नवगीत:
संजीव
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नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
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कथ्य अमरकंटक पर
तरुवर बिंब झूमते
डाल भाव पर विहँस
बिंब कपि उछल लूमते
रस-रुद्राक्ष माल धारेंगे
लोक कंठ बस छंद कंत रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
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दुग्ध-धार लहरें लय
देतीं नवल अर्थ कुछ
गहन गव्हर गिरि उच्च
सतत हरते अनर्थ कुछ
निर्मल सलिल-बिंदु तर-तारें
ब्रम्हलीन हों साधु-संत रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
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विलय करे लय मलय
न डूबे माया नगरी
सौंधापन माटी का
मिटा न दुनिया ठग री!
ढाई आखर बिना न मिलता
नवगीतों में तनिक तंत रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
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१६-४-२०१५
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