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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

छंद सलिला : १ रोला लिखना सीखिए- आचार्य संजीव 'सलिल'

छंद सलिला : १
रोला लिखना सीखिए- 
 
आचार्य संजीव 'सलिल'
vishv वाणी         हिन्दी का गीति काव्य संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत दंगल तथा शौरसेनी की विरासत के साथ-साथ अरबी-फारसी का संग मिलने पर लश्करी-रेख्ता-उर्दू के सौख्य, विविध भारतीय भाषाओँ-बोलिओं कन्नौजी, ब्रज, टकसाली, आदि के साहचर्य से संपन्न-समृद्ध हुआ है। हिन्दीमें श्रेष्ठ को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ने अंग्रेज़ी के सोनेट जैसे छंद के साथ-साथ जापानी के हाइकु, स्नैर्यु आदि को भी पचा लिया है। वर्तमान में जितना वैविध्य हिन्दी गीति काव्य में है ,विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं है। आवश्यकता इस विरासत को आत्मसात करने की क्षमता और सृजन की सामर्थ्य को सतत बढ़ाने की है। 
इस                       इस लेख माला में हर सप्ताह हम किसी एक छंद का परिचय इस उद्देश्य से कराएँगे की रचनाकार उसे समझ कर उस छंद में कविकर्म प्रारम्भ के कीर्ति अर्जित करें। यह लेखमाला समर्पित है दिव्य नर्मदा अभियान जबलपुर के दिवंगत स्तंभों महामंडलेश्वर स्वामी रामचंद्रदास शास्त्री, धर्मप्राण कवयित्री श्रीमती शान्तिदेवी वर्मा, श्री राजबहादुरवर्मा, श्री रामेन्द्र तिवारी  तथा श्रीमती रजनी शर्मा को। ---संपादक 
रोला को लें जान
इस लेखमाला का श्रीगणेश रोला छंद से किया जा रहा है। रोला एक चतुष्पदीय अर्थात चार पदों (पंक्तियों ) का छंद है। हर पद में दो चरण होते हैं। रोला के ४ पदों तथा ८ चरणों में ११ - १३ पर यति होती है. यह दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत होती है ।हर पड़ में सम चरण के अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती है ।११-१३ की यति सोरठा में भी होती है। सोरठा दो पदीय छंद है जबकि रोला चार पदीय है। ऐसा भी कह सकते हैं कि दो सोरठा मिलकर रोला बनता है। रोला के विषम चरण (१-३) के अंत में तुक मिलनी आवश्यक है.

आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें- 
सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये।
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें॥
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें।
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें॥ 
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भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया।
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया॥
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा।
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा॥ --- ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार' 
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नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं।
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है॥ 
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रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर।
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर॥
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर।
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर॥ ---'सलिल'

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दोहा के चरणों का क्रम बदल दें तो सोरठा हो जाता है:
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डार.

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवार..        -दोहा.

लघु न दीजिये डार, रहिमन देख बड़ेन को.
कहा करे तरवार, जहाँ काम आवे सुई..        -रोला.

पाठक रोला लिखकर भेजें तो उन्हें यथावश्यक संशोधनों के साथ प्रकाशित किया जाएगा। 
***

दशहरा और कवि दरबार

दशहरा और कवि दरबार 
१. रावण का पुतला                                                           --सन्तोष कुमार सिंह
*
ज्यों ही राम ने, रावण के पुतले में तीर मारा।
पुतला हँसा, फिर दहाड़ा।
बोला, ओ वनवासी राम।
छोड़ दो, मुझे प्रतिवर्ष, संहारने वाले काम।।
मैं मानता हूँ, पहले तुम बहुत बलवान थे।
हम भी वीर थे, ऊँचे अरमान थे।।
तुम्हारा भाई लक्ष्मन, वफादार था।
किन्तु मेरा भाई विभीषण, गद्दार था।।
इसीलिए तुम्हारे हाथों तब, मैंने मौत पाई थी।
या यूँ कहो, घर के भेदी ने ही, लंका ढहाई थी।।
लेकिन आज पासा उल्टा हो गया है।
सोने की लंका का सोना देखकर,
हर लक्ष्मन मेरे पक्ष में हो गया है।।
 
एक बात और,
पहले मै एक था, आज हैं हजारों रावण।
अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, तो कोई बलात्कारी रावण।।
हर नगर मे, हर ठाँव में।
हर शहर में, हर गाँव में।
यहाँ तक कि, संसद और विधानसभाओं में भी,
मुखोंटों के अन्दर रावण पा जाओगे।
तुम अकेले रह गये हो राम,
किस-किस रावण को मार पाओगे?
 
