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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

जुलाई ११, भोजपुरी हाइकु, यमक, षट्पदिक कृष्ण-कथा, लघुकथा, गीत, सॉनेट, बरसात

सलिल सृजन जुलाई ११
*
गीता जिसके उर बसे वह होता है धन्य
काम करें निष्काम हो, जीवन जिए अनन्य
.
गीता का मंथन करें, पल में छूटे मोह
करे नहीं परमात्म से, आत्म निमिष भर द्रोह
.
गीता हो मीता अगर भूल न सकते राह
कृष्ण कृपा के हेतु मन, कर गीता की चाह
.
गीता का कर अनुसरण, सच से मन मत भाग
वर विराग अनुराग का, कर पगले परित्याग
११.७.२०२५
०0०
सॉनेट
सुन
*
नदी नहाते हुए किसी के मंत्र तो सुनो,
डुबकी मारो, पैर न फिसले, सम्हल हो खड़े,
लहरों की कलकल सुन मन में नाद तो गुनो,
निकलो औरों को अवसर दो, व्यर्थ हो अड़े।
मंदिर बजते शंख-घंटियाँ क्या कहती हैं?
बाँग दे रहा मुर्गा, मस्जिद से अजान सुन,
भजन-सबद, साखी न कभी भी चुप रहती हैं,
तू गा सबके साथ; समस्या का हल भी बुन।
उस पलाश को देख वीतरागी चुप दहता,
बरगद पत्ते झरने देता नहीं रोकता,
तू क्यों अप्रिय याद को नाहक ही है तहता,
क्यों न भाड़ में नकारात्मक याद झोंकता?
रिधि-सिधि निधि-विधि बिसरा दे; मत नाहक सिर धुन।
बैठ पालथी मार; धुकधुकी चुप रहकर सुन।।
११-७-२०२३
***
दोहा सलिला
चित्र गुप्त जिसका रहा, भाव वही साकार
भाषा करती लोक में, रस लय का व्यापार
*
अक्षर अजर अमर रहे, लघुतम ध्वनि लें जान
मिलकर सार्थक रूप धर, बनें शब्द प्रतिमान
*
शब्द-भेद बन व्याकरण, करता भाषा शुद्ध
पिंगल छांदस काव्य रच, कहता पढ़ें प्रबुद्घ
*
भाषा जन्मे लोक में, गहता प्रकृति स्वतंत्र
सधुक्कड़ी मनमौज है, सरल-कठिनतम तंत्र
*
लोक गढ़े नव शब्द खुद, तत्सम-तद्भव आप
मिल समृद्ध भाषा करें, जन जन जाते व्याप
*
कर्ता करता कार्य कर, क्रिया कर्म कर मौन
कहे खासियत विशेषण, कारक रहे न मौन
*
सर्वनाम संग्या हटा, हो जाता आसीन
वंशबेल दे ज्यों पिता, सुत को किंतु न दीन
*
कह विशेषता विशेषण, गुण चर्चा कर संत
क्रिया विशेषण क्रिया के, गुण कह रहा अनंत
*
ताना-बाना बुन रहा, अव्यय निकले अर्थ
अर्थ बिना अभिव्यक्ति ही, हो जाती है व्यर्थ
*
चित्र भावमुद्रा करें, बिना कहे पर बात
मौन लकीरें भी करें, बात समझिए तात
*
भाषा जुड़ विग्यान से, हो जाती है गूढ़
शब्द-अर्थ की श्लिष्टता, समझ न पाते मूढ़
*
व्यापकता दे शब्द को, लोक गहे साहित्य
संस्कार जो समझ ले, लेखक हो आदित्य
*
तारो! तारोगे किसे, तर न सके खुद आप.
शिव जपते हैं उमा को, उमा करेन शिव जाप.
११-७-२०२०
***
लघुकथा
मोहनभोग
*
'क्षमा करना प्रभु! आज भोग नहीं लगा सका.' साथ में बाँके बिहारी के दर्शन कर रहे सज्जन ने प्रणाम करते हुए कहा.
'अरे! आपने तो मेरे साथ ही मिष्ठान्न भण्डार से नैवेद्य हेतु पेड़े लिए था, कहाँ गए?' मैंने उन्हें प्रसाद देते हुए पूछा.
पेड़े लेकर मंदिर आ रहा था कि देखा कुछ लोग एक बच्चे की पिटाई कर रहे हैं और वह बिलख रहा है. मुझसे रहा नहीं गया, बच्चे को छुडाकर कारण पूछ तो हलवाई ने बताया कि वह होटल से डबल रोटी-बिस्कुट चुराकर ले जा रहा था. बच्चे ने बताया कि उसका पिता नहीं है, माँ बुखार से पीड़ित होने के कारण काम पर नहीं जा रही, घर में खाने को कुछ नहीं है, छोटी बहिन का रोना नहीं देखा गया तो वह होटल में चार घंटे से काम कर रहा है. सेठ से कुछ खाने का सामान लेकर घर दे आने को पूछा तो वह गाली देने लगा कि रात को होटल बंद होने के बाद ही देगा. बार-बार भूखी बहिन और माँ के चेहरे याद आ रहे थे, रात तक कैसे रहेंगी? यह सोचकर साथ काम करनेवाले को बताकर डबलरोटी और बिस्किट ले जा रहा था कि घर दे आऊँ फिर रात तक काम करूंगा और जो पैसे मिलेंगे उससे दाम चुका दूंगा.
दुसरे लड़के ने उसकी बात की तस्दीक की लेकिन हलवाई उसे चोर ठहराता रहा. जब मैंने पुलिस बुलाने की बात की तब वह ठंडा पड़ा.
बच्चे को डबलरोटी, दूध, बिस्किट और प्रसाद की मिठाई देकर उसके घर भेजा. आरती का समय हो गया इसलिए खाली हाथ आना पड़ा और प्रभु को नहीं लगा सका भोग' उनके स्वर में पछतावा था.
