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मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा

लेख २ 
हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा
आचार्य (इं.) संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा क्या है?
                    भाषा का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा के विकास ने ही मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं पर वरीयता पाने में मदद की है। भाषा ज्ञान का भंडार है। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाष् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका कोशीय अर्थ है 'कहना' या 'प्रकट करना'। भाषा को मनुष्य के भावों, अनुभूतियों  या विचारों को प्रकट करने का साधनहै। मनुष्य अपने भावों या विचारों के आदान-प्रदान के लिए ज्ञानेन्द्रियों को भी माध्यम बनाता है। ऐसे सभी माध्यमों को भाषा के अंतर्गत समाहित नहीं किया जा सकता। बकौल आनंद बख्शी - 

''तुझको देखा है मेरी नज़रों ने, तेरी तरफ़ हो मगर हो कैसे?
की बने ये नज़र जुबान कैसे?, की बने ये जबान नज़र कैसे?
न जुबान को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है।''  

                    संस्कृत के वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि के अनुसार 
''न सोस्ति प्रत्ययोsलोके य: शब्दानुगमादृते 
अनुबिद्ध मिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते''
                    संसार में कोई ऐसा विषय नहीं है जी शब्द (भाषा) का आश्रय न लेता हो। समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ भाषित होता है।
 
                    आचार्य डंडी कहते हैं-     
इंदमंधन्तम: कृस्नं जायेत भुवनत्रयम्  
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते  
                    यदि संसार में शब्द (भाषा) रूपइ प्रकाश न होता तो सर्वत्र अंधकार छा जाता। 

                    पतंजलि के अनुसार- 'वर्णों में व्यक्त वाणी को भाषा कहते हैं।' हिंदी के प्रथम वैयाकरण कामता प्रसाद गुरु के शब्दों में- ''भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रगट कर सकता है और दूसरों के विचारों को समझ सकता है।'' आचार्य किशोरी दास बाजपेई के मत में- ''विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है।'' डॉ। बाबू राम सक्सेना के विचार में- ''जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचर विनिमय करता है उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।'' मेरी मान्यता है- ''अनुभूतियों और विचारों का ध्वनि, लिपि अथवा अन्य माध्यम से संप्रेषण भाषा है।'' हिंदी में आँखों/नज़रों की भाषा जैसी अभिव्यक्ति इसीलिए सार्थक है। कई जीव ध्वनि के स्थान पर सरक कर  अभिव्यक्ति का संप्रेषण करते हैं। सिंह आदि पशु मूत्र छोड़कर अपना प्रभाव क्षेत्र बताते हैं। मयूर नर्तन कर प्रणय संदेश देता है।   

जलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीव के उद्गम के साथ ही उसे अनुभूतियाँ होने लगीं। सर्व प्रथम जीव का जन्म जल में हुआ। जलचरों ने अपनी अनुभूतियों को अपने साथियों तक पहुँचने और साथियों की अनुभूतियों को ग्रहण करने के लिए जीव ने विविध चेष्टाएँ कीं। जलचर जीवों की भाषा कई प्रकार की होती है। जलचर आवाजों, शारीरिक हलचलों और रासायनिक संकेतों से अपने साथियों से संपर्क स्थापित करते हैं। समुद्री शेर भौंक, चहक, और गुर्राकर संवाद करते हैं। वे पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह से आवाजें निकालते हैं। मछलियाँ अपने पंखों और पूँछ को हिलाकर संवाद करती हैं। कुछ जलीय जीव रासायनिक संकेतों (फेरोमॉन्स ) का उपयोग करसंवाद करते हैं। डॉल्फ़िन को पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह आवाज कर संवाद करते सुना जा सकता है। मछलियाँ अन्य मछलियों को चेतावनी देने के लिए अपने पंखों को तेजी से हिलाती हैं। कुछ जलीय जीव रंग परिवर्तन, स्पर्श आदि संकेतों का उपयोग करके संवाद करते हैं। ऑक्टोपस आक्रामकता या भय प्रदर्शित करने के लिए अपने शरीर का रंग बदलता है।

थलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीवन के विकास का अगला चरण जलचरों का जलीय तट पर आगमन, क्रमश: ठहरने और अंतत: जल में गए बिना थल मात्र पर रहने के रूप में हुआ। इस अवधि में थलचरों के मध्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का आदान-प्रदान भाषा के रूप में विकसित होता रहा।जानवर समूह के अन्य सदस्यों को आस-पास के खतरों के बारे में चेतावनी देने, भावनाओं को साझा करने, साथी को आकर्षित करने और क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए कई अलग-अलग तरीकों से संवाद कते हैं। कुछ प्रसंगों में अलग-अलग प्रजातियों के बीच भी संवाद होता देखा गया है। जानवरों के मध्य संचार के चार मुख्य प्रकार श्रवणीय व अश्रवनीय ध्वनि उच्चारण, गंध, रंग तथा दृश्य प्रदर्शन हैं। गाय रंभाकर, श्वान भौंककर, गधा रेंककर, घोड़ा हिनहिनाकर अपने साथिओं से बात करते हैं। शेर, चीता आदि मूत्र से रेखा खींचकर अपने प्रभाव क्षेत्र (टेरिट्री) की सूचना देते हैं। बंदर हूप की ध्वनि कर शेर आदि हिंसक पशुओं से सतर्क करते हैं। सर्प फुँफकारकर, जीभ हिलाकर, शरीर हिलाकर, श्वास द्वारा आवाजकर और अन्य शारीरिक संकेतों से संवाद स्थापित करते हैं। 

नभचरों की भाषा
                    नभचर अपने पंख फड़फड़ाकर, चहचहाकर, नृत्य आदि कर अपनी अनुभूतियाँ साथियों तक संप्रेषित करते हैं। मयूर आदि के पंखों के रंग में परिवर्तन से उनके ऋतुकाल की जानकारी मिलती है। मधुमक्खी अपनी उत्कृष्ट रंग दृष्टि से अधिक पराग वाले फूलों को पहचान पाती है। ऐसे फूल मिलने पर वह विशिष्ट नृत्य द्वारा अपने साथियों को सूचित करती है। सवेरे जागते समय तथा साँझ को सोते समय पक्षी विशेष प्रकार से कलरव करते हैं। चूजे शाम के समय अपने माता-पिता के लौटने पर विशिष्ट ध्वनि कर चुग्गा माँगते हैं।

