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गुरुवार, 18 सितंबर 2025

सितंबर १८, गीत, हिंदी, दोहे, यमक, अलंकार,


सितंबर १८
*
युगीय गीत
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हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
पूर्ण कंपित, अंश डँसता मुस्कुराए
एक पर निष्ठा नहीं रह गई बाकी
दो न अनगिन को पिलाए सुरा साकी
बाँह में इक, चाह में दुई, देख तीजी-
बहक मन ने खोज चौथी राह ताकी
आ प्रपंचन पाँचवी घर-घट दिखाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
दूध छठ का छठी को लख याद आए
सातवीं आ दिवस में तारे दिखाए
आठवीं ने खड़ी कर दी खाट पल में-
नाश करने आई नौवीं पथ भुलाए
देह दुर्गज दहाई को शून्य पाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
घटा-जोड़ा जो नहीं कुछ हाथ आया
गुणा गुण का भाग दे अवगुण बनाया
भिन्न ने अभिन्न हो अवमूल्यन कर-
नीति को बेदाम कर बेदम कराया
वरण कर बदनाम का अंधे कहाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
पीढ़ियों की सीढ़ियों की नींव खोई
माँग जा बाजार में बेजार रोई
पूर्ति को मंहगाई ने बंधक बनाया-
मूलधन की नाव ब्याजों ने डुबोई
पूंजियों ने प्राण श्रम के नोच खाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
अर्थ ने न्योता अनर्थों को अजाने
पुजारी रख पूज्य गिरवी लगा खाने
वर्गमूलों पर करें आघात घातें-
वक्फ की दौलत लगा मुल्ला उड़ाने
पादरी को ननों का सौंदर्य भाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
सियासत ने सिया-सत को खो दिया है
आग घर में लगाता जलता दिया है
शारदा को लक्ष्मी नीलाम करती-
प्रेयसी-हाथों छला जाता पिया है
नाव में पतवार बच, नौका डुबाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
दस दिशाओं से तिमिर ने हमें घेरा
आठ प्रहरों से दुखी संध्या-सवेरा
बजा बारह बारहों महिने ठठाते-
हुआ बेघर घर, लगे भूतों का डेरा
न्याय को अन्याय नीलामी चढ़ाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
१८.९.२०२५
०००
हिंदी की तस्वीर
*
हिंदी की तस्वीर के, अनगिन उजले पक्ष
जो बोलें वह लिख-पढ़ें, आम लोग, कवि दक्ष
*
हिदी की तस्वीर में, भारत एकाकार
फूट डाल कर राज की, अंग्रेजी आधार
*
हिंदी की तस्वीर में, सरस सार्थक छंद
जितने उतने हैं कहाँ, नित्य रचें कविवृंद
*
हिंदी की तस्वीर या, पूरा भारत देश
हर बोली मिलती गले, है आनंद अशेष
*
हिंदी की तस्वीर में, भरिए अभिनव रंग
उनकी बात न कीजिए, जो खुद ही भदरंग
*
हिंदी की तस्वीर पर अंग्रेजी का फेम
नौकरशाही मढ़ रही, नहीं चाहती क्षेम
*
हिंदी की तस्वीर में, गाँव-शहर हैं एक
संस्कार-साहित्य मिल, मूल्य जी रहे नेक
१८.९.२०१६
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
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बुधवार, 17 सितंबर 2025

सितंबर १७, मुक्तिका, हिंदी ग़ज़ल, वैणसगाई, लाटानुप्रास, अलंकार, गणेश, दोहा यमक, सरहद, संसद,हिंग्लिश