'ऐसा क्यों सोचते हैं? हम तो मूर्ति ही पूजते रह गए और आपने तो साक्षात बाल कृष्ण को लगाया है मोहन भोग. आप धन्य है.' मैंने उन्हें नमन करते हुए कहा.
***
एक दोहा
तारो तरोगे किसे, तर न सके खुद आप
शिव जपते हैं उमा को, उमा करें शिव-जाप
***
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ आ-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
११.७.२०१८
***
नवगीत
समारोह है
*
समारोह है
सभागार में।
*
ख़ास-ख़ास आसंदी पर हैं,
खासुलखास मंच पर बैठे।
आयोजक-संचालक गर्वित-
ज्यों कौओं में बगुले ऐंठे।
करतल ध्वनि,
चित्रों-खबरों में
रूचि सबकी है
निज प्रचार में।
*
कुशल-निपुण अभियंता आए,
छाती ताने, शीश उठाए।
गुणवत्ता बिन कार्य हो रहे,
इन्हें न मतलब, आँख चुराए।
नीति-दिशा क्या सरकारों की?
क्या हो?, बात न
है विचार में।
*
मस्ती-मौज इष्ट है यारों,
चुनौतियों से भागो प्यारों।
पाया-भोगो, हँसो-हँसाओ-
वंचित को बिसराओ, हारो।
जो होता है, वह होने दो।
तनिक न रूचि
रखना सुधार में।
११-७-२०१७
***
लघुकथा
अकेले
*
'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।'
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।'
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे।
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं। पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।' बेटे ने उग्र स्वर में कहा।
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोइ कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले।
२-५-२०१७
***
गीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
***
दोहा सलिला
*
पाठक मैं आनंद का, गले मिले आनंद
बाहों में आनंद हो, श्वास-श्वास मकरंद
*
आनंदित आनंद हो, बाँटे नित आनंद
हाथ पसारे है 'सलिल', सुख दो आनंदकंद!
*
जब गुड्डो दादी बने, अनुशासन भरपूर
जब दादी गुड्डो बने, हो मस्ती में चूर
*
जिया लगा जीवन जिया, रजिया है हर श्वास
भजिया-कोफी ने दिया, बारिश में उल्लास
*
पता लापता जब हुआ, उड़ी पताका खूब
पता न पाया तो पता, पता कर रहा डूब
११-७-२०१७
***
षट्पदिक कृष्ण-कथा
देवकी-वसुदेव सुत कारा-प्रगट, गोकुल गया
नंद-जसुदा लाल, माखन चोर, गिरिधर बन गया
रास-लीला, वेणु-वादन, कंस-वध, जा द्वारिका
रुक्मिणी हर, द्रौपदी का बन्धु-रक्षक बन गया
बिन लड़े, रण जीतने हित ज्ञान गीता का दिया
व्याध-शर का वार सह, प्रस्थान धरती से किया
(महाभागवतजातीय गीतिका छंद, यति ३-१०-१७-२४, पदांत लघु गुरु)
११-७-२०१६
***
गीत
*
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
क्या लिखना है?
क्यों लिखना है?
कैसे लिखना है
यह सोचें
नाहक केश न
सर के नोचें
नवसंवेदन
जब गह पायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
लिखना कविता
होना सविता
बहती सरिता
मिटा पिपासा
आगे बढ़ना
बढ़े हुलासा
दीप
सम श्वासें जलायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
बहा पसीना
सीखें जीना
निज दुःख पीकर
खुशियाँ बाँटें
मनमानी को
रोकें-डाँटें
स्वार्थ
प्रथम अपना तज गायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
११-७-२०१५
***
गले मिले दोहा यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
***
मुक्तक:
आसमान पर भा/व आम जनता/ का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओ/र सँभल शासन, / जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन / लिप्सा तज भा/व् घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मे/हनतकश भी, र/हे न भूखा, स्वप्न बो रहा
११-७-२०१४
***
भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरणा-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
साँच साबित/ गुलामी के जंजीर / अंगरेजी के.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
११-७-२०१०
***
एक दोहा
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७-२०१०