मैं तो पुतला हूँ।
कितने भी तीर मार कर शेखी बघारो।
मैं तो तब ही वीर मानूँगा,
जब किसी जीवित रावण में भी एक तीर मारो।।
 
मन में गदगद राम, बिलबिला गए।
सच्चाई के धरातल पर आ गए।।
किन्तु उन्होंने बदला नहीं इरादा।
तुरन्त ही अपना लक्ष्य साधा।।
रावण का पुतला हो गया ढेर।
वनवासी फिर से हो गया शेर।।
अन्त में राम की प्रतिमूर्ति ने कहा,
तेरे जैसे रावणों के, 
जब-जब बढ़ेंगे आसुरी काम।
तब-तब संहारने आयेंगे, 
मेरे जैसे राम, मेरे जैसे राम------
*
२. मेले की थी रेलम-पेल
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

*  
मेले की थी रेलम-पेल
हमने देखा अद्भुत खेल

जब रघुवर ने मारा तीर
रावण बोला हो गंभीर

मैं तो हूँ केवल पुतला
पाओगे क्या मुझे जला

कहते खुद को बहुत बली
अन्याय पर विजय मिली

रावण फिरते आज अनेक
मार सके न कोई एक

सिर्फ़ दशानन था तब मैं
सहस्रानन हूँ अब मैं

कोई करता चोरी है
कोई रिश्वतखोरी है

कोई चारा खाता है
कोई नोट बनाता है

कोई चीर हरण करता
कोई काला धन भरता

सब मेरे ही भाई हैं
मुझसे आतताई हैं

इनको मारो तो जानूँ
राम ख़लिश फिर मैं मानूँ.

प्रेरणा—
संतोष कुमार जी की कविता—“रावण का पुतला”:

ज्यों ही राम ने, रावण के पुतले में तीर मारा।
पुतला हँसा, फिर दहाड़ा।
बोला, वनवासी राम।
छोड़ दो, मुझे प्रतिवर्ष, संहारने वाले काम।।
*
३. रावण रहेगा सर्वदा.
 प्रताप सिंह
*                                                                                                       
 
रावण कभी भी तो न मारा जा सका
बस गात ही खंडित हुआ था  
वाण से श्रीराम के.
वह प्रतिष्ठत है युगों से मनुज के भीतर,  
सदा पोषित हुआ 
आहार, जल पाकर
निरंकुश  कामनाओं,  इन्द्रियों का.
 
राम कोई चाप लेकर
खड़ा भी होता अगर है 
लक्ष्य सारा-  
मारना रावण सदा ही दूसरे का. 
स्वयं का रावण विहँसता 
खड़ा अट्टहास करता, दसो मुख से  
सहम जाता राम 
धन्वा छूट जाती  है करों से.     
 
यत्न सारा   
विफल होता ही रहा
संहार का दससीस के.  
बस प्रतीकों पर चलाकर वाण  
है अर्जित किया उल्लास के कुछ क्षण मनुज ने.
 
किन्तु जब तक राम सबके 
उठ खड़े होते नहीं संहार को
प्रथम अपने ही दशानन के,
सतत उठती रहेगी गूँज अट्टहास की, 
सहमते यूँ ही रहेंगे राम
विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.  
*

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

आलेख

वास्तु पद्धति से भवन निर्माण  

- इं ० अम्बरीष श्रीवास्तव


आदि काल में मानव का निवास स्थल वृक्षों की शाखाओं पर हुआ करता था | कालांतर में उसमें जैसे-जैसे बुद्धि का विकास होता गया वैसे-वैसे उसने परिस्थिति के अनुसार उपलब्ध सामग्री यथा बांस, खर पतवार, फूस, व मिट्टी आदि का उपयोग करके कुटियानुमा संरचना का अविष्कार किया तथा उसे निवास योग्य बनाकर उसमें निवास करने लगा, यह भवन का मात्र प्रारंभिक स्वरुप था वैदिक काल में भवन बनाने का विज्ञान चरम सीमा तक जा पहुंचा, हमारे धर्मग्रंथों में भी देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा का उल्लेख आता है जिन्होंनें रामायण काल से पूर्व लंका नगरी तथा महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से दैत्य शिल्पी मय दानव के साथ मिलकर इन्द्रप्रस्थ नगरी का निर्माण किया था जहाँ पर जल के स्थान पर स्थल तथा स्थल के स्थान पर जल के होने का आभास होता था महाभारत ग्रन्थ के अनुसार इसी कौतुक के कारण दुर्योधन को अपमानित होना पड़ा जो कि बाद में महाभारत जैसे महासंग्राम का एक कारण भी बना | उस समय के भवन निर्माण के दुर्लभ व उन्नत ज्ञान को धर्मग्रंथों में संग्रहीत कर लिया गया जिसे आज सम्पूर्ण विश्व में वास्तु विज्ञान या वास्तु शास्त्र नाम से जाना जाता है | विश्वकर्माप्रकाशः भी एक ऐसा ही ग्रन्थ है जो कि वास्तु सम्बन्धी ज्ञान को अपने अन्दर समाहित किये हुए है |
साहित्य शिल्पी
रचनाकार परिचय:-
उत्तर प्रदेश के जिला सीतापुर में १९६५ को जन्मे अम्बरीष श्रीवास्तव ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से शिक्षा प्राप्त की है।
आप राष्ट्रवादी विचारधारा के कवि हैं। कई प्रतिष्ठित स्थानीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं व इन्टरनेट की स्थापित पत्रिकाओं में उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। वे देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित तकनीकी व्यवसायिक संस्थानों व तथा साहित्य संस्थाओं जैसे "हिंदी सभा", "हिंदी साहित्य परिषद्" आदि के सदस्य हैं। वर्तमान में वे सीतापुर में वास्तुशिल्प अभियंता के रूप में स्वतंत्र रूप से कार्यरत हैं तथा कई राष्ट्रीयकृत बैंकों व कंपनियों में मूल्यांकक के रूप में सूचीबद्ध होकर कार्य कर रहे हैं।
प्राप्त सम्मान व अवार्ड: "इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी अवार्ड २००७", "अभियंत्रणश्री" सम्मान २००७ तथा "सरस्वती रत्न" सम्मान २००९ आदि|

