बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर
जबलपुर
बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये
नींद चैन की हमको भी लौटा दीजिये
प्यार का पाठ पढ़ना , अगर अपराध हो
तो इस गुनाह में हमको भी सजा दीजिये
नहा के आये हैं ,पहने हैं कपड़े झक सफेद
गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए
रोशनी की किरण सीधी ही चली आयेगी
छोटा सा छेद छत में , करा दीजिये
फैला रहा है मुस्करा, खुश्बू वो हवाओ में
इस फूल के पौधे कुछ और लगा दीजिये
बनें न नस्लवादी , और न आत्मघाती ही
इंसानी नस्ल में , इंसान रहने दीजिये
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शुक्रवार, 5 मार्च 2010
गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
नवगीत: आँखें रहते सूर हो गए --संजीव 'सलिल'
नवगीत;
संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
*****************************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
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Acharya Sanjiv Salil
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जनमत: हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
चिंतन : हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
सोचिये और अपना मत बताइए:
आप की सोच के अनुसार हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
क्या आम मानते हैं कि हिन्दी भविष्य की विश्व भाषा है?
क्या संस्कृत और हिन्दी के अलावा अन्य किसी भाषा में अक्षरों का उच्चारण ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार किया जाता है?
अक्षर के उच्चारण और लिपि में लेखन में साम्य किन भाषाओँ में है?
अमेरिका के राष्ट्रपति अमेरिकियों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?
अन्य सौरमंडलों में संभावित सभ्यताओं से संपर्क हेतु विश्व की समस्त भाषाओँ को परखे जाने पर संस्कृत और हिन्दी सर्वश्रेष्ठ पाई गयीं हैं तो भारत में इनके प्रति उदासीनता क्यों?
क्या भारत में अंग्रेजी के प्रति अंध-मोह का कारण उसका विदेशी शासन कर्ताओं से जुड़ा होना नहीं है?
आचार्य संजीव सलिल / http://divyanarmada.blogspot.com
सोचिये और अपना मत बताइए:
आप की सोच के अनुसार हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
क्या आम मानते हैं कि हिन्दी भविष्य की विश्व भाषा है?
क्या संस्कृत और हिन्दी के अलावा अन्य किसी भाषा में अक्षरों का उच्चारण ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार किया जाता है?
अक्षर के उच्चारण और लिपि में लेखन में साम्य किन भाषाओँ में है?
अमेरिका के राष्ट्रपति अमेरिकियों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?
अन्य सौरमंडलों में संभावित सभ्यताओं से संपर्क हेतु विश्व की समस्त भाषाओँ को परखे जाने पर संस्कृत और हिन्दी सर्वश्रेष्ठ पाई गयीं हैं तो भारत में इनके प्रति उदासीनता क्यों?
क्या भारत में अंग्रेजी के प्रति अंध-मोह का कारण उसका विदेशी शासन कर्ताओं से जुड़ा होना नहीं है?
आचार्य संजीव सलिल / http://divyanarmada.blogspot.com
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गुरुवार, 4 मार्च 2010
सामयिक दोहे : संजीव 'सलिल'
सामयिक दोहे : संजीव 'सलिल'
बजट गिरा बिजली रहा, आम आदमी तंग.
राज्य-केंद्र दोनों हुए, हैं सेठों के संग.
इश्क-मुश्क छिपते नहीं, पूजा जैसे पाक.
करो ढिंढोरा पीटकर, हुए विरोधी खाक..
जागे जिसकी चेतना, रहिये उसके संग.
रंग दें या रंग जाइए, दोनों एक ही रंग..
सत्य-साधना कीजिये, संयम तजें न आप.
पत्रकारिता लोभ से, बन जाती है पाप..
तथ्यों से मत खेलिये, करें आंच को शांत.
व्यर्थ सनसनी से करें, मत पाठक को भ्रांत..
जन-गण हुआ अशांत तो, पत्रकार हो लक्ष्य.
जैसे तिनके हों 'सलिल', सदा अग्नि के भक्ष्य..
खल के साथ उदारता, सिर्फ भयानक भूल.
गोरी-पृथ्वीराज का, अब तक चुभता शूल..
होली हो ली, हो रही, होगी 'सलिल' हमेश.
क्यों पूजें हम? किस तरह?, यह समझें कमलेश..
लोक पर्व यह सनातन, इसमें जीवन-सत्य.
क्षण भंगुर जड़ जगत है, यहाँ न कुछ भी नित्य..
उसे जला दें- है नहीं, जिसका कुछ उपयोग.
सुख भोगें मिल-बाँटकर, 'सलिल' सुखद संयोग..
हर चेहरे पर हो सजा, नव जीवन का रंग.
कहीं न कुछ बदरंग हो, सबमें रहे उमंग..
नानाजी की देह का, 'सलिल' हो गया अंत.
वे हो गए विदेह थे, कर्मठ सच्चे संत..
जो सत्य लिखा होता, हाथों की लकीरों में.
तो आपको गिन लेता, यह वक़्त फकीरों में..
नानाजी ने जब दिया, निज शरीर का दान.
यही कहा तेरा नहीं कुछ, मत कर अभिमान..
नानाजी युग पुरुष थे, भारत मा के पूत.
आम आदमी हित जिए, कर्म देव के दूत..
राजनीति के तिमिर में, नानाजी थे दीप.
अनगिन मुक्ता-मणि लिए, वे थे मानव-सीप..
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बजट गिरा बिजली रहा, आम आदमी तंग.
राज्य-केंद्र दोनों हुए, हैं सेठों के संग.
इश्क-मुश्क छिपते नहीं, पूजा जैसे पाक.
करो ढिंढोरा पीटकर, हुए विरोधी खाक..
जागे जिसकी चेतना, रहिये उसके संग.
रंग दें या रंग जाइए, दोनों एक ही रंग..
सत्य-साधना कीजिये, संयम तजें न आप.
पत्रकारिता लोभ से, बन जाती है पाप..
तथ्यों से मत खेलिये, करें आंच को शांत.
व्यर्थ सनसनी से करें, मत पाठक को भ्रांत..
जन-गण हुआ अशांत तो, पत्रकार हो लक्ष्य.
जैसे तिनके हों 'सलिल', सदा अग्नि के भक्ष्य..
खल के साथ उदारता, सिर्फ भयानक भूल.
गोरी-पृथ्वीराज का, अब तक चुभता शूल..
होली हो ली, हो रही, होगी 'सलिल' हमेश.
क्यों पूजें हम? किस तरह?, यह समझें कमलेश..
लोक पर्व यह सनातन, इसमें जीवन-सत्य.
क्षण भंगुर जड़ जगत है, यहाँ न कुछ भी नित्य..
उसे जला दें- है नहीं, जिसका कुछ उपयोग.
सुख भोगें मिल-बाँटकर, 'सलिल' सुखद संयोग..
हर चेहरे पर हो सजा, नव जीवन का रंग.
कहीं न कुछ बदरंग हो, सबमें रहे उमंग..
नानाजी की देह का, 'सलिल' हो गया अंत.
वे हो गए विदेह थे, कर्मठ सच्चे संत..
जो सत्य लिखा होता, हाथों की लकीरों में.
तो आपको गिन लेता, यह वक़्त फकीरों में..
नानाजी ने जब दिया, निज शरीर का दान.
यही कहा तेरा नहीं कुछ, मत कर अभिमान..
नानाजी युग पुरुष थे, भारत मा के पूत.
आम आदमी हित जिए, कर्म देव के दूत..
राजनीति के तिमिर में, नानाजी थे दीप.
अनगिन मुक्ता-मणि लिए, वे थे मानव-सीप..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सोमवार, 1 मार्च 2010
होली पर दोहे: --संजीव 'सलिल'
होली का हर रंग दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..
स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..
प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..
स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..
जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..
भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..
शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..
Acharya Sanjiv Salil
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मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..
स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..
प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..
स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..
जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..
भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..
शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..
Acharya Sanjiv Salil
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रविवार, 28 फ़रवरी 2010
होली गीत: स्व. शांति देवी वर्मा
होली खेलें सिया की सखियाँ,
जनकपुर में छायो उल्लास....
जनकपुर में छायो उल्लास....
रजत कलश में रंग घुले हैं, मलें अबीर सहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
रंगें चीर रघुनाथ लला का, करें हास-परिहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
एक कहे: 'पकडो, मुंह रंग दो, निकरे जी की हुलास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
दूजी कहे: 'कोऊ रंग चढ़े ना, श्याम रंग है खास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
सिया कहें: ' रंग अटल प्रीत का, कोऊ न अइयो पास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
सियाजी, श्यामल हैं प्रभु, कमल-भ्रमर आभास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
'शान्ति' निरख छवि, बलि-बलि जाए, अमिट दरस की प्यास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें सिया की सखियाँ...
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होली खेलें चारों भाई
होली खेलें चारों भाई, अवधपुरी के महलों में...
अंगना में कई हौज बनवाये, भांति-भांति के रंग घुलाये.
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...
राम-लखन पिचकारी चलायें, भारत-शत्रुघ्न अबीर लगायें.
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...
सिया-श्रुतकीर्ति रंग में नहाई, उर्मिला-मांडवी चीन्ही न जाई.