जून २५, दीप्ति, दोहा गीत, त्रिप्रमाणिका सवैया, सरस्वती, राम, पिता, सॉनेट, अखिलेश, नयन

सलिल सृजन जून २५
*
नयनावली 
नयन न मन की सुन रहे, करें नमन दिन-रैन। 
नयन नयन से मिल हुए, चैन गँवा बेचैन।। 
नयन चार जबसे हुए, भूल गए हैं द्वैत। 
जब तक नैना चार हैं, तब तक प्रिय अद्वैत।। 
नय न नयन को याद अब, नयन अनयन एक। 
नयन न सुनते क्या कहें, अनुभव बुद्धि विवेक।। 
नयन देखकर रूप को, कैसे करें बखान। 
जिव्हा न देखे रूप को, पर करती गुणगान।। 
नयन बोलते अबोले, देख न देखें सत्य। 
भोगें चुप परिणाम पर, आप न करते कृत्य।। 
.
शारद-शक्ति नयन बसें, नयन लक्ष्मी भक्त। 
वाक् अवाक निहारती, किसको कहे सशक्त।। 
नयन डूबकर नयन में, हो जाते भव पार। 
जो नैना डूबन डरे, क्या जाने मझधार।। 
नयन लड़े झुक उठ मिले, करे न युद्ध विराम। 
साथ न होकर साथ हो, बन गुलाम बेदाम।। 
२६.५.२०२५
***
सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।
शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।
वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न,
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद अरु अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल।
नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कर, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३
***
मुक्तक
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसीलिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
*
डॉ.बिपिन पाण्डेय
बिल्कुल सही कहा आपने सर
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
मुंह ना खुले तो ही अच्छा है ,नहीं तो यहाँ आप हर दूसरी नारी कृष्णा अग्निहोत्री सी ही पायेंगे, संस्कारों व् अपमान का भय,सामजिक तिरस्कार का भय, घर में वापस कैद कर लिए जाने का भय .........इस भयों के कारण ही परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली आचरण व् रचनाएं लिखने को मजबूर है लेखिकाएं
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी अपना तन मन दोनों उघाड़ती जा रही है. पुरुष यह नहीं कर रहा इसे उसकी कमजोरी नहीं माना जाए. एक चका पंचर होने पर भी गाडी घसिटती है, दोनों पंचर हुए तो भगवान ही मालिक है.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल' ने जवाब दिया
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12 जवाब
डॉ. रजनी कांत पांडेय
मै सलिल जी से पूर्णत: सहमत हूँ । तरह-तरह के अपराध का ठीकरा पुरुषो पर फोडने वाली स्त्री बिना पुरुष के चल भी नही पाती है । पुरुष बिना किसी शिकायत के कोल्हू के बैल जैसा दिन-रात चलता रहता है । अपनी खुशियाँ अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बरबाद कर देता है फिर भी उसका कही नाम नही होता । मेरा मानना है कि स्त्री विमर्श के नाम पर केवल पुरुष को ही दोषी ठहराना उचित नही है ।आज के आधुनिक युग मे पुरुषों से किसी माने मे स्त्रियाँ कम नही है ।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
आन्हाक उपस्थिति से मोन प्रसन्न भेल
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
ई जे हमर ज्येष्ठ छथिन संजीव जी, झगड़ा करैत रहैत छैथ हमेशा लेकिन स्नेह सय ओत प्रोत सेहो रहैत छैथ
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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डॉ. रजनी कांत पांडेय
तुमने कसम खायी, दिल से मुझे मिटाने की ।
तो जिद मेरी भी है, दिल से नही जाने की ।
© डा. रजनी कान्त पान्डेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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डॉ. रजनी कांत पांडेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल' के तौर पर कमेंट करें
Kiran Shrivastava
Bilkul sahi kaha he.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Harihar Jha
कहा जाता था दहेज प्रथा से स्त्रियों को सताया जा रहा है। जैसे ही 498A का लाभ स्त्रियों के पक्ष में मिला, बहू ने पति और सास-ससुर पर मुकदमें ठोकने शुरू कर दिये। तो फिर इसका ठीकरा पुरूषों पर मढ़ना कहाँ तक उचित है?
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
अब तो लड़के डर के कारण विवाह ही नहीं करना चाहते. लड़कियाँ सास ससुर नहीं चाहती सो लिव इन में जीवन नष्ट कर रही हैं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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अरुण शर्मा
पूर्णतः सहमत सर जी।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
अच्छी व्याख्या है !
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
कृष्णा जी ने पुरुष को लांछित नहीं महिमा-मंडित किया है. तभी वे राजेन्द्र जी की प्रशस्ति करती हैं. एकांगी सोच पुरुष-प्रशंसा के अंशों की अनदेखी कर पुरुष-निंदा के अंश को शीर्षक और नारे बना कर उछलती रहती है जिसका उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता और सनसनी मात्र है. सुधरने की आवश्यकता पुरुष और स्त्री दोनों में उपस्थित रुग्ण मानसिकता को है. स्त्री और पुरुष दोनों में उपस्थित विवेक, सामर्थ्य और प्रयास को दिशा चाहिए. सुधरना दोनों को है. प्रकृति, परिवेश, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढलते हुए सामंजस्य बैठाने की सामर्थ्य चुकने पर अन्यों को आरोपित कर खुद को दोषमुक्त समझना सरल तो है सत्य नहीं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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दर्शन बेजा़र
सभी विद्वानों के अलग अलग अनुभव अलग अलग टिप्पणियां जो स्वाभाविक भी है
6 वर्ष6 वर्ष पहले
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Pushpa Saxena
स्त्री पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।केवल एक के ही बल पर परिवार की रचना नही होती ।आपसी सामंजस्य स्नेह त्याग धैर्य संस्कार अच्छी सोच ही आदर्श परिवार व समाज गठित होता है ।एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप निराधार हैं ।कुंठित सोच है ।हमें उदार द्दष्टिकोण अपनाना चाहिए
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५.६.२०१३
***
दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
*
मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
२५.६.२०११
***
मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***


सभी रिएक्शन:11

स्वास्थ्य, लिंग उत्तेजन, होमिओपैथी, आयुर्वेद

स्वास्थ्य सलिला :

= लिंगोत्तेजन (इरेक्शन)

होमिओपैथी-
1. Lycopodium 1M, 6 drops at 4 pm सप्ताह में 1 बार, 2. Conium 1M, 6 drops at bed time 4 days after Lycopodium, , सप्ताह में एक बार, 3. ADEL 36 drops, 20 drops 3 ti रद्द कटmes in 1/4 cup of water 6 माह तक सेवन करें।