प्रायः हमनें देखा है कि पुराने भवनों की दीवारें काफी मोटी-मोटी हुआ करती थी जो कि आज के परिवेश में घटकर ९ इंच से लेकर ४.५ इंच तक की रह गयीं हैं | आज हममें से काफी व्यक्ति यह समझते हैं कि मोटी दीवारें बनाने से भूखंड में जगह की बर्बादी होती है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि मोटी दीवारों की दृढ़ता अधिक होने से भूकंप के समय उनका व्यवहार काफी अच्छा पाया गया है अतः भारवाही दीवार की मोटाई ९ इंच से कम तो कतई होनी ही नहीं चाहिए |

एक भवन को डिजाइन कराते समय एक अच्छे वास्तुविद, अभियंता या आर्कीटेक्ट के चयन के साथ साथ अच्छे ठेकेदार, राजमिस्त्री, प्लंबर ,बढई , इलेक्ट्रीशियन व लोहार आदि का चयन बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इनका भवन निर्माण में रोल ठीक उसी तरह से होता है जैसे कि एक अच्छे भोज में हलवाई का, क्योंकि इन सभी कार्यों में कच्ची सामग्री लगभग एक जैसी ही लगती है बस फर्क पड़ता है तो केवल कारीगरी का ही, इसलिये सस्ते के चक्कर में आना ठीक नहीं होता क्योंकि किसी ने कहा है कि सस्ता रोवे बार बार ............

इस स्तम्भ में वास्तु ज्ञान सहित आधुनिक भवन निर्माण तकनीक व भूकम्परोधी भवन निर्माण तकनीक के बारे में हम प्रतिमाह सिलसिलेवार व्याख्या करते रहेंगें जो कि जन-सामान्य को भवन निर्माण सम्बन्धी आवश्यक ज्ञान देने के उद्देश्य से प्रारंभ किया जा रहा है | इसका प्रयोजन जन साधारण को वास्तुविद, अभियंता या आर्कीटेक्ट बनाना नहीं अपितु सभी में भवन निर्माण सम्बन्धी जागरूकता उत्पन्न करना है ताकि समाज में वास्तु सम्मत निर्माण कराने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो तथा आपदाओं यथा भूकंप आदि के समय होने वाली क्षति की मात्रा को न्यूनतम किया जा सके.................

पुरस्कार/सम्मान-श्रृंखला:


त्रैमा. ‘अभिनव प्रयास’ (अलीगढ़, उप्र) के-
बहुचर्चित साहित्यिक स्तम्भ तीसरी आँख की पुरस्कार/सम्मान-श्रृंखला:


पुरस्कार क्रमांक-1: ‘श्रीमती सरस्वती सिंह स्मृति: श्रेष्ठ सृजन सम्मान’
                                       (1100/-रुपये + प्रमाण-पत्र)
     
वैदिक क्रांति परिषद की संस्थापिका एवं ‘सरस्वती प्रकाशन’ की प्रेरणास्रोत श्रीमती सरस्वती सिंह जी की पावन स्मृति में निर्धारित उक्त सम्मान साहित्य की किसी भी विधा (गद्य-पद्य) के रचनाकार को देय होगा जिसके लिए प्रविष्‍टियाँ निम्नांकित संलग्नकों के साथ 30 जून 2012 तक सादर आमंत्रित हैं:
1. गद्य-पद्य विधा की तीन फुटकर रचनाएँ (प्रकाशित/अप्रकाशित का बंधन नहीं) मौलिकता प्रमाण-पत्र के साथ।
2. सचित्र परिचय + डाक टिकटयुक्त एक लिफ़ाफ़ा व पता लिखे दो पोस्टकार्ड।

विशेष: इस सम्मान हेतु श्रेष्‍ठ/स्तरीय प्रविष्‍टियों के अभाव की स्थिति में रचनाओं का चयन देशव्यापी पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट, गद्य/पद्य संग्रहों, आदि में से किया जा सकता है।
        प्रायोजक:                                    परामर्शदाता:                        चयनकर्ता:                                                                             
  डॉ. आनन्दसुमन सिंह                       श्री अशोक ‘अंजुम’              जितेन्द्र ‘जौहर’                                       
(प्र. संपादक ‘सरस्वती सुमन)         (संपादक ‘अभिनव प्रयास’)         (स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’) 
  देहरादून, उत्तराखण्ड.                            अलीगढ़, उ.प्र.                         सोनभद्र, उप्र

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पुरस्कार क्रमांक-2: ‘श्री केशरीलाल आर्य स्मृति गीत/दोहा सम्मान’
                              (5100/-रुपये  + प्रमाण-पत्र)