सलिल सृजन सितंबर १७
*
हिंग्लिश गजल . दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है . फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है . एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है . टूट मन पाए नहीं संकट में भी दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है . प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है . जिंदगी की बंदगी है दोस्ती गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है . जीव को 'संजीव' करती दोस्ती कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है १७.९.२०२५ ०००
मुक्तिका
हिंदी ग़ज़ल
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
जो सुधरकर खुद पहुँचती लक्ष्य पर
सबसे पहले भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका है नाम इसका आजकल
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
१७.९.२०१८
***
गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद है
बलिदानी
संसद-जां प्यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
क्रमांक - वाक्यांश या शब्द-समूह - शब्द
०१.जिसका जन्म नहीं होता अजन्मा
०२. पुस्तकों की समीक्षा करने वाला समीक्षक , आलोचक
०३. जिसे गिना न जा सके अगणित
०४. जो कुछ भी नहीं जानता हो अज्ञ
०५ . जो बहुत थोड़ा जानता हो अल्पज्ञ
०६. जिसकी आशा न की गई हो अप्रत्याशित
०७. जो इन्द्रियों से परे हो अगोचर
०८. जो विधान के विपरीत हो अवैधानिक
०९. जो संविधान के प्रतिकूल हो असंवैधानिक
१०. जिसे भले -बुरे का ज्ञान न हो अविवेकी
११. जिसके समान कोई दूसरा न हो अद्वितीय
१२. जिसे वाणी व्यक्त न कर सके अनिर्वचनीय
१३. जैसा पहले कभी न हुआ हो अभूतपूर्व
१४. जो व्यर्थ का व्यय करता हो अपव्ययी
१५. बहुत कम खर्च करने वाला मितव्ययी
१६. सरकारी गजट में छपी सूचना अधिसूचना
१७. जिसके पास कुछ भी न हो अकिंचन
१८. दोपहर के बाद का समय अपराह्न
१९. जिसका निवारण न हो सके अनिवार्य
२०. देहरी पर चित्रकारी अल्पना
२१. आदि से अन्त तक
२२. जिसका परिहार सम्भव न हो अपरिहार्य
२३. जो ग्रहण करने योग्य न हो अग्राह्य
२४ जिसे प्राप्त न किया जा सके अप्राप्य
२५. जिसका उपचार सम्भव न हो असाध्य
२६. जिसे भगवान में विश्वास हो आस्तिक
२७. जिसे भगवान में विश्वास न हो नास्तिक
२८. आशा से अधिक आशातीत
२९. ऋषि की कही गई बात आर्ष
३०. पैर से मस्तक तक आपादमस्तक
३१. अत्यंत लगन एवं परिश्रम वाला अध्यवसायी
३२. आतंक फैलाने वाला आंतकवादी
३३. विदेश से कोई वस्तु मँगाना आयात
३४. जो तुरंत कविता बना सके आशुकवि
३५. नीले रंग का फूल इन्दीवर
३६. उत्तर-पूर्व का कोण ईशान
३७. जिसके हाथ में चक्र हो चक्रपाणि
३८. जिसके मस्तक पर चन्द्रमा हो चन्द्रमौलि
३९. जो दूसरों के दोष खोजे छिद्रान्वेषी
४०. जानने की इच्छा जिज्ञासा
४१. जानने को इच्छुक जिज्ञासु
४२. जीवित रहने की इच्छा जिजीविषा
४३. इन्द्रियों को जीतनेवाला जितेन्द्रिय
४४. जीतने की इच्छा वाला जिगीषु
४५. जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं टकसाल
४६. जो त्यागने योग्य हो त्याज्य
४७. जिसे पार करना कठिन हो दुस्तर
४८. जंगल की आग दावाग्नि
४९. गोद लिया हुआ पुत्र दत्तक
५०. बिना पलक झपकाए हुए निर्निमेष
५१. जिसमें कोई विवाद ही न हो निर्विवाद
५२. जो निन्दा के योग्य हो निन्दनीय
५३. मांस रहित भोजन निरामिष
५४. रात्रि में विचरण करनेवाला निशाचर
५५. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता पारंगत
५६. पृथ्वी से सम्बन्धित पार्थिव
५७. रात्रि का प्रथम प्रहर प्रदोष
५८. जिसे तुरंत उचित उत्तर सूझ जाए प्रत्युत्पन्नमति
५९. मोक्ष का इच्छुक मुमुक्षु
६०. मृत्यु का इच्छुक मुमूर्षु
६१. युद्ध की इच्छा रखनेवाला युयुत्सु
६२. जो विधि के अनुकूल है वैध
६३. जो बहुत बोलता हो वाचाल
६४. शरण पाने का इच्छुक शरणार्थी
६५. सौ वर्ष का समय शताब्दी
६६. शिव का उपासक शैव
६७. देवी का उपासक शाक्त
६८. समान रूप से ठंडा और गर्म समशीतोष्ण
६९. जो सदा से चला आ रहा हो सनातन
७०. समान दृष्टि से देखने वाला समदर्शी
७१. जो क्षण भर में नष्ट हो जाए क्षणभंगुर
७२. फूलों का गुच्छा स्तवक
७३. संगीत जाननेवाला संगीतज्ञ
७४. जिसने मुकदमा किया है वादी
७५. जिसके विरुद्ध मुकदमा हो प्रतिवादी
७६. मधुर बोलने वाला मधुरभाषी
७७. धरती-आकाश के बीच का स्थान अंतरिक्ष
७८. महावत के हाथ का लोहे का हुक अंकुश
७९. जो बुलाया न गया हो अनाहूत,
८०. सीमा का अनुचित उल्लंघन अतिक्रमण
८१. जिसका पति विदेश चला गया हो प्रोषित पतिका
८२. जिसका पति विदेश से आया हो आगत पतिका
८३. जिसका पति परदेश जानेवाला हो प्रवत्स्यत्पतिका
८४. जिसका मन दूसरी ओर हो अन्यमनस्क
८५. संध्या और रात्रि के बीच की वेला गोधूलि
८६. माया करनेवाला मायावी
८७. टूटी-फूटी इमारत का अंश भग्नावशेष
८८. दोपहर से पहले का समय पूर्वाह्न
८९. कनक जैसी आभावाला कनकाभ
९०. हृदय को विदीर्ण कर देनेवाला हृदय विदारक
९१. हाथ से कार्य करने का कौशल हस्तलाघव
९२. स्त्रियों से हाव-भाववाला पुरुष स्त्रैण
९३. जो लौटकर आया है प्रत्यागत
९४. जो कार्य कठिनता से हो सके दुष्कर
९५. जो देखा न जा सके अलक्ष्य
९६. बाएँ हाथ से तीर चला सकनेवाला सव्यसाची
९७. वह स्त्री जिसे सूर्य ने भी न देखा हो असूर्यम्पश्या
९८. हाथी पर बैठने हेतु आसंदी हौदा
९९. जिसे साधना सम्भव न हो असाध्य
१००. अन्य की जगह अस्थाई नियुक्त स्थानापन्न
***
भोजपुरी भाषा की विशेषता : गागर में सागर
एक शब्द सारे मायने बदल देता है-
के मारी? = किसने मारा?
केके मारी? = किसको मारा?
के केके मारी? = किसने किसको मारा?
केके केके मारी? = किसको-किसको मारा?
के केके केके मारी? = किसने किसको किसको मारा?
केके केके के के मारी? = कॉस्को किसको किसने किसने मारा?
***
अलंकार चर्चा : ९
वैणसगाई अलंकार
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
***
दोहा सलिला
गणेश महिमा
*
श्री गणेश मंगल करें, ऋद्धि-सिद्धि हों संग
सत-शिव-सुंदर हो धरा, देख असुर-सुर दंग
*
जनपति, मनपति हो तुम्हीं, शत-शत नम्र प्रणाम
गणपति, गुणपति सर्वप्रिय, कर्मव्रती निष्काम
*
कर्म पूज्य सच सिखाया, बनकर पहरेदार
प्राण लुटाये फ़र्ज़ पर, प्रभु! वंदन शत-बार
*
व्यर्थ न कुछ भी सिखाने, गही मैल से देह
त्याज्य पूत-पावन वही, तनिक नहीं संदेह
*
शीश अहं का काटकर, शिव ने फेंका दूर
मोह शिवा का खिन्न था, देख सत्य भ्रम दूर
*
सबमें आत्मा एक है, नर-पशु या जड़-जीव
शीश गहा गज का पुलक, हुए पूज्य संजीव
*
कोई हीन न उच्च है, सब प्रभु की संतान
गुरु-लघु दंत बता रहे, मानव सभी समान
*
सार गहें थोथा सभी, उड़ा दूर दो फेक
कर्ण विशाल बता रहे, श्रवण करो सच नेक
*
प्रभु!भारी स्थिर सिर-बदन, रहे संतुलित आप
दहले दुश्मन देखकर, जाए भय से काँप
*
तीक्ष्ण दृष्टि सत-असत को, पल में ले पहचान
सूक्ष्म बुद्धि निर्णय करे, सम्यक दयानिधान!
*
क्या अग्राह्य है?, ग्राह्य क्या?, सूँढ सके पहचान
रस-निधि चुन रस-लीन हो, आप देव रस-खान
*
***
गणपति वंदना
वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा
*
तिरछी सूँढ़ विशाल तन, कोटि सूर्य सम आभ
देव! करें निर्बाध हर, कार्य सदा अरुणाभ -- दोहानुवाद: संजीव
*
वक्र = टेढ़ी, curved; तुण्ड =सूंढ़, trunk
महा = विशाल, large; काय =शरीर, body
सूर्य = सूरज, sun; कोटि = करोड़, 10 million
समप्रभ = के समान प्रकाशवान, with the Brilliance of
निर्विघ्नं = बाधारहित, free of obstacles
कुरु = करिए,make
मे = मेरे, my
देव = ईश्वर, lord
सर्व = सभी, all
कार्येषु = कार्य, work
सर्वदा = हमेशा, always
*
O Lord Ganesha, blessed with Curved Trunk, Large Body, and Brilliance of a Million Suns, Please, always make all my Works Free of Obstacles, .
*
***
अलंकार चर्चा : ८
लाटानुप्रास अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
***
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है। 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
१७-९-२०१५
***
मुक्तिका:
स्मरण
*
मोटा काँच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, शिशु बन पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न संग ले गईं, क्यों तुम सबकी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न सँग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, श्वास-श्वास में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
१७-९-२०१४
***
:दोहा सलिला :
गले मिले दोहा-यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
जहाँ पनाह मिले वहीं, झट बन जहाँपनाह
स्नेह-सलिल का आचमन, देता शांति अथाह
*
स्वर मधु बाला चन्द्र सा, नेह नर्मदा-हास
मधुबाला बिन चित्रपट, है श्रीहीन उदास
*
स्वर-सरगम की लता का,प्रमुदित कुसुम अमोल
खान मधुरता की लता, कौन सके यश तौल
*
भेज-पाया, खा-हँसा, है प्रियतम सन्देश
सफलकाम प्रियतमा ने, हुलस गहा सन्देश
*
गुमसुम थे परदेश में, चहक रहे आ देश
अब तक पाते ही रहे, अब देते आदेश
*
पीर पीर सह कर रहा, धीरज का विनिवेश
घटे न पूँजी क्षमा की, रखता ध्यान विशेष
*
माया-ममता रूप धर, मोह मोहता खूब
माया-ममता सियासत, करे स्वार्थ में डूब
*
जी वन में जाने तभी, तू जीवन का मोल
घर में जी लेते सभी, बोल न ऊँचे बोल
*
विक्रम जब गाने लगा, बिसरा लय बेताल
काँधे से उतरा तुरत, भाग गया बेताल
१७-९-२०१३