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...
कौशल्या कैकेई सुमित्रा, तीनों माता लेंय बलेंयाँ.
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...
मंत्री सुमंत्र भेंटते होली, नृप दशरथ से करें ठिठोली.
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...
दास लाये गुझिया-ठंडाई, हिल-मिल सबने मौज मनाई.
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...
दस दिश में सुख-आनंद छाया, हर मन फागुन में बौराया.
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...
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साभार : संजीव 'सलिल', दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
साभार : संजीव 'सलिल', दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
नवगीत: फेंक अबीरा, गाओ कबीरा, भुज भर भेंटो... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
भुज भर भेंटो...
संजीव 'सलिल'
*
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी दे ताली.
कई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
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भुज भर भेंटो...
संजीव 'सलिल'
*
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी दे ताली.
कई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
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गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
इंटरव्यू/संस्मरण:
अल्का सक्सेना टेलीविजन इंडस्ट्री की जानी - मानी हस्ती है. टेलीविजन की सबसे लोकप्रिय महिला एंकरों में से एक हैं. लेकिन एंकर से ज्यादा उनकी पहचान एक बेहतरीन पत्रकार की है. इसकी गवाही मीडिया खबर.कॉम द्वारा किया गया पिछले साल का सर्वे है. मार्च, 2009 में मीडिया खबर.कॉम ने न्यूज़ चैनलों में काम करने वाली महिलाओं पर केंद्रित एक सर्वे किया था. सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर और सबसे ग्लैमरस एंकर के अलावा कुल 12 सवाल सर्वे में पूछे गए. ऑनलाइन हुए सर्वे में सबसे ज्यादा लोगों ने सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर के रूप में अल्का सक्सेना को वोट किया.
अल्का सक्सेना आजतक न्यूज चैनल के शुरुआती दौर के पत्रकारों में से रही हैं. दर्शकों के बीच उनकी अपनी एक अलग पहचान है. लाइव इंटरव्यू औऱ पैनल डिस्कशन में इनको महारत हासिल है. चुनाव से जुड़े कार्यक्रम हों या फिर राष्ट्रीय, अंतरर्राष्ट्रीय मसलों पर आधारित सामूहिक वार्ता, सबमें इनका प्रस्तुतीकरण शानदार रहता है. स्क्रीन पर प्रस्तुति और भाषाई प्रयोग के मामले में भी उनका अंदाज़ सबसे जुदा है जो उन्हें बाकी एंकरों से अलग करता है.
प्रभावशाली लेखन और रिपोर्टिंग के लिए उन्हें समय-समय पर देश के स्थापित संस्थानों द्वारा पुरस्कार और प्रोत्साहन मिलता रहा जिसमें इन्सटीट्यूट ऑफ जर्नलिज्म की ओर से यंग जर्नलिस्ट अवार्ड( 1997) भी शामिल है.
पत्रकारिता के अपने 24 साल के करियर में अल्का सक्सेना ने 9 साल प्रिंट माध्यम को दिया है और 14 साल से टेलीविजन के लिए अपनी सेवाएं देतीं आ रही हैं. इन्होंने 1998 में टेलीविजन पर पहली बार होनेवाले लाइव चुनावी शो-आपका फैसला,आजतक की 72 घंटे तक लगातार एंकरिंग की. खोजी पत्रकारिता और बेहतरीन स्टोरी के आधार पर इन्होंने करियर के शुरुआती दौर से ही पत्रकारिता को एक उंचाई तक लेने जाने की सफल कोशिश की औऱ समय-समय पर इसे लेकर एक मानक तैयार करती रहीं.
1995 से लेकर 2001 तक वो आजतक की कोर टीम में रहीं औऱ इस दौरान कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम बनाए,लांच किए. आजतक के लिए काम करते हुए इन छह सालों में कार्यक्रम बनाने और लांच करने के साथ-साथ उन्होंने इसके लिए एकरिंग भी की. चैनल की प्रोग्रामिंग हेड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने उन कार्यक्रमों की तरह ज्यादा ध्यान दिया जिसका सीधा सरोकार दर्शकों की अभिरुचि से था.
अल्का सक्सेना ने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत 1985 में रविवार, जो कि आनंद बाजार पत्रिका समूह की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका रही है,से की. 1989 में वो बतौर विशेष संवाददाता( स्पेशल कॉरसपॉडेंट) उन्होंने संडे ऑव्जर्वर ज्वायन किया और आतंकवाद से जूझ रहे पंजाब औऱ जम्मू-कश्मीर के मामलों को गहरायी से समझने की कोशिश की. इस मामले को लेकर की गयी रिपोर्टिंग, उनकी पत्रकारिता की समझ और स्पष्ट दृष्टिकोण को उजागर करता है. ये वही समय रहा जब अल्का सक्सेना सरीखे पत्रकारों ने तेजी से बदलनेवाले देश और समाज की नब्ज को जानने-समझने के लिए टेलीविजन की भूमिका को पहचाना और उस हिसाब से रणनीति तय की.
करियर के लिहाज से ये उनके लिए सही समय रहा जबकि खाड़ी युद्ध चल रहे थे जब उन्होंने प्रिंट मीडिया को छोड़कर टेलीविजन की दुनिया में अपना कदम रखा. आजतक की एक छोटी किन्तु मजबूत और कोर टीम के साथ उन्होंने जो काम शुरु किया,वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि सामाजिक बदलाव में पत्रकारिता औऱ मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है.
अल्का सक्सेना आजतक न्यूज चैनल के शुरुआती दौर के पत्रकारों में से रही हैं. दर्शकों के बीच उनकी अपनी एक अलग पहचान है. लाइव इंटरव्यू औऱ पैनल डिस्कशन में इनको महारत हासिल है. चुनाव से जुड़े कार्यक्रम हों या फिर राष्ट्रीय, अंतरर्राष्ट्रीय मसलों पर आधारित सामूहिक वार्ता, सबमें इनका प्रस्तुतीकरण शानदार रहता है. स्क्रीन पर प्रस्तुति और भाषाई प्रयोग के मामले में भी उनका अंदाज़ सबसे जुदा है जो उन्हें बाकी एंकरों से अलग करता है.
प्रभावशाली लेखन और रिपोर्टिंग के लिए उन्हें समय-समय पर देश के स्थापित संस्थानों द्वारा पुरस्कार और प्रोत्साहन मिलता रहा जिसमें इन्सटीट्यूट ऑफ जर्नलिज्म की ओर से यंग जर्नलिस्ट अवार्ड( 1997) भी शामिल है.
पत्रकारिता के अपने 24 साल के करियर में अल्का सक्सेना ने 9 साल प्रिंट माध्यम को दिया है और 14 साल से टेलीविजन के लिए अपनी सेवाएं देतीं आ रही हैं. इन्होंने 1998 में टेलीविजन पर पहली बार होनेवाले लाइव चुनावी शो-आपका फैसला,आजतक की 72 घंटे तक लगातार एंकरिंग की. खोजी पत्रकारिता और बेहतरीन स्टोरी के आधार पर इन्होंने करियर के शुरुआती दौर से ही पत्रकारिता को एक उंचाई तक लेने जाने की सफल कोशिश की औऱ समय-समय पर इसे लेकर एक मानक तैयार करती रहीं.
1995 से लेकर 2001 तक वो आजतक की कोर टीम में रहीं औऱ इस दौरान कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम बनाए,लांच किए. आजतक के लिए काम करते हुए इन छह सालों में कार्यक्रम बनाने और लांच करने के साथ-साथ उन्होंने इसके लिए एकरिंग भी की. चैनल की प्रोग्रामिंग हेड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने उन कार्यक्रमों की तरह ज्यादा ध्यान दिया जिसका सीधा सरोकार दर्शकों की अभिरुचि से था.
अल्का सक्सेना ने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत 1985 में रविवार, जो कि आनंद बाजार पत्रिका समूह की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका रही है,से की. 1989 में वो बतौर विशेष संवाददाता( स्पेशल कॉरसपॉडेंट) उन्होंने संडे ऑव्जर्वर ज्वायन किया और आतंकवाद से जूझ रहे पंजाब औऱ जम्मू-कश्मीर के मामलों को गहरायी से समझने की कोशिश की. इस मामले को लेकर की गयी रिपोर्टिंग, उनकी पत्रकारिता की समझ और स्पष्ट दृष्टिकोण को उजागर करता है. ये वही समय रहा जब अल्का सक्सेना सरीखे पत्रकारों ने तेजी से बदलनेवाले देश और समाज की नब्ज को जानने-समझने के लिए टेलीविजन की भूमिका को पहचाना और उस हिसाब से रणनीति तय की.
करियर के लिहाज से ये उनके लिए सही समय रहा जबकि खाड़ी युद्ध चल रहे थे जब उन्होंने प्रिंट मीडिया को छोड़कर टेलीविजन की दुनिया में अपना कदम रखा. आजतक की एक छोटी किन्तु मजबूत और कोर टीम के साथ उन्होंने जो काम शुरु किया,वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि सामाजिक बदलाव में पत्रकारिता औऱ मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है.
