कुल पेज दृश्य

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

कहमुकरी, गृह प्रवेश, सरस्वती, पूर्णिमा निगम, मुक्तक गीत, मधु प्रमोद, समीक्षा

कहमुकरी
वस्त्र सफेद पहनतीं हरदम
नयनों में ममता होती नम
अधरों पर मुस्कान सजाएँ
माँ? नहिं शारद;
आ! गुण गाएँ
रहे प्रतीक्षा इसकी सबको
कौन न चाहे कहिए इसको?
इस पर आए सबको प्यार
सखि! दिलदार?,
नहिं रविवार
काया छोटी; अर्थ बड़े
लगता रच दें खड़े-खड़े
मोह न छूटे जैसे नग का
वैसे नथ का?;
ना सखि! क्षणिका
बिंदु बिंदु संसार बना दे
रेखा खींचे भाव नया दे
हो अंदाज न उसकी मति का
सखी! शिक्षिका?,
नहीं अस्मिता
साथ बहारें उसके आएँ
मन करता है गीत सुनाएँ
साथ उसी के समय बिताएँ
प्यारी! कंत?,
नहीं बसंत
कभी न रीते उसका कोष
कोई न देता उसको दोष
रहता दूर हमेशा रोष
भैया! होश?,
ना संतोष
समझ न आए उसकी माया
पीछा कोई छुड़ा न पाया
संग-साथ उसका मन भाया
मीता! काया?,
ना रे! छाया
कभी न करती मिली रंज री!
रहती मौन न करे तंज री!
एक बचाकर कई बनाए
सखी! अंजुरी?,
नहीं मंजुरी
४-१२-२०२२
***
वास्तु विमर्श
गृह प्रवेश
मनुष्य के लिये अपना घर होना किसी सपने से कम नहीं होता। अपना घर यानि की उसकी अपनी एक छोटी सी दुनिया, जिसमें वह तरह-तरह के सपने सजाता है। पहली बार अपने घर में प्रवेश करने की खुशी कितनी होती है इसे सब समझ सकते हैं; अनुभव कर सकते हैं लेकिन बता नहीं सकते। यदि आप धार्मिक हैं, शुभ-अशुभ में विश्वास रखते हैं तो गृह प्रवेश से पहले पूजा अवश्य करवायें।
गृह प्रवेश के प्रकार
१. अपूर्व गृह प्रवेश – नवनिर्मित घर में पहली बार प्रवेश।
२. सपूर्व गृह प्रवेश – जब किसी कारण से व्यक्ति अपने परिवार सहित प्रवास पर हो, अपने घर को कुछ समय के लिये खाली छोड़ देते तथा दुबारा रहने के लिये आए।
३. द्वान्धव गृह प्रवेश – जब किसी परेशानी या किसी आपदा के चलते घर को छोड़ना पड़े और कुछ समय पश्चात दोबारा उस घर में प्रवेश करें तो वह द्वान्धव गृह प्रवेश कहलाता है।
४. अस्थाई गृह प्रवेश - किराए के माकन आदि में प्रवेश।
इन सभी स्थितियों में गृह प्रवेश पूजा का विधान आवश्यक है ताकि कि इससे घर में सुख-शांति बनी रहती है।
गृह प्रवेश की पूजा विधि
गृह प्रवेश के लिये शुभ दिन-तिथि-वार-नक्षत्र देख लें। किसी जानकार की सहायता लें, जो विधिपूर्वक पूजा करा सके अथवा स्वयं जानकारी लेकर यथोचित सामग्री एकत्रित कर पूजन करें। आपातस्थिति में कुछ भी न जुटा सकें तो विघ्न विनाशक श्री गणेश जी, जगत्पिता शिव जी, जगज्जननि दुर्गा जी, वास्तु देव तथा कुलदेव को दीप जलाकर श्रद्धा सहित प्रणाम कर ग्रह प्रवेश करें। पितृपक्ष तथा सावन माह में गृह प्रवेश न करें।
समय
माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ माह गृह प्रवेश हेतु शुभ हैं। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, पौष ग्रह प्रवेश हेतु शुभ नहीं हैं। सामान्यत: मंगलवार शनिवार व रविवार के दिन गृह प्रवेश वर्जित है। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शुक्लपक्ष की द्वितीय, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी व त्रयोदशी गृहप्रवेश के लिये बहुत शुभ मानी जाती हैं।
गृह प्रवेश विधि
पूजन सामग्री- कलश, नारियल, शुद्ध जल, कुमकुम, चावल, अबीर, गुलाल, धूपबत्ती, पांच शुभ मांगलिक वस्तुएं, आम या अशोक के पत्ते, पीली हल्दी, गुड़, चावल, दूध आदि।
गृह के मुख्य द्वार पर आम्र पर्ण का बंदनवार बाँधकर रांगोली, अल्पना या चौक से सजाएँ। पूजा विधि संपन्न होने के बाद मंगल कलश के साथ सूर्य की रोशनी में नए घर में प्रवेश करना चाहिए।
घर को बंदनवार, रंगोली, फूलों से सजाकर; कलश में शुद्ध जल भरकर उसमें आम या अशोक के आठ पत्तों के बीच श्रीफल (नारियल) रखें। कलश व नारियल पर कुमकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाएँ। गृह स्वामी और गृह स्वामिनी पाँच मांगलिक वस्तुएँ श्रीफल, पीली हल्दी, गुड़, अक्षत (चावल) व पय (दूध), विघ्नेश गणेश की मूर्ति, दक्षिणावर्ती शंख तथा श्री यंत्र लेकर मंगलकारी गीत गायन, शंख वादन आदि के साथ पुरुष पहले दाहिना पैर तथा स्त्री बाँया पैर रखकर नए घर में प्रवेश करें। इसके पूर्व पीतल या मिट्टी के कलश में जल भरकर द्वार पर कर आम के पाँच पत्ते लगाएँ, सिंदूर से स्वास्तिक बनाएँ। गृह स्वामिनी गणेश जी का स्मरण करते हुए ईशान कोण में जल से भरा कलश रखे। गृह स्वामी नारियल, पीली हल्दी, गुड़, चावल हाथ में ले, ग्रह स्वामिनी इन्हें साड़ी के पल्ले में रखें।
श्री गणेश का ध्यान करते हुए गणेश जी के मंत्र वाचन कर घर के ईशान कोण या पूजा घर में कलश की स्थापना करें। ततपश्चात भोजनालय में भी पूजा करें। चूल्हे, पानी रखने का स्थान, भंडार, आदि में स्वस्तिक बनाकर धूप, दीपक के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल आदि से पूजन करें। भोजनालय में पहले दिन गुड़ व हरी सब्जियाँ रखना शुभ है। चूल्हे को जलाकर सबसे पहले उस पर दूध उफानना चाहिये, मिष्ठान बनाकर उसका भोग लगाना चाहिये। घर में बने भोजन से सबसे पहले भगवान को भोग लगायें। गौ माता, कौआ, कुत्ता, चींटी आदि के निमित्त भोजन निकाल कर रखें। इसके बाद सदाचारी विद्वानों व गरीब भूखे को भोजन कराएँ। ऐसा करने से घर में सुख, शांति व समृद्धि आती है व हर प्रकार के दोष दूर हो जाते हैं।
पूजन
षट्कर्म, तिलक, रक्षासूत्रबन्धन, भूमि पूजन, कलश पूजन, दीप पूजन, देव आह्वान, सर्व देव प्रणाम,. स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान पश्चात् पूजा देवी पर वास्तु पुरुष का आह्वान-पूजन करें।
ॐ वास्तोष्पत्ते प्रतिजानीहि अस्मान् स्ववेशो अनमीवो भवा न:।
यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।। (ऋग्वेद ७.५.४.१)
ॐ भूर्भुव: स्व: वास्तुपुरुषाय नम:। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
गन्धाक्षतं पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि। ततो नमस्कारं करोमि।
ॐ विशंतु भूतले नागा: लोकपालश्च सर्वत:।
मंडलेs त्रावतिष्ठंतु ह्यायुर्बलकरा: सदा।।
वास्तुपुरुष देवेश! सर्वविघ्न विदारण।
शन्ति कुरुं; सुखं देहि, यज्ञेsस्मिन्मम सर्वदा।।
यज्ञ : अग्निस्थापन, प्रदीपन, अग्निपूजन आदि कर २४ बार गायत्री मंत्र की आहुति दें। खीर, मिष्ठान्न, गौ-घृत से ५ आहुति स्थान देवता, वास्तुदेवता, कुलदेवता, राष्ट्र देवता तथा सर्व देवताओं को दें।
पूर्णाहुति, वसोर्धारा, आरती, प्रसाद वितरण आदि कर अनुष्ठान पूर्ण करें।
४.१२.२०२१
***
सरस्वती वंदना
*
तेरी वीणा का बन जाऊँ तार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान।
जय माँ सरस्वती
विद्या-बुद्धि की तुम ही हो दाता, तुम्हीं सुर की देवी हो माता।
मैं भी जानूँ सुरों का सार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
आए चरणों में जो भी तुम्हारे, दूर अग्यान हों उसके सारे।
मन का मिट जाए सब अंधकार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
तब बहा ग्यान की ऐसी धारा, भेद मिट जाए मन का सारा।
प्रेम ज्योति जले द्वार-द्वार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
***
पल-पल प्रीत पली - महकी काव्य कली
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण - पल-पल प्रीत पली, काव्य संकलन, मधु प्रमोद, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८-८१-९३५५०१-३-७, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २००रु., प्रकाशक उषा पब्लिकेशंस, मीणा की गली अलवर ३०१००१, दूरभाष ०१४४ २३३७३२८, चलभाष ९४१४८९३१२०, ईमेल mpalawat24@gmail.com ]
*
मानव और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर सूक्षम अनुभूतियों को ग्रहण करना, अनुभूत की अनुभूति कर इस तरह अभिव्यक्त कर सकना कि अन्य जान सम-वेदना अनुभव करें, का ही है। सकल मानवीय विकास इसी धुरी पर केंद्रित रहा है। विविध भूभागों की प्रकृति और अपरिवेश के अनुकूल मानव ने प्रकृति से ध्वनि ग्रहण कर अपने कंठ से उच्चारने की कला विकसित की। फलत: वह अनुभूत को अभिव्यक्त और अभिव्यक्त को ग्रहण कर सका। इसका माध्यम बनी विविध बोलिया जो परिष्कृत होकर भाषाएँ बनीं। अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम अंग चेष्टाएँ, भाव मुद्राएँ आदि से नाट्य व नृत्य का विकास हुआ जबकि बिंदु और रेखा से चित्रकला विकसित हुई। वाचिक अभिव्यक्ति गद्य व पद्य के रूप में सामने आई। विवेच्य कृति पद्य विधा में रची गयी है।
मरुभूमि की शान गुलाबी नगरी जयपुर निवासी कवयित्री मधु प्रमोद रचित १० काव्य कृतियाँ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाश कुसुम, दूर तुमसे रहकर, मन का आनंद, अकुल-व्याकुल मन, रू-ब-रू जो कह न पाए, भजन सरिता, भक्ति सरोवर पुजारन प्रभु के दर की, पट खोल जरा घट के के बाद पल-पल प्रीत पली की ९५ काव्य रचनाओं में गीत व हिंदी ग़ज़ल शिल्प की काव्य रचनाएँ हैं। मधु जी के काव्य में शिल्प पर कथ्य को वरीयता मिली है। यह सही है कि कथ्य को कहने के लिए लिए ही रचना की जाती है किन्तु यह भी उतना ही सही है कि शिल्पगत बारीकियाँ कथ्य को प्रभावी बनाती हैं।
ग़ज़ल मूलत: अरबी-फारसी भाषाओँ से आई काव्य विधा है। संस्कृत साहित्य के द्विपदिक श्लोकों में उच्चार आधारित लचीली साम्यता को ग़ज़ल में तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) के रूप में रूढ़ कर दिया गया है। उर्दू ग़ज़ल वाचिक काव्य परंपरा से उद्भूत है इसलिए भारतीय लोककाव्य की तरह गायन में लय बनाये रखने के लिए गुरु को लघु और लघु उच्चारित करने की छूट ली गयी है। हिंदी ग़ज़ल वैशिष्ट्य उसे हिंदी व्याकरण पिंगल के अनुसार लिखा जाना है। हिंदी छंद शास्त्र में छंद के मुख्य दो प्रकर मातृ और वार्णिक हैं। अत, हिंदी ग़ज़ल इन्हीं में से किसी एक पर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी ग़ज़ल के आधार पर भारतीय भाषाओँ के शब्द भंडार को लेकर उर्दू ग़ज़ल निर्धारित लयखण्डों (बह्रों) पर आधारित होती हैं। मधु जी की ग़ज़लनुमा रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल की रीती-निति से सर्वथा अलग अपनी राह आप बनाती हैं। इनमें पंक्तियों का पदभार समान नहीं है, यति भी भिन्न-भिन्न हैं, केवक तुकांतता को साधा गया है।
