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बुधवार, 3 मई 2023

सॉनेट शारदा स्तुति, लघुकथा, परशुराम, हास्य दिवस, चंद्रकांता अग्निहोत्री, हाइकु मुक्तक, दो दुमी दोहा,

सॉनेट
शारदा स्तुति
*
शारद! वीणा मधुर बजाओ
कुमति नाश कर सुमति मुझे दो
कर्म धर्ममय करूँ सुगति हो
मैया! मन मंदिर में आओ।
अपरा सीखी, सत्य न पाया
माया मोह भुला भटकाते
नाते राह रोक अटकाते
माता! परा ज्ञान दो, आओ
जन्म जन्म संबंध निभाओ
सुत को अपनी गोद बिठाओ
अंबे! नाता मत बिसराओ
कान खींच लो हँस मुस्काओ
झट से रीझो पुलक रिझाओ
जननी! मुझको आप बनाओ
२-५-२०२२
•••
सॉनेट
सपने
अनजाने ही दिखते सपने
कब क्या कैसे क्यों होता है?
क्यों हँसता है, क्यों रोता है?
लागू कहीं न कोई नपने
आँख खुले तो गायब सपने
क्या पाता है, क्या खोता है?
नाहक ही चिंता ढोता है
कहीं नहीं जो रहे न अपने
बेसिरपैर घटें घटनाएँ
मरुथल में भी नव चलाएँ
जुमला कह सरकार बनाएँ
सपनों का घर-घाट न होता
कहीं न पिंजरा, कहीं न तोता
बिन साबुन-पानी मन धोता
३-५-२०२२
***
लघुकथा
मौन?
आज परशुराम जयंती है, समाचार पत्र में कई कार्यकर्मों की सूचनाएँ,, कुछ मित्र मुझे भी पकड़कर एक कार्यक्रम में ले गए। परशुराम जी की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया, नारे लगाए गए। मुझे मौन देख एक ने एक वक्ता ने मेरी और घूरते हुए कहा जिस तरह परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किया था उसी तरह हमें भी विधर्मियों का संहार करना होगा।
मेरी बारी आई तो मैंने कहा की परशुराम जी ने अपने पिता के कहने पर अपनी माँ का वध बिना कुछ आगा-पीछा किये कर दिया था। उनका अनुकरण आपमें से कौन करेगा?
उत्तर में छाया रहा मौन।
***
विश्व हास्य दिवस
विश्व भर में मई महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है। इसका विश्व दिवस के रूप में प्रथम आयोजन ११ जनवरी, १९९८ को मुंबई में किया गया था। विश्व हास्य योग आंदोलन की स्थापना का श्रेय डॉ मदन कटारिया को जाता है।
हास्य रचनाः
नियति
संजीव
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाए, एक अदद तब बीबी पाए
सोचे धौन्स जमाऊँ इस पर, नचवाए वह आँसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाए गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***
घर से बाहर जान बचाए, पड़ोसिनों से आँख लड़ाए
फूल लिए जब देने जाए, फूल कहाकर वापिस आए
बिअर उठा जब फिर से जाए, दिखे दूर वह बियर उठाए
सोचे कोई और पटाये, शासन तालाबंदी लाए
लौट के बुद्धू घर को आए, बीबी से पटरी बैठाए
बैठे हैं निज मुँह लटकाए, बीबी खुशखबरी दे गाए
३-५-२०२०
***
***
कृति चर्चा:
'सच्ची बात' लघुकथाओं की ज़िंदगी से मुलाकात
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: सच्ची बात, लघुकथा संग्रह, चंद्रकांता अग्निहोत्री, प्रथम संस्करण २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २२५/-, विश्वास प्रकाशन, अम्बाला शहर, हरयाणा, चलभाष ०९८९६१००५५७, लघुकथाकार संपर्क: कोठी ४०४, सेक्टर ६, पंचकुला, हरयाणा, चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: अग्निहोत्री.chandra@gmail.com]
*
लघुकथा गागर में गागर की तरह कम शब्दों में अधिक ही नहीं अधिक से अधिक कहने की कला है. सामान्यत: लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित घटनाजनित प्रभावों का मूल्यांकन होती है. लघुकथा में उपन्यास की तरह सुदीर्घ और सुचिंतित घटनाओं और चरित्रों का विस्तार और या कहानी की तरह किसी कालखंड विशेष या घटनाक्रम विशेष का विश्लेषण न होकर किसी घटना विशेष को केंद्र में रखकर उसके प्रभाव को इंगित मात्र किया जाता है. अब तो पर-लेखन की परंपरा को ही चलभाष ने काल-बाह्य सा कर दिया है किन्तु जब पत्र-लेखन ही अनुभूतियों, संवेदनाओं आयर परिस्थितियों को संप्रेषित करने का एक मात्र सुलभ-सस्ता साधन था तब
ग्रामीण बालाएँ सुदूर बसे प्रयतम को पत्र लिखते समय समयाभाव, शब्दाभाव, संकोच या प्रापक को मानसिक कष्ट से बचने के लिए के कारण अंत में 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर मकुट हो लेती थीं. लघुकथा यही 'कम लिखे से अधिक समझाने' की कला है. लघुकथाकार घट्न या पात्रों का चित्रं नहीं संकेतन मात्र करता है, अनुभूत को संक्षेप में भिव्यत कर शेष पाठक के अनुमान पर छोड़ दिया जाता है. इसी लिए लघ्कथा लेखन जितना सरल दीखता है, उतना सरल होता नहीं.
***
हाइकु मुक्तक:
*
चंचला निशा, चाँदनी को चिढ़ाती, तारे हैं दंग.
पूर्णिमा भौजी, अमावस ननद, होनी है जंग.
चन्द्रमा भैया, चक्की-पाटों के बीच, बेबस पिसा
सूर्य ससुर, सास धूप नाराज, उतरा रंग
*
रवि फेंकता, मोहपाश गुलाबी, सैकड़ों कर
उषा भागती, मन-मन मुस्काती, बेताबी पर
नभ ठगा सा, दिशाएँ बतियातीं, वसुधा मौन-
चूं चूं गौरैया, शहनाई बजाती, हँसता घर
*
श्री वास्तव में, महिमामय कर, कीर्ति बढ़ाती.
करे अर्चना, ऋता सतत यश, सुषमा गाती.
मीनाक्षी सवि, करे लहर सँग, शत क्रीड़ाएँ
वर सुनीति, पथ बाधा से झट, जा टकराती..
*****
दो दुम का दोहा
*
राजनीति में नीति का,
कहीं न किंचित काम.
निज प्रशस्ति कर आप मुख,
रहो बढ़ाते दाम.
लोग बिलखें या रोएँ
काँध पर तुमको ढोएँ
*
एक दूसरे को चलो,
दें हम दोनों दोष.
मिल-जुल लूटें देश को,
दिखला झूठा रोष.
लोग संतोष करेंगे

