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बुधवार, 9 जुलाई 2025

जुलाई ९, मोहन छंद, सुमेरु छंद, द्वि इंद्रवज्रा सवैया, हिंदी ग़ज़ल, गुरु, जान, सॉनेट, रामदास,कमल

 सलिल सृजन जुलाई ९

*
सॉनेट
अज्ञान वंदना
*
ज्ञान न मिले प्रयास बिन, मिले आप अज्ञान।
व्यर्थ वंदना प्रार्थना, चल न साधना-राह।
पढ़ना-लिखना क्यों कहो, खा पी मस्त सुजान।।
कभी न कर सत्संग मन, पा कुसंग कर वाह।।
नित नव करें प्रपंच हँस, कभी नहीं सत्संग।
खा-पी जी भर मौज कर, कभी न कुछ भी त्याग।
भोग लक्ष्य कर योग तज, नहीं नहाना गंग।।
प्रवचन कीर्तन हो जहाँ, तुरत वहाँ से भाग।।
सुरापान कर कर्ज ले, करना अदा न जान।
द्यूत निरंतर खेलना, चौर्य कर्म ले सीख।
तज विनम्रता पालकर, निज मन में अभिमान।।
अपराधी सिरमौर बन, दुष्ट-रत्न तू दीख।।
वंदन कर अज्ञान का, मूर्खराज का ताज।
सिर पर रख ले बेहया, बन निर्लज्ज न लाज।।
८-७-२०२३
***
सॉनेट
समर्थ स्वामी रामदास
*
संत 'दीपमाला' सदृश, करते सतत प्रकाश।
'रानी' आत्मा मानते, राजा ब्रह्म अनंत।
'नारायण' की कीर्ति गा, तोड़ें भव का पाश।।
'एकनाथ' छवियाँ अगिन, देखें दिशा-दिगंत।।
नीलगगन खुद 'राणु' बन, 'सूर्या' स्वामी साथ।
'सूर्य स्रोत' के पाठ से, ले 'मोनिका' प्रकाश।
'गंगाधर' अग्रज सहित, गह 'नारायण' हाथ।।
चाहें बनें ग्रहस्थ पर, तोड़ें भव के पाश।।
'सावधान' हो तपस्या, पथ पर बढ़े सुसंत।
'दासबोध' को बताया, 'सुगमोपाय' महान।
हो 'समर्थ' गुरु 'शिवा' के, हुए दिखाया पंथ।
'छत्रसाल' आशीष पा, असि रख पाए तान।।
'रामदास' वैराग से, करें लोक कल्याण।
कंकर से शंकर रचें, शव को कर संप्राण।।
८-७-२०२३
***
स्नेहिल सलिला सवैया ​​ : १.
द्वि इंद्रवज्रा सवैया
सम वर्ण वृत्त छंद इन्द्रवज्रा (प्रत्येक चरण ११-११ वर्ण, लक्षण "स्यादिन्द्र वज्रा यदि तौ जगौ ग:" = हर चरण में तगण तगण जगण गुरु)
SSI SSI ISI SS
तगण तगण जगण गुरु गुरु
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः, प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो, सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उदाहरण-
०१. माँगो न माँगो भगवान देंगे, चाहो न चाहो भव तार देंगे।
होगा वही जो तकदीर में है, तदबीर के भी अनुसार देंगे।।
हारो न भागो नित कोशिशें हो, बाधा मिलें जो कर पार लेंगे।
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!, नौका न चाहें मँझधार लेंगे।
०२ नाते निभाना मत भूल जाना, वादा किया है करके निभाना।
या तो न ख़्वाबों तुम रोज आना, या यूँ न जाना करके बहाना।
तोड़ा भरोसा जुमला बताया, लोगों न कोसो खुद को गिराया।
छोड़ो तुम्हें भी हम आज भूले, यादों न आँसू हमने गिराया।
_ ८.७.२०१९
***
एक मुक्तिका:
महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
*
न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
*
चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
*
किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
*
हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
*
हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
*
न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
***
कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
*
पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
*
निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
*
गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
*
जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
*
कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
*
९.७.२०१८
***
दोहे साहित्यकारों पर
*
नहीं रमा का, दिलों पर, है रमेश का राज.