2001 में वो आजतक को छोड़कर जी न्यूज से जुड़ीं. जी न्यूज में प्रोग्रामिंग हेड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने उन कार्यक्रमों और मुद्दे की तरफ विशेष ध्यान दिया जिसका सीधा सरोकार दर्शकों की जरुरतों और अभिरुचि से रहे हों. उनके इस प्रयास के लिए टेली एवार्ड ने उन्हें प्रोग्रामिंग हेड ऑफ दि इयर(2003) से सम्मानित किया. जी न्यूज देश का पहला ऐसा चैनल है जिसे कि खोजी पत्रकारिता के संदर्भ में इंटरनेशनल न्यूयार्क फेस्टिबल की ओर से सम्मान हासिल है जिसमें की दुनिया के पच्चास देशों ने शिरकत किया. जी न्यूज को जिस कार्यक्रम के लिए सम्मान मिला उसका निर्देशन और एंकरिंग अल्का सक्सेना ने ही किया.
वर्तमान में अल्का सक्सेना ज़ी न्यूज़ की कंसल्टिंग एडीटर होने के साथ-साथ चैनल की प्राइम टाइम की एंकर भी हैं. ज़ी न्यूज़ के सामयिक मुद्दों पर आधारित चर्चित शो - जरा सोचिए की एंकरिंग भी करती हैं. उनसे उनके पत्रकारिता के सफरनामे पर मीडिया खबर.कॉम के सम्पादक पुष्कर पुष्प ने खास बातचीत की. पेश है बातचीत के आधार पर तैयार किये गए उनके पत्रकारिता के सफरनामें के मुख्य अंश :
वर्तमान में अल्का सक्सेना ज़ी न्यूज़ की कंसल्टिंग एडीटर होने के साथ-साथ चैनल की प्राइम टाइम की एंकर भी हैं. ज़ी न्यूज़ के सामयिक मुद्दों पर आधारित चर्चित शो - जरा सोचिए की एंकरिंग भी करती हैं. उनसे उनके पत्रकारिता के सफरनामे पर मीडिया खबर.कॉम के सम्पादक पुष्कर पुष्प ने खास बातचीत की. पेश है बातचीत के आधार पर तैयार किये गए उनके पत्रकारिता के सफरनामें के मुख्य अंश :
पत्रकारिता की शुरुआत :
मेरा पत्रकरिता के पेशे में आना कुछ हद तक इतेफाक था. क्योंकि मुझे पहला मौका अनजाने में मिला. मैं जब स्कूल/कालेज में पढ़ती थी तब पॉकेट मनी के लिए आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के लिए बच्चों पर आधारित कुछ प्रोग्राम करती थी. उन दिनों मैं 12 वीं क्लास में थी. इन कार्यक्रमों से पॉकेट मनी ठीक हो जाती थी. मेरे भाई उन दिनों थियेटर और ऐसी चीजों में सक्रिय थे. इसलिए मुझे पता रहता था कि कहाँ जाना है और किससे बात करनी है. इस वजह से मुझे जल्दी-जल्दी काम मिलने लगा. लेकिन ये सब करने के बावजूद यह मेरा प्रोफेशन बन जायेगा , ऐसा कभी सोंचा नहीं था. वैसे भी मैंने साईंस से ग्रेजुएशन किया है. मेरे परिवार में भी उस वक़्त पत्रकारिता से सम्बन्ध रखने वाला कोई नहीं था.
मैं जब पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी उस वक़्त मैं रविवार के लिए कॉलम लिखती थी. इसके अलावा उन दिनों जितने भी नेशनल डेली और वीकली होते थे उन सबमें लिखती थी. हिंदुस्तान, जनसत्ता, नवभारत, धर्म युग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, वामा, दिनमान सबमें मेरे लेख छपते थे. सबके लिए मैं फ्री लान्सिंग कर रही थी.
पहले तो यह पॉकेट मनी से शुरू हुआ. लेकिन उसके बाद कुछ विचार भी आने लगे कि इसपर लिखना चाहिए और उसी पर लिखती थी. संयोग से मेरे ज्यादातर लेख छप जाते थे. लेकिन तब भी मुझे नहीं पता था कि यह मेरा करियर बनेगा. उसके बाद इधर मेरा पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा हुआ और उधर रविवार में वैकेंसी निकली. उसमें कई लोगों को अप्लाई करने के लिए कहा गया. मैंने भी अप्लाई किया. लेकन अंतिम रूप से तीन लोगों का सेलेक्शन हुआ था. उन तीन में से एक मैं भी थी. हमलोगों को ट्रेनिंग के लिए कोलकाता भेजा गया था. फिर हमलोग कोलकात्ता गए. आनंद बाज़ार पत्रिका उन दिनों बहुत अधिक प्रतिष्ठित पत्रिका हुआ करती थी. एस.पी.सिंह, उदयन शर्मा, एम.जे.अकबर सब वही से निकले हैं. मेरे लिए गर्व की बात है कि मुझे पहला मौका ही ऐसे संस्थान में मिला जो बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित था. उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
रविवार में मेरे चयन के पीछे की कहानी :
मेरा पत्रकरिता के पेशे में आना कुछ हद तक इतेफाक था. क्योंकि मुझे पहला मौका अनजाने में मिला. मैं जब स्कूल/कालेज में पढ़ती थी तब पॉकेट मनी के लिए आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के लिए बच्चों पर आधारित कुछ प्रोग्राम करती थी. उन दिनों मैं 12 वीं क्लास में थी. इन कार्यक्रमों से पॉकेट मनी ठीक हो जाती थी. मेरे भाई उन दिनों थियेटर और ऐसी चीजों में सक्रिय थे. इसलिए मुझे पता रहता था कि कहाँ जाना है और किससे बात करनी है. इस वजह से मुझे जल्दी-जल्दी काम मिलने लगा. लेकिन ये सब करने के बावजूद यह मेरा प्रोफेशन बन जायेगा , ऐसा कभी सोंचा नहीं था. वैसे भी मैंने साईंस से ग्रेजुएशन किया है. मेरे परिवार में भी उस वक़्त पत्रकारिता से सम्बन्ध रखने वाला कोई नहीं था.
मैं जब पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी उस वक़्त मैं रविवार के लिए कॉलम लिखती थी. इसके अलावा उन दिनों जितने भी नेशनल डेली और वीकली होते थे उन सबमें लिखती थी. हिंदुस्तान, जनसत्ता, नवभारत, धर्म युग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, वामा, दिनमान सबमें मेरे लेख छपते थे. सबके लिए मैं फ्री लान्सिंग कर रही थी.
पहले तो यह पॉकेट मनी से शुरू हुआ. लेकिन उसके बाद कुछ विचार भी आने लगे कि इसपर लिखना चाहिए और उसी पर लिखती थी. संयोग से मेरे ज्यादातर लेख छप जाते थे. लेकिन तब भी मुझे नहीं पता था कि यह मेरा करियर बनेगा. उसके बाद इधर मेरा पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा हुआ और उधर रविवार में वैकेंसी निकली. उसमें कई लोगों को अप्लाई करने के लिए कहा गया. मैंने भी अप्लाई किया. लेकन अंतिम रूप से तीन लोगों का सेलेक्शन हुआ था. उन तीन में से एक मैं भी थी. हमलोगों को ट्रेनिंग के लिए कोलकाता भेजा गया था. फिर हमलोग कोलकात्ता गए. आनंद बाज़ार पत्रिका उन दिनों बहुत अधिक प्रतिष्ठित पत्रिका हुआ करती थी. एस.पी.सिंह, उदयन शर्मा, एम.जे.अकबर सब वही से निकले हैं. मेरे लिए गर्व की बात है कि मुझे पहला मौका ही ऐसे संस्थान में मिला जो बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित था. उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
रविवार में मेरे चयन के पीछे की कहानी :
रविवार में नौकरी मिलने के बहुत बाद में मेरा चयन कैसे हुआ. इस बारे में मुझे पता चला. दरअसल पत्रकारिता के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को देखकर मुझे लिया गया. मामला उस वक़्त का है जब मैं फ्रीलान्सिंग किया करती थी. उस वक़्त नजफगढ़ प्लांट में गैस रिसी थी . 4 दिसंबर 1985 की घटना है. भोपाल गैस कांड के ठीक एक साल बाद घटना घटी थी . मैं अपना कॉलम सबमिट करने के लिए रविवार के ऑफिस में आई थी. चूँकि मैं उन दिनों पढ़ भी रही थी तो अपना कॉलम सबमिट करती थी और चली जाती थी. उस समय पीटीआई बिल्डिंग में रविवार का ऑफिस हुआ करता था. मैं जब वहां से अपना कॉलम देकर वापस आ रही थी. तो गैलरी से इधर दो-तीन पीटीआई वाले लोगों को तेजी से उधर- इधर, आते - आते देखा. वहां पर मुझे सुदीप चटर्जी भी दिखे जो उन दिनों पीटीआई के सीनियर जर्नलिस्ट हुआ करते थे. उनसे मैं परिचित थी. मैंने उनसे पूछा की सुदीप दा कहां जा रहे हैं. तब उन्होंने गैस रिसने वाली बात बताई. तब मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे भी अपने साथ वे ले चलें. उन्होंने मुझे अपने साथ ले लिया. वहां पहुंचकर मैं काफी अंदर तक घुस गयी. उन दिनों किसी एंगल से मैं जर्नलिस्ट नहीं लगती थी. दो चोटी और कालेज वाली बैग लटकाए किसी ने मुझे जर्नलिस्ट नहीं समझा. इसलिए आसानी से मैं उस जगह तक पहुँच गयी जहाँ पर गैस रिस रहा था. गैस की वजह से मुझे थोड़ी तकलीफ भी हो रही थी. खांसी भी हो रही थी. खैर वहां पर जब मै पहुंची तब मैंने कुछ लोगों को बात करते हुए सुना कि बाहर आकर कैसे मीडिया को प्लान करना है. मैंने जल्दी- जल्दी कुछ चीजें नोट कर ली. उसके बाद मैं पीटीआई बिल्डिंग में वापिस आ गयी. मैंने उस पूरे वाक्ये के बारे में लिखा और लिखने के बाद उदयन शर्मा से बात की और उसे छपने के लिए भेज दिया. उन दिनों टेलीग्राफ के माध्यम से ख़बरें भेजी जाती थी. संयोग से वो छप भी गया. रविवार में जब मेरा चयन हो गया और दो -तीन महीने बीत गए तब मुझे पता चला कि मेरे चयन के पीछे उस घटना की बहुत बड़ी भूमिका रही. सभी लोगों को लगा कि यह तो हमारी स्टाफर भी नहीं है. कॉलम सबमिट करके वह वापिस जा सकती थी. इस घटना से उसका कोई लेना-देना नहीं था. उसके बावजूद उसने घटना में अभिरुचि दिखाकर उसकी रिपोर्ट तैयार की. इसका मतलब कही -न - कहीं उसमें जर्नलिज्म वाली स्पार्क है. इस तरह से मेरे पत्रकरिता के सफरनामे की शुरुआत हुई.
