कुल पेज दृश्य

शनिवार, 4 मई 2024

मई ४, विमर्श दोहा विधान, नवगीत, दृढ़पत/उपमान छंद, हरि छंद, मुक्तक

सलिल सृजन मई ४
*
दोहा सलिला

दोहा ने दोहा सदा, शब्द-शब्द का अर्थ.
दोहा तब ही सार्थक, शब्द न हो जब व्यर्थ.
*
तेरह-ग्यारह; विषम-सम, दोहा में दुहराव.
ग्यारह-तेरह सोरठा, करिए सहज निभाव.
*
कुछ अपनी कुछ और की, बात लीजिए मान.
नहीं किसी भी एक ने, पाया पूरा ज्ञान.
*
सुन ओशो की देशना, तृप्त करें मन-प्यास.
कुंठाओं से मुक्त हो, रखें अधर पर हास.
*
ओ शो मत कर; खुश रहो, ओशो का संदेश.
व्यर्थ रूढ़ि मत मानना, सुन मन का आदेश.
*
ओ' शो करना जरूरी, तभी सके जग देख.
मन की मन में रहे तो, कौन कर सके लेख?
*
कुछ सुनना; कुछ सुनाना, तभी बनेगी बात.
अपने-अपने तक रहे, सीमित क्यों जज़्बात?
*
गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक.
सहज गेय जो वह सही, माने बुद्धि-विवेक.
Binu Bhatnagar- गेय तो मुक्त छँद भी हो सकता है यदि संगीतकार गुणी है तो

संजीव वर्मा 'सलिल'- मुक्त छंद गेय हो सकता है, छंद हीन गेय नहीं हो सकता. संगीतकार आलाप-मुरकी आदि जोड़कर कमियों को दूर करने के बाद गाता है.

Binu Bhatnagar- जी यही तो मैं कह रही हूँ योग्य संगीतकार के पास इतने साधन होते हैं कि वह गद्य को भी गेय बना सकता है।अलाप, तराना, ताने, वाद्य संगीत कोरस, पुनरावृत्ति, आकार इत्यादि।संगीतकार भी ताल की बंदिश के परे नहीं जा सकता। छँद के नियमों से से गला न घुटे इसलिये तो छँद के बंधन टूटे थे।संगीत में भी सवाल है कि रैपिंग क्या संगीत है?

डॉ. पुष्पा जोशी- सच कहा आदरणीय!

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- मात्राओं या वर्णों की गणना, यति, गति, लय आदि के नियमों में आबद्ध पद्य-रचना ही छ्न्द है। ये बंदिशें छन्द के गले का फंदा नहीं, उसका सुरक्षा-कवच हैं, आभूषण हैं। जो इन्हें साध नहीं पाते, वे इन्हें छंन्द का बंधन मानते हैं और मुक्तछंद या छंन्दमुक्त रचना की वकालत करते हैं। अशुद्ध छंन्द लिखने से अच्छा है, वे छंदहीन रचना करें !

संजीव वर्मा 'सलिल'- कौन क्या, कब और कैसे लिखे यह कहने का अधिकार किसी अन्य को है क्या? अन्य अपनी पसंद और नापसंदगी की अभिव्यक्ति मात्र कर सकता है. छंद ही नहीं कोई भी रचना अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए की जाती है. अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी और ग्राह्य बनाने का एक (एकमात्र नहीं) उपकरण है छंद. उपकरण का प्रयोग कौन-कैसे करे यह उपयोगकर्ता की आवश्यकता, रुचि और सामर्थ्य पर निर्भर है. यहाँ चर्चा असंख्य छंदों में से एक दोहा के अनेक मानक विधानों में से एक विषम चरण के अंत में 'गण' प्रयोग को लेकर आरम्भ हुई है. एक पिंगलशास्त्री ने अपनी किताब में कोई नियम प्रस्तावित किया तो छंद उसका कैदी कैसे हो सकता है. वह लेखन जिस लय को साध सका उसने उसका विधान कर दिया. उसके पहले और उसके बाद भी अनेक काल जयी दोहकारों ने उस लय से हटकर भिन्न लय पर सैंकड़ों दोहे कहे जो लिखे जाने के सैंकड़ों साल आज भी पढ़े, कहे और सुने जा रहे हैं. उन दोहों का कथ्य, मर्म, भाव, रस, शिअल्प, बिंब, अलंकार सब शून्य केवल इसलिए कि विषम चरण का अंत भिन्न गण से किया गया. यह एकांगी दृष्टि सर्वथा त्याज्य है. विषम चरणान्त से उपजी लय भिन्नता को तुलसी, कबीर, बिहारी ने स्वीकारते हुए अपने दोहे कहे. मुझे गर्व है कि मैं इस परिवर्तनशील उदात रचना परंपरा का संवाहक हूँ. यह मेरा अधिकार है और इससे मुझे रोकने का किसी को अधिकार नहीं है. मैं छंद लिखता था, लिखता हूँ, लिखता रहूँगा और मुझसे सीखने वालों को इस संकीर्णता से दूर रहने की सीख भी दूंगा.
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- संजीव वर्मा 'सलिल' जी, मैंने भी अपने मत की अभिव्यक्ति ही की है और उसका अधिकार मुझे भी है। मुझसे भी उसे कोई छीन नहीं सकता। हाँ, मेरे मत से सहमत-असहमत होना पाठक का व्यक्तिगत अधिकार है ! माने या न माने, उसकी इच्छा !
संजीव वर्मा 'सलिल'- प्रिय बंधु! बात छंद के केवल एक बिंदु से आरम्भ हुई थी.खाने की थाली में चम्मच दाहिनी और हो या बायीं और और उस पर विमर्श में खाना न खाने की सलाह कितनी उचित है? दोहा का सर्वस्व 'विषम चरणान्त' नहीं है. सर्वाधिक प्रमुख बात है कथ्य, जिसके लिए दोहा कहा जा रहा है. वह पाठक तक पहुँचा या नहीं? पहुँचा तो लेखन असफल अन्यथा समस्त मानकों पर खरा होने पर भी लिखना निरर्थक. कथ्य पर ६०% अंक, शिल्प के ४०% अंक दो पंक्तियों, चार चरणों, ४८ मात्राओं, १३-११ पर यति, आरम्भ में जगण निषेध, अंत में गुरु-लघु की बाध्यता, संज्ञा, क्रिया, क्रम, काल आदि दोष न होना, अलंकार, मिथक, आदि के २-२ अंक ही होंगे. यदि विषम चरणान्त की भिन्नता को दोष मानें तो २ अंक ही तो काटेंगे. इस कारण से १०० में से १०० अंक काटकर छंद न लिखने का फतवा देना कितना उचित है???
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- यह अंक-विभाजन तो आपकी मर्जी के अनुसार हुआ है, जो छंद-दोष को कोई मान्यता नहीं देते। किसी छंदशास्त्री ने तो यह विभाजन किया नहीं है। अच्छा, इसे सही भी मानें, तब भी दो अंकों की कमी के कारण दोहा दोषपूर्ण तो कहा ही जायेगा। और अगर दोष रत्तीभर भी है, तब भी रसनिष्पत्ति में बाधा तो पहुँचती ही है। सम्प्रेषण भी सही हो और छंद में दोष भी नहीं रहे, ऐसा प्रयास तो करना ही चाहिए। लेकिन आप तो छन्द-साधना की तुलना खाने की थाली से कर रहे हैं। कमाल है ! अगर पेट भरना ही ध्येय है तो खप्पर में खानेवाले कापालिक भी भर लेते हैं, थाली की क्या आवश्यकता है ?
मनोज जैन- आदरणीय डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी से सहमत
संजीव वर्मा 'सलिल'- जिसे मोहन भोग में रूचि हो ग्रहण करे लेकिन उसे बाजरे की रोटी के तिरस्कार का अधिकार किसने दिया? जो किसी ने पहले नहीं किया वह आगे भी न किया जाए तो विकास ही रुक जाएगा और भाषा तथा छंद जड़ होकर रह जाएँगे. दृष्टांत और तुलना बात का बोध करने के लिए ही दी जाते हैं उन्हें रूढ़ार्थ में ग्रहण नहीं किया जाता, भावार्थ लिया जाता है. अति शुद्धता के आग्रह के कारण ही संस्कृत जैसी श्रेष्ठ भाषा लोक से दूर हो गई. अगणित रचनाकार छंद को गूढ़ बनाये जाने के कारण बहर की और पलायन कर गए.
मनोज जैन- आप लाख तर्क दें दोहा तो निर्दोष छंद में ही आनन्द देता है। आज भी संस्कृत लिखी पढ़ी और बोली जाती है यह बात और है कि इसे पूरी तरह उपयोग में लाने वालों की संख्या कम है। मेरा मानना यह है इस क्षेत्र में भी मूर्ख आचार्यो ने उल जलूल ज्ञान बांटना आरम्भ कर दिया जिन्हें शब्दों की तारीस का पता नहीं ऐसे लोगों को आचार्य मान लिया गया तब से विशुद्ध छंद साधकों के सामने संकट खड़ा हो गया ।
संजीव वर्मा 'सलिल'- जिसे जिसमें आनंद मिलता है ले, दूसरे को रोक या बाध्य कैसे कर सकता है? आप को जो दोहा पसंद न हो, न पढ़ें लेकिन कोइ अन्य भी न पढ़े, ना पसंद करे, न लिखे यह अधिकार कहाँ से मिलता है? मित्र या साहित्यप्रेमी होने के नाते अपनी बात रखें, दूसरे को भी रखने दें. 'कु' और 'मूर्ख' जैसे विशेषण क्यों? इनके बदले दूसरा भी ऐसी ही शब्दावली का प्रयोग करें तो दूरदर्शन पर नेताओं की बहसों जैसा दृश्य उपस्थित होना ठीक होगा क्या? मत भिन्नता को शालीनता से भी व्यक्त किया जा सकता है.
मनोज जैन- यह गलत हस्तक्षेप है कुतर्क से सत्य को ढ़कने की असफल कोशिश।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आपकी शब्दावली को देखते हुए आपको अपने से संवाद का अधिकारी नहीं मानता. पहले शिष्टाचार सीखें. अपशब्द कहना कमजोरी का लक्षण है.
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- संजीव वर्मा 'सलिल' जी, आप एक ओर तो अपने विचारों को मोहनभोग के मुकाबले बाजरे की रोटी कह रहे हैं, दूसरी ओर कुछ नया करने की इच्छा भी जता रहे हैं। नया करने का मतलब मनमानी करना या स्वच्छंद होना नहीं है। रही छन्द और बह्र की बात , तो शायद आप बह्र के बारे में जानते ही नहीं हैं, केवल नाम सुन रखा है। वह तो छंद से भी कठिन है !
संजीव वर्मा 'सलिल'- हस्तक्षेप आप कर रहे हैं.
मनोज जैन- संजीव वर्मा 'सलिल' जी सर हम तो अपनी बात कह कर जा रहे हैं यहाँ से क्षमा सहित।
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे बदतमीज का यहाँ न रहना ही ठीक है.