दौड़े तेवरी कार पर, पहने ताली ताज.
*
आ दिनेश संग चंद्र जब, छू लेता आकाश.
धूप चांदनी हों भ्रमित, किसको बाँधे पाश.
*
श्री वास्तव में साथ ले, तम हरता आलोक.
पैर जमाकर धरा पर, नभ हाथों पर रोक.
*
चन्द्र कांता खोजता, कांति सूर्य के साथ.
अग्नि होत्री सितारे, करते दो दो हाथ.
*
देख अरुण शर्मा उषा, हुई शर्म से लाल.
आसमान के गाल पर, जैसे लगा गुलाल.
*
खिल बसन्त में मंजरी, देती है पैगाम.
देख आम में खास तू, भला करेंगे राम.
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य.
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य.
*
वही पूर्णिमा निरूपमा,जो दे जग उजियार
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार
*
श्वास सुनीता हो सदा, आस रहे शालीन
प्यास पुनीता हो अगर, त्रास न कर दे दीन
*
प्रभा लाल लख उषा की, अनिल रहा है झूम
भोर सुहानी हो गई क्यों बतलाये कौन?
***
दोहा सलिला:
*
गुरु न किसी को मानिये, अगर नहीं स्वीकार
आधे मन से गुरु बना, पछताएँ मत यार
*
गुरु पर श्रद्धा-भक्ति बिन, नहीं मिलेगा ज्ञान
निष्ठा रखे अखंड जो, वही शिष्य मतिमान
*
गुरु अभिभावक, प्रिय सखा, गुरु माता-संतान
गुरु शिष्यों का गर्व हर, रखे आत्म-सम्मान
*
गुरु में उसको देख ले, जिसको चाहे शिष्य
गुरु में वह भी बस रहा, जिसको पूजे नित्य
*
गुरु से छल मत कीजिए, बिन गुरु कब उद्धार?
गुरु नौका पतवार भी, गुरु नाविक मझधार
*
गुरु को पल में सौंप दे, शंका भ्रम अभिमान
गुरु से तब ही पा सके, रक्षण स्नेह वितान
*
गुरु गुरुत्व का पुंज हो, गुरु गुरुता पर्याय
गुरु-आशीषें तो खुले, ईश-कृपा-अध्याय
*
तुलसी सदा समीप हो, नागफनी हो दूर
इससे मंगल कष्ट दे, वह सबको भरपूर
***
९-७-२०१७
***
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
९-७-२०१६
***
अभिनव प्रयोग- गीत:
कमल-कमलिनी विवाह
*
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर के रंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती किराविनी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिय.
रविप्रिय शीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
*
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक सहरापद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे
लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
टिप्पणी: कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकर के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुदको कहीं कमल कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शाशिमुखी, चन्द्रकान्ति कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की हरि तथा लक्ष्मी के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि के पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल माल अर्पित करने का सुअवसर देने के लिये पाठशाला-संचालकों का आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने से रचना लंबी है. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं.
९.७.२०१०
***

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

जुलाई ८, सॉनेट, अवधी हाइकु, भोजपुरी हाइकु, दुर्मिला छंद, बुन्देली मुक्तिका, मन,

सलिल सृजन जुलाई ८
*
नवगीत:
पैर हमारे लात हैं....
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण कमल.
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम हरिकर, वे श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम उत्पल शतदल...
***
सॉनेट
दाग
पाक-साफ मतदान करेंगे
सोच गए मतदान केंद्र हम
सियासती आरोप सुनेंगे
सच्चाई का निकलेगा दम
कहाँ सोच पाए थे अँगुली
जो उठती अब तक औरों पर
रही हमेशा सबसे कहती
लौट कहेगी वही सिसककर
दागदार होकर लौटी मैं
कैसे उठूँ कहो औरों पर
दाग छुड़ाते जो विज्ञापन
छुड़ा न पाए दाग जतनकर
दागदार चुन दागदार को
शानदार कह दागदार को
८-७-२०२२
•••
सॉनेट
आस्था
आस्था क्षणभंगुर चोटिल हो
पल-पल में कुछ भी सुन-पढ़कर
दुश्मन की आसान राह है
हमें लड़ाए नित कुछ कहकर
मैं-तुम चतुर हद्द से ज्यादा
शीश छिपाते शुतुरमुर्ग सम
बंद नयन जब आए तूफां
भले निकल जाए चुप रह दम
रक्तबीज का रक्त पी लिया
जिसने वह क्या शाकाहारी?