पुरस्कार के वो 50रुपये और अखबार में मेरा नाम :
मैं जब स्कूल में थी तब डिबेट कम्पीटीशन में भाग लिया करती थी. उस वक़्त सातवीं क्लास में थी. तब डिबेट कम्पीटीशन के जूनियर विंग में मुझे पहला पुरुस्कार मिला. मुझे अब भी याद है वह पुरस्का मुझे फतेहचन्द्र शर्मा अराधक ने दिया, जो उन दिनों नवभारत टाईम्स में हुआ करते थे . हालाँकि दुबारा उनसे मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई लेकिन पुरस्कार देते वक़्त उन्होंने जो बात कही वह मुझे अभीतक याद है. उन्होंने मुझे गोद में लेते हुए कहा कि यदि मेरा वश चलता तो जूनियर और सीनियर विंग दोनों में इस बच्ची को मैं पहला पुरस्कार देता. और उन्होंने 50 रुपये जेब से निकालकर मुझे दिया. उस वक़्त उस 50 रुपये का बहुत महत्त्व था. लेकिन उससे भी बड़ी बात हुई कि अगले दिन पुरस्कार समारोह की एक छोटी सी खबर अखबार में छप कर आ गयी जिसे मेरे पापा ने पढ़कर सुनाया. मुझे बड़ी हैरानी हुई और मैंने पूछा कि जबलपुर वाली मामी जी ने भी यह खबर पढ़ ली होगी. नवभारत टाइम्स उनके वहां भी आता होगा. और तब तो बुआ जी ने भी पढ़ लिया होगा. मेरी माँ ने कहा हाँ सबने देख लिया होगा. मेरे लिए यह बिलकुल हैरान और चमत्कृत करने वाली घटना थी. मुझे लगा वह कितना महत्वपूर्ण आदमी था जिसने लिख दिया और उसे मेरे सब रिश्तेदार पढ़ पा रहे हैं. इस घटना का मुझपर कहीं-न-कहीं असर पड़ा.
बेटे की देखभाल लिए नौकरी छोडनी पड़ी :
मैं 1985 से 1991 तक प्रिंट में ही रही. उसके बाद मैंने फ्रीलांस किया. 1991 में मैंने जब नौकरी छोड़ी उस वक़्त मैं संडे आब्जर्बर में बतौर विशेष संवाददाता थी. मैंने जब पत्रकारिता की रेगुलर जॉब को छोड़ा तो मुझे खुद भी बड़ी हैरानी हुई. दूसरे लोगों को हैरानी हुई क्योंकि उनको लगता था कि मैं अपने करियर के प्रति बड़ी सजग हूँ. मुझे भी खुद भी ऐसा लगता था. पत्रकारिता को लेकर एक पैशन हुआ करता था. सिर्फ जर्नलिज्म के बारे में सोंचती थी. मैंने शादी भी एक पत्रकार से की थी. 1991 में बेटा हो गया. उसके होने के बाद जब मैंने दूबारा ज्वाइन किया तो मैं एक हफ्ते भी काम नहीं कर पाई. मैंने पाया कि मैं बिलकुल बदल गयी हूँ. मैं अपने बेटे को छोड़कर नहीं जा पा रही थी. ऑफिस पहुंचकर मन करता था वापस लौट जाऊं और ऐसा हुआ. उस एक हफ्ते के दौरान मैं कई दिन ऑफिस आई और दो घंटे में घर वापस लौट गयी. तब मुझे लगा कि मैं न्याय नहीं कर पाऊँगी और मैंने नौकरी छोड़ दिया . तब मुझे ये नहीं पता था कि मैं वापस कैसे आउंगी. सब लोगों ने मुझे समझया कि बड़ी गलती कर रही हो. तुम्हारा करियर इतना अच्छा जा रहा है. क्यों अचानक जा रही हो ? मैंने उस वक़्त यही कहा कि मैं कोशिश भी कर रही हूँ लेकिन मैं अपने आप को नहीं रोक पा रही हूँ. मैं उसके बिना नहीं रह पा रही हूँ. उसको मैं क्रेच में नहीं छोड़ सकती. इस तरह से मैंने नौकरी छोड़ दी. लेकिन फ्रीलान्सिंग करती रही.
टेलीविजन इंडस्ट्री में काम करने का मौका :
भारत में उस समय कोई न्यूज़ चैनल नहीं था. उस वक़्त कोई यह नहीं सोंचता था कि टेलीविजन पत्रकारिता भी कोई चीज होगी. हिंदुस्तान में न्यूज़ चैनल होंगे. दूरदर्शन में चित्रहार और रेडियो में बिनाका गीत माला जैसे लोकप्रिय प्रोग्राम थे. दूरदर्शन पर भी न्यूज़ के दो या तीन बुलेटिन हुआ करते थे. और वो भी लोग स्पोट पर नहीं जाते थे. बस ऐसे ही पढ़ दिया करते थे. उस वक़्त मैं फ्रीलासिंग कर रही थी . पार्ट टाइम ही काम कर सकती थी. बच्चे के साथ रहना चाहती थी. तभी मुझे कई ऐसे ऑफर आये जिसमें डाक्यूमेंट्री के लिए स्क्रिप्ट लिखने के लिए कहा गया. तब मैंने वो काम भी शुरू किया. डाक्यूमेंट्री को लेकर मुझे दिलचस्पी थी और डाक्यूमेंट्री कैसे बनती है वह जानने की उत्सुकता थी. इसी उत्सुकतावश मैं कई बार स्क्रिप्ट लेकर डाक्यूमेंट्री शूट हो रही जगह पर भी पहुँच जाती थी. इससे मुझे कई तकनीकी जानकारी मिली. मसलन फोकस कैसे करते हैं, कलर बार क्या होता है , पैन का मतलब क्या होता है. उस वक़्त कोई कोर्स नहीं होता था. उसके बाद मेरी दिलचस्पी और अधिक बढती चली गयी. लेकिन तब भी टेलीविजन में आने के बारे में कभी नहीं सोंचा. क्यूंकि ऐसा बिलकुल अंदाज़ा ही नहीं था कि भारत में टेलीविजन की कोई इंडस्ट्री भी होगी. उसी समय आईटीवी, न्यूज़ और करेंट अफेयर्स पर आधारित कोई प्रोग्राम दूरदर्शन के लिए बना रहा था. उसमें मुझे 13 एपिसोड के लिए काम करने का कांट्रेक्ट मिला. यह 1994 की बात है. उसके बाद मेरे पास न्यूज़ ट्रैक (टीवी टुडे) की तरफ ऑफर आया. मैंने इंटरव्यू दिया और 17 मई 1995 को ज्वाइन कर लिया. लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि प्रतिदिन कोई न्यूज़ पर आधारित कार्यक्रम होगा. उसी समय एक और कार्यक्रम को मंजूरी मिली जिसका नाम आजतक पड़ा.
न्यूज़ ट्रैक काफी पहले से चल रहा था. खास हिंदी के लिए जो लोग आये थे उनमें अजय चौधरी, मैं , दीपक , मृत्यंजय कुमार झा और नकवी जी आये. बाद में एस.पी.भी आये. उन्होंने जून में ज्वाइन किया था. एस.पी आये तो हिंदी इंडिया टुडे के लिए थे लेकिन फिर अरुण पुरी ने बताया कि बच्चों ने ऐसे-ऐसे किया था और वो क्लियर हो गया है तो पहले आप इसको देख लीजिये. उसका लॉन्च अभी हम टाल देते हैं. लेकिन उसका लॉन्च कभी हुआ ही नहीं और आजतक ही प्रमुख कार्यक्रम बन गया. वैसे एस.पी के आने के पहले से आजतक का ट्रायल रन चल रहा था. उसके बाद और भी लोग जुड़ते चले गए. आजतक में 2001 तक काम किया. फिर जी न्यूज़ में आ गयी. 2005 में मैंने कंसल्टेंट एडिटर के तौर पर जनमत में ज्वाइन किया. तक़रीबन दो साल बाद फिर जी न्यूज़ वापस आ गयी.