हमारा कोष भरेंगे

३-५-२०१८
***
सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
*
अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.
नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.
१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.
२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.
३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.
४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें
५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.
६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.
७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.
८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.
९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
***

***
नवगीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रए मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपैया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर, हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख-मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा-गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट, अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
***
दोहे गरमागरम :
*
जेठ जेठ में हो रहे, गर्मी से बदहाल
जेठी की हेठी हुई, थक हो रहीं निढाल
*
चढ़ा करेला नीम पर, लू पर धूप सवार
जान निकाले ले रही, उमस हुई हथियार
*
चुआ पसीना तर-बतर, हलाकान हैं लोग
पोंछे टेसू हवा से, तनिक न करता सोग
*
नीम-डाल में डाल दे, झूला ठंडी छाँव
पकी निम्बोली चूस कर, भूल न जाना गाँव
*
मदिर गंध मन मोहती, महुआ चुआ बटोर
ओली में भर स्वाद लूँ, पवन न करना शोर
*
कूल न कूलर रह गया, हीट कर रही तंग
फैन न कोई फैन का, हारा बेबस जंग
*
एसी टसुए बहाता, बिजली होती गोल
पीट रही है ढोल लू, जय सूरज की बोल
*
दोहे गरमागरम सुन, उड़ा जा रहा रंग
मेकप सारा धुल गया, हुई गजल बदरंग
३-५-२०१७
*
घनाक्षरी सलिला:१
घनाक्षरी: एक परिचय
*
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है. घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती. अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है. इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं. वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते. इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है. समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है. वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण. = वातानुकूलित, पर्यावरण आदि.
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ सभी लघु वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
*****
२.५.२०१५