क्या सच ही पानी, खूं अपना
जो पीता नहिं मांसाहारी
आस्था-अंधभक्त की जय-जय
रंग बदलो, हो गिरगिट निर्भय
८-७-२०२२
•••
***
एक मुक्तकी राम-लीला
*
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
सिय हरण, लाँघा समुद,लड़-मार रावण को दिया-
विभीषण-अभिषेक, गद्दी अवध की शोभित करी।।
*
८-७-२०१६
रामकथा
* एक श्लोकी रामायण *
अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तद्धि रामायणम्।
यदि इसे भी रामायण माने तो यह विश्व की सबसे छोटी एक श्लोकी रामायण है. इसे रचने वाले कवि गोस्वामी तुलसीदास माने जाते हैं .
'रामायण' का विश्लेषित रुप 'राम का अयन' है जिसका अर्थ है 'राम का यात्रा पथ', क्योंकि अयन यात्रापथवाची है। इसकी अर्थवत्ता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही रूपायित हुई है।
***
अवधी हाइकु सलिला:
*
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
***
भोजपुरी हाइकु
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि
भारत देसवा के
प्रेरण-स्रोत.
*
भुला दिहिल
बटोहिया गीत के
हम कृतघ्न.
*
देश-उत्थान?
आपन अवदान?
खुद से पूछ.
*
अंगरेजी के
गुलामी के जंजीर
साँच साबित.
*
सुख के धूप
सँग-सँग मिलल
दुःख के छाँव.
*
नेह अबीर
जे के मस्तक पर
वही अमीर.
*
अँखिया खोली
हो गइल अंजोर
माथे बिंदिया.
*
भोर चिरैया
कानन में मिसरी
घोल गइल.
*
काहे उदास?
हिम्मत मत हार
करल प्रयास.
*
छंद सलिला:
दुर्मिला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-१४, पदांत गुरु गुरु, चौकल में लघु गुरु लघु (पयोधर या जगण) वर्जित।
लक्षण छंद:
दिशा योग विद्या / पर यति हो, पद / आखिर हरदम दो गुरु हों
छंद दुर्मिला रच / कवि खुश हो, पर / जगण चौकलों में हों
(संकेत: दिशा = १०, योग = ८, विद्या = १४)
उदाहरण:
१. बहुत रहे हम, अब / न रहेंगे दू/र मिलाओ हाथ मिलो भी
बगिया में हो धू/ल - शूल कुछ फू/ल सरीखे साथ खिलो भी
कितनी भी आफत / आये पर भू/ल नहीं डट रहो हिलो भी
जिसको जो कहना / है कह ले, मुँह / मत खोलो अधर सिलो भी
२. समय कह रहा है / चेतो अनुशा/सित होकर देश बचाओ
सुविधा-छूट-लूट / का पथ तज कद/म कड़े कुछ आज उठाओ
घपलों-घोटालों / ने किया कबा/ड़ा जन-विश्वास डिगाया
कमजोरी जीतो / न पड़ोसी आँ/ख दिखाये- धाक जमाओ
३. आसमान पर भा/व आम जनता/ का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओ/र सँभल शासन, / जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन / लिप्सा तज भा/व् घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मे/हनतकश भी, र/हे न भूखा, स्वप्न बो रहा
----------
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दुर्मिला, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, समान, सरस, सवाई, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
पारंपरिक लघु कथा : दृष्टांत कथा
गुरु क्यों?
*
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की खेती सुनकर तरुण नरेन्द्र ने एक दिन उनसे कहा, " स्वामीजी! मैं रामायण जानता हूँ , भगवद्गीता जानता हूँ, सारे वेद पढ़े हैं और हर विषय पर अच्छा व्याख्यान दे लेता हूँ, फिर मुझे गुरु की आवश्यकता क्यों ?"