आयुर्वेदिक-
सोधित कौंच बीज का पावडर 100 ग्राम, सफेद मूसली पावडर 50 ग्राम, अश्वगंधा पावडर 100 ग्राम, शतावरी 50 ग्राम। एक साथ मिलाकर रख लें और स्वाद के लिए 50 ग्राम कुंजा मिश्री पीस कर मिला लें। प्रतिदिन 1 बड़ा चम्मच सुबह व रात को दूध /पानी के साथ 6 माह तक सेवन करें।
***

ज्ञानवापी, विश्वनाथ, नंदी, वाराणसी

ज्ञानवापी मस्जिद हिंदू मंदिर पर टिकी हुई है। पीछे की दीवार तो ज्यों की त्यों रखी गई है जिस पर मस्जिद का गुंबद टिका है! एक और बात, ऐसी मान्यता है की किसी भी शिव मंदिर में नंदी का मुख सदैव शिवलिंग की और होता है। मूल काशी विश्वनाथ मंदिर जब ध्वस्त किया गया तब नंदी जो मंदिर के बाहर मंदिर की ओर मुँह करके स्थापित था वह टूटने से बच गया। तब से यह नंदी अनवरत मस्जिद की ओर मुँह करके अपने स्वामी की प्रतीक्षा कर रहा है।

काशी विश्वनाथ मंदिर १२ ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। कई इतिहासकारों ने ११ वी से १५ वी सदी के कालखंड में मंदिरों का वर्णन किया है और उसके विध्वंस की बातें भी लिखी हैं। इतिहासकारों के अनुसार इस प्राचीन मंदिर को ११९४ में तोड़ा गया था।


– मोहम्मद तुगलक (१३२५) के समकालिक जिनप्रभ सूरी ने ‘विविध कल्प तीर्थ’ ग्रंथ में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था।


– लेखक फ्यूहरर ने लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ बड़े मंदिर मस्जिद में परिवर्तित हुए थे। फ्यूहरर के दस्तावेजों को अयोध्या के मामले में अदालत ने संज्ञान में लिया था। इसे फिर से बनाया गया परंतु एक बार फिर इसे १४४७ में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया।


– १४६० में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक ‘तीर्थ चिंतामणि’ में लिखा है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।


– इतिहासकार डॉ. ए.एस. भट्ट ने अपनी किताब ‘दान हारावली’ में लिखा है कि महाराजा टोडरमलकी सहायता से पं. नारायण भट्ट ने मंदिर का पुनर्निर्माण १५८५ में करवाया था। परंतु १६३२ में शाहजहाँ ने इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी परंतु हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण सेना काशी विश्वेश्वर मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो नहीं तोड़ सकी, काशी के ६३ अन्य मंदिर तोड़ दिए गए थे। इसके पश्चात १८ अप्रैल १६६९ को औरंगजेब ने एक आदेश जारी कर काशी विश्वेश्वर मंदिर ध्वस्त कर मूल मंदिर को ज्ञानवापी के विवादित ढाँचे में परिवर्तित कर दिया था।। औरंगजेब का यह आदेश कोलकाता की विश्वप्रसिद्ध एशियाटिक लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित है।

- साकी मुस्तइद खां की पुस्तक ‘मासीदे आलमगिरी’ में वर्णन है कि औरंगजेब के आदेश पर यहाँ का मंदिर तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। २ सितंबर १६६९ को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।

- १७५२ से १७८० के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। ७ अगस्त १७७० को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाहआलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश भी जारी करा लिया था परंतु तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का पुनरुद्धार रुक गया। तत्पश्चात पुनः प्रयास कर वर्ष १७७७-१७८० में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर के निकट में नवीन मंदिर का निर्माण करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने आज के इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र लगवाया था। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहाँ विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

नंदी की गवाही पूर्ण हुई

मैं शिलादिपुत्र नंदी हूँ, सैकड़ों वर्ष से शीत, आतप, बरखा सहने के बाद एक बार मैंने महादेव से पूछा कि आप अपना त्रिशूल क्यों नही चलाते ? उन्होंने मुझे श्री राम कथा सुनाई और कहा, 'यदि प्रभु राम चाहते तो बिना फण के एक बाण से दशानन के दसों शीश समेत सम्पूर्ण लंका का विनाश कर देते, पर इससे सामान्य जन पर कोई प्रभाव नही पड़ता। राम और रावण की लड़ाई मात्र दो लोगों की लड़ाई नहीं थी बल्कि सामान्य जन में मर्यादा की पुन: स्थापना और अन्याय के विरुद्ध उन्हें उठ खड़े होने का साहस देने को थी।' राम कथा प्रत्येक संदेह को दूर कर देती है, मैं जान गया कि मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है। मैं यहाँ पर हुए अत्याचार की गवाही देने के लिए हूँ। भारत भूमि में निवास करने वाले लोगों में धर्म और सामर्थ्य के जागरण के लिए तप कर रहा हूँ।

मैं यहाँ सदियों से पड़ा हूँ, काशी धाम आने वाले सभी जन मुझे देखते हैं। मैं गवाह हूँ कि मेरे भोलेनाथ ज्ञानव्यापी तीर्थ के अधिष्ठाता हैं। मैं हर घड़ी, हर पल महादेव की ओर मुँह करके बता रहा हूँ कि मेरे भोलेबाबा यहीं हैं यहीं हैं। जम्बू द्वीप के प्रत्येक कोने से आने वाले सभी सनातनियों को बता रहा हूँ कि विश्वेश्वर यहीं हैं। सम्पूर्ण भरतखंड के एक एक व्यक्ति को मैं सदियों से इसी बात की गवाही दे रहा हूँ।

