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गुरुवार, 30 मार्च 2023

रेल राकेश मालवीय

rakmal405@gmail.com, ९७५२७ ८४२५० संपादक राजभाषा सरिता 
रेल गीत (पश्चिम मध्य जोन जबलपुर) १
गीतकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
9425183244
*
निश-दिन दौड़े सरपट रेल, कहती सबसे रखना मेल।
लेकर टिकिट सफर करना, नहीं स्वच्छता-रक्षा खेल।।
*
पश्चिम-मध्य रेल्वे अनुपम, नव विकास की सबल धुरी।
जबलपुर, भोपाल व कोटा, धरती मोहक हरी-भरी।।
विंध्य-सतपुड़ा-मेकल पर्वत, रेवा-चंबल सलिलाएँ।
कान्हा, रणथंभौर, भरतपुर, बांधवगढ़, साँची भाएँ।।
दुर्गा, कमला, कामकंदला, कीर्ति अमर ज्यों जगमग ज्वेल
*
भीमबेटका, आदमगढ़ के शैलचित्र इतिहास कहे।
जाबाली, महेश योगी, ओशो, शकुंतला संत रहे।।
है चूना, सीमेंट, कोयला, आयुध निर्माणी पहचान।
राजासौरस नर्मडेंसिस, घुघवा फॉसिल अद्भुत शान।।
जंक्शन कटनी अरु इटारसी, रेलों की है रेलमपेल
*
जबलपुर कमलापति स्टेशन, अपनी आप मिसाल है।
कोचिंग हब कोटा जबलपुर, बरगी बाँध कमाल है।।
निशातपुरा की कोच फैक्ट्री, नव निर्माण सतत करती।
शारद मैया, आल्हा-ऊदल, जगनिक ईसुरि की धरती।।
जोड़ 'सलिल' मालवा-विंध्य को, लक्ष्य वरे हर बाधा झेल
*


गीत २
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा।
करता यात्री-माल ढुलाई, श्रम-कौशल इसके देवा.....
*
मुख्यालय है नगर जबलपुर, संस्कारधानी प्यारी।
नंदीकेश, जाबाली, योगी, ओशो की छवि है न्यारी।।
जीवाश्मों-डायनासौरों का, ठौर नर्मदा की घाटी।
स्वतन्त्रता संघर्ष विरासत, शौर्य अमर है परिपाटी।।
आदिवासियों ने पूजा है नागदेव-निंगा देवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कमलापति, भोपाल, मालवा, महाकाल क्षिप्रा, साँची।
कोटा, रणथंभौर बाँकुरा, देशभक्ति पुस्तक बाँची।।
पक्षी अभ्यारण्य भरतपुर, कृष्ण नाथद्वारा बैठे।
जगनिक-ईसुर, आल्हा-फागें, गाँव-गाँव घर-घर पैठे।।
ज्वार-बाजरा, अरहर-मक्का, कोदो महुआ है मेवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कोच फैक्ट्री, कोच रेस्तरां, रेल-पाठों का नव निर्माण।
ब्रॉडगेज-विद्युतीकरण ने, परिपथ में फूँके हैं प्राण।।
साफ़-सफाई, हरियाली अरु, वेग वृद्धि से समय-बचत।
जनभाषा में हो जन-शिक्षण, 'सलिल' बचे खरचा-लागत।।
नव विकास के नव सपनों का, कोइ नहीं हम सा लेवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
***
लेख
राष्ट्रीयता के पर्याय सुभद्रा जी-लक्ष्मण सिंह जी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                 सुभद्रा जी की ख्याति राष्ट्रवादी प्रथमत: कवयित्री और बाद में सभानेत्री के रूप में फ़ैली। सुभद्रा जी की सहज-स्वाभाविक राष्ट्रीय भावधारापरक काव्यधारा के प्रवाहित होने में उनकी अभिन्न सखी महीयसी महादेवी वर्मा जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शालेय जीवन से ही सुभद्रा-महादेवी की जोड़ी विद्रोही प्रवृत्ति के लिए चर्चित रही किन्तु यह विद्रोह सुविचारित और सकारात्मक था। महादेवी का बाल विवाह को नकारकर अविवाहित रहना और सुभद्रा का विवाह में दहेज़ और पर्दा प्रथा को ठुकराना तत्कालीन परिवेश में दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कदम थे। लक्ष्मणसिंह जी ने परिवारिक विरोधों और आर्थिक अभावों की परवाह न कर सुभद्रा के साथ मिलकर देश के स्वतंत्रता हेतु सर्वस्व के संकल्प को प्राणप्रण से पूर्ण किया। राष्ट्रीय भावधारा सुभद्रा जी और लक्ष्मण सिंह जी दोनों के काव्य में पल्ल्वित-पुष्पित होकर सत्याग्रहियों और जन सामान्य के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में सामने आई।

                 लक्ष्मण सिंह जी के एक अभिन्न मित्र की बहिन थीं सुभद्रा। प्रथम साक्षात् में ही दोनों के मन में यह भाव आया कि वे पूर्व परिचित हैं। सुभद्रा जी 'प्रथम दर्शन' शीर्षक से लिखती हैं -

प्रथम जब उनके दर्शन हुए, हठीली आँखें अड़ ही गईं
बिना परिचय के एकाएक, हृदय में उलझन पड़ ही गई

                 लक्ष्मण सिंह जी ने सुभद्रा जी को किस दिव्य दृष्टि से देखा, इसकी बानगी उनकी यह कविता प्रस्तुत करती है -

वह ठिठक अड़ैली चंचल थी, ज्यों प्रीति लाज में घुली हुई।
थी हँसी रसीले होंठों की, नव रूप सुधा से धुली हुई।।

                 इस दिव्य दंपत्ति का मिलन दैहिक से अधिक आत्मिक अद्वैत का महायज्ञ था। दोनों एक दूसरे के पूरक थे और दोनों का प्राप्य था भारत का स्वातंत्र्य। लक्ष्मण सिंह जी के कवि की पहचान हिंदी साहित्य में अपेक्षाकृत कम है। लक्ष्मण सिंह चौहान रचित साहित्य में नाटक कुली-प्रथा, उत्सर्ग, दुर्गावती और अंबपाली लिखे जो लोकप्रिय हुए। उन्होंने 'त्रिधारा' सामूहिक काव्य संकलन का संपादन-प्रकाशन भी किया था जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, केशवप्रसाद पाठक तथा सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिनिधि रचनाएँ सम्मिलित थीं। 'वंदे मातरम्' शीर्षक निम्न हिंदी ग़ज़ल में उनकी काव्य कुशलता और राष्ट्रीय भावना की बानगी है -

''चल दिए माता के बंदे जेल वंदे मातरम्
देशभक्तों की यही है गैल वंदे मातरम्
हैं जहाँ गाँधी गए; बरसों तिलक भी थे जहाँ
हम भी वहाँ के कष्ट लेंगे झेल वंदे मातरम्''

उदित हुआ नक्षत्र गगन पर

                 जन्मजात काव्य प्रतिभा की धनी सुभद्रा जी ने मात्र ६ वर्ष की आयु में पहली तुकबन्दी की -