परमहंस ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर्फ मुस्कुरा दिए।
कुछ दिनों बाद परमहंस ने नरेन्द्र को बुलवाया, कुछ सामान और मान-पते की एक पर्ची देकर कहा, " इसे नदी के पार इनको कल दे आओ।"
नरेन्द्र ने सामान ले लिया। दूसरे दिन सवेरे उस गाँव की तरफ निकल पड़े ताकि जल्दी से देकर वापस आ सकें। रास्ते में एक नदी पड़ती थी जहाँ नाव तैयार थी, नाविक उन्हें लेकर चल पड़ा। नदी के पार उतर कर उन्होंने देखा कि घाट से कई सारे रास्तेे, कई गाँवों की तरफ जाते हैं। उन्होंने नाविक से पूछा, "भैया ! इस गाँव तक पहुँचने का रास्ता कौन सा है ?
नाविक ने कहा, "मुझे नहीं मालुम। "
नरेन्द्र असमंजस में पड़ गए। अब क्या करें ? यहाँ तो कई रास्ते हैं, किससे जाएँ कि बिना भटके सही गाँव में पहुँच जाएँ। काफी देर तक देखते रहे, कोइ अन्य जानकार नहीं आया तो नाववाले से बोले, "भैया, मुझे वापस ले चलो। बिना रास्ता जाने ही चला आया। इस बार पूछ कर आऊँगा।"
वापस आकर नरेन्द्र स्वामी परमहंस के पास रास्ता पूछने गए तो उन्होंने रास्ता बताने के स्थान पर सामान वापिस ले लिया और कहा कि अब पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है यह तो तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है। गंतव्य स्थान पर जाने के लिए तुम्हारे पास माध्यम (नाव) है, संसाधन (नाविक) है, यह भी मालूम है कि क्या करना है (सामान देना है), कहाँ जाना है, लेकिन रास्ता नहीं मालूम ! बिना मार्गदर्शन के किस रास्ते से भटकते रह जाएगा।
नरेंद्र समझ गए कि गुरु मार्गदर्शक होता है। उसे पता होता है कि किस शिष्य को कौन सा सामान देना है, कौन सी राह बतानी है?
***
दोहा सलिला:
मन के दोहे
*
मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह.
मन से मिल मन शांत हो, सोया आँचल-छाँह.
*
मन से मन को राह है, मन को मन की चाह.
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह.
*
चमन तभी गुलज़ार हो, जब मन को हो चैन.
अमन रहे तब जब कहे, मन से मन मृदु बैन.
*
द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद.
मन कठोर हो दंड दे, मिट जाए छल-छंद.
*
मन मँजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन.
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन.
*
नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद.
अंतर्मन में गोंजते, उमड़-घुमड़कर छंद.
*
मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास.
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास.
*
मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह.
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह.
*
मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन?
अंतर्मन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन.
*
धुनी धूनी सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन.
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन.
*
मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार.
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सर पटके दीवार.
*
८.७.२०१८
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
८-७-२०१४
***
गीत
किस रचना में नही रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
८-७-२०१०
***
गीत
गीत जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा.
शब्द ब्रह्म को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा..
हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-
होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती..
भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो.
उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो..
कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक.
राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक..
कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर.
कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर..
कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा.
लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा..
कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया.
कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया..
कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण.
कविता अपने अहम्-वहम का, शरद-पग में विनत विसर्जन..
शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है.
कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है..
******************************
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७- २०१०
*

सोमवार, 7 जुलाई 2025

जुलाई ७, जेपी, हरिगीतिका, कुण्डलिया, दोहा, हाइकु, मुक्तक, संस्कृति, सॉनेट, आदित्य,

सलिल सृजन जुलाई ७
*
दोहा गजल
प्रभु! निर्मल मति दें मुझे, और भक्ति निष्काम।
कर्म तुम्हें अर्पित करूँ, चित्रगुप्त सुखधाम।।
.
फल की आशा हो नहीं, सफल-विफल सम जान।
पल पल कोशिश कर सके, हे हरि तन अविराम।।
.
मन-मंथन से मिल सके, अमृत भोले नाथ।
सुख-दुख मुझको सम लगें, हो पाऊँ बेनाम।।
.