इन रचनाओं की भाषा आम लोगों द्वारा दैनंदिन जीवन में बोली जानेवाली भाषा है। यह मधु जी की ताकत और कमजोरी दोनों है। ताकत इसलिए कि इसे आम पाठक को समझने में आसानी होती है, कमजोरी इसलिए कि इससे रचनाकार की स्वतंत्र शैली या पहचान नहीं बनती। मधु जी बहुधा प्रसाद गुण संपन्न भाषा और अमिधा में अपनी बात कहती है। लक्षणा या व्यजना का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। उनकी ग़ज़लें जहाँ गीत के निकट होती हैं, अधिक प्रभाव छोड़ती हैं -
मन मुझसे बातें करता है, मैं मन से बतियाती हूँ।
रो-रोकर, हँस-हँसकर जीवन मैं सहज कर पाती हूँ।
पीले पत्ते टूटे सारे, देखो हर एक डाल के
वृद्ध हैं सारे बैठे हुए नीचे उस तिरपाल के
मधु जी के गीत अपेक्षाकृत अधिक भाव प्रवण हैं-
मैंने हँसना सीख लिया है, जग की झूठी बातों पर
सहलाये भूड़ घाव ह्रदय के रातों के सन्नाटों पर
विश्वासों से झोली भरकर आस का दीप जलाने दो
मुझको दो आवाज़ जरा तुम, पास तो मुझको आने दो
किसी रचनाकार की दसवीं कृति में उससे परिपक्वता की आशा करना बेमानी नाहने है किन्तु इस कृति की रचनाओं को तराशे जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। गीति रचनाओं में लयबद्धता, मधुरता, सरसता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता आदि होना उन्हें स्मरणीय बनाता है। इस संकलन की रचनाएँ या आभास देती हैं कि रचनाकार को उचित मार्गदर्शन मिले तो वे सफल और सशक्त गीतकार बन सकती हैं।
*
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्व वाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
***
कृति चर्चा :
गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी. x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]
*
साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है।
गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया।
गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है।
पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा -
भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना
ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है?
लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने -
अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं
न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी -
जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम
दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम
जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी -
जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई
पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई
अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं
पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है -
तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है
इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है
दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-
मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो
बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।
लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके -
रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं
फलत:,
नींद हमें आती नहीं है / काँटे सा लगता बिस्तर
जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए
नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं
'बदनाम गली' इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है' याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का
जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ
वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो
रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ
इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए
अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं -
तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं
हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती
आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही
मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद
अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं
ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं -
एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो
तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं
याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश'।
एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं
जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां करने की कला कोई पूनम से सीखे।
उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं
बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं
देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो
लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर
आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई
राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया
साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन
गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी -
पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई
सुख से अधिक यंत्रणा / मिलती है अंतर के महामिलन में
अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।
३-१२-२०१९
***
मुक्तक सलिला
*
प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।
शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।
विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।
नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।
*
मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।
नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।
अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।
सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।
*
जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।
शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।
मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-
जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।
*
विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।
एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।
सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-
पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।
२-१२-२०१९
*
***
मुक्तक
.
संवेदना की सघनता वरदान है, अभिशाप भी.
अनुभूति की अभिव्यक्ति है, चीत्कार भी, आलाप भी.
निष्काम हो या काम, कारित कर्म केवल कर्म है-
पुण्य होता आज जो, होता वही कल पाप है.
छंद- हरिगीतिका
४-१२-२०१७
***
आव्हान
.
जीवन-पुस्तक बाँचकर,
चल कविता के गाँव.
गौरैया स्वागत करे,
बरगद देगा छाँव.
.
कोयल दे माधुर्य-लय,
देगी पीर जमीन.
काग घटाता मलिनता,
श्रमिक-कृषक क्यों दीन?
.
सोच बदल दे हवा, दे
अरुणचूर सी बाँग.
बीना बात मत तोड़ना,
रे! कूकुर ली टाँग.
.
सभ्य जानवर को करें,
मनुज जंगली तंग.
खून निबल का चूसते,
सबल महा मति मंद.
.
देख-परख कवि सत्य कह,
बन कबीर-रैदास.
मिटा न पाए, न्यून कर
पीडित का संत्रास.
.
श्वान भौंकता, जगाता,
बिना स्वार्थ लख चोर.
तू तो कवि है, मौन क्यों?
लिख-गा उषा अँजोर.
३-१२-२०१७
***
गीत
*
आकर भी तुम आ न सके हो
पाकर भी हम पा न सके हैं
जाकर भी तुम जा न सके हो
करें न शिकवा, हो न शिकायत
*
यही समय की बलिहारी है
घटनाओं की अय्यारी है
हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो
किसे दोष दे, करें बगावत
*
अपने-सपने आते-जाते
नपने खपने साथ निभाते
तपने की बारी आई तो
साये भी कर रहे अदावत
*
जो जैसा है स्वीकारो मन
गीत-छंद नव आकारो मन
लेना-देना रहे बराबर
इतनी ही है मात्र सलाहत
*
हर पल, हर विचार का स्वागत
भुज भेंटो जो दर पर आगत
जो न मिला उसका रोना क्यों?
कुछ पाया है यही गनीमत
३-१२-२०१६
***
स्वागत गीत:
नवगीत महोत्सव २०१४
*
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया
***
***
मुक्तक:
दे रहे हो तो सारे गम दे दो
चाह इतनी है आँखें नम दे दो
होंठ हँसते रहें हमेशा ही
लो उजाले, दो मुझे तम दे दो
*
(पूज्य मौसाजी श्री प्रमोद सक्सेना तथा मौसीजी श्रीमती कमलेश सक्सेना के प्रति)
शीश धर पैर में मैं नमन कर सकूँ
पीर मुझको मिले, शूल मुझको मिलें
धूल चरणों की मैं माथ पर धर सकूँ
ऐसी किस्मत नहीं, भाग्य ऐसा नहीं
रह सकूँ साथ में आपके मैं सदा-
दूर हूँ पर न दिल से कभी दूर हूँ
प्रार्थना देव से पीर कुछ हर सकूँ
३-१२-२०१५
***
गीत:
चलो चलें
*
चलो चलें अब और कहीं
हम चलो चलें.....
*
शहरी कोलाहल में दम घुटता हरदम.
जंगल कांक्रीट का लहराता परचम..
अगल-बगलवाले भी यहाँ अजनबी हैं-
घुटती रहती साँस न आता दम में दम..
ढाई इंच मुस्कान तजें,
क्यों और छलें?....
*
रहें, बाँहें, चाहें दूर न रह पायें.
मिटा दूरियाँ अधर-अधर से मिल गायें..
गाल गुलाबी, नयन शराबी मन मोहें-
मन कान्हा, तन गोपी रास रचा पायें..
आँखों में सतरंगी सपने,
पल न ढलें.....
*
चल मेले में चाट खाएँ, चटखारे लें,
पेंग भरें झूला चढ़ आसमान छू लें..
पनघट की पगडंडी पर खलिहान चले-
अमराई में शुक-मैना सब जग भूलें..
मिलन न आये रास जिन्हें
वे 'सलिल' जलें.....
४-१२-२०१०
***