मनोज जैन- जी सर यह एक आचार्य की भाषा है स्वयं के लिए विचारणीय!!! आपके शब्द आपको अर्पित
संजीव वर्मा 'सलिल'- जो बोया सो काटिए। अभद्रता का आरंभ अपने ही किया था।
मुरारि पचलंगिया- सही चेतावनी
अवनीश तिवारी- छंद नियम एक तरह का अनुशासन है। बिना अनुशासन के कोई प्रयास सफल नही होगा।
Sujeet Kumar Srivastava- छंद कोई कविता की अनिवार्य शर्त नहीं है।कई कविताएं बिना छंद के भी गेय होती हैं।स्केल लेके मात्रा नापते रहें चाहे भाव हो या नहीं।हिंदी की हालत बहुत खराब है।बहुत महान कवि हैं जो मुक्त धारा में लिखे और खूब पढ़े गए।केदार नाथ सिंह,अमृता प्रीतम ,यहां तक कि कई फिल्म के गीतकारों ने मात्रा नापके नहीं लिखा।अपने भाव को व्यक्त करिये चाहे जैसे।कविता को छंद के नियम से लिखें तो भी ठीक और न लिखे तो भी ठीक।ज्यादा विद्वता और तर्क भक्ति और भाव को खा जाती है।ये मेरा निजी विचार है।मैं कवि नहीं हूं। मैथ्स का प्रवक्ता हूं।जो मन में था लिख दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'- धन्यवाद सुजीत जी . मैं भी गणित का विद्यार्थी, पेशे से अभियंता हूँ. इसलिए जानता हूँ कितनी गणना हो कितनी व्याख्या.
Sujeet Kumar Srivastava- धन्यवाद।मैं आप जैसा विद्वान नहीं हूं हिंदी का।जो मन में था वो कह दिया।कोई इसका संवैधानिक नियम तो है नहीं कि कविता की अनिवार्य शर्त क्या हो और न ही कोई इसका सर्वमान्य देवता।
संजीव वर्मा 'सलिल'- छंद का विधान तो होता है, उसका पालन करना भी चाहिए. विधान की व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं. सडक पर बाएं चलना चाहिए. बायीं और की सडक खुदी हो और आप दाहिने से चलें, कोई कहे बाएं से ही जाओ. तो गलत होगा न? अनुशासन सामान्य स्थिति के लिए है, जिसे आवश्यकतानुसार बदला भी जा सकता है.
Sujeet Kumar Srivastava- सही है।आप एक छंदशास्त्री हैं।अपनी बात मनवाके ही रहेंगे।बहुत अच्छा लगा।आप हमसे उम्र में बड़े हैं।विद्वान हैं।आनंद आ गया।जय श्री कृष्ण
संजीव वर्मा 'सलिल'- नहीं बंधु! मैं विद्यार्थी मात्र हूँ. मेरे घर में पानी भर जाए तो मैं अन्य के घर को अपना नहीं कह सकता. अपने घर में हे एराहना होगा. घर छंद का विधान है, सडक व्याख्या. विमर्श का आशय यह समझना है कि मेरी समझ तो गलत नहीं? विधान का पालन करते हुए, लयबद्ध रहते हुए लीक से यत्किंचित हटना भी अस्वीकार कर देने पर छंद की हानि है. नव रचनाकाए छंद को असाध्य मानकर छ्न्धीनाता की और या ग़ज़ल की और चले जाते हैं. अस्तु. आपकी सह्रदयता को नमन .
Sujeet Kumar Srivastava- प्रणाम।जय सिया राम।अति आनंद।अभी मैं करीब दो वर्ष पहले काठमांडू में एक बड़ी श्री रामकथा कह रहा था तो वहां भी कई विद्यार्थी कथा के अंतिम दिन कविसम्मेलन किये ।अच्छा लगता है कि आज विदेशों में कविताएं लिखी जा रहीं हैं।मुख्य मुद्दा यह है कि हिंदी विश्व भाषा बने।आपसे बात करके अच्छा लगा। सादर प्रणाम
संजीव वर्मा 'सलिल'- जी, मुझे भी आनंद मिला. श्री चित्रगुप्त कथा भी करते हैं क्या? जय श्री चित्रगुप्त.
Sujeet Kumar Srivastava- आपके आशीर्वाद से हमको अमेरिका में पुरस्कार मिला है।
संजीव वर्मा 'सलिल'- मेरा सौभाग्य आपसे चर्चा का अवसर मिला.
Sujeet Kumar Srivastava- Sharma Chandra Kanta बहन जी सही बात है। मैं विद्वान हूं ही नहीं। मैं तो बहुत साधारण व्यक्ति हूं। कोई किसी के जैसा बन नहीं सकता। आपने कई जन्मों की बात की है। आपकी यह प्रतिक्रिया श्री संजीव सर के प्रति सम्मान को दिखाता है। मैं भी उनका बहुत बड़ा प्रशंशक हूं। बहन जी माफ करना इतना क्रोध और त्वरित टिप्पड़ी से बचना चाहिए।जय सीता राम।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आप दोनों को सादर नमन. मुझ सामान्य विद्यार्थी का सौभाग्य कि दो विद्वान स्नेहाशीष की वृष्टि कर रहे हैं. निवेदन मात्र यह कि चर्चा किसी अन्य सार्थक बिंदु पर हो
Sujeet Kumar Srivastava- Sharma Chandra Kanta आप बड़ी बहन जैसी हैं।सादर प्रणाम
संजीव वर्मा 'सलिल'- हम सब माँ शारदा की शरण में हैं. सभी कुछ न कुछ नित्य सीखते हैं. चंद्र कांता जी हिंदी की विभागाध्यक्ष और सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं. सुजीत जी कथा वाचक विद्वान हूँ. इन दो पाटों के बीच मैं बेचारा विद्यार्थी आशीष की कामना ही कर सकता हूँ. मो सम कौन कुटिल खल कामी,... क्षमा करो प्रभु अवगुन मोरे...
Sujeet Kumar Srivastava- संजीव वर्मा 'सलिल' अरे नहीं सर मैं आपसे उम्र में बहुत छोटा हूं।आप विद्वता से परिपूर्ण हैं।पिता तुल्य हैं।मेरे पास भी कई विद्यालय है।एक बड़ा साम्राज्य है हमारा अभी और भी कार्य प्रगति पे है।कभी गोरखपुर आइए तो हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिये।अपना आशीर्वाद बनाये रखिये।चंद्रकांता दीदी बहुत बड़े सम्मानित पद को सुशोभित की हैं।आप दोनों का आशीर्वाद बना रहे यही अभिलाषा है।जय जय श्री राधे
संजीव वर्मा 'सलिल'- अपने विद्यालयों में हिंदी की कार्यशालाएं कर सकें तो नई पीढ़ी का भला हो. हिंदी व्याकरण, पिंगल और गद्य आदि की कार्यशालाएं हों. बच्चों को लेखन और हिंदी से अर्थोपार्जन की संभावनाएं बताई जाएं तो वे अंग्रेजी के अंध मोह से मुक्त होकर हिंदी के प्रति समर्पित होंगे. जब भी ऐसा कार्यक्रम हो बताएं, मैं आऊँगा और लाभ लूंगा. भगवन चित्रगुप्त पर भी प्रवचन माला होना चाहिए. हर वर्ष ३ से ५ दिन विविध विद्वान् बुलाये जा सकते हैं. एक सुझाव और- आजकल प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खोले जा रहे हैं. साधन हों तो एक निजी मेडिकल कोलेज खोलने का प्रयास करें जहाँ आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों का अध्ययन हो और नब्ज़ विज्ञान को विकसित किया जाए. यह क्रांतिकारी कदम होगा.
Sujeet Kumar Srivastava- संजीव वर्मा 'सलिल' सर मेरे पास बहुत बड़ी टीम है।देश विदेश में हमारे बहुत शिष्य है।मेरा ज्योतिष का,कथा का बहुत शानदार कार्य है।मैं प्रत्येक वर्ष दो बार विशाल कविसम्मेलन कराता हूं।अब तक मैंने सैकड़ो यज्ञ करवाये।अब आपके आदेश का पालन होगा चित्रगुप्त कथा भी करूँगा।अभी जून में मेरे मुम्बई और सूरत में बड़े अनुष्ठान हैं।जल्द ही एक बड़ा सेमिनार हिंदी पे करूंगा।आप सादर आमंत्रित हैं।आप अभिवावक हैं।आपको तो बिना बुलाये हमारे शहर आना चाहिए कार्यक्रम तो तुरंत हो जाएगा इतना संसाधन तो तुरंत हमारे पास है।जय सिया राम
संजीव वर्मा 'सलिल'- सहज पके सो मीठा होय. अवसर मिलते ही आता हूँ. गोरखपुर राष्ट्रीय कायस्थ महासभा के सम्मेलन में आया था लगभग ३०-३२ वर्ष पूर्व. चित्रगुप्त जी की मनोहारी प्रतिमा के भव्य दर्शन हुए थे. मैनपुरी में गाडीवान मोहल्ला में एक जुगलकिशोर मंदिर है. वहां लगभग ३०० वर्ष से अधिक पुरानी ढाई फुट की पीतल की मूर्तियाँ थीं जिन्हें चुरा लिया गया. उनका मूल्य करोड़ों रुपयों है. क्या प्रशासन पर दबाव डालकर, पुलिस से खोज कराकर फिर स्थापित कराया जा सकता है?
संजीव वर्मा 'सलिल'- 28-2-2018 को ठाकुर जुगल बिहारी जी महाराज की 126 साल पुरानी अष्टधातु की मूर्ति चोरी के विरोध में तिकोनिया पार्क कलेक्ट्रेट में धरना प्रदर्शन करते हुए जबकि राज्य में बीजेपी की सरकार है और 1 महीने से मूर्ति बरामद नही हो पाई है और मंचो पर खड़े होकर सिर्फ भाषण दिया जाता है और हकीकत यह है कि 126 साल पुरानी मूर्ति आज तक बरामद नही हो पाई है और बिडम्बना यह है कि किसी भी हिन्दूवादी संगठन का कोई भी समर्थन प्राप्त नही हुआ।
Sujeet Kumar Srivastava- प्रयास किया जाएगा।