* 

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

सितंबर, मुक्तिका, हिंदी ग़ज़ल, कुंडलिया, मेघ,

सलिल सृजन सितंबर १६
*
मुक्तिका
*
मन की बात करे अवधेश
जंगल में सिय करे प्रवेश
लखन न लख पाते हैं सत्य
करें वही जो कहें नरेश
भरत न रत सत-साधन में
राजा की जय करें हमेश
शत्रु शत्रुघन खुद अपने
बहिनें नोचें अपने केश
रजक कहे जय आरक्षण
विस्मित देखें दृश्य महेश
गुरु वशिष्ठ चुप झुका नज़र
शोकाकुल माताएँ - देश
समय हुआ विपरीत 'सलिल'
मन की बात करे अवधेश
१६-९-२०२२, ५.५७
*
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
पाठ १
हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहें क्योंकि हर द्विपदी (दो पंक्तियाँ या शे'र) शेष से मुक्त अपने आप में पूर्ण होती हैं.मुक्तिका में पदांत तथा तुकांत गज़ल की ही तरह होता है किन्तु पदभार (पंक्ति का वजन) हिंदी मात्रा गणना के अनुसार होता है. इसे हिंदी के छंदों को आधार बनाकर रचा जाता है. उर्दू ग़ज़ल बहर के आधार पर रची जाती है तथा वजन तकती'अ के मुताबिक देखा जाता है. जरूरत हो तो लघु को गुरु और गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है, मुक्तिका में यह छूट नहीं होती.
गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है.
गजल में प्रचलित बहरें और उनकी मापनी क्या है?
मुक्तिका, ग़ज़ल, तेवरी, अनुगीत, गीतिका आदि नामों से एक ही शिल्प की रचनाएँ संबोधित की जाती हैं। उनके तत्वों सम्बन्धी जानकारी-
शब्दार्थ
कवि / शायर- जानकार, जाननेवाला, ज्ञानी, वह व्यक्ति जो विधा तथा विषय को जानकर उस पर लिखता है।
द्विपदी / शे'र (बहुवचन अश'आर) - द्विपदी अर्थे दो पंक्तियाँ, शे'र = जानना, जानी हुई बात, ज्ञान।
बैत- फुटकर या अकेली दो पंक्ति तथा समान छंद व भार (वजन) की रचना।
मिसरा- पंक्ति / पद। पहली पंक्ति- अग्र पंक्ति, मिसरा ऊला। दूसरी पंक्ति- पाद पंक्ति, मिसरा सानी।
मिस्राए उला = शेर की प्रथम पंक्ति।
मिस्राए सानी = शेर की दूसरी पंक्ति।
रदीफ़ = (बहुवचन रदाइफ), पदांत, पंक्त्यांत, पंक्ति के अंत में प्रयोग हुआ शब्द या शब्द समूह। बेरदीफ = रदीफ़ रहित।
काफिया = (बहुवचन कवाफी) तुकान्त, पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द इनके अंतिम अक्षर या मात्रा आपस में मिलते हैं।
मतला = प्रारम्भिका, उदयिका, मुखड़ा, रचना के आरंभ में प्रयुक्त पंक्ति-युग्म जिनमें तुकांत-पदांत समान हो।
मक्ता = अंतिका, समाप्तिका, अंतिम द्विपदी, इसी में रचनाकार का नाम या उपनाम रखा जाता है।
रुक्न = (बहुवचन इरकान) गण, स्तंभ, खंबा।
अज्जाये रुक्न = लय खंड।
वज्न = मात्रा भार या वर्ण संख्या।
सबब = द्विकल, दो मात्रा।
बतद= त्रिकल, तीन मात्रा।
फासला = चतुश्कल, चार मात्रा।
सदर = उदय।
अरूज़ = उत्कर्ष।
इब्तदा = प्रारंभ।
ज़रब = अंत।
तक्तीअ = शेर की कसोटी या छन्द विभाजन।
बहर = छन्द।
मुरक्कब = मिश्रित।
मजाइफ़ = परिवर्तन।
सालिम = पूर्ण।
रब्त = अन्तर्सम्बन्ध।
पदांत / रदीफ़- वह शब्द समूह, शब्द, अक्षर या मात्रा जिससे पंक्ति का अंत होता है।
तुकांत / काफ़िया- पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द का अंतिम अक्षर या मात्रा।
उदाहरण-
१. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
यहाँ 'लगे हैं' पदांत तथा 'आने व चिल्लाने' तुकांत हैं।
मुक्तिका / गजल में पहली दो पंक्तियों में प्रयुक्त पदांत और तुकांत का अगली हर दूसरी पंक्ति के अंत में प्रयोग किया जाना अनिवार्य होता है।
किसी मुक्तिका में तुकांत ही पदांत भी हो सकता है अर्थात तुकांत के बाद पदांत अलग से न हो तो भी कोई दोष नहीं है। इसे तुकांतहीन या बेदरीफ कहते हैं।
उदाहरण-
अपना बिम्ब निहारो दर्पण मत तोड़ो / राह भटकने से पहले पग को मोड़ो
यहाँ 'तोड़ो', 'मोड़ो' तुकांत और पदांत दोनों है, तुकांत के बाद पदांत अलग से नहीं है।
आरम्भिका / मुखड़ा / मतला- प्रथम दो पंक्तियाँ जिनमें छन्द, पदभार, तुकांत तथा पदांत समान हो।
इस अनुसार दो से अधिक पंक्ति-युग्म होने पर उन्हें क्रमश: प्रथम मुखड़ा (मतला ऊला), द्वितीय मुखड़ा (मतला सानी), तृतीय मुखड़ा (मतला सोम), चौथा मुखड़ा (मतला चहारम) आदि कहते हैं । पहले कई-कई मुखड़ों की रचना करना सम्मान की बात समझी जाती थी, अब दो से अधिक मुखड़ों का चलन नहीं है।
अंतिका / मक़ता- मुक्तिका / गजल की अंतिम दो पंक्तियाँ। इनमें रचनाकार अपना उपनाम / तखल्लुस का प्रयोग कर सकता है। उपनाम का प्रयोग न करने पर रचना को अन्तिकाहीन (बेमक्ता) कहा जाता है।
उपनाम / तखल्लुस- रचनाकार द्वारा प्रयुक्त नामंश, छद्म नाम या उपनाम। पहले रचना की आरंभ व अंत की द्विपदी में उपनाम प्रयोग किया जाता था। अब अंत में उपनाम देना या न देना भी ऐच्छिक है।
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हिंदी ग़ज़ल
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ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
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मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका भी कह रहे
भाव का अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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[महाभागवत जातीय छन्द]
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
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काव्य पत्राचार
शायरे-आज़म नूर साहेब के शागिर्दे खास जनाब देवकीनंदन 'शांत' हिंदी भूषण
उम्र भर लड़ता रहा हूँ, गम की लहरों से अशांत
धीरे-धीरे ग़म का सागर, 'शांत' होकर रह गया। - शांत
*
बिन 'सलिल' सागर पियासा, शांत कैसे हो कहो?
धरा की गोदी में हो, या हाथ में साकी के हो। -सलिल
१६-९-२०१९
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मुक्तक-
पंचतत्व तन माटी उपजा, माटी में मिल जाना है
रूप और छवि मन को बहलाने का हसीं बहाना है
रुचा आपको धन्य हुआ, पाकर आशीष मिला संबल
है सौभाग्य आपके दिल में पाया अगर ठिकाना है
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सलिल-लहर से रश्मि मिले तो, झिलमिल हो जीवन नदिया
रश्मि न हो तम छाये दस-दिश, बंजर हो जग की बगिया
रश्मि सूर्य को पूज्य बनाती, शशि को देती रूप छटा-
रश्मि ज्ञान की मिल जाए तो जीवात्मा होती अभया
*
आभा-प्रभा-ज्योति रश्मि की, सलिल-धार में छाया सी
करें कल्पना रवि बिम्बित, है प्रतुल अर्चना माया की
अनुश्री सुमन बिखेरे, दर्शन कर बृजनाथ हुए चंचल
शरद पवन प्रभु राम-शत्रुघन, शिव अशोक लाये शतदल
हैं राजेंद्र-सुरेंद्र बंधु रणवीर संग कमलेश विभोर
रच आदर्श सृष्टि प्रमुदित-संजीव परमप्रभु थामे डोर
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कुंडलिया-