स्वर्ग न मुझको चाहिए, नहीं नर्क की माँग।
अनायास जब जो दिया, उसके लिए प्रणाम।।
.
जीव रहे संजीव हरि, सलिल बने निर्माल्य।
तेरा तुझको समर्पित, हारे को हरिनाम।।
७.७.२०२५
०0०
सॉनेट
आदित्य
आदित्य भुवन भास्कर वंदन,
ऊषापति दिनपति दिनकर हे!
रवि रश्मिराज रतनारनयन,
तिमिरारि अरुण तम-अंतक हे।
हे दिव्य दिवाकर, हे दिनेश,
किरणेश सतरथी छायापति,
हो पूत प्रभाकर थिर न लेश,
निष्काम काम करते ग्रहपति।
वेतन न मिले सप्ताश्वरथी,
पद उन्नति की भी फ़िक्र नहीं,
कश्यपसुत लोहित तेजपुंज,
तुम सम प्रकाशपति है न कहीं।
हो राहु-केतु रिपु सदा अजित।
सलिलेश! रखो हमको अविजित।
७-७-२०२३
(सूर्य के २५ पर्यायवाची, २+५=७, सूर्य रश्मि में सात रंग, सूर्य रथ में सात अश्व)
***
सॉनेट
अँगुली
*
ठेंगा देखा-दिखा रहे हम
पा आजादी, मोल न जानें
लगा अँगूठा अँखियाँ थीं नम
पढ़-लिख बढ़ना मन में ठानें
दादागिरी अँगूठा करता
अंगुलियों को रही शिकायत
एक दबाए चार-चार को
आओ! हम मिल करें बगावत
लोकतंत्र मतदान दिवस पर
उठी तर्जनी नेता चुनने
पहन अँगूठी झट अनामिका
सपने लगी ब्याह के बुनने
मिली कनिष्ठा अरु अनामिका
राज्य हो गया साम-दाम का
७-७-२०२२
•••
दोहा सलिला:
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
*
साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
*
७.७.२०१८
***
विमर्श
ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति
भारत माता ग्रामवासिनी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था क्या आज हम यह कह सकते हैं क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए गांव की पहचान पनघट चौपाल खलिहान वनडे घुंघरू पायल कंगन बेंदा नथ चूड़ी कजरी आल्हा पूरी राई अब कहां सुनने मिलते हैं इनके बिना गांव-गांव नहीं रहे गांव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है और शहर क्या है जिनके बारे में अज्ञ लिखते हैं सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं शहर में बसना तुम्हें नहीं आया एक बात पूछूं उत्तर दोगे डसना कहां से सीखा जहर कहां से पाया तो शहर में जहां आदमी आदमी को डसना सीखता है जहां आदमी जहर पालना सीखता है तो वह गांव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था वह गांव जो अपनेपन से सराबोर था वह गांव जो रिश्ते नातों को जीना जानता था वह गांव जहां एक कमाता वह खा लेते थे वह भागकर चेहरा रहा है कौन से शहर में जहां 6 काम आए तो 1 को नहीं पाल सकते जहां सांस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है जहां रास्तों की मौत हो रही है जहां माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं जहां नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं जहां निर्मल ओं के लिए महिला आश्रम आश्रम रैन बसेरों की व्यवस्था की जाती है हम जीवन को कहां से कहां ले जा रहे हैं यह सोचने की बात है क्या हम इन चेहरों को वैसा बना पाएंगे जहां कोई राधा किसी का ना के साथ राजा पाए क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कष्ट का नाम लेने पर विश्वास न करना पड़े शहरों में कोई पार्वती कवि किशन कर पाएगी हम ना करें लेकिन सत्य को भी ना करें हम अपनों को ऐसा शहर कब बना सकते हैं अपने गांव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर चन्द्र के द्वारा लोक का गला घोट रहे हैं जिनके नाम पर उनके द्वारा जनमत को कुचल रही हैं हमारे तंत्र की कोई जगह नहीं है हमारा को केवल गुलाम समझता है आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है यह व्यक्ति है उसके द्वारा दी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा का भुगतान होता है लेकिन मानसिकता की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है गुलाम शायद पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अभय हमारे गांव स्वतंत्रता पूर्वक ने बेबस नहीं थे जितने अब हैं स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था जो अब नहीं है पहले वह महुआ तोड़ कर बैठ सकता था पेट पाल सकता था अपराधी नहीं था अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता वह वन विभाग की संपत्ति है पहले सरकारी जमीन पर आप पेड़ होए तो जमीन