तुम बिन व्याकुल हैं सब लोगा।
तुम तो हो इस देश के गोगा।।

                 गोगा उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों में पूजित लोकदेवता हैं जो अदृश्य रहकर भक्तों का भला करते हैं। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह गोगा जी के भजन गाते थे।

                 मात्र ९ वर्ष की आयु में १९१३ में प्रयाग से प्रकाशित पत्रिका मर्यादा में 'सुभद्रा कुँवरि' नाम से उनकी प्रथम काव्य रचना 'नीम प्रकाशित हुई जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ निम्न हैं -

'सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।'

अपनी मिसाल आप

                पाँच संतानों सुधा, अजय, विजय, अशोक व ममता की माता सुभद्रा जी ने दुधमुँहे बच्चों को अपनी राष्ट्रभक्ति-पथ और साहित्यिक सृजन में बाधक नहीं बनने दिया। उन्होंने पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन में समन्वय, समंजय और संतुलन की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। वर्ष १९१९ में लक्ष्मण सिंह जी से विवाह पश्चात सुभद्रा जी जबलपुर आ गईं हुए १९२० में स्वातंत्र्य संघर्ष में कूद पड़ीं। बापू के सादगी के महामंत्र को इस तरह अंगीकार किया कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी तक त्याग दी। १९२० में अखिल भारतीय कोंग्रस के नागपुर अधिवेशन में लक्ष्मण सिंह जी और सुभद्रा जी दोनों कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सम्मिलित थे। बापू ने पूछ 'बेन तुम्हारा ब्याह हो गया।' सुभद्रा ने कहा 'हाँ,' उत्साहपूर्वक बताया पति भी साथ आए हैं। बापू आश्वस्त हुए तो 'बा' ने सस्नेह डाँटा कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी पहनो। गृहप्रवेश के साथ ही पर्दा प्रथा का विरोध करनेवाली विद्रोहिणी सुभद्रा ने 'बा' का स्नेहादेश शिरोधार्य किया। १९२२ में झंडा सत्याग्रह में सुभद्रा जी देश की प्रथम महिला सत्याग्रही बनीं तथा १९२३ तथा १९४२ के सत्याग्रह आंदोलनों में हिस्सेदारी कर दो बार कारावास भी पाया। उनकी कविताओं की सहज-स्वाभाविक वृत्ति राष्ट्रीय पौरुष को ललकारने-जगाने की है। देश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा जी के ३ कहानी संग्रह बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे-सादे चित्र तथा काव्य संग्रह मुकुल व त्रिधारा प्रकाशित हुए हैं। भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकिट निर्गत किया तथा एक भारतीय तट रक्षक जहाज का नामकरण किया है। जबलपुर नगर निगम प्रांगण में उनकी मानवाकार संगमरमरी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

सुभद्रा जी का साहित्यिक वैशिष्ट्य

                 सुभद्रा जी कविता लिखती नहीं थीं, कविता उनके माध्यम से खुद को व्यक्त करती थी। अभिन्न सखी महादेवी जी की ही तरह सुभद्रा जी का भी काव्य माथापच्ची का परिणाम नहीं, ह्रदय की तीव्रतम भावनाओं और गहन अनुभूतियों का सहज प्रागट्य होता था। देश-प्रेम, नारी- जागरण और अन्याय से संघर्ष सुभद्रा जी की जन्मजात प्रवृत्तियाँ थीं। उन्होंने छायावादी आत्माभिव्यक्ति और राष्ट्रीय लोकाभिव्यक्ति नारी जागरण और समाज सुधार का नीर-क्षीर मिश्रण प्रकृत एवं आकर्षक परिधान में प्रस्तुत कर जन-मन जीत लिया। उनकी अभिव्यक्तियाँ सरल, सहज बोधगम्य एवं अकृत्रिम हैं। प्रगीत शिल्प उनकी अनुभूतियों का आवरण नहीं, आत्मिक तत्व है। वे अनुभूतियों पर काव्य को आरोपित नहीं करतीं, वे काव्यमय अनुभूतियाँ अनुभव करती हैं। उनकी अभिव्यंजना ही काव्यमयी है। राजनैतिक परवशता का विरोध, समाजिक विसंगतियों पर प्रहार, पारिवारिक ममत्व की प्रतीति के साथ राष्ट्रीय गौरव गान करते समय सुभद्रा जी की रचनाओं में कहीं अंतर्विरोध नहीं है। वे सर्वत्र राग, सृजन और नव निर्माण के गीत जाती हैं, कहीं भी विनाश या ध्वंस की कामना नहीं करतीं। वे क्रांतिकारिणी हैं, विद्रोहिणी हैं पर उनकी क्रांति बंदूक की नली से नहीं उपजती, उनका विद्रोह रक्तधार नहीं बहाता।

सुभद्रा जी के काव्य में आशावाद

                 उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से आरंभ काव्य यात्रा में सुभद्रा जी सतत अहिंसक सत्याग्रहों का भिन्न हिस्सा रहीं। वे पति की सहधर्मिणी रहीं, अनुगामिनी नहीं। लक्ष्मण सिंह जी जैसा अद्भुत जीवन साथी का अखंड विश्वास सुभद्रा का संबल और प्रेरणाशक्ति था। उन्हें पूर्ण विश्वास था की गाँधीवादी अहिंसक संघर्ष ही देश को स्वतंत्रता दिला सकेगा। 

                 सुभद्रा जी के काव्य में देश और परिवार दो धुरियाँ सहज दृष्टव्य हैं। उनकी दो सर्वाधिक प्रसिद्ध गीति रचनाएँ 'झाँसी की रानी' तथा 'कदंब का प्रेम' इन धुरियों पर ही रची गई हैं। वे 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' की विरासत को ग्रहणकर समस्त देशवासियों की पीड़ा अपनी मानकर उसके शमन हेतु जूझती हैं। अभावों और कठिनाइयों से घिरी रहकर भी वे कभी निराश नहीं हुईं। सुभद्रा जी लिखती हैं -

मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना
मैं अब तक जान न पाई, कैसी होती है पीड़ा
हँस-हँस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रीड़ा।

                 सुभद्रा जी का आशावाद उनकी रचनाओं में उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, साफल्य और विजय के रूप में शब्दित होकर पाठकों में नवाशा, विश्वास, ओज तथा कर्मठता का संचार करता है।

सुभद्रा काव्य में श्रृंगार रस

                 सुभद्रा जी के काव्य में श्रृंगार रस की मनोहर छवियाँ जहँ-तहँ शोभित हुई हैं। उनका श्रृंगार भोग-विलास नहीं, त्याग और समर्पण के साथ कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा बनता है।

मैं जिधर निकल जाती हूँ, मधुमास उतर आता है।
नीरस जन के जीवन में रस घोल-घोल जाता है।
सुखर सुमनों के दल पर मैं मधु संचालन करती।
मैं प्राणहीन का अपने प्राणों से पालन करती।