मैंने सुना है कि नए भारत के राजा ने यह पता लगाने का आदेश दिया है कि ज्ञानव्यापी तीर्थ का अध्यक्ष कौन है। धरती के विधि विशेषज्ञ विधाता का पता लगाने निकले हैं, यह सोच कर मैं मन ही मन महादेव की माया पर मुस्कुराता हूँ। भोलेनाथ जानते थे कि मेरी गवाही ही विधि व्यवस्था की आखिरी बात होगी, इसलिए मैं सैकड़ों साल से यहीं हूँ। जिस दिन मेरी प्रतीक्षा और मेरी गवाही प्रत्येक सनातनी की प्रतीक्षा और गवाही हो जायेगी उस दिन हर ज्ञानव्यापी को उसका देव मिल जाएगा। मेरी तरफ देखो, मैं साक्ष्य हूँ, प्रमाण हूँ, साक्षी हूँ कि ज्ञानव्यापी तीर्थ समेत समस्त लोक के एकमेव स्वामी महादेव हैं।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत

काशी की महत्ता को बताने की आवश्यकता नहीं है। काशी के बिना स्वयं शिव भी अधूरे हैं। इतने सारे आक्रमण व विध्वंस के पश्चात भी ना तो काशी व शिव को अलग किया जा सका ना ही काशी की महिमा को क्षति पहुँच सकी।
***

मार्च २३, सोनेट, भक्ति, रश्मि, वर्ड्सवर्थ, मनहरण घनाक्षरी, राजा अवस्थी, कज्जल छंद, होली,

सलिल सृजन २३ मार्च 
*
२३ मार्च - कब क्या?
- शहीद दिवस भारत १९३१ (शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी), विश्व मौसम विज्ञान दिवस, संविधान दिवस पाकिस्तान १९५६.  
- राम मनोहर लोहिया जन्म १९१०, स्वतंत्रता सत्याग्रही, समाजवादी नेता 
-  हेमू कालाणी जन्म १९२३, भारतीय क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी
- सहजीवन (लिव इन) दिवस (सर्वोच्च न्यायालय ३ सदस्यीय खंड पीठ ने सह जियावन को अपराध नहीं माना) 