राधे मेरी स्वामिनी!, कृष्ण विकल कर जोर
मना रहे हैं मानिनी, विमुख हुईं चित चोर
विमुख हुईं चित चोर, हँसें लख प्रिय को कातर
नटवर नट, वर रहा वेणु को, धर अधराधर
कहे 'सलिल' प्रभु चपल मनाते 'करो न देरी
नयन नयन से विहँस मिलाओ, राधे मेरी'
१६-९-२०१६
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कृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
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[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूलकी ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' -नवगीत के नये प्रतिमान
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखतिब हैकृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
चर्चाकार: आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
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सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूल की ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।'
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखातिब है।
डॉ. नामवर सिंह में अनुसार ' समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अंतर्वस्तु बदलती है तो उसका 'सुर' और 'कहन' की बदलती है।'
उक्त तीनों अभिमतों के प्रकाश में गीता पंडित के तीसरे (पहला मौन पलों का स्पंदन १९११, दूसरा लकीरों के आर-पार १९१३) नवगीत संग्रह 'अब और नहीं बस' को पढ़ना और उस पर चर्चा करना बेहतर होगा। विवेच्य संग्रह का केंद्र नारी उत्पीड़न और नारी विमर्श है। 'पीर के हर एक समंदर / को बना नदिया / बहो तुम', 'ओ री चिड़िया! / तनिक ज़रा तुम / मुख तो खोलो', ' गांठें इतनी / लगी पलों में / मन की रस्सी टूट गयी', 'मैं जो हूँ / बस वो ही हूँ / करो ना हस्ताक्षर मुझ पर', 'अपने घर हो / गये पराये / वहशी आदम जात लगे', 'एकाकी गलियों में जाकर / मन तो / रोया करता है', 'कसकता रहा / रात भर मनवा / पीर हुई पल में गहरी', 'लेकिन जो / अंतर को छू ले / ऐसा साथी मिला कहाँ?', 'पहनाई ये / कैसी पायल / जिनमें बोल नहीं सजते', 'सब कुछ बदल / रहा है लेकिन / पीर कहाँ बदली मीते!', 'भूल गयी मैं देस पीया का / असुंवन भीगे / गाल', 'मौन हो गये / मन के पाखी / मौन हुई डाली-डाली', 'मात्र समर्पण / की हूँ दासी / बिन इसके कुछ भान नहीं', ' नीर / सिसकते गहरे / शेष अभी / क्या है तन में?' आदि-आदि अभियक्तियाँ नारी की व्यथ-कथा पर ही केंद्रित हैं।
प्रश्न यह उठता है कि नवगीत वर्ग विशेष की अनुभूतियों का वाहक हो या समग्र समाज की भावनाओं का पोषक हो? यह भी कि क्या वास्तव में नारी इतनी पीड़ित है कि उसका जीवन दूभर है? यदि ऐसा है तो घर-घर में जो शक्ति माँ, बहिन, भाभी, पत्नी, बेटी के रूप में मान, ममता, आदर, प्यार और लाड़ पा रही, अपने सपने साकार कर रही और पुरुष का सहारा ही नहीं सम्बल भी बन रही है, वह कौन है? स्त्री-पुरुष संबंध में टूटन हो तो क्या पीड़ा केवल स्त्री को होती है? पुरुष की टूटन भी क्या चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए? क्यास्त्री प्रताड़ना का दोषी पुरुष मात्र है? क्या स्त्री का शोषण स्त्री खुद भी नहीं करती? क्या सास-बहू, नन्द भाभी, विमाता, सौतन आदि की भूमिकाओं में खलनायिकाएँ स्त्री ही नहीं होतीं? इस प्रश्नों पर विचरण का यहाँ न स्थान है न औचित्य किन्तु संकेतन इसलिए कि संग्रह की रचनाओं में यह एकांगी स्वर मुखर हो रहा है। इससे रचनाकार की तटस्थता और निष्पक्षता के साथ-साथ सृजन के उद्देश्य पर भी सवाल उठता है।
यदि वाकई यह पीड़ा इतनी घनीभूत तथा असह्य है तो फिर नारी-मन में पीड़ा के कारण पुरुष के प्रति विद्रोह के स्थान पर आकर्षण क्यों?, पुरुष के साथ की कामना क्यों? 'हरकारा संदेसा लेकर / जैसे ही आया / ढोल नगाड़े / बज उठे / लो उत्सव मन छाया', 'एक तुम्हारे बिन कैसे / आज सुन्दर है तन-मन', 'एक तुम्हारे संग में ही तो / मन के पंछी गाये थे', 'तुम बिन मीते! हँसी स्वप्न सब / सपने होकर / रह गये', 'भाव की हर भंगिमा ने / मीत! तुमको ही पुकारा', 'गेट बन जाऊँगी मीठे! / गुनगुना जो / दो मुझे तुम', 'छोड़ तुम्हें / किसको / ध्यायें', 'पाये ना कल मन ना बैठे हार कर / ओ परदेसी! / मीत मेरे जल्दी आना', 'जिन गीतों में / तुमको गाते / गीत वो ही बस मन भाये', 'जो जीवन में / रस घोले / ऐसा रसमय सार चाहिए / एक तुम्हारा प्यार चाहिए', 'अस्त होते / सूर्य सा ढलना सहा है / मीत तुम बिन', 'तुम सुधा का सार प्यासी / बूँद हूँ मैं / तुमसे ही अस्तित्व मेरा', 'इस अँधेरी रात के / लो पायताने बैठकर / फिर तुम्हें दोहरा रही हूँ / 'मीत! तुमको गा रही हूँ', 'द्वारे बैठे बात जोहती / जल्दी से आ जाओ' आदि भावभिव्यक्तियाँ नारी उत्पीड़न के स्वर को कमजोर ही नहीं करतीं, झुठ्लाती भी हैं।
श्रृंगार के मिलन-विरह दो पक्षों की तरह इन्हें एक-दूसरे का पूरक मान लेने पर भी ये अभिव्यक्तियाँ पारम्परिकता का ही निर्वहन करती प्रतीत होती हैं, इनमें जनसंवादधर्मिता अथवा भावों का सामान्यीकरण नहीं दिखता।
गीता पंडित सुशिक्षित (एम. ए. अंग्रेजी साहित्य, एम. बी. ए. विपणन), सचेतन तथा जागरूक हैं किन्तु उनके इन गीतों में नगरीय परिवेश में शोषित होते, संघर्ष करते, टूटते-गिरते, उठते-बढ़ते मानवों की जय-पराजय का संकेतन नहीं है। ये गीत दैनंदिन जीवन संघर्षों, अवसादों-उल्लासों से दूर निजी दुनिया की सैर कराते हैं।
गीता पंडित के गीतों की भाषा सहज बोधगम्य, मुहावरेदार, प्रसाद गुण संपन्न है। अंग्रेजी, उर्दू, अथवा तत्सम-तद्भव शब्द कहीं-कहीं प्रयोग हुए हैं। इन गीतों का सबलपक्ष इनकी सहजता, सरलता तथा सरसता है। मीत, मीता, मीते सम्बोधन की बारम्बार आवृत्ति खटकती है। गीता जी शिल्प पर कस्थ्य को वरीयता देती हैं। वे शब्दों, तथा क्रियाओं के प्रचलित रूपों का सहजता से प्रयोग करती हैं। ल्हाश, बस्स, क्यूँ, यूं, कन्नी, समंदर, अलस्सवेरे, झमाझम, मनवा, अगन, बत्यकार, मद्धम, जैसे देशज शब्द भाषा में मिठास घोलते हैं।
'देख आज ये कैसा मेरे / मन पर लगे / मलाल, प्रेम गली बुहरा आये, मनवा आता अँखियाँ मूँद, तनिक ज़रा तुम, नेह का मौली' जैसी अभिव्यक्तियों पर पुनर्विचार कर परिवर्तन अपेक्षित है।
सारत: अब और नहीं बस के गीत पाठक को रुचेंगे किन्तु समीक्षकों की दृष्टि से गीत-नवगीत की परिधि पर हैं। गीता जी छंद को अपनाती हैं पर उसके विधाओं के प्रति आग्रही नहीं है। वे 'सहज पके सो मीठा होय' की लोकोक्ति की पक्षधर हैं। आलोच्य संग्रह के गीत रचनाकार के मंतव्य को पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सफल हैं। उनके पूर्व २ संकलन देखें के बाद विकास यात्रा की चर्चा हो सकेगी। आगामी संकलन में उनसे नवगीत के विधानात्मक पक्ष के प्रति अधिक सजगता की अपेक्षा की जासकती है.