संजीव वर्मा 'सलिल'- यह बहुत बड़ा मंदिर, पुरातत्व महत्त्व की इमारत है, लखौरी ईंटों की बनी हुई राजस्थानी महलों जैसी. राय बहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस' किसी समय मैनपुरी के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, शक्कर मीलों औए बैंक के डायरेक्टर थे. उनके बाबा के द्वारा बनवाया गया मंदिर है. वे गांधी जी के प्रभाव में रायबहादुरी लौटाकर सत्त्यग्रही हो गए थे. कुछ हो सके तो देखिएगा.

आदर्शिनी श्रीवास्तव- वही तो ......
मनोज जैन- आपका दोहा अशुद्ध है आपके ही छंद से दोहे का गला घुट रहा है ।
मनोज जैन- गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक. / सहज गेय जो (वह सही), माने बुद्धि-विवेक.

यहां बड़ी गड़बड़ी कर दी आचार्य जी आपने।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आपका मत आपको मुबारक, आप मेरे परीक्षक नहीं हैं.


संजीव वर्मा 'सलिल'- प्रिय गौतम जी सब कुछ केवल आप ही जानते हैं, ऐसा भ्रम आपको मुबारक हो. मुझे कुछ नहीं आता, तो आप मुझे पढ़कर आप अपना समय क्यों खराब कर रहे हैं? मत वैभिन्न्य स्वाभाविक है. उसे लेकर अन्य की जानकारी पर प्रश्न लगाना कितना उचित है? शांत मन से सोचें. जब संयम न रहे तो चर्चा बंद करना ही उचित है. जैसे आपको मेरा मत अस्वीकार्य है वैसे ही मुझे भी आपका मत अस्वीकार्य है.
मनोज जैन- संजीव वर्मा 'सलिल' जी कमजोर आदमी की पहचान जल्दी उबाल आ जाता है।
संजीव वर्मा 'सलिल'- तभी तो आपमें आया और आपने 'कु' और' मूर्ख' का उपयोग किया मैंने तो इसे बदतमीजी मात्र कहा है. इसे शिष्टाचार आप मानते होंगे, मुझे सामनेवाले को कम आँकने और अपशब्द कहने की आदत नहीं है.
मनोज जैन- नहीं किसी व्यक्ति विशेष के सम्बंध में मेरा यह कथन है ही नहीं ।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आप ऊपर अपना कथन पढ़ लें. मुझे किसी से किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है. स्वांत: सुखाय लिखता हूँ. अभिव्यक्ति का अधिकार भारत का संविधान देता है. विमर्श का सदा स्वागत है आरोपों और अशिष्टता का नहीं.
मनोज जैन- मैं तो अभी भी संयत ही हूँ।चर्चा होती है मत भिन्नता हो सकती है मन भेद नहीं होना चाहिये।

आप अपनी पोस्ट पढ़ें आपके स्तर पर जाकर भाषा का प्रयोग तो मैंने किया ही नहीं। आप कभी संकल्प रथ पत्रिका की सम्पादकीय पढ़ लीजिये मूर्ख/ दो कौड़ी शब्द कई स्थान पर मिलेगें लेकिन पूरा साहित्य जगत कभी बुरा नहीं माना
संजीव वर्मा 'सलिल'- जी मैने एक भी आरोप नहीं लगाया न ही कम आँका।
मनोज जैन- और न ही अशिष्टता की ।
*
जिया जिया में बसा ले, दोहा छंद पुनीत.
दोहा छंद जिया अगर, दिन दूनी हो प्रीत.
[आचार्य प्रताप- प्रथम चरण में ११ वीं मात्रा लघु कर दें। शेष श्रेष्ठ सृजन।

सलिल- आवश्यकता नहीं है. विषम चरणान्त में 'सनर' के आलावा शेष यगण, तगण मगण आदि तुलसी, बिहारी, कबीर आदि ने भी रखे हैं. 'सनर' का परामर्श भानु जी ने नवोदितों के लिए दिया है. मैं एक सतसई उन्हीं दोनों की तैयार कर रहा हूँ जिनमें 'सनर' बंधन न हो. किसी एक रचनाकार की अनुशंसा दोहा को बंदी नहीं बना सकती. भानु जी ने भी अन्य गण वर्जित नहीं बताए हैं. यह व्याख्या परवर्ती दोहकारों ने थोप दी है. मैं इसे अस्वीकार करता हूँ.

कवि राजवीर सिकरवार- स्वर अवरोध व प्रवाह सही करने के लिए तो करना आवश्यक है, अन्यथा आपका सृजन है, जैसा करें । आगे पीछे कौन क्या लिख गया है, इसे छोड़ कर,हम धारा प्रवाह लिखने का संदेश देने का प्रयास करें,जय श्री कृष्ण ।

सलिल- मुझे इसे पढ़ने में न तो स्वर अवरोध प्रतीत होता है, न प्रवाह रुद्ध होता है. ऐसा होता तो तुलसी, कबीर, बिहारी और अन्य महान दोहकारों ने बीसियों दोहों में यह गण न रख होता. छंद प्रभाकर में कई छंदों में अनावश्यक बंधन थोपने का दुष्प्रभाव है कि उसके बाद हिंदी में छंद शास्त्र की एनी मौलिक पुस्तक नहीं आ सकी. जो भी पुस्तकें आईं वे छंद प्रभाकर को आधार बना कर ही लिखी गईं. किसी विषय का विकास उसमें नव प्रयोगों से होता है. लीक पीटने मात्र से नहीं.

कवि राजवीर सिकरवार जिया जिया में ले बसा, / कर के पढ़ें आदरणीय । संगीत का जानकार ही इसे समझ सकता है । पता नहीं आपका संगीत कैसा है ।

सलिल'- क्यों? यह तो मैं कर सकता था, किन्तु 'सनर' की झूठी बाध्यता को ही तोड़ना है. एक सतसई ही लिख रहा हूँ जिसमें विषम चरणान्त में 'सनर' को छोड़ शेष ५ गण होंगे. सभी दोहे गेय और लय में होंगे. यह तो मैं भी कह सकता हूँ कि आपका संगीत पता नहीं कैसा है जो तुलसी, कबीर और बिहारी के दोहों को नहीं पचा पाता .

आचार्य प्रताप- हो सकता मुझे कम जानकारी हो किन्तु इतना तो कह सकता हूँ कि इस दोहे में लय बंधित है #आचार्य_महोदय

ये बात तो कह सकता हूँ कि जो व्यक्ति बनाए गए रास्ते पर चलता है वह कुछ नहीं कर सकता किन्तु जो राह बनाता है वह ही नाम कमाता है। आपका तथ्य सही है कि आप ऐसे सात सौ दोहे तैयार कर रहे हैं।हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ।
हो सकता है आगे ऐसा लिखा जा सके। मैं अल्पज्ञ हूँ #सनर। का अर्थ नही समझ पा रहा हूँ कृपया प्रकाश डालिए। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी व आचार्य कवि राजवीर सिंह भारती जी।। शुभम् अस्तु ।।
सतसईं को लक्ष्य बना, दोहे लिखो हजार।
यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- राहुल प्रताप सिंहः प्रताप जी, आपका प्रथम चरण भी लय-बाधित है। इसे 'लक्ष्य सतसई को बना' अथवा 'लक्ष्य बनाकर सतसई' कर सकते हैं ! लय तभी शुद्ध हो सकती है जब त्रिकल के बाद त्रिकल का प्रयोग हो !

आचार्य प्रताप- लक्ष्य सतसई को बना, दोहे लिखो हजार।
यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।... आभार रहेगा आपका आदरणीय

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- 'यार' शब्द अच्छा नहीं लगता, 'तुम यार' के स्थान पर 'हर बार' कैसा रहेगा ? 'अरु' शब्द ब्रजभाषा का है, जो खड़ी बोली की रचना में फिट नहीं बैठता । इसके स्थान पर 'और' का लघु रूप औ' मान्य है। 'यति-गति-लय के नियम का' भी कर सकते हैं।

आचार्य प्रताप- औ' शब्द अधिकाधिक उर्दू भाषा में प्रयोग होने के कारण प्रयोग न ही कर रहें हैं ; बहुत से साहित्यकारों का मानना है।

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- राहुल प्रताप सिंह प्रताप जी, उर्दू में औ' नहीं ओ प्रचलित है -- रंज-ओ-ग़म = रंजोग़म, शान-ओ-शौकत = शानोशौक़त, रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया = रदीफ़ोक़ाफ़िया आदि।

श्रीधर प्रसाद द्विवेदी- लय जब बनती हो सुघर, लघु गुरु का क्या भेद। / दोहा दोहा ही लगे, कोई कहीं न खेद।।
संजीव वर्मा 'सलिल'- सहमत हूँ. दोहा के दो अनिवार्य तत्व कथ्य और लय हैं. शेष नियम इन दोनों को साधने के लिए सुझाए गए हैं. दोहे के २३ प्रकार एक ही लय में नहीं हैं. 'जिया जिया में बसा ले' में लय भंग नहीं है तो चरणांत में गण परिवर्तन का आग्रह बेमानी है. सिर्फ इसलिए कि किसी अन्य को यह लय पसंद नहीं. मैं शीर्ष दोहाकारों के अनेक कालजायी दोहे बता सकता हूँ जिनमें यह गण विधान और लय है.