कौन-सा धर्मग्रंथ कब लिखा गया...
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
हिन्दू धर्मग्रंथ : देशी और विदेशी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के अनुसार संस्कृत में लिखे गए 'ऋग्वेद' को दुनिया की प्रथम और सबसे प्राचीन पुस्तक माना जाता है। हिन्दू धर्म इसी ग्रंथ पर आधारित है। इस ग्रंथ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण रचना माना गया है। प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था।
हिन्दू धर्मग्रंथ 'वेद' को जानिए...
लिखित रूप से पाया गया ऋग्वेद इतिहासकारों के अनुसार 1800 से 1500 ईस्वी पूर्व का है। इसका मतलब कि आज से 3 हजार 815 वर्ष पूर्व इसे लिखा गया था। हालांकि शोधकर्ता यह भी कहते हैं कि वेद वैदिककाल की वाचिक परंपरा की अनुपम कृति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले 6-7 हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है, क्योंकि इसमें उक्त काल के ग्रहों और मौसम की जानकारी से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। खैर, हम यह मान लें कि 3 हजार 815 वर्ष पूर्व लिखे गए अर्थात महाभारत काल के बहुत बाद में तब लिखे गए, जब ह. अब्राहम थे जिनको इस्लाम में इब्राहीम कहा जाता है। महान खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ यानी 5152 वर्ष पूर्व। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी।
शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म आज से 7129 वर्ष पूर्व अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। चैत्र मास की नवमी को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि वेदों का सार उपनिषद और उपनिषदों का सार गीता है। 18 पुराण, स्मृतियां, महाभारत और रामायण हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं हैं। वेद, उपनिषद और गीता ही धर् धर्मग्रंथ : जैन धर्म का मूल भारत की प्राचीन परंपराओं में रहा है। आर्यों के काल में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। अर्हंतं, जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था।
जैन धर्मग्रंथ और पुराण
महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। माना जाता है कि ईसा से 800 वर्ष पूर्व 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ था।
599 ईस्वी पूर्व अर्थात 2614 वर्ष पूर्व अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विध संघ कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया।
यहूदी धर्मग्रंथ : यहूदियों के धर्मग्रंथ 'तनख' के अनुसार यहूदी जाति का उद्भव पैगंबर हजरत अबराहम (इस्लाम में इब्राहीम, ईसाइयत में अब्राहम) से शुरू होता है। आज से करीब 4,000 साल पुराना यहूदी धर्म वर्तमान में इसराइल का राजधर्म है।
यहूदी धर्म को जानें
दुनिया के प्राचीन धर्मों में से एक यहूदी धर्म से ही ईसाई और इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हुई है। यहूदी धर्म की शुरुआत पैगंबर अब्राहम (अबराहम या इब्राहीम) से मानी जाती है, जो ईसा से लगभग 1800 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 3814 वर्ष पूर्व। ईसा से लगभग 1,400 वर्ष पूर्व अबराहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। मूसा ही यहूदी जाति के प्रमुख व्यवस्थाकार हैं। मूसा को ही पहले से ही चली आ रही एक परंपरा को स्थापित करने के कारण यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है।
यहूदी मान्यता के अनुसार यहोवा (ईश्वर) ने तौरात (तोराह व तनख) जो कि मूसा को प्रदान की, इससे पहले सहूफ़-ए-इब्राहीमी, जो कि इब्राहीम को प्रदान की गईं। यह किताब अब लुप्त हो चुकी है। इसके बाद ज़बूर, जो कि दाऊद को प्रदान की गई। फिर इसके बाद इंजील (बाइबल), जो कि ईसा मसीह को प्रदान की गई।
अब्राहम और मूसा के बाद दाऊद और उसके बेटे सुलेमान को यहूदी धर्म में अधिक आदरणीय माना जाता है। सुलेमान के समय दूसरे देशों के साथ इसराइल के व्यापार में खूब उन्नति हुई। सुलेमान का यहूदी जाति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 37 वर्ष के योग्य शासन के बाद सन् 937 ईपू में सुलेमान की मृत्यु हुई।
यहूदियों की धर्मभाषा 'इब्रानी' (हिब्रू) और यहूदी धर्मग्रंथ का नाम 'तनख' है, जो इब्रानी भाषा में लिखा गया है। इसे 'तालमुद' या 'तोरा' भी कहते हैं। असल में ईसाइयों की बाइबिल में इस धर्मग्रंथ को शामिल करके इसे 'पुराना अहदनामा' अर्थात ओल्ड टेस्टामेंट कहते हैं। तनख का रचनाकाल ईपू 444 से लेकर ईपू 100 के बीच का माना जाता है।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' : पारसी धर्म या 'जरथुस्त्र धर्म' विश्व के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से एक है जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक प्रोफेट जरथुष्ट्र ने की थी। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है। यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म है। ये ईश्वर को 'आहुरा माज्दा' कहते हैं। 'आहुर' शब्द 'असुर' शब्द से बना है। जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरूषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई। महान दार्शनिक नीत्से ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम '‍दि स्पेक ऑव जरथुस्त्र' है। कई विद्वान मानते हैं कि जेंद अवेस्ता तो अथर्ववेद का भाष्यांतरण है।
पारसियों का हिन्दुओं से नाता, जानिए
फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैगंबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। ऋग्वेदिक काल में ईरान को पारस्य देश कहा जाता था। अफगानिस्तान के इलाके से आर्यों की एक शाखा ने ईरान का रुख किया, तो दूसरी ने भारत का। ईरान को प्राचीनकाल में पारस्य देश कहा जाता था। इसके निवासी अत्रि कुल के माने जाते हैं।
धर्मग्रंथ : बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के 3 भाग हैं- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उपग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएं हैं। सुत्तपिटक के 5 भागों में से एक खुद्दक निकाय की 15 रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
बौद्ध धर्म के मूल तत्व हैं- 4 आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएं, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के 3 भाग हैं- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उपग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएं हैं। सुत्तपिटक के 5 भाग में से एक खुद्दक निकाय की 15 रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
हालांकि धम्मपद पहले से ही विद्यमान था, लेकिन उसकी जो पां‍डुलिपियां प्राप्त हुई हैं, वे 300 ईसापूर्व की हैं। भगवान बुद्ध के निर्वाण (देहांत) के बाद प्रथम संगीति राजगृह में 483 ईसा पूर्व हुई थी। दूसरी संगीति वैशाली में, तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व पाटलीपुत्र में हुई थी और चतुर्थ संगीति कश्मीर में हुई थी। माना जाता है कि चतुर्थ संगीति में ईसा मसीह भी शामिल हुए थे। माना जाता है कि तृतीय बौद्ध संगीति में त्रिपि‍टक को अंतिम रूप दिया गया था।
वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व उन्होंने भारत के बोधगया में सत्य को जाना और इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में भारत के कुशीनगर में निर्वाण (मृत्यु) को उपलब्ध हुए।