***
अलंकार चर्चा : ७
अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको,
टोको ना रोको, आधी रात को
लाज लागे री लागे, आधी रात को
देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है
***
विमर्श :
साहित्यिक चोरी : सत्य या मुगालता
रचनाकारों द्वारा बहुधा यह कहा जाता है कि एक की रचना दूसरे ने चुरा ली. इतना कहते ही दोनों चर्चा में आ जाते हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया का दौर चलता है. यह आरोप प्राय: कुछ पंक्तियों या शब्दों की समानता से लेकर पंक्तियों और पूरी रचना चुराने तक लगाया जाता है.
इस विषय के कुछ और भी पहलू हैं.
१. क्या दो लोगों के मन में एक जैसे विचार, एक सी शब्दावली में नहीं आ सकते?
एक समान विचार तो अनेक लोगों के हो सकते हैं. विचारों के अभिव्यक्ति के लिये प्रयोग की गयी भाषा, शब्द,भाव, वाक्य, शैली आदि में अंतर प्राय: होता है. प्रश्न यह कि क्या किन्हीं २ रचनाकारों की कलम से शत-प्रतिशत एक जैसी रचना निकल सकती है?
मुझे ज्ञात है आप झट से कह देंगे नहीं,ऐसा नहीं हो सकता.
मैं आपसे सहमत हूँ पर पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे ५० वर्ष से अधिक के साहित्योक जीवन में एक प्रसंग ऐसा है जब २ रचनाकारों की रचना शत-प्रतिशत समान हुई. उनमें से के मैं हूँ और दूसरे लखनऊ के एक रचनाकार हैं. हम दोनों एक दूसरे से परिचित नहीं हैं. दोनों की रचनाधर्मिता इतनी प्रखर है कि उन्हें अन्य की रचना आवश्यकता नहीं है. हमारे कार्यक्षेत्र और प्रकाशन का दायरा भी भिन्न है.वर्षों पूर्व मैंने एक सरस्वती वंदना रची, स्थानीय स्टार पर प्रकाशित हुई. कुछ वर्षों बाद एक काव्य संग्रह समीक्षार्थ मिल. वह सरस्वती जी की स्तुतियों का ही संग्रह था. उसमें एक वंदना मुझे अपनी रचना की तरह लगी, पथ मिलाया तो शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति समान। आश्चर्य हुआ, रचनाकार के बारे में जानकारी ली. वे उस रचना को कई वर्षों पूर्व से यत्र-तत्र पढ़ रहे थे. उनके विपुल साहित्य को देखते हुए उनकी क्षमता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता था. संभवत:मैंने रचना बाद में की थी. मुझे ज्ञात है कि मैंने उनकी कोई रचना पहले पढ़ी नहीं थी. नकल या चोरी का प्रश्न ही नहीं हो सकता। एक ही सम्भावना थी की दोनों के मस्तिष्क में सम्मान विचार आये और दोनों ने समान शब्दों का चयन कर उन्हें व्यक्त किया. जब भी किसी से यह चर्चा करता हूँ वह इसे स्वीकार नहीं पाता किन्तु मैं तो जानता हूँ कि ऐसा हुआ है. मैंने आज तक उन सज्जन को भी यह नहीं बताया.
यह 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' प्रकरण है किन्तु है.
रचनाकार जिस वर्णमाला और शब्दावली का प्रयोग करता है, वह उसकी अपनी नहीं होती। हम सब किसी और द्वारा विकसित वर्णों और शब्दों का प्रयोग करते हैं. हमारी शैली, भाव, बिम्ब, प्रतीक, रूपक, छंद, लय, रस आदि हमसे पहले कई लोग प्रयोग में ला चुके होते हैं तो क्या इसे भी चोरी कहा जाएगा?
यदि हर रचनाकार अपनी वर्णमाला,शब्द मुहावरे, प्रतीक,बिम्ब, रूपक बनाये तो एक दूसरे को समझना कैसे संभव होगा? अत:यह स्पष्ट है की कोई भी सौ प्रतिशत मौलिक नहीं होता। हर रचनाकार पर किसी न किसी का,कहीं न कहीं से प्रभाव होता है. प्रभाव ही न हो तो साहित्य रचा ही क्यों जाए?
३. क्या आपने किसी चोर को धनपति होते देखा-सुना है?यदि कोई रचनाकार इतना असमर्थ है कि रचना लिख ही न सके तो कितनी रचनाएँ चुराएगा? आज साहित्य के श्रोता-पाठक न होने का रोना हम सब रोते हैं. किताबें न बिकने की शिकायत आम है. ऐसी स्थिति में कोई रचना चुराकर क्या कर लेगा?
४. आरम्भ में मित्र रचनाकार मुझे अंतर्जाल पर रचनाएँ लगाने से रोकते थे कि कोई चुरा लेगा. वे अपनी रचनाएँ चोरी के भय से नहीं अंतर्जाल पर नहीं लगाते थे पर समय के साथ भय मिट गया. २० वर्ष बाद आज अधिकाधिक रचनाकार यहाँ हैं. जब लोग श्रेष्ठतम रचनाएँ नहीं चुरा रहे तो मैं क्यों डरूँ? कोई रचना ही तो चुराएगा मेरा मस्तिष्क तो नहीं चुरा लेगा.
५. यदि कोई मेरी रचना अपने नाम से छाप ले तो क्या करूँ? उससे लड़ने में या उस सम्बन्ध में लिखने में जितना समसमय लगेगा उससे काम समय में मैं नयी रचना कर लूँगा. शिकायत से मन को क्लेश मिलेगा, रचना से आनंद. मन अपनी बुद्धि, समय और ऊर्जाव्ययकर क्लेशक्लेश क्यों लूँ?, आनंद लेता हूँ.
रचना कर्म के प्रतिदान में किसी लाभ (पुरस्कार,राशि या सम्मान) की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। गीता भी यही कहती है 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन'. रचना सरस्वती मैया की कृपा से की जाती है. रचनाकार केवल माध्यम होता है. शब्द ब्रम्ह मस्तिष्क को माध्यम बनाकर प्रगत होता है और उसे शब्द ब्रम्ह उपासकों तक पहुँचाने का दायित्व रचनाकार को मिलना उसका सौभाग्य है. जिस तरह डाकिया डाक पहुँचाने का माध्यम है, डाक का मालिक नहीं वैसे ही रचनाकार भी रचना का मालिक नहीं है. इसी कारण वेदों का कोई रचयिता नहीं व् अन्य ग्रंथों का कोई रचयिता नहीं है. प्रतिलिप्याधिकार (कॉपीराइट) की संकल्पना ही भारत में नहीं की गयी. यह पश्चिम से आयातित है.
सार यह कि अपना सृजन कर्म निष्काम भाव से पूजा की तरह करना चाहिए. उसे मिली प्रशंसा या आलोचना तटस्थ भाव से ग्रहण करनी चाहिए. रचना को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करने के बाद उसकी चिंता छोड़ नयी रचना पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
१६-९-२०१५
***
शरतचंद्र
कालजयी बंगला कथाकार/उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म १५ सितम्बर १८७६ को हुगली में हुआ था। १९०७ में इनका पहला उपन्यास 'बोडदीदी' प्रकाशित हुआ था। १९१४ में 'परिणीता' व 'बिराज बहू' आया। १९०१ में लिखा 'श्रीकांत' (४ भाग) प्रकाशित हुआ। 'देवदास' इन्होनें १९०१ में लिखा था पर प्रकाशन हुआ १९१७ में। कुल ३९ उपन्यासों के लेखक शरत बाबू विश्वसाहित्य की विभूति हैं। मन के अवगुंठन के चितेरे हैं शरतचंद्र। देवदास को ही देखिये। वास्तव में हर प्रेमी देवदास ही होता है। यह चरित्र आज प्रेमी का प्रतीक बन गया है। इस उपन्यास पर विभिन्न भाषाओँ में १६ बार फ़िल्में बन चुकी हैं और हर फिल्म लोकप्रिय हुई। फिल्मकारों ने इन्हें वाजिब हक़ दिया है इनके लिखे पर फ़िल्में बनाकर। परिणीता, मंझली दीदी, बिराज बहू इसके उदाहरण हैं। विष्णु प्रभाकर जी ने शरत पर आत्म चरितात्मक उपन्यास 'आवारा मसीहा' लिखा है।
***
गीत
मेघ का सन्देश
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
१६-९-२०१०
***