श्रीधर प्रसाद द्विवेदी जी, सहमत।

Binu Bhatnagar- आपकी व्याख्या तो समझ मे नहीं आई परंतु दोहे मे दोष नहीं है ये पढ़ कर लय से पता चल जाता है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- मेरा नम्र निवेदन भी यही है कि दोहे के विषम चरण के अंत में आठों गण में से किसी को भी रखकर ठीक लय में दोहा कहा जा सकता है.

Binu Bhatnagar- आपका कहने का अर्थ यह है कि सिर्फ पहले गण सही हों चरण के अंत मे लघु दीर्घ अनिवार्य नहीं है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- नहीं विषम चरण के अंत पर चर्चा है. १३३ मात्रिक विषम चरण के अंत में सगण, रगण या नगण रखने का परामर्श जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने छंद प्रभाकर में दिया है किन्तु अन्य गण न रखें, यह वर्जना नहीं की है. भानु के पहले और बाद में भी अनेक दोहाकारों ने विषम चरण के अंत में अन्य गण (यगण, मगण, तगण जगण, भगण) का प्रयोग किया है और लय भिन्न तो हुई भंग नहीं हुई है. गुरु लघु की अनिवार्यता सम चरण (ग्यारह मात्रिक) के अंत में है. उस पर चर्चा नहीं है. मित्रों को आपत्ति 'जिया जिया में बसा ले' पर है. वे कहते हैं इसमें दोष है जो 'जिया जिया में ले बसा' करने पर दूर हो जाता है. मेरी इससे असहमति है. आप ही बताएँ 'जिया जिया में बसा मे' में लय कहाँ और कैसे भंग होती है?

Binu Bhatnagar- यगण सगण मुझे याद नही रहते पर पहले और तीसरे चरण के अंत में लघु दीर्घ रखना है और दूसरे व चौथे के अंत में दीर्घ लघु। चरण के शुरुआत के नियम मुझे याद नहीं रहते लय के अनुसार करती हूँ पहले ग़लतियां होती थी अब ठीक बैठते है। मैं मात्रा गिनकर दोहा नहीं बनाती, दोहा बनाकर मात्रा गिनती हूँ ९९% से ज्यादा ठीक ही रहती है ये तकनीक।

Trivendra Dhar Badgaiyan- दोहा लिखते जाइए, है अद्भुत यह छंद।/ बड़ी बात कह देत है, शब्द लगें बस चंद।

Binu Bhatnagar- दोहे अति प्रिय हैं मुझे, दोहों में हो सार, / इच्छा मेरी है कभी, हो सतसइ तैयार।आचार्य प्रताप #दोहा- लक्ष्य सतसई को बना, दोहे लिखो हजार।/ यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।

Binu Bhatnagar- अवश्य शुक्रियाSantosh Shukla- बहुत ही सुंदर प्रस्तुति

लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'- सुंदर और सार्थक दोहा । वाह !

जिया जिया में जिया ले,दोहा जीवन छन्द। / दोहो में जीता नही, वह कैसा कवि-वृन्द।।

श्यामल सिन्हा- सही में,, दिन दूनी हो प्रीत, बहुत सुन्दर आद.
संजीव वर्मा 'सलिल'- दोहो में जिया नही १२?

लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'- जिया जिया में जिया ले,दोहा जीवन छन्द। / दोहो में जीता नही, वह कैसा कवि-वृन्द।।
डॉराजेन्द्र गौतम- मुझे तो लगता है कि लय और छंद की बहस पर मित्रों ने व्यर्थ ही इतनी ऊर्जा नष्ट कर दी। अर्थ पर ही पहले बात करते। एक तो सारी तुकबंदिया काव्य नहीं होती, दूसरे सूक्ति में भी संगति तो कम से कम हो। कोई छंद अपुनीत भी है क्या? फिर दोहे को पुनीत कहने का औचित्य? दोहा तो एक बर्तन है। उसमें द्रव्य कुछ भी रखा जा सकता है। दोहा छंद 'जीने' से दिन दूनी प्रीत की क्या संगति है? फिर जिया वाला यमक भी बहुत जम नहीं रहा।

संजीव वर्मा 'सलिल'- हम नासमझ ऊर्जा व्यर्थ कर रहे हैं तो समझदार अपनी ऊर्जा क्यों बर्बाद कर रहा है? उसे बचा कर रखे किसी उपयुक्त अवसर के लिए. दोहा का यमक दस पाठकों को ठीक लगा, दो पाठकों को ठीक नहीं लगा, यह स्वाभाविक है उन्हें अपनी-अपनी बात कहने का अधिकार है किन्तु भिन्न मत को कमतर आँकने का नहीं.

डॉराजेन्द्र गौतम- सलिल जी, नाराज़ होने की अपेक्षा जिज्ञासा शांत करते तो बेहतर होता। बिहारी का "पर्यो ज़ोर विपरीत...." वाला दोहा कितना पुनीत है? व्याकरणिक मसले दो और दस की वोटिंग से थोड़े तय होंगे।

संजीव वर्मा 'सलिल'- यही तो मैं भी निवेदन कर रहा हूँ मान्यवर! कि दोहा में विषम चरण की ग्यारहवीं मात्रा लघु रखने का निर्णय मुझ पर क्यों लादा जा रहा है? जब कबीर, तुलसी और बिहारी के ५० से अधिक दोहे इसे मानक नहीं मानते तो मुझे क्यों विवश किया जाए?

Abhigyan Shakuntalam- वाहहह

Dr-Nirupama Varma- आपके दोहे अविस्मरणीय होते हैं।

संजीव वर्मा 'सलिल'- आपकी संगत का प्रभाव है।

Dr-Nirupama Varma- संजीव वर्मा 'सलिल' यही विनम्रता तो आपको सबसे अलग करती है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- Dr-Nirupama Varma और आपके निकट ।

डॉ दीपिका महेश्वरी 'सुमन' बहुत सुन्दर।]