***
मुक्तिका:
.
हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं.
.
कह रहे हमसे फफोले हाथ के
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं
.
आबलों को शूल से शिकवा नहीं
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं.
*
कलश महलों के न हमको चाहिए
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं.
.
स्वेद गंगा में नहाते रोज ही
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है.
३-५-२०१५
***
छंद सलिला:
रसामृत छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १६ - ६, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
काव्य रसामृत का करिए / नित विहँस पान
ईश - देश महिमा का करिए / सतत गान
सोलह कला छहों रस गुरु लघु / चरण अंत
सत-शिव-सुन्दर, सत-चित-आनंद / तज न संत
उदाहरण:
१. राजनीति ने लोकनीति का / किया त्याग
लूटें नेता, लुटे न जनता / कहे भाग
शोषक अफसर पत्रकार ले / रहे घूस
पूँजीपति डॉक्टर अधिवक्ता / हुए मूस
जाग कृषक - मजदूर मिटा दे / अनय जाग
देशभक्ति का छेड़े जनगण / पुण्य राग
२. हुआ महाभारत भारत में / सीख पाठ
शासक शासित की दम पर मत / करे ठाठ
जाग गयी जनता तो देगी / लगा आग
फूँक देश को नेता खेलें / अब न फाग
धन विदेश में ले जाकर जो / रहे जोड़
उनका मुँह काला करने की / मचे होड़
भाषा भूषा धर्म जोड़ते, देँ न फ़ूड
लसलिल; देश-हिट खातिर दें मत/भेद छोङ
३. महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद क्यों / रहा हार?
गैर मैराथन को लगता है / क्यों बिहार?
काश्मीर का दर्ज़ा क्यों है / हुआ खास?
राजनीती के स्वार्थ गले की / बने फाँस
राष्ट्रीय सरकार बने दल / मिटें आज
संसद में हुड़दंग न हो कुछ / करो लाज
असम विषम हो रहा रोक लो / बढ़ा हाथ
आतंकी बल जो- दें उनका / झुका माथ
देशप्रेम की राह चलें हम / उठा शीश
दे पाये निज प्राण देश-हित / 'सलिल' ईश
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।
।। जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार । हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार ।।
।। नीर बचा, पौधे लगा, मित्र घटायें शोर । कचरे का उपयोग कर उजली करिए भोर ।।
३-५-२०१४
***

दोहा गोष्ठी:
पाठ १ : दोहा गाथा सनातन
*
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.
हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.
अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.
आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.
निर्विकार अक्षर रहे, मौन-शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे, मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि),
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि),
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि),
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं.
इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.
इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -
नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.
अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.
इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए कि उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बतायें. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.
सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.
जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.
होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.
समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.
जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय.
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब्ब?
पाठक इन दोहों में समय के साथ हिन्दी के बदलते रूप से भी परिचित हो सकेंगे. अगले पाठ में हम दोहों के उद्भव तथा तत्वों की चर्चा करेंगे.
३-५-२०१३
***
राजस्थानी मुक्तिका :
तैर भायला
*
लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..


गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..


मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..


घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..


सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
३-५-२०१२
***
आरती:
हे चित्रगुप्त भगवान्...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हे चित्रगुप्त भगवान!
करूँ गुणगान
दया प्रभु कीजै, विनती
मोरी सुन लीजै...
*
जनम-जनम से भटक रहे हम,
चमक-दमक में अटक रहे हम.
भवसागर में भोगें दुःख,
उद्धार हमारा कीजै...
*
हम है याचक, तुम हो दाता,
भक्ति अटल दो भाग्य विधाता.
मुक्ति पा सकें जन्म-चक्र से,
युक्ति बता वह दीजै...
*
लिपि-लेखनी के आविष्कारक,
वर्ण व्यवस्था के उद्धारक.
हे जन-गण-मन के अधिनायक!,
सब जग तुम पर रीझै...
*
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तुम्हीं हो,
भक्त तुम्हीं भक्तेश तुम्हीं हो.
शब्द ब्रम्हमय तन-मन कर दो,
चरण-शरण प्रभु दीजै...
*
करो कृपा हे देव दयालु,
लक्ष्मी-शारद-शक्ति कृपालु.
'सलिल' शरण है जनम-जनम से,
सफल साधना कीजै...
३.५.२०११
***
क्षणिका:
लेबर डे
*
वे,
लेबर डे मना रहे हैं.
बिना नागा
हर वर्ष
अपनी पत्नि को
लेबर रूम में
भिजवा रहे हैं.
३-५-२०१०
*
लघुकथा
जंगल में जनतंत्र
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे- 'जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर क़दम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'
मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके काग़ज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया।
मंत्री जी ख़ुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धाँसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखिए' कहते हुए एक लिफ़ाफ़ा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफ़सरों ने अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी दी।
'पार्टी विथ डिफ़रेंस' के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफ़ाफ़ों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद।'
*

मंगलवार, 2 मई 2023

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख- 

साँसों की सरगम और जमीनी जुड़ाव के नवगीतकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
- सुरेन्द्र सिंह पँवार
*  

                       सत्य के शिवत्व की लयात्मक सुंदरता ही कविता है। वह आत्मा की गीतात्मक संवेदना को लय में पिरोती है। गीत ही कविता का स्वभाव है, उसका अभिधान है, उसका परिचय है। गीत में सामवेदी संगीत उसे ऋचाओं का सा दिलाता है। यही गीत जब लोक से संस्कारित होता है तो उसकी धुनों पर थिरकने लगता है। छायावादेतर जब निराला ने “परिमल” की संपादकीय के माध्यम से ‘नव गति नव लय, ताल छंद नव’ का विन्यास देते हुए कविता की मुक्ति की घोषणा की, तब उनका आशय छंद से मुक्ति का कदापि नहीं था, बल्कि उन्होंने पथराई जमीन को तोड़कर उसकी मिट्टी पलटाने की कोशिश की थी, उसके सीलने, सौंधेपन, पपडाने, जैसे गुणों को वापिस लाने की कोशिश की थी, वे तो बंजर जमीन को उर्बरा बनाने में विश्वास रखते रहे, वे गीत में नव्यता लाने के पक्षधर रहे उनकी अपील का कुछ साहित्यकारों ने अलग ही मतलब निकाला और “नई-कविता” की संज्ञा के साथ साहित्यिक-खेमेवादी शुरू हो गई। एक समय तो ऐसा भी आया जब गीत को साहित्य के हाशिये पर डाल दिया गया। गीत की आत्मा को अमरत्व होने के कारण वह मरा नहीं, वरन योगस्थ होकर उसने नई ऊर्जा, नई जमीन, नए भाव, नए छंदों के साथ कायाकल्प किया, ‘नव’ विरुद धारण कर अपने समय से मुठभेड़ की, युग-सत्य से साक्षात्कार किया और ‘नवगीत’ के रूप में ढालकर जनता-जनार्दन की आवाज बनकर खुद को सार्थक किया। इस संघर्ष-यात्रा में जिन गीतकारों ने नवगीत की धर्म-ध्वजा को थामा या आज भी थामे हुए हैं, उनमें आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का नाम सम्मान से लिया जाता है।

सलिल जी का व्यक्तित्व - 

                       माँ भारती के वरद-पुत्र सलिल को अथाह ज्ञान का भंडार मानो विरासत में मिला। स्वयं आचार्य अपनी बुआ महीयसी महादेवी वर्मा और माँ कवयित्री शांति देवी को प्रेरणा स्त्रोत मानते हैं जिनसे सलिल जी के साहित्य-संस्कारों के बीज अंकुरित, प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हैं। इंजीनियर के अभिजात्य पेशे के उच्चाधिकारी पद पर रह चुके सलिल जी ने अभियंत्रण की यंत्रणा को झेलते हुए जीवन और जगत के समस्त हर्ष-विषाद, शीत-ताप, उतार-चढ़ाव एवं खट्टे-मीठे अनुभव अपने-पराए से पाए, देखे-सीखे, तब जाकर लिखे हैं। यही कारण है कि उनके भीतर के भाव में प्रसूत-प्रभावक क्षमता है। साहित्यकार सलिल; किसी वाद-विशेष के समर्थक नहीं हैं, न ही किसी मठ, शिविर, खेमे, टोली आदि की सदस्यता एवं मानसिकता कभी स्वीकार की। कबीर की भांति लुकाटी हाथ में लेकर वे गीत की अलख जगाने निकल पड़े, यायावरी यातनाओं को अनदेखा किया, लोक को गले लगाया, दरिद्र नारायण की सेवा की, गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप के दर्शन किये। क्योंकि उन्हें विश्वास रहा कि एक-न-एक दिन उनकी मौलिकता का मूल्यांकन होगा और उनकी सर्जना को स्वीकृति देनेवाले आगे आएंगे।