सोमवार, 15 सितंबर 2025

सॉनेट

सॉनेट एक परिचय
- बृजेश नीरज
*
साहित्य भाषाओं की सीमाओं के परे होता है। तमाम विधायें एक भाषा में जन्म लेकर दूसरी भाषाओं के साहित्य में स्थापित हुईं। हिन्दी भाषा साहित्य इससे परे नहीं रहा। बात छायावाद से शुरू करते हैं। छायावाद काल के काव्य में गीत एवं प्रगीत को प्रमुखता मिली इसीलिए इस काल को प्रगीत काल भी माना जाता है। इस काल के कवियों ने पश्चिमी स्वच्छंदतावादी काव्य के प्रभाव में प्रगीत शैली को अपनाया। वे सर्वाधिक अंग्रेजी प्रगीत काव्य धारा से प्रभावित थे।

स्वरूप, पाठ्य विशेषताओं और गेयता के आधार पर अंग्रेजी प्रगीत और भारतीय गीत में काफी भिन्नता है। प्रगीत संगीत की लय में नहीं गाए जाते किंतु उनमें पर्याप्त माधुर्य और प्रवाह होता है। संगीत के विधान के अनुरूप गेय पद रचना, जिसमें काव्य एवं संगीत तत्व का संतुलन रहता है, गीत कहलाती है। पश्चिमी विद्वान पालग्रेव के अनुसार, ’प्रगीत (लिरिक) की रचना किसी एक ही विचार भावना अथवा परिस्थिति से संबंधित होती है तथा उसकी रचना शैली संक्षिप्त तथा भावरंजित होती है।’ शैली एवं आकार की दृष्टि से प्रगीत के छः स्वरूप हैं-
1. सॉनेट (चतुष्पदी)
2. ओड (संबोधन प्रगीत)
3. एलिजी (शोक प्रगीत)
4. सेटायर (व्यंग्य प्रगीत)
5. रिफ्लेक्टिव (विचारात्मक प्रगीत)
6. डाइडेक्टिव (उपदेशात्मक)
सॉनेट
सॉनेट इटैलियन शब्द sonetto का लघु रूप है। यह छोटी धुन के साथ मेण्डोलियन या ल्यूट (एक प्रकार का तार वाद्य) पर गायी जाने वाली कविता है।
जन्म
सॉनेट का जन्म कहाँ हुआ, इस पर मतभेद हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सॉनेट का जन्म ग्रीक सूक्तियों (epigram) से हुआ होगा। प्राचीन काल में epigram का प्रयोग एक ही विचार या भाव को व्यक्त करने के लिए होता था। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड में प्रचलित बैले से पहले सॉनेट का अस्तित्व रहा है। यह भी मान्यता है कि यह सम्बोधिगीत (ode) का ही इटैलियन रूप है। एक मान्यता कहती है कि इस विधा का जन्म सिसली में हुआ और इसे जैतून के वृक्षों की छॅंटाई करते समय गाया जाता था।
इतिहास और स्वरूप
सॉनेट को विशेष रूप से तीन आयामों में देखा-परखा गया है-
1. आकृति की विशिष्टता
2. भाव की विशिष्टता के साथ वैयक्तिक अभिव्यक्ति।
3. सर्वांगपूर्णता, कल्पना, प्रेरणा और माधुर्य।
इटली
तेरहवीं शताब्दी के मध्य में सॉनेट का वास्तविक रूप सामने आया। फ्रॉ गुइत्तोन को सॉनेट का प्रणेता माना जाता है। इटली के कवि केपल लॉप्ट ने सॉनेट की खोज के लिए फ्रॉ गुइत्तोन को ‘काव्य साहित्य का कोलम्बस’ कहा है। फ्रॉ गुइत्तोन ने स्थापित किया कि सॉनेट की प्रत्येक पंक्ति में दस मात्रिक ध्वनियाँ होना चाहिए। गुइत्तोन के सॉनेट में कुल चौदह चरण होते हैं जो दो भागों में बॅंटे होते हैं-
1- अष्टपदी- अष्टपदी में पहली से चौथी की, चौथी से पाँचवीं की और पाँचवीं से आठवीं पंक्ति की तुक मिलायी जाती है। इसी तरह दूसरी से तीसरी की, तीसरी से छठवीं की और छठवीं से सातवीं पंक्ति की तुक मिलती है।
2- षष्ठपदी- षष्ठपदी में प्रायः पहली से चौथी की, दूसरी से पाँचवीं की और तीसरी से छठवीं पक्ति की तुक मिलायी जाती है। यह तीन-तीन चरणों में विभाजित रहती है। इसकी तुकान्त योजना में कुछ भिन्नताएँ भी हो सकती हैं।
गुइत्तोन और उसके पहले के सॉनेट रचनाकारों ने Guido Bonatti द्वारा ग्यारहवीं सदी में स्थापित सांगीतिक अनुशासन को अपनाकर सॉनेट की संरचना को गढ़ा। गुइत्तोन का मानना था कि कोई भी सॉनेट लेखक अपनी सांगीतिक पद्धति भी बना सकता है।
इसके बाद इटली के ही पेट्रार्का ने सॉनेट लिखे। पेट्रार्का की मान्यता थी कि सॉनेट का अन्त शुरूआत से अधिक लयात्मक होना चाहिए। पेट्रार्का और दान्ते ने गुइत्तोन सॉनेट में बदलाव भी किये। पेट्रार्का ने इसके लिए तीन तुकें निर्धारित की हैं। बाद में सॉनेट को तासो और अन्य कवियों ने भी अपनाया। इटली में प्रमुखतः सॉनेट के पाँच रूप मिलते हैं-
1. Twelve-syllabled lines (द्वादश मात्रिक सॉनेट)- इसमें एक पंक्ति में द्वादश मात्रिक ध्वनियाँ होती हैं। स्वर पर जोर नहीं होता, अन्त्याक्षर से तुक मिलायी जाती है।
2. Caudated or Tailed (पुच्छल सॉनेट)- इसमें दो या पाँच या इससे अधिक पंक्तियों का अनपेक्षित विस्तार होता है ।
3. Mute- यह एकाक्षरी तुकान्त वाला सॉनेट हास्य और व्यंग्य के लिए उपयुक्त होता है। इसमें दो अक्षर के तुकान्त भी होते हैं।
4. Linked or Interlaced (अन्तर्ग्रथित सॉनेट) - इसमें कोई कथा, भाव या विचार संगुम्फित होता है।
5. Conutinuous or Iterating (अविच्छिन्न सॉनेट)- इसमें ज़्यादातर एक ही तुक की सप्रवाह पुनरावृत्ति होती है। कभी दो तुकें भी मिलायी जाती हैं।
इंग्लैण्ड
सॉनेट को फ्रांस के कवियों, इंग्लैंड में सरे और स्पेन्सर तथा स्पहानी कवियों ने भी अपनाया। जर्मनी में पेट्रार्कन शैली के सॉनेट रचे गये। अंग्रेजी में इसे सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन, वर्डसवर्थ और कीट्स ने रचा।
सोलहवीं सदी में सर्वप्रथम Thomas wyat और Henry Howord (सरे) ने अँग्रेज़ी में सॉनेट लिखे। ये दोनों इटली में निवास के दौरान पेट्रार्का की कविताओं से प्रभावित हुए। Thomas wyat इटैलियन मॉडल को अपनाकर सॉनेट लिखते रहे। Henry Howord ने चौदह पंक्तियों की इतालवी शैली के साथ प्रयोग करते हुये दो तुकान्त संरचना अपनायी जो कि अँग्रेज़ी भाषा के लिए अधिक उपयुक्त थी-
A-b-A-b
C-D-C-D
F-F-F-F
G-G
स्पेन्सर, शेक्सपियर और मिल्टन तीनों के सॉनेट इतालवी स्वरूप से भिन्न हैं। इनमें अष्टपदी और षष्टपदी के बीच अन्तराल दिखाई पड़ता है, लेकिन दोनों बँटे हुए नहीं है।
स्पेन्सर ने इटैलियन और आरंभिक अँग्रेज़ी सॉनेट संरचनाओं को मिलाकर नया सॉनेट फॉर्म तैयार किया और इसी बदले रूप के साथ उन्होंने प्रेम सॉनेट ‘Amoretti’ शीर्षक से लिखे। एलिजाबेथ काल में बड़ी संख्या में लेखकों ने सॉनेट लिखे। फिलिप सिडनी ने इन्हें पूर्णता और सुन्दरता प्रदान की।
स्पेन्सर के फॉर्मेट को शेक्सपियर और मिल्टन ने नहीं अपनाया क्योंकि इसमें छांदिक स्वान्त्रय नहीं था। शेक्सपियर ने डेनियल और ड्राइटन के सॉनेट ढाँचे को अपनाया। शेक्सपियर के सॉनेट अष्टपदी और षष्टपदी के बजाय तीन चतुष्पदियों और एक द्विपदी लय से बँधे हैं। शेक्सपियर की 'Sonnet 116' में से कुछ पंक्तियाँ संदर्भ के लिए प्रस्तुत हैं।