                 सुभद्रा जी की नारी प्रिय की अर्धागिनी के रूप में लक्ष्मण सिंह जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होने के साथ-साथ पाँच बच्चों के लालन-पालन में प्राण-प्राण से निमग्न होती है। वे नारी विमर्श और नारी जागरण करते हुए अर्धांगिनीत्व और मातृत्व को बाधक नहीं साधक पाती हैं। प्रस्तुत हैं दाम्पत्य जीवन में अपने प्रिय के प्रति सुभद्रा जी के अखंडित विश्वास की साक्षी देती दो पंक्तियाँ -

तुम कहते हो आ न सकोगे, मैं कहती हूँ आओगे।
सखे! प्रेम के इस बंधन को यों ही तोड़ न पाओगे।
*
सुभद्रा साहित्य में वात्सल्य सलिला

                 सुभद्रा जी का मातृत्व अपने बचपन और अपने बच्चों के बचपन का नीर-क्षीर सम्मिश्रण है।  जीवन की विविध जटिलताओं के बीच सुभद्रा जी बच्चों के बचपन में अपने बचपन को फिर-फिर जी रही थीं और सुधियों के सागर से संजीवनी पा रही थीं। देखिए एक  झलकी  -

शैशव के सुन्दर प्रभात का मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में जीवन का हुलास देखा।
*
सुभद्रा काव्य में उद्दाम राष्ट्रीय भावधारा

                 तरुण सुभद्रा ने भारत-भारती को एक ही जाना था। उसके लिए हिंदी की सेवा भी भारत माता की सेवा थी। आज की कॉंवेंटी पीढ़ी को यह जानना चाहिए की जब देश में गिनी-चुनी आंग्ल शिक्षा संस्थाएं थीं तब सुभद्रा जी 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज प्रयाग' की मेधावी छात्र होते हुए, आंग्ल भाषा में काव्य रचना करने में समर्थ होते हुए भी हिंदी में काव्य रचना कर रही थीं।

जिनको तुतला-तुतला करके शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

सारत: यह निर्विवाद है कि सुभद्रा जी एक साहित्य उनके जीवन-संघर्षों की अनकही गाथा कहता है। वे सत्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी कलम चलाती हैं। यथार्थ की कुरूपता में भी सत्य-शिव-सुंदर की पाउस्थिति देख और दिखा सकने के लिए जो दिव्य दृष्टि चाहिए वह सुभद्रा जी में है। उनका स्त्री विमर्श कहीं और कभी पुरुष विरोधी नहीं होता, यह उनका वैशिष्ट्य है। विरूपता में सुरूपता की स्थापना करती सुभद्रा जी महीयसी की काल्पनिक छायावादी सौंदर्य सृष्टि का न तो अनुकरण करती हैं न विरोध। एक ही काल में पारस्परिक प्रगाढ़ स्नेह संबंध में गुँथी दोनों काव्य प्रतिभाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। महीयसी एक बार मुक्ति की कामना से बौद्ध धर्म में दीक्षित होने गईं भी तो मोह भंग होते ही वापिस आ गईं और सुभद्रा जी तो स्वामी विवेकानंद की तरह मृत्योपरांत भी धरती और जीवन से जुड़े रहने की कामना करती रहीं। वह अपनी मृत्यु के बारे में कहती थीं कि "मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियाँ गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे।"
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४

बुधवार, 29 मार्च 2023

हास्य, संस्कार सवैया, कुण्डलिया, दुर्गा वेदोक्त रात्रि सूक्त, दुर्गा पूजन विधि, चित्र अलंकार पताका,हास्य





















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मुक्तक 
• 
पग के छाले बोल रहे हैं, शूल भरे पथ का स्वागत है। 
तबियत हरी हुई मरुथल में, देख थपेड़े -लू आगत है।। 
किरचों चुभो हृदय में मेरे, तुम्हें कसम है रहम न करना। 
करी दर्द से कुड़माई खुद, पीर न पीर हमें हँस वरना।।
(छंद - लाक्षणिक जातीय संस्कार छंद, बत्तीस मात्रिक सवैया, यति १६-१६, पदांत सगण )  
•••
कार्यशाला : कुण्डलिया
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अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
*
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।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
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ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
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निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
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उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
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उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
२९.३.२०२०
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श्री दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल २१ देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।
'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।
प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल ७०० श्लोक ७०० प्रयोगों के समान माने गये हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि-
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
दुर्गा सप्तशती वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
दुर्गा सप्तशती संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-१, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
दुर्गा सप्तशती सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
दुर्गा सप्तशती शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (१०८) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी ५० क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
दुर्गा सप्तशती/ श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि
भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में ३६० शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
[ १.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का १०८ बार जप।
[ २.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में पाठ।
[ ३.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
१. कलश स्थापना, २ . गौरी गणेश पूजन, ३. नवग्रह पूजन, ४. षोडश मातृकाओं का पूजन, ५. कुल देवी का पूजन, ६. माँ दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें-
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि।
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि।
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः ।
आचमन : आचमन समर्पयामि।
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि।
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि।
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि।
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि।
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि
*
***
चित्र अलंकार पताका काव्य
*
हूँ
भीरु,
डरता
हूँ पाप से. .
न हो सकता
भारत का नेता
डरता हूँ आप से.
*
है
कौन
जो रोके,
मेरा मन
मुझको टोंके,
गलती सुधार.
भयभीत मत हो.
*
जो
करे
फायर
दनादन
बेबस पर.
बहादुर नहीं
आतंकी है कायर.
*
हूँ
नहीं
सुरेश,
न नरेश,
आम आदमी.
थोडा डरपोंक
कुछ बहादुर भी.
*
मैं
देखूँ
सपने.
असाहसी
कतई नहीं.
बनाता उनको
हकीकत हमेशा.
*
२९.३.२०१८
***
हास्य रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***

२९.३.२०१८

मंगलवार, 28 मार्च 2023

दोहा, मुक्तिका, लेख, संतान

 दोहा सलिला

• ब्यूटीपार्लर में मिला, उनको नया निखार। धुँधआया चौका पुता, ज्यों चूने से यार।। • यहाँ वहाँ पढ़कर रहे, अब तक हम बेकार। कार पोंछने कर से, जाते अब सरकार।। • सास-बहू से प्यार कर, माँ-बेटे पर वार। नफरत-सागर में नहा, वाक् हुई तलवार।। • मन की बातों ने धरा, मनमानी का रूप। मनमोहन के मौन की, आती याद अनूप।। • बिन बोले जो बोलते, वे न खोलते राज। बड़बोले देते गँवा, बिना व्याज ही ताज।। • हो लाइक कट पेस्ट पर, जी एस टी अब यार। भरे तिजोरी तब चले, जुमलों की सरकार।। •
२७-३-२०२३
***
मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
संजीव
२७-३-२०२०
***
लेख:
संतान बनो
*
इसरो के वैग्यानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता।
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो?
सचमुच चाहिए
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है।
फिर?
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा?
नहीं?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला?
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे?
बताता हूँ। तुम कौन हो?
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है।
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है।
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो।
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है।
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी।
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए।
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो।
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
२८-३-२०१९
*