आर्य समाज-सेवक, स्वाभिमानी राष्‍ट्रभक्त एवं पूर्व स्वतंत्रता सेनानी श्री केशरीलाल आर्य जी की शैक्षिक जागरूकता का सहज अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सन्‌ 1930 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। उनकी पावन स्मृति में स्थापित उपर्युक्त वार्षिक सम्मान वरिष्‍ठ गीतकार/दोहाकार डॉ. देवेन्द्र आर्य की पितृ-भक्ति का प्रतीक है। यह सम्मान राष्‍ट्रीय स्तर पर चुने गये किसी श्रेष्‍ठ कवि/कवयित्री (कोई आयु-बंधन नहीं) को गीत अथवा दोहा-सृजन के लिए देय होगा। इस सम्मान हेतु प्रविष्‍टियाँ निम्नांकित संलग्नकों के साथ 31 मार्च 2012 तक सादर आमंत्रित हैं:

1. मौलिक गीत-संग्रह अथवा दोहा-संग्रह (प्रकाशन-वर्ष का कोई बंधन नहीं) की दो प्रतियाँ।
2. सचित्र परिचय, प्रविष्‍टि-शुल्क रु. 200/- (मनीऑर्डर द्वारा; चेक अस्वीकार्य) + डाक टिकटयुक्त एक लिफ़ाफ़ा व पता लिखे दो पोस्टकार्ड।


     प्रायोजक:                     परामर्शदाता:                                      चयनकर्ता:                                                                             
   डॉ. देवेन्द्र आर्य                डॉ. शिवओम अम्बर                               जितेन्द्र ‘जौहर’                                      
(वरिष्‍ठ साहित्यकार)         (वरिष्‍ठ साहित्यकार)                      (स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’) 
  ग़ाज़ियाबाद, उप्र.                 फ़र्रुख़ाबाद, उ.प्र.                                 सोनभद्र, उ.प्र.
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पुरस्कार क्रमांक-3: ‘श्रीमती रत्‍नादेवी स्मृति काव्य-सृजन सम्मान’ 
                                            (5001/- रुपये + प्रमाण-पत्र)
डिप्टी कलेक्टर के रूप में तीन दशक का बेदाग़ सेवाकाल बिताने वाले 74 वर्षीय श्री आमोद तिवारीजी शांत स्वभाव एवं वैदुष्य के धनी हैं। उनकी गहन साहित्य-निष्‍ठा का प्रतीक उपर्युक्त वार्षिक सम्मान उनकी स्वर्गीया धर्मपत्‍नी श्रीमती रत्‍नादेवी जी की पावन स्मृति में स्थापित किया गया है जो कि राष्‍ट्रीय स्तर पर चयनित किसी श्रेष्‍ठ कवि/कवयित्री (युवाओं को विशेष वरीयता, तथापि आयु-बंधन नहीं) को देय होगा। इस सम्मान हेतु प्रविष्‍टियाँ निम्नांकित संलग्नकों के साथ 31 मार्च 2012 तक सादर आमंत्रित हैं: 

1. काव्य की किसी भी विधा (छांदस/अछांदस) के मौलिक प्रकाशित संग्रह (प्रकाशन-वर्ष का कोई बंधन नहीं) की दो प्रतियाँ अथवा मौलिकता प्रमाण-पत्र के साथ अप्रकाशित कृति (पाण्डुलिपि) अथवा न्यूनतम 15 फुटकर कविताएँ।
2. सचित्र परिचय, प्रविष्‍टि-शुल्क रु. 200/- (मनीऑर्डर द्वारा; चेक अस्वीकार्य) + डाक टिकटयुक्त एक लिफ़ाफ़ा व पता लिखे दो पोस्टकार्ड।
 
    प्रायोजक:                              परामर्शदाता:                                चयनकर्ता:                                                                             
श्री आमोद तिवारी          डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’                  जितेन्द्र ‘जौहर’                                       
(पूर्व डिप्‍टी कलेक्टर)               (वरिष्‍ठ साहित्यकार)                        (स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’) 
   कटनी, म.प्र.                             फ़िरोज़ाबाद, उ.प्र.                               सोनभद्र, उ.प्र.
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विशेष ध्यानार्थ:
1.उपर्युक्त सभी सम्मान/पुरस्कार ‘तीसरी आँख’ द्वारा आयोजित एक भव्य ‘सम्मान-समारोह’ एवं गरिमापूर्ण ‘अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन’ में प्रदान किये जायेंगे जिनका विस्तृत समाचार विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ प्रेषित किया जायेगा। साथ ही, चयनित कवि/कवयित्री की चुनिन्दा रचनाओं को विभिन्न प्रतिष्‍ठित वेबसाइट्‍स/इंटरनेट पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा। 

2.चयन-प्रक्रिया अत्यन्त पारदर्शी एवं त्रिस्तरीय होगी जिसे परिणामों के साथ घोषित किया जायेगा। कृतियों के निष्पक्ष चयन का आधार-कथन (संक्षिप्‍त समीक्षा के साथ) ‘तीसरी आँख’ में प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा। 

3.प्रविष्‍टि-शुल्क का उद्‍देश्य व्यावसायिक नहीं है। इन सम्मानों/पुरस्कारों का मूल उद्‍देश्य श्रेष्‍ठ साहित्य-सृजन को प्रेरित करना है। 

4.प्रशंसकों/शुभचिंतकों द्वारा भेजी गयी अपने प्रिय कवि/कवयित्री की प्रविष्‍टियाँ (वांछित संलग्नकों के साथ) स्वीकार्य हैं।  