मानवीय भाषा 

                    आदि मानव पक्षी-पक्षियों आदि के साथ उन्हीं की तरह रहता था। मानवीय भाषा का विकास पशु-पक्षियों की भाषा को समझकर-अपनाकर ही हुआ। आरंभ में आदि मानव ने प्राकृतिक घटनाओं और पशु-पक्षियों की आवाजों की नकल उसे प्रकार की जैसे नन्हा शिशु बड़ों की आवाज को सुनकर करता है। इन आवाजों के द्वारा वह अपने समूह के अन्य सदस्यों को पशु-पक्षियों के उपस्थिति सूचित करता था। शब्द भंडार की कुछ वृद्धि होने पर पशु-पक्षियों के गुणों के उसने समान गुणधर्म के मानवों पर आरोपित किया। इस प्रकार मनुष्य ने  उपमा और रूपक का प्रयोग कर शेर (बहादुर), गाय (सीधापन), सियार ( चालाक), भेड़िया (धूर्त), बाज (ऊँची उड़ान भरनेवाला), बैल (मेहनती), गधा (मूर्ख), कोयल (मधुर स्वर), कमल (कोमल सुंदर), मत्स्य गंधा (मछली सी देह गंध), मृग नयनी (हिरनी सी आँखें), तोता (बिना समझे रटकर बोलना) आदि के माध्यम से अपनी भाषा को रुचिकर, बोधगम्य और सर्व ग्राह्य बनाया। यह तथ्य केवक हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा के बारे में सत्य है। अंतर केवल यह है कि हर भाषा के विकास में उस अञ्चल की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और मौसम की भूमिका रही है। हाथी के दाँत, अपने मुँह मियां मिट्ठू आदि मुहावरे भाषा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। 

                    जानवरों पर आधारित शब्दों ने अंग्रेजी भाषा को एक आकर्षक छवि प्रदान की है। ये शब्द और अभिव्यक्तियाँ, जिन्हें "ज़ूनीम्स" के रूप में जाना जाता है, जानवरों की विशेषताओं, व्यवहार और आवासों से प्रेरणा लेते हैं। वे हमारे दिमाग में ज्वलंत चित्र बनाने में मदद करते हैं, जिनका उपयोग अक्सर मानव व्यवहार, शारीरिक लक्षण या अमूर्त अवधारणाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो हमारे द्वारा प्रतिदिन उपयोग की जाने वाली भाषा में रंग और गहराई जोड़ते हैं। चूहे का छोटा आकार, लंबी पूँछ और तेज दिमाग कंप्यूटर के साथ जुड़े 'माउस' के नामकरण का आधार बना और अब यह 'माउस' विश्व की हर भाषा का अपना शब्द बन गया है। क्या हिंदी में भाषिक शुद्धता के पक्षधर इसे 'मूषक' कहना चाहेंगे? इसी तरह सारस पक्षी (क्रेन) की भार उठाने के लिए प्रयुक्त लंबी गर्दन लंबी गर्दन वाले यंत्र 'क्रेन' के नामकरण का आधार बना। बैल (बुल) का बिना सोचे-समझे भड़कने-भिड़नेवाला गुस्सैल स्वभाव 'बुल डोजर' के नामकरण का आधार बना। 

हिंदी भाषा और शिक्षण 

                    हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन  व मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ पालि, प्राकृत शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और संस्कृत हैं। हिंदी की उपभाषाएँ, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उनकी बोलियाँ, खड़ीबोली, ब्रज, बुंदेली, और अवधी आदि हैं। शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। अध्यापक ध्यान रखता है कि छात्र अधिक से अधिक समझ सके। हिंदी भाषा शिक्षण में कई शिक्षण विधियाँ प्रयुक्त होती हैं। इनमें कुछ शिक्षक-केंद्रित हैं जबकि कुछ छात्र-केंद्रित। शिक्षण विधियों में निगमन विधि, आगमन विधि, प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान विधि, कार्यविधि, और दृष्टान्त विधि प्रमुख हैं।  

१. निगमन विधि (Deductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले नियम या सिद्धांत बताता है, फिर उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करता है।
यथा-  छात्र को  व्याकरण का नियम बताकर उसके उदाहरण दिए जाएँ। यह विधि शिक्षक को जानकारी प्रस्तुत करने का अवसर देती है, लेकिन छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने में थोड़ी कम प्रभावी हो सकती है।

२. आगमन विधि (Inductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले उदाहरण देता है, फिर छात्र नियम या सिद्धांत तक पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए, पहले कुछ वाक्य दिए जाएँगे, फिर छात्रों से नियम बताने को कहा जाएगा। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और समझने में अधिक प्रभावी होती है।

३. प्रश्नोत्तर विधि (Question-Answer Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछता है और वे जवाब देते हैं। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और बातचीत को प्रोत्साहित करने का एक अच्छा तरीका है। उपनिषद 
 (उप=निकट, नि = अच्छी तरह से, सद् =  बैठना) काल में यह विधि भारतीय ऋषि गुरुकुलों में प्रयोग करते थे। ग्रीक चिंतक सुकरात भी इस विधि का प्रयोग करते थे, इसलिए इसे "सुकराती विधि" भी कहा जाता है।  इसमें शिक्षक छात्रों को उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

४. व्याख्यान विधि (Lecture Method): इस विधि में, शिक्षक एक लंबा व्याख्यान देता है, जिसमें वह जानकारी प्रदान करता है। यह विधि शिक्षक को बड़ी संख्या में छात्रों को जानकारी देने का एक अच्छा तरीका है, लेकिन छात्रों को निष्क्रिय बना सकती है।