दोहा-दोहा विरासत:
संत कबीर दास
*
इस स्तंभ के अंतर्गत कुछ अमर दोहकारों के कालजयी दोहे प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनमें विषम चरण के अंत में 'सरन' के अतिरिक्त ने गण प्रयोग में लाए गए हैं. किसी एक पिंगल ग्रंत्ज की मान्यता के आधार पर क्या हम अपनी विरासत में मिले इन अमूल्य दोहा-रत्नों को ख़ारिज कर दें या इस परंपरा को स्वीकारते हुए आगे बढ़ाएं? विचार करें, अपने अभिमत के पक्ष में तर्क भी दें किन्तु अन्य के अभिमत को ख़ारिज न करें ताकि स्वस्थ्य विचार विनिमय और सृजन हो सके.
*
कबीर रोड़ा होइ रहु बात का, तजि मनु का अभिमान.
ऐसा कोई दासु होइ, ताहि मिलै भगवानु. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर पालि समूह सरवरु भरा, पी न सकै कोइ नीर.
भाग बड़े तो पाइ यो तू, भरि-भरि पीउ कबीर. विषम चरण पदांत यगण
*
कबीर मुद्धा मुनारे किया, चढ़हि साईं न बहिरा होइ.
जा कारण तू बाग़ देहि, दिल्ही भीतर जोइ. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर मनु जानै सब बात, जानत ही अवगुन करै.विषम चरण पदांत जगण
काहे की कुसलात, हाथ दीप कूए परै. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर ऐसा बीज बोइ, बारह मास फलंत. विषम चरण पदांत जगण
सीतल छाया गहिर फल, पंखी कल करंत.
*
हरि हैं खांडु रेत महि बिखरी, हाथी चुनी न जाइ.
कह कबीर गुरु भली बुझाई, चीटी होइ के खाइ. विषम चरण पदांत यगण
*
संत तुलसीदास
गिरत अंड संपुट अरुण, जमत पक्ष अन्यास.
आल सुबान उपदेस केहि, जात सु उलटि अकास.विषम चरण पदांत जगण
*
रावण रावण को हन्यो, दोष राम कह नाहिं. विषम चरण पदांत मगण
निज हित अनहित देखू किन, तुलसी आपहिं माहिं.
*
रोम-रोम ब्रम्हांड बहु, देखत तुलसी दास.
बिन देखे कैसे कोऊ, सुनी माने विश्वास. विषम चरण पदांत मगण
*
मात-पिता निज बालकहि करहिं इष्ट उपदेश.
सुनी माने विधि आप जेहि, निज सिर सहे कलेश.विषम चरण पदांत जगण
*
बिहारी
पत्रा ही तिथि पाइये वा, घर कैं चहुँ पास. विषम चरण पदांत यगण
नित प्रति पून्याईं रहै, आनन ओप-उजास.
*
रहति न रन जयसाहि-सुख, लखि लाखनु की फ़ौज.
जाँचि निराखरऊ चलै लै, लाखन की मौज. विषम चरण पदांत यगण
*
सीस-मुकुट कटि-काछनी, कर-मुरली उर-माल.
इहिं बानक मो मम सिद्धा, बसौ, बिहारी लाल. विषम चरण पदांत यगण
*
कहै यहै श्रुति सुमृत्यौ, यहै सयाने लोग. विषम चरण पदांत यगण
तीन दबवात निस कही, पातक रजा रोग.
*
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे अनेक दोहे और उनके स्वनामधन्य दोहाकारों का अनुसरण करते हुए मैंने अपने दोहे रचे हैं. इन्हें गलत मानने की जुर्रत मैं नहीं कर सकता. इन्हें गलत कहनेवाले खुद कितने बड़े दोहाकार हैं, यह आकलन समय कर ही देगा. किसी दोहा में सामान्य मानक का पालन और कथ्य दोनों में से एक चुनना हो तो कथ्य को नहीं छोड़ना चाहिए. यही उक्त दोहों का सन्देश है, और यही मैंने किया है.
४.५.२०१८
***
नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
***
नवगीत
*
शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें, जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
***
नवगीत
*
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
***
उत्सव
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अग्यान।
छवि अनेक में एक की, मत देखो मतिमान।।
*
दिखा एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर तुम नेक।।
*
जीवन-ऊर्जा ग्यान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ग्यान मृत्यु का निडरकर, देता आत्म-उजास।।
*
शोर-भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
हर पल में उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
*
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रहिए भाव-विभोर।।
१२.४.२०१८
***
नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
11.4.2018
***
नवगीत
*
शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें, जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
*
12.4.2018
***
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
12.4.2018
***
उत्सव
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अग्यान।
छवि अनेक में एक की, मत देखो मतिमान।।
*
दिखा एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर तुम नेक।।
*
जीवन-ऊर्जा ग्यान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ग्यान मृत्यु का निडरकर, देता आत्म-उजास।।
*
शोर-भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
हर पल में उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
*
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रहिए भाव-विभोर।।
*
12.4.2018
***
मुक्तक:
*
मन सागर, मन सलिला भी है, नमन अंजुमन विहँस कहें
प्रश्न करे यह उत्तर भी दे, मन की मन में रखेँ-कहें?
शमन दमन का कर महकाएँ चमन, गमन हो शंका का-
बेमन से कुछ काम न करिए, अमन-चमन 'सलिल' में रहे
*
तेरी निंदिया सुख की निंदिया, मेरी निंदिया करवट-करवट”
मेरा टीका चौखट-चौखट, तेरी बिंदिया पनघट-पनघट
तेरी आसें-मेरी श्वासें, साथ मिलें रच बृज की रासें-
तेरी चितवन मेरी धड़कन, हैं हम दोनों सलवट-सलवट
*
बोरे में पैसे ले जाएँ, संब्जी लायें मुट्ठी में
मोबाइल से वक़्त कहाँ है, जो रुचि ले युग चिट्ठी में
कुट्टी करते घूम रहे हैं सभी सियासत के मारे-
चले गये वे दिन जब गले मिले हैं संगा मिट्ठी में
*
नहीं जेब में बचीं छदाम, खास दिखें पर हम हैँ आम
कोई तो कविता सुनकर, तनिक दाद दे करे सलाम
खोज रहीं तन्मय नज़रें, कहाँ वक़्त का मारा है?
जिसकी गर्दन पकड़ें हम फ़िर चकेवा दें बिल बेदाम
*
छंद सलिला:
दृढ़पद (दृढ़पत/उपमान) छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु गुरु (यगण, मगण) ।
लक्षण छंद:
तेईस मात्रा प्रति चरण / दृढ़पद रचें सुजान
तेरह-दस यति अन्त में / गुरु गुरु- है उपमान
कथ्य भाव रस बिम्ब लय / तत्वों का एका
दिल तक सीधे पहुँचता / लगा नहीं टेका
उदाहरण:
१. हरि! अवगुण से दूरकर / कुछ सद्गुण दे दो
भक्ति - भाव अर्पित तुम्हें / दिक् न करो ले लो
दुनियादारी से हुआ / तंग- शरण आया-
एक तुम्हारा आसरा / साथ न दे साया
२. स्वेद बिन्दु से नहाकर / श्रम से कर पूजा
फल अर्पित प्रभु को करे / भक्त नहीं दूजा
काम करो निष्काम सब / बतलाती गीता
जो आत्मा सच जानती / क्यों हो वह भीता?
३. राम-सिया के रूप हैं / सच मानो बच्चे
बेटी-बेटे में करें / फर्क नहीं सच्चे
शक्ति-लक्ष्मी-शारदा / प्रकृति रूप तीनो
जो न सत्य पहचानते / उनसे हक़ छीनो
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
४-५-२०१४
***
छंद सलिला: हरि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, चरणारंभ गुरु, यति ६ - ६ - ११, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
रास रचा / हरि तेइस / सखा-सखी खेलते
राधा की / सखियों के / नखरे हँस झेलते
गुरु से शुरु / यति छह-छह / ग्यारह पर सोहती
अंत रहे / गुरु लघु गुरु / कला 'सलिल' मोहती
उदाहरण:
१. राखो पत / बनवारी / गिरधारी साँवरे
टेर रही / द्रुपदसुता / बिसरा मत बावरे
नंदलाल / जसुदासुत / अब न करो देर रे
चीर बढ़ा / पीर हरो / मेटो अंधेर रे
२. सीता को / जंगल में / भेजा क्यों राम जी?
राधा को / छोड़ा क्यों / बोलो कुछ श्याम जी??
शिव त्यागें / सती कहो / कैसे यह ठीक है?
नारी भी / त्यागे नर / क्यों न उचित लीक है??
३. नेता जी / भाषण में / जो कुछ है बोलते
बात नहीं / अपनी क्यों / पहले वे तोलते?
मुकर रहे / कह-कहकर / माफी भी माँगते
देश की / फ़िज़ां में / क्यों नफरत घोलते?
४. कौन किसे / बिना बात / चाहता-सराहता?
कौन जो न / मुश्किलों से / आप दूर भागता?
लोभ, मोह / क्रोध द्रोह / छोड़ सका कौन है?
ईश्वर से / कौन और / अधिक नहीं माँगता?
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा : २.ललित छंद दोहा अमर
*
ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाड़ला, इस सा छंद न और.
देववाणी संस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोष विरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवान रत्न है। दोहा का उद्गम संस्कृत से है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं-
शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः।
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः।।
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः।
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः।।
अर्थात-
नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत।
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त।।
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन।
गुणी विवेकी कुशल कवि, का यश हो न मलीन।।
काव्य शास्त्र है पुरातन :
काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन।
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन।।
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
दोहा उतम काव्य है :
दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय।
राह दिखाता मनुज को, जब हो वह निरुपाय।।
आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युगपरकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा।
दोहा छंद अनूप :
जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११।
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप।
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।
दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद।
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद।।
द्विपथा दोहयं दोहड़ा, द्विपदी दोहड़ नाम।
दुहे दोपदी दूहड़ा, दोहा ललित ललाम।।
दोहा मुक्तक छंद है :
संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३। संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'। अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन। तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।
हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।
छंद :
अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार।
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार।।
छंद वह साँचा या ढाँचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है।
दोहा :
दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभाजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) चरण में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है।
दोहा और शेर :
दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं, किंतु 'शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव'१४। शेर बहर (उर्दू छंद) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' (रुक्न) संबंधी नियमों का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में पदभार हमेशा समान होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन एक सा नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में निर्धारित स्थान पर यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।
हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-
भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष।
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष।।
गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश।
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश।।
गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान।
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान।।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'.
४-५-२०१३
***

शुक्रवार, 3 मई 2024

मई ३, सॉनेट, शारदा, लघुकथा, छंद रसामृत , चंद्रकांता, हाइकु मुक्तक, नवगीत,

सलिल सृजन मई ३
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष- ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com
*
आत्मीय मित्रों!
वंदे भारत भारती।

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर का वार्षिकोत्सव समारोह २० अगस्त २०२४ को आयोजित है। प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी चयनित श्रेष्ठ रचनाकार अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरणों से अलंकृत किए जाएँगे। अपने पूजे / प्रिज जन की स्मृति में अलंकरण स्थापित करने हेतु चलभाष ९४२५१८३२४४ पर संपर्क कीजिए। वर्ष २०२३-२४ में निम्नानुसार अलंकरणों हेतु प्रविष्टियाँ (पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त जानकारी, सहभागिता निधि ३०० रु.) विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३४४ पते पर आमंत्रित हैं। प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जून २०२४ है।

०१. स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि हिंदी रत्न अलंकरण, ५००१ रु., समग्र गद्य कृति। सौजन्य आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी, जबलपुर।
०२. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ५००१ रु.समग्र पद्य कृति। सौजन्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, जबलपुर।
०३. राजधर जैन 'मानस हंस' अलंकरण, ५००१ रु., समीक्षा। सौजन्य डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।
०४. शकुंतला अग्रवाल नवांकुर अलंकरण,५५०१ रु. प्रथम कृति (वर्ष २०२२ से २०२४), सौजन्य श्री अमरनाथ अग्रवाल जी, लखनऊ।
०५. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' अलंकरण,५१०० रु., निबंध / संस्मरण / यात्रावृत्त सौजन्य सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।
०६. कमला शर्मा स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., हिंदी गजल। सौजन्य श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।
०७. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., लघुकथा। सौजन्य श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।
०८. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., छंद। सौजन्य डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।
०९. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., गीत। सौजन्य श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।
१०. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कविता। सौजन्य डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
११. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति अलंकरण, २१०० रु., व्यंग्य लेख, सौजन्य डॉ. संतोष शुक्ला।
१२. शिवप्यारी देवी-बेनीप्रसाद स्मृतिअलंकरण, २१०० रु. । बाल साहित्य, सौजन्य डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।
१३. सत्याशा लोक श्री अलंकरण, ११०० रु., बुंदेली साहित्य। सौजन्य डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।
१४. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा अलंकरण, ११०० रु., राष्ट्रीय देशभक्ति साहित्य। सौजन्य सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।
१५. कवि राजीव वर्मा स्मृति कला श्री अलंकरण, ११०० रु., गायन-वादन-चित्रकारी आदि। सौजन्य आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।
१६. सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, ११०० रु., पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।

अनुवाद, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, आध्यात्म, हाइकु (जापानी छंद), सोनेट, रुबाई, कृषि, ग्राम विकास, जन जागरण आधी में अपने पूज्य/प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (अलंकरण सामग्री हेतु) जोड़कर ९४२५१८३२४४ पर भेज कर सूचित करें।

टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।

पुस्तक प्रकाशन
कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। संस्था की संरक्षक सदस्यता ग्रहण करने पर एक १२० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा।

पुस्तक विमोचन
कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २१०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।

वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें। संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं।

* सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' *
* अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
* उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट *
* सचिव - छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी *
* कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे *
* प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।
जबलपुर, ३०.४.२०२४
***
सॉनेट
बोनसाई
बोनसाई नित उगा रहे हैं,
जंगल-पर्वत के हत्यारे,
नव विकास के गुंजित नारे,
स्नैह-भवन मिल गिरा रहे हैं।
परंपराएँ सिरा रहे हैं,
अपने मन से जो खुद हारे,
पापी को अपना कह तारे,
करुणा सागर कहा रहे हैं।
बोनसाई की जयकारों को,
सत्ता-पथ पर लोग मुदित हो,
युग परिवर्तन बता रहे हैं।
कैक्टस के पैरोकारों को,
जुगनू नव आशा-वन कहकर,
घर-आँगन में उगा रहे हैं।
३.५.२०२४
•••
सॉनेट
सत्ता की पालकी बिठाकर,
स्वामी सेवक के गुन गाए,
उसके तेवर से थर्राए,
वह गुर्राए आँख दिखाकर।
मन की बातें सुना-सुनाकर,
जनगण को बहला फुसलाए,
केर-बेर को साथ मिलाए,
स्वर्णिम सपने भुना-भुनाकर।
है वाशिंग मशीन अपना दल,
जो जुड़ता हो जाता पावन,
लोहा भी हो जाता सोना।
न था, न होगा, आज सदृश कल
तपता जेठ मनोहर फागुन,
सत्ता करती जादू-टोना।।
३.५.२०२४
•••

सॉनेट
शारदा स्तुति
*
शारद! वीणा मधुर बजाओ
कुमति नाश कर सुमति मुझे दो
कर्म धर्ममय करूँ सुगति हो
मैया! मन मंदिर में आओ।
अपरा सीखी, सत्य न पाया
माया मोह भुला भटकाते
नाते राह रोक अटकाते
माता! परा ज्ञान दो, आओ
जन्म जन्म संबंध निभाओ
सुत को अपनी गोद बिठाओ
अंबे! नाता मत बिसराओ
कान खींच लो हँस मुस्काओ
झट से रीझो पुलक रिझाओ
जननी! मुझको आप बनाओ
२-५-२०२२
•••
सॉनेट
सपने
अनजाने ही दिखते सपने
कब क्या कैसे क्यों होता है?
क्यों हँसता है, क्यों रोता है?
लागू कहीं न कोई नपने
आँख खुले तो गायब सपने
क्या पाता है, क्या खोता है?
नाहक ही चिंता ढोता है
कहीं नहीं जो रहे न अपने
बेसिरपैर घटें घटनाएँ
मरुथल में भी नव चलाएँ
जुमला कह सरकार बनाएँ
सपनों का घर-घाट न होता
कहीं न पिंजरा, कहीं न तोता
बिन साबुन-पानी मन धोता
३-५-२०२२
***
लघुकथा
मौन?
आज परशुराम जयंती है, समाचार पत्र में कई कार्यकर्मों की सूचनाएँ,, कुछ मित्र मुझे भी पकड़कर एक कार्यक्रम में ले गए। परशुराम जी की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया, नारे लगाए गए। मुझे मौन देख एक ने एक वक्ता ने मेरी और घूरते हुए कहा जिस तरह परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किया था उसी तरह हमें भी विधर्मियों का संहार करना होगा।
मेरी बारी आई तो मैंने कहा की परशुराम जी ने अपने पिता के कहने पर अपनी माँ का वध बिना कुछ आगा-पीछा किये कर दिया था। उनका अनुकरण आपमें से कौन करेगा?
उत्तर में छाया रहा मौन।
***
विश्व हास्य दिवस
विश्व भर में मई महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है। इसका विश्व दिवस के रूप में प्रथम आयोजन ११ जनवरी, १९९८ को मुंबई में किया गया था। विश्व हास्य योग आंदोलन की स्थापना का श्रेय डॉ मदन कटारिया को जाता है।
हास्य रचनाः
नियति
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाए, एक अदद तब बीबी पाए
सोचे धौन्स जमाऊँ इस पर, नचवाए वह आँसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाए गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***
घर से बाहर जान बचाए, पड़ोसिनों से आँख लड़ाए
फूल लिए जब देने जाए, फूल कहाकर वापिस आए
बिअर उठा जब फिर से जाए, दिखे दूर वह बियर उठाए
सोचे कोई और पटाये, शासन तालाबंदी लाए
लौट के बुद्धू घर को आए, बीबी से पटरी बैठाए
बैठे हैं निज मुँह लटकाए, बीबी खुशखबरी दे गाए
३-५-२०२०
***
***
कृति चर्चा:
'सच्ची बात' लघुकथाओं की ज़िंदगी से मुलाकात
*
[कृति विवरण: सच्ची बात, लघुकथा संग्रह, चंद्रकांता अग्निहोत्री, प्रथम संस्करण २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २२५/-, विश्वास प्रकाशन, अम्बाला शहर, हरयाणा, चलभाष ०९८९६१००५५७, लघुकथाकार संपर्क: कोठी ४०४, सेक्टर ६, पंचकुला, हरयाणा, चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: अग्निहोत्री.chandra@gmail.com]
*
लघुकथा गागर में गागर की तरह कम शब्दों में अधिक ही नहीं अधिक से अधिक कहने की कला है. सामान्यत: लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित घटनाजनित प्रभावों का मूल्यांकन होती है. लघुकथा में उपन्यास की तरह सुदीर्घ और सुचिंतित घटनाओं और चरित्रों का विस्तार और या कहानी की तरह किसी कालखंड विशेष या घटनाक्रम विशेष का विश्लेषण न होकर किसी घटना विशेष को केंद्र में रखकर उसके प्रभाव को इंगित मात्र किया जाता है. अब तो पर-लेखन की परंपरा को ही चलभाष ने काल-बाह्य सा कर दिया है किन्तु जब पत्र-लेखन ही अनुभूतियों, संवेदनाओं आयर परिस्थितियों को संप्रेषित करने का एक मात्र सुलभ-सस्ता साधन था तब
ग्रामीण बालाएँ सुदूर बसे प्रयतम को पत्र लिखते समय समयाभाव, शब्दाभाव, संकोच या प्रापक को मानसिक कष्ट से बचने के लिए के कारण अंत में 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर मकुट हो लेती थीं. लघुकथा यही 'कम लिखे से अधिक समझाने' की कला है. लघुकथाकार घट्न या पात्रों का चित्रं नहीं संकेतन मात्र करता है, अनुभूत को संक्षेप में भिव्यत कर शेष पाठक के अनुमान पर छोड़ दिया जाता है. इसी लिए लघ्कथा लेखन जितना सरल दीखता है, उतना सरल होता नहीं.
***
हाइकु मुक्तक:
*
चंचला निशा, चाँदनी को चिढ़ाती, तारे हैं दंग.
पूर्णिमा भौजी, अमावस ननद, होनी है जंग.
चन्द्रमा भैया, चक्की-पाटों के बीच, बेबस पिसा
सूर्य ससुर, सास धूप नाराज, उतरा रंग
*
रवि फेंकता, मोहपाश गुलाबी, सैकड़ों कर
उषा भागती, मन-मन मुस्काती, बेताबी पर
नभ ठगा सा, दिशाएँ बतियातीं, वसुधा मौन-
चूं चूं गौरैया, शहनाई बजाती, हँसता घर
*
श्री वास्तव में, महिमामय कर, कीर्ति बढ़ाती.
करे अर्चना, ऋता सतत यश, सुषमा गाती.
मीनाक्षी सवि, करे लहर सँग, शत क्रीड़ाएँ
वर सुनीति, पथ बाधा से झट, जा टकराती..
*****
दो दुम का दोहा
*
राजनीति में नीति का,
कहीं न किंचित काम.
निज प्रशस्ति कर आप मुख,
रहो बढ़ाते दाम.
लोग बिलखें या रोएँ
काँध पर तुमको ढोएँ
*
एक दूसरे को चलो,
दें हम दोनों दोष.
मिल-जुल लूटें देश को,
दिखला झूठा रोष.
लोग संतोष करेंगे
हमारा कोष भरेंगे
३-५-२०१८
***
सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
*
अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.
नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.
१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.
२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.
३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.
४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें
५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.
६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.
७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.
८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.
९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
***
***
नवगीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रए मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपैया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर, हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख-मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा-गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट, अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
***
दोहे गरमागरम :
*
जेठ जेठ में हो रहे, गर्मी से बदहाल
जेठी की हेठी हुई, थक हो रहीं निढाल
*
चढ़ा करेला नीम पर, लू पर धूप सवार
जान निकाले ले रही, उमस हुई हथियार
*
चुआ पसीना तर-बतर, हलाकान हैं लोग
पोंछे टेसू हवा से, तनिक न करता सोग
*
नीम-डाल में डाल दे, झूला ठंडी छाँव
पकी निम्बोली चूस कर, भूल न जाना गाँव
*
मदिर गंध मन मोहती, महुआ चुआ बटोर
ओली में भर स्वाद लूँ, पवन न करना शोर
*
कूल न कूलर रह गया, हीट कर रही तंग
फैन न कोई फैन का, हारा बेबस जंग
*
एसी टसुए बहाता, बिजली होती गोल
पीट रही है ढोल लू, जय सूरज की बोल
*
दोहे गरमागरम सुन, उड़ा जा रहा रंग
मेकप सारा धुल गया, हुई गजल बदरंग
३-५-२०१७
*
घनाक्षरी सलिला:१
घनाक्षरी: एक परिचय
*
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है. घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती. अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है. इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं. वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते. इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है. समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है. वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण. = वातानुकूलित, पर्यावरण आदि.
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ सभी लघु वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
२.५.२०१५
***
कौन-सा धर्मग्रंथ कब लिखा गया...
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
हिन्दू धर्मग्रंथ : देशी और विदेशी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के अनुसार संस्कृत में लिखे गए 'ऋग्वेद' को दुनिया की प्रथम और सबसे प्राचीन पुस्तक माना जाता है। हिन्दू धर्म इसी ग्रंथ पर आधारित है। इस ग्रंथ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण रचना माना गया है। प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था।
हिन्दू धर्मग्रंथ 'वेद' को जानिए...
लिखित रूप से पाया गया ऋग्वेद इतिहासकारों के अनुसार 1800 से 1500 ईस्वी पूर्व का है। इसका मतलब कि आज से 3 हजार 815 वर्ष पूर्व इसे लिखा गया था। हालांकि शोधकर्ता यह भी कहते हैं कि वेद वैदिककाल की वाचिक परंपरा की अनुपम कृति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले 6-7 हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है, क्योंकि इसमें उक्त काल के ग्रहों और मौसम की जानकारी से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। खैर, हम यह मान लें कि 3 हजार 815 वर्ष पूर्व लिखे गए अर्थात महाभारत काल के बहुत बाद में तब लिखे गए, जब ह. अब्राहम थे जिनको इस्लाम में इब्राहीम कहा जाता है। महान खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ यानी 5152 वर्ष पूर्व। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी।
शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म आज से 7129 वर्ष पूर्व अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। चैत्र मास की नवमी को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि वेदों का सार उपनिषद और उपनिषदों का सार गीता है। 18 पुराण, स्मृतियां, महाभारत और रामायण हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं हैं। वेद, उपनिषद और गीता ही धर् धर्मग्रंथ : जैन धर्म का मूल भारत की प्राचीन परंपराओं में रहा है। आर्यों के काल में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। अर्हंतं, जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था।
जैन धर्मग्रंथ और पुराण
महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। माना जाता है कि ईसा से 800 वर्ष पूर्व 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ था।
599 ईस्वी पूर्व अर्थात 2614 वर्ष पूर्व अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विध संघ कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया।
यहूदी धर्मग्रंथ : यहूदियों के धर्मग्रंथ 'तनख' के अनुसार यहूदी जाति का उद्भव पैगंबर हजरत अबराहम (इस्लाम में इब्राहीम, ईसाइयत में अब्राहम) से शुरू होता है। आज से करीब 4,000 साल पुराना यहूदी धर्म वर्तमान में इसराइल का राजधर्म है।
यहूदी धर्म को जानें
दुनिया के प्राचीन धर्मों में से एक यहूदी धर्म से ही ईसाई और इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हुई है। यहूदी धर्म की शुरुआत पैगंबर अब्राहम (अबराहम या इब्राहीम) से मानी जाती है, जो ईसा से लगभग 1800 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 3814 वर्ष पूर्व। ईसा से लगभग 1,400 वर्ष पूर्व अबराहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। मूसा ही यहूदी जाति के प्रमुख व्यवस्थाकार हैं। मूसा को ही पहले से ही चली आ रही एक परंपरा को स्थापित करने के कारण यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है।
यहूदी मान्यता के अनुसार यहोवा (ईश्वर) ने तौरात (तोराह व तनख) जो कि मूसा को प्रदान की, इससे पहले सहूफ़-ए-इब्राहीमी, जो कि इब्राहीम को प्रदान की गईं। यह किताब अब लुप्त हो चुकी है। इसके बाद ज़बूर, जो कि दाऊद को प्रदान की गई। फिर इसके बाद इंजील (बाइबल), जो कि ईसा मसीह को प्रदान की गई।
अब्राहम और मूसा के बाद दाऊद और उसके बेटे सुलेमान को यहूदी धर्म में अधिक आदरणीय माना जाता है। सुलेमान के समय दूसरे देशों के साथ इसराइल के व्यापार में खूब उन्नति हुई। सुलेमान का यहूदी जाति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 37 वर्ष के योग्य शासन के बाद सन् 937 ईपू में सुलेमान की मृत्यु हुई।
यहूदियों की धर्मभाषा 'इब्रानी' (हिब्रू) और यहूदी धर्मग्रंथ का नाम 'तनख' है, जो इब्रानी भाषा में लिखा गया है। इसे 'तालमुद' या 'तोरा' भी कहते हैं। असल में ईसाइयों की बाइबिल में इस धर्मग्रंथ को शामिल करके इसे 'पुराना अहदनामा' अर्थात ओल्ड टेस्टामेंट कहते हैं। तनख का रचनाकाल ईपू 444 से लेकर ईपू 100 के बीच का माना जाता है।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' : पारसी धर्म या 'जरथुस्त्र धर्म' विश्व के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से एक है जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक प्रोफेट जरथुष्ट्र ने की थी। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है। यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म है। ये ईश्वर को 'आहुरा माज्दा' कहते हैं। 'आहुर' शब्द 'असुर' शब्द से बना है। जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरूषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई। महान दार्शनिक नीत्से ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम '‍दि स्पेक ऑव जरथुस्त्र' है। कई विद्वान मानते हैं कि जेंद अवेस्ता तो अथर्ववेद का भाष्यांतरण है।
पारसियों का हिन्दुओं से नाता, जानिए
फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैगंबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। ऋग्वेदिक काल में ईरान को पारस्य देश कहा जाता था। अफगानिस्तान के इलाके से आर्यों की एक शाखा ने ईरान का रुख किया, तो दूसरी ने भारत का। ईरान को प्राचीनकाल में पारस्य देश कहा जाता था। इसके निवासी अत्रि कुल के माने जाते हैं।
धर्मग्रंथ : बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के 3 भाग हैं- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उपग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएं हैं। सुत्तपिटक के 5 भागों में से एक खुद्दक निकाय की 15 रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
बौद्ध धर्म के मूल तत्व हैं- 4 आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएं, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के 3 भाग हैं- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उपग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएं हैं। सुत्तपिटक के 5 भाग में से एक खुद्दक निकाय की 15 रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
हालांकि धम्मपद पहले से ही विद्यमान था, लेकिन उसकी जो पां‍डुलिपियां प्राप्त हुई हैं, वे 300 ईसापूर्व की हैं। भगवान बुद्ध के निर्वाण (देहांत) के बाद प्रथम संगीति राजगृह में 483 ईसा पूर्व हुई थी। दूसरी संगीति वैशाली में, तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व पाटलीपुत्र में हुई थी और चतुर्थ संगीति कश्मीर में हुई थी। माना जाता है कि चतुर्थ संगीति में ईसा मसीह भी शामिल हुए थे। माना जाता है कि तृतीय बौद्ध संगीति में त्रिपि‍टक को अंतिम रूप दिया गया था।
वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व उन्होंने भारत के बोधगया में सत्य को जाना और इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में भारत के कुशीनगर में निर्वाण (मृत्यु) को उपलब्ध हुए।
***
मुक्तिका:
.
हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं.
.
कह रहे हमसे फफोले हाथ के
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं
.
आबलों को शूल से शिकवा नहीं
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं.
*
कलश महलों के न हमको चाहिए
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं.
.
स्वेद गंगा में नहाते रोज ही
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है.
३-५-२०१५
***
छंद सलिला:
रसामृत छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १६ - ६, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
काव्य रसामृत का करिए / नित विहँस पान
ईश - देश महिमा का करिए / सतत गान
सोलह कला छहों रस गुरु लघु / चरण अंत
सत-शिव-सुन्दर, सत-चित-आनंद / तज न संत
उदाहरण:
१. राजनीति ने लोकनीति का / किया त्याग
लूटें नेता, लुटे न जनता / कहे भाग
शोषक अफसर पत्रकार ले / रहे घूस
पूँजीपति डॉक्टर अधिवक्ता / हुए मूस
जाग कृषक - मजदूर मिटा दे / अनय जाग
देशभक्ति का छेड़े जनगण / पुण्य राग
२. हुआ महाभारत भारत में / सीख पाठ
शासक शासित की दम पर मत / करे ठाठ
जाग गयी जनता तो देगी / लगा आग
फूँक देश को नेता खेलें / अब न फाग
धन विदेश में ले जाकर जो / रहे जोड़
उनका मुँह काला करने की / मचे होड़
भाषा भूषा धर्म जोड़ते, देँ न फ़ूड
लसलिल; देश-हिट खातिर दें मत/भेद छोङ
३. महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद क्यों / रहा हार?
गैर मैराथन को लगता है / क्यों बिहार?
काश्मीर का दर्ज़ा क्यों है / हुआ खास?
राजनीती के स्वार्थ गले की / बने फाँस
राष्ट्रीय सरकार बने दल / मिटें आज
संसद में हुड़दंग न हो कुछ / करो लाज
असम विषम हो रहा रोक लो / बढ़ा हाथ
आतंकी बल जो- दें उनका / झुका माथ
देशप्रेम की राह चलें हम / उठा शीश
दे पाये निज प्राण देश-हित / 'सलिल' ईश
३.५.२०१४
***
आरती:
हे चित्रगुप्त भगवान्...
*
हे चित्रगुप्त भगवान!
करूँ गुणगान
दया प्रभु कीजै, विनती
मोरी सुन लीजै...
*
जनम-जनम से भटक रहे हम,
चमक-दमक में अटक रहे हम.
भवसागर में भोगें दुःख,
उद्धार हमारा कीजै...
*
हम है याचक, तुम हो दाता,
भक्ति अटल दो भाग्य विधाता.
मुक्ति पा सकें जन्म-चक्र से,
युक्ति बता वह दीजै...
*
लिपि-लेखनी के आविष्कारक,
वर्ण व्यवस्था के उद्धारक.
हे जन-गण-मन के अधिनायक!,
सब जग तुम पर रीझै...
*
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तुम्हीं हो,
भक्त तुम्हीं भक्तेश तुम्हीं हो.
शब्द ब्रम्हमय तन-मन कर दो,
चरण-शरण प्रभु दीजै...
*
करो कृपा हे देव दयालु,
लक्ष्मी-शारद-शक्ति कृपालु.
'सलिल' शरण है जनम-जनम से,
सफल साधना कीजै...
३.५.२०११
***
गीत:
हमें जरूरत है...
*
हमें जरूरत है लालू की...
*
हम बिन पेंदी के लोटे हैं.
दिखते खरे मगर खोटे हैं.
जिसने जमकर लात लगाई
उसके चरणों में लोटे हैं.
लगा मुखौटा हर चेहरे पर
भाये आरक्षण कोटे हैं.
देख समस्या आँख मूँद ले
हमें जरूरत है टालू की
हमें जरूरत है लालू की...
*
औरों पर उँगलियाँ उठाते.
लेकिन खुद के दोष छिपाते.
नहीं सराहे यदि दुनिया तो
खुद ही खुद की कीरति गाते.
तन को तन की चाह हमेशा
मिला न मन से मन को पाए
चाह नहीं सज्जन की बाकी
हमें जरूरत है चालू की
हमें जरूरत है लालू की...
***
राजस्थानी मुक्तिका :
तैर भायला
*
लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..
गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..
मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..
घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..
सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
३.५.२०१२
***
क्षणिका:
लेबर डे
*
वे,
लेबर डे मना रहे हैं।
बिना नागा
हर वर्ष
अपनी पत्नि को
लेबर रूम में
भिजवा रहे हैं।
३.५.२०१०
*

गुरुवार, 2 मई 2024

मई २, प्रभाती, उड़ियाना छंद, घनाक्षरी, नज़्म, देवरहा बाबा, कुण्डलिया, हास्य, सुमन श्रीवास्तव,

सलिल सृजन मई २
*
हास्य कविता
*
प्रभु! तुम करते गड़बड़ झाला
हमसे कह मत कर घोटाला
दुनिया रच दी तुमने गोल
बाहर-भीतर पोलमपोल
चूहे को बिल्ली धमकाती
खुद कुत्ते से है भय खाती
देख आदमी कुत्ता डरता
जैसा मालिक बोले करता
डरे आदमी बीबी जी से
बेमन से या मनमर्जी से
चूहे से बीबी डरती है
कहती है पति पर मरती है
पति जीता कह तुझ पर मरता
नज़र पड़ोसन पर है धरता
जहाँ सफेद वहीं है काला
प्रभु! तुम करते गड़बड़ झाला
२-५-२०२१
***
भूमिका
हस्तिनापुर की बिथा कथा
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
*
बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐंसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानें सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली र्मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं। बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग-पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक। सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप नें हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन 1435 में महाभारत और 1443 में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी हती। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। 2012 में रामान की कथा लिखी और अब 2019 में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है। महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानबजीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचै जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै। संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठ से जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं - 1. हस्तिनापुर कौ राजबंस, 2. कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, 3. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, 4. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, 5. अग्यातबास में पाण्डव, 6. दुर्योधन को पलटबौ और युद्ध के बदरा, 7. महायुद्ध (भाग-1) पितामह की अगुआई में , 8. महायुद्ध (भाग-2) आखिरी आठ दिन, 9. महायुद्ध के बाद। सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हैं। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन । एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।
महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय - ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’। आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।। काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है। काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डाॅ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाँच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है - कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ। राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।। बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं। अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हितचिन्तन सबसें ऊपर रचै गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं। श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे - सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ? ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है - जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।
जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -
पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।
और फिर -
आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।
फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नई स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।
गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी। माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-
लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।
‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -
कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।।
महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै।
‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -
कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।
द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्दे्रयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -
हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।
सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं- ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए। कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो। औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।।
हास्य - फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर। माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।।
करुण - किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ। चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।।
वीर-तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए। सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।।
रौद्र - तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै। भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।।
भयानक - दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई। मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।।
वीभत्स - ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की। पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।।
अद्भुत - चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ। खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।।
भक्ति - जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत। दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।।
आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बनइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं। जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डाॅ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं - जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की। जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।। पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है - है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं। बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।।
***
संपर्क-- डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव 107, इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट रोड जबलपुर सम्पर्क: 9893107851

दोहा सलिला
*
मोड़ मिलें स्वागत करो, नई दिशा लो देख
पग धरकर बढ़ते चलो, खींच सफलता रेख
*
कोटा अभी न फिक्स है, चाह-राह का मीत
उसी मोड़ पर चल पड़ें, जहाँ मिल सके प्रीत
*चंद्र-भानु को साथ ही, देख गगन है मौन.
किसकी सुषमा अधिक है, बता सकेगा कौन?
*
वैसी ही पूजा करें, जैसा पाएँ दैव.
लतखोरों को लात ही, भाती 'सलिल' सदैव..
*पत्थरबाजी वे करें, हम देते हैं फूल .
काश फूल को फूल दें, और शूल को शूल..
*
मोड़ मिलें स्वागत करो, नई दिशा लो देख
पग धरकर बढ़ते चलो, खींच सफलता रेख
*
सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।
हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।
*
देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर।
कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।
*
कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान।
ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।।
*
सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास।
सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास।।
२-५-२०१८
***
एक कुंडलिया
दिल्ली का यशगान ही, है इनका अस्तित्व
दिल्ली-निंदा ही हुआ, उनका सकल कृतित्व
उनका सकल कृतित्व, उडी जनगण की खिल्ली
पीड़ा सह-सह हुई तबीयत जिसकी ढिल्ली
संसद-दंगल देख, दंग है लल्ला-लल्ली
तोड़ रहे दम गाँव, सज रही जमकर दिल्ली
***
लघुकथा
अकेले
*
'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।'
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।'
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे।
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं। पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।' बेटे ने उग्र स्वर में कहा।
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोई कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले।
२-५-२०१७
***
आरती:
देवरहा बाबाजी
*
जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर,
नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को,
अमृत मन्त्र बोलते.
सत-चित-आनंदलीन,
समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!,
देव-लीन, थिर-अदीन.
नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित,
प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल,
मौन अधिक, वाणी मित.
योगिराज त्यागी हे!,
प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक,
जीवित धनभागी हे..
'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
***
नज़्म:
*
ग़ज़ल
मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर
पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को
अर्थ देते हैं
गले मिलकर
मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और
आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें:
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
***

घनाक्षरी सलिला:१
घनाक्षरी: एक परिचय
*
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है. घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती. अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है. इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं. वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते. इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है. समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है. वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण. = वातानुकूलित, पर्यावरण आदि.
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ सभी लघु वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
___

घनाक्षरी सलिला: २

घनाक्षरी से परिचय की पूर्व कड़ी में घनाक्षरी के लक्षणों तथा प्रकारों की चर्चा के साथ कुछ घनाक्षरियाँ भी संलग्न की गयी हैं। उन्हें पढ़कर उनके तथा निम्न भी रचना में रूचि हो का प्रकार तथा कमियाँ बतायें, हो सके तो सुधार सुझायें। जिन्हें घनाक्षरी रचना में रुचि हो लिखकर यहाँ प्रस्तुत करिये.
चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
२-५-२०१५
***

छंद सलिला:
प्रभाती (उड़ियाना) छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १२ - १०, चरणान्त गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण, ) ।
लक्षण छंद:
राग मिल प्रभाती फ़िर / झूम-झूम गाया
बारहमासा सुन- दस / दिश नभ मुस्काया
चरण-अन्त गुरु ने गुर / हँसकर बतलाया
तज विराम पूर्णकाम / कर्मपथ दिखाया
उदाहरण:
१. गौरा ने बौराकर / ब्यौरा को हेरा
बौराये अमुआ पर / कोयल ने टेरा
मधुकर ने कलियों को, जी भर भरमाया
सारिका की गली लगा / शुक का पगफेरा
२. प्रिय आये घर- अँगना / खुशियों से चहका
मन-मयूर नाच उठा / महुआ ज्यों महका
गाल पर गुलाल लाल / लाज ने लगाया
पलकों ने अँखियों पर / पहरा बिठलाया
कँगना भी खनक-खनक / गीत गुनगुनाये
बासंती मौसम में / कोयलिया गाये
करधन कर-धन के सँग लिपट/लिपट जाए
उलझी लट अनबोली / बोल खिलखिलाये
३. राम-राम सिया जपे / श्याम-श्याम राधा
साँवरें ने भक्तों की / काटी हर बाधा
हरि ही हैं राम-कृष्ण / शिव जी को पूजें
सत-चित-आनंद त्रयी / जग ने आराधा
कंकर-कंकरवासी / गिरिजा मस्जिद में
जिसको जो रूप रुचा / उसने वह साधा
२.५.२०१४
***
गीत:
कोई अपना यहाँ
*
मन विहग उड़ रहा,
खोजता फिर रहा.
काश! पाये कभी-
कोई अपना यहाँ??
*
साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,
श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?
चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-
भोगता दिल रहा
सिर्फ तपना यहाँ...
*
जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.
जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.
जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-
बच न पाया कभी
कोई सपना यहाँ...
*
जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.
दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.
बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-
कैद कर ना सके,
कोई नपना यहाँ...
२-५-२०१२
*