आजतक छोड़ने की वजह :
मैंने जब आजतक छोड़ा तब आजतक नंबर एक चैनल हुआ करता था. लेकिन मेरे छोड़ने की कोई खास वजह नहीं रही. मेरे अलावा भी कई और लोगों ने आजतक को छोड़ा. नकवी जी, संजय पुगलिया और दिबांग ने भी आजतक छोड़ा. काफी बाद में आशुतोष और कई और लोगों ने भी आजतक छोड़ा. मुझे लगता है कि एक ही संस्थान में लम्बे समय तक काम करने के बाद एक स्थिरता आ जाती है. यदि आप लम्बे समय तक रह जाते हैं तो कंपनी भी आपको उतना वैल्यू नहीं देती है. कंपनी की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है. ऐसे में बेहतर यही होता है आगे की तरफ का रुख किया जाए. मैंने भी इसलिए आगे बढ़ना ही ज्यादा उचित समझा और उसका मुझे कोई गिला नहीं है.
टेलीविजन एंकर बनूँगी ऐसा कभी सोंचा भी नहीं था :
मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं कभी कैमरे पर आ सकती हूँ. जर्नलिज्म में आने के बाद से ही मैं लगातार रिपोर्टिंग ही करती थी. इलेक्ट्रानिक मीडिया में आने के बाद भी रिपोर्टिंग ही कर रही थी. उन दिनों कार्यक्रम तैयार करके दूरदर्शन में भेजा जाता था. लेकिन एक दफे एस.पी की तबियत काफी ख़राब थी. इसी कारण वे बुलेटिन करने के लिए नहीं आ सकते थे. उस वक़्त तक सिर्फ वही एंकरिंग किया करते थे. अब समस्या आ गयी कि आज शाम का बुलेटिन कौन करेगा. प्रोग्राम तो जाना ही है. ऐसी परिस्थिति भी आ सकती है ऐसा तब तक किसी ने सोंचा भी नहीं था. अभी प्रोग्राम निकलते हुए चार महीने ही हुए थे.
अब समस्या खड़ी हो गयी कि क्या किया जाए. तब यही समाधान निकाला गया कि किसी और से बुलेटिन पढ़वा लिया जाए और उसे ही भेज दिया जाये. लेकिन दूरदर्शन ने कहा नहीं पहले हम अप्रूव करेंगे. फिर आप उससे बुलेटिन करवा सकते हैं. तब मधु त्रैहन ने मुझे और दो -तीन लोगों को न्यूज़ पढने के लिए कहा. उस वक़्त बड़ी घबराहट हुई. इस तरह से कभी हमलोगों ने न्यूज़ नहीं पढ़ा था. उन दिनों टेलीप्रोमटर भी नहीं होते थे. इसलिए न्यूज़ पढने में दिक्कत आ रही थी. हालाँकि फील्ड में हमलोग पीटूसी करते थे. लेकिन वो एक अलग बात होती थी. यहाँ मामला अलग था. मुझे बुलेटिन पढने के लिए बैठाया गया तब मैं जरूरत से कुछ ज्यादा ही अपने आप को लेकर सजग थी. मुझे याद है पीसीआर में अरूण पुरी भी मौजूद थे. मुझे न्यूज़ पढने के लिए कहा गया. उस वक़्त लगता था कि गला सूख रहा है. ऐसा जब कई बार हुआ. तब सब लोगों ने आपस में विचार करके मुझसे कहा कि अच्छा चलो पहले प्रैक्टिस करो. ऐसा तीन - चार बार करवाया गया. बाद में उसी को दूरदर्शन के पास भेज दिया गया. मेरे अलावा दो-तीन लोगों के टेप भेजे गए थे. अंतिम रूप से मेरा और मृत्यंजय का चयन हुआ. फिर हमलोगों को बारी-बारी से मौका मिलने लग गया. तब यह निश्चित कर दिया गया कि शनिवार को एस.पी बुलेटिन नहीं किया करेंगे. एक शनिवार मैं करुँगी और दूसरे शनिवार मृत्यंजय. ऐसे शुरू हुई एंकरिंग. उसके बाद आजतक के जितने भी प्रोग्राम उस वक़्त लॉन्च हुए उसको मैंने एंकर किया. सुबह आजतक को मैंने एंकर किया. आजतक के पहले बहस वाले प्रोग्राम को न मैंने एंकर किया बल्कि उसको प्रोड्यूस भी किया. पहला लाइव इलेक्शन में भी मैंने एंकरिंग की. हालाँकि दूसरे में दिबांग और आशुतोष भी आ गए थे. इस तरह एंकरिंग की शुरुआत भी अचानक ही बिना सोंचे-समझे हो गयी.
टेलीविजन इंडस्ट्री में बदलाव :
टेलीवजन इंडस्ट्री में तकनीकी रूप से काफी बदलाव हुआ है. तकनीक के मामले में काफी विकास हुआ है. लेकिन उस गति से ह्यूमन रिसर्च की वैल्यू नहीं बढ़ी. हालाँकि कई बार लगता है कि अब उसकी जरूरत भी नहीं रह गयी है. मुझे अब भी बखूबी याद है कि जब हमने पहला इलेक्शन कवर किया था. उसके पहले एक महीने तक सीपीसी (सेन्ट्रल प्रोड्क्शन सेंटर) गए जहाँ इलेक्शन से सम्बंधित रोजाना बाकायदा हमारी क्लास होती थी. मेरा अलावा, प्रभु चावला, वीर सांघवी, करण थापर, संजय पुगलिया, मृत्युंजय झा, योगेन्द्र यादव, प्रो.आनंद कुमार, तवलीन कोई दस-ग्यारह लोग थे.
उस वक़्त हम ऑफिस नहीं जाते थे. सीधे सीपीसी जाते थे. एक महीने तक हमारी क्लास हुई थी. वोट पैट्रन, जातीय समीकरण, भौगोलिक परिस्थिति छोटी - छोटी सी बात की जानकारी हमने हासिल की थी. हमने बाकायदा नोट्स बनाये थे. 1999 के इलेक्शन में वह नोट्स काम आये. इतना अधिक पढ़ा जिसका कोई हिसाब नहीं. कालेज एक्जाम के तर्ज पर हमने इलेक्शन से संबधित पढाई की. लेकिन अब कोई मूर्ख ही होगा जो इतना पढ़ेगा. अब तो दोपहर तक मामला ही साफ़ हो जाता है. अब पहले की तरह उतनी ज्यादा जानकारी देने का समय ही नहीं मिलता. 1998 में हमने इलेक्शन कवरेज 72 घंटों का किया था. अब तो मामला सात - आठ घंटे में पूरी तरह से साफ हो जाता है. अब सबकुछ इतनी तेजी से होता है कि डिस्कशन के लिए उतना समय ही नहीं होता. तकनीक के मामले में इतनी अधिक प्रगति हुई है कि पलक झपकते ही आप स्पोट पर पहुँच जाते है. यह सब अपने आप में अद्भूत है और दर्शकों के लिए मैं बहुत खुश हूँ. लेकिन सच मानिये ऐसी तकनीक की हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी.
महिला पत्रकारों की स्थिति में सुधार :
मैं चुकी पहले से ही पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय थी. इसलिए आजतक में मैंने स्पेशल कारसपोंडेन्ट के तौर पर ही ज्वाइन किया. मेरे बाद अंजू पंकज आई. अंजू के एक साल बाद नगमा बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट आई. फिर सिक्ता आई. ऐसी ही कई और लड़कियां ट्रेनी और इन्टर्न के तौर पर आजतक से जुडी. लेकिन उस वक़्त महिला पत्रकारों कि संख्या बहुत कम थी. उस परिप्रेक्ष्य में आज इंडस्ट्री में महिला पत्रकारों की संख्या देखकर प्रसन्नता होती है. बहुत बदलाव आया है और स्थित बेहतर हुई है. महिलाओं को भी महत्त्वपूर्ण काम दिए जा रहे हैं. लेकिन अभी भी सुधार की काफी गुंजाईश है.
महिला पत्रकारों के लिए घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बैठाने की चुनौती :
मेरा मानना है कि एक महिला जो कामकाज के लिए बाहर निकली है वह पहले से ही इतनी जुझारू होती है कि सबकुछ मैनेज कर लेती है. 10 से 5बजे तक की नौकरी करने के बावजूद महिला घर में आते ही रसोई घर में घुस जाती है. सब्जी काटने लग जाती है. क्या कोई पुरुष ऐसा कर सकता है. महिलाओं के ऊपर डे-टू-डे की जिम्मदारी होती. लेकिन महिलाओं में ऐसी आंतरिक शक्ति होती है कि वह सबकुछ संभाल लेती है . फिर महिलाओं को शुरू से ऐसा परिवेश भी दिया जाता है जिससे उनके अंदर ये सब करने की मानसिक प्रतिबद्धता आ जाती है. मुझे ही देखिये. इतने सालों से नौकरी कर रही हूँ और घर - परिवार भी देख रही हूँ और ईश्वर की दया से सब ठीक है. हमसब खुश हैं. हाँ यह जरूर है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के सामने चुनौतियाँ ज्यादा होती है.