रविवार, 3 दिसंबर 2023

नवगीत, सुमनलता श्रीवास्तव, शुभगति, छवि, गंग, सॉनेट, दोहा, रोला, कुंडलिया

सॉनेट 
मन-वीणा पर चोट लगी जब, तब झंकार हुई,
खून जरा सा सबने देखा सिसक रहा दिल मौन?
आँसू बहा न व्यर्थ, पीर कब बाँट सका है कौन?
रिश्तों की तुरपाई करते अँगुली चुभी सुई। 
अपनों के बेगानेपन की पीड़ा असह्य मुई,
बेगानों का अपनापन जैसे थाली में नौन,
करें पूर्णता का दावा नित पौआ-अद्धा-पौन,
मधु गगरी फोड़ी साकी ने कहकर 'आप चुई'। 
अहं-भवन में नहीं दरीचा, नहीं देहरी-द्वार, 
नींव भरम; छत वहम; मोह दीवारें रखतीं घेर,
छप्पर क्रोध; वासना तम सच सूरज रखते दूर। 
स्वार्थ कहे- 'मैं साथी तेरा; रह बाँहों में यार!    
संयम दिनकर दिन कर बोले- 'नहीं हुई है देर,
आँख खोल ले, आँख मूँदकर मत बन नाहक सूर। 
३.१२.२०२३ 
***
नवगीत
छंद लुगाई है गरीब की
*
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
जिसका जब मन चाहे छेड़े
ताने मारे, आँख तरेरे
लय; गति-यति की समझ न लेकिन
कहे सात ले ले अब फेरे
कैसे अपनी जान बचाए?
जान पडी सांसत में भाई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
कलम पकड़ कल लिखना सीखा
मठाधीश बन आज अकड़ते
ताल ठोंकते मुख पोथी पर
जो दिख जाए; उससे भिड़ते
छंद बिलखते हैं अनाथ से
कैसे अपनी जान बचाये
इधर कूप उस ओर है खाई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
यह नवगीती पत्थर मारे
वह तेवरिया लट्ठ भाँजता
सजल अजल बन चीर हर रही
तुक्कड़ निज मरजाद लाँघता
जाँघ दिखाता कुटिल समीक्षक
बचना चाहे मति बौराई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
३-१२-२०१९
***
मुक्तक सलिला
*
प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।
शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।
विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।
नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।
*
मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।
नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।
अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।
सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।
*
जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।
शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।
मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-
जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।
*
विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।
एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।
सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-
पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।
२-१२-२०१९
***
कार्यशाला
मुक्तिका
दिल लगाना सीखना है आपसे
२१२२ २१२२ २१२
*
दिल लगाना सीखना है आपसे
जी चुराना सीखना है आपसे
*
वायदे को आप जुमला कह गए
आ, न आना सीखना है आपसे
*
आस मन में जगी लेकिन बैंक से
नोट लाना सीखना है आपसे
*
बस गए मन में निकलते ही नहीं
हक जमाना सीखना है आपसे
*
देशसेवा कर रहे हम भी मगर
वोट पाना सीखना है आपसे
*
सिखाने के नाम पर ले सीख खुद
गुरु बनाना सीखना है आपसे
*
ध्यान कर, कुछ ध्यान ही करना नहीं
ध्येय ध्याना सीखना है आपसे
*
मूँद नैना, दिखा ठेंगा हँस रहे
मुँह बनाना सीखना है आपसे
*
आह भरते देख, भरना आह फिर
आजमाना सीखना है आपसे
४.१२.२०१६
***
एक गीत
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
२१-९-२०१६
***
छंद सप्तक १.
*
शुभगति
कुछ तो कहो
चुप मत रहो
करवट बदल-
दुःख मत सहो
*
छवि
बन मनु महान
कर नित्य दान
तू हो न हीन-
निज यश बखान
*
गंग
मत भूल जाना
वादा निभाना
सीकर बहाना
गंगा नहाना
*
दोहा:
उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।
कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।
*
सोरठा
सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।
जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।
*
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
*
कुण्डलिया
बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग।
मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।
गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता।
माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।
राधा पूछे "मजा, मिले क्या तरसाने में?"
उत्तर "तूने मजा, लिया था बरसाने में??"
*
३.१२.२०१८
***
नवगीत
सड़क पर
.
फ़िर सड़क पर
भीड़ ने दंगे किए
.
आ गए पग
भटकते-थकते यहाँ
छा गए पग
अटकते-चलते यहाँ
जाति, मजहब,
दल, प्रदर्शन, सभाएँ,
सियासी नेता
ललच नंगे हुए
.
सो रहे कुछ
थके सपने मौन हो
पूछ्ते खुद
खुदी से, तुम कौन हो?
गएरौंदते जो,
कहो क्यों चंगे हुए?
.
ज़िन्दगी भागी
सड़क पर जा रही
आरियाँ ले
हाँफ़ती, पछ्ता रही
तरु न बाकी
खत्म हैं आशा कुंए
.
झूमती-गा
सड़क पर बारात जो
रोक ट्रेफ़िक
कर रही आघात वो
माँग कन्यादान
भिखमंगे हुए
.
नेकियों को
बदी नेइज्जत करे
भेडि.यों से
शेरनी काहे डरे?
सूर देखें
चक्षु ही अंधे हुए
३-१२-२०१७
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
.
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
.
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
२-१२-२०१७
***
मुक्तक
*
क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? मैं व्यस्त हूँ
कहूँ क्यों जग से नहीं सन्यस्त हूँ
ज़माने से भय नहीं मुझको तनिक
आपके ही विरह से संत्रस्त हूँ
३-१२-२०१६
***
कृति चर्चा:
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
*
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती ।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।'