बटुकेश्वर दत्त

स्मरण
अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त
- गीतिका 'श्रीव' 
*

             अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त (जन्म १८ नवंबर १९१०, ग्राम-औरी, जिला - नानी बर्दवान पश्चिम बंगाल - निधन २० जुलाई १९६५ एम्स नई दिल्ली) ने ८ अप्रैल १९२९ को अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंककर इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ जिंदगी भर को काला-पानी कबूल किया था। इन्हीं बटुकेश्वर दत्त को इस नेता-अफसर-धन्नासेठ पूजक और मूर्तिपूजक देश ने कृत्घ्नतापूर्वक भुला दिया जबकि वे आजादी के बाद भी २१ वर्षों तक जिंदा बचे रहे थे। हम अपने वास्तविक बहादुर और निस्वार्थ नायकों के ज़िंदा रहते उनकी कद्र करना नहीं जान सके।

             अफ़सोस कि बटुकेश्वर दत्त (पिता गोष्ठबिहारी दत्त-माँ कामिनी देवी) जैसे महान क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद जिंदगी की गाड़ी खीचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ा। जिस नर नाहर के पराक्रम से ब्रिटिश सरकार थरथराती थी, जिसके ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे खुद एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ी।

             उत्तर प्रदेश के कानपुर में पृथ्वीनाथ चक हाई स्कूल में पढ़ते समय, वह सुरेंद्रनाथ पांडे और विजय कुमार सिन्हा के संपर्क में आए, जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में शामिल होने के दौरान उनके सह क्रांतिकारी बने। बटुकेश्वर ने १९२५ ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहांत हो गया। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। बटुकेश्वर दत्त किशोर थे जब उन्होंने कानपुर में माल रोड पर ब्रिटिश कर्मचारियों द्वारा एक भारतीय लड़के की क्रूर पिटाई देखी, क्योंकि भारतीयों को सड़कों पर स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति नहीं थी। युवा बटुकेश्वर दत्त इस घटना से बहुत प्रभावित हुए, जिसने अंततः उन्हें भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जल्द ही बटुकेश्वर दत्त ने प्रताप अखबार के प्रकाशक ‘सुरेशचंद्र भट्टाचार्य’ के माध्यम से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सह-संस्थापक ‘सचिंद्रनाथ सान्याल’ से मुलाकात की। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त एक ही समय में HSRA में शामिल हुए। ८ अप्रैल, १९२९ को, जब भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली पर बम गिराए, तो वे भगत सिंह के साथ थे। सेंट्रल असेंबली (अब भारत की संसद) में, भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ, वाणिज्यिक विवाद अधिनियम और सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का विरोध करने के लिए बम फेंके, जिसे ब्रिटिश सरकार ने वर्ग राजनीति को कम करने के लिए पेश किया।

             वर्ष १९२४ में कानपुर बाढ़ के दौरान, बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने मिलकर ‘तरुण संघ’ मिशन के लिए स्वेच्छा से काम किया, जो बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए बनाया गया था, और इस अवधि के दौरान उनके बीच दोस्ती बढ़ी। दत्त ने इस दौरान भगत सिंह को बंगाली भाषा सिखाई और उन्हें काजी नजीरूल इस्लाम की कविता से भी परिचित कराया। बटुकेश्वर दत्त ने अपने संस्मरणों में लिखा है: '…हम दोनों को एक साथ ड्यूटी सौंपी गई थी। हम दोनों रात में गंगा के किनारे खड़े थे, लालटेन पकड़े हुए ताकि कोई जो नाले में प्रवेश करे, किनारे तक पहुँचने की कोशिश करे और बच जाए… ”

   
         १९२५ 
में, काकोरी षडयंत्र मामले के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) का नेतृत्व पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया था। तब ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के कई महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था। बटुकेश्वर दत्त बिहार और फिर कलकत्ता चले गए, जहाँ वे वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी में शामिल हो गए। इस पार्टी के लिए काम करते हुए उन्होंने पार्टी को उनके पर्चे और पोस्टर हिंदी में लिखने में मदद की। बाद में, थोड़े समय के लिए, वह बंगाल मैला ढोने वालों के सिंडिकेट की हावड़ा शाखा से जुड़ गए। दूसरी ओर, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह ने धीरे-धीरे कानपुर में एचआरए को पुनर्गठित करना शुरू कर दिया और बटुकेश्वर दत्त को कानपुर में एचआरए में फिर से शामिल होने का निर्देश दिया। १९२७ में, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) ने इसका नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया, जिसमें कहा गया था कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने में समाजवाद पार्टी के मुख्य लक्ष्यों में से एक था। ब्रिटिश सरकार को अक्सर एचएसआरए द्वारा सशस्त्र संघर्ष और प्रतिशोध के साथ चुनौती दी गई थी। इस अवधि के दौरान, समाजवादी साहित्य पढ़ना इसके सदस्यों के लिए अनिवार्य अभ्यास बन गया। उस समय जो प्रसिद्ध नारे इस्तेमाल किए गए थे, वे थे मातृभूमि की रक्षा करना, क्रांति को जिंदा रखना और साम्राज्यवाद के साथ नीचे रहना। १९२७-२८ के दौरान, भारत में भारतीय श्रमिकों को विभिन्न विरोधों और बंदों का सामना करना पड़ा, जब सरकार ने सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और भारत व्यापार विवाद विधेयक नामक दो विवादास्पद विधेयक पेश करने का निर्णय लिया। इन बिलों ने भारतीय कामगारों की सभी हड़तालों को अवैध और प्रबंधन के खिलाफ विद्रोह करार दिया। इस जबरदस्ती ने एचएसआरए को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का कारण बना दिया। 


             १९२८ में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली। एचएसआरए की कई क्रांतिकारी गतिविधियों में वो सीधे तौर पर शामिल थे। जब क्रांतिकारी गतिविधियों के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाने की योजना बनाई, तो भगत सिंह ने उसी तरह से सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने का इरादा व्यक्त किया, जैसे कभी फ्रांस के चैंबर ऑफ डेपुटीज में एक क्रांतिकारी ने फोड़ा था।

             एचएसआरए की मीटिंग हुई, तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे और सुखदेव उनके साथ होंगे। भगत सिंह उस दौरान सोवियत संघ की यात्रा पर होंगे, लेकिन बाद में भगत सिंह के सोवियत संघ का दौरा रद्द हो गया और दूसरी मीटिंग में तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त बम प्लांट करेंगे, लेकिन उनके साथ सुखदेव के बजाय भगत सिंह होंगे। भगत सिंह को पता था कि बम फेंकने के बाद असेंबली से बचकर निकल पाना, मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में क्यों ना इस घटना को बड़ा बनाया जाए, इस घटना के जरिए बड़ा मैसेज दिया जाए।