‘Let me not to the marriage of true minds (a)
Admit impediments, love is not love (b)*
Which alters when it alteration finds, (a)
Or bends with the remover to remove.’ (b)*

मिल्टन के सॉनेट अष्टपदी और षष्टपदी के बीच नैरन्तर्य के लिए जाने जाते हैं। मिल्टन की एक रचना 'On His Blindness' की कुछ पंक्तियां यहाँ उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत हैं जिससे इतालवी प्रारूप का आभास मिलता है-

‘When I consider how my light is spent (a)
Ere half my days, in this dark world and wide, (b)
And that one talent which is death to hide, (b)
Lodged with me useless, though my soul more bent’ (a)

इस प्रकार अंग्रेजी सॉनेट रचना की चार कोटियाँ निर्धारित की जा सकती हैं-

1. पेट्रर्कन
2. स्पेन्सरियन
3. शेक्सपीरियन
4. मिल्टानिक

भारत
भारतीय उपमहाद्वीप में सॉनेट असमी, बंगाली, डोंगरी, अंग्रेजी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, सिन्धी, उर्दू आदि सभी भाषाओं में लिखे गये।

उर्दू
ऐसा माना जाता है कि अज़मतुल्ला खान ने बीसवीं सदी के प्रारम्भ में इस विधा से उर्दू साहित्य का परिचय कराया। अख्तर जूनागढ़ी, अख्तर शीरानी, नून मीम राशिद, मेहर लाल सोनी, ज़िया फतेहबादी, सलाम मछलीशहरी, और वाज़िर आगा ने इस विधा पर हाथ आजमाए। ज़िया फतेहबादी के संग्रह ‘मेरी तस्वीर’ के एक सॉनेट, जो कि शेक्सपियर के सॉनेट के बहुत करीब है, की पंक्तियाँ देखें-
‘नज़र आई न वो सूरत, मुझे जिसकी तमन्ना थी (c)
बहुत ढूंढा किया गुलशन में, वीराने में, बस्ती में (d)
मुनव्वर शमा ऐ मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी (c)
मगर चारों तरफ था घुप अंधेरा मेरी हस्ती में’ (d)

हिन्दी

हिन्दी में सॉनेट बीसवीं सदी में आया। हिन्दी के कुछ कवियों ने इसे अपनाया जरूर लेकिन इस विधा पर बहुत अधिक ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया। त्रिलोचन शास्त्री हिन्दी काव्य में सॉनेट के स्थापक माने जाते हैं। त्रिलोचन ने लगभग ५५० सॉनेटों की रचना की है। त्रिलोचन ने इस विधा का भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। उनके सॉनेट में 14 पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्रायें। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया। त्रिलोचन द्वारा इस विधा पर किए गए प्रयोगों की बानगी इन उदाहरणों में देखें-

'विरोधाभास'
‘संवत पर सवत बीते, वह कहीं न टिहटा,
पाँवों में चक्कर था। द्रवित देखने वाले
थे। परास्त हो यहाँ से हटा, वहाँ से हटा,
खुश थे जलते घर से हाथ सेंकने वाले।‘

आरर-डाल

‘सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आयी,
झूठ क्या कहूं। पूरे दिन मशीन पर खटना,
बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई
का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।‘

बिल्ली के बच्चे

‘मेरे मन का सूनापन कुछ हर लेते हैं
ये बिल्ली के बच्चे, इनका हूं आभारी।
मेरा कमरा लगा सुरक्षित, थी लाचारी,
इनकी माँ ले आई। सब अपना देते हैं’

प्रभो, पुत्र वह माँग रही है
‘प्रभो, पुत्र वह माँग रही है।‘ ‘लिखा नहीं है।‘
फिर गोस्वामी तुलसीदास और क्या कहते।
तो भी दासी की विनयों में बहते-बहते।
तीन बार पूछा। प्रभु बोले, ‘लिखा नहीं है।‘

नामवर सिंह की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें।

‘बुरा जमाना, बुरा जमाना, बुरा जमाना
लेकिन मुझे जमाने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा’

त्रिलोचन की एक पूरी सॉनेट यहाँ उदाहरण के रूप् में प्रस्तुत है जो इसके स्वरूप, गेयता और तुकांत के लिए अच्छा उदाहरण हो सकती है-

सॉनेट का पथ

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।
सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।

त्रिलोचन के बाद इस विधा पर बहुत कम काम देखने को मिलता है। आज जरूरत है इस विधा को हिन्दी में स्थापित करने की।

साभार - obo

अभियंता, अभियंता कवि, अभियंता दिवस

सर्व अभियंता दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन', अमरेन्द्र नारायण, इंद्र कुमार खन्ना, राजीव जैन, सुरेन्द्र सिंह पवार, विवेक रंजन 'विनम्र', अरविंद मोहन नायक, देव दौनेरिया, राजेश ठाकुर,  अवधेश चौबे, 
दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन'
सरस्वती वंदना, हिंदी आरती 
* सरस जैन 
एम व्ही की जीवनी 
* अरविंद मोहन नायक
हर किसी से मशविरा न लीजिए
यह हमारा मशविरा है लीजिए  
* विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
भूकंप की भविष्यवाणी 
* डॉ. अनिल कोरी 
मैं हिंदी हिंदुस्तान की
भारत माँ की शान की  
* कपिल चौबे 
इतना सुंदर दृश्य मिला है आज यह पर आने में  
कुछ भूलूँ तो यह ही मानें भूल हुई अनजाने में 
मातु शारेदे करें कृपया तब ही हम कह पाते हैं 
गीत हमारे करें यात्रा आपके सँग सिरहाने में 
* हेमंत जैन 
मुखरित मुख से हो रही करते महिमगान 
जन जन के मन में बसी अपनी हिंदी जान 
* अमरेन्द्र नारायण 
वसुधा की तपती परते हों 
बीजों के उगते अंकुर हों 
रसमयी  जल की धार कौन 
चुपचाप सुलभ करवाता है 
* सुरेन्द्र सिंह पवार 
आज सारे विश्व को 
 


***
हम अभियंता

अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कंकर को शंकर करते हैं हम अभियंता.
पग-पग चल मंजिल वरते हैं हम अभियंता..

पग तल रौंदे जाते हैं जो माटी-पत्थर.
उनसे ताजमहल गढ़ते हैं हम अभियंता..

मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, मठ, आश्रम तुम जाओ.
कार्यस्थल की पूजा करते हम अभियंता..

टन-टन घंटी बजा-बजा जग करे आरती.
श्रम का मन्त्र, न दूजा पढ़ते हम अभियंता..

भारत माँ को पूजें हम नव निर्माणों से.
भवन, सड़क, पुल, सुदृढ़ सृजते हम अभियंता..

अवसर-संसाधन कम हैं, आरोप अधिक पर-
मौन कर्म निज करते रहते हम अभियंता..

कभी सुई भी आया करती थी विदेश से.
उन्नत किया देश को हँसते हम अभियंता..

लोहा माने दुनिया भारत का, हिन्दी का.
ध्वजा तिरंगी ऊँची रखते हम अभियंता..

कार्य हमारा श्रेय प्रशासन ले लेता है.
'सलिल' अदेखे आहें भरते हम अभियंता..
***
हम अभियंता!

हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...



माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.



नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...



अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.



वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...



भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.



प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.