5.किसी पाण्डुलिपि के चुने जाने की स्थिति में निर्धारित सम्मान/पुरस्कार उसके प्रकाशनोपरान्त ही प्रदान किया जायेगा।
 
6.सभी सम्मानों के लिए अलग-अलग प्रविष्‍टियों की छूट उपलब्ध है; लिफ़ाफ़े पर सम्मान/पुरस्कार का नाम एवं क्रमांक स्पष्‍ट रूप से लिखें। संलग्नकों के अभाव में प्रविष्‍टि अमान्य होगी।  

7.प्रायोजकों अथवा परामर्शदाताओं से चयन-प्रक्रिया अथवा निर्णायक-मण्डल आदि से संबंधित अनपेक्षित जानकारी माँगना अयोग्यता माना जायेगा। किसी भी समय नियम-परिवर्तन एवं अंतिम निर्णय-संबधी सर्वाधिकार उपर्युक्त नामांकित मण्डल के पास सुरक्षित हैं। निर्णय-संबधी कोई भी विवाद कदापि स्वीकार्य नहीं होगा। 

8.वांछित संलग्नकों के साथ समस्त प्रविष्‍टियाँ ‘तीसरी आँख’ के निम्नांकित पते पर निर्धारित तिथि से पूर्व भेजें: 

जितेन्द्र ‘जौहर’
(स्तम्भकार ‘तीसरी आँख’) 
आई आर-13/6, रेणुसागर-231218, 
सोनभद्र (उप्र). मोबा. 09450320472
ईमेल: jjauharpoet@gmail.com
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जितेन्द्र ‘जौहर’
Jitendra Jauhar
स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’ 
(त्रैमा.  अभिनव प्रयास’, अलीगढ़, उप्र)
(संपा. सलाहकार: त्रैमा. ‘प्रेरणा’, शाहजहाँपुर, उप्र)
सम्पर्क: आई आर-13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
मोबा:  +91  9450320472
ईमेल: jjauharpoet@gmail.com
एक कविता:
बाजे श्वासों का संतूर.....
संजीव 'सलिल'
*
मन से मन हिलमिल खिल पायें, बाजे श्वासों का संतूर..
सारस्वत आराधन करते, जुडें अपरिचित जो हैं दूर.
*
कहते, सुनते, पढ़ते, गुनते, लिखते पाते हम संतोष.
इससे ही होता समृद्ध है, मानव मूल्यों का चिर कोष...
*
मूल्यांकन करते सहधर्मी, टीप लिखें या रहकर मौन.
लिखें न कुछ तो मनोभावना, किसकी कैसी जाने कौन?
*
लेखन नहीं परीक्षा, होना सफल नहीं मजबूरी है.
अक्षर आराधन उपासना, यह विश्वास जरूरी है..
*
हर रचना कुछ सिखला जाती, मूल्यांकक होता निज मन.
शब्दब्रम्ह के दर्शन होते, लगे सफल है अब जीवन..
*
अपना सुख ही प्रेरक होता, कहते हैं कवि तुलसीदास.
सधे सभी का हित, करता है केवल यह साहित्य प्रयास..
*
सत-शिव-सुंदर रहे समाहित, जिसमें वह साहित्य अमर.
क्यों आवश्यक हो कि तुरत ही, देखे रचनाकार असर..
*
काम करें निष्काम, कराता जो वह आगे फ़िक्र करे.
भाये, न भाये जिसे मौन हो, या सक्रिय हो ज़िक्र करे..
*
सरिता में जल आ बह जाता, कितना कब वह क्या जाने?
क्यों अपना पुरुषार्थ समझकर, नाहक अपना धन माने??
*
यंत्र मात्र हर रचनाधर्मी, व्यक्त कराता खुद को शब्द.
बिना प्रेरणा रचनाधर्मी, हमने पाया सदा निशब्द..
*
माया करती भ्रमित जानते हम, बाकी अनजान लगे.
नहीं व्यक्त करते जो उनके, भी मन होते प्रेम-पगे..
*
जड़ में भी चेतना बसी है, घट-घट में व्यापे हैं राम.
कहें कौन सा दुख ऐसा है, जिसमें नहीं रमे सुखधाम??
*
देह अदेह विदेह हो सके, जिसको सुन वह लेखन धन्य.
समय जिलाता मात्र उसीको, जो होता सर्वथा अनन्य..
*
चिर नवीन ही पुरा-पुरातन, अचल सचल हो मचल सके.
कंकर में शंकर लख मनुआ, पढ़ जिसको हो कमल सखे..
*
घटाकाश या बिंदु-सिंधु के बिम्ब-प्रतीक कहें जागो.
शंकाओं को मिल सुलझाओ, अनजाने से मत भागो..