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती 'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीती पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
२-१२-२०१५
***
सवाल-जवाब:
Radhey Shyam Bandhu 11:20 pm (11 घंटे पहले)
आचार्य संजीव वर्मा सलिल आप तो कुछ जरूरत से ज्यादा नाराज लग रहे हैं । आप के साथ तो मैंने एेसी गुस्ताखी नहीं की फिर आप अलोकतांत्रिक भाषा का प्रयोग करके अपनी मर्यादा क्यों भंग कर रहे हैं ? अनजाने में कोई बात लग गयी हो तो क्षमा करें आगे आप का ध्यान रखेंगे ।
राधेश्याम बन्धु
*
आदरणीय बंधु जी!
नमन.
साहित्य सृजन में व्यक्तिगत राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। मैंने एक विद्यार्थी और रचनाकार के नाते मर्यादाओं का आज तक पालन ही किया है । ऐसे रचनाकार जो खुद मानते हैं कि उन्होंने कभी नवगीत नहीं लिखा, उन्हें सशक्त नवगीतकार बताकर और जो कई वर्षों से सैंकड़ों नवगीत रच चुके हैं उन्हें छोड़कर मर्यादा भंग कौन कर रहा है? इस अनाचार का शिकार लगभग ५० नवगीतकार हुए हैं। गुण-दोष विवेचन समीक्षक का अधिकार है पर उन सबके संकलनों को शून्य नहीं माना जा सकता । राजधानी की चमक-दमक में जिन्हें महिमामंडित किया गया वे भी मेरे अच्छे मित्र हैं किन्तु सृजन का मूल्यांकन व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर नहीं किया जा सकता।
अतीतजीवी मठाधीशों की मायानगरी में आपसे यह आशा की थी कि आप निष्पक्ष होंगे किन्तु निराशा ही हाथ लगी। लखनऊ में जब नवोदितों के रचनाकर्म पर आक्षेप किये जा रहे थे, उनके सृजन को बेमानी बताया जा रहा है तब भी आप उनके समर्थन में नहीं थे।
वह आयोजन नवगीत के लिये था, किसी कृति विशेष या व्यक्ति विशेष पर चर्चा के लिये नहीं। वहाँ प्रतिवर्षानुसार पूर्वघोषित सभी कार्यवाही यथासमय सुचारू रूप से सम्पादित की गयी। आपका अपनी पुस्तक पर चर्चा करने का विचार था तो आप कहते, आपने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। कहा होता तो एक अतिरिक्त सत्र की व्यवस्था कर दी जाती। मेरे कक्ष में दोनों रात देर तक अघोषित चर्चा सत्र चले रहे और नये नवगीतकार अपनी शंकाओं और जिज्ञासाओं के उत्तर मुझसे, डॉ. रणजीत पटेल और श्री रामकिशोर दाहिया से प्राप्त करते रहे। पुस्तकों के अवलोकन और अध्ययन का कार्य भी निरंतर चला। आपने चाहा होता तो आपकी कृतियों पर भी चर्चा हो सकती थी। लखनऊ के कई सशक्त और प्रतिष्ठित नवगीतकारों को आपकी पुस्तक पर बहुत कुछ कहना था किन्तु आपको असुविधा से बचाने के लिये उन्हें मना किया गया था और उनहोंने खुद पर संयम बनाये रखते हुए निर्धारित विषयों की मर्यादा का ध्यान रखा।
आपको आयोजन में सर्वाधिक सम्मान और बोलने के अवसर दिये गये। प्रथम सत्र में शेष वक्ताओं ने एक नये नवगीतकार को मार्दर्शन दिया आपको २ नवगीतकारों के सन्दर्भ में अवसर दिया गया। आपने उनके प्रस्तुत नवगीतों पर कम और अपनी पुस्तक पर अधिक बोला।
द्वितीय सत्र में आपको नवगीत वाचन का अवसर दिया गया जबकि पूर्णिमा जी, व्योम जी तथा मुझ समेत कई नवगीतकार जो आयोजन के अभिन्न अंग हैं, उन्होंने खुद नवगीत प्रस्तुत नहीं किये।
तृतीय सत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा चतुर्थ सत्र शोधपत्र वाचन के लिये था। यहाँ भी पूर्वघोषित के अलावा किसी ने शोध पत्र प्रस्तुत नहीं किये जबकि मेरा शोधपत्र तैयार था। जो पहली बार शोधपत्र प्रस्तुत कर रहे थे उन्हें प्रोत्साहित किया गया ।
पंचम सत्र में नवगीत की कृतियों पर समीक्षाएं प्रस्तुत की गयीं।
षष्ठं सत्र में नवगीत के विविध पहलुओं पर सारगर्भित चर्चा हुई।
सप्तम सत्र में नवगीतकारों ने एक-एक नवगीत प्रस्तुत किया। किसी ने अधिक प्रस्तुति का मोह नहीं दिखाया। ऐसा आत्मानुशासन मैंने अन्यत्र नहीं देखा।
इन सभी सत्रों में आप किसी न किसी बहाने अपनी पुस्तक को केंद्र में रखकर बार-बार बोलते रहे। किसी भी आयोजन में आयोजन आवधि के पूर्व और पश्चात् प्रवास-भोजन व्यवस्था आयोजक नहीं करते, जबकि लखनऊ में यह आने से जाने के समय तक उपलब्ध कराई गयी। सबसे अधिक समय तक उस सुविधा को लेने वाले आप ही थे । इसके बाद भी अवसर न दिये जाने का आक्षेप लगाना आपको शोभा देता है क्या? श्री रामकिशोर दाहिया ने इसीलिये 'जिस पत्तल में खाया उसी में छेद किया' की बात कही।
रहा मेरा ध्यान रखने की बात तो आप कृपया, मुझ पर ऐसी अहैतुकी कृपा न करें। मैं अपने सृजन से संतुष्ट हूँ, मुझे माँ शारदा के अलावा अन्य किसी की कृपा नहीं चाहिए।
आप पुस्तक मेले में समय लेकर ''श्री राधेश्याम 'बन्धु' की समीक्षात्मक कृतियाँ - एक मूल्यांकन'' परिसंवाद का आयोजन करा लें। मैं पूर्णत: सहयोग करूँगा और आपकी पुस्तक पढ़ चुके साथियों से पहुँचकर विविध आयामों पर चर्चा करने अथवा आलेख भेजने हेतु अनुरोध करूंगा।
विश्वास रखें आप या अन्य किसी के प्रति मेरे मन में अनादर नहीं है। हम सब सरस्वतीपुत्र हैं। छिद्रान्वेषण और असहिष्णुता हमारे लिए त्याज्य है। मतभेदों को मनभेद न मानें तथापि इस कठिन काल में स्वसाधनों से ऐसा गरिमामय आयोजन करनेवाले और उन्हें सहयोग देनेवाले दोनों सराहना और अभिनन्दन के पात्र हैं, आक्षेप के नहीं।
१-१२-२०१५
***
नवगीत -
*
आपन मूं
आपन तारीफें
करते सीताराम
*
जो औरों ने लिखा न भाया
जिसमें-तिसमें खोट बताया
खुद के खुदी प्रशंसक भारी
जब भी मौका मिला भुनाया
फोड़-फाड़
फिर जोड़-तोड़ कर
जपते हरि का नाम
*
खुद की खुद ही करें प्रशंसा
कहे और ने की अनुशंसा
गलत करें पर सही बतायें
निज किताब का तान तमंचा
नट-करतब
दिखलाते जब-तब
कहें सुबह को शाम
*
जिन्दा को स्वर्गीय बता दें
जिसका चाहें नाम हटा दें
काम न देखें किसका-कितना
सच को सचमुच धूल चटा दें
दूर रहो
मत बाँह गहो
दूरी से करो प्रणाम
*
आपन मूं
आपन तारीफें
करते सीताराम
२-१२-२०१५
***