सलिल का कृतित्व- 

                       कवि संजीव 'सलिल' का व्यक्तित्व जितना सहज-सरल है, उनका कृतित्व उतना ही विरल और विराट है। “सजीवति गुणस्य कीर्तिर्यस्य सजीवति” को चरितार्थ कर रहा है। उन्हें किसी पहचान की जरूरत नहीं, अपनी पहचान वे स्वयं बन चुके हैं, बना चुके हैं। इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स, जबलपुर चेप्टर के अध्यक्ष इंजी तरुण आनंद ने सलिल जी को अपना ‘यांत्रिक-मित्र’ कहा है, मैं किञ्चित संशोधन के साथ उन्हें ‘यांत्रिक-कविमित्र’ संबोधित कर रहा हूँ। सच भी है, पथ और भवन का शिल्पी सलिल बाह्य-जगत में यांत्रिक ही रहा है, हमेशा भागता-दौड़ता, अपनी उधेड़ बुन में, जीविका कमाने के लिए, गाँव-गाँव, शहर- शहर- परंतु जब भी मुनासिब वक्त (अनुकूल समय) मिला, उसके भीतर के मनु ने अपनी वाणी को साँसे देकर, सरगम देकर गीत लिखे, नवगीत लिखे। शायद- ही, हिन्दी-साहित्य की कोई विधा होगी जो सलिल से अछूती रही हो- व्याकरण, पिंगल, भाषा, गद्य-पद्य की सभी विधाएं, समीक्षा, तकनीकी-लेखन, शोध-लेख, संस्मरण, यात्रा-वृत्त, साक्षात्कार, इत्यादि, इत्यादि। परंतु कविता (स्फुट-लेखन) उनकी पहली पसंद रही, वे भी गीत, नवगीत ही, वे भी परंपरागत या गैर-परंपरागत छंदों में।

सलिल जी का बहुविधायी रचना फलक - 

                       अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट, एल एल बी अभियंता संजीव 'सलिल' की प्रथम प्रकाशित कृति ‘कलम के देव’ भक्ति गीत संग्रह है। ‘लोकतंत्र का मकबरा’ और ‘मीत मेरे’ उनकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है, ‘भूकंप के साथ जीना सीखें’। ‘कुरुक्षेत्र गाथा’ उनकी छंद बद्ध प्रबंध कृति है। दो प्रकाशित-पुरुष्कृत नवगीत संग्रह है, ‘काल है संक्रांति का`’ तथा ‘सड़क पर’। सलिल जी की अन्य कृतियाँ  है -  ओ मेरी तुम शृंगार गीत संग्रह जिसमे सम्मिलित अभी गीत उन्होंने अपनी धरंधर्मपत्नी प्रो. डॉ. साधना  वर्मा के लिए दाम्पत्य जीवन काल में समय-समय पर लिखे हैं। आदमी जिंदा  है सलिल जी की १०१ लघुकथाओं का संकलन है। सलिल जी ने मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ तथा मध्य प्रदेश की बुन्देली लोककथाएँ शीर्षक दो पुस्तकों का प्रणयन किया है। ‘निर्माण के नूपुर’, ‘नींव के पत्थर’, ‘यदा-कदा’, ‘द्वार खडा इतिहास के’, ‘कालजयी साहित्य-शिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र नियाज’ के साथ-साथ अनेक पत्रिकाओं और स्मारिकाओं का सम्पादन किया। 

तकनीकी लेखन-

                       तकनीकी लेखन में, वह भी हिन्दी में, सलिल राष्ट्रीय-स्तर का ‘सेकंड बेस्ट पेपर एवार्ड’ प्राप्त कर चुके हैं। सलिल जी वास्तु शास्त्र  के भी अधिकारी विद्वान हैं। इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के अध्यक्ष के नाते सलिल जी ने हिन्दी में तकनीकी साहित्य लेखन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। विविध अभियंता संघों के माध्यम से ५ दशक तक संघर्ष का प्रतिफल मध्य प्रदेश में पहले डिप्लोमा और अब बी.टेक. तथा एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई हिन्दी में भी उपलब्ध  होने के रूप में सामने आया है। सलिल जी समाज सुधार (बाल शिक्षा, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, पौधरोपन, कचरे का पुनरप्रयोग आदि) के अनेक जमीनी कार्यों में संलग्न रहे हैं। उनके कई नवगीत इन कार्यों को करते हुए तथा अभियांत्रिकी संरचनाओं का काम करते हुए ही रचे गए हैं।  