राम हराम विराम न हो, अभिरान और अविराम रहे.
'सलिल' साथ जब रहे सिया भी, तभी पिया गुणग्राम रहे..
*
माया-छाया अगर निरर्थक तो विधि उनको रचना क्यों?
अगर सार्थक हर आराधक, कहें दूर हो बचता क्यों??
*
दीप्ति तभी देता है दीपक, तले पले जब अँधियारा.
राख आवरण ओढ़ बैठता, सबने देखा अंगारा..
*
सृजन स्वसुख से सदा साधता, सर्व सुखों का लक्ष्य सखे.
सत-चित-आनंद पाना-देना, मानक कवि ने 'सलिल' रखे..
*
नभ भू सागर की यात्रा में, मेघ धार आगार 'सलिल'.
निराकार-साकार अनल है, शेष जगत-व्यापार अनिल..
*

बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: एक हुए दोहा यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

एक हुए दोहा यमक

-- संजीव 'सलिल'
*
दिया दिया लेकिन नहीं, बाली उसमें ज्योत.
बाली उमर न ला सकी, उजियारे को न्योत..
*
संग समय के जंग है, ताकत रखें अकूत.
न हों कुमारी अब 'सलिल', सुकुमारी- मजबूत..
*
लाल किसी का हो- मिला, खून सभी का लाल.
हों या ना हों पास में, हीरे मोती लाल..
*
चली चाल पर चाप पर, नहीं सुधारी चाल.
तभी चालवासी करें, थू-थू बिगड़े हाल..
*
पाल और पतवार बिन, पेट न पाती पाल.
नौका मौका दे चलें, जब चप्पू सब काल..
*
काल न आता, आ गया, काल बन गया काल.
कौन कहे सत्काल कब, कब अकाल-दुष्काल..
*
भाव बिना अभिनय विफल, खाओ न ज्यादा भाव.
ताव-चाव गुम हो गये, सुनकर ऊँचे भाव..
*
असरकार सरकार औ', असरदार सरदार.
अब भारत को दो प्रभु, सचमुच है दरकार..
*
सम्हल-सम्हल चल ढाल पर, फिसल न जाये पैर.
ढाल रहे मजबूत तो, मना जान की खैर..
*
दीख पालने में रहे, 'सलिल' पूत के पैर.
करे कार्य कुछ पूत हो, तभी सभी की खैर..
*
खैर मना ले जान की, लगा पान पर खैर.
पान मान का खिला-खा, मिट जाये सब  बैर..
*
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मैथिली देवी गीत: सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा............... रचनाकार- अभय दीपराज

मैथिली देवी गीत:
 सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा...............
रचनाकार- अभय दीपराज
*
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के,  उठि-उठि करथि प्रणाम ||

जगजननी  के  सुन्दर  मुखड़ा,  सुन्दर   मोहक   रूप |
लागि  रहल छल,  जेना  बर्फ पर,  पसरल भोरक धूप ||
मुग्ध भेलौं और धन्य भेलौं हम, देखि  रूप  अभिराम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||१ ||

मैया  सब  के  आशिष  द  क,  सबके  देलखिन्ह  नेह |
और  कहलथि  जे-  आइ एलौं हम,  नैहर अप्पन गेह ||
अही माटि के बेटी छी हम,   इहय  हमर  अछि  गाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||२||

दंग- दंग हम केलों निवेदन-  जननी  ई  उपकार  करू |
धर्मक  नैया  डोलि  रहल अछि,  मैया  बेड़ा  पार  करू ||
ओ कहलथि-  हटि  जाउ पाप सँ, नीक भेंटत परिणाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||३||

एहि के बाद शक्ति ई भखलनि- हम अहाँ के माली छी |
लेकिन  हमहीं  सीता - गौरी,  हमहीं  दुर्गा-काली  छी ||
जेहन  कर्म  रहत  ओहने  फल,  करब अहाँ  के  नाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||४||

आखिर में जगदम्बा-जननी, सीता-रामक रूप लेलाह |
और प्रकाशपुंज बनिकयओ हमरे सब में उतरि गेलाह ||
देलथि ज्ञान जे - एक शक्ति के, छी हम ललित-ललाम ||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा,  अयलथि मिथिला धाम ||५||

बाबू !  अब  त  बिसरि  जाउ  ई-  भेद - भाव   के   राग |
बेटा - बेटी,   ऊँच- नीच   और   छल - प्रपंच   के  दाग ||
नहिं  त आखिर अपने  भुगतव,  अपन  पाप  के  दाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||६||

               ***********
चित्र: विद्या देवी, आभार : ओबीओ, गूगल

एक गीत: आईने अब भी वही हैं --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
आईने अब भी वही हैं
-- संजीव 'सलिल'
*

आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत
मौन क्यों धरते नहीं?
'सलिल' बनकर दिया  जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
*****

Acharya Sanjiv Salil

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विशेष: क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ -- आदिल रशीद

विशेष:

क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ
    आदिल रशीद

याद कीजिये फिल्म दीवार का वो मंज़र अमिताभ के सीने पर गोली लगती और उन्हें कुछ नहीं होता गोली उनके बिल्ला नम्बर 786 से टकरा कर बेकार हो चुकी है अमिताभ उस बिल्ले को कोट की जेब से निकाल कर चूमते हैं फिर फिल्म कूली मे वही चमत्कारी बिल्ला नंबर 786 लगाते है कूली मे घायल होते है जिंदगी और मौत की जंग मे जीत ज़िन्दगी की होती है और वो रुपहले परदे पर भी और वास्तविक जीवन मे भी अंक 786 के कायल हो जाते हैं और आज भी उसको अपने लिए शुभ मानते हैं