५ . कार्यविधि (Work Method): इस विधि में, कार्यशाला में छात्रों को कुछ काम करने के लिए कहा जाता है। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और उनके रचनात्मक कौशल को विकसित करने का एक अच्छा तरीका है।

६. दृष्टान्त विधि (Demonstration Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों को कुछ करके दिखाता है। यह विधि छात्रों को अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, शिक्षक छात्रों को व्याकरण के नियमों को कैसे लागू करना है, यह करके दिखा सकता है।

                    हिंदी भाषा शिक्षण में, समग्र भाषा दृष्टिकोण (Whole Language Approach) और रचनात्मक दृष्टिकोण (Constructivist Approach) का भी उपयोग किया जाता है। समग्र भाषा दृष्टिकोण में छात्रों को भाषा के सभी पहलुओं को एक साथ सिखाया जाता है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना, और लिखना। रचनात्मक दृष्टिकोण में छात्रों को अपनी स्वयं की भाषा सीखने और समझने की अनुमति दी जाती है। भाषा शिक्षण में  श्रवण (सुनना), वाचन (पढ़ना), भाषण (बोलना), और लेखन (लिखना) जैसे कौशल का विकास महत्वपूर्ण है। भाषा शिक्षण के लिए सहायक सामग्री: जैसे कि शब्दकोश, चार्ट, और ऑडियो-वीडियो उपकरण का भी उपयोग किया जाता है।

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ 

                    हिंदी शिक्षण की प्रमुख चुनौतियाँ बच्चों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि का अभाव, अंग्रेजी के प्रति आकर्षण, राजनैतिक कारणों से हिंदी का विरोध, हिंदी व्याकरण और शब्द रूपों में एकरूपता का अभाव, भिन्न-भिन्न अंचलों में लिंग, वचन आदि के प्रयोग में भिन्नता, आंचलिक बोलिओं का प्रभाव, कुशल हिंदी शिक्षकों की कमी, शिक्षा संबंधी संसाधनों की कमी, तकनीकी विकास का अभाव, हिंदी की रोजगार प्रदाय क्षमता की जानकारी न होना। हिंदी में नवीनतम अद्यतन तकनीकी पुस्तकें न होना आदि हैं।    

हिंदी शिक्षण और राम कथा 

                    सरसरी दृष्टि से हिंदी शिक्षण और राम कथा में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखता किंतु भाषा शिक्षण के उद्देश्य और उसकी सहायक सामग्री पर गहन चिंतन करें तो पाएँगे कि नैतिक मानवीय मूल्यों की जानकारी छात्रों को देना, अनुशासन का पाठ पढ़ाना, छात्र को चरित्रवान बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। इसके अभाव में वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्रों में अनुशासन, देश प्रेम और कर्तव्य पालन की भावना भरने में असफल हो रही है। 

                    राम मर्यादा पुरुषोत्तम, महामानव और आदर्श व्यक्ति के रूप में मान्य हैं। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, दीनबंधु, पराक्रमी और सदाशयी हैं। राम कथा और राम लीला श्री राम के इन्हीं रूप को प्रस्तुत कर जनगण के मन में आदर्श भाव स्थापित करती है। हिंदी शिक्षण में यदि श्री राम के चरित्र को गद्य (लेख, निबंध, कहानी, नाटक आदि) या पद्य (कविता, प्रबंध काव्य, काव्य नाटक आदि) में पढ़ाया जाए, अभिनीत कराया जाए, संगोष्ठी की जाए, वाद-विवाद कराया जाए तो छात्र-छात्राओं में रामकथा के विविध पात्रों के जीवन मूल्यों को समझने उनका मूल्यांकन करने, उनकी विवेचना करने की रुचि उत्पन्न होगी।

                    राम कथा के भारतीय और वैश्विक जनमानस पर व्यापक प्रभाव है। अहिंदू जन भी राम कथा के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि राम कथा और राम लीला का व्यापक प्रचार-प्रसार होता रहे तो हिंदी शिक्षण की कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। राम कथा, उसके पात्र और घटनाओं में विभिन्नता चिंतन-मनन के नव आयाम स्थापित करती है। विविध देशों में और विविध प्रवचन कर्ताओं द्वारा की गई व्याख्याएँ ''एकम् सत्यम् विप्रा बहुधा वदंती'' अर्थात एक ही सत्य को विद्वज्जन कई तरह से कहते हैं की पुष्टि करती हैं। शिक्षा में भी यही स्थिति निर्मित होती है। इसीलिए  अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा- ''दो अर्थ शास्त्रियों के तीन मत होते हैं।'' 

                    शिक्षा का उद्देश्य केवल विषयगत ज्ञान नहीं होता। शिक्षा का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैश्विक तथा दीर्घकालिक प्रभाव भी होता है। राम कथा इन सभी बिंदुओं की कसौटी पर खरी उतरती है। राम राजकुमार होकर भी जन सामान्य के कष्ट हरते हैं, आम लोगों के बीच रहते हैं, ऊँच-नीच, छुआछूत नहीं मानते यह आचरण उन्हें सामाजिक समन्वय का अग्रदूत बनाता है। राम संपन्न होकर भी वन में विपन्नों की तरह रहते और केवट, निषाद, शबरी, जटायु आदि के साथ स्वजनों की तरह व्यवहार करते हैं। यह आचरण आर्थिक विषमता की खाई को पाटकर आर्थिक समरसता को जन्म देता है। राम स्वयं विष्णु और सूर्य उपासक होते हुए भी शिव को पूजते हैं। 'शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहु मोहीं भावा' कहकर धार्मिक एकता के बीज बोते हैं। वे अयोध्या मात्र के हित की चिंता न कर वानरों और राक्षसों के राज्यों में भी सत्य-और न्याय की स्थापना करते हैं। उनका यह उदार दृष्टिकोण उन्हें वैश्विक नायक बनाता है। शिक्षा पद्धति भी इन्हीं जीवन मूल्यों को रोपित करती है। इसलिए हिंदी शिक्षण में राम कथा की प्रासंगिकता हर स्तर पर असंदिग्ध है। 
***
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष- ९४२५१८३२४४. ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