             ८ अप्रैल १९२९ का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहाँ बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआँ तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने  पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई।विधेयकों के पारित होने से ठीक हले, ८ अप्रैल, १९२९ को, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एचएसआरए पर्चे बाँटते हुए केंद्रीय विधानसभा (अब संसद) में बम (जो जीवन के लिए खतरा नहीं थे) गिराए और ‘डाउन’ के नारे लगाए। साम्राज्यवाद के साथ’ और ‘क्रांति जीवित रहे’। इन बमों को बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह द्वारा विजिटर्स गैलरी से फेंका गया था। इस घटना के बाद दोनों ने भागने का प्रयास भी नहीं किया और दोनों को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।

             उसके बाद देश भर में बहस शुरू हो गई। भगत सिंह के चाहने वाले, ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि बम किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि बहरे अंग्रेजों के कान खोलने के लिए फेंके गए थे, तो वहीं अंग्रेज और अंग्रेज परस्त इसे अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बता रहे थे। बाद में फोरेंसिक रिपोर्ट ने ये साबित कर दिया कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे। बाद में भगत सिंह ने भी कोर्ट में कहा कि उन्होंने केवल अपनी आवाज रखने के लिए, बहरों के कान खोलने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था, ना कि किसी की जान लेने के लिए। लेकिन भगत सिंह के जेल जाते ही एचआरएसए के सदस्यों ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक दिया।

             भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी  हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा।  फाँसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे। बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी।  इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएँ कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं। भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए।

             अपनी माँ को लिखे पत्र में भगत सिंह ने कहा – ‘मैं तो जा रहा हूँ, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के रूप में अपना एक हिस्सा छोड़े जा रहा हूँ।’ बटुकेश्वर दत्त ने यही सिद्ध किया। काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया।  १९३७ में वे बाँकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना लाए गए।  १९३८ में  उनकी रिहाई हो गई।  कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। जल्द ही वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। चार साल बाद १९४५  में वे रिहा हुए।  १९४७ में देश आजाद हो गया। नवम्बर, १९४७ में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे  लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। 


             बटुकेश्वर दत्त को बाद में ब्रिटिश सरकार ने आजीवन कारावास की सजा दी और अंडमान सेलुलर जेल भेज दिया गया। जेल में अपने समय के दौरान, उन्होंने जेल में राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए दो भूख हड़ताल शुरू की। बटुकेश्वर के अनुसार, राजनीतिक बंदियों को अंग्रेजों द्वारा अमानवीय व्यवहार प्राप्त हुआ। दो में से एक हड़ताल ११४ दिनों से अधिक समय तक चली, जिसे आधुनिक राजनीतिक इतिहास में सबसे लंबी भूख हड़तालों में से एक माना जाता था। जेल में, उन्होंने अपने सह-क्रांतिकारियों शिव वर्मा, जयदेव कपूर और बिजॉय कुमार सिन्हा के साथ कम्युनिस्ट समेकन नामक एक मार्क्सवादी अध्ययन मंडल की स्थापना की। जेल में उनके द्वारा ‘द कॉल’ नामक एक हस्तलिखित पत्रिका के कई संस्करण भी लिखे गए।बटुकेश्वर दत्त के सह-क्रांतिकारियों में से एक मनमथनाथ गुप्ता ने अपने एक लेख में कहा है कि शुरुआत में दत्त एक विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, लेकिन अंडमान जेल में उन्होंने समाजवादी सिद्धांत के लिए पूरी तरह से वैचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। मनमथनाथ गुप्ता ने लिखा- ''मूलत: दत्त विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, अंडमान जेल के विद्वतापूर्ण माहौल में, उन्होंने अच्छी तरह से पढ़ा और खुद को समाजवादी सिद्धांत के प्रति समर्पित कर दिया… वे एक कठोर समाजवादी बन गए थे।”

             १९३७ में, बटुकेश्वर दत्त को अंडमान जेल से दिल्ली के हजारीबाग जेल में स्थानांतरित कर दिया गया, जल्द ही पटना जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। अंडमान जेल में अमानवीय यातना ने बटुकेश्वर दत्त की स्वास्थ्य की स्थिति खराब कर दी थी। महात्मा गाँधी और अन्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेताओं ने कथित तौर पर ब्रिटिश सरकार से उन्हें रिहा करने का आग्रह किया। उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि वह किसी भी उपनिवेश विरोधी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और किसी भी राजनीतिक दल में शामिल नहीं होंगे। अंततः ८ सितंबर, १९३८  को पटना जेल से उनकी रिहाई हुई। 

             जेल से छूटने के बाद, जब उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा, तो उन्होंने फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। १९३३-३४ के दौरान, कानपुर और उन्नाव जिले के कई युवा ‘नवचेतन संघ’ में शामिल हो गए, जो भगत सिंह और एचएसआरए से प्रेरित होकर शिव कुमार मिश्रा, शेखर नाथ गांगुली और अन्य लोगों द्वारा शुरू किया गया एक क्रांतिकारी आंदोलन था। १९३७- ३८ के दौरान इस संगठन का नवयुवक संघ (युवा संघ) में विलय हो गया और जोगेशचंद्र चटर्जी और झाँसी  के पं. परमानंद इस संगठन के नेता थे। बाद में इस संगठन का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी में विलय हो गया।

             मई १९३९ में, कम्युनिस्ट समूहों और पूर्व एचएसआरए क्रांतिकारियों ने उन्नाव जिले के मुकर गाँव में सचिंद्रनाथ सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, रामकिशन खत्री, विजय कुमार सिन्हा, भगवानदास माहौर और यशपाल सहित तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। ग़दर पार्टी के नेता सोहन सिंह बखना ने भी सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष बटुकेश्वर दत्त थे। शिव कुमार मिश्रा के अनुसार, उनके संस्मरण ‘काकोरी से नक्सलबाड़ी तक’ में इस सम्मेलन को महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि इसने क्रांतिकारी समूहों और कम्युनिस्ट पार्टी को एक साथ लाया। १९४२ में बटुेश्वर दत्त ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया, और ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और भारत की स्वतंत्रता के बाद रिहा कर दिया गया। 

             भारत की आजादी के बाद, दत्त ने भारतीय राजनीति में भाग नहीं लेने का फैसला किया। उनके एक साथी मन्मथनाथ गुप्त ने अपने एक लेख में कहा था कि दत्त और अन्य क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता नहीं थी जिसके लिए वे लड़ रहे थे। उन्होंने लिखा - 'हमारी राजनीतिक चर्चाओं के दौरान वह, हमारे अन्य साथियों की तरह, कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता (स्वराज्य) नहीं है जिसके लिए हम लड़ रहे हैं, हम इसके लिए कभी नहीं लड़े और हम कुछ अलग चाहते थे।''