सोनेट
*
नहीं भक्ति का मार्ग सहज,
भज प्रभु को तज माया-मोह,
सांसारिक दुनिया पग-रज,
मन में तनिक न रखना द्रोह।
साथ नहीं कुछ जाएगा,
पाया-खोया जो सम जान,
ठाठ यहीं रह जाएगा,
है समान मान-अपमान।
मन मत हो उन्मन किंचित,
तन्मय रहकर ले प्रभु नाम,
हो मत हरि छाया-वंचित,
काम सभी कर हो निष्काम।
अगम भक्ति का मार्ग सहज,
श्वास-श्वास में प्रभु को भज।
२३.३.२०२४
***
सॉनेट
रश्मि
रश्मि तिमिर का पाश काटती
कण-कण करता है अभिनंदन
करतल ध्वनि हो अक्षत चंदन
नव आशा निशि-दिवस बाँटती
रश्मि सलिल लहरों सँग खेले
सिकता-कण कनकाभित होते
नित नव अनगिन सपने बोते
रविकर पल पल लगें नवेले
रश्मि रचे रचना हर रुचिकर
धूप-छाँव कर, मन बहलाए
शुभ प्रयास की जय जय गाए
रश्मिरथी सबके मन में हो
किरण करे किसलय हर पोषित
तुहिन कणों को करे न शोषित
२४-३-२०२३
•••
भाषा सेतु
अंग्रेजी हिंदी
*
William Wordsworth - daffodils विलियम वर्ड्सवर्थ - डैफोडिल
I wandered lonely as a cloud मैं एकाकी बादल जैसे भटक रहा था
That floats on high o'er vales and hills, जो उड़ता है ऊपर घाटी अरु पर्वत के
When all at once I saw a crowd, एकाएक झुण्ड देखा मैंने जब एक
A host, of golden daffodils, आतिथेय ज्यों एक सुनहरे डैफोडिल का
Beside the lake, beneath the trees, बाजू में सरवर के; पेड़ों की छाया में
Fluttering and dancing in the breeze. झूम- झूमकर नाच रहा साथ पवन के।
Continuous as the stars that shine लगातार जैसे तारे चमका करते हैं
And twinkle on the milky way, झिलमिल करते आकाशी गंगा के पथ में
They stretch'd in never-ending line बँधे हुए वे अंतहीन रेखा में जैसे
Along the margin of a bay: साथ-साथ खाड़ी की तटरेखा के मैंने
Ten thousand saw I at a glance दस हजार को देखा एक साथ ही मैंने
Tossing their heads in sprightly dance. झूमा रहे अपने सर होकर मुदित, नाचते।
The waves beside them danced, but they लहरें उनके बाजू में नाचीं लेकिन वे
Out-did the sparkling waves in glee:-- अनदेखा करते लहरों को निज मस्ती में
A Poet could not but be gay एक कवि हो सकता नहीं और नाकारा
In such a jocund company! ऐसी अद्भुत और अलौकिक प्रिय संगति में
I gazed--and gazed--but little thought देखा रहा देखता तुक फिर मैंने सोचा
What wealth the show to me had brought; क्या निधि दृश्य अनोखा मुझ तक ले आया है।
For oft, when on my couch I lie जब फुरसत में लेटा होता हूँ मैं कोच पर
In vacant or in pensive mood, खालीपन में या चिंतन में लीन हुआ मैं
They flash upon that inward eye वे दमक करते मेरी अंतर्दृष्टि में
Which is the bliss of solitude; जो वरदान अकेलेपन का मैंने पाया
And then my heart with pleasure fills तब मेरा हृद प्रफुल्लता से पूर्ण भर गया
And dances with the daffodils. और उठा मैं नाच संग में डैफोडिल के।
हिंदी काव्यानुवाद : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२३-३-२०२२
***
मनहरण घनाक्षरी (३१ वर्ण)
*
मनहरण घनाक्षरी में १६,१५ वर्ण पर यति तथा चरणांत में गुरू होता है।
शालिनी हो, माननी हो, नहीं अभिमाननी हो,
श्वास-आस स्वामिनी हो मीत मेरी कविता
गति यति लय रस भाव बिंब रूप जस,
प्राण मन आत्मा हो प्रीत मेरी कविता
साधना हो वंदंना हो प्रार्थना हो अर्चना हो
मोहिनी आराधना हो रीत मेरी कविता
शब्द शब्द हो निशब्द सुनें सभी श्रोता गण
हो अतीत अव्यतीत गीत मेरी कविता
२३-३-२०१९
***
पुस्तक सलिला:
'जिस जगह यह नाव है' नवगीत का वह घाट है
*
[कृति विवरण- जिस जगह यह नाव है, नवगीत संग्रह, राजा अवस्थी, वर्ष २००६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य १२०रु., अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० ४११२२१०, रचनाकार संपर्क- गाटरघाट मार्ग, आजाद चौक, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९६१७९१३२८७}
*
सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में आधुनिक हिंदी के उद्भव काल से ही साहित्य की हर विधा में सतत सत्साहित्य का सृजन होता रहा है। वर्तमान पीढ़ी के सृजनशील नवगीतकारों में राजा अवस्थी का नाम साहित्य सृजन को सारस्वत पूजन की तरह समर्पित भाव से निरंतर कर रहे रचनाकारों में सम्मिलित है। हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' तथा नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्य साधक श्यामनारायण मिश्र द्वारा आशीषित 'जिस जगह यह नाव है' ७८ समसामयिक, सरस नवगीतों का पठनीय संग्रह है। मध्य प्रदेश के बड़े जंक्शन कटनी में बसे राजा के नवगीत विंध्याटवी के नैसर्गिक सौंदर्य, ग्राम्यांचल के संघर्ष, नगरीकरण की घुटन, राजनीति के दिशाभ्रम, आम जन के अंतर्द्वंद तथा युवाओं के सपनों के बहुदिशायी रेलगाड़ियों में यात्रारत मनोभावों को मन में बसाते हैं। करुणा और व्यथा काव्य का उत्स है. गाँव की माटी की व्यथा-कथा गाँव के बेटों तक न पहुँचे यह कैसे संभव है?
आज गाँव की व्यथा बाँचती / चिट्ठी मेरे नाम मिली
विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी
जेठ-ससुर की मैली नज़रें / अब टूटीं, तब टूटीं
तमाम विसंगतियों से लड़ते-जूझते हुए भी अक्षर आराधना किसी सैनिक के पराक्रम से कम नहीं है।