भले सरकार की हो पेड़ की फसल आपकी होती थी आप का मालिकाना हक होता था अब नहीं पहले किसान फसल उगाता था घर के पन्नों में भर लेता था विजय बना लेता था जब जितने पैसे की जरूरत है उतनी फसल निकालकर भेजता था और अपना काम चलाता था अब किसान बीज नहीं बना सकता यह अपराधी अपनी फसल नहीं सकता बंधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहां उसे फसल को गेहूं को खोलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती जहां रिश्वत देने पर घटिया गेहूं के दाम ज्यादा लग जाते हैं जहां रिश्वत न देने पर लगते हैं हम हम शहरों की ओर जा सके हमारा शहरीकरण कम हो गांधी ने कहा था कि हम कुटीर उद्योगों की बात करें उद्योगों की बात करें हमारे गांव आत्मनिर्भर आज उन्होंने हमें यही सबक दिया कि गांव के शहरों में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ साहूकारों उद्योग पतियों की बिल्डिंग खड़ी करते हैं उन्हें अरबपति बनाते हैं उद्योगपति हैं कि संकट आने पर अपनों को अपनों को 2 महीने 4 महीने भी नहीं सकते गांव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा उस गांव में रोजी-रोटी ना होने के कारण छोड़ कर गया था अब जब ढलान पर है उसे क्या काम मिलेगा लेकिन मुझे विश्वास है उसे पा लेगा क्योंकि गांव के मन में उदारता है शहर में पड़ता है शहर में कुटिलता है गांव में सरलता है लेकिन हमारे को भी राजनीति राजनीति सामाजिक जीवन सुखद हो पाएगा हमारे मन में बसे निर्मल हो
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
७-७-२०१९
***
दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
*
दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
***
७.७.२०१८
***
छंद परिचय
कुण्डलिया का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[लेखक परिचय: जन्म: २०-८-१०५२, मंडला मध्य प्रदेश। शिक्षा: डी. सी. ई., बी. ई. एम्. आई. ई., एम्. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकरिता। प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव भक्ति गीत, २. भूकंप के साथ जीना सीखें लोकोपयोगी तकनीकी, ३. लोकतंत्र का मकबरा कवितायेँ, ४. मीत मेरे कवितायेँ, ५. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य, काव्यानुवाद: सौरभ:, यदा-कदा। संपादित: ९ पुस्तकें, १६ स्मारिकाएँ, ८ पत्रिकाएँ। ३६ पुस्तकों में भूमिका लेखन, ३०० से अधिक समीक्षाएँ, अंतरजाल पर अनेक ब्लॉग, फेसबुक पृष्ठ ६००० से अधिक रचनाएँ, हिंदी में तकनीकी शोध लेख, छंद शास्त्र में विशेष रूचि। मेकलसुता पत्रिका में दोहा के अवदान पर पर ३ वर्ष तक लेखमाला, हिन्दयुग्म.कोम में छंद लेखन पर २ वर्ष तथा साहित्यशिल्पी.कोम में ८० अलंकारों पर लेखमाला। वर्तमान में साहित्यशिल्पी में 'रसानंद है छंद नर्मदा' लेखमाला में ८० छंद प्रकाशित। संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
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हरिगीतिका सलिला
*
(छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*
यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*
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स्वागतम
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अभियंता मिलन का परिणाम शुभ हो
जो हुआ सो हुआ, अब कुछ काम शुभ हो
सिरे बातें ही न हों, कुछ योजना हो
प्रकृति-पर्यावरण सँग अंजाम शुभ हो
*
आप आये हैं शहर को याद करने
शहर को हो याद यह क्षण, क्या करेंगे ?
क्या मिलन के पल महज मस्ती करेंगे?
या बने स्मार्ट कैसे, पथ वरेंगे?
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कविता
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जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा.
शब्द्ब्रम्ह को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा..
हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-
होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती..
भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो.
उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो..
कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक.
राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक..
कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर.
कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर..
कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा.
लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा..
कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया.
कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया..
कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण.
कविता अपने अहम्-वहम का, शारद-पग में विनत विसर्जन..
शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है.
कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है..
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जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७-२०१७
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भावांजलि-
मनोवेदना:
ओ ऊपरवाले! नीचे आ
क्या-क्यों करता है तनिक बता?
असमय ले जाता उम्मीदें
क्यों करता है अक्षम्य खता?
कितने ही सपने टूट गये
तुम माली बगिया लूट गये.
क्यों करूँ तुम्हारा आराधन
जब नव आशा घट फूट गये?
मुस्कान मृदुल, मीठी बोली
रससिक्त हृदय की थी खोली
कर ट्रस्ट बनाया ट्रस्ट मगर
संत्रस्त किया, खाली ओली.
मैं जाऊँ कहाँ? निष्ठुर! बोलो,
तज धरा न अंबर में डोलो.
क्या छिपा तुम्हारी करनी में
कुछ तो रहस्य हम पर खोलो.
उल्लास-आसमय युवा रक्त
हिंदी का सुत, नवगीत-भक्त
खो गया कहाँ?, कैसे पायें
वापिस?, क्यों इतने हम अशक्त?
ऐ निर्मम! ह्रदय नहीं काँपा?
क्यों शोक नहीं तुमने भाँपा.
हम सब रोयेंगे सिसक-सिसक
दस दिश में व्यापेगा स्यापा.
संपूर्ण क्रांति का सेनानी,
वह जनगणमन का अभिमानी.
माटी का बेटा पतझड़ बिन
झड़ गया मौन ही बलिदानी.
कितने निर्दय हो जगत्पिता?
क्या पाते हो तुम हमें सता?
असमय अवसान हुआ है क्यों?
क्यों सके नहीं तुम हमें जता?
क्यों कर्क रोग दे बुला लिया?
नव आशा दीपक बुझा दिया.
चीत्कार कर रहे मन लेकिन
गीतों ने बेबस अधर सिया.
बोले थे: 'आनेवाले हो',
कब जाना, जानेवाले हो?
मन कलप रहा तुमको खोकर
यादों में रहनेवाले हो.
श्रीकांत! हुआ श्रीहीन गीत
तुम बिन व्याकुल हम हुए मीत.
जीवन तो जीना ही होगा-
पर रह न सकेंगे हम अभीत।
१३-९-२०१५
(जे. पी. की संपूर्ण क्रांति के एक सिपाही, नवगीतकार भाई श्रीकांत का कर्क रोग से असमय निधन हो गया. लगभग एक वर्ष से उनकी चिकित्सा चल रही थी. हिन्द युग्म पर २००९ में हिंदी छंद लेखन सम्बन्धी कक्षाओं में उनसे परिचय हुआ था. गत वर्ष नवगीत उत्सव लखनऊ में उच्च ज्वर तथा कंठ पीड़ा के बावजूद में समर्पित भावना से अतिथियों को अपने वाहन से लाने-छोड़ने का कार्य करते रहे. न वरिष्ठता का भान, न कष्ट का बखान। मेरे बहुत जोर देने पर कुछ औषधि ली और फिर काम पर. तुरंत बाद वे स्थांनांतरित होकर बड़ोदरा गये , जहाँ जांच होने पर कर्क रोग की पुष्टि हुई. टाटा मेमोरियल अस्पताल मुम्बई में चिकित्सा पश्चात निर्धारित थिरैपी पूर्ण होने के पूर्व ही वे बिदा हो गये. बीमारी और उपचार के बीच में भी वे लगातार सामाजिक-साहित्यिक कार्य में संलग्न रहे. इस स्थिति में भी उन्होंने अपनी जमीन और धन का दान कर हिंदी के उन्नयन हेतु एक न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की. स्वस्थ होकर वे हिंदी के लिये समर्पित होकर कार्य करना चाहते थे किन्तु??? उनकी जिजीविषा को शत-शत प्रणाम)