                       सलिल जी ने हिन्दी कविता के हर रंग, हर रूप को जी-भर कर गाया है और औरों-को भी उत्प्रेरित किया है कि ‘गाओ, अपने मन से, अपनी भरपूर ऊर्जा से, बिना किसी दबाब के, बिना किसी भ्रम के’। वे एक गंभीर साहित्यिक अध्येता तो हैं ही, एक अध्यापक के तौर परबगैर नागा, अनुज-रचनाकारों को नव गीत के गुर सिखा रहे हैं, काव्य-बारीकियों से परिचय कर रहे हैं, उनके मन-मानस में उठ रहीं शंकाओं—आशंकाओं का त्वरित निदान कर रहे हैं। बिना किसी गुरु-दक्षिणा की चाह में, बिना किसी मान-सम्मान की कामना से। हमारे शहर में कई-एक प्रतिष्ठित गीतकार/ नव गीतकार / लघुकथाकार हैं जो अटकने पर सलिल का दरवाजा खटखटाते हैं, अपने उलझे पेंचों का सहज समाधान पाकर वे कृतज्ञ उनकी ढ़योडी पर माथा टेककर दबे पाँव निकल जातेहैं। हाँ, उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सार्वजनिक रूप से सलिल का लोहा मानते हैं।

                       सलिल जी ने लगभग ८५ पुस्तकों की भूमिका लिखी हैं जिनमें से कई नवगीत-संग्रह भी हैं। कुछ नवगीत संग्रह हैं- जब से मन की नाव चली : (2016)-डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल”, ओझल रहे उजाले : (2018)-विजय बाग़री, फुसफुसाते हुए वृक्ष : (2018)- हरिहर झा, भीड़ का हिस्सा नहीं : (2019)-शशि पुरवार, तबाही : (2020)- सुनीता सिंह, बुधिया लेता टोह : (2020) -बसंत शर्मा आदि की सारगर्भित भूमिकाएँ लिखकर नवगीत क्षेत्र में अपने आचार्यत्व का निर्वहन किया है।

                       उन्होंने अब तक देश के विभिन्न अंचलों के लब्ध-प्रतिष्ठ नवगीतकारों के शताधिक नवगीत संग्रहों की समीक्षाएं लिखीं हैं जिनमे कुमार रवींद्र, अशोक गीते, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, डॉ राम सनेही लाल शर्मा “यायावर”, राधेश्याम बंधु, आचार्य भगवत दुबे, गिरी मोहन गुरु, पूर्णिमा वर्मन, राम सेंगर, जयप्रकाश श्रीवास्तव, कल्पना रामानी, कृष्ण शलभ, योगेश वर्मा “व्योम”, योगेंद्र प्रताप सिंह मौर्य, अविनाश व्योहार, मालिनी गौतम, राम किशोर दहिया। अवनीश त्रिपाठी, आनंद तिवारी, जय चक्रवर्ती, देवकी नंदन “शांत” के नव गीत संग्रह शामिल हैं। साथ ही इनमें नव गीत: नव संदर्भ (डॉ राम सनेही लाल शर्मा यायावर), नवगीत के नए प्रतिमान ( राधे श्याम बंधु) तथा [नव गीत] समीक्षा के नए सोपान (डॉ पशुपति नाथ उपाध्याय) जैसे नव गीत संदर्भ-ग्रंथों की वृहद समीक्षाएं भी सम्मिलित हैं। नवगीत को लेकर आयोजित स्थानीय नवगीत- संगोष्ठियों (अभियान और अभियान के अलावा) में सलिल की भूमिका अहम रहती है, वहीं देश के विभिन्न शहरों में सम्पन्न नवगीत के आयोजनों विशेषकर लखनऊ, श्रीनाथद्वारा, दिल्ली, जोधपुर, कलकत्ता में सलिल की उपस्थिति ने नवगीत को श्रेष्ठता की ऊंची पायदानों पर पहुंचाया है।

सलिल की आभासी दुनिया में सक्रियता - 

                       इंटरनेट पर नव गीतों को लेकर सलिल जी की नियमित उपस्थिति अपने आप में उपलब्धि है। 1994 से फेसबुक और अंतर्जाल पर दिव्य-नर्मदा (ब्लाग/चिठ्ठा) और अन्य वेब स्थलों पर सलिल के 4000 से ऊपर नव गीत हैं, जो कथ्य, भाव बोध, हार्दिक संवेदना और तद्रूप अभिव्यक्ति में सौंदर्यमूलक तादात्म्य स्थापित करते हैं। गैर-जरूरी है कि वे सभी गीत नवगीत हों, परंतु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही। यदि गूगल पर ‘सलिल के नवगीत’ खोजें तो एक के बाद एक अनेकों साइट खुल जातीं हैं। अंतर्जाल पर सलिल के ढेरों मित्र और प्रशंसक हैं, वहीं छंद और भाषा शिक्षण की उनकी ऑनलाइन पाठशाला/ कार्यशाला में कई उदीयमान नवगीत सर्जकों ने अपनी जमीन तलाशी है। सलिल, सोशल-मीडिया के फेस बुक पर बहुचर्चित, बहुपठित, बहुप्रशंसित नवगीतकार हैं। 'आभासी दुनिया के नवगीत' (संपादक डॉ. रंसनेही लाल शर्मा यायावर-डॉ. पार्वती गोसाई) में सलिल जी आभासी दुनिया में अवदान का उल्लेख किया गया है।  

