गीत:
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर
अचल वर्मा
समय की शिला पर लिखे गीत कितने
और गा गा के सबको सुना भी दिए ।
मगर सुन के अबतक रहा चुप जमाना
यूँ मिटते गए हैं तराने नए ॥
शिलालेख मिटने न पाए
कभी
पढा उसने जिसने भी की कोशिशें ।
है भाषा अलग इस शिलालेख की
रहीं तंग दिल में नहीं ख्वाहिशें ॥
समय की शिला ये शिला है अलग
कोई रूप इसका समझ में न आया ।
सभी
दिल ही दिल में रहे चाहते पर
सभी दिल हैं काले ये रंग चढ न पाया ॥
जो दिल साफ़ होते चमकते ये मोती
ये यूँ कालिमा में ही घुल मिल न जाते ।
समय तो छिपाए रहेगा ये मोती
मिटेगा न जब तक सभी पढ हैं
पाते ॥
achal verma <achalkumar44@yahoo.com>
*
समय की शिला पर
राकेश खंडेलवाल
*
*
समय की शिला पर
*
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर
मगर ज़िंदगी ने किसी कशमकश में रखा आज तक उन सभी को भुलाकर
किसी एक भाषा में सीमित नहीं है, न ही देश
कालों की सीमा में बंदी
धरा के किसी छोर से न अछूते न बंध कर रहे एक नदिया के तट से
समय सिन्धु के तीर की रेतियो में रहे अंकिता हिम के ऊंचे शिखर पर
बने चिह्न पग के धरा से गगन पर उठे बालि के सामने एक वट से
पिलाए गए थे हमें बालपन
से सदा संस्कृति की घुटी में मिला कर
उन्हें आज हम भूलने लग गए हैं, रहे चिह्न जितने समय की शिला पर
बुने जा रहे कल्पना के घरोंदे दिवास्वप्न की रूप रेखा बना कर
भले जानते पार्श्व में यह ह्रदय के कि परछाइयों की न पूजा हुई है
न
कोई कभी चिह्न बनता कहीं पर धरा हो भले या शिला हो समय की
हवा के पटल पर करें कोशिशें नित, ज़रा चित्र कोई ठहरता नहीं है
मगर आस रहती है खाके बनाती खिंचे सत्य दर्पण के सारे भुला कर
यही सोचती शेष हो न सकेंगी, बनी अल्पना जो समय की शिला पर
उगी भोर से ढल रहे हर दिवस की यही साध बस एक पलती रही है
मुडे पग कभी भी किसी मोड से तो शिला लेख में सब बने चिह्न ढल ले
रहें दूर कितने प्रयासों के पनघट, न तीली उठे न ही बाती बटी हो
मगर नाम की एक महिमा बने औ' ढली सांझ के साथ में दीप जल लें
सपन की गली में उतरती निशा भी लिए साथ जाती सदा ही बुलाकर
चलो नींद में ही सही चिह्न छोड़ें, सभी आज अपने समय की शिला पर *
समय की शिला पर
श्रीप्रकाश शुक्ल
समय की शिला पर हैं कुछ चित्र अंकित ,
आज के युग में जो भ्रान्ति फैला रहे हैं
औचित्य जिनका न कुछ शेष दिखता
चलना गतानुगति ही सिखला रहे हैं
साधन नहीं थे कोई आधुनिक जब,
रीते ज़हन को जो करते सुचालित
चित्र अंकित किये कल्पना में जो सूझे
कोई था न अंकुश जो करता नियंत्रित
दायित्व है अब, नए चिंतकों का
आगे आयें, समीक्षा करें मूल्यवादी
तत्व जो बीज बोते, असमानता का
मिटायें उन्हें हैं जो जातिवादी
हैं कुछ मूल्य, जो मापते अस्मिता को
व्यक्ति के वर्ण और देह के रंग से
लिंग भेद को ,कुछ न भूले अभी भी
कलुष ही बिछाया विकृत सोच संग से
समय आगया है हटायें ये पन्ने
लिखें वो भाषा जो सब को समेटे
विकासोन्मुखी हों, नीतियाँ हमारी
समय की शिला पर पड़े धब्बे मेंटे
Shriprakash Shukla <wgcdrsps@gmail.com>
Web:http://bikhreswar. blogspot.com/
Web:http://bikhreswar.
*
समय की शिला पर
समय की शिला पर
इंदिरा प्रताप
*
समय की शिला पर जो कुछ लिखा है,
न मैनें पढ़ा है, न तुमने पढ़ा है,
जीवन के इस लम्बे सफ़र में,
बहुत कुछ गुना है, बहुत कुछ बुना है,
मुझको-तुमको, सबको पता है,
चिता ही हमारी अंतिम दिशा है,
जीवन जो देगा सहना पड़ेगा,
फिर भी हँसना-हँसाना पड़ेगा,
संसार के हो या हो वीतरागी,
चलना पड़ेगा, चलना पड़ेगा,
रहता नही है कुछ भी यहाँ पर,
जानकर फिर भी जीवन को ढोना पड़ेगा।
*
समय की शिला पर
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने
बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने
जिए शान से साल पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने
हुए इस कदर लोग मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने
ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/ mcgupta44
*
समय की शिला पर
प्रणव भारती
*
समय की शिला पर सभी खुद रहा है,
समय है सनातन , समय चुप् रहा है।
समय तो सिखाता सदा सबकी कीमत,
न कोई है अच्छा ,न कोई बुरा है------।
समय की---------------------------- ---खुद रहा है।
समय सीख देता ,समय देता अवसर ,
हमीं डूब जाते भ्रमों में यूँ अक्सर,
समय सर पे चढकर है डंके बजता,
समय मांग करता सदा कुछ सिखाता ।
समय से कभी भी कहाँ कुछ छिपा है?
समय की ------------------------------ खुद रहा है।
अनुत्तरित,अनबुझे प्रश्न हैं समय-शिला पर ,
सोये-जागों के चेहरे हैं समय-शिला पर ।
समय दिखाता कितनी ही तस्वीरें हमको
समय सिखाता कितनी ही तदबीरें हमको ।
हम करते हैं जब मनमानी समय बताये,
समय ने कितनी बार तमों को सदा हरा है।
समय--------------------------- --------खुद रहा है।
समय बहुत कम जीवन में इसको न खोएं,
समय बीत जाने पर क्यों फिर व्यर्थ ही रोएँ !
समय माँग करता पल-पल हम रहें जागते,
समय माँग करता पल-पल हम रहें भागते ।
समय नचाता नाच उसे जो जहाँ मिला है।
समय की---------------------------- ---------खुद रहा है॥
Pranava Bharti <pranavabharti@gmail.com>
*
समय की
शिला पर *
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने
बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने
जिए शान से साल पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने
हुए इस कदर लोग मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने
ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/
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