             आजादी के बाद, दत्त को अपनी आजीविका जारी रखने और अस्पताल के खर्चों को कवर करने के लिए केंद्र सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं मिली। उन्होंने कुछ समय तक एक सिगरेट कंपनी में एजेंट के रूप में काम किया और परिवहन व्यवसाय में भी अपनी किस्मत आजमाई। चार महीने के लिए उन्हें कथित तौर पर बिहार विधान परिषद में नियुक्त किया गया था। बाद में, बटुकेश्वर दत्त बम विस्फोट मामले का प्रतिनिधित्व करने वाले आसफ अली ने एक मीडिया आउटलेट के साथ बातचीत में कहा कि दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को सेंट्रल असेंबली में कभी कोई बम नहीं गिराया, लेकिन वह भगत सिंह के साथ रहना चाहते थे।  इसलिए दत्त ने भगतसिंह के साथ गिरफ्तारी दी। आसफ अली ने कहा: ''दोनों क्रांतिकारियों को जीवन भर के लिए परिवहन की सजा सुनाई गई थी (दोषियों को उनके शेष जीवन के लिए मुख्य भूमि भारत से निर्वासित कर दिया गया था) इस मामले में “गैरकानूनी और दुर्भावनापूर्ण रूप से जीवन को खतरे में डालने वाली प्रकृति के विस्फोटों के कारण।” 

             देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद बटुकेश्वर दत्त जी पटना में रहने लगे थे। पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिले तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण माँगा गया। जो अफसरशाही क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की छाया से घबराती थी, उसी तंत्र का एक अदना सा अफसर शांतिवादी बटुकेश्वर दत्त से उनके जिंदा  होने का प्रमाण माँग रहा था। बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर नेको बटुकेश्वर दत्त जी से माफ़ी माँगनी पड़ी। 

             अंतत:, पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी अंजलि दत्त जी (विवाह १९४७) मिडिल स्कूल में नौकरी करने के लिए विवश हुईं जिससे दत्त परिवार (बेटी भारती बागची, पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र, पटना विश्वविद्यालय) का गुज़ारा हो सके।  १९६४ में बटुकेश्वर जी के अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए? परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कड़वे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़कर पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया।

             अब तक बहुत देर हो गई थी। बटुकेश्वर दत्त जी की हालात गंभीर हो चली थी। २२ नवंबर १९६४ को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुँचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था- “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहाँ मैंने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊँगा।” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला कि उन्हें कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही शेष बचे हैं। यह खबर सुनकर अमर शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती देवी अपने पुत्र समान बटुकेश्वर दत्त से मिलने दिल्ली आईं। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन भी दत्त से मिलने पहुँचे और उन्होंने पूछ लिया- 'हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो माँग लीजिए।'

             भारत को आजाद करने के लिए अपनी जान को दाँव पर लगानेवाले क्रन्तिकारी जिसने ब्रिटिश सरकार के हर प्रलोभन को ठुकरा दिया था, उससे आजाद भारत का एक मुख्य मंत्री पूछ रहा था क्या चाहिए? दो राज्य बिहार और पंजाब ही नहीं केंद्र सरकार को भी बटुकेश्वर दत्त को सर आँखों पर बैठना चाहिए था। देश स्वतंत्र होने के बाद उन्हें देश का राजदूत, मंत्री या राज्यपाल बनाया जाना था पर कुर्सी पाकर सत्ताधीश बटुकेश्वर दत्त और अन्य क्रांतिकारियों को भूल गए। विपक्ष सत्ता पाने के लिए संघर्ष करता रह किंतु उसने भी क्रांतिकारियों को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। हद तो यह कि जो कायस्थ समाज आज बटुकेश्वर दत्त जी की तस्वीर अपने समारोहों में लगता है, उसने भी कभी उनके जीवित रहते उनका अभिनन्दन तक न किया। पटना का बंगाली समाज भी उनसे दूर ही रहा। वैचारिक दृष्टी से साम्यवादी रहे बटुकेश्वर दत्त को भारत के साम्यवादी दलों ने भी नेतृत्व नहीं दिया।

             भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और  प्रधान मंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री ने अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त से तब मुलाकात की, जब उनका दिल्ली में इलाज चल रहा था। अस्पताल में दत्त ने कहा - ''जब आप क्रांतिकारियों के बारे में सोचते हैं, तो आप उन्हें केवल हथियारबंद व्यक्ति समझते हैं और आप उस समाज के दृष्टिकोण को पूरी तरह से भूल जाते हैं जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।''

             उस दिन पंजाब के मुख्यमंत्री से बटुकेश्वर दत्त जी ने आँखों में आँसू और होठों पर फीकी मुस्कान के साथ कहा- 'कुछ नहीं चाहिए. बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।' जब तक जिन्दा थे दोनों देश को आजाद करने के लिए जान की बाजी लगते थे। क्या हुआ जो एक कुछ बरस पहले और दूसरा कुछ बरस बाद जाए, आखिकार दोनों क्रांतिकारी मित्रों की मिट्टी ही एक हो जाए।

             २० जुलाई १९६५ की रात १ बजकर ५० मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गए। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। हुसैनीवाला, जिसका कुछ आधिकारिक दस्तावेज़ों में नाम ग़ुलाम हुसैनवाला भी है, भारत के पंजाब राज्य के फ़िरोज़पुर ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह सतलुज नदी के किनारे और भारत की पाकिस्तान के साथ सीमा पर स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग ५ यहाँ से गुज़रता है।

             जुलाई २०१९ में, भारत सरकार ने भारतीय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त के नाम पर पश्चिम बंगाल के बर्धमान रेलवे स्टेशन का नाम रखा है। भारत सरकार ने भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके बलिदानों को स्वीकार करने के लिए दिल्ली के एक आवासीय कॉलोनी का नाम 'बीके दत्त कॉलोनी' का नाम उनके नाम रखा है भारत की स्वतंत्रता के कई वर्षों के बाद, भारत सरकार ने बटुकेश्वर दत्त के पैतृक घर का जीर्णोद्धार किया और पर्यटकों के लिए एक स्मारक के रूप में इसका उद्घाटन किया।  भारत सरकार ने भारत की के लिए उनके बलिदानों का सम्मान करने के लिए पटना में बटुकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा स्थापित की। बटुकेश्वर  दत्त की स्मृति में   एक डाक टिकिट तक  नहीं जारी कर सकी  है राष्ट्रीयता की झंडाबरदार बननेवाली भारत सरकार। 

             बटुकेश्वर दत्त जी की पुत्री भारती बागची  (पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र पटना विश्वविद्यालय) कहती हैं - ''मैं पिता जी के साथ १४ साल ही रह पाई। इस उम्र में जो उनसे सीखा समझा जा सकता था, वह उनका व्यवहार ही था। बचपन उस वक्त गुजरा जब आजादी के बाद चीजों को नई तरीके से गढ़ने की कोशिश हो रही थी और ढेरों उम्मीदें पूरे देश को थीं। ज्यादातर देशवासी तकलीफों को इसलिए बर्दाश्त कर रहे थे कि उनको कम से कम विदेशी की जंजीरों से मुक्ति मिली। ऐसे में एक क्रांतिकारी तकलीफों को क्या मानेगा, जिसने अपना जीवन ही आजादी के लिए दाँव पर लगा दिया हो। पिता जी के बारे में कई बातें बाद में मीडिया में प्रकाशित हुईं कि वे बहुत मुश्किलों से गुजरे। हकीकत ये है कि वे उन मुश्किलों को मुश्किल नहीं मानते थे, बल्कि देश के आम लोगों की जिंदगी के साथ जोड़कर देखते थे। वे उस वक्त मुझे बहुत खिलौने नहीं लाते थे, बल्कि कहानियों की ऐसी पुस्तिकाएँ लाते थे, जिससे एक सच्चा इंसान बना जाए, जिसकी जिंदगी में अनुशासन हो और गरीब-मेहनती लोगों के लिए दिल में करुणा हो।''