सबसे चुनौतीपूर्ण एंकरिंग :
एंकरिंग और रिपोर्टिंग के दौरान कई ऐसी घटनाएँ घटी है जो मुझे अबतक याद है. उस विषय पर एंकरिंग करना या रिपोर्टिंग करना बेहद चुनौतीपूर्ण था. लेकिन बहुत पीछे न जाते हुए मैं ज़ी न्यूज़ में रहते हुए गुड़िया वाले मामले का जिक्र करना चाहूंगी. उसकी छोटी सी कहानी थी कि गुड़िया नाम की एक लड़की की शादी एक फौजी से होती है जो बाद में फौज के द्वारा लापता घोषित कर दिया जाता है. सात साल तक जब उसकी कोई खबर नहीं मिलती है तो मान लिया जाता है की वह नहीं रहा. लेकिन बाद में वह वापस सही-सलामत आ जाता है. इस बीच वह पकिस्तान के जेल में था जहाँ से बाद में छूट कर भारत वापस आ गया. लेकिन इस बीच में गुड़िया की शादी फौजी के चचेरे भाई से हो जाती है . और वह गर्भवती भी हो जाती है. अब उसको लेकर जो हंगामा हुआ और उसके बाद ज़ी में जैसा प्रोग्राम हुआ उसमें मुझे एंकर की अपनी भूमिका निभानी पड़ी. वह कार्यक्रम दो दिन चला. वह इतना कठिन प्रोग्राम था कि उसको याद करके अब भी रोंगटे खड़े हो जाते है. क्योंकि यह पूरा एरिया कई संस्थानों ने घेर लिया था मुस्लिम धर्म से जुड़ा मामला था. पूरा मामला बेहद पेंचीदा था. चुकी गुड़िया की दूसरी शादी हुई तो यह मानकर कि उसका पहला पति दुनिया में नहीं उससे अलग होने की कोई प्रक्रिया नहीं हुई. उस हिसाब से यह दूसरी शादी को कोई मान्यता नहीं. उस हिसाब से गुड़िया के पेट में पल रहा बच्चा का क्या होगा ? पूरा मामला बिलकुल उलझा हुआ था. उसको करने की प्रक्रिया में हमपर कई इल्जाम भी लगे .
व्यक्तिगत रूप से कार्यक्रम को पेश करना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी. मुझे लग रहा था कि मेरे मुंह से एक गलत लब्ज बहुत बड़ा हंगामा खड़ा हो सकता था. चैनल का नाम ख़राब होता और मेरे करियर पर असर पड़ता सो अलग. पूरा कार्यक्रम जब हो गया तब मैंने कहा कि पता नहीं मैंने ये कैसे किया.? मुझे खुद इसका पता नहीं था. मुझे लगता है कि ऊपर की कोई शक्ति थी जिसने मुझसे सब ठीक करवाया. लेकिन मुझे याद है वो समय बेहद तनावपूर्ण था. एक ही मामले में शादी , बच्चा, फौज, धर्म कई विषय एक साथ थे. ऊपर से मैं हिन्दू धर्म से थी और वहां कुरान की आयतें पढ़ी जा रही थी. ऐसे में मेरे मुंह से निकला एक गलत लफ्ज़ कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर सकता था, उसके बारे में अंदाज़ा लगाकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इसलिए उस कार्यक्रम की सफलता का श्रेय मैं खुद लेती भी नहीं. मुझे लगता है कि कोई ऐसी अनजान ताकत थी जो यह देख रही थी कि मैं बड़े सच्चे मन से ये सब कर रही हूँ इसलिए इसे सफलता मिलनी चाहिए.
मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण थी गुड़िया की चाहत. गुड़िया क्या चाहती है ? किसके साथ रहना चाहती है ? वह बच्चे के साथ ज्यादा खुश किसके साथ रह पाएगी. इसलिए उसे बचाने के लिए मैंने अपने ऊपर कई इल्जाम लिए. उसे इन सब से बचाया.
बहस जब ख़त्म हुई तो बाहर चैनल में भी सबके चेहरे लाल थे. सब यही देख रहे थे कि न जाने क्या होने वाला है. यहाँ तक कि लक्ष्मी जी जो डायरेक्टर हैं वो भी बैचेन थे. उस कार्यक्रम के बाद मेरे पास ढेरों मैसेज आये. खुद प्रणव रॉय ने लक्ष्मी जी के पास मैसेज भेजा जिसे उन्होंने मुझे फॉरवर्ड किया. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद भी एक - दो दिन मुझे सहज होने में लगे. इसे मैं कभी भूल नहीं सकती.
व्यक्तिगत रूप से कार्यक्रम को पेश करना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी. मुझे लग रहा था कि मेरे मुंह से एक गलत लब्ज बहुत बड़ा हंगामा खड़ा हो सकता था. चैनल का नाम ख़राब होता और मेरे करियर पर असर पड़ता सो अलग. पूरा कार्यक्रम जब हो गया तब मैंने कहा कि पता नहीं मैंने ये कैसे किया.? मुझे खुद इसका पता नहीं था. मुझे लगता है कि ऊपर की कोई शक्ति थी जिसने मुझसे सब ठीक करवाया. लेकिन मुझे याद है वो समय बेहद तनावपूर्ण था. एक ही मामले में शादी , बच्चा, फौज, धर्म कई विषय एक साथ थे. ऊपर से मैं हिन्दू धर्म से थी और वहां कुरान की आयतें पढ़ी जा रही थी. ऐसे में मेरे मुंह से निकला एक गलत लफ्ज़ कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर सकता था, उसके बारे में अंदाज़ा लगाकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इसलिए उस कार्यक्रम की सफलता का श्रेय मैं खुद लेती भी नहीं. मुझे लगता है कि कोई ऐसी अनजान ताकत थी जो यह देख रही थी कि मैं बड़े सच्चे मन से ये सब कर रही हूँ इसलिए इसे सफलता मिलनी चाहिए.
मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण थी गुड़िया की चाहत. गुड़िया क्या चाहती है ? किसके साथ रहना चाहती है ? वह बच्चे के साथ ज्यादा खुश किसके साथ रह पाएगी. इसलिए उसे बचाने के लिए मैंने अपने ऊपर कई इल्जाम लिए. उसे इन सब से बचाया.
बहस जब ख़त्म हुई तो बाहर चैनल में भी सबके चेहरे लाल थे. सब यही देख रहे थे कि न जाने क्या होने वाला है. यहाँ तक कि लक्ष्मी जी जो डायरेक्टर हैं वो भी बैचेन थे. उस कार्यक्रम के बाद मेरे पास ढेरों मैसेज आये. खुद प्रणव रॉय ने लक्ष्मी जी के पास मैसेज भेजा जिसे उन्होंने मुझे फॉरवर्ड किया. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद भी एक - दो दिन मुझे सहज होने में लगे. इसे मैं कभी भूल नहीं सकती.
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चिप्पियाँ Labels:
alka saxena,
hindi anchor,
interview
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
हैप्पी होली
लगाते हो जो मुझे हरा रंग
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि, तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में।
देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर
सब छूट जाते हैं, झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में।
-विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि, तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में।
देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर
सब छूट जाते हैं, झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में।
-विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
नवगीत: रंगों का नव पर्व बसंती ---संजीव सलिल
नवगीत:
रंगों का नव पर्व बसंती
*
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
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संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
बाल कल्याण संस्थान खटीमा द्वारा आयोजित इण्डो नेपाल बाल साहित्तकार सम्मेलन , दिनांक २० , २१ फरवरी २०१० को संपन्न हुआ .

मां पूर्णागिरि की छांव में , नेपाल की सरहद के पास ,हिमालय की तराई .. खटीमा , उत्तराखण्ड ...खटीमा फाइबर्स की रिसाइकल्ड पेपर फैक्ट्री का मनमोहक परिवेश ... आयोजको का प्रेमिल आत्मीय व्यवहार ...बाल कल्याण संस्थान खटीमा द्वारा आयोजित इण्डो नेपाल बाल साहित्तकार सम्मेलन , दिनांक २० , २१ फरवरी २०१० को संपन्न हुआ .
कानपुर में एक बच्चे ने स्कूल में अपने साथी को गोली मार दी ... बच्चो को हम क्या संस्कार दे पा रहे हैं ? क्या दिये जाने चाहिये ? बाल साहित्य की क्या भूमिका है , क्या चुनौतियां है ? इन सब विषयो पर गहन संवाद हुआ . दो देशो , १४ राज्यो के ६० से अधिक साहित्यकार जुटें और काव्य गोष्ठी न हो , ऐसा भला कैसे संभव है ... रात्रि में २ बजे तक कविता पाठ हुआ .. जो दूसरे दिन के कार्यक्रमों में भी जारी रहा ..