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रचना -प्रति रचना
राकेश खंडेलवाल - संजीव
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गीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
नैन के गांव से नींद को ले गई रात जब भी उतर आई अंगनाई में
चिह्न हम परिचयों के रहे ढूँढते थरथराती हुई एक परछाईं में
दृष्टि के व्योम पर आ के उभरे थे जो, थे अधूरे सभी बिम्ब आकार के
भोर आई बुहारी लगा ले गई बान्ध प्राची की चूनरिया अरुणाई में
राग तो रागिनी भाँपते रह गये और पाखी हँसे चहचहाते रहे
*
अधखुले नैन की खिड़कियों पे खड़ी थी थिरकती रही धूप की इक किरण
एक झोंका हवा का जगाता रहा धमनियों मे पुनः एक बासी थकन
राह पाथेय पूरा चुरा ले गई पांव चुन न सके थे दिशाएं अभी
और फिर से धधक कर भड़कने लगी साँझ जो सो गई थी हदय की अगन
खूंटियों से बंधे एक ही वृत्त मे हम सुबह शाम चक्कर लगाते रहे
*
यों लगा कोई अवाज है दे रहा किंतु पगडंडियां शेष सुनी रही
मंत्र स्वर न मिले जो जगाते इसे सोई मन में रमी एक धूनी रही
याद के पृष्ठ जितने खुले सामने बिन इबारत के कोरे के कोरे मिले
एक पागल प्रतीक्षा उबासी लिए कोई आधार बिन होती दूनी रही
उम्र की इस बही में जुड़ा कुछ नहीं पल गुजरते हुए बस घटाते रहे
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प्रतिगीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
'हार की जीत' में, 'ताई' की प्रीत में, मन भटकता रहा मौन 'कुड़माई' में
कुछ कहा अनकहा, कुछ सुना अनसुना, छवि न धूमिल हुई किंतु तनहाई में
मन-पटल पर लिखा, फिर मिटाया गया, याद साकार थी पल निराकार में
मति चकित कुछ भ्रमित, बावली खो गयी, चन्द्रमा देख पूनम की जुनहाई में
भाव लय ताल स्वर हाँफते रह गये, बिम्ब गीतों का दर खटखटाते रहे
*
नित्य 'चंदन' 'सुधा' बिन अधूरा रहा, श्वास ने आस तज, त्रास का कर वरण
मुँह प्रथा का सिला, रीतियाँ चुप रहीं, पीर ओढ़े रही, शांति का आवरण
भ्रांति पलती रही, क्रांति टलती रही, कर्ण से जा मिला था सुयोधन तभी
चंद पाँसे फिंके, चंद आहें उठीं, चीर खिंचते बचा, रह गयी लट खुली
बाँसुरी-शंख भी, गांडिवी तीर भी, मिट गए पर न बदला तनिक आचरण
आदमी आदमी को परेशान कर, आदमीयत की जय ही मनाते रहे
*
इंकलाबी जुनूँ, मजहबी जोश बन, बिजलियों सा गिरा, आह कर अनसुनी
मुक्त पंजे से करना कमल चाहता, हाथियों की दिशाहीन माया धुनी
लालटेनें बुझीं, साइकिल रुक गयी, हाथ हँसिया हथौड़ा रहे अनमिले
तृण न वटवृक्ष हो हाय! मुरझा रहा, मैं गुणी शेष दुनिया सभी अवगुणी
स्वार्थ-सत्ता सियासत ने साधे 'सलिल', हाथ अपनों के जनगण ठगाते रहे
७-७-२०१६
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मुक्तक:
सद्भावों की रेखा खीचें, सद्प्रयास दें वास्तव में श्री
पैर जमीं पर रखें जमाकर, हाथ लगेगा आसमान भी
ममता-समता के परिपथ में, श्वास-आस गृह परिक्रमित हों
नवरस रास रचाये पल-पल, राह पकड़कर नवल सृजन की
राम देव जी हों विभोर तो रचना-लाल तराशें शत-शत
हो समृद्ध साहित्य कोष शारद-सुत पायें रचना-अमृत
सुमन पद्म मधु रूद्र सलिल रह निर्भय दें आनंद पथिक को
मुरलीधर हँस नज़र उतारें गह पुनीत नीरज सारस्वत
७-७-२०१५
***
गीत
रचना और रचयिता
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किस रचना में नहीं रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
७-७-२०१०
***
दोहा
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..

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