क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ

एक अरबी शब्द है "अबजद" जिसका एक मतलब होता हैं किसी बिद्या को सीखने की सब से पहली स्तिथि यानि अलिफ़,बे,ते (A.B.C.D.) सीखना जो दूसरा मतलब है वो अपने आप मे एक विद्या हैं किसी भी शब्द के नंबर निकालना ये अरबी की विद्या है इसलिए अरबी के तरीके से ही चलती है इसमें अरबी के हर अक्षर को एक गिनती दी हुई है किसी शब्द मे जो जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन को गिन कर जोड़ कर जो अंकफल निकलता है वही उस शब्द के अंक होते है आदिल को उर्दू मे लिखेंगे عادل رشید इसमें प्रयोग हुआ ऐन. अलिफ़ ,दाल, लाम, तो इस में
ऐन के . =70 अलिफ़ के =1 दाल के =4 लाम के =30 टोटल = 105
इसी तरह रशीद रे के =200 शीन के =300 ये के =10 दाल के =4 टोटल=314
आदिल रशीद के हुए 105 +314=419
इसी हिसाबे अबजद से बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम जिसके अर्थ हुए शुरू करता हूँ उस अल्लाह के नाम से जो बेहद रहम वाला है
अगर पुरे वाक्य "बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम" के अंक अबजद से नंबर निकालें तो बनेगे 786 इसी लिए मुस्लिम्स में इसको लकी माना जाता है बहुत से लोग इसको नहीं भी मानते.
इस में हिन्दू मुस्लिम्स एकता का भी एक मन्त्र छुपा है अगर हम इसी तरह से " हरे रामा हरे कृष्णा" के निकालें तो भी निकलेंगे 786 दोनों के बिलकुल एक काश ये हमारे कुछ नेता गण समझ जाएँ इश्वर एक है उसका सन्देश एक है मानवता सब से बड़ा धर्म है.

अरबी के सभी अक्षरों के नम्बर इस प्रकार हैं,
अलिफ़ =1,बे=2,जीम=3,दाल=4,हे=5,=वाओ=6, ज़े=7,बड़ी हे =8,तूए के =9,ये =10
छोटा काफ =20,लाम=30,मीम=40,नून के =50,सीन=60,ऐन =70,फे=80,स्वाद =90,
बड़े काफ =100,रे =200,शीन =300,ते =400,से=500,खे=600,जाल -700,जवाद =800
जोए =900,गैन=1000,

अबजद के खेल में ताश जिसे इल्मी ताश कहा जाता है बच्चे इल्मी ताश खेलते है और आये हुए पत्तों से शब्द बनाते हैं इस से उनका शब्द ज्ञान बढ़ता है
हाज़िर है एक ग़ज़ल के चन्द शेर

सब तो बैठे हुए हैं मसनद पर
हम ही ठहरे हुए हैं अबजद पर

कल ही मिटटी से सर निकाला है
आज ऊँगली उठा दी बरगद पर

आँख सोते मे भी खुली रखना
सब की नज़रें लगीं हैं मसनद पर

आज के दिन बटा था इक आँगन
आज मेला लगेगा सरहद पर

पहले उसने मेरे कसीदे पढ़े
घूम फिर कर वो आया मकसद पर

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

आंच पर हाइकु हरीश प्रकाश गुप्त के हाइकु -- करण समस्तीपुरी

आंच पर हाइकु

हरीश प्रकाश गुप्त के हाइकु

-- करण समस्तीपुरी


हाइकु हिंदी साहित्य में अभिनव आयातित पद्य विधा है। यह जापान से बरास्ते अंग्रेजी भारत आयी है। हाइकु का उद्गम स्थल जापान है। जापान में सतरहवी शताब्दी में 5-7-5 नाद वाले तीन पंक्तियों की कविता लिखने का प्रचलन हुआ। आरंभिक अवस्था में इसके प्रथम चरण में प्राकृतिक सौंदर्य/घटना या ऋतु-वर्णन होता था और अंत में उसे किसी सामजिक सन्दर्भ से जोड़ दिया जाता था। जापानी हाइकु की एक विशेषता यह थी कि यह सामान्य क्षैतिज पंक्ति में न होकर तीन उदग्र रेखाओं में लिखा जाता था। आशु-कविता की यह शैली हैकाई कहलाती थी। हैकाई का बहु-वचन होक्कू शब्द-विकास के दौर से गुजर कर कालांतर में हाइकु हो गया।

हाइकु की खोज करने का श्रेय मासाओका शिकी को जाता है। उन्नीसवी शताब्दी में उन्होंने ही सर्वप्रथम इसे हाइकु की संज्ञा दी थी और इसे विश्व साहित्य धरातल पर प्रतीष्ठित करने का श्रेय प्रसिद्द जापानी कवि बासोहो को है। अंग्रेजी में वर्ड्सवर्थ सरीखे कवियों ने हाइकु पर कलम चलाई है तो भारतीय साहित्य में हाइकु को प्रतिष्ठा दिलाई कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने।

गागर में सागर भर लाना हाइकु की मूल-भूत विशेषता है फिर भी यह विधा हिंदी साहित्य में वह स्थान नहीं बना पायी है, जिसकी यह अधिकारी है। शायद हिंदी साहित्य अभी भी प्रबंध के मोह से नहीं निकल पाया है।
 