९४ वर्षीय बाल कल्याण संस्थान खटीमा के अध्यक्ष आनन्द प्रकाश रस्तोगी की सतत सक्रियता , साहित्य प्रेम , व आवाभगत से हम सब प्रभावित रहे .. ईश्वर उन्हें चिरायु , स्वस्थ रखे . अन्त में आगत रचनाकारो को सम्मानित भी किया गया ..उत्तराखण्ड के मुख्य सूचना आयुक्त डा आर एस टोलिया जी ने कार्यक्रम का मुख्य आतिथ्य स्वीकार किया
रचनाकारो ने परस्पर किताबो, पत्रिकाओ , रचनाओ ,विचारो का आदान प्रदान किया
कुमायनी होली .. का आगाज ..स्थानीय डा. जोशी के निवास पर ..हम रचनाकारो के साथ ..
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
गीत : सबको हक है जीने का --संजीव 'सलिल'
गीत :
संजीव 'सलिल'
सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.
जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
*
कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.
तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
*
तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.
ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
******
संजीव 'सलिल'
सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.
जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
*
कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.
तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
*
तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.
ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
******
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010
भाषा,लिपि और व्याकरण :
भाषा,लिपि और व्याकरण
"भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से हम सोचते है तथा अपने विचारों को व्यक्त करते है। "
मनुष्य ,अपने भावों तथा विचारों को दो प्रकार ,से प्रकट करता है-
१.बोलकर (मौखिक )
२. लिखकर (लिखित)
१.वर्ण -विचार :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
२.शब्द -विचार :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।
३.वाक्य -विचार:- इसमे वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।
मनुष्य ,अपने भावों तथा विचारों को दो प्रकार ,से प्रकट करता है-
१.बोलकर (मौखिक )
२. लिखकर (लिखित)
१.मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या मनोभावों को बोलकर प्रकट करते है। मौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता सामने हो। इस माध्यम का प्रयोग फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि में अधिक होता है।
२.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं मनोभावों का आदान-प्रदान किया जाता है। लिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता है। पुस्तकें इसी माध्यम में लिखी जाती है।
भाषा और बोली :- भाषा ,जब कोई किसी बड़े भू-भाग में बोली जाने लगती है,तो उसका क्षेत्रीय भाषा विकसित होने लगता है। इसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते है। कोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती है। जब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति अनिवार्य होती है। कालांतर में ,यही लोकभाषा परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है। आज जो हिन्दी हम बोलते है या लिखते है ,वह खड़ी बोली है, इसके पूर्व अवधी,ब्रज ,मैथिली आदि बोलियाँ भी साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो चुकी है। (हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में यहाँ देखें। )
हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :- संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती है। जैसे -अंग्रेजी,रुसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदि। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती है । जैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु आदि। हिन्दी भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाती है। हिन्दी भाषा को संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया है।
लिपि:- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है -लिखित या चित्रित करना । ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती है। प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती है। हिन्दी की लिपि देवनागरी है। हिन्दी के अलावा -संस्कृत ,मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती है।
व्याकरण :- व्याकरण वह विधा है,जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना या लिखना जाना जाता है। व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करते है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देता है। इस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का व्याकरण भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है। व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
१.वर्ण -विचार :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
२.शब्द -विचार :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।
३.वाक्य -विचार:- इसमे वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।
aabhaar : hindi kunj
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सामाजिक प्रश्न: एक चिंतन ---आचार्य संजीव 'सलिल'
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते हैं.
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते.
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अल्ल 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे थे .
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
पठनीय रचना: शब्द मेरे हैं -प्रतिभा सक्सेना
शब्द मेरे हैं
अर्थ मैंने ही दिये ये शब्द मेरे हैं !
व्यक्ति औ अभिव्यक्ति को एकात्म करते जो ,
यों कि मेरे आत्म का प्रतिरूप धरते हों !
स्वरित मेरे स्वत्व के
मुखरित बसेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
स्वयं वाणी का कलामय तंत्र अभिमंत्रित,
लग रहा ये प्राण ही शब्दित हुये मुखरित,
सृष्टि के संवेदनों की चित्र-लिपि धारे
सहज ही सौंदर्य के वरदान से मंडित !
शाम है विश्राममय
मुखरित सबेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
बाँसुरी ,उर-तंत्र में झंकार भरती जो ,
अतीन्द्रिय अनुभूति बन गुंजार करती जो
निराकार प्रकार को साकार करते जो
मनोमय हर कोश के
सकुशल चितेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
व्याप्ति है 'मैं' की जहाँ तक विश्व- दर्पण में ,
प्राप्ति है जितनी कि निजता के समर्पण में
भूमिका धारे वहन की अर्थ-तत्वों के,
अंजली भर -भर दिशाओं ने बिखेरे हैं !
*
पूर्णता पाकर अहेतुक प्रेम से लहरिल
मनःवीणा ने अमल स्वर ये बिखेरे हैं !
ध्वनि समुच्चय ही न
इनके अर्थ गहरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
साभार: ईकविता
++++++++++++++
अर्थ मैंने ही दिये ये शब्द मेरे हैं !
व्यक्ति औ अभिव्यक्ति को एकात्म करते जो ,
यों कि मेरे आत्म का प्रतिरूप धरते हों !
स्वरित मेरे स्वत्व के
मुखरित बसेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
स्वयं वाणी का कलामय तंत्र अभिमंत्रित,
लग रहा ये प्राण ही शब्दित हुये मुखरित,
सृष्टि के संवेदनों की चित्र-लिपि धारे
सहज ही सौंदर्य के वरदान से मंडित !
शाम है विश्राममय
मुखरित सबेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
बाँसुरी ,उर-तंत्र में झंकार भरती जो ,
अतीन्द्रिय अनुभूति बन गुंजार करती जो
निराकार प्रकार को साकार करते जो
मनोमय हर कोश के
सकुशल चितेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
व्याप्ति है 'मैं' की जहाँ तक विश्व- दर्पण में ,
प्राप्ति है जितनी कि निजता के समर्पण में
भूमिका धारे वहन की अर्थ-तत्वों के,
अंजली भर -भर दिशाओं ने बिखेरे हैं !
*
पूर्णता पाकर अहेतुक प्रेम से लहरिल
मनःवीणा ने अमल स्वर ये बिखेरे हैं !
ध्वनि समुच्चय ही न
इनके अर्थ गहरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
साभार: ईकविता
++++++++++++++
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
दोहे चुनाव सुधार के : --संजीव 'सलिल'
दोहे चुनाव सुधार के :
संजीव 'सलिल'
बिन प्रचार के हों अगर, नूतन आम चुनाव.
भ्रष्टाचार मिटे 'सलिल', तनिक न हो दुर्भाव.
दल का दलदल ख़त्म हो, कोई न करे प्रचार.
सब प्रतिनिधि मिलकर गढ़ें, राष्ट्रीय सरकार.
मतदाता चाहे जिसे, लिखकर उसका नाम.
मतपेटी में डाल दे, प्रतिनिधि हो निष्काम..
भाषा भूषा प्रान्त औ' मजहब की तकरार.
बाँट रही है देश को, जनता है बेज़ार..
समय सम्पदा श्रम बचे, प्रतिनिधि होंगे श्रेष्ठ.
लोग उसी को चुनेंगे, जो सद्गुण में ज्येष्ठ..
संसद में सरकार संग, रहें समर्थक पक्ष.
कहीं विरोधी हो नहीं, दें सब शासन दक्ष..
सुलझा लें असद्भाव से, जब भी हों मतभेद.
'सलिल' सभी कोशिश करें, हो न सके मनभेद..
सब जन प्रतिनिधि हों एक तो, जग पाए सन्देश.
भारत से डरकर रहो, तभी कुशल हो शेष..
*****************************************
संजीव 'सलिल'
बिन प्रचार के हों अगर, नूतन आम चुनाव.
भ्रष्टाचार मिटे 'सलिल', तनिक न हो दुर्भाव.
दल का दलदल ख़त्म हो, कोई न करे प्रचार.
सब प्रतिनिधि मिलकर गढ़ें, राष्ट्रीय सरकार.
मतदाता चाहे जिसे, लिखकर उसका नाम.
मतपेटी में डाल दे, प्रतिनिधि हो निष्काम..
भाषा भूषा प्रान्त औ' मजहब की तकरार.
बाँट रही है देश को, जनता है बेज़ार..
समय सम्पदा श्रम बचे, प्रतिनिधि होंगे श्रेष्ठ.
लोग उसी को चुनेंगे, जो सद्गुण में ज्येष्ठ..
संसद में सरकार संग, रहें समर्थक पक्ष.
कहीं विरोधी हो नहीं, दें सब शासन दक्ष..
सुलझा लें असद्भाव से, जब भी हों मतभेद.
'सलिल' सभी कोशिश करें, हो न सके मनभेद..
सब जन प्रतिनिधि हों एक तो, जग पाए सन्देश.
भारत से डरकर रहो, तभी कुशल हो शेष..
*****************************************
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सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
असहमति: विदेशी पर्व अवश्य मनाएं
असहमति:
विदेशी पर्व अवश्य मनाएं
मित्रों!