दिसंबर कब? क्या?, अभियान सारिणी

दिसंबर कब? क्या?
*
1 दिसंबर -विश्व एड्स दिवस (विश्व)
सीमा सुरक्षा बल स्थापना दिवस (भारत)
स्वतंत्रता पुनर्स्थापन दिवस (पुर्तगाल)
लाल सेब खाओ दिवस (अमेरिका)
प्रथम राष्ट्रपति दिवस (कजाकिस्तान)
एकीकरण दिवस (रोमानिया)
राष्ट्रीय दिवस (म्यान्मार)
गणतंत्रता दिवस (केंद्रीय अफ्रिका गणराज्य)
स्वशासन दिवस (आइसलैंड)
शिक्षक दिवस (पनामा)
2 दिसंबर -अंतरराष्ट्रीय दास प्रथा उन्‍मूलन दिवस (विश्व)
राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस (भारत)
विश्व कंप्यूटर साक्षरता दिवस
3 दिसंबर - अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस (विश्व)
भोपाल गैस त्रासदी दिवस (भारत)
5 दिसंबर - अंतरराष्ट्रीय मृदा दिवस
4 दिसंबर - भारतीय नौसेना दिवस
7 दिसंबर - भारतीय सशस्त्र सेना झण्डा दिवस
10 दिसंबर - विश्व मानवाधिकार दिवस
11 दिसम्बर - यूनिसेफ दिवस
14 दिसंबर - राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस
18 दिसंबर - अल्पसंख्यक अधिकार दिवस
19 दिसंबर - गोवा मुक्ति दिवस
20 दिसंबर - अंतरराष्ट्रीय मानव एकता दिवस
22 दिसंबर - राष्ट्रीय गणित दिवस
23 दिसंबर - किसान दिवस
24 दिसंबर - राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस
25 दिसंबर - सुशासन दिवस
8-14 दिसंबर - अखिल भारतीय हस्तशिल्प सप्ताह
जन्म 
1 दिसंबर - काका कालेलकर , राजा महेन्द्र प्रताप
3 दिसंबर - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद , रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
4 दिसंबर - इन्द्र कुमार गुजराल , रामस्वामी वेंकटरमण
8 दिसंबर - बालकृष्ण शर्मा नवीन , बालाजी बाजीराव
9 दिसंबर - सोनिया गाँधी , आदित्य चौधरी
10 दिसंबर - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
11 दिसंबर - दिलीप कुमार , ओशो , प्रणब मुखर्जी
14 दिसंबर - संजय गाँधी , राज कपूर , उपेन्द्रनाथ अश्क
22 दिसंबर - गुरु गोबिन्द सिंह
22 दिसंबर - श्रीनिवास रामानुजन्
23 दिसंबर - चौधरी चरण सिंह
24 दिसंबर - मुहम्मद रफ़ी , बनारसीदास चतुर्वेदी
25 दिसंबर - मदनमोहन मालवीय , अटल बिहारी वाजपेयी , नौशाद
26 दिसंबर - ऊधम सिंह
27 दिसंबर - ग़ालिब
28 दिसंबर - रतन टाटा , धीरूभाई अंबानी
निधन 
3 दिसंबर - ध्यान चन्द
5 दिसंबर - अमृता शेरगिल , अरबिंदो घोष
8 दिसंबर - विपिन सिंह रावत
6 दिसंबर - डॉ. भीमराव आम्बेडकर
10 दिसंबर - अशोक कुमार
11 दिसंबर - कवि प्रदीप , रवि शंकर
12 दिसंबर - रामानन्द सागर , मैथिलीशरण गुप्त
15 दिसंबर - सरदार बल्लभ भाई पटेल
19 दिसंबर - अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ , राम प्रसाद बिस्मिल
21 दिसंबर - महावीर प्रसाद द्विवेदी , तेजी बच्चन
23 दिसंबर - पी. वी. नरसिंह राव
28 दिसंबर - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी , सुमित्रानंदन पंत
30 दिसंबर - दुष्यंत कुमार , विक्रम साराभाई
***
रविवार

