकता.

पञ्च तत्व की देह पञ्चवटी में पीपल (ब्रम्हा, नीम (शक्ति, रोगाणुनाशक, प्राणवायुदाता), आंवला (हरि, ऊर्जावर्धक ), बेल (शिव, क्षीणतानाशक ) तथा  तथा आम (रसवर्धक  अमृत) की छाया  में काया को विश्राम देने के साथ माया को समझने में भी समर्थ हो सकती थी.

मन के अन्दर जाने का स्थान ही मन्दिर है. मन मन्दिर बनाना बहुत सरल है किन्तु सरल होना अत्यंत कठिन है. सरलता की खोज में मन्दिर में मन की तलाश ने मन को ही जड़ बना दिया.

शिव वही है जो सत्य और सुन्दर है. असत्य या असुंदर शिव नहीं हो सकता. शिव के प्रति समर्पण ही 'सत' है.

शिव पर शंका का परिणाम सती होकर ही भोगना पड़ता है. शिव अर्थात सत्य पर संदेह हो तो मन की शांति छिन जाती है और तन तापदग्धता भोगता ही है.

शिव पर विश्वास ही सतीत्व है. शंकर शंकारि (शंका के शत्रु अर्थात विश्वास) है. विश्वास की संगिनी श्रद्धा ही हो सकती है. तभी तो तुलसी लिखते हैं: 'भवानी-शंकरौ वन्दे श्रृद्धा-विश्वास रूपिणौ' किसी भी काल में श्रृद्धा और विश्वास अप्रासंगिक कैसे हो सकते हैं?

जिसकी सत्ता किसी भी काल में समाप्त न हो वही तो महाकाल हो सकता है. काल से भी क्षिप्र होने पर ही वह काल का स्वामी हो सकता है. उसका वास क्षिप्रा तीर पर न हो तो कहाँ हो?

शिव सृजन से नाश और नाश से सृजन के महापथ निर्माता हैं. श्रृद्धा और विश्वास ही सम्मिलन की आधार भूमि बनकर द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती हैं. श्रृद्धा की जिलहरी का विस्तार और विश्वास के लिंग की दृढ़ता से ही नव सृजन की नर्मदा (नर्मम ददाति इति नर्मदा जो आत्मिक आनंद दे वह नर्मदा है) प्रवाहित होती है.

संयम के विनाश से सृजन का आनंद देनेवाला अविनाशी न हो तो और कौन  होगा? यह सृजन ही कालांतर में सृजक को भस्म कर देगा (तेरा अपना खून ही आखिर तुझमें आग लगाएगा).

निष्काम शिव  काम क्रीडा में भी काम के वशीभूत नहीं होते, काम को ह्रदय पर अधिकार करने का अवसर दिए बिना क्षार कर देते हैं किन्तु रति (लीनता अर्थात पार्थक्य का अंत) की प्रार्थना पर काम को पुनर्जीवन का अवसर देते हैं. निर्माण में नाश और नाश से निर्माण ही शिवत्व है.

इसलिए शिव अमृत ग्रहण न करने और विषपायी होने पर भी अपराजित, अडिग, निडर और अमर हैं. दूसरी ओर अमृत चुराकर भागनेवाले शेषशायी अमर होते हुए भी अपराजित नहीं रणछोड़ हैं.

सतीनाथ सती को गँवाकर किसी की सहायता नहीं कहते स्वयं ही प्रलय के वाहक बन जाते हैं जबकि सीतानाथ छले जाकर याचक हो जाते हैं. सती के तप का परिणाम अखंड अहिवात है जबकि सीता के तप का परिणाम पाकर भी खो देना है.

सतीनाथ मर्यादा में न बंधने के बाद भी मर्यादा को विस्मृत नहीं करते जबकि सीतानाथ मर्यादा पुरुषोत्तम होते हुए भी सीता की मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाते.

शिव रात्रि की प्रासंगिकता अमृत और गरल के समन्वय की कला सीखकर जीने में है.

शेष अशेष...

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

poetry: yamuna pollution

कविता - प्रति कविता 
संतोष कुमार सिंह - संजीव 'सलिल'
*
मित्रो, "यमुना बचाओ, ब्रज बचाओ" पद यात्रा दिल्ली में घुसने नहीं दी जा रही है।
दिल्ली बार्डर पर रोक दी गई है। यानि कि यमुना प्रदूषण के प्रति केन्द्रीय
सरकार भी सजग नहीं दिखती। जब कि यमुना की दु्र्दशा अत्यन्त भयावह है।
एक दिन मैं यमुना किनारे बैठा हुआ था। उस समय का एक चित्रण देखें -
                   यमुना जी की पीर
                                  संतोष कुमार सिंह 
जल की दुर्गति देख-देख कर भाव दुःखों का झलक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
मैया बोली निर्मलता तो, सबने देखी भाली है।
शहर-शहर के पतनालों ने, अब दुर्गति कर डाली है।।
जल से अति दुर्गन्ध उठी जब, मेरा माथा ठनक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
भक्त न कोई करे आचमन, जीव नीर में तैर रहे।
मेरी तो अभिलाषा प्रभु से, सब भक्तों की खैर रहे।।
तभी तैरती लाशें आयीं, रहा नयन का पलक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
यूँ तो मेरा पूजन अब भी, नित्य यहाँ होता रहता।
लेकिन घोर प्रदूषण में रह, दिल अपना रोता रहता।।
कूड़ा-कर्कट, झाग दिखे तो, दिल अचरज से धड़क उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
ऐसा लगता भारतवासी, सब स्वारथ में चूर हुए।
मेरी पावनता लौटाने, शासन कब मजबूर हुए।।
मरी मछलियाँ तीर दिखीं तो, धीर हृदय का धमक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
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santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
 
गीत नदी के मिल गायें
          संजीव 'सलिल'
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यमुना बृज की प्राण शक्ति है, दिल्ली का परनाला है.
          राह देखते दिल्ली की क्यों?, दिमागी दीवाला है?
         
          यमुना तट पर पौध लगाकर पेड़ सहस्त्रों खड़े करें.

अगर नहीं तो सब तटवासी, पेड़ मिटाकर स्वयं मरें.

कचरा-शव-पूजन सामग्री, कोई न यमुना में फेके.

कचरा उठा दूर ले जाये, संत भक्त को खुद रोके.

लोक तंत्र में सरकारें ही नहीं समस्या कहीं मूल.

लोक तन्त्र पर डाल रहा क्यों, अपने दुष्कर्मों की धूल.

घर का कचरा कचराघर में, फेंक- न डालें यहाँ-वहाँ.

कहिये फिर कैसे देखेंगे, आप गन्दगी जहाँ-तहाँ?

खुद को बदल, प्रथाओं को भी, मिलकर हम थोडा बदलें.

शक्ति लोक की जाग सके तो, तन्त्र झुकेगा पग छू ले.

नारे, भाषण, धरना तज, पौधारोपण को अपनायें.

हर सलिला को निर्मल कर, हम गीत नदी के मिल गायें.
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