वैलेंटाइन दिवस एक संत की स्मृति में मनाया जानेवाला विदेशी पर्व है.उस देश के तत्कालीन सत्ताधीशों की रीति-नीति से असंतुष्ट जनगण की कामनाओं को अभिव्यक्त करें और अनुचित आदेश की अवज्ञा करने हेतु संत ने इस पर्व का उपयोग किया. युवाओं के मिलने को खतरा माननेवाली सत्ता का प्रतिकार युवाओं ने खुलेआम मिलकर किया. यह पर्व स्वतंत्र चेतना और निर्भीक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन गया. कालांतर में देश की सीमा लांघकर यह वैश्विक पर्व बन गया.
युवाओं के मिलन पर्व को राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक परिवर्तन का अवसर न रहने देकर इसे दैहिक प्रेम की अभिव्यक्ति का पर्याय बनानेवालों ने संत के विचारों और आदर्शों की हत्या वैसे ही की जैसे गाँधीवादियों ने सत्ताप्रेमी बनकर गाँधी की है. आइये! हम इस पर्व की मूल भावना को जीवित रखें और इसे नव जागरण पर्व के रूप में मनाएँ..
स्वदेशी पर्वों की कमी है क्या जो विदेशी पर्व मनाएँ?
यह प्रश्न है उनका जो भारतीय संस्कृति के पक्षधर होने का दावा करते हैं. 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वैकनीडम', 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' के पक्षधर भारतीय पर्व दीवाली, दशहरा, होली आदि विदेशों में मनाये जाने पर प्रसन्न होते हैं. फिर उन्हें भारत में विदेशी पर्व मनाये जाने पर आपत्ति क्यों है? विदेशी संस्कृति से अपरिचित भारतीय क्या विश्व बन्धुत्व ला सकेंगे?
अपने आचार-विचार और परम्पराओं को टाक पर रखकर फूहड़ता और बेहूदगी करनेवालों से भी मैं असहमत हूँ.
असहमत तो मैं डंडा फटकारने वालों से भी हूँ. होली पर हुडदंग होता है तो क्या होली बंद कर दी जाये?, पटाखों से दुर्घटना होती है तो क्या दीवाली पर प्रतिबन्ध हो?
हम संतुलित, समझदार और समन्वयवादी हों तो देश-विदेश का कोई भी पर्व मनाएँ सौहार्द ही बढेगा.
Acharya Sanjiv Salil
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विदेशी पर्व अवश्य मनाएं
मित्रों!
वैलेंटाइन दिवस एक संत की स्मृति में मनाया जानेवाला विदेशी पर्व है.उस देश के तत्कालीन सत्ताधीशों की रीति-नीति से असंतुष्ट जनगण की कामनाओं को अभिव्यक्त करें और अनुचित आदेश की अवज्ञा करने हेतु संत ने इस पर्व का उपयोग किया. युवाओं के मिलने को खतरा माननेवाली सत्ता का प्रतिकार युवाओं ने खुलेआम मिलकर किया. यह पर्व स्वतंत्र चेतना और निर्भीक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन गया. कालांतर में देश की सीमा लांघकर यह वैश्विक पर्व बन गया.
युवाओं के मिलन पर्व को राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक परिवर्तन का अवसर न रहने देकर इसे दैहिक प्रेम की अभिव्यक्ति का पर्याय बनानेवालों ने संत के विचारों और आदर्शों की हत्या वैसे ही की जैसे गाँधीवादियों ने सत्ताप्रेमी बनकर गाँधी की है. आइये! हम इस पर्व की मूल भावना को जीवित रखें और इसे नव जागरण पर्व के रूप में मनाएँ..
स्वदेशी पर्वों की कमी है क्या जो विदेशी पर्व मनाएँ?
यह प्रश्न है उनका जो भारतीय संस्कृति के पक्षधर होने का दावा करते हैं. 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वैकनीडम', 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' के पक्षधर भारतीय पर्व दीवाली, दशहरा, होली आदि विदेशों में मनाये जाने पर प्रसन्न होते हैं. फिर उन्हें भारत में विदेशी पर्व मनाये जाने पर आपत्ति क्यों है? विदेशी संस्कृति से अपरिचित भारतीय क्या विश्व बन्धुत्व ला सकेंगे?
अपने आचार-विचार और परम्पराओं को टाक पर रखकर फूहड़ता और बेहूदगी करनेवालों से भी मैं असहमत हूँ.
असहमत तो मैं डंडा फटकारने वालों से भी हूँ. होली पर हुडदंग होता है तो क्या होली बंद कर दी जाये?, पटाखों से दुर्घटना होती है तो क्या दीवाली पर प्रतिबन्ध हो?
हम संतुलित, समझदार और समन्वयवादी हों तो देश-विदेश का कोई भी पर्व मनाएँ सौहार्द ही बढेगा.
Acharya Sanjiv Salil
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दोहे की प्राचीन परंपरा: 1 आचार्य संजीव 'सलिल'
दोहे की प्राचीन परंपरा: 1
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
भाषा सागर मथ मिला, गीति काव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, शाश्वतता का घोष..
हिंदी के वर्तमान रूप का उद्भव संस्कृत तथा अपभ्रंश से हुआ. समय प्रवाह के साथ हिंदी ने भारतीय भू भाग के विविध अंचलों में प्रचलित भाषाओँ-बोलिओं के शब्द-भंडार तथा व्याकरण-पिंगल को अंगीकार कर स्वयं को समृद्ध किया. संस्कृत-प्राकृत के पिंगल कोष से दोहा रत्न प्राप्त कर हिंदी ने उसे सजाया, सँवारा, महिमा मंडित किया.
ललित छंद दोहा अमर, छंदों का सिरमौर.
हिंदी माँ का लाडला, इस सा छंद न और..
आरम्भ में 'दूहा' से हिंदी भाषा के पद्य का आशय लिया जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पद्य या छंद काव्य 'दूहा; ही कहलाते थे.१. कालांतर में क्रमशः दोहा का मानक रूप आकारित, परिभाषित तथा रूपायित होता गया.
लगभग दो सहस्त्र वर्ष पूर्व अस्तित्व में आये दोहा छंद को दूहा, दूहरा, दोहरा, दोग्धक, दुवअह, द्विपथा, द्विपथक, द्विपदिक, द्विपदी, दो पदी, दूहड़ा, दोहड़ा, दोहड़, दोहयं, दुबह, दोहआ आदि नामों संबोधित किया गया. आरंभ में इसे वर्णिक किन्तु बाद में मात्रिक छंद माना गया. दोहा अपने अस्तित्व काल के आरंभ से ही लोक जीवन, लोक परंपरा तथा लोक मानस से संपृक्त रहा है. २
दोहा में काव्य क्षमता का समावेश तो रहता ही है, संघर्ष और विचारों का तीखा स्वाद भी रहता है. दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है. ३
संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों को दोहा-लेखन का मूल माना जा सकता है किन्तु लचीले छंद अनुष्टुप के प्रभाव तथा संस्कृत व्याकरण के अनुसार हलंत व् विसर्ग को उच्चारित करने पर मात्र गणना में न गिनने के कारण इस काल में रची गयी द्विपदियाँ दोहा के वर्तमान मानकों पर खरी नहीं उतरतीं. श्रीमदभगवत की निम्न तथा इसी तरह की अन्य द्विपदियाँ वर्तमान दोहा की पूर्वज कही जा सकती हैं.
नाहं वसामि वैकुंठे, योगिनां हृदये न च.
मद्भक्ता यात्रा गायंति, तत्र तिष्ठामि नारद..
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी-उर न निवास.
नारद! गएँ भक्त जहँ, वहीं करूँ मैं वास..
नारद रचित 'संगीत मकरंद' में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ दोहा के निकट प्रतीत होती हैं.
शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः, विनतः सूनृततरः.
कलावेदी विद्वानति मृदु पदः काव्य चतुरः..
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः, सत्कुलभवः.
शुभाकारश्ददं दो गुण गण विवेकी सच कविः..
नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत.
काव्य-चतुर मृदुपद रचे, कहलाये कवि कांत..
जो रसज्ञ-दैवज्ञ है, सरस ह्रदय सुकुलीन.
गुणी-विवेकी कुशल कवि, छवि-यश हो न मलीन..
______________________________
सन्दर्भ: १. बरजोर सिंह 'सरल', हिंदी दोहा सार, २. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', भूमिका शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ३. आचार्य पूनमचंद तिवारी, समीक्षा दृष्टि.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
दोहा गीत: धरती ने हरियाली ओढी -संजीव 'सलिल'
दोहा गीत:
धरती ने हरियाली ओढी
-संजीव 'सलिल'
*
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा सांप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
***************
धरती ने हरियाली ओढी
-संजीव 'सलिल'
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धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा सांप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
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नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
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निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
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अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
बासंती दोहा ग़ज़ल --आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
बासंती दोहा ग़ज़ल
आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.
किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.
तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.
अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सूरत-सीरत रख 'सलिल', निरमल-विमल सँवार..
*******
आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.
किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..
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पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
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महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..
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नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
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नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
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मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
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ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.
तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..
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घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.
अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
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बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सूरत-सीरत रख 'सलिल', निरमल-विमल सँवार..
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