चंदन वन काट-काट / शव का श्रृंगार करें
शिशुओं को दें शव सा जीवन
यौवन में सन्नाटा / मरघट सा छाता है
आस-ओस दुर्लभ आजीवन
यश अर्जन को होता
भूख को हमारी, साहित्य में उतारना
माँ शारदा को क्षुधा-दीप समर्पित करती कलम का संघर्ष गाँव और शहर हर जगह एक सा है। विडम्बनाओं व विसंगतियों से जूझना ही नियति है-
स्वार्थ-पोषित आचरण को / यंत्रवत निष्ठुर शहर को / सौपने बैठा
भाव की पहचान भूले / चेहरे पढ़ना कठिन है
धुंध, सन्नाटा, अँधेरा / और बहरापन कठिन है
विवशताएँ, व्यस्तताएँ / ह्रदय में छल वर्जनाएं / थोपने बैठा
अनचाही पीड़ाएँ प्रकृति प्रदत्त कम, मनुष्य रचित अधिक हैं-
गाँव के पंचों ने मिलकर / फिर खड़ी दीवार की
फिर वही हालत, नियति / वह ही प्रकृति के प्यार की
किशनवा-रधिया की / घुटती साँस का मौसम।
किसी समाज के सामने सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति तब होती है जब बिखराव के कारण मानव-मन दूर होने लगें। राजा इस परिस्थिति का अनुमान कर अपनी चिंता नवगीत में उड़ेल देते हैं-
अंतस के समतल की / चिकनाई गायब अब
रोज बढ़े, फैले, ज़हरीला बिखराव
रिश्तों का ताप चुका / आ बैठा ठंडापन
चहक-पुलक में में पसरा जाता ठहराव
कैसी इच्छाओं के / ज्वार और भाटे ये
दूर हुए जाते मन, सदियों के द्वीप
विषमताओं के कुम्भ में सपनों की आहट बेमानी प्रतीत होने लगे तो नवगीत मन की पीड़ा को स्वर देता है -
किसलिए सजें / सपने, तो बस विशुद्ध रेत हैं
नरभक्षी पौधों से / आश्रय की आशा क्या?
सब के सब इक जैसे / टोला क्या, माशा क्या?
कोई भी अमृत फल / इन पर आ पायेगा?
छोडो भी आशा, ये बेंत हैं
बेशर्मी जेहन से / आँखों में उतरी
ढंकेंगी कब तक / ये पोशाकें सुथरी
बच पाना मुश्किल है / ये भोंडे संस्कार
दम लेंगे हंसकर ही, ये करैत हैं
राजा केवल नाम के ही नहीं अनुभूतियों और अभिव्यक्ति-क्षमता के भी राजा हैं। लोकतंत्र में भी सामंतवादी प्रवृत्तियों का बढ़ते जाना, प्रगति की मरीचिका मैं आम आदमी का दर्द बढ़ते जाना उनके मन की पीड़ा को बढ़ाता है-
फिर उसी सामंतवादी / जड़ प्रकृति को रोपता
एक विध्वंसक समय को / हाथ बाँधे न्योतता
जड़ तमाचे पर तमाचे / अमन के मुँह पर
पढ़ कसीदे पर कसीदे / दमन के मुँह पर
गर्व से मुस्की दबाये / है प्रगति का देवता
मुहावरेदार भाषा राजा अवस्थी के नवगीतों की जान है। रेवड़ी बेभाव बाँटी / प्रगति को दे दी धता, ढिबरी का तेल चुका / फैला अँधियार, खेतिहर बिजूकों से / भय खाएं राम, मस्तक में बोकर नासूर / टोपी के ये नकली बाल क्या सँवारना?, संविधान के मकड़जाल में / उलझा अक्सर न्याय हमारा, तार पर दे जीवन आघात / बेसुरे सुर दे रहे धता, कुँवारी इच्छाएं ऐसी / खिले ज्यों हरसिंगार के फूल जैसी अभिव्यक्तियाँ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियों से पाठक का साक्षात करा देती हैं।
ग्राम्यांचली पृष्ठभूमि राजा अवस्थी को देशज शब्दों के उस ख़ज़ाने से संपन्न करती है जो शहरों के कोंवेंटी कवि के लिए आकाश कुसुम है। बरुआ, ठकुरवा, छप्पर, छुअन, झरोखा, निठुराई, बिजूका, झोपड़, जांगर. कहतें, पांग, बढ़ानी, हिय, पर्भाती, सुग्गे, ढिबरी, किशनवा, कुछबन्दियों, खटती, बहुँटा, अंकुई, दलिद्दर, चरित्तर, पैताने आदि ग्रामीण शब्दों के साथ उर्दू लफ्ज़ खातिर, रैयत, खबर, गुजरे, बैर, ज़ुल्मों, खस्ताहाल, नज़रें, ख्याल, आमद, बदन, यकीन, ज़ेहन, नुस्खे, नासूर, इन्तिज़ार, ज़हर, आफत, एहसान, तकादा, एहसान, चस्पा, लफ़्फ़ाज़ी आदि मिलकर उस गंगो-जमुनी जीवन की बानगी पेश करते हैं जिसमें शुद्ध हिंदी के अनुपूरित, प्रतिकार, अंतर्मन, उल्लास, ग्रसित, व्याल, आतंकित, प्रतिबंधित, मराल, भ्रान्ति, आलिंगन, उत्कंठा, वीथिकाएँ, वर्जनाएं,अंतस, निष्कलुष, बड़वानल, हिमगलित, संभरण आदि पुलाव में मेवे की तरह प्रतीत होते हैं। राजा अवस्थी ने शब्द-युग्मों की शक्ति और उपदेयता को पहचाना और उपयोग किया है। खबर-दबर, जेठ-ससुर, माँ-दद्दा, रात-दिन, हम-तुम, मन-मान, आस-ओस, उठना-गिरना, साँझ-सँझवाती, लड़ी-फड़ी, डगर-मगर, सुख-दुःख, घर-गाँव, सुबह-शाम, दोपहरी-रात, नून-तेल, आस-पास, दूध-भात, मरते-कटते, चोर-लबार, अमन-चैन, चहक-पुलक, सीलन-सन्नाटे, दंभ-छ्ल्, है-मेल, हवा-पानी, प्रीति-गीति-रीति, मोह-ममता-नेह, तन-मन-जेहन आदि शब्द युगन इन नवगीतों की भाषा को जीवंतता देते हैं।
राजा अवस्थी की प्रयोगधर्मी वृत्ति फाइलबाजों, कंठ-लावनी, वर्ण-कंपित, हिटलरी डकार, श्रध्दाशा, ममता की अलगनी, सुधियों की डोर, काँटों की गलियाँ, मुस्कानों के झोंके, शब्दों का संत्रास, पीड़ाओं के शिलाखंड जैसे शब्दावलियों से पाठक को बाँध पाये हैं। शब्द-सामर्थ्य, भाषा-शैली, नव बिम्ब, नए प्रतीक, मौलिक कथ्य की कसौटी पर ये गीत खरे उतरते हैं। इन नवगीतों में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दो से लेकर चार पंक्तियों तक के मुखड़े तथा आठ पंक्तियों तक के अंतरे प्रयुक्त हुए हैं। नवगीतों में अंतरों की संख्या दो या तीन है।
हिंदी के समर्थ समीक्षक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इन गीतों में 'समकालीन जीवन व् उसके यथार्थ के प्रति अत्यधिक सजगता एवं संवेदनशीलता, स्थानीयता के रंगों से कुछ अधिक रंगीनियत' ठीक ही लक्षित की है। इस कृति के प्रकाशन के एक दशक बाद राजा अवस्थी की कलम अधिक पैनी हुई है, उनके नवगीतों के नये संकलन की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।