'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
***
अभियांत्रिकी


*

(हरिगीतिका छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)

*

कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी

बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी

उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी

रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी

*

नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है

कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है

गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है

श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है

*

यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है

कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है

गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है

परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है

*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
तज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पिया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पिया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
*** अभियंता दिवस पर मुक्तक:
*
कर्म है पूजा न भूल,
धर्म है कर साफ़ धूल।
मन अमन पायेगा तब-
जब लुटा तू आप फूल।
*
हाथ मिला, कदम उठा काम करें
लक्ष्य वरें, चलो 'सलिल' नाम करें
रख विवेक शांत रहे काम कर
श्रेष्ठ बना देश,चलो नाम करें.
*
मना अभियंता दिवस मत चुप रहो,
उपेक्षित अभियांत्रिकी है कुछ कहो।
है बहुत बदहाल शिक्षा, नौकरी-
बदल दो हालात, दुर्दशा न सहो।
*

सोरठा सलिला:
हो न यंत्र का दास
संजीव
*
हो न यंत्र का दास, मानव बने समर्थ अब
रख खुद पर विश्वास, 'सलिल' यांत्रिकी हो सफल
*
गुणवत्ता से आप, करिए समझौता नहीं
रहे सजगता व्याप, श्रेष्ठ तभी निर्माण हो
*
भूलें नहीं उसूल, कालजयी निर्माण हों
कर त्रुटियाँ उन्मूल, यंत्री नव तकनीक चुन
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निज भाषा में पाठ, पढ़ो- कठिन भी हो सरल
होगा तब ही ठाठ, हिंदी जगवाणी बने
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ईश्वर को दें दोष, ज्यों बिन सोचे आप हम
पाते हैं संतोष, त्यों यंत्री को कोसकर
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जब समाज हो भ्रष्ट, कैसे अभियंता करे
कार्य न हों जो नष्ट, बचा रहे ईमान भी
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करें कल्पना आप, करिए उनको मूर्त भी
समय न सकता नाप, यंत्री के अवदान को
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उल्लाला सलिला:
संजीव
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(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
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अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
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मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं, अभियंता की भावना।।
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सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
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भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
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​भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
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नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??​
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समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
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​हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
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मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
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हम हैं अभियंता
संजीव
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(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
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हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन-मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे
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अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन यश गाये, पंथ वही नव वरना है
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श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें
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नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
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गणेश पंचरत्न स्तोत्र

गणेश पंचरत्न स्तोत्र (हिंदी अनुवाद तथा अर्थ सहित) 
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गणेश पंचरत्न स्तोत्र आदि शंकराचार्य द्वारा रचित भगवान गणेश की स्तुति है, जिसमें गणेश जी के पांच रत्नों जैसे गुणों का वर्णन है। इस स्तोत्र के अर्थ और पाठ से भक्तों को स्वास्थ्य, विद्या, संतान और दीर्घायु सहित अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। गणेश पंचरत्न स्तोत्र का हिंदी अनुवाद आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने रोला छंद में किया है। २४ मात्रिक रोल छंद में उच्चार क्रम १२१२१२१२१२१२१२१२ तथा पदांत गुरु या २ लघु होता है। 
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मुदा करात्तमोदकं सदा विमुक्ति साधकम्।
कलाधरावतंसकं विलासलोक रक्षकम्।।
अनायकैकनायकं विनाशितेभ दैत्यकम्।
नताशुभाशु नाशकं नमामि तं विनायकम्।१।
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करूँ नमन गणेश मोदकी विमुक्त जो करें।
निशीश माथ पर धरे सुरक्ष विश्व को करें।।
अशक्त-नाथ गज-असुर विनाशकर जगत पुजें।
करूँ प्रणाम भक्त के समस्त कष्ट जो हरें।१।
अर्थ- आनंद से मोदक धारण किए उन विनायक को प्रणाम,जो मुक्ति का साधन हैं, जिनके मस्तक पर चंद्र शोभित है, जो संसार के रक्षक हैं, जो निर्धनों के नाथ हैं. जिन्होंने गजासुर का नाश किया और जो भक्तों के सब कष्ट हर लेते हैं उन विनायक को प्रणाम।
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नतेतरातिभीकरं नमोदितार्कभास्वरं।
नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम्।।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं।
महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम्।२।
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न जो विनत नमित करें दिनेश सम प्रकाश दें।
नमन सुदेव शत्रु अरि नमन नमित उबार दें।।
सुरेश हे! निधीश हे! गजेश हे! गणेश हे!
महेश दें चरण शरण अनवरत निखार दें।२।
अर्थ- जो न झुकनेवाले उद्दंडों को झुकाकर सूर्य की भांति प्रकाश देते हैं; उन देव शत्रुओं के शत्रु प्रणाम। वे मुझ विनत के कष्ट दूर करें। हे देवों के देव, निधियों के नाथ, हाथियों के ईश, गणनायक, श्रेष्ठतम मुझे शरण में लेकर । .
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समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुंजरं ।
दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम्।।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं ।
मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम्।३।
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करें सदा निशंक जग, गज सदृश असुर मिटा।
बड़ा उदर गजाननी, न क्षरित जो करें कृपा।।
क्षमा करें सुखी करें, सुकीर्ति दें मुझे सदा।
मनीष नमन लीजिए, नमन प्रकाशमान हे।३।
अर्थ- हाथी के समान विशाल राक्षसों का वध कर सब लोकों की शंका मिटा दें। जिनका पेट विशाल और जिनका मुख हाथी का है, जिनका क्षर/ह्रास नहीं होता, वे कृपालु क्षमा करें, सुख और यश दें।.हे मन के स्वामी प्रकाशमान प्रबही! मैं आपका वंदन करता हूँ।
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अकिंचनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्तिभाजनं।
पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम्।। 
प्रपञ्चनाशभीषणं धनंजयादिभूषणं।
कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम्।। 
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मिटा सकल विनाश-दुख, सदैव वंदना सुनें। 
सुतादि हे उमेश के!, मिटा असुर-घमंड दें।। 
प्रलय-विनाश जो करें, भुजंग धनंजय सजें।
कपोल तक सुहाय मद, पुराणवारणी भजें।४।      
अर्थ- वे दरिद्रों के दुखों को दूर करनेवाले आप सदैव वंदना सुनिए। हे शिव के प्रथम पुत्र, असुरों का गर्व को चूरकार दीजिए।  प्रलय काल में विनाश करनेवाले, धनंजय नामक सर्प से विभूषित, कपोल तक मदजल से सुशोभित, हे पुराण-बाधा दूर करनेवाले, मैं आपका भजन करता हूँ।
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नितान्तकान्तदन्तकान्तिमन्तकान्तकात्मज।
मचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तरायकृन्तनम्।।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां।
तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि संततम्।५।
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सदैव दंत कांति कांत कांत-पुत्र कांतिजा।
अचिंत्य जो अनंत हैं, सकल अनिष्ट दें मिटा।।
करें निवास योगियों-हृदय सदैव जो प्रभो!
करूँ सदैव स्मरण, अनादि एकदंत का।५।
अर्थ- जिनके दांतों की आभा सदैव कांतिमय है, जो जगस्वामी शिव तथा कांतिमयी पार्वती के पुत्र हैं, जो चितन के परे हैं, जिनका कहीं अंत नहीं है, जो सब बाधाओं का नाश करनेवाले तथा योगियों के ह्रदय में सदैव निवास करने वाले हैं, मैं उन एकदंत का चिंतन करता हूँ।
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महागणेशपञ्चरत्नमादरेण योऽन्वहं।
प्रगायति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम्।।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां।
समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात्।६।
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महागणेश पंचरत्न श्लोक पाठ जो करे।
प्रभात में गणेश को सुमिर सदा हृदय धरे।।
रहें निरोग वे सदा, सुपुत्र पा अदोष हो।
मिलें विभूति आठ अभ्युदय सदैव प्राप्त हो।६।
अर्थ- जो व्यक्ति प्रति दिन महागणेश पंचरत्न स्तोत्र का पाठ कर सुबह भगवान गणेश को हृदय में रखता है, अच्छा स्वास्थ्य व उत्तम संतान पाकर दोषरहित जीवन जीते हैं। उन्हें आठ विभूतियाँ तथा उत्कर्ष प्राप्त होता है
। श्रीमत् शंकर भगवत्पादकृतआचार्य संजीव 'सलिल' अनुवादित श्रीगणेशपञ्चरत्न स्तोत्रम् पूर्ण हुआ।
१४-१५ सितंबर २०२५