सलिल जी की दृष्टि में नवगीत- 

                       सलिल जी कहते हैं कि नवगीत गीत का वंशज है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है। डॉ नामवरसिंह के अनुसार “नवगीत अपने ‘नए रूप’ और नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका है”। क्या है नवगीत का ‘नया रूप’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल जी- 

नव्यता संप्रेषणों में जान भरती,
गेयता संवेदनों का गान करती।
कथ्य होता, तथ्य का आधार खांटा,
सधी गति-यति अन्तरों का मान करती।
अन्तरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता,
मिलन की मधु बंसरी, है चाह सजनी।
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,
मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।
लाक्षणिकता भाव, रस, रूपक सलोने
बिम्ब तटकापन मिलें बारात सजती।
नाचता नवगीत के संग लोक का मन,
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता
किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता।

(“काल है संकान्ति का” नवगीत संग्रह में सलिल का कथन)


                       इतर इससे, अपने दूसरे नवगीत संग्रह “सड़क पर” में ‘अपनी बात’ रखते हुए सलिल जी लिखते हैं कि,-“’नव’ संज्ञा नहीं ‘विशेषण’ के रूप में ग्राह्य है”। वहीं ट्रू-मीडिया पत्रिका में दी लंबे साक्षात्कार में  गीत और नवगीत का अंतर बताते हुए सलिल जी कहते है –“गीत के वृक्ष की एक शाखा पर खिला पुष्प नवगीत है”। अन्यत्र सलिल जी ने गीत को व्यक्तिवादी और नवगीत को समृष्टिवादी बतलाया है। साथ ही; बहुत दृढ़ता से गाया कि ‘गीत और नवगीत, नहीं हैं भारत पाकिस्तान’,—

काव्य वृक्ष की
गीति शाख पर
खिला पुहुप नवगीत।

कुछ नवीनता
कुछ परंपरा
विहंस रचे नवरीत।

जो जैसा है
वह वैसा ही
कहे झूठ को जीत।

कथन-कहन का दे तराश जब
झूम उठे इंसान।

गीत और नवगीत मानिए
भारत हिंदुस्तान। ( अंतर्जाल पर)

सलिल के नवगीतों के विषय- 

                       नव गीतकार सलिल का प्रथम नव गीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज--- उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। सूर्य (अग्नि) , जो पंच- तत्वों में से है, ऊर्जा और ऊष्मा का प्रतीक है, वह मेहनतकश मजदूर का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रतिदिन नियत समय नियत दायित्वों का निर्वहन करता है। श्रम, श्रम-स्वेद, श्रम-मूल्य, संवेदना की गहनता, सघनता, सांद्रता ऐसे अवदात् गीतों की सर्जना में सहयोगी भाव रखते हैं।

                       नि:संदेह, सलिल के प्रतिनिधि नवगीतों के केंद्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फेक्टरियों तक खून पसीना बहाता हुआ मेहनत करता है फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई है, उसे दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। ‘मिली दिहाड़ी’ नव गीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही चित्र उकेरा है-

चाँवल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया–मिर्ची ताजी।

तेल पाव भर फल्ली का
सिंदूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का, बेटी की
न सहूँ नाराजी।

खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!

मन बेजार। (काल है संक्रांति का/81)

                       कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मलहम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में गाँव और कस्बों से प्रतिभा-पलायन एवं प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,

एक महल/ सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊँच-नीच यह/ कहो कौन खपाए?
मेहनत भूखी/ चमड़ी सूखी आँखें चमके/
कहाँ जाएगी/ मंजिल/ सपने हो न पराए/
बहका-बहका/
संभल गया पग/ बढा रहा पर/ ठिठका- ठिठका।(सड़क पर/42)

नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी/ पगडंडी पर संभल-संभल/
चलना रपट न जाना/ मिल-जुल/
पार करो पथ की फिसलन। लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली। (सड़क पर/26)

                       वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है। वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है और यहाँ से शुरू होता है सलिल का दूसरा नवगीत संग्रह ‘सड़क से’। इसके वर्षा गीत कभी जन वादी तेवर दिखलाते हैं तो कभी लोक-रंग का इन्द्र-धनुष तानते हैं। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियां, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नव जीवन पा जाना और इन सबसे पृथक वर्षागमन से गरीब की जिंदगी मे आई उथल-पुथल ---सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं।

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर/
फिर मेघ बजे/
ठुमक बिजुरिया /
नचे बेड़नी बिना लजे।
टