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बुधवार, 18 दिसंबर 2024

दिसंबर १८, नवगीत, पेशावर, लघुकथा, सरायकी हाइकु, सरस्वती, बृज, सॉनेट, चित्रगुप्त, अमलतास

सलिल सृजन दिसंबर १८
*
दोहे अमलतास के 
चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य। 
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य।। 
कनकाभित सौंदर्यमय, अमलतास शुभ भव्य। 
कली-पुष्प पीताभ लख, करिए कविता नव्य।। 
*
रोग अनेक औषधि एक : अमलतास
अमलतास का पेड़ प्रायः सड़कों के किनारे या बाग-बगीचे में दिखते हैं। पहाड़ियों पर इसके पीले-सुनहरे मालाकार मनमोहक फूल सौंदर्य वृद्ध करते हैं। इन फूलों को गृह-सज्जा हेतु भी प्रयोग किया जाता है। अमलतास एक औषधी भी है। मार्च-अप्रैल में वृक्षों की पत्तियां झड़ने के बाद नई पत्तियाँ और पीले फूलों के बाद लम्बी गोल और नुकीली फली लगती है जो वर्ष भर लटकी रहती है।

सेजैलपिनिएसी (Caesalpiniaceae) कुल के अमलतास का वानस्पतिक नाम कैसिया फिस्टुला (Cassia fistula L., Syn-Cassia rhombifolia Roxb., Cassia excelsa Kunth.) है, इसे हिंदी में अमलतास, सोनहाली, सियरलाठी, अंग्रेजी में कैसिया (Cassia), गोल्डन शॉवर (Golden shower), इण्डियन लेबरनम (Indian laburnum), परजिंग स्टिक (Purging stick), पॅरजिंग कैसिया (Purging cassia), संस्कृत मेंआरग्वध, राजवृक्ष, शम्पाक, चतुरङ्गुल, आरेवत, व्याधिघात, कृतमाल, सुवर्णक, कर्णिकार, परिव्याध, द्रुमोत्पल, दीर्घफल, स्वर्णाङ्ग, स्वर्णफल, ओड़िया में सुनारी, असमी में सोनारू, कन्नड में कक्केमरा, गुजराती में, गर्मालो, तमिल में कोन्डरो (Kondro), कावानी (Kavani), सरकोन्नै (Sarakonnai), कोरैकाय (Karaikaya), तेलुगु मेंआरग्वधामु (Aragvadhamu), सम्पकमु (Sampakamu), बांग्ला में सोनाली (Sonali), सोनूलु (Sonulu), बन्दरलाठी (Bandarlati), अमुलतास (Amultas), पंजाबी में अमलतास (Amaltas), करङ्गल (Karangal), कनियार (Kaniar), मराठी में बाहवा (Bahawa), मलयालम में कणिकोन्ना (Kanikkonna), अरेबिक में खियार-शन्बर (Khiyar-shanbar), फारसी में ख्यार-शन्बर (Khyar-shanbar) कहा जाता है।

अमलतास के फायदे और उपयोग 

बुखार- अमलतास फल फली का गूदा (मज्जा), पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा बराबर मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर पिएँ। 

फुंसी और छाले- अमलतास के पत्ते  गाय के दूध के साथ पीसकर लेप करने से नवजात शिशु की फुंसी या छाले दूर हो जाते हैं।
नाक की फुंसी- अमलतास ट्री के पत्तों और छाल को पीसकर नाक की फुन्सियों पर लगाएँ। इससे फुन्सियां ठीक हो जाती हैं। 

मुँह के छाले- अमलतास के फल का मज्जा धनिया के साथ पीसकर थोड़ा कत्था मिलाकर अथवा अमलतास का गूदा चूसें।  

घाव सुखाना- अमलतास, चमेली तथा करंज के पत्तों को गाय के मूत्र से पीसकर घाव पर लेप करें, पुराना से पुराना घाव ठीक हो जाता है।
अमलतास के पत्तों को दूध में पीसकर घाव पर लगाएँ, तुरंत फायदा होता है।
शरीर की जलन- अमलतास की १०-१५ ग्राम जड़ या छाल दूध में उबाल-पीसकर लेप करने से शरीर की जलन ठीक हो जाती है।
कंठ रोग- अमलतास की जड़ चावल के पानी के साथ पीसकर सुंघाने और लेप करने से कंठ के रोगों में लाभ होता है।
टॉन्सिल- टान्सिल बढ़ने पर अमलतास का पानी पीने में आराम मिलता है। टान्सिल के दर्द में १० ग्राम अमलतास जड़ या छाल थोड़े जल में पकाकर बूँद-बूँद मुँह में डालते रहने से आराम होता है।
खाँसी- अमलतास की ५-१० ग्राम गिरी पानी में घोटेंकरउसमें तीन गुना चीनी का बूरा डाल लें। इसे गाढ़ी चाशनी बनाकर चटाने से सूखी खांसी ठीक होती है।
अमलतास फल मज्जा को पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा के साथ बराबर भाग में मिलाकर पिएँ, कफ कम होता है।
अमलतास फल गूदा के काढ़ा में 
५-१० ग्राम इमली का गूदा मिलाकर सुबह-शाम पिएँ। यदि रोगी में कफ की अधिकता हो तो इसमें थोड़ा निशोथ का चूर्ण मिलाकर पिलाने से विशेष लाभ होता है।

दमा (श्वसनतंत्र विकार)- अमलतास के  गूदे का काढ़ा पिलाने से सांसों की बीमारी में लाभ होता है।
आँत-रोग- )चार वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक के बच्चे के शरीर में जलन हो रही हो, या वह आँतों की बीमारी से परेशान है तो उसे अमलतास फल की मज्जा २-४ नग मुनक्का के साथ दें। अमलतास के फूलों का गुलकंद बनाकर सेवन करने से भी आँत के विकारों में लाभ होता है।
पेट-रोग-  अमलतास के २-३ पत्तों में नमक और मिर्च मिला लें। इसे खाने से पेट साफ होता है। अमलतास फल का लगभग १० ग्राम गूदा रात में ५०० मि.ली. पानी में भिगो दें। इसे सुबह मसलकर छानकर पीने से पेट साफ हो जाता है। अमलतास फल की मज्जा पीसकर नाभि के चारों ओर लेप करें। इससे पेट के दर्द से आराम मिलता है।
पाचनतंत्र विकार-  अमलतास फल मज्जा, पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा को बराबर मात्रा में लें। इसका काढ़ा बनाकर पिएँ। इससे पाचनतंत्र संबंधी विकार ठीक होते हैं, भूख बढ़ती है।
कब्ज- अमलतास के फूलों का गुलकंद बनाकर सेवन कराने से कब्ज में लाभ होता है। १५-२० ग्राम अमलतास फल का गूदा मुनक्का के रस के साथ सेवन करने से कब्ज ठीक हो जाता है।अमलतास के कच्चे फलों के चूर्ण में चौथाई भाग सेंधा नमक तथा नींबू का रस मिलाकर सेवन करने से कब्ज में फायदा होता है।
बवासीर- अमलतास, चमेली तथा करंज के पत्तों को गाय के मूत्र के साथ पीसकर बवासीर के मस्से पर लेप करें। 

पीलिया- अमलतास के फल का गूदा, गन्ना/भूमि कूष्मांड या आँवले का रस दिन में दो बार देने से पीलिया रोग में लाभ होता है।
डायबिटीज- १० ग्राम अमलतास के पत्तों को ४०० मिली पानी में पकाएँ, काढ़ा एक चौथाई रह जाए तो इसका सेवन करें। 

हाइड्रोसील (अण्डकोष वृद्धि)- १५ ग्राम अमलतास फल का गूदा,  १००  मिली पानी में उबालें। जब पानी २५ मिली शेष रह जाए तो उसमें गाय का घी मिलाकर पिएँ। इससे अण्डकोष (हाइड्रोसील) के बढ़ने की परेशानी में लाभ होता है।
गठिया/जोड़ दर्द- अमलतास की १०  ग्राम अमलतास की जड़ २५० मि.ली. दूध में उबालें। इसे देने से गठिया में लाभ होता है। अमलतास के १०-१५ पत्तों को गर्म करके उनकी पट्टी बाँधने से गठिया में फायदा होता है। सरसों के तेल में पकाए हुए अमलतास के पत्तों को शाम के भोजन में सेवन करें। इससे आम का पाचन होता है और आमवात में लाभ होता है। जोड़ों के दर्द में अमलतास फल के गूदा और पत्तों का लेप करें। इससे आराम मिलता है।
चेहरे का लकवा- अमलतास के १०-१५ पत्तों को गर्म करके उनकी पट्टी बाँधने से चेहरे के लकवा रोग में लाभ होता है। अमलतास के पत्ते के रस पिलाने से भी चेहरे के लकवे की बीमारी ठीक हो जाती है।
कुष्ठ रोग- अमलतास के पत्ते/जड़ को पीसकर लेप करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है। इससे दाद या खुजली जैसे चर्म रोगों में भी लाभ होता है।
अमलतास की पत्तियों तथा कुटज की छाल का काढ़ा बना लें। इसे स्नान, सेवन, लेप आदि करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है।
त्वचा रोग- अमलतास, मकोय तथा कनेर के पत्तों को छाछ से पीस लें। इसके बाद शरीर पर सरसों के तेल से मालिश करें, फिर लेप को प्रभावित अंगों पर लेप करें। कांजी से पत्तों को पीसकर लेप करने से भी त्वचा रोग जैसे कुष्ठ रोग, दाद, खुजली आदि में लाभ होता है।
विसर्प रोग (हरपीस )- अमलतास के पत्तों तथा श्लेष्मातक की छाल का लेप बना कर लगाएँ। अमलतास के ८-१० पत्तों को पीसकर घी में मिला लें। इसका लेप करने से भी विसर्प रोग में लाभ होता है।
रक्तपित्त (हेमोटाईसिस)- शरीर के अंगों जैसे नाक, कान आदि से खून के बहने पर अमलतास का प्रयोग करना लाभ देता है। २५-५० ग्राम अमलतास फल के गूदा में २० ग्राम मधु और शर्करा मिला लें। इसे सुबह और शाम देने से नाक-कान से खून का बहना रुक जाता है।
रक्तवाहिका विकार( Peripheral vascular Disease)- रक्तवाहिकाओं की परेशानी में अमलतास के पत्ते को पानी और तेल में पकाएं। इसका सेवन करें। इससे रक्तवाहिकाओं से जुड़ी परेशानियों में लाभ होता है।
गर्भवती स्त्रियां शरीर के स्ट्रेच मार्क्स- अमलतास के पत्तों को दूध में पीस लें। इसे गर्भवती स्त्रियों के शरीर पर होने वाली धारियों पर लगाएं। इससे तुरंत फायदा होता है।
पित्तज विकार- अमलतास के फल के गूदा के काढ़ा में ५-१० ग्राम इमली का गूदा मिलाकर सुबह और शाम पिएँ। कफ की अधिकता हो तो थोड़ा निशोथ- चूर्ण मिलाकर पिएँ। अमलतास फल के गूदा का काढ़ा बनाकर या अमलतास फल का गूदा  दूध में पकाकर पिएँ। 
अमलतास फल के गूदा और एलोवेरा के गूदे को जल के साथ घोट लें। इसका मोदक बना लें। इसे रात में सेवन करें। इससे पित्त के विकारों में फायदा होता है। इसके लिए जल के स्थान पर गुलाबजल का प्रयोग भी किया जा सकता है।
लाल निशोथ के काढ़ा के साथ अमलतास के फल का गूदा का पेस्ट मिला लें। इसके अलावा बेल के काढ़ा के साथ अमलतास के गूदा का पेस्ट, नमक एवं मधु मिला सकते हैं। इसे १०-२० मिली मात्रा में पीने से पित्तज विकार ठीक होता है।
वात विकार- अमलतास फल का गूदा, पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा  बराबर मात्रा में मिलाकर काढ़ा बनाकर पिएँ। 
बिवाई (एड़िया फटना)- अमलतास के पत्ते का पेस्ट बनाकर एड़ियों पर लगाएँ। इससे एड़ी के फटने (बिवाई रोग) में लाभ होता है।

•••

सॉनेट
श्वास-श्वास मोगरे सी महके,
गुल गुलाब मन मुदित मदिर हो,
तरुणे तन पंक में कमल हो,
अगिन आस अमलतास दहके।
चारु चाह चंपई चपल हो,
कामना कनेर की कसक हो,
राह तके रातरानी रह के।
बरगदी संकल्प जड़ जमाए,
नीम तले चढ़-उतर गिलहरी,
सिर नवाए सींच-पूज तुलसी।
सूर्य रश्मि तोम तम मिटाए,
गौरैया संग मिल टिटहरी,
चहके लख प्रीति बेल हुलसी।
१८-८-२०२३
•••
सॉनेट
चित्रगुप्त
*
काया-स्थित ईश का चित्र गुप्त है मीत
अंश बसा हर जीव में आत्मा कर संजीव
चित्र-मूर्ति के बिना हम पूजा करते रीत
ध्यान करें आभास हो वह है करुणासींव
जिसका जैसा कर्म हो; वैसा दे परिणाम
सबल-बली; निर्धन-धनी सब हैं एक समान
जो उसको ध्याए, बनें उसके सारे काम
सही-गलत खुद जाँचिए; घटे न किंचित आन
व्रत पूजा या चढ़ावा; पा हो नहीं प्रसन्न
दंड गलत पाए; सही पुरस्कार का पात्र
जो न भेंट लाए; नहीं वह पछताए विपन्न
अवसर पाने के लिए साध्य योग्यता मात्र
आत्म-शुद्धि हित पूजिए, जाग्रत रखें विवेक
चित्रगुप्त होंगे सदय; काम करें यदि नेक
***
सॉनेट
सौदागर
*
भास्कर नित्य प्रकाश लुटाता, पंछी गाते गीत मधुर।
उषा जगा, धरा दे आँचल, गगन छाँह देता बिन मोल।
साथ हमेशा रहें दिशाएँ, पवन न दूर रहे पल भर।।
प्रक्षालन अभिषेक आचमन, करें सलिल मौन रस घोल।।
ज्ञान-कर्म इंद्रियाँ न तुझसे, तोल-मोल कुछ करतीं रे।
ममता, लाड़, आस्था, निष्ठा, मानवता का दाम नहीं।
ईश कृपा बिन माँगे सब पर, पल-पल रही बरसती रे।।
संवेदन, अनुभूति, समझ का, बाजारों में काम नहीं।।
क्षुधा-पिपासा हो जब जितनी, पशु-पक्षी उतना खाते।
कर क्रय-विक्रय कभी नहीं वे, सजवाते बाजार हैं।
शीघ्र तृप्त हो शेष और के लिए छोड़कर सुख पाते।।
हम मानव नित बेच-खरीदें, खुद से ही आजार हैं।।
पूछ रहा है ऊपर बैठे, ब्रह्मा नटवर अरु नटनागर।
शारद-रमा-उमा क्यों मानव!, शप्त हुआ बन सौदागर।।
१८-१२-२०२१
***

***
एक दोहा
रौंद रहे कलियों को माली,
गईँ बहारें रूठ।
बगिया रेगिस्तान हो रहीं,
वृक्ष कर दिए ठूँठ।।
***
सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धरा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास रचइयौ ग्वालन संग
बिना-मुरली बजा मोह जग, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
सरायकी हाइकु
*
लिखीज वेंदे
तकदीर दा लेख
मिसीज वेंदे
*
चीक-पुकार
दिल पत्थर दा
पसीज वेंदे
*
रूप सलोना
मेडा होश-हवास
वजीज वेंदे
*
दिल तो दिल
दिल आख़िरकार
बसीज वेंदे
*
कहीं बी जाते
बस वेंदे कहीं बी
लड़ीज वेंदे
*
दिल दी माड़ी
जे ढे अपणै आप
उसारी वेसूं
*
सिर दा बोझ
तमाम धंधे धोके
उसारी वेसूं
*
साड़ी चादर
जितनी उतने पैर
पसारी वेसूं
*
तेरे रस्ते दे
कण्डये पलकें नाल
बुहारी वेसूं
*
रात अँधेरी
बूहे ते दीवा वाल
रखेसी कौन?
*
लिखेसी कौन
रेगिस्तान दे मत्थे
बारिश गीत?
*
खिड़दे हिन्
मौज बहारां फुल्ल
तैडे ख़ुशी दे
*
ज़िंदणी तो हां
पर मौत मिलदी
मंगण नाल
*
मैं सुकरात
कोइ मैं कूं पिलेसी
ज़हर वी न
*
तलवार दे
कत्ल कर दे रहे
नाल आदमी
*
बणेसी कौन
घुँघरू सारंगी तों
लोहे दे तार?
*
कौन करेंसी
नीर-खीर दा फर्क
हंस बगैर?
*
खून चुसेंदी
हे रखसाणी रात
जुल्मी सदियाँ
*
नवी रौशनी
डेखो दे चेहरे तों
घंड लहेसी
*
रब जाण दे
केझीं लाचारी हई?
कुछ न पुच्छो
*
आप छोड़ के
अपणे वतन कूं
रहेसी कौन?
*
खैर-खबर
जिन्हां यार ते पुछ
खुशकिस्मत
*
अलेसी कौन?
कबर दा पत्थर
मैं सुनसान
*
वंडेसी कौन?
वै दा दर्द जित्थां
अपणी पई
*
मरण बाद
याद करेसी कौन
दुनिया बिच?
*
झूठ-सच्च दे
कोइ न जाणे लगे
मुखौटे हिन्
१८-१२-२०१९
***
गीत
*
हम जो कहते
हम जो करते
वही ठीक है मानो
*
जंगल में जनतंत्र तभी
जब तंत्र बन सके राजा।
जन की जान रखे मुट्ठी में
पीट बजाये बाजा।
शिक्षालय हो या कार्यालय
कभी शीश मत तानो
*
लोकतंत्र में जान लोक की
तंत्र जब रुचे ले ले।
जन प्रतिनिधि ऐय्याश लोक की
इज्जत से हँस खेले।
मत विरोध कर रहो समर्पित
सेवा में सुख जानो
*
प्रजा तंत्र में प्रजा सराहे
किस्मत अन्न उगाये।
तंत्र कोठियों में भर बेचे
दो के बीस बनाये।
अफसरशाही की जय बोलो
उन्हें ईश पहचानो
*
गण पर चलती गन को पूजो
भव से तुम्हें उबारे।
धन्य झुपड़िया राजमार्ग हित
प्रभु यदि तोड़ उखाड़े।
फैक्ट्री तान सेठ जी कृषकों
तारें सुयश बखानो
१८-१२-२०१९
***
लघुकथा:
ठण्ड
*
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
१८-१२-२०१८
***
मुक्तक
जग उठ चल बढ़ गिर मत रुक
ठिठक-झिझिक मत, तू मत झुक।
उठ-उठ कर बढ़, मंजिल तक-
'सलिल' सतत चल, कभी न चुक।।
*
नियति का आशीष पाकर 'सलिल' बहता जा रहा है।
धरा मैया की कृपा पा गीत कलकल गा रहा है।।
अतृप्तों को तृप्ति देकर धन्य जीवन कर रहा है-
पातकों को तार कर यह नर्मदा कहला रहा है।।
*
दोहा
जब तक चंद्र प्रकाश दे, जब तक है आकाश।
तब तक उद्यम कर 'सलिल', किंचित हो न निराश।।
१८.१२.१८
***
नीलाकाश में
अनगिनत तारे
चंद्रमा एक.
१८.१२.२०१७
***
नवगीत
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
१८. १२. २०१५
***
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
.
है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
.
***
नवगीत:
पेशावर के नरपिशाच
धिक्कार तुम्हें
.
दिल के टुकड़ों से खेली खूनी होली
शर्मिंदा है शैतानों की भी टोली
बना न सकते हो मस्तिष्क एक भी तुम
मस्तिष्कों पर मारी क्यों तुमने गोली?
लानत जिसने भेज
किया लाचार तुम्हें
.
दहशतगर्दों! जिसने पैदा किया तुम्हें
पाला-पोसा देखे थे सुख के सपने
सोचो तुमने क़र्ज़ कौन सा अदा किया
फ़र्ज़ निभाया क्यों न पूछते हैं अपने?
कहो खुदा को क्या जवाब दोगे जाकर
खला नहीं क्यों करना
अत्याचार तुम्हें?
.
धिक्-धिक् तुमने भू की कोख लजाई है
पैगंबर मजहब रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर
तुमको जननेवाली माँ पछताई है
क्यों भाया है बोलो
हाहाकार तुम्हें?
.
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
१८.१२.२०१४
.

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

दिसंबर १७, नवगीत, अमलतास, सरदार पटेल, दोहे, मुक्तक

सलिल सृजन दिसंबर १७
*
दोहे
चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य। 
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य।। 
*
कनकाभित सौंदर्यमय, अमलतास शुभ भव्य।
कली-पुष्प पीताभ लख, करिए कविता नव्य।।
*
तन जर्जर तब तक युवा, जब तक हृदय किशोर।
अमा तिमिर से डर नहीं, निकट सुनहरी भोर।।
नर नरेंद्र पहचानिए, अगर आत्म संतुष्ट।
असंतुष्ट सुरेंद्र भी, कब हो सकता पुष्ट।।
भाव न पाए भावना, जहाँ वहीं बाजार।
घर में रक्षा भाव की, करना बढ़े प्रभाव।।
श्री धर श्रीधर मौन क्यों, बाँटें तनिक प्रसाद।
चिंतन-चिंता जरूरी, ज्यों भोजन में स्वाद।।
१६.१२.२०२४
मुक्तक
बोल जब भी जुबान से निकले।
पान ज्यों पानदान से निकले।।
बात में घोल दे गुलकंद 'सलिल'
चाँद ज्यों आसमान से निकले।।
१७.१२.२०२३
***
दोहा सलिला
शंभु नाथ सब सृष्टि के, उमानाथ जगदीश।
रहें सलिल पर सदय प्रभु, सह पार्वती गिरीश।।
*
रेखा खींचे भक्ति की, हो जिज्ञासु विवेक।
पुष्पा सरला मुकुल मन, वसुधा हर्षित नेक।।
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दें संतोष सुरेश आ, राम नाम अविनाश।
सुख-दुःख में तजिए नहीं, धीरज रहें सुभाष।।
*
रहे सुनीता ज़िंदगी, हँस मर्यादापूर्ण।
सुधा राम का नाम ले, अहंकार हो चूर्ण।।
*
विषपायी प्रिय राम को, शंकर को प्रिय राम।
सलिल न भरमा नित्य जप, दोनों का ही नाम।।
*
रत रहते हैं राम में, जो वे भरत महान।
धर्म नहीं है भरत बिन, भरत राम का मान।।
*
पीताम्बर मर्याद है, नीलाम्बर है अंत।
रक्ताम्बर से नाश हो, श्वेताम्बर है संत।।
*
धर्म-प्रेम का पथ चुनें, प्रेम-धर्म रख साथ।
जब तब ही साकार हों, भरत और रघुनाथ।।
*
धर्म-प्रेम की राह में, हो न हार; नहिं जीत।
प्रेम-धर्म के पंथ पर, कर जो चाहे मीत।।
*
प्रेम-धर्म संयोग का, भक्ति भाव है नाम।
भक्ति और अनुरक्ति में, नहीं भेद का काम।।
***
सॉनेट
नमन
*
तूलिका को, रंग को, आकार को नमन ।
कल्पना की सृष्टि, दृष्टि ईश का वरदान।
शब्द करें कला-ओ-कलाकार को नमन।।
एक एक चित्र है रस-भावना की खान।।
रेखाओं की लय सरस सूर-पद सुगेय।
वर्तुलों में साखियाँ चित्रित कबीर की।
निराला संसार है प्रसाद शारदेय।।
भुज भेंटती नीराजना, दीपशिखा भी।।
ध्यान लगा, खोल नयन, निरख छवि बाँकी।
ऊँचाई-गहराई-विस्तार है अगम।
झरोखे से झाँक, है बाँकी नवल झाँकी।।
अधर पर मृदु हास ले, हैं कमल नयन नम।।
निशा-उषा-साँझ, घाट-बाट साथ-साथ।
सहेली शैली हरेक, सलिल नवा माथ।।
१७-१२-२०२१
***
सॉनेट
गुरुआनी
*
गुरुआनी गुरु के हृदय, अब भी रहीं विराज।
देख रहीं परलोक से, धीरज धरकर आप।
विधि-विधान से कर रहे, सारे अंतिम काज।।
गुरु जी उनको याद कर, पल-पल सुधियाँ व्याप।।
कवि-कविता-कविताइ का, कभी न छूटे साथ।
हुई नर्मदा की सुता, गंगा-तनया मीत।
सात जन्म बंधन रहे, लिए हाथ में हाथ।।
देही थी अब विदेही, हुई सनातन प्रीत।।
गुरुआनी जी थीं सरल, पति गौरव पर मुग्ध।
संस्कार संतान को, दिए सनातन शुद्ध।
व्रत-तप से हर अशुभ को, किया निरंतर दग्ध।।
संगत पाकर साँड़ भी, गुरु हो पूज्य प्रबुद्ध।।
दिव्यात्मा आशीष दे, रहे सुखी कुल वंश।
कविता पुष्पित-पल्लवित, हो बन सुधि का अंश।।
१६-१२-२०२१
***
छंद सलिला
रूपमाला
२४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद
*
पदभार २४, यति १४-१०, पदांत गुरु लघु।
विविध गणों का प्रयोग कर कई मापनियाँ बनाई जा सकती हैं।
उदाहरण
रूपमाला फेरता ले, भूप जैसा भाग।
राग से अनुराग करता, भोग दाहक आग।।
त्यागता वैराग हँसकर, जगत पूजे किंतु-
त्याग देता त्याग को ही, जला ईर्ष्या आग।।
कलकल कलकल अमल विमल, जल प्रवह-प्रवहकर।
धरणि-तपिश हर मुकुलित मन, सुखकर दुख हरकर।।
लहर-लहर लहरित मुखरित, छवि मनहर लखकर-
कलरव कर खगगण प्रमुदित, खुश चहक-चहककर।
जो बोया सो काटेगा, काहे को रोना।
जो पाया सो खोएगा, क्यों जोड़े सोना?
आएगा सो जाएगा, छोड़ेगा यादें-
बागों के फूलों जैसे, तू खुश्बू बोना
१७-१२-२०२०
***
नवगीत
आओ! तनिक बदलें
*
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
सिर्फ स्यापा ही नहीं,
मुस्कान भी सच है।
दर्द-पीड़ा है अगर, मृदु
हास भी सच है।।
है विसंगति अगर तो
संगति छिपी उसमें-
सम्हल कर चलते चलें,
लड़कर नहीं फसलें।।
समय है बदलाव का,
आओ! तनिक बदलें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
बैठ ए. सी. में अगर
लू लिख रहे झूठी।
समझ लें हिम्मत किसी की
पढ़ इसे टूटी।
कौन दोषी कवि कहो
पूछे कलम तुझसे?
रोकते क्यों हौसले
नव गीत में मचलें?
पार कर सरहद न ग़ज़लें
गीत में धँस लें।।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
व्यंग्य में, लघुकथा में,
क्यों सच न भाता है?
हो रुदाली मात्र कविता,
क्यों सुहाता है?
मनुज के उत्थान का सुख
भोगते हो तुम-
चाहते दुःख मात्र लिखकर
देश को ठग लें।
हैं न काबिल जो वही
हर बात का यश लें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
१६-१२-२०१८
***
राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
जन्म- ३१.१०.१८७५, नाडियाद, बंबई रेसीड़ेंसी (अब गुजरात), आत्मज- लाड बाई-झबेर भाई पटेल, पत्नी- झबेर बा, भाई- विट्ठल भाई पटेल, शिक्षा- विधि स्नातक १९१३, पुत्री- मणि बेन पटेल, पुत्र- दया भाई पटेल, निधन- १५ दिसंबर १९५०। १९१७- सेक्रेटरी गुजरात सभा, १९१८- कैरा बाढ़ के बाद 'कर नहीं' किसान आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन हेतु ३ लाख सदस्य बनाये, १.५० लाख रूपए एकत्र किए, १९२८ कर वृद्धि विरोध बारडोली सत्याग्रह, १९३० नमक सत्याग्रह कारावास, १९३१ गाँधी-इरविन समझौता मुक्ति, कोंग्रेस अध्यक्ष कराची अधिवेशन, १९३४ विधायिका चुनाव, नहीं लदे, दल को जयी बनाया, १९४२ भारत छोडो, गिरफ्तार, १९४५ रिहा, १९४७ गृह मंत्री भारत सरकार, ५६२ रियासतों का एकीकरण, १९९१ भारत रत्न।
***
गीत-
राजनीति के
रंगमंच पर
अपनी आप मिसाल थे.
.
गोरी सत्ता
रौंद अस्मिता भारत की मदमाती थी.
लौह पुरुष की
राष्ट्र भक्ति से डर जाती, झुक जाती थी.
भारत माँ के
कंठ सुशोभित
माणिक-मुक्त माल थे.
.
पैर जमीं पर जमा
हाथ से छू पाए आकाश को.
भारत माँ की
पराधीनता के, तोड़ा हर पाश को.
तिमित गुलामी
दूर हटाया
जलती हुई मशाल थे.
.
आम आदमी की
पीड़ा को सके मिटा सरदार बन.
आततायियों से
जूझे निर्भीक सबक किरदार बन.
भारतवासी
तुम सा नेता
पाकर हुए निहाल थे.
१५-१२-२०१७
***
नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
***
नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
***
नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
***
एक गीत-
भूमि मन में बसी
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
१७-१२-२०१५
***

प्राचीन लिपियाँ

प्राचीन लिपियाँ
अरविंद व्यास 
*
        जितनी भी प्राचीन लिपियाँ पढी गई हैं उन्हें पढ पाने की कुञ्जियाँ किसी ऐसी लिपियों के माध्यम से मिली हैं जिन्हें हम पढ सकते हैं; अथवा किसी अन्य लिपि के माध्यम से पढ पाते हैं — अथवा तुलना कर पाते हैं। सौभाग्य से कुछ ऐसी लिपियाँ (यथा ग्रीक, लातिनी, हिब्रू, आदि) हैं जो दीर्घकाल से प्रचलन में हैं; और कुछ ऐसी लिपियाँ हैं, जिनको हम उनसे जन्मी लिपियों के माध्यम से पढ सकते हैं (यथा आरामी)। मिस्र की चित्रलिपि को रोसेटा प्रस्तर अभिलेख के माध्यम से पढ पाने में सफलता मिली। नेपोलियन के मिस्र विजय अभियान के मध्य 1799 में मिले इस अभिलेख ने मिस्र की चित्रलिपि पढ पाने का द्वार खोला। टोल्मी पञ्चम द्वारा 196 ईसा पूर्व में अङ्कित इस आदेश में मिस्र की चित्रलिपि के अतिरिक्त, मिस्र की देमोती लिपि (Demotic script), तथा प्राचीन (which is also Egyptian), तथा टोल्मी वंश की मातृभाषा पुरानी ग्रीक भी ग्रीक लिपि में लिखी गई है। तीनों लिपियों में एक ही आदेश भिन्न भाषाओं में मुद्रित किया गया है। ग्रीक लिपि का परिष्कृत स्वरूप, तथा ग्रीक भाषा अब भी प्रचलन में है। अतः इस शिलालेख में पुरातत्ववेत्ताओं तथा लिपि को पढने का प्रयास करने वालों के लिए एक आरम्भ बिन्दु था। इस शिलालेख की 14 पङ्क्तियाँ मिस्र की चित्रलिपि में है; 32 देमोती में, और 54 पुरानी ग्रीक लिपि में। पुरानी मिस्री भाषा से मिस्र की कोप्ती भाषा का उद्भव हुआ है; अतः यह भी एक अन्य सहायक बात हो गई। किन्तु, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मिस्र की चित्रलिपि तुरन्त पढी जा सकी। इसके लिए पहले नामों और फिर उनकी ध्वनियों के आधार पर अन्य शब्दों को पढने का प्रयास किया गया तथा कोप्ती भाषा के ज्ञान को आधार बनाकर अन्य शब्दों की ध्वनियों का अनुमान किया गया। किन्तु, इस चित्रलिपि के लगभग 3200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी तक लगातार प्रचलन में होते हुए भी आज तक भी शोधकर्ता मिस्र की चित्रलिपि को पूर्णरूपेण नहीं पढ पाते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप की ब्राह्मी लिपि को ही लें; सम्राट अशोक के शिलालेख भारतीय उपमहाद्वीप में दूर-दूर तक मिलते हैं। किन्तु, हम इनकी लिपि को पढ नहीं पाते थे। अन्ततः श्रीलङ्का में संरक्षित कुछ प्राचीन पाली बौद्ध ग्रन्थों और एक श्रीलङ्काई बौद्ध भिक्षु रत्नपाल की सहायता से अङ्ग्रेज जेम्स प्रिन्सेप (James Prinsep, 20 अगस्त 1799 — 22 अप्रैल 1840)) ने 1832 में ब्राह्मी लिपि को पढने में सफलता पाई। इसमें छठी शताब्दी की गुप्त-कालीन ब्राह्मी (जिसमें देवनागरी लिपि का प्रारूप झलकता है) के 1785 में चार्ल्स विल्किन्स (Charles Wilkins, 1749 — 13 मई 1836) द्वारा सफलतापूर्वक पढे जाने का; तथा मौर्यकाल तथा गुप्तकाल के मध्य के साँची के अभिलेखों को पढ पाने का भी योगदान रहा। नॉर्वे के शोधकर्ता क्रिस्चियन लासेन (Christian Lassen, 22 अक्तूबर 1800 – 8 मई 1876)) के 1834 में यवन क्षत्रप अगथोक्लेस के ग्रीक और ब्राह्मी लिपि में मुद्रित सिक्के को पढने में सफलता का भी कुछ योगदान रहा है। प्रिन्सेप ने भी युनानी क्षत्रपों के सिक्कों, स्तूपों के अभिलेखों आदि को शनैः शनैः पढ पाने में सफलता पाई। इसमें अनेक स्तूपों पर लिखा शब्द दानं (दान) नामों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के शब्दों में प्रथम था।

प्रिन्सेप ने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग की दाएँ से बाएँ लिखी जाने वाली लिपि को 1835 में पढने में सफलता पाई; स्वतन्त्र रूप से जर्मन कार्ल लुदविग ग्रोतेफेन्द (Carl Ludwig Grotefend, 22 दिसम्बर 1807 — 27 अक्तूबर 1874) ने 1836 में खरोष्ठी पढने में सफलता पाई। फिर भी ब्राह्मी लिपि को पढने में कुछ कठिनाई बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भी आती रहीं। क्योंकि दक्षिण भारत में प्रचलित तमिऴ ब्राह्मी का स्वरूप कुछ भिन्न था।


ब्राह्मी लिपि के उद्गम पर भी अब तक पूर्ण सहमति नहीं है। कुछ शोधकर्ताओं (यथा योहान जेओर्ग बुह्लर (Johann Georg Bühler, 19 जुलाई 1837 – 8 अप्रैल1898)) ने इसे पश्चिमी एशिया की सेमेटिक लिपियों से रचा माना है; तो कुछ (यथा, जॉन मार्शल (John Hubert Marshall, 19 मार्च 1876 – 17 अगस्त 1958) ने इसे सिन्धु लिपि से प्रेरित भारती लिपि माना है। वहीं कुछ अन्य (यथा, रेमंड आल्चिन (Raymond Allchin, 9 जुलाई 1923 — 4 जून 2010 )) इसे मिश्रित मूल का कहते हैं। ध्यान दें कि खरोष्ठी लिपि का सेमेटिक उद्गम सुस्थापित है। अतः किसी भी लिपि को सफलतापूर्वक पढ पाने में माध्यमिक लिपियों का, उस काल की किसी ज्ञात लिखित भाषा का और अथक प्रयास का होना आवश्यक है।

सिन्धु लिपि लगभग चार हजार वर्ष पूर्व प्रयोग से बाहर हो चुकी थी। इसके लगभग बारह सौ वर्ष पश्चात ब्राह्मी लिपि प्रचलन आई! यह एक लम्बी अवधि है। इसके बीच में भारतीय उपमहाद्वीप में किसी प्रकार की लिपि के साक्ष्य विरल हैं। अतः कुछ भी निर्णय ले पाना कठिन है। क्योंकि माध्यमिक प्रमाणों का सर्वथा अभाव है। फिर भी, जो माध्यमिक अभिलेख मिले हैं उनके बारे में जानकारी प्रस्तुत है। 
पद्म विभूषण से सम्मानित पुरातत्ववेत्ता ब्रज बासी (बी बी) लाल (2 मई 1921 — 20 सितम्बर 2022) ने द्वारिका के निकट एक छोटा अभिलेख खोजा; जिस पर अङ्कित शब्दों को उन्होंने सिन्धु लिपि तथा ब्राह्मी लिपि के मध्य की लिपि — एक प्रकार से ब्राह्मी लिपि का प्रारूप कहा है।

थर्मल ल्युमेनेसेंस विधि से ईसा पूर्व 1500 का आकलन किए इस अभिलेख को प्रोफेसर लाल ने सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि के मध्य का बताया है। यह चित्र मेरी अप्रकाशित पुस्तक Brahmi and her daughters में सङ्कलित है। इसे प्रोफेसर लाल ने बाएँ से दाएँ "महाकच्छ सहा प" (समुद्र के देवता महाकच्छ सहायता करें) पढा है। किन्तु, इसके समकालीन अन्य अभिलेखों की अनुपस्थिति से हम सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में कुछ अधिक कह नहीं सकते।

प्रोफेसर लाल ने सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के उपरान्त महापाषाण काल के कुछ मिट्टी के भाण्डों के टुकड़ों पर बने चिह्नों का अध्ययन कर 1962 में ही उनके सिन्धु लिपि तथा ब्राह्मी लिपि के माध्यमिक स्वरूप के होने पर विचार व्यक्त करते एक शोध-पत्र प्रकाशित किया था। किन्तु, ऐसे अधिक उदाहरण न मिलने से यह कार्य पूर्णता तक नहीं पहुँच पाया।

उनके शोध-पत्र से महापाषाण काल चिह्नों और सिन्धु लिपि की तुलना करते यह चित्र इन दोनों कालों के अभिलेखों में चिह्नों की अल्पता को दर्शाता है। (PDF भारतीय पुरातत्व सन्स्थान के पोर्टल से)

इनके समकालीन पुरातत्ववेत्ता डॉक्टर शिकारीपुरा रङ्गनाथ राव (1 जुलाई 1922 — 3 जनवरी 2013) का मत था कि फोनेशियाई लिपि जिससे ग्रीक, रोमन, हिब्रू, सीरिलिक, आरामी आदि लिपियाँ जन्मीं उनका उद्गम सिन्धु लिपि में है।

इस चित्र में डॉ॰ राव के मतानुसार सिन्धु और फोनेशियाई लिपियों में समानताएँ दिखाई गई हैं। उनके अनुसार सिन्धु लिपि के चिह्न शब्दों को तथा उनके घटक अक्षरों को व्यक्त करते हैं। इस बात पर भी सिन्धु घाटी सभ्यता के उपरान्त तथा ब्राह्मी लिपि के उद्भव पूर्व के अभिलेखों के अभाव में सहमति नहीं बन पाई है।

सिन्धु लिपि के अभिलेखों के अतिरिक्त उड़ीसा के झारसुगुडा के निकट एक साधु ज्ञानानन्द ने बिक्रमखोल गुफा में कुछ अभिलेख पाए। लगभग 1500 ईसा पूर्व के इन अभिलेखों को के पी जायसवाल ने अपनी 1933 की शोध में सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि के मध्य की कडी बताया था। किन्तु, इन्हें पढा नहीं जा सका है।

इसी प्रकार की कडियों के अध्ययन से और उन्हें पढ पाने से ही हम सिन्धु लिपि को भी पढ पाने में सक्षम हो सकते हैं।

सिन्धु लिपि के साथ सबसे अधिक कठिनाई वाली बात यह है कि इस लिपि में कोई भी लम्बे अभिलेख नहीं हैं।

सिन्धु लिपि का सबसे लम्बा अभिलेख मात्र 26 चिह्नों वाला है; इनमें 17 भिन्न चिह्न हैं। इसे M-314 कूट दिया गया है।

धोलावीरा के नामपट्ट में सबसे बडे (लगभग 37 सेंटीमीटर) मात्र 10 चिह्न ही हैं।

इनको अनेक व्यक्तियों ने चिह्नों को यदृच्छ वर्ण मान देकर भी उन्हे पढने का प्रयास किया है। यथा, सुजैन मैरी रेडालिया सुलिवन (Suzanne Marie Redalia Sullivan) के मान के अनुसार धोलावीरा के नामपट्ट को अस्पष्ट रूप से अक्षर रंगपुर पढ सकते हैं। उनका मानना है कि इनकी भाषा मुख्य रूप से संस्कृत है, इसमें अन्य भाषाएँ भी समाहित हैं, जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता के व्यापारिक सम्बन्ध थे। किन्तु, इस विधि को अवैज्ञानिक माना जाता है। क्योंकि यह ज्ञात तथ्यों पर आधारित न होकर बलात् (ब्रूट फोर्स से) किसी समाधान का प्रयास है। इसमें भिन्न व्यक्ति भिन्न परिणाम पाते हैं। अब भी कुछ शोधार्थी कम्प्यूटर तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता के सहारे इस विधि से यह पहेली सुलझाने में जुटे हैं। किन्तु, प्रमाण को सिद्ध करने में यह विधि अधिक उपयोगी नहीं है।

सिन्धु घाटी सभ्यता की भाषा क्या है इस पर भी एकमत नहीं है। अधिकांश शोधकर्ता (यथा, Asko Parpola — अस्को पारपोला (12 जुलाई 1941), तथा इरावतम् महादेवऩ्) इसे द्राविड भाषाओं के बोलने वालों की सभ्यता मानते हैं।

अस्को पारपोला सङ्कलित सिन्धु लिपि के चिह्न; लगभग पचास वर्षों में भी वे इनमें से कुछ ही के अर्थ प्रस्तावित कर पाए हैं। किन्तु वे भी स्वीकार्यता नहीं पा सके हैं।

इरावतम् महादेवऩ् (2 अक्तूबर 1930 — 26 नवम्बर 2018) ने ब्राह्मी लिपि पर बहुत शोध की है, तथा तमिऴ ब्राह्मी लिपि की विशिष्टता को पहचानने का कार्य उन्हीं का है। उन्होंने सिन्धु लिपि के चिह्नों की प्रथम व्यवस्थित वृहत्तर सूची बनाई; जिसे महादेवऩ् सूची (Mahadevan concordance) कहा जाता है। उनके अनुसार सिन्धु लिपि किसी द्राविड भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें मुरुगन आदि देवताओं का अङ्कन है। महादेवऩ् ने अनेक ऐसे स्रोतों का भी अपनी शोध वर्णन किया है, जो मूलतः द्राविड भाषाओं में नहीं हैं; किन्तु महादेवऩ् के अनुसार वे मूलतः द्राविड मान्यताएँ हैं, जिन्हें आर्यों ने अङ्गीकार किया। यथा, वैदिक दध्याञ्च को उन्होंने द्राविड उद्गम का माना है, जिसे वैदिक संस्कृति ने अपना लिया। अनेक वर्ष पूर्व अपने ब्लॉग पर मैंने अपने एक आलेख में लिखा है कि इस प्रतीक को बिना द्राविड मूल का कहे भी वैदिक परम्परा का माना जा सकता है। (लिंक [1])


कालीबङ्गा में मिले इस मृण-भाण्ड पर अङ्कित अस्थियों की आकृति को महादेवऩ् ने ऋग्वेद में वर्णित दधिक्र अश्व तथा दध्याञ्च से सम्बन्धित माना है।

किन्तु, इस अध्ययन में मैं महादेवऩ् का पासङ्ग भी नहीं हूँ। अतः उनसे मतैक्य न रखते हुए उनके शोध की प्रशंसा और इस विषय के विद्यार्थियों को उन्हें पढने की अनुशंसा करता हूँ।

यदि चिह्नों को प्रतीक कहा जाए तो प्रतीकों के सार्थक होने को भी स्वीकारने में आनाकानी कैसी? श्रीनिवास कल्याणरामऩ् इन चिह्नों को रेबस मानकर (जिसे उन्होंने म्लेच्छ विकल्प का नाम दिया है) सिन्धु लिपि को पढने का प्रयास कर रहे हैं। इस विधि में चिह्न को किसी विषय - वस्तु का प्रतीक मानकर उससे सम्बन्धित ध्वनि मान के आधार पर अन्य अर्थ निकाल सकते हैं। यह भी तभी सार्थक है जब भाषा ज्ञात हो। कल्याणरामऩ् जी ने भारतीय भाषा-क्षेत्र (Indian sparschbund) की परिकल्पना कर एक वृहद भारतीय भाषाओं के समानार्थी शब्दों का कोश सङ्कलित किया है। किन्तु, इसमें कुछ प्राचीन तो कुछ आधुनिक भाषाओं के समावेश से यह विधि तब की भाषा को न लेकर एक अटपटा सा विषम-सामायिक मिश्रण प्रस्तुत करती है। भाष के चयन में परिवर्तन होने से इस विधि से भिन्न परिणाम मिलेंगे। अतः जब तक सिन्धु घाटी सभ्यता की भाषा पर सहमति नहीं बन जाती यह एक विवादास्पद विषय ही रहेगा। चीनी लिपि कुछ इसी प्रकार की है; किन्तु, जब जापानी इसका प्रयोग करते हैं तो इस लिपि के आवरण में चीनी लिपि से इतर भिन्न उच्चारण वाली जापानी भाषा होती है।

बहुधा सिन्धु लिपि की समकालीन अन्य लिपियों के पढ़ें जा सकने का विवरण देकर यह कहा जाता है कि जानबूझकर सिन्धु लिपि को पढ़ा नहीं गया। किन्तु सिन्धु लिपि की पड़ोसी समकालीन एलामी सभ्यता की एलामी लिपि (Elamite Script) नहीं पढ़ी जा सकी है। यह लिपि लगभग 3200 ईसा पूर्व में अस्तित्व में आई।


इसकी सिन्धु लिपि से साम्यता है। यदि सिन्धु लिपि और सुमेरियाई क्यूनिफार्म लिपि के द्विभाषी अभिलेख मिल जाएँ तो हमारी इस समस्या का सुलझाव सम्भव है। अथवा सुमेरियाई और एलामी के द्विभाषी अभिलेखों के साथ एलामी और सिन्धु लिपि के द्विभाषी अभिलेख भी मिलें तो यह इस लिपि को पढ पाने में सहायता कर सकती है। अन्यथा हम अन्धेरे में तीर मारने का ही कार्य कर रहे हैं।

यही नहीं ईरान की लगभग 2200 ईसा पूर्व में विकसित जितरोफ लिपि, साइप्रस और मिनोअन लिपि (1550 ईसा पूर्व), चीन के दावेंकोउ चिह्न (2800 – 2500 ईसा पूर्व), चीन के लोंगशान चिह्न (2500 – 1900 ईसा पूर्व) श, चीन के वूचेंग चिह्न (1600 ईसा पूर्व), वादी अल होल लिपि (1800 ईसा पूर्व), बिब्लोस लिपि (1700 ईसा पूर्व), इत्यादि ऐसी अनेक समकालीन लिपियों को पढ़ा नहीं जा सका है। इनमें से कुछ लिपियाँ ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ उनकी कुछ समकालीन लिपियों (जैसे सुमेरियाई क्यूनिफार्म लिपि) पढ़ी जा चुकी है।

वैसे, मेरी दृष्टि में प्रोफेसर बी बी लाल की विधि उत्तम है। किन्तु, इसके लिए हमें कुछ बडे और अधिक सङ्ख्या में अभिलेख चाहिएँ।

कुछ शोधकर्ताओं (यथा, Steve Farmer, Michel Witzel, Richard Sproat— स्टीव फार्मर, माइकल विट्ज़ेल, रिचर्ड स्प्रोट) का यह मानना है कि सिन्धु लिपि मात्र कुछ प्रतीक चिह्नों का निरूपण है; यह वास्तविक लिपि नहीं है। उन्होंने लगभग दो दशक पूर्व इसे लिपि सिद्ध करने के लिए दस हजार अमेरिकी डॉलर का पुरस्कार घोषित किया है।
[2] किन्तु अभी तक इस पुरस्कार के लिए उनसे किसी भी व्यक्ति ने सम्पर्क नहीं किया है। इस पुरस्कार की घोषणा का उद्देश्य यह है कि चिह्नों की अल्पता, जिस प्रकार चिह्न बनाए गए और दोहराए गए हैं हैं, उस आधार पर इन चिह्नों के किसी भाषा को व्यक्त करने की क्षमता का अभाव मानते हुए सिन्धु चिह्नों को लिपि नहीं माना है। पारपोला सहित अधिकांश अध्येता स्टीव फार्मर के दावे से सहमत नहीं हैं; किन्तु पिछले लगभग दो दशक में फार्मर को कोई भी व्यक्ति उपयुक्त चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पाया है। यह सिन्धु लिपि की जटिलता दर्शाता है और भविष्य के शोधकर्ताओं के लिए भी एक सशक्त चुनौती प्रस्तुत करता है।



किसी को भी दोषी मानने से पूर्व यह अवश्य विचार करें कि क्या हमने स्वयं इस दिशा में प्रयास किया है? इस विषय में मेरी रुचि होने से मैं स्वयं इस लेख में वर्णित कुछ अध्येताओं के सम्पर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हूँ। इनमें से कुछ ने व्यक्तिगत रूप से अनेक शोध-पत्र तथा अन्य उपयोगी जानकारी (चित्र आदि) भी साझा किए हैं (विशेषकर स्टीव फार्मर तथा एस कल्याणरामऩ् ने, जो कि परस्पर विरोधी विचारधारा के हैं)।

पिछले दो दशक में इस विषय पर मेरी जानकारी तो बढ़ी है; परन्तु अब भी स्वयं को सिन्धु लिपि की पहेली का समाधान खोजने में उतना ही असमर्थ पाता हूंँ, जितना कि पहले था।

© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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फुटनोट

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

कहानी, भाभी, महादेवी वर्मा


कहानी 
भाभी
महादेवी वर्मा
*
        इतने वर्ष बीत जाने पर भी मेरी स्मृति, अतीत के दिन-प्रतिदिन गाढ़े होनेवाले धुंधलेपन में एक-एक रेखा खींचकर उस करुण, कोमल मुख को मेरे सामने अंकित ही नहीं सजीव भी कर देती है। छोटे गोल मुख की तुलना में कुछ अधिक चौड़ा लगनेवाला, पर दो काली रूखी लटों से सीमित ललाट, बचपन और प्रौढ़ता को एक साथ अपने भीतर बंद कर लेने का प्रयास-सा करती हुई, लंबी बरौनियोंवाली भारी पलकें और उनकी छाया में डबडबाती हुई-सी आँखें, उस छोटे मुख के लिए भी कुछ छोटी सीधी-सी नाक और मानो अपने ऊपर छपी हुई हँसी से विस्मित होकर कुछ खुले रहनेवाले ओठ समय के प्रवाह से फीके भर हो सके हैं, धुल नहीं सके।

        घर के सब उजले-मैले, सहज- कठिन कामों के कारण, मलिन रेखा-जाल से गुँथी और अपनी शेष लाली को कहीं छिपा रखने का प्रयत्न-सा करती हुई कहीं कोमल, कहीं कठोर हथेलियाँ, काली रेखाओं में जड़े कांतिहीन नखों से कुछ भारी जान पड़ने वाली पतली उँगलियाँ, हाथों का बोझ सँभालने में भी असमर्थ-सी दुर्बल, रूखी पर गौर बाँहें और मारवाड़ी लहँगे के भारी घेर से थकित से, एक सहज-सुकुमारता का आभास देते हुए, कुछ लंबी उँगलियों वाले दो छोटे-छोटे पैर, जिनकी एड़ियों में आँगन की मिट्टी की रेखा मटमैले महावर-सी लगती थी, भुलाए भी कैसे जा सकते हैं? उन हाथों ने बचपन में न जाने कितनी बार मेरे उलझे बाल सुलझा कर बड़ी कोमलता से बाँध दिए थे। वे पैर न जाने कितनी बार, अपनी सीखी हुई गंभीरता भूल कर मेरे लिए द्वार खोलने, आँगन में एक ओर से दूसरी ओर दौड़े थे, किस तरह मेरी अबोध अष्टवर्षीय बुद्धि ने उससे भाभी का संबंध जोड़ लिया था, यह अब बताना कठिन है। मेरी अनेक सह-पाठिनियों के बहुत अच्छी भाभियाँ थीं; कदाचित् उन्हीं की चर्चा सुन-सुन कर मेरे मन ने, जिसने अपनी तो क्या दूर के संबंध की भी कोई भाभी न देखी थी, एक ऐसे अभाव की सृष्टि कर ली, जिसको वह मारवाड़ी विधवा वधू दूर कर सकी।

        बचपन का वह मिशन स्कूल मुझे अब तक स्मरण है, जहाँ प्रार्थना और पाठ्यक्रम की एकरसता से मैं इतनी रुआँसी हो जाती थी कि प्रतिदिन घर लौटकर नींद से बेसुध होने तक सबेरे स्कूल न जाने का बहाना सोचने से ही अवकाश न मिलता था। उन दिनों मेरी ईर्ष्या का मुख्य विषय नौकरानी की लड़की थी, जिसे चौका बर्तन करके घर में रहने को तो मिल जाता था। जिस कठोर ईश्वर ने मेरे भाग्य में नित्य स्कूल जाना लिख दिया था, वह माँ के ठाकुर जी में से कोई है या मिशन की सिस्टर का ईसू, यह निश्चय न कर सकने के कारण मेरा मन विचित्र दुविधा में पड़ा रहता था। यदि वह माँ के ठाकुर जी में से है, तो आरती पूजा से जी चुराते ही क्रुद्ध होकर मेरे घर रहने का समय और कम कर देगा और यदि स्कूल में है, तो बहाना बनाकर न जाने से पढ़ाई के घंटे और बढ़ा देगा, इसी उधेड़-बुन में मेरा मन पूजा, आरती, प्रार्थना सब में भटकता ही रहता था। इस अंधकार में प्रकाश की एक रेखा भी थी। स्कूल निकट होने के कारण बूढ़ी कल्लू की माँ मुझे किताबों के साथ वहाँ पहुँचा भी आती थी और ले भी आती थी और इस आवागमन के बीच में, कभी सड़क पर लड़ते हुए कुत्ते, कभी उनके भटकते हुए पिल्ले, कभी किसी कोने में बैठ कर पंजों से मुँह धोती हुई बिल्ली, कभी किसी घर के बरामदे में लटकते हुए पिंजड़े में मनुष्य की स्वर-साधना करता हुआ गंगाराम, कभी बत्तख और तीतरों के झुंड, कभी तमाशा दिखलानेवालों के टोपी लगाए हुए बंदर, ओढ़नी ओढ़े हुए बंदरिया, नाचनेवाला रीछ आदि स्कूल की एकरसता दूर करते ही रहते थे।

        हमारे ऊँचे घर से कुछ ही हटकर, एक ओर रंगीन, सफेद, रेशमी और सूती कपड़ों से और दूसरी ओर चमचमाते हुए पीतल के बर्तनों से सजी हुई एक नीची-सी दूकान में जो वृद्ध सेठजी बैठे रहते थे, उन्हें तो मैंने कभी ठीक से देखा ही नहीं; परंतु उस घर के पीछे वाले द्वार पर पड़े हुए पुराने टाट के परदे के छेद से जो आँखें प्रायः मुझे आते-जाते देखती रहती थीं, उनके प्रति मेरा मन एक कुतूहल से भरने लगा। कभी-कभी मन में आता था कि परदे के भीतर झाँक कर देखूँ; पर कल्लू की माँ मेरे लिए उस जंतुविशेष से कम नहीं थी, जिसकी बात कह कह कर बच्चों  को डराया जाता है। उसका कहना न मानने से वह नहलाते समय मेरे हाल ही में छिदे कान की लौ दुखा सकती थी, चोटी बाँधते समय बालों को खूब खींच सकती थी, कपड़े पहनाते समय तंग गलेवाले फ्राक को आँखों पर अटका सकती थी, घर में और स्कूल में मेरी बहुत-सी झूठी सच्ची शिकायत कर सकती थी। सारांश यह कि उसके पास प्रतिशोध लेने के बहुत-से साधन थे परंतु कल्लू की माँ को चाहे उन आँखों की स्वामिनी से मेरा परिचय न भाता हो; पर उसकी कथा सुनाने में उसे अवश्य रस मिलता रहा। वह अनाथिनी भी है और अभागी भी। बूढ़े सेठ सबके मना करते-करते भी इसे अपने इकलौते लड़के से ब्याह लाये और उसी साल लड़का बिना बीमारी के ही मर गया। अब सेठजी का इसकी चंचलता के मारे नाक में दम है। न इसे कहीं जाने देते हैं, न किसी को अपने घर आने। केवल अमावस-पूनो एक ब्राह्मणी आती है, जिसे वे अपने-आप खड़े रहकर, सीधा दिलवाकर विदा कर देते हैं।वे बेचारे तो जाति-बिरादरी में भी इसके लिए बुरे बन गए हैं और इसकी निर्लज्जता देखो -ससुर दूकान में गए नहीं कि वह परदे से लगी नहीं।घर में कोई देखनेवाला है ही नहीं। एक ननद है, जो शहर ससुराल होने के कारण जब-तब आ जाती है और तब उसकी खूब ठुकाई होती है, इत्यादि-इत्यादि सूचनाएँ कल्लू की माँ की विशेष शब्दावली और विचित्र भाव-भंगियों के साथ मुझे स्कूल तक मिलती रहती थीं। परंतु उस समय वे सूचनाएँ मेरे निकट उतना ही महत्त्व रखती थीं, जितनी नानी से सुनी हुई बेला की कहानी।कथा में बेचैन कर देनेवाला सत्य इतना ही था कि कहानी की राजकुमारी की आँखें पुराने टाट के परदे से सुनने वाली बालिका को नित्य ताकती ही रहती थीं।  यह स्थिति तो कुछ सुखद नहीं कही जा सकती। यदि सुनी हुई कहानी के सब राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी, दैत्य, दानव आदि सुननेवालों को इस प्रकार देखने लगें, तो कहानी सुनने का सब सुख चला जावे, यह कल्लू की माँ की कहानी और परदे के छेद से देखनेवाली आँखों ने मुझे समझा दिया था।

        भूरे टाट में जड़ी-सी वे काली आँखें मेरी कल्पना का विषय ही बनी रहतीं, यदि एक दिन पानी बरसने से कल्लू की माँ रुक न गई होती, पानी थमते ही मैं स्कूल से अकेले ही चल न दी होती और गीली सड़क पर उस परदे के सामने ही मेरा पैर न फिसल गया होता। बच्चे गिरकर प्रायः चोट के कारण न रोकर, लज्जा से ही रोने लगते हैं। मेरे रोने का भी कदाचित् यही कारण रहा होगा, क्योंकि चोट तो मुझे याद नहीं आती। कह नहीं सकती कि परदे से निकलकर, कब उन आँखों की स्वामिनी ने मुझे आँगन में खींच लिया; परंतु सहसा विस्मय से मेरी रुलाई रुक गई। एक दुर्बल पर सुकुमार बालिका जैसी स्त्री अपने अंचल से मेरे हाथ और कपड़ों का कीचड़ मिला पानी पोंछ रही थी और भीतर दालान से वृद्ध सेठ का कुछ विस्मित स्वर कह रहा था - 'अरे! यह तो वर्मा साहब की बाई है।'

        उसी दिन से वह घर, जिसमें न एक भी झरोखा था न रोशनदान, न एक भी नौकर दिखाई देता था, न अतिथि और न एक भी पशु रहता था, न पक्षी, मेरे लिए एक आकर्षण बनने लगा। उस समाधि-जैसे घर में लोहे के प्राचीर से घिरे फूल के समान वह किशोरी बालिका बिना किसी संगी-साथी, बिना किसी प्रकार के आमोद-प्रमोद के, मानो निरंतर वृद्धा होने की साधना में लीन थी। वृद्ध एक ही समय भोजन करते थे और वह तो विधवा ठहरी। दूसरे समय भोजन करना ही यह प्रमाणित कर देने के लिए पर्याप्त था कि उनका मन विधवा के संयम प्रधान जीवन से ऊबकर किसी विपरीत दिशा में जा रहा है। प्रायः निराहार और निरंतर मिताहार से दुर्बल देह से वह कितना परिश्रम करती थी, यह मेरी बालक-बुद्धि से भी छिपा न रहता था। जिस प्रकार उसका, खँडहर जैसे घर और लंबे-चौड़े आँगन को बैठ-बैठकर बुहारना, आँगन के कुएँ से अपने और ससुर के स्नान के लिए ठहर-ठहर कर पानी खींचना और धोबी के अभाव में, मैले कपड़ों को काठ की मोगरी से पीटते हुए रुक-रुक कर साफ़ करना, मेरी हँसी का साधन बनता था, उसी प्रकार केवल जलती लकड़ियों से प्रकाशित, दिन में भी अँधेरी रसोई की कोठरी के घुटते हुए धुएँ में से रह-रह कर आता हुआ खाँसी का स्वर, कुछ गीली और कुछ सूखी राख से चाँदी - सोने के समान चमकाकर तथा कपड़े से पोंछकर ( मारवाड़ में काम में लाने के समय बर्तन पानी से धोए जाते हैं) रखते समय शिथिल उँगलियों से छूटते हुए बर्तनों की झनझनाहट मेरे मन में एक नया विषाद भर देती थी परंतु काम चाहे कैसा ही कठिन रहा हो, शरीर चाहे कितना ही क्लांत रहा हो, मैंने न कभी उसकी हँसी से आभासित मुख - मुद्रा में अंतर पड़ते देखा और न कभी काम रुकते देखा और इतने काम में भी उस अभागी का दिन द्रौपदी के चीर से होड़ लेता था। सबेरे स्नान, तुलसी पूजा आदि में कुछ समय बिताकर ही वह अपने अँधेरे रसोईघर में पहुँचती थी; परंतु दस बजते-बजते ससुर को खिला-पिला कर, उसी टाट के परदे से मुझे शाम को आने का निमंत्रण देने के लिए स्वतंत्र हो जाती थी। उसके बाद चौका बर्तन कूटना -‍ - पीसना भी समाप्त हो जाता; परंतु अब भी दिन का अधिक नहीं तो एक प्रहर शेष रह ही जाता था। दूकान की ओर जाने का निषेध होने के कारण वह अवकाश का समय उसी टाट के परदे के पास बिता देती थी, जहाँ से कुछ मकानों के पिछवाड़े और एक-दो आते-जाते व्यक्ति ही दिख सकते थे; परंतु इतना ही उसकी चंचलता का ढिंढोरा पीटने के लिए पर्याप्त था। 

        उस १९ वर्ष की युवती की दयनीयता आज समझ पाती हूँ, जिसके जीवन के सुनहरे स्वप्न गुड़ियों के घरौंदे के समान दुर्दिन की वर्षा में केवल बह ही नहीं गए, वरन् उसे इतना एकाकी छोड़ गए कि उन स्वप्नों की कथा कहना भी संभव न हो सका। ऐसी दशा में उसने आठ वर्ष की बालिका को ही अपने संगीहीन हृदय की सारी ममता सौंप दी; परंतु वह बालिका तो उसके संसार में प्रवेश करने में असमर्थ थी, इसी से उसने उसी के गुड़ियोंवाले संसार को अपनाया। वृद्ध भी अपनी बहू के लिए ऐसा निर्दोष साथी पाकर इतने प्रसन्न हुए कि स्वयं ही बड़े आदर-यत्न से मुझे बुलाने-पहुँचाने लगे  और माँ तो उस माता-पिताहीन विधवा बालिका की कथा सुनकर ही मुख फेरकर आँख पोंछने लगती थीं। इसी से धीरे-धीरे मेरी कुछ नाटी गुड़िया, उसका बेडौल सिरवाला पति, उसकी एक पैर से लंगड़ी सास, बैठने में असमर्थ ननद और हाथों के अतिरिक्त सब प्रकार से आकारहीन दोनों बच्चे, सब एक-एक कर भाभी की कोठरी में जा बैठे।  इतना ही नहीं, उनकी चक्की से लेकर गहनों तक सारी गृहस्थी और डोली से लेकर रेल तक सब सवारियाँ उसी खँडहर को बसाने लगीं। 

        भाभी को तो सफेद ओढ़नी और काला लहँगा या काली ओढ़नी और सफेद बूटीदार कत्थई लहँगा पहने हुए ही मैंने देखा था; पर उसकी ननद के लिए हर तीज-त्यौहार पर बड़े सुंदर रंगीन कपड़े बनते थे। कुछ भाभी की बटोरी हुई कतरन से और कुछ अपने घर से लाए हुए कपड़ों से गुड़ियों के लज्जा-निवारण का सुचारु प्रबंध किया जाता था। भाभी घाघरा, काँचली आदि अपने वस्त्र सीना जानती थी, अतः मेरी गुड़िया मारवाड़िन की तरह शृंगार करती थी; मैंने स्कूल में ढीला पाजामा और घर में कलीदार कुरता सीना सीखा था, अतः गुड्डा पूरा लाला जान पड़ता था; चौकोर कपड़े के टुकड़े के बीच छेद करके वही बच्चों के गले डाल दिया जाता था, अतः वे किसी आदिम युग की संतान से लगते थे ।         
        भाभी के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था इसलिए उस पर मेरी विद्वत्ता की धाक भी सहज ही जम गई थी। प्रायः सभी पशुओं के अँगरेजी नाम बताकर और तस्वीरों वाली किताब से अँगरेजी की कविता बड़े राग से पढ़कर मैं उसे विस्मित कर चुकी थी, हिंदी की पुस्तक से 'माता का हृदय', 'भाई का प्रेम' आदि कहानियाँ सुनाकर उसकी आँखें गीली कर चुकी थी और अपने मामा को चिट्ठी लिखने की बात कहकर उसके मन में बीकानेर के निकट किसी गाँव में रहनेवाली बुआ की स्मृति जगा चुकी थी। वह प्रायः लंबी साँस लेकर कहती- पता नहीं जानती, नहीं तो तुमसे एक चिट्ठी लिखवा कर डाल देती। सब से कठिन दिन तब आते थे, जब वृद्ध सेठ की सौभाग्यवती पुत्री अपने नैहर आती थी। उसके चले जाने के बाद भाभी के दुर्बल गोरे हाथों पर जलने के लंबे, काले निशान और पैरों पर नीले दाग रह जाते थे; पर उनके संबंध में कुछ पूछते ही वह गुड़िया की किसी समस्या में मेरा मन अटका देती थी। उन्हीं दिनों स्कूल में कशीदा काढ़ना सीखकर मैंने अपनी धानी रंग की साड़ी में बड़े-बड़े नीले फूल काढ़े। भाभी को रंगीन कपड़े बहुत भाते थे, इसी से उसे देखकर वह ऐसी विस्मय-विमुग्ध रह गई, मानो कोई सुंदर चित्र देख रही हो। 

        मैंने क्यों माँ से हठ करके वैसा ही कपड़ा मँगवाया और क्यों किसी को बिना बताए हुए छिपा - छिपाकर ‘उस ओढ़नी पर नीले फूल काढ़ना आरंभ किया, यह आज भी समझ में नहीं आता। वह बेचारी बार-बार बुलवा भेजती, नए-नए गुड़ियों के कपड़े दिखाती, नए-नए घरौंदे बनाती; पर फिर भी मुझे अधिक समय तक ठहराने में असमर्थ होकर बड़ी निराश और करुण मुद्रा से द्वार तक पहुँचा जाती। उस दिन की बात तो मेरी स्मृति में गर्म लोहे से लिखी जान पड़ती है, जब उस ओढ़नी को चुपचाप छिपाकर मैं भाभी को आश्चर्य में डालने गई। शायद सावन की तीज थी, क्योंकि स्कूल के सीधे-सादे बिना चमक-दमक वाले कपड़ों के स्थान में मुझे गोटा लगी हुई लहरिए की साड़ी पहनने को मिली थी और सबेरे पढ़ने बैठने की बात न कहकर माँ ने हाथों में मेहँदी भी लगा दी थी। वह दालान में दरवाजे की ओर पीठ किए बैठी कुछ बीन रही थी, इसी से जब दबे पाँव जाकर मैंने उस ओढ़नी को खोलकर उसके सिर पर डाल दिया, तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रंगों पर उसके प्राण जाते ही थे, उस पर मैंने गुड़ियों और खिलौनों से दूर अकेले बैठे-बैठे अपने नन्हे हाथों से उसके लिए उतनी लंबी-चौड़ी ओढ़नी काढ़ी थी।  आश्चर्य नहीं कि वह क्षण भर के लिए अपनी उस स्थिति को भूल गई, जिसमें ऐसे रंगीन वस्त्र वर्जित थे और नए खिलौने से प्रसन्न बालिका के समान, एक बेसुधपन में उसे ओढ़, मेरी ठुड्डी पकड़कर खिलखिला पड़ी और जब किसी का विस्मय-विजड़ित 'बींदनी' (बहू) सुनकर उसकी सुधि लौटी, तब हतबुद्धि-से ससुर मानो गिरने से बचने के लिए चौखट का सहारा ले रहे थे और क्रोध से जलते अंगारे- जैसी आँखोंवाली, खुली तलवार - सी कठोर ननद, देहली से आगे पैर बढ़ा चुकी थी।  अवश्य ही तीज रही होगी; क्योंकि वृद्ध स्वयं पुत्री को लेने गए थे। 

        इसके उपरांत जो हुआ वह तो स्मृति के लिए भी अधिक करुण है। क्रूरता का वैसा प्रदर्शन मैंने फिर कभी नहीं देखा। बचाने का कोई उपाय न देखकर ही कदाचित् मैंने जोर-जोर से रोना आरंभ किया; परंतु बच तो वह तब सकी, जब मन से ही नहीं, शरीर से भी बेसुध हो गई।  वृद्ध मुझे कैसे घर पहुँचा गए, घबराहट से मैं कितने दिन ज्वर में पड़ी रही, यह सब तो गहरे कुहरे में छिप गया है; परंतु बहुत दिनों के बाद जब मैंने फिर उसे देखा, तब उन बचपन भरी आँखों में विषाद का गाढ़ा रंग चढ़ चुका था और वे ओठ, जिन पर किसी दिन हँसी छपी सी जान पड़ती थी, ऐसे काँपते थे, मानो भीतर का क्रंदन रोकने के प्रयास से थक गए हों। उस एक घटना से बालिका प्रौढ़ हो गई थी और युवती वृद्धा। 
फिर तो हम लोग इन्दौर से चले ही आए और एक-एक करके अनेक वर्ष बीत जाने पर ही मैं इस योग्य बन सकी कि उसकी कुछ खोज-खबर ले सकूँ। पता लगा कि छोटी दूकान के स्थान में एक विशाल अट्टालिका वर्षों पहले खड़ी हो चुकी है।  पता चला कि वधू की रक्षा का भार संसार को सौंप कर वृद्ध कभी के विदा हो चुके हैं; परंतु कठोर संसार ने उसकी कैसी रक्षा की, यह आज तक अज्ञात है। इतने बड़े मानव-समुद्र में उस छोटे-से बुदबुद की क्या स्थिति है, यह मैं जानती हूँ; परंतु तब भी कभी-कभी मन चाहता है कि बचपन में जिसने अपने जीवन के सूनेपन को भूलकर, मेरी गुड़ियों की गृहस्थी बसाई थी, खिलौनों का संसार सजाया था, उसे एक बार पा सकती। 

        आज भी जब कोई रंगीन कपड़ों के प्रति विरक्ति के संबंध में कौतुक भरा प्रश्न कर बैठता है, तो वह अतीत फिर वर्तमान होने लगता है।  कोई किस प्रकार समझे कि रंगीन कपड़ों में जो मुख धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगता है, वह कितना करुण और कितना मुरझाया हुआ है। कभी-कभी तो वह मुख मेरे सामने आने वाले सभी करुण क्लांत मुखों में प्रतिबिंबित होकर मुझे उसके साथ एक अटूट बंधन में बाँध देता है।  प्रायः सोचती हूँ- जब वृद्ध ने कभी न खोलने के लिए आँखें मूँद ली होंगी तब वह, जिसे उन्होंने संसार की ओर देखने का अधिकार ही नहीं दिया था, कहाँ गई होगी और तब-तब न जाने किस अनिष्ट संभावना से न जाने किस अज्ञात प्रश्न के उत्तर में मेरे मन की सारी ममता आर्त्त क्रंदन कर उठती है- नहीं... नहीं ... .
***

दिसंबर १६, बुंदेली सॉनेट, चौकड़िया, कहावतें, दोहा मुक्तिका, गीत, पीपल, वंशी और वास्तु

सलिल सृजन दिसंबर १६

*
बुंदेली सॉनेट
बालम
*
जाने का का हेरत बालम,
हरदम चिपके रैत जोंक सें,
भिन्नाउत हैं रोक-टोंक सें,
नैना खूबई सेकें जालम।
सुनतइ नईं थे बरज रए हम,
लाड़ लड़ाउत रए सौक सें,
करत इसारे छिपे ओट सें,
भए गुमसुम ज्यों फूट गओ बम।
मोबाइल लए साँझ-सकारे,
कैते संग हमाए देखो,
बैरन ननदी आँख दिखा रई।
इतै कूप उत खाई दुआरे,
बिधना बिपद हमाई लेखो,
अतपर लरकोरी आफत भई।
१५-१२-२०२३
***
बुंदेली सॉनेट
*
छंद- चौकड़िया, १६-१२, पदांत गुरु गुरु
*
बेंदी करत किलोरें बाला, बाला झूला झूलें,
अँगुरी-अँगुरी सोहे मुँदरी, नथ बिजुरी सम चमकें,
गोरी-चिक्कन देह लता सी, दिप-दिप जब-तब दमकें,
कजरा से कजरारी अँखियाँ, बाँके गलियाँ भूलें।
खन खन खनक न जाने कैती का का चूरी ऊलें,
'आँचर धरो सँभार ननदिया' भौजी बम सी बमकें,
बीर निहोरें कछू नें कइयो, लरकौरी में इनकें,
सूनी खोरें भईं सकारे, मन-मन मन्नत हूलें।
पैंजन खाए चुगली बज खें, नैना झुक के बरजें,
गाल लाल भय छतिया धड़की, लगे साँस रुकती सी,
भोले बाबा किरपा करियो, इतै न कोऊ झाँके।
मेघा छाए आसमान में, गड़ गड़ खूबई गरजें,
गाँव-गली में संझा बिरिया मनो रुकी झुकती सी,
अनबोले लें बोल-समझ जाने काअ बाँकी-बाँके।
१५-१२-२०२३
*
बुंदेली लोकोक्तियां / कहावतें
अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई
इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आंखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ
ईंगुर हो रही
उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं
ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो
एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं
ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत
ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत
कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो‌‌
का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आंख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये
कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत
कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये
कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो
खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका
गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे
घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आंख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात
चतुर चार जगां से ठगाय जात
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ
छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत
जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस
झरे में कूरा फैलाबो
टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स
ठांडो‌ बैल, खूंदे सार
ढ़ोर से नर्रयात
तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात
तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो
थूंक कैं चाटत
दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात
धरम के दूने
नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार
पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आंखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो
बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत
मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार
रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत
लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी
सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की
हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये सोई जो राम रचि राखा
***
सॉनेट
आशा पुष्पाती रहे, किरण बखेर उजास।
गगन सरोवर में खिले, पूनम शशि राजीव सम।
सुषमा हेरें नैन हो, मन में खुशी हुलास।।
सुमिर कृष्ण को मौन, हो जाते हैं बैन नम।।
वीणा की झंकार सुन, वाणी होती मूक।
ज्ञान भूल कर ध्यान, सुमिर सुमिर ओंकार।
नेत्र मुँदें शारद दिखें, सुन अनहद की कूक।।
चित्र गुप्त झलके तभी, तर जा कर दीदार।।
सफल साधना सिद्धि पा, अहंकार मत पाल।
काम-कामना पालकर, व्यर्थ न तू होना दुखी।
ढाई आखर प्रेम के, कह हो मालामाल।
राग-द्वेष से दूर, लोभ भुला मन हो सुखी।।
दाना दाना फेरकर, नादां बन रह लीन।
कर करतल करताल, हँस बजा भक्ति की बीन।।
१६-१२-२०२१
***
त्वरित कविता
*
दागी है जो दीप, बुझा दो श्रीराधे
आगी झट से उसे लगा दो श्रीराधे
रक्षा करिए कलियों की माँ काँटों से
माँगी मन्नत शांति दिला दो श्रीराधे
१६-१२-२०१९
***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
आयुर्वेद
हृदय रोग चिकित्सा- पीपल पत्ता
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के १५ हरे-कोमल पत्तों का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।
सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद इस काढ़े की तीन खुराकें प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए। लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें। अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता ह, संभवत: पीपल-पत्र का हृदयाकार यही बताता है।
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
१६-१२-२०१४
***
वंशी और वास्तु :
(बांसुरीवादन व स्थापन से वास्तुदोष परिहार)
वंशी का पौराणिक इतिहास:
भगवान श्रीकृष्ण और वंशी एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, प्रभु श्रीकृष्ण की वंशी तो शब्दब्रह्म का प्रतीक है। ऐसा भी समझा जाता है कि बांसनिर्मित वंशी के आविष्कारक संभवतः कन्हैयाजी ही हैं | साथ-साथ ऐसा भी कहा जाता है की ब्रह्मा के किसी शाप वश उनकी मानस पुत्री माँ सरस्वती को बॉस रूपी जड़रूप में धरती पर आना पडा था किन्तु किसी संयोग वश जड़ होने से पूर्व उन्होंने एक सहस्त्र वर्ष तक भगवत-प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का वरदान दिया | तब उन्होंने ब्रह्माजी के शाप का स्मरण करके प्रभु से कहा, " हे प्रभु! मैं तो जड़बांस के रूप में जन्म लेने के लिए श्रापग्रस्त हूँ |" यह सुनकर प्रभु ने कहा, "यद्यपि तुम्हें जन्म चाहे जड़ रूप में मिलेगा, तथापि मैं तुम्हें अपनाकर तुम में ऐसी प्राण-शक्ति अवश्य भर दूंगा जिससे तुम एक विलक्षण चेतना का अनुभव करके अपनी जड़ों को सदैव के लिए चैतन्य बनाए रख सकोगी |" तब से इस जगत में प्रभु के अधरों पर वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी के रूप में वस्तुतः ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी ही निरंतर विराजमान हैं | वंशी या बांसुरी का वर्णन सबसे पहले सामवेद में ही मिलता है | वस्तुतः बांसुरी संगीत के सप्त स्वरों की एक साथ प्रस्तुति का सर्वोत्तम वाद्ययंत्र है |
वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी की मधुर धुन तन-मन को परमानंद से भर देती है | यह क्या जड़ क्या चेतन सभी के मन का हरण कर लेती है इसके गीत की धुन सुनकर गोपियाँ अपनी सुध-बुध तक खो बैठती थीं. गोपियाँ तो गोपियाँ, वहां की सारी गायें तक इस धुन से आकर्षित होकर कन्हैया के सम्मुख आ उपस्थित होती थीं | वंशी की तान सुनकर आज भी हम सभी को असीमित आनंद की अनुभूति होती है | कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के लिए इसे बजाने से पूर्व एक बार इसकी अभूतपूर्व परीक्षा भी ली थी | एक दिन उनके वंशीवादन करते ही वास्तव में यमुना की गति ही रूक गई तदनंतर एक दिन वृन्दावन के पाषाण तक वंशी ध्वनि का श्रवण कर द्रवीभूत हो उठे साथ-साथ पशु-पक्षी व देवताओं के विमान आदि की गति भी रूक गई, जिससे सभी स्तब्ध हो उठे | इस प्रकार जब वंशी की पूर्ण परीक्षा हो गई तब श्यामसुन्दर ने अपनी ब्रजगोपांगनाओं के लिए वंशी बजाई | जिन ब्रजदेवियों ने वंशीगीत सुना वे सभी अपनी सुधबुध ही खो बैठीं साथ-साथ उन सभी के अंत करण में किशोर श्यामसुन्दर का सुन्दर मनोहारी स्वरूप विराजमान हो गया | ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र आदि ने भी उस वंशी का सुर सुना, वे सभी एक विशेष भाव में मुग्ध तो हुए, उनमें से किसी-किसी की समाधि भी भंग हुई परन्तु वंशी का तात्विक रहस्य निश्चिंत रूपेण उस समय किसी को भी ज्ञात न हो सका | यह भी कहा जाता है कि एक बार राधा जी ने बांसुरी से पूछा, "हे बांसुरी! यह बताइये कि मैं कृष्ण जी को इतना प्रेम करती हूं, फिर भी मैं अनुभव कर रही हूँ कि मेरे श्याम मुझसे अधिक तुमसे प्रेम करते है, वह तुम्हे सदैव ही अपने होठों से लगाये रखते है, इसका क्या राज है? तब विनीत भाव से बांसुरी ने सुरीले स्वर में कहा, "प्रिय राधे! प्रभु के प्रेम में पहले मैंने अपने तन को कटवाया, फिर से काट-छाँट कर अलग करके जलती आग में तपाकर सीधी की गई, तद्पश्चात मैंने अपना मन भी कटवाया, अर्थात बीच में से आर-पार एकदम पूरी की पूरी खाली कर दी गई | फिर जलते हुए छिद्रक से समस्त अंग-अंग छिदवाकर स्वयं में अनेक सुराख़ करवाये | तदनंतर कान्हा ने मुझे जैसे बजाना चाहा मै ठीक वैसे ही अर्थात उनके आदेशानुसार ही बजी |अपनी मर्ज़ी से तो मैं कभी भी नहीं बज सकी | बस हममें व तुममें एकमात्र यही अंतर है कि मैं कन्हैया की मर्ज़ी से चलती हूं और तुम कृष्णजी को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहती हो!" वस्तुतः यह प्रेम में त्याग व समर्पण की पराकाष्ठा है | वंशी हमें सदैव यही सन्देश देती है कि हम अपने प्रभु की इच्छानुसार ही सत्कर्म करके अपना जीवनमार्ग प्रशस्त करें ! यह कदापि उचित नहीं कि हम अपने हठयोग से उन्हें विवश करें कि प्रभु हमारे जीवनमार्ग का निर्धारण हमारी इच्छानुसार ही करें |
वास्तु दोष परिहार :
एक समय था जब अधिकाँश घरों में कोई न कोई व्यक्ति वंशी बजाने में प्रवीण होता ही होता था | यहाँ तक कि अपने लोक गीतों में भी कहा गया है कि "देवर जी आवैं वंशी बजावैं" किन्तु आज के आधुनिक दौर में अपने देश में गिने चुने बांसुरीवादक ही रह गए हैं जबकि विदेशों में इसे अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | चायना जैसे देश में तो अधिकांश लडकियाँ तक बांसुरी वादन में प्रवीण हैं वहां की वास्तु विद्या फेंगशुई के अनुसार वास्तु दोष के निवारण हेतु बांस की बांसुरी का प्रयोग अति उत्तम है लो पिच पर उत्पन्न की गयी इसकी शंख समान ध्वनि से आस-पास के वातावरण में व्याप्त सूक्ष्म वायरस तक नष्ट हो जाते हैं | यह धनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जिसकी उपस्थिति में नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है | फेंग-शुई में ऐसी मान्यता है कि इसे लाल धागे में बाँध कर भवन के मुख्य द्वार पर क्रास रूप में दो बांसुरी एक साथ लगाने से भवन में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता है और अचानक आने वाली मुसीबतें दूर हो जाती हैं | शिक्षा, व्यवसाय या नौकरी में बाधा आने पर शयन कक्ष के दरवाजे पर दो बांसुरियों को लगाना शुभ फलदायी होता है | ऐसी भी मान्यता है कि बीम के नीचे बैठकर काम करने, भोजन करने व सोने से दिमागी बोझ व अशान्ति बनी रहती है किन्तु उसी बीम के नीचे यदि लाल धागे में बांधकर बांसनिर्मित वंशी लटका दी जाय तो इस दोष का परिहार हो जाता है | बीमार व्यक्ति के तकिये के नीचे बांसुरी रखने से रोगमुक्ति होगी है | यह भी मान्यता है कि यदि घर के अंदर किसी तरह की बुरी आत्मा या अशुभ चीजों का संदेह हो तो इसे घर की दीवार पर तलवार की तरह लटकाकर इन चीजों से घर को मुक्त किया जा सकता है साथ-साथ यदि वैवाहिक जीवन ठीक न चल रहा हो तो सोते-समय इसे सिराहने के नीचे रखने से आपसी तनाव आदि दूर हो जाता है | जन्माष्टमी के दिन बांसुरी को सजाकर भगवान कृष्ण के समझ रखकर इसकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है | धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी अत्यधिक प्रिय है और वे इसे सदैव अपने साथ ही रखते हैं इसी कारण से इसे अति पवित्र व पूज्यनीय माना जाता है | यह भी भगवान् श्रीकृष्ण का वरदान ही है कि जिस स्थान पर बांसुरीवादन होता रहता है वह स्थान वास्तुदोष जनित दुष्प्रभावों व बीमारियों से पूर्णतः सुरक्षित रहता है | वहां पर परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक हो जाते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है | बांसुरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है | इसी वजह से जिस घर में बांस निर्मित बांसुरी रखी होती है वहां पर प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है साथ साथ सभी दुःख व आर्थिक तंगी भी दूर हो जाती है |
सहज उपलब्धता :
बजाने योग्य वंशी आमतौर पर वाद्ययंत्रों की दुकानों पर सहजता से उपलब्ध हो जाती है | वैसे तो अक्सर किसी भी मेले में बांसुरी बेचने वाले दिखाई दे जाते हैं किन्तु उनके पास बहुत छाँट-बीन करने के उपरान्त भी बहुत कम ही बजाने योग्य बाँसुरियाँ उपलब्ध हो पाती हैं | कुंछएक बैंड की दुकानों पर भी बिक्री के लिए यह उपलब्ध हो जाती है | इसके विभिन्न ट्यून की तेरह, अठारह व चौबीस बांसुरियों के ट्यून्ड सेट भी उपलब्ध हो जाते हैं जिनकी अधिकतर आपूर्ति उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर से की जाती है | नबी एण्ड संस यहाँ के प्रमुख बांसुरी निर्माता हैं जो विदेशों तक में बांसुरी का निर्यात करते हैं | पीलीभीत को बांसुरी नगरी के नाम से भी जाना जाता है |
कुछ प्रसिद्द व प्रमुख बांसुरी वादक :
भगवान् श्रीकृष्ण (सर्वश्रेष्ठ बांसुरी वादक)
पंडित पन्नालाल घोष
पंडित भोलानाथ
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित रघुनाथ सेठ
पंडित विजय राघव राव
पंडित देवेन्द्र
पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर
पंडित रोनू मजूमदार
पंडित रूपक कुलकर्णी
बांसुरी वादक श्री राजेंद्र प्रसन्ना
बांसुरी वादक श्री एन रामानी
बांसुरी वादक श्री समीर राव
पंडित प्रमोद बाजपेयी (वरिष्ठ एडवोकेट)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री भारत सरकार)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री लालकृष्ण आडवानी (वरिष्ठ राजनेता)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री मुक्तेश चन्द्र (पुलिस कमिश्नर)
बांसुरी वादक श्री बलबीर कुमार (कनॉट प्लेस सब वे पर बांसुरी विक्रेता व बांसुरी-शिक्षक) आदि..
आज के दौर में बांसुरी वादकों की संख्या बहुत ही कम रह गयी है | कहीं-कहीं पर ये खोजने से भी नहीं मिल पाते हैं | इसका प्रमुख कारण हमारे संस्कारों की क्षति व पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है | हमारी सरकारों व समाज को इस ओर ध्यान देकर बांसुरीवादकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए |
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४

*

रविवार, 15 दिसंबर 2024

दिसंबर १५, माँ, नवगीत, मुक्तक, चौपदे, मुक्तिका, करुणेश

सलिल सृजन दिसंबर १५
*
मुक्तिका 
'शुभ्रा' 'अंत:सलिला' प्रवहित, 'छंद पयस्विनि' धार। 
'आँगन का पंछी' 'गौरैया', जाना चाहे पार।। 
'शब्दों के रुद्राक्ष' 'बेटियाँ' ले रचतीं संसार- 
'कब जन्मे ये गीत' 'प्रीति के धागे' बँध मनुहार।। 
'बंसी माधुरी' बसा कन्हैया लखे 'कल्पतरु' मौन। 
समय कुतर 'अनुभूति-पंख' बिन रास गया खुद हार।। 
कवि के उर से 'बरसे करुणा छलके सोम' निरंतर। 
उतर 'महादेवी' अंबर से, करें काव्य शृंगार।। 
जीव बने संजीव बिना 'मैत्रेयी' कहिए कैसे?
मन बैठा 'करुणेश' व्यथा तज, मुस्काए कर प्यार।। 
(मुक्तिका में कविवर प्रद्युम्न नाथ तिवारी 'करुणेश' की पुस्तकों के नाम समाहित हैं।)
१५.१२.२०२४   
०००  
मुक्तक
हर दिन होली, रात दिवाली हो प्यारे
सुबह - साँझ पल हँसी-ख़ुशी के हों न्यारे
सलिल न खोने - पाने में है तंत अधिक
हो अशोक सद्भाव सकल जग पर वारे
***
नवगीत
अंधे पीसें
*
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
शीर्षासन कर सच को परखें
आँख मूँद दुनिया को निरखें
मनमानी व्याख्या-टीकाएँ
सोते - सोते
ज्यों बर्राएँ
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
आँखों पर बाँधे हैं पट्टी
न्याय तौलते पीकर घुट्टी
तिल को ताड़, ताड़ को तिल कर
सारे जग को
मूर्ख बनायें
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
तुम जिंदा हो?, कुछ प्रमाण दो
देख न मानें] भले प्राण दो
आँखन आँधर नाम नैनसुख
सच खों झूठ
बता हरषाएं
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
१२ - १२- २०१५
***
माँ को अर्पित चौपदे
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ
.
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ
खेल-कूद शाला नटखटपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ
.
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ
.
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ
.
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ
***
नवगीत:
पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
.
चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी
बढ़े अंकुर।
.
आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें
नये सपने सजाते।
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार
बूँदें पियें गिन-गिन
तने से ले अकड़ खांटी
उड़े अंकुर।
.
घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे
प्रथा तज फैसले ले।
द्रोण को ठेंगा दिखाते
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार
फूलकर खिल फूल होते
हँसे अंकुर।
.
***
नवगीत :
कैंसर!
मत प्रीत पालो
.
अभी तो हमने बिताया
साल भर था साथ
सच कहूँ पूरी तरह
छूटा ही नहीं है हाथ
कर रहा सत्कार
अब भी यथोचित मैं
और तुम बैताल से फिर
आ लदे हो काँध
अरे भाई! पिंड तो छोड़ो
चदरिया निज सम्हालो
.
मत बनो आतंक के
पर्याय प्यारे!
बनो तो
आतंकियों के जाओ द्वारे
कांत श्री की
छीन पाओगे नहीं तुम
जयी औषधि-हौसला
ले पुनः हों हम
रखे धन काला जो
जा उनको सम्हालो
.
शारदासुत
पराजित होता नहीं है
कलमधारी
धैर्य निज खोता नहीं है
करो दो-दो हाथ तो यह
जान लो तुम
पराजय निश्चित तुम्हारी
मान लो तुम
भाग जाओ लाज अब भी
निज बचालो
१५-१२-२०१४
.