सोमवार, 28 अप्रैल 2025

अप्रैल २८, पूर्णिका, शारदा, सॉनेट, गीत गोविंद, कोरोना, चोका, दोहा, नवगीत, मुक्तिका

सलिल सृजन अप्रैल २८
*
पूर्णिका 
वंदना 
शारद वंदन
अर्पित चंदन
भव बाधा हर
मेटो क्रंदन
हर पर्वत पर 
हो वन नंदन
मातु! सलिल का
कर दुख भंजन
शब्द ब्रह्म भज
हरषे जन जन
*
पूर्णिका
हुई भोर दिनकर की जय कह
काव्य सरित में खुश रहकर बह
कर न ईर्ष्या-द्वेष किसी से
सुधियों से नित शक्ति नवल गह
संबंधों की तुरप चदरिया
तुरप सरीखे ही उनको तह
जितनी चादर पाई तूने
उतनी में ही तू सीमित रह
अरमानों के आसमान में
भर उड़ान, मत नाकामी सह
निंदक को रख निकट बावले
झूठ प्रशंसा सुनकर मत ढह
मात वही तो दे पाता है
जो आगे बढ़ता है सह शह
जोड़ जरूरत से ज्यादा मत
छूटे सारा ठाठ समझ यह
जैसी करनी वैसी भरनी
'सलिल' दाह दे, फिर खुद भी दह
२८.४.२०२५
०००
सॉनेट
सुधि वातायन
सुधि वातायन से जब हेरूँ,
झलक तुम्हारी पड़े दिखाई,
पलक झपकते मति चकराई,
कहीं न दिखते ज्यों पग फेरूँ।
विरह विकल हो खोजूँ टेरूँ,
सुधि सलिला विहँसी लहराई,
कली मोगरा की मुस्काई,
सिकता पर प्रिय नाम उकेरूँ।
जहँ देखूँ तहँ तुम ही तुम हो,
नयन भीगते अधर लरजते,
वाक् छंद रच पुलकित होती।
कौन कह रहा है तुम गुम हो,
सुमिरन करने से तुम मिलते,
सुधि नव फसलें लुक-छिप बोती।
२८.४.२०२४
•••
विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
विमर्श : 'श्री'
*
'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। श्री = शोभा, लक्ष्मी और कांति।
श्रीयुत का मतलब प्राणयुक्त है। 'श्री' का शब्द का सबसे पहले उपयोग ऋग्वेद में हुआ है। जो 'श्री' युक्त है उसका निरंतर विकास होगा, वह समृद्ध और सुखी होगा। ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है।
मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
वर्तमान में सम्मानित या बड़े के नाम के पूर्व श्री लगाया जाता है। यह शिष्टाचार मात्र है।
स्वर्गीय यानी जो दिवंगत हो गए, जिनकी देह नहीं है, जिनका ईश्वर में लय हो गया हो उन्हें स्वर्गीय या स्मरणीय कह सकते हैं पर उनके नाम के आगे 'श्री' लगाया जाना अनुपयुक्त है। दिवंगत का न तो विकास संभव है न वह समृद्ध या सुखी हो सकता है। इसलिए दिवंगतों के नाम के पूर्व श्री या श्रीमती नहीं लगाना चाहिए।
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
***
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
२८-४-२०२०
***
छंद सलिला
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
***
पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
***
पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
-0-
***
मुक्तिका
चाँदनी फसल..'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
***
द्विपदी
*
शूल दें साथ सदा फिर भी बदनाम हुए
फूल दें साथ छोड़ फिर भी सुर्खरू क्यों हैं?
*
२८-४-२०१५
***
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
संजीव
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
***
नवगीत: मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, आभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल परस नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
नव गीत:
झुलस रहा गाँव..... ...
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
एक चैट चर्चा:
Sanjay bhaskar:
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA:
'जारी है अभी सिलसिला सरहदों पर.'
मैं:
'हद सर करती है हमें, हद को कैसे सर करें,
कोई यह बतलाये?' 'रमे रमा में सब मिले,
राम न चाहे कोई.
'सलिल' राम की चाह में
काम बिसर गयो मोई'.
Sanjay: 'ARE WAAAAHHHHH'
मैं:
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
***
कार्यशाला - काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.एक दोहा
*
जय हो सदा नरेन्द्र की, हो भयभीत सुरेन्द्र.
साधन बिन कर साधना, भू पर आ देवेंद्र
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
***
कुण्डलिनी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१०
***

रविवार, 27 अप्रैल 2025

लेख १ भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी भाषा एवं राम कथा

लेख १
भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी भाषा एवं राम कथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
                    
भारतीय ज्ञान परंपरा

                    भारतीय ज्ञान परंपरा का श्री गणेश लोक साहित्य से होता है। आदि मानव ने नर्मदा, कृष्णा, कावेरी आदि नादियाओं की घाटियों में घूमते हुए प्रकृति में व्याप्त ध्वनियों जल प्रवाह की कलकल, मेघों की गर्जन, उल्कापात की तड़कन, सिंह की दहाड़, सर्प की फुँफकार आदि के प्रभावों का अध्ययन कर उनकी आवृत्ति की ताकि अपने साथियों को सूचित कर सके। पर्यावरण, मौसम और भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन कर मूल निवासियों ने प्रकाश कर्ता सूर्य, शीतलता दाता चंद्रमा, अन्न दात्री पृथ्वी, जल दात्री नदियों, आश्रय दाता पर्वतों, फूल-फल दाता वृक्षों आदि को पूज्य माना। आदिवासियों ने उपकारकर्ता वृक्षों, पशुओं, पक्षियों आदि को अपना कुल देवता माना तथा उन्हें क्षति न पहुँचने, उनकी रक्षा करने का संकल्प लेकर अपनी संततियों के लिए भी उसे अनिवार्य बना दिया। कालांतर में सूर्यवंशीय, चंद्र वंशीय, नाग वंशीय आदि सभ्यताएँ तथा राजकुल इसी विरासत से विकसित हुए। हर सभ्यता तथा कुल के मूल में लोक कथाएँ, लोक गीत आदि हैं जो अब पर्व कथाओं के ररोप में कही-सुनी जाती हैं। इन कथाओं के केंद्र में मानवीय मूल्य, धार्मिक विश्वास, सद्गुण तथा सद्भाव आदि रहते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा का यह प्रथम चरण वाचिक अथवा मौखिक था। जब मनुष्य ने अंगुलियों से रेत पर कुछ उकेरना सीखा, पेड़ों की टहनियों को उसके रस में डुबाकर शिलाओं पर चित्र बनाना सीखा तब उसके समानांतर ध्वनियों को विशिष्ट संकेतों से व्यक्त करने की क्षमता पा लेने पर अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का सृजन किया। अगला चरण भाषा और लिपि संबंधी व्याकरण और पिंगल की रचना था। आदि मानव के गुफा मानव, वन्य मानव, ग्राम्य मानव और नागर मानव के रूप में परिवर्तित होने के साथ-साथ भाषा भी बदलती गई। बुंदेलखंड में कहावत है "कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी।" भाषा में बदलाव के साथ ज्ञान का विकास होता गया। ज्ञान का व्यवस्थित अध्ययन 'विज्ञान' हो गया। 

