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रविवार, 8 सितंबर 2024

सितंबर ८, सॉनेट, चाँद, गीत-नवगीत, हाइकु, मुक्तिका,

सलिल सृजन सितंबर ८
*
सॉनेट
चले चाँद की ओर १
जय जय सोमनाथ की कहकर,
चले चांँद की ओर साथ मिल,
इसरो जा रॉकेट से बँधकर,
फुर्र उड़ें, चंदा है मंजिल।
चंद्रमुखी पथ हेर रही है,
आते हैं हम मत घबराना,
जाने कब से टेर रही है,
बने चाँद ही नया ठिकाना।
मत रोको टोको जी हमको,
चलना है काँधे पर बैठो,
ट्रैफिक पुलिस ने हमसे दमड़ी,
मिल पाएगी एकउ तुमको।
मोदी जी-राहुल जी आओ,
ये दिल मांँगे मोर दिलाओ।।
८-९-२०२३
•••
चले चाँद की ओर २
आएँ सॉनेटवीरों! आप, चलें आप भी साथ
इस दल का हो या उस दल का; नेता का ले नाम
मनमानी करते हैं हम सब चलें उठाकर माथ
डरते नहीं पुलिस से लाठी का न यहाँ कुछ काम
घरवाली थी चंद्रमुखी अब सूर्यमुखी विकराल
सात सात जन्मों को बाँधे इसीलिए हम भाग
चले चाँद की ओर बजाए घर पर बैठी गाल
फुर्र हो रहे हम वह चाहे जितनी उगले आग
चीन्ह न पाए इसीलिए तो हम ढाँकें हैं मुखड़ा
चलें मून शिव-शक्ति वहीं पर छान रहे हैं भाँग
दुर्घटना है ताने सुनना, किसे सुनाएँ दुखड़ा
छह के कंधे पर छह बैठें, नहीं अड़ाएँ टाँग
सॉनेट सलिला के सब साथी व्यंजन लाएँ खूब
खाकर अमिधा और लक्षणा में गपियाएँ डूब
८-९-२०२३
***
सॉनेट
थोथा चना
*
थोथा चना; बाजे घना
मनमानी मन की बातें
ठूँठ सरीखा रहता तना
अपनों से करता घातें
बने मिया मिट्ठू यह रोज
औरों में नित देखे दोष
करा रहा गिद्धों को भोज
दोनों हाथ लुटाए कोष
साइकिल पंजा हाथी फूल
संसद में करते हैं मौज
जनता फाँक रही है धूल
बोझ बनी नेता की फ़ौज
यह भौंका; वह गुर्राया
यह खीझा, वह टर्राया
८-९-२०२२
*
हिन्दी के बारे में विद्वानों के विचार
सी.टी.मेटकॉफ़ ने १८०६ ई.में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-
'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है,कलकत्ता से लेकर लाहौर तक,कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है,जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने १८०७ ई.में लिखा-
'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए,वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने १८१६ ई. में लिखा-
'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
एच.टी. केलब्रुक ने लिखा-
'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं,जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है,जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
८-९-२०२२
***
लेख :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सरथा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
८-९-२०२०
***
हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
***
मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
८-९-२०१९
***
दोहा 
गोविन्द गुस्सा कब हुआ, कोई सके न जान
जौहर करे न जौहरी, क्या उपमा-उपमान
*
मुक्तिका:
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
८-९-२०१५
*

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