हाइकु के शैली-विज्ञान की दृष्टि से यह ५-७-नादबद्धता के धर्म का निर्वाह कर रही है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि संस्कृत, हिंदी या अरबी-फारसी साहित्य के विपरीत हाइकु में 'ध्वनि की मात्रा' नहीं ध्वनि की गणना की जाती है। 
वर्तमान हिंदी हाइकुकारों में चर्चित श्री हरि प्रकाश गुप्त की हाइकु कुछ रचनाओं की चर्चा करें. प्रथम हाइकु है: 

भरा उदधि
हुआ मधु विस्‍फोट
फूटी कविता ।

 
सागर का उदर जब भर जाता है तो इसमें ज्वालामुखी विस्फोट (सुनामी) होता है और फिर एक नया सृजन। उसी प्रकार हृदय में भावनाओं के आवेग से मधु (आनंददायी) विस्फोट होता है जिस से कविता रूपी लावा का जन्म होता है। वर्डस्वर्थ ने भी कहा है, "Poetry is the spontenious overflow of powerfull minds." इसमें कविता के निर्माण प्रक्रिया को समुद्र के ज्वालामुखी-विस्फोट से जोड़ कर कवि ने हाइकु के स्वाभावगत धर्म का पालन भी किया है। हालांकि दो विपरीत प्रकृति और प्रभाव वाले उपमा और उपमानो को कवि ने बहुत ही सहजता और सुन्दरता के साथ जोड़ा है।

दूसरा हाइकु है,
उतर गई
अन्‍तस में, नैनन
पढ़ कविता ।

काव्य के प्रभाव का इन तीन पंक्तियों से विशद वर्णन क्या होगा ? कविता वह जो मन की ऑंखें खोल दे। वेद के 'तमसो मा ज्योतिर्गमय....' का प्रथम सोपान। काव्यानंद अंतर्मन को उजियार कर देता है।

एक और हाइकु है,

                                                       रात निठल्‍ली

                                                    सोई, दिन ने थक

                                                         बेबस ढोई ।

इसमें कवि ने वर्ग-भेद को उजागर किया है।
गली-गली में

घूमा, ठहरा, सोचा

लेकिन कहाँ ?

इस हाइकु में कवि चलायमान जीवन की नश्वरता का संकेत किया है, तो


गली में शाम
नुक्‍कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
गुप्तजी के हाइकु शल्यगत सौन्दर्य से परिपूर्ण और गहन अर्थ से आप्लावित हैं। किसी भी पद में मात्र-दोष नहीं है। इन पदों की एक और खासियत यह कि यह एक दूसरे से बिलकुल स्वतंत्र हैं।
उपर्युक्त हाइकु में कवि ने स्थान-भेद अथवा दृष्टि भेद से एक ही बात के अलग-अलग मायने बताया है। गली में जब शाम होती है तो नुक्कर पर बत्ती जल जाती है। वहाँ छिट-पुट रौशनी हो जाती है और ऐश्वर्या और विलासिता का प्रतीक मीना बाज़ार गुलजार हो जाता है। वक़्त एक ही है पुनश्च यह अंतर उस स्थान विशेष की हैसियत से आता है।
                       हाइकू
-- हरीश प्रकाश गुप्त

भरा उदधि
हुआ मधु विस्‍फोट
फूटी कविता ।

उतर गई
अन्‍तस में, नैनन
पढ़ कविता ।

मेरी कविता
मेरे मन का गीत
सुर संगीत

रात निठल्‍ली
सोई, दिन ने थक
बेबस ढोई ।

अचल बिंदु
के इर्द-गिर्द घूम
रहा बेसुध ।

गली-गली में
घूमा, ठहरा, सोचा
लेकिन कहॉं?

कुत्ता ले भागा
रोटी, नुक्‍कड़ वाले
भिखमंगे की ।

दरक गया
शीशे-सा जब देखा-
सच, सपना

शीशे में देखा
चेहरा, अपना या
कुछ उनका ।

गली में शाम
नुक्‍कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

लघुकथा: गाँधी जयंती -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                     
गाँधी जयंती
संजीव 'सलिल'
*



  बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे। जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले,
तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवंत उदाहरण है। वे 
हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ 
   -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी महँगी आयातित कार में 
बैठने लगे तो एक पत्रकार ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा।

नेताजी बोले– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे। उनका अधनंगापन पराये शासन में 

देश का दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत केनेता हैं। अपने देश के जीवनस्तर की 
समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना 
होता है। हमारी कोशिश तो यह है कि हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुख-
सुविधाएँ दी जाएँ।’

‘चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएँ जुटाने में देश के जनगण का दीवाला निकल जाए? 

अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलता रहे मगर नेता नीरो की तरह बाँसुरी 
बजाते ही रहेंगे- वह भी गांधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में?’
–एक युवा पत्रकार बोल पड़ा।

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया।

Acharya Sanjiv Salil

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लघुकथा निपूती भली थी -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा 
निपूती भली थी  
    संजीव 'सलिल'     
          
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली। अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया।

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली। 

उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए. 

तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी।

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूँदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे।

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे। 

नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गाकर ख़ुद को धन्य मान रहा था।

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- ‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी।

*********



एक रचना: कम हैं... --संजीव 'सलिल'

एक रचना:
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...
  *
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

नवगीत: उत्सव का मौसम -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 
उत्सव का मौसम 
-- संजीव 'सलिल'
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
*****
Acharya Sanjiv Salil

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तापसी नागराज

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