                    लगभग ४ अरब वर्ष पूर्व दक्षिण ध्रुव पर एकत्रित भूखंड के टूटने पर पाँच महाद्वीपों तथा अनेकों लघु द्वीपों का निर्माण हुआ।  हिंद  महासागर में स्थित गोंडवाना लैंडस के साथ टैथीस महासागर महासागर के समाप्त होने से उभरे भूखंड मिलने पर वर्तमान भारत भूखंड का निर्माण हुआ। इस भारत की ज्ञान परंपरा लाखों वर्ष पूर्व वाचिक लोक साहित्य के रूप में आरंभ हुई। टैथीस महासागर के उत्तर में ईरान, अफगानिस्तान आदि में आर्य सभ्यता तथा दक्षिण में नाग सभ्यता, द्रविड़ सभ्यता  आपस में टकराईं और अंतत: मिश्रित हो गईं। वेद, उपनिषद, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, आगम ग्रंथ, निगम ग्रंथ आदि के रूप में  जीवन निर्वहन हेतु हर क्षेत्र (आखेट, कृषि, प्राकृतिक चिकित्सा, खगोल विज्ञान, शिल्प, कौशल, जलवायु, ज्योतिष, वास्तु, नाट्य, पिंगल, विविध कलाएँ, आयुर्वेद और स्थानीय पारंपरिक प्रौद्योगिकी आदि) से संबंधित व्यावहारिक ज्ञान कहानियों, किदवंतियों, लोक कथाओं, कहावतों, लोकोक्तियों,पर्व गीतों, पौराणिक कथाओं, दृश्य कला और वास्तु कला के रूप में संकलित किया जाता रहा। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत संग्रहीत साहित्य की विरासत समृद्ध, दीर्घकालिक, लौकिक-पारलौकिक का मिश्रण, प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल, मानवता हेतु हितकर तथा वैश्विक कल्याण चेतना  से संपन्न है। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशील आदि विद्यापीठ तथा परशुराम, विश्वामित्र, संदीपनी जैसे ऋषियों के आश्रम शिक्षा व शोध के प्रधान केंद्र थे। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति, सुख-ऐश्वर्य तथा आत्म कल्याण था। आधुनिक युग में पराधीनता के दौर में भारतीय ज्ञान परंपरा को भीषण आघात पहुँचा। मुग़ल आक्रान्ताओं ने शिक्षा केंद्र नष्ट कर ग्रंथागारों में आग लगाकर ग्रंथों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने पारंपरिक ज्ञान परंपरा के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की स्थापना की। फलत: आधुनिक शिक्षा आंग्ल ज्ञान परंपरा पोषित है।

हिंदी भाषा

                    गोंडवाना में आदिवासी भाषाएँ (गोंड़ी, भीली, कोरकू, हलबी आदि) प्रचलित थीं। लिपि का विकास न होने के कारण आदिवासी भाषाएँ सिमटती गईं। द्रविड़ भाषाओं तमिल (उद्भव ५००० वर्ष पूर्व), डोगरी (१५०० ई.पू.), उड़िया (१० वी सदी ईसा पूर्व), तेलुगु (६ वी सदी ईसा पूर्व), पाली तथा ब्राह्मी (३ री सदी ई.पू.), कन्नड़ (२५०० वर्ष पूर्व, लिपि १९०० वर्ष पूर्व), मलयालम (९ वी सदी के आस-पास विकसित तमिल की बोली), बांग्ला (१००० ई.) आदि विकसित हुईं। आर्यों के आगमन के साथ संस्कृत का प्रवेश हुआ। संस्कृत (उद्भव २५०० ई.पू., ३ रूप वैदिक, शास्त्रीय, आधुनिक) की क्लिष्टता के कारण जन सामान्य में मध्य इंडो-आर्यन भाषा प्राकृत (५ वीं शताब्दी ईसा पूर्व से १२ वीं शताब्दी ईस्वी) तक प्रचलित रहा। अर्ध मागधी, शौरसेनी तथा महाराष्ट्री का विकास प्राकृत से हुआ। प्राकृत का अंतिम रूप अपभ्रंश ५०० ई. से १००० ई. में प्रचलित रही। असमिया (६ वी सदी), पञ्जाबी (७ वी सदी),राजस्थानी (९ वी सदी), गुजराती तथा उर्दू (१२ वी सदी) के विकास ने भारत की भाषिक समृद्धता में चार चाँद लगाए। हिंदी (उद्भव ७६९ ई.) के विकास में अपभ्रंश के अंतिम रूप अवहट्ट,  संस्कृत, शौरसेनी, बृज, बुंदेली आदि  कई पूर्ववर्ती भाषाओं का योगदान रहा है। आदिकाल (१०००ई.-१५०० ई.) में हिंदी अपभ्रंश के निकट रही। इस समय दोहा, चौपाई, छप्पय, दोहा, गाथा आदि छंदों की रचनाएँ होना शुरू हो गई थी। आदिकाल के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नालह, चंद्र वरदाई और कबीर हैं। इनकी भाषा को सधुक्कड़ी  कहा गया। मध्यकाल (१५०० ई.-१८००ई.) में हिंदी ने अनुमानत: ३५०० फारसी शब्द, २५०० अरबी शब्द, ५० पश्तों शब्द, १२५ तुर्की शब्द, अनेक पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी,अंग्रेजी अन्य भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को आत्मसात कार खुद को समृद्ध और समर्थ बनाया। इस अवधि में हिंदी पर अपभ्रंश का प्रभाव क्रमश: खत्म होता गया। १८०० ई. से अब तक के आधुनिक काल में हिंदी की दो शैलियाँ विकसित हुईं। एक उदारतावादी जिसमें हिंदी के विकास में सहायक रही भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को अपनाने को प्राथमिकता दी गई दूसरी शुद्धतावादी जिसमें संस्कृत के शब्दों को जैसे का तैसा (तत्सम) अपनाने पर बल दिया गया। 

                    आधुनिक काल में यह विवाद निरर्थक है। आज हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भावी पीढ़ी के लिए अपनी उपादेयता बनाए रखना है। यह तभी संभव है जब हिंदी रोजगार और आजीविका प्राप्ति में सहायक हो सके। इस दिशा में मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय कार्य अभियांत्रिकी (इंजीनियारीग), आयुर्विज्ञान (मईदुकल), औषधि विज्ञान (फार्मेसी), पशु चिकित्सा (वेटेरिनरी) आदि के पाठ्यक्रमों तथा परीक्षा में हिंदी का उपयोग कार किया गया है। अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों को यह कदम तत्काल उठाना चाहिए। उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करते समय उनकी भाषा सहज-सरल तथा बोधगम्य रखने पर ध्यान देना होगा। अब तक का अनुभव यह है कि कानून, अभियंत्रिकी तथा चिकित्सा क्षेत्रों में तैयार की गई पुस्तकों की भाषा शुद्धता बनाए रखने के प्रयास में बनावटी, कठिन और अग्राह्य हो गई है। फलत: शिक्षक और विद्यार्थी अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। यह परिदृश्य बदलने के लिए  सहज-सरल हिंदी में पुस्तकें तैयार करनी होंगी जिनमें वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य तकनीकी-पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग यथावत हो। आवश्यक होने पर नए शब्द भारतीय भाषाओं-बोलिओं से ग्रहण किए जाएँ और नए शब्द बनाते समय उनकी अर्थवत्ता तथा लोक स्वीकृति को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। 

                    वर्तमान समय में ज्ञान-विज्ञान का विकास अत्यधिक तीव्र गति से अगणित विषयों और आयामों में हो रहा है। हिंदी को समय के साथ परिवर्तित तथा विकसित होते हुए खुद को विश्ववाणी बनाने और चिरजीवी होने के लिए खुद को भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी बनाए रखने की चुनौती का सामना करना है। यह तबही संभव है जब हिंदी हर विषय और हर विधा के अद्यतन ज्ञान को ग्रहण और अभिव्यक्त कर सके। इसके लिए हिंदी को विश्व की सभी भाषाओं के सम्यक शब्दों को ग्रहण करते रहना होगा। इसके समानांतर हिंदी को देशज बोलिओं के विशाल शब्द भंडार और अन्य भारतीय भाषाओं के विराट शब्द कोश से शब्द ग्रहण करने होंगे। ऐसा होने पर अन्य भाषा-भाषियों का हिंदी से लगाव बढ़ेगा। विषयगत पारिभाषिक शब्द ग्रहण करने से हिंदी की स्वीकार्यता विश्व में बढ़ेगी। आधुनिक काल में विश्व के विविध देश मिलकर महत्वपूर्ण वैज्ञानिक परियोजनाओं पर कार्य करते हैं। उनके मध्य वर्तमान में अंग्रेजी भाषा ही संपर्क भाषा का कार्य कर रही है। इस भूमिका में अपनी स्वीकार्यता के लिए हिंदी को शब्द-ग्रहण प्रक्रिया अधिकतम तेज करनी होगी, अन्यथा वह पिछड़ जाएगी। सार्ट:, यह याद रखा जाना चाहिए कि कोई भाषा तब ही तब ही जिंदा रहती है जब वह जन सामान्य द्वारा प्रयोग की जाती है।   
 
राम कथा   
  
                    भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी के परिप्रेक्ष्य में राम कथा की प्रासंगिकता सर्वाधिक इसलिए है कि राम भारत के लोक मानस में सामान्य जन, महा मानव तथा सर्व शक्तिमान शक्ति की त्रिमूर्ति को एकाकारित कर सके हैं। तुलसी दास जी ने 'नाना भाँति राम अवतारा, रामायण सत कोटि अपारा' कहकर इसी सत्य की स्थापना की है। मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देनेवाला रामके समान दूसरा कोई चरित्र विश्व साहित्य में नहीं है। आदि कवि वाल्मीकि ने उनके संबंध में कहा है- 'समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्यण हिमवानिव' अर्थात वे गाम्भीर्य में समुद्र के समान तथा धैर्य में पर्वत के समान हैं। राम के जीवन में कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होती। जब जैसा कार्य करना चाहिए राम ने तब वैसा ही किया। राम रीति, नीति, प्रीति तथा भीति सभी जानते-मानते और यथावसर प्रयोग करते हैं। राम परिपूर्ण हैं, आदर्श हैं। राम ने नियम, त्याग का एक आदर्श स्थापित किया है।