२३-३-२०१६
***
छंद सलिला:
कज्जल छंद
*
लक्षण: सममात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणांत लघु-गुरु
लक्षण छंद:
कज्जल कोर निहार मौन,
चौदह रत्न न चाह कौन?
गुरु-लघु अंत रखें समान,
रचिए छंद सरस सुजान
उदाहरण:
१. देव! निहार मेरी ओर,
रखें कर में जीवन-डोर
शांत रहे मन भूल शोर,
नयी आस दे नित्य भोर
२. कोई नहीं तुमसा ईश
तुम्हीं नदीश, तुम्ही गिरीश।
अगनि गगन तुम्हीं पृथीश
मनुज हो सके प्रभु मनीष।
३. करेंगे हिंदी में काम
तभी हो भारत का नाम
तजिए मत लें धैर्य थाम
समय ठीक या रहे वाम
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माली, माया, माला, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
२३-३-२०१४
***
विज्ञापन या ठगी ??????
1) घोटालों से परेशान ना हों, Tata की चाय पीयें, इससे देश बदल
जाएगा|
2) पानी की जगह Coca Cola और Pepsi पीयें और प्यास बुझायें|
3) Lifebuoy और Dettol 99.9% कीटाणु मारते है पर 0.1 %
पुनः प्रजनन के लिए छोड़ ही देते हैं|
4) महिलाओं को बचाने और बटन खुले होने
की चेतावनी देने का ठेका केवल Akshay Kumar ने लिया है|
5) अगर आप Sprite पीते हैं तो लड़की पटाना आपके बाये हाँथ
का खेल है|
6) Salman Khan के अनुसार
महीने भर का Wheel Detergent ले आओ
और कई किलो सोने के मालिक बन जाओ.
आपको नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं|
7) Saif Ali Khan और Kreena Kapoor ने शादी एक दुसरे के सर
का Dandruff देख कर की है|
8)यदि किसी के Toothpaste में नमक है तो; यह पूछने के लिए आप
किसी के भी घर का बाथरूम तोड़ सकते हैं|
9) Samsung Galaxy S3 फोन के
अलावा बाकी सभी फोन बंदरों के लिए बने हैं| केवल यही फ़ोन
इंसानों के लिए है!
10) Mountain Dew पीकर पहाड़ से कूद जाइये, कुछ नहीं होगा|
11) Cadbury Dairy Milk Silk Chocolate खाएं कम और मुंह
पर ज्यादा लगायें|
12) Happident चबाइए और बिजली का कनेक्शन कटवा लीजिये|
13) आपके insurance Agents को अपने पापा से
ज्यादा आपकी फ़िक्र रहती हैं|
14) फलमंडी से ज्यादा फल आपके Shampoo में होते हैं|
15) अपने घर का Toilet सदा साफ़ रखें अन्यथा एक Handsome
सा लड़का Harpic और Camera लेकर आपकेToilet की सफाई
का Live Broadcast
करने लगेगा|
16) अगर आपने घर में Asian Paints किया है तो आप दुनिया के
सबसे Intelligent इन्सान हैं|
17) अगर आपने Lux Cozy Big Shot
नहीं पहनी तो आपको मर्द कहलाने काकोई हक़ नहीं|
18) अगर तुम्हारा बेटा Bournvita
नहीं पीता तो वो मंदबुद्धि हो जायेगा|
***
होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान..
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भाई सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, स्मृति का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
***
फागुन के मुक्तक
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
२३-३-२०१३
*
पर्वत शिखरों पर बसी, धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, नभचर आ आराम..
गीत
*
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
हम समझ ही नहीं पाए
कौन क्या है?
और तुमने यह न समझा
मौन क्या है?
साथ रहकर भी रहे क्यों
दूर हरदम?
कौन जाने हैं अजाने
भाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
चाहकर भी तुम न हमको
चाह पाए.
दाहकर भी हम न तुमको
दाह पाए.
बाँह में थी बाँह लेकिन
राह भूले-
छिपे तन-मन में रहे
अलगाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
अ-सुर-बेसुर से नहीं,
किंचित शिकायत.
स-सुर सुर की भुलाई है
क्यों रवायत?
नफासत से जहालत क्यों
जीतती है?
बगावत क्यों सह रही
अभाव इतने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
खड़े हैं विषधर, चुनें तो
क्यों चुनें हम?
नींद गायब तो सपन
कैसे बुनें हम?
बेबसी में शीश निज अपना
धुनें हम-
भाव नभ पर, धरा पर
बेभाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
साँझ सूरज-चंद्रमा सँग
खेलती है.
उषा रुसवाई, न कुछ कह
झेलती है.
हजारों तारे निशा के
दिवाने है-
'सलिल' निर्मल पर पड़े
प्रभाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
***
नवगीत
विडंबना
*
कोई न चाहे
पुत्र बने निज
भगत गुरु सुखदेव.
नेता जी से पूछो भाई .
व्यापारी से पूछो भाई .
अधिकारी से पूछो भाई .
न्यायमूर्ति से पूछो भाई
वकील साब से पूछो भाई
सब चाहें केवल यश गाना.
भाषण देना चित्र छपाना.
कोई न चाहे
पुत्र बने निज
भगत गुरु सुखदेव.
*
कोई न चाहे
पत्नि-सुता हो
रानी लक्ष्मी बाई.
नेता जी से पूछो भाई .
व्यापारी से पूछो भाई .
अधिकारी से पूछो भाई .
न्यायमूर्ति से पूछो भाई
वकील साब से पूछो भाई
सब चाहें केवल यश गाना.
भाषण देना चित्र छपाना.
कोई न चाहे
पत्नि-सुता हो
रानी लक्ष्मी बाई.
*
मेरे घर में
रहे लक्ष्मी
तेरे घर में काली.
तू ले ले वनवास विरासत
सत्ता मैंने पा ली.
वादे किये न पूरे लेकिन
मुझसे तू मत पूछ.
मुँह मत खोल भले ही मैंने
दी जी भर कर गाली.
चार साल की पूछ न बातें
सत्तर की बतला दे.
अपना वोट मुझे दे दे
जुमलेबाजी बिसरा दे.
२३-३-२०१०
***