वन्दना/चिंतन सत्र- समय- प्रातः ६ बजे से ८बजे तक (प्रथम सत्र)
विषय: वंदना, प्रार्थना, भजन- लिख, पढ़ या गाकर प्रस्तुत करें। 
चिंतन, सुभाषितम् , उक्तियाँ, सूक्तियाँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे आदि का स्वागत है। यथोचित अर्थ या संदर्भ दीजिए।  
सृजन सत्र - समय- प्रातः 8 बजे से शाम 6 बजे तक (द्वितीय सत्र)
विषय: कला एवं मन रंजन- गायन, वादन, नर्तन, रेखांकन, चित्रांकन आदि। पाकविधि, श्रृंगार विधि, उद्यानिकी- गृहवाटिका, बोनसाई निर्माण विधि आदि। 
लाइव प्रसारण: समय- पूर्वा.११:०० बजे से अप.१२.३० बजे (रविवार)
मध्यकालीन तृतीय सत्र- विषय : संत समागम
संचालिका: डॉ. संगीता भारद्वाज "मैत्री", भोपाल 
मुक्त सृजन सत्र- रात्रि ८ बजे से प्रात: ६ बजे तक (चतुर्थ सत्र)
मुक्त रचना काल
१.गद्य / पद्य में स्वलिखित रचना। 
२. पाठक प्रतिक्रिया।
टीप- कट-पेस्ट/कॉपी-पेस्ट वर्जित। चित्र, सूचनाएँ, लिंक आदि पटल प्रबंधक को भेजिए। वे उपयुक्त पाने पर पटल पर प्रस्तुत करेंगे, अनुपयुक्त होने पर निरस्त करेंगे। 
***

लघुकथा की आत्म कथा

 लघुकथा की आत्म कथा 

*

मैं लघुकथा हूँ। 

मेरे दो तत्व 'लघुता' और 'कथा' हैं। 

लघुता क्या है?

लघुता का अर्थ वामन में विराट होना है, बिंदु में सिंधु होना है, कंकर में शंकर होना है। तभी तो  कहा गया है - 

प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर। 

चीटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूर।।  

मेरी आकारिक लघुता में विराट कथा तत्व का समावेशन आवश्यक है। कथा की विराटता से आशय उसकी मर्म बेधकता से है। 

आकारिक लघुता के लिए शब्दों की उपयुक्तता, सटीकता सार्थकता और मितव्ययिता होना ही चाहिए। 

कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भावोद्रेक लघुकथा का वैशिष्ट्य है। 

भाव का उद्रेक मर्म को छूता है। मर्म बेधकता लघुकथा का दूसरा लक्षण है। 

मर्म-बेधन के लिए रसोद्रेक होना चाहिए। अब तक लघुकथा में अधिकांशत: विडंबना और विसंगति जनित करुण रस का प्राधान्य रहा है। यह एकांगीपन आधुनिक लघुकथा में नहीं होना चाहिए। रस जितना प्रगाढ़ होगा, लघुकथा उतना अधिक असर छोड़ेगी। लघुकथा रसलीन होकर रसनिधि और रसखान बन सके तो भुलाई नहीं जा सकेगी। 

रस की एक बूँद ही 'तरस' को 'सरस' में बदल देती है। नीरस लघुकथा बिना रस के गन्ने की तरह है जिसे नष्ट कर दिया जाता है। रस की अधिकता 'सरस' में 'सड़न' पैदा कर देती है। इसलिए लघुकथा में रस टोकरी भर गुलाब फूल से प्राप्त बूँद मात्र इत्र की तरह हो।   

कथा क्या है?

कथा वह जो कही जाए। 

क्या, क्यों, कैसे, किसके द्वारा, किसके लिए और कब कही जाए? 

इन प्रश्नों का उत्तर ही लघुकथा में कथा तत्व का निर्धारण कर सकता है। इन प्रश्नों का उत्तर लघुकथाकार को अपने भीतर ही खोजना होता है। हर लघुकथाकार के लिए इन प्रश्नों के उत्तर अन्यों से भिन्न होंगे। लघुकथाकार किसी अन्य के उत्तरों को आदर्श माँ लेगा तो उसकी लघुकथा किसी कारखाने में बने उत्पाद की तरह अमौलिक अर्थात नकल प्रतीत होगी। 

शेष फिर 

संजीव      


जीवन सलिला में घटना सूर्य को देख, विचार हथेली पर कलम की अँगुली से एक ठोकर मारें। फैलते प्रकाश को समेटे लघुकथा जीवन में प्रकाश बिखेरती है। सकारात्मक चिंतन परक लघुकथाएँ लिखिए, नकारात्मकता से बचिए।

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

पद, बृज मुक्तिका, सवैया मुक्तक, त्रिपदिक मुक्तिका, शेर, हिंदी वंदना, पैरोडी

ब्रज-ग़ज़ल
तुम तौ खाओ दूध - मलाई जी भरिकै
हमकों खाय रई महँगाई जी भरिकै
कल कूँ सिगरे सिंथेटिक ही पीओगे
गैया काटें रोज कसाई जी भरिकै
नेता - अफसर लूटि रए हैं जनता कूँ
चोर-चोर मौसेरे भाई, जी भरिकै
होय न सत्यानास जब तलक भारत कौ
हिन्दू-मुस्लिम करौ लड़ाई जी भरिकै
जे छिछोरगर्दी तुमकूँ लै ही डूबी
चौराहे पै भई पिटाई जी भरिकै
वो आरक्षन पायकेँ अफसर बनि बैठे
'अंजुम' तुमनें करी पढ़ाई जी भरिकै
ब्रज-सॉनेट 
जी भरि कै 
*
सौ चूहे खा हज कों जाओ जी भरिकै
जी भरिकै वादे करिकै सत्ता पाओ 
जुमला कहिकै सारे वादे तुरत भुलाओ 
 