                    किसी ज्ञान परंपरा का उद्देश्य सत्य की प्राप्ति, जन-हित, अज्ञान का विनाश, सर्व कल्याण तथा सुखद व चिरस्थायी भविष्य की प्राप्ति ही होता है। शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का उपकरण है। शिक्षा प्राप्ति के लिए समर्पण, लगन, अनुशासन, नियमितता, जिज्ञासा, स्वाध्याय, अभ्यास तथा विनयशीलता आवश्यक है। राम कथा के नायक हीनहीं अन्य पत्रों में भी ये सभी अनुकरणीय प्रवृत्तियाँ सर्वत्र उपस्थित हैं। इसलिए राम कथा हर विषय, देश और काल की ज्ञान परंपरा के लिए समर्थ-सशक्त और प्रभावी माध्यम है। मानव जीवन के हर आयाम, हर क्षेत्र तथा हर उपक्रम में राम और राम कथा की प्रासंगिकता, उपादेयता और प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यही कारण है की राम कथा भारत के बाहर भी प्रचलित थी, है और रहेगी। विश्व में राम कथा का प्रचार-प्रसार बिना किसी राजकीय-आर्थिक-राजनैतिक संसाधनों के स्वयमेव ही होता रहा है। अन्य किसी चरित्र और कथा को ऐसा सौभाग्य नहीं मिला। इस रूप में राम कथा 'लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है। कोई ज्ञान परंपरा इस निकष पर खरी उतर सके तो वह कालजयी ही नहीं, भव-बाधा नाशक और कष्टों से मुक्तिदाता भी हो जाएगी।

                    हिंदी भाषा राम कथा की ही तरह सर्व ग्राह्य है। क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के कारण दक्षिण भारत में हो रहे हिंदी विरोध से अप्रभावित रहकर हिंदी को विश्व वाणी के रूप में खुद को विकसित करते रहना है। यह तबही होगा जब हिंदी अन्य भाषाओं और उनके शब्दों को उसी तरह निस्संकोच स्वीकार करे जैसे राम अपने संबंधियों, प्रजा जनों, वन वासियों आधी को निस्संकोच स्वीकारते हैं। राम कथा ककी लोक स्वीकृति वाल्मीकि रामायण से कम तुलसी कृत राम चरित मानस से अधिक होने का कारण यही है की मानस लोक मान्य, लोक स्वीकृत सहज-सरल उदार मूल्यों को आतमर्पित ही नहीं स्थापित भी करती है। हिंदी को भी अपने आप को इसी तरह विकसित करना होगा की वह वर्ग विशेषम विद्वानों का समर्थों की भाषा न बनकर जन सामान्य और सकल विश्व की भाषा हो सके। हिंदी को राम कथा की ही टर्न भारतीय ज्ञान परंपरा के अतीत में जड़ें जमाकर, वर्तमान में अंकुरित-पल्लवित होते हुए भविष्य में पुष्पित-फलित होने के लिए रामकथा की तरह सर्व व्यापी होते रहना होगा।
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ,ई मेल : salil.sanjiv@gmail.com   

अप्रैल २७, चित्रगुप्त, मोर्स, गोपी छंद, सॉनेट, नेपाल, भूकंप, हाइकु, दोहा, नवगीत

सलिल सृजन अप्रैल २७
मोर्स कोड दिवस
*
विनय
.
भोर भई टेरत गौरइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हवा सुहानी सुंदर बगिया 
हेर रई पथ कोमल कलिया
शारद! आशिष लुटा-लुटा खें
खाली कर दे आशिष डलिया
तार सितार टुनटुना तनकऊ
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
रानी बिटिया! नाज़ुक सुंदर
सपर करौं सिंगार मनोहर
पटियाँ पार गूँथ दौं बेनी
जवाकुसुम लै धार कंठ पर
चंपा पायल सोहे पइंया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हरसिँगार करधनी न बिसरा
महुआ कंगन निखरा निखरा
खोंस गुलाब कली बालन मां
सँग सोहे बेला का गजरा
तो सौं वरदा कौनउ नइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
२७.४.२०२५
.
विमर्श :
चित्रगुप्त माहात्मय
*
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, यही विधि का विधान है। चित्रगुप्त जी की जयंती मनाने का रथ है कि उनका जन्म हुआ, तब मृत्यु होना भी अटल है। क्या चित्रगुप्त जी की पुण्य तिथि किसी को ज्ञात है?
चित्रगुप्त जी परात्पर परब्रह्म हैं जो निराकार है। आकार नाहें है तो चित्र नहीं हो सकता, इसलिए चित्र गुप्त है। चित्रगुप्त जी और कायस्थों का उल्लेख ऋग्वेद आदि में है। सदियों तक कायस्थ राजवंशों ने शासन किया, कायस्थ महामंत्री रहे, महान सेनापति रहे, विखयात वैद्य रहे, महान विद्वान रहे, धनपति भी रहे पर चित्रगुप्त जी को केंद्र में रख मंदिर, मूर्ति, चालीसा, आदि नहीं बनाए। वे अशक्त नहीं थे, सत्य जानते थे। कायस्थ निराकार ब्रह्म के उपासक हैं, जबसे कायस्थों ने दूसरों की नकल कार साकार मूर्तिपूजा आरंभ की वे अशक्त होते गए।
पुराण कहता है- ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां'' चित्रगुप्त सब देवताओं में सबसे पहले प्रणाम करने के योग्य हैं क्योंकि वे सभी देहधारियों में आत्मा के रूप में स्थित हैं।
क्या आत्मा का आकार या चित्र है? आत्मा परमात्मा का अंश है। इसलिए सृष्टि में हर देहधारी की काया में आत्मा स्थित होने के कारण वह कायस्थ है। इसी कारण कायस्थ किसी एक धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय या देवता तक सीमित कभी नहेने रहे। वे देश-काल-परिस्थिति की आवश्यकतानुसार जनगण का नेत्रत्व कार अग्रगण्य रहे।
वर्तमान में यदि पुन: नेतृत्व पाना है तो अपनी जड़ों को, विरासत को पहचान-समेटकर बढ़ना होगा।
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इतिहास - फ्रंटियर मेल
बल्लार्ड पियर मोल स्टेशन (बॉम्बे) से प्रस्थान करने वाली बॉम्बे पेशावर फ्रंटियर मेल। आप शेड पर स्टेशन का नाम देख सकते हैं।
यह ट्रेन इंग्लैंड से आने वाले अधिकारियों और सैनिकों को दिल्ली, लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर की विभिन्न छावनियों में ले जाती थी।
विक्टोरिया टर्मिनस और चर्चगेट रेलवे स्टेशनों के निर्माण के बाद, बलार्ड पियर टर्मिनस को छोड़ दिया गया था। इसके बाद फ्रंटियर मेल को चर्चगेट (अब मुंबई सेंट्रल पर समाप्त) पर समाप्त किया जाता था।
सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन होने के नाते, इसके आगमन पर, चर्चगेट स्टेशन को उज्ज्वल रूप से रोशन किया जाता था और इसकी त्रुटिहीन समयबद्धता के कारण लोग अपनी घड़ियाँ सेट करते थे!
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अभिनव प्रयोग
गोपी छंदीय सॉनेट
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घोर कलिकाल कठिन जीना।
हाय! भू पर संकट भारी।
घूँट खूं के पड़ते पीना।।
समर छेड़े अत्याचारी।।
सबल नित करता मनमानी।
पटकता बम नाहक दिन-रात।
निबल के आँसू भी पानी।।
दिख रही सच की होती मात।।
स्वार्थ सब अपना साध रहे।
सियासत केर-बेर का संग।
सत्य का कर परित्याग रहे।।
रंग जीवन के हैं बदरंग।।
धरा का छलनी है सीना।
घोर कलिकाल कठिन जीना।
२७-४-२०२२
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मुक्तिका
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जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
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रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
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जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
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हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
२७-४-२०२१
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ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?
कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश
जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास
नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
२७.४.२०२०
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गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
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मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
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मुक्तिका
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
२७-४-२०१९
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नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कभी नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति के अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
***
हाइकु सलिला:
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
***
कल और आज :
कल का दोहा
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर
.
आज का दोहा
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता लघु हो हीन
'सलिल' लघुत्तम चाहता, दैव महत्तम छीन
एक षट्पदी:
.
प्रेमपत्र लिखता गगन, जब-तब भू के नाम
आप न आता क्रुद्ध भू, काँपे- सके न थाम
काँपे- सके न थाम, कहर से गिरते हैं घर
नाश देखकर रोता गगन न चुप होता फिर
आँधी-पानी से से बढ़ती है दर्द के अगन
आता तब भूकम्प जब प्रेमपत्र लिखता गगन
***
दोहा सलिला:
.
रूठे थे केदार अब, रूठे पशुपतिनाथ
वसुधा को चूनर हरी, उढ़ा नवाओ माथ
.
कामाख्या मंदिर गिरा, है प्रकृति का कोप
शांत करें अनगिन तरु, हम मिलकर दें रोप
.
भूगर्भीय असंतुलन, करता सदा विनाश
हट संवेदी क्षेत्र से, काटें यम का पाश
.
तोड़ पुरानी इमारतें, जर्जर भवन अनेक
करे नये निर्माण दृढ़, जाग्रत रखें विवेक
.
गिरि-घाटी में सघन वन, जीवन रक्षक जान
नगर बसायें हम विपुल, जिनमें हों मैदान
.
नष्ट न हों भूकम्प में, अपने नव निर्माण
सीखें वह तकनीक सब, भवन रहें संप्राण
.
किस शक्ति के कहाँ पर, आ सकते भूडोल
ज्ञात, न फिर भी सजग हम, रहे किताबें खोल
.
भार वहन क्षमता कहाँ-कितनी लें हम जाँच
तदनसार निर्माण कर, प्रकृति पुस्तिका बाँच
***
नवगीत:
.
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
भूगर्भी चट्टानें सरकेँ,
कांपे धरती.
ऊर्जा निकले, पड़ें दरारें
उखड़े पपड़ी
हिलें इमारत, छोड़ दीवारें
ईंटें गिरतीं
कोने फटते, हिल मीनारें
भू से मिलतीं
आफत बिना बुलाये आये
आँख दिखाये
सावधान हो हर उपाय कर
जान बचायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
द्वार, पलंग तले छिप जाएँ
शीश बचायें
तकिया से सर ढाँकें
घर से बाहर जाएँ
दीवारों से दूर रहें
मैदां अपनाएँ
वाहन में हों तुरत रोक
बाहर हो जाएँ
बिजली बंद करें, मत कोई
यंत्र चलायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
बाद बड़े झटकों के कुछ
छोटे आते हैं
दिवस पाँच से सात
धरा को थर्राते हैं
कम क्षतिग्रस्त भाग जो उनकी
करें मरम्मत
जर्जर हिस्सों को तोड़ें यह
अतिआवश्यक
जो त्रुटिपूर्ण भवन उनको
फिर गिरा बनायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
है अभिशाप इसे वरदान
बना सकते हैं
हटा पुरा निर्माण, नव नगर
गढ़ सकते हैं.
जलस्तर ऊपर उठता है
खनिज निकलते
भू संरचना नवल देख
अरमान मचलते
आँसू पीकर मुस्कानों की
फसल उगायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
२७-४-२०१५
***
छंद सलिला:
कुंडली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
लक्षण छंद:
छंद रचें इक्कीस / कला ले कुडंली
दो गुरु से चरणान्त / छंद रचना भली
रखें ग्यारह-दस पर, यति- न चूकें आप
भाव बिम्ब कथ्य रस, लय रहे नित व्याप
उदाहरण:
१. राजनीति कोठरी, काजल की कारी
हर युग हर काल में, आफत की मारी
कहती परमार्थ पर, साधे सदा स्वार्थ
घरवाली से अधिक, लगती है प्यारी
२. बोल-बोल थक गये, बातें बेमानी
कोई सुनता नहीं, जनता है स्यानी
नेता और जनता , नहले पर दहला
बदले तेवर दिखा, देती दिल दहला
३. कली-कली चूमता, भँवरा हरजाई
गली-गली घूमता, झूठा सौदाई
बिसराये वायदे, साध-साध कायदे
तोड़े सब कायदे, घर मिला ना घाट
२७-४-२०१४
***
तेवरी :
हुए प्यास से सब बेहाल
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
मौन न सुन पाए जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
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मुक्तिका
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ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२७-४-२०१०
*