             भारती जी अपनी बुआ प्रमिला देवी से सुना वह किस्सा बताती हैं कि किस फितरत ने पिता बटुकेश्वर दत्त को क्रांतिकारी बना दिया- ”बचपन में जब वे स्कूल जाते थे तो अपने खाने का टिफिन रास्ते में एक असहाय को रोजाना दे देते। जाड़े के दिनों में एक बार जब टिफिन लेकर पहुँचे तो वह असहाय ठंड से मर चुका था। घर लौटकर वे बहुत रोए। घरवाले समझ नहीं पा रहे थे कि किसलिए इतना सुबक रहे हैं। आखिर में काफी समझाने-बुझाने पर बटुकेश्वर दत्त ने बहन प्रमिला को बात बताई। फिर वह गरीब, गरीबी, उनके उपाय के बारे में गहराई से जानने को पढ़ने लगे। विवेकानंद, अरबिंदो और तिलक के लिखे लेखों या वक्तव्यों ने उनका रुझान क्रांति की दिशा में बढ़ा दिया।” भारती जी को आज किसी से कोई शिकायत नहीं है। वे कहती हैं- ‘आज भी सरकार से क्या शिकायत की जाए, कितना दोष गिनाया जाए। हम जब खुद ही करप्ट हैं। ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद कोई विकास नहीं हुआ है। मेरे पास तमाम कम उम्र के बच्चे आते हैं यही सब जानने को, मैं उन्हें वही बताने की कोशिश करती हूं, जो मेरे पिता ने मुझे बताया-सिखाया…नैतिकता, करुणा, अनुशासन, लक्ष्य, क्रांतिकारियों का देखा खुशहाली का ख्वाब। हमें उम्मीद करना चाहिए कि भविष्य खूबसूरत होगा, खूबसूरत भविष्य बनाने वाले हमेशा बने रहेंगे’

             कायस्थ समाज को अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त, की स्मृति में पुरस्कार, छात्रवृत्ति आदि स्थापित करना चाहिए।  बटुकेश्वर डट पर डाक टिकिट जारी  जाए। हिंदी भाषी और बांगला भाषी कायस्थ मिलकर रोटी-बेटी संबंध स्थापित कर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करें। 

***
लेखिका संपर्क - गीतिका 'श्रीव', द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।   

व्यंग्य, पत्नी, धर्मपत्नी, श्रीनारायण चतुर्वेदी

व्यंग्य विरासत :
पत्नी और धर्मपत्नी
श्रीनारायण चतुर्वेदी
*

           उस दिन एक नये मित्र  मिलने आये। 'नये' इसलिए कहता हूँ कि मेरी वय इतनी हो गयी है कि पुराने मित्र दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत रह भी गये हैं, वे या तो अशक्त हैं या अन्य प्रकार से आने में असमर्थ हैं-जैसे जो लोग तीन मील पैदल चलकर आ नहीं सकते, उनसे एक ओर का किराया रिक्शावाला तीन रुपया माँगता है। अतएव अब अधिकतर नये मित्र ही यदा-कदा आ जाने की कृपा करते हैं।

           पुराने मित्र मेरी तरह ही दकियानूसी हैं। वे पत्नी को लेकर 'काल' करने नहीं आते। नये युग में 'बेहतर अंग' के बिना व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। मेरे अधिकांश नये मित्र भी, जो मेरी 'सनकों' और दकियानूसीपन को जान गये हैं, वे प्राय: अकेले ही आ जाते हैं, किंतु जिन व्यक्तियों से नया परिचय या मिलता हो जाती है, वे आधु- निक रीति से 'पूर्णांग' होकर आते हैं, विशेषकर यदि पत्नी आधुनिक, सोसायटीप्रिय और साहित्यिक अभिरुचि की हुई।

           जैसा कि मैंने कहा, एक नये मित्र मिलने आये। वे पूर्णांग' थे। उनकी सहचरी विदुषी, शिष्ट, आधुनिक अभिजात परिधान से वेष्टित और दर्शनीय थीं। वाणी मधुर और सुसंस्कृत थी। नमस्कार करके मेरे मित्र ने कहा, ' 'ये मेरी धर्मपत्नी हैं। इनका नाम...है। सोशियालाजी में एम० ए० हैं। इनके पिता अमुक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर और भाई एलाइड सर्विसेज में आ गये हैं। इन्हें हिंदी 'साहित्य में विशेष रुचि है। हिंदी में कविता भी करती हैं।' फिर श्रीमती जी से कहा, ' 'पंडित जी को प्रणाम' करो।'' वे मेरे चरण स्पर्श करने को झुकीं। मैंने मना करते हुए कहा, ''बेटी, मैं पुराने ढंग का आदमी हूँ। हम' लोग तो बेटियों के पैर पूजते हैं, उनसे चरण स्पर्श नहीं कराते। भगवान तुम्हारा मंगल करें।''

           मेरे नये मित्र की भी हिंदी और साहित्य में रुचि है। आधुनिक हिंदी उपन्यासकारों की तरह मैं 'मनोविज्ञानी' नहीं हूँ, इसलिए कह नहीं सकता कि उस समय क्यों पंडित श्री विनोद शर्मा (पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी अपने हास्य-व्यंग्य लेख श्री विनोद शर्मा नाम से लिखते हैं-सं ० ) मेरे मस्तिष्क पर हावी हो गये। मैंने उनसे बड़े सहज भाव, किंतु बनावटी गांभीर्य से एक बेहूदा बात कह दी, ' 'अच्छा! ये आप की धर्मपत्नी हैं। इनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई।किंतु आपने अपनी पत्नी के दर्शन कभी नहीं कराये।''

           वे मेरी बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गये। एकाएक उनकी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कह गया। कुछ लोग तो साठ वर्ष के होने पर ही बुढ़भस के शिकार हो जाते हैं। मैं तो नवाँ  दशक पूरा करने के निकट हूँ। उन्होंने समझा कि यह प्रश्न मेरे आसन्न बुढ़भस का लक्षण है। किन्तु वे इतने शिष्ट हैं कि यह बात कह नहीं सकते थे। कुछ देर चुप रहकर बोले, ' 'धर्मपत्नी से मेरा तात्पर्य 'वाइफ' से ही है।''

           मैंने कहा, ''भाई, हिंदी में लोग कहते हैं -ये मेरे. धर्मपिता हैं, अर्थात् पिता नहीं हैं, किन्तु मैंने इन्हें धर्मवश पिता मान लिया है। मैंने सुना था कि :

जनिता चोपनीता च यस्तु विद्या प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितर: स्मृता।।

           पैदा करनेवाला तो पिता है, शेष 'पितर: स्मृता:' अर्थात् पितातुल्य मान लिये गये हैं। इसी तरह से कुछ लोग किसी शिष्य या बालक को पालते-पोसते हैं, या उससे अत्यंत स्नेह करते हैं। उसे वे अपना 'धर्मपुत्र' कहते हैं। आप अपने पिता को केवल 'पिता' कहते है, 'धर्म- पिता' तो नहीं कहते और न अपने पुत्र को 'धर्मपुत्र' कहेंगे। 'धर्मपिता' या 'धर्मपुत्र' कहने से यह अर्थ निकलता है कि वास्तव में वे मेरे पिता या पुत्र नहीं हैं, मैंने धर्म से इन्हें पिता या पुत्र मान लिया है। वास्तविक पिता या पुत्र के आगे 'धर्म' शब्द लगाते हुए किसी को सुना है?”

           उन्हें कहना पड़ा, ''नहीं।''

           ''तब'',मैंने कहा, ''पत्नी वही है, जिससे आपका विधिवत् विवाह हुआ है। वह विवाह संस्कार द्वारा या अदालत में रजिस्ट्री द्वारा हो सकता है। उसके बाद वह आपकी पत्नी हो गयी। अंग्रेजी में भी 'फादर-इन-ला, ब्रदर-इन-ला, सिस्टर-इन-ला' शब्द चलते हैं पर 'वाइफ-इन-ला' तो मैंने सुना नहीं। उन लोगों में तलाक के बाद कानून से विवाह संबंध विच्छेद हो जाता है, किन्तु जब तक तलाक नहीं होता तब तक वह केवल 'वाइफ' है न कि 'वाइफ-इन-ला ?''

           वे मेरी ऊटपटांग बाते अवाक् हो सुनते रहे। तब मैंने कहा, ''जिस प्रकार धर्मपिता के तात्पर्य हैं कि वह व्यक्ति जिसे हम धर्म-पिता कहते हैं, वास्तव में मेरा पिता नहीं है, मैंने इसे केवल धर्मवश पिता मान लिया है और वह भी मुझे पुत्र की तरह मानता है, उसी प्रकार 'धर्मपत्नी' शब्द से मेरी मोटी अक्ल में यह बात आती है कि वह मेरी वास्तव में पत्नी नहीं है, किंतु मैंने उसे धर्म या कर्मवश या व्यावहारिक रूप से अपनी पत्नी मान लिया है। 'कर्मवश' या 'व्यावहारिक' पत्नी कहना कुछ अच्छा नहीं लगता! प्रतिष्ठित शब्द 'धर्म' का उपयोग अच्छा लगता है। धर्म के अर्थ अनेक हैं। प्रेम' भी तो मनुष्य के मन का नैसर्गिक धर्म है। वह किसीसे भी हो सकता है। आवश्यक नहीं कि वह ब्याहता स्त्री अर्थात् पत्नी से ही हो। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। आप समझ गये होंगे कि मैं 'धर्म- पत्नी' किसे समझता हूं और क्यों पत्नी और धर्मपत्नी में भेद करता हूं। आप मुझे गलत न समझें, आप इन्हें भले ही अपनी 'धर्मपत्नी' कहें, किंतु मैं इन्हें आपकी पत्नी ही मानता हूं। मुझे कोई भ्रम नहीं है।''

           मैंने आगे कहा, ''शायद आप भी ऐसे प्रकरण जानते हों और मैं तो ऐसे कई प्रकरण जानता हूं, जिनमें बिना किसी प्रकार के विवाह- बंधन में पड़े स्त्री और पुरुष पति-पत्नी की तरह रहते हैं। मैं एक जोड़े को जानता हूँ जो बीस वर्ष से अधिक समय से इसी प्रकार रह रहा है। दोनों आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, क्योंकि दोनों ही सरकारी नौकरी में हैं। वे इतने स्वतंत्र हैं कि घरवाले चाहते या न चाहते, वे पारंपरिक प्रथा से विवाह कर सकते थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। यदि वह उन्हें स्वीकार न होता तो मजिस्ट्रेट के सामने कानूनी विवाह कर सकते थे किंतु उन्होंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी। जो लोग असली बात नहीं जानते, वे उन्हें ब्याहता पति-पत्नी ही समझते हैं। मैं यह रहस्य जानता हूं और उनकी श्रीमती जी को सदा उनकी धर्मपत्नी कहता हूं, क्योंकि पत्नी न होते हुए भी वे पत्नी का धर्म निर्वाह कर रही हैं। वे स्वयं उन्हें धर्मपत्नी नहीं कहते। औरों से उनका परिचय 'मेरी वाइफ' या 'मेरी श्रीमती' कहकर कराते हैं।''

           मेरे नवीन मित्र ने पूछा, ''क्या 'श्रीमती' में पत्नी का भाव नहीं आता? ''

           मैंने कहा, '' 'श्रीमती' वह है जो आपकी 'श्री' की वृद्धि करे, या जिसकी श्रीवृद्धि आपके कारण होती हो। यह काम पत्नी और धर्म- पत्नी समान रूप से कर सकती हैं। अतएव यह शब्द दौनों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।'

           मैंने अनुभव किया कि श्री विनोद शर्मा ने 'अति' कर दी है। अब उन्हें विदा कर देना चाहिए। अतएव, मैं उस देवी की ओर मुड़ा जो न मालूम क्या आशा लेकर मुझसे मिलने आयी थी और मेरी अप्रत्याशित ऊलजलूल बातों को सुनकर यदि खीझ न रही होगी तो बोर तो अवश्य ही हो रही होगी। मैंने उससे कहा, ' 'तुम्हारे पति ने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हें एक साहित्यिक से मिलाने ले चल रहा हूं। तुम स्वयं साहित्य में रुचि लेती हो। मेरे बारे में तुम्हारे पति का विचार कितना गलत है, यह तो तुम्हें मेरी बातों से मालूम हो ही गया होगा। किंतु शायद मेरी ऊलजलूल बातों से तुम्हारा कुछ मनोरंजन हुआ हो। लो, अब मेरे हाथ की बनाई चाय पियो। आशा है कि वह इतनी मीठी न होगी, जितनी मेरी बातें। मुझे कविता सुनने का शौक है और तुम! कविता करती हो। चाय पीने के बाद अपने कुछ गीत सुनाकर एक बूढ़े का मनोरंजन करने का पुण्य लो। आशा है कि तुम मेरी बातों को एक बूढ़े की बकवास समझकर उसपर अधिक ध्यान न दोगी किंतु इन्हें कह देना कि भविष्य में तुम्हें अपनी पत्नी कहें, धर्मपत्नी नहीं.
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(श्रीनारायण चतुर्वेदी के व्यंग्य संग्रह से साभार)