 

२.१२.२०२३ 
***
एक पद
*
मैया! मोहे मन की बात न भाए।
मनमानी कर रई रे सत्ता, अंधभक्त गुर्राए।।
नोट बंद कर बरसों जोड़ी रकम धुआँ करवाए।
काला धन सुरसा मूँ घाईं, पल पल बढ़ता जाए।।
बैर बढ़ा रओ परोसियन से, नन्नो सोइ गुर्राए।
ताकतवर खों आँख दिखा के, अपनी जमीं गँवाए।।
सेना करे पराक्रम, पीट ढिंढोरा वोट मँगाए।
सरकारी संपत्ति बेंच के, बचतें सोई गँवाए।।
कोरोना सौ को मारे, जे झूठी दो बतलाए।
कष्ट कोऊ खों देखत नई, बरसों धरना धरवाए।।
नदी लास पै लास उगल रई, चादर डाल छिपाए।
चुनी भई सरकारें दईया, कैसऊँ करें गिराए।।
जन की बात कोऊ नई सुन रओ, प्रैस झूठ फैलाए।
हाँ में हाँ जो नई मिलाए, ओ पे जाँच बिठाए।।
२.१२.२०२१
***
बृज मुक्तिका
*
जी भरिकै जुमलेबाजी कर
नेता बनि कै लफ्फाजी कर
*
दूध-मलाई गटक; सटक लै
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर
*
जनता कूँ आपस में लड़वा
टी वी पै भाषणबाजी कर
*
अंडा शाकाहारी बतला
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर
*
सौ चूहे खा हज करने जा
जो शरीफ उसको पाजी कर
***
सवैया मुक्तक
एक अकेला
*
एक अकेला दिनकर तम हर, जगा कह रहा हार न मानो।
एक अकेला बरगद दृढ़ रह, कहे पखेरू आश्रय जानो।
एक अकेला कंकर, शंकर बन सारे जग में पुजता है-
एक अकेला गाँधी आँधी, गोरी सत्ता तृणमूल अनुमानो।
*
एक अकेला वानर सोने की लंका में आग लगाता।
एक अकेला कृष्ण महाभारत रचकर अन्याय मिटाता।
एक अकेला ध्रुव अविचल रह भ्रमित पथिक को दिशा ज्ञान दे-
एक अकेला यदि सुभाष, सारे जग से लोहा मनवाता।
*
एक अकेला जुगनू; दीपक जले न पग ठोकर खाता है
एक अकेला लालबहादुर जिससे दुश्मन थर्राता है
एक अकेला मूषक फंदा काट मुक्त करता नाहर को-
एक अकेला जगता जब तब शीश सभी का झुक जाता है।
२-१२-२०२०
***
त्रिपदिक मुक्तिका
*
निर्झर कलकल बहता
किलकिल न करो मानव
कहता, न तनिक सुनता।
*
नाहक ही सिर धुनता
सच बात न कह मानव
मिथ्या सपने बुनता।
*
जो सुना नहीं माना
सच कल ने बतलाया
जो आज नहीं गुनता।
*
जिसकी जैसी क्षमता
वह लूट खा रहा है
कह कैसे हो समता?
*
बढ़ता न कभी कमता
बिन मिल मिल रहा है
माँ का दुलार-ममता।
***
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
२.१२.२०१८
***
दो दोहे जुगुनू जगमग कर रहे सूर्य-चंद्र हैं अस्त.
मच्छर जी हैं जगजयी, पहलवान हैं पस्त.
*
अपनी अपनी ढपलियाँ अपने-अपने राग.
कोयल-कंठी मौन है, सुरमणि होते काग.
२.१२.२०१७
***
हिंदी वंदना
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।
***
आइये कविता करें:१.
[लेखक परिचय- आचार्य संजीव वर्मा
'सलिल' गत ३ दशकों से हिंदी साहित्य, भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य,-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। १२ राज्यों की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा शताधिक अलंकरणों, पुरस्कारों आदि से सम्मानित किये जा चुके सलिल जी की ५ पुस्तकें (१. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २ लोकतंत्र का मक़बरा कविता संग्रह, ३. मीत मेरे कविता संग्रह, ४. भूकम्प के साथ जीना सीखें तकनीकी लोकोपयोगी, ५. काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह,) प्रकाशित हैं जबकि लघुकथा, दोहा, गीत, नवगीत, मुक्तक, मुक्तिका, लेख, आदि की १० पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्म व् साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी प्रस्तुत लेख में गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।]
काव्य रचना के आरम्भिक तत्व १. भाषा, २. कथ्य या विषय, ३. शब्द भण्डार, ४. छंद तथा ५. कहन अर्थात कहने का तरीका हैं.
शब्दों को विषय के भावों के अनुसार चुनना और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना कि उन्हें पढ़ते-सुनते समय लय (प्रवाह) की अनुभूति हो, यही कविताई या कविता करने की क्रिया है.
आप नदी के किनारे खड़े होकर देखें बहते पानी की लहरें उठती-गिरती हैं तो उनमें समय की एकरूपता होती है, एक निश्चित अवधि के पश्चात दूसरी लहर उठती या गिरती है. संगीत की राग-रागिनियों में आरोह-अवरोह (ध्वनि का उतार-चढ़ाव) भी समय बद्ध होता है. यहाँ तक कि कोयल के कूकने, मेंढक के टर्राने आदि में भी समय और ध्वनि का तालमेल होता है. मनुष्य अपनी अनुभूति को जब शब्दों में व्यक्त करता है तो समय और शब्द पढ़ते समय ध्वनि का ताल-मेल निश्चित हो तो एक प्रवाह की प्रतीति होती है, इसे लय कहते हैं. लय कविता का अनिवार्य गुण है.
लय को साधने के लिये शब्दों का किसी क्रम विशेष में होना आवश्यक है ताकि उन्हें पढ़ते समय समान अंतराल पर उतार-चढ़ाव हो, ये वांछित शब्द उच्चारण अवधि के साथ सार्थक तथा कविता के विषय के अनुरूप और कवि जो कहना चाहता है उसके अनुकूल होना चाहिए। यहाँ कवि कौशल, शब्द-भण्डार और बात को आवश्यकता के अनुसार सीधे-सीधे, घुमा-फिराकर या लक्षणों के आधार पर या किसी बताते हुए इस तरह लय भंग न हो और जो वह कह दिया जाए. छान्दस कविता करना इसीलिये कठिन प्रतीत होता है.
छन्दहीन कविता में लय नहीं कथ्य (विचार) प्रधान होता है. विराम स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर दिया जाता है.
कविता में पंक्ति (पद) के उच्चारण का समय समान रखने के लिए ध्वनि को २ वर्गों में रखा गया है १. लघु २. दीर्घ. लघु ध्वनि की १ मात्रा तथा दीर्घ मात्राएँ गिनी जाती हैं. छोटे-बड़े शब्दों को मिलाकर कविता की हर पंक्ति समान समय में कही जा सके तो जा सके तो लय आती है. पंक्ति को पढ़ते समय जहाँ श्वास लेने के लिये शब्द पूर्ण होने पर रुकते हैं उसे यति कहते हैं. यति का स्थान पूर्व निश्चित तथा आवश्यक हो तो उससे पहले तथा बाद के भाग को चरण कहा जाता है. अ, इ, उ तथा ऋ लघु हैं जिनकी मात्रा १ है, आ, ई, ऊ, ओ, औ, तथा अं की २ मात्राएँ हैं.
आभा सक्सेना: संजीव जी मेरा आपके दिये मार्गदर्शन के बाद प्रथम प्रयास प्रतिक्रिया अवश्य देखें .....
बसन्त
बागों में बसन्त छाया जब से २२ २ १२१ २२ ११ २ = १८
खिल उठे हैं पलाश तब से ११ १२ २ १२१ ११ २ = १५
रितु ने ली अंगडाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही कुछ बैठी बैठी २१ १२ ११ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही है ठंड की झालर २१ १२ २ २१ २ २११ = १७
ठंडी ठंडी छांव भी खिसके २२ २२ २१ २ ११२ = १७
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
दुबक रजाई में क्यों तुम बैठे १११ १२२ २ २ ११ २२ = १८
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
लिये जा रहे चाय के चस्के १२ २ १२ २१ २ २२ = १७
फूल खिल उठे पीले पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं वह मुझसे हंसके ११२२ ११ ११२ ११२ = १६
बसन्त है रितुराज यहाँ का १२१ २ ११२१ १२ २ = १६
पतंग खेलतीं गांव गगन के १२१ २१२ २१ १११ २ = १७
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
इस रचना की अधिकांश पंक्तियाँ १६ मात्रीय हैं. अतः, इसकी शेष पंक्तियों को जो कम या अधिक मात्राओं की हैं, को १६ मात्रा में ढालकर रचना को मात्रिक दृष्टि से निर्दोष किया जाना चाहिए। अलग-अलग रचनाकार यह प्रयास अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. एक प्रयास देखें:
बागों में बसन्त आया है २२ २ १२१ २२ २ = १६
पर्वत पर पलाश छाया है २२ ११ १२१ २२ २ = १६
रितु ने ली अँगड़ाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही है बैठी-बैठी २१ १२ २ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके-किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही झालर जाड़े की २१ १२ २११ २२ २ = १६
ठंडी-ठंडी छैंया खिसके २२ २२ २२ ११२ = १६
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
कहो दुबककर क्यों तुम बैठे १२ १११११ २ ११ २२ = १६
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
चैया पी लो तन्नक हँसके २२ २ २ २११ ११२ = १६
फूल खिल उठे पीले-पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं आपस में छिपके ११२२ २११ २ ११२ = १६
है बसन्त रितुराज यहाँ का २ १२१ ११२१ १२ २ = १६
उड़ा पतंग गाँव में हँसके १२ १२१ २१ २ ११२ = १६
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
मात्रिक संतुलन की दृष्टि से यह रचना अब निर्दोष है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं. एक बात और देखें: यहाँ हर पंक्ति का अंतिम वर्ण दीर्घ है.
***
कार्यशाला-
दो कवि एक मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं निश्छल बाल मीत सा हूँ . - सलिल
२.१२.२०१६
***
संस्मरण
कवि प्रदीप द्वारा पण्डित नरेंद्र शर्मा का उल्लेख
*
"अतीत के झरोखे से झाँक रहा हूँ। इलाहाबाद में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन था। काफ़ी भीड़ थी। उसी सम्मेलन में नरेन्द्र जी से मेरा अनायास परिचय हो गया था। समय की लीला अजीब होती है। मैं नया कवि होने के नाते मंच के एक कोने में सिमटा-सिकुड़ा बैठा था।"
"अपने से थोड़ी दूर बैठे एक गौरवर्ण सुकुमार-सौम्य युवक को न जाने क्यों मैं बार-बार देख लिया करता था। वे भी कविता पाठ के लिए आमंत्रित थे और मैं भी। अध्यक्ष की घोषणा से पता चला कि यही पंडित नरेन्द्र शर्मा हैं। जब दो कवियों के बाद मेरी बारी आयी, तो मैंने एक गीत सुनाया (यह बता दूँ कि शुरू से ही मेरी पठन-शैली बड़ी अच्छी थी)। गीत के बोल थे-
'मुरलिके छेड़ सुरीली तान,
सुना-सुना मादक-अधरे,
विश्व - विमोहन तान।'
"मैंने देखा सुंदर युवक नरेन्द्र जी मेरे पास आ कर बैठ गये और गीत में मेरे शब्द-प्रयोग 'मादक-अधरे' की ख़ूब प्रशंसा करके शाबाशी दी।"
"यही हमारी पहली मुलाक़ात मित्रता में बदल गयी। फिर तो हम अनेकों बार लगातार मिलते रहे। उक्त बात क़रीब साठ वर्ष पहले की है। उमर में नरेन्द्र जी दो वर्ष मेरे अग्रज थे।"
"सन् 1934 में इलाहाबाद छोड़ कर मैं लखनऊ आ गया। फिर तो हमारी जन्म-कुंडलियों ने अपना-अपना काम शुरू कर दिया। नरेन्द्र जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही रहे और मैं आगे के विद्याभ्यास के लिए लखनऊ आ गया। इस प्रकार हम एक-दूसरे से दूर हो गये। लखनऊ में चार वर्ष रहने के बाद, अचानक भाग्य की आँधी ने मुझे फ़िल्म क्षेत्र में ला पटका एक गीतकार के रूप में। यह सन् 1939 की बात है। नरेन्द्र जी के कार्यक्षेत्र भी बदलते रहे।"
"हम दोनों अपने-अपने क्षेत्र में काम करते रहे। परंतु हमारे स्नेह-बंधन में कभी कमी नहीं आयी।"
"उनके पास बैठे हुए मेरे भीतर वैसे ही तरंगें उठती थी, जैसी बचपन में अपने नाना, मौसा के पास बैठ कर उठती थी। वही भव्य भारतीयता, ऐसी साधारणता कि जिसके आगे कैसी भी विशिष्टता फीकी पड़ जाए।"
***
स्मरण:
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
*
ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले।
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***

गीति-काव्य में छंद, गीत, नवगीत तथा नई कविता

आलेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता / गीत, नवगीत तथा नई कविता
संजीव 'सलिल'
*
भूमिका: ध्वनि और भाषा
अध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व सामने को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनीअनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्रगुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से स्थयित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का लेख रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी आदि सहचरों से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त ब्राम्हण-कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त हुआ। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का विज्ञानं विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चीनी जैसी चित्रात्मक लिपि के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला., बृज, अवधि भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से नर का व्याध द्वारा वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है। हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति की मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति और पर्यावरण का योगदान ही इंगित करते हैं।
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका, इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञानं के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही पिंगल के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है।इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियां प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीं प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते हैं।
उर्दू काव्य विधाओं में छंद-
भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गानों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।
वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें
बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया
उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।
अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।
कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
*
हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'
अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।
रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?
औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल
इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल
गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-
गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे पाचनकाए या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।
गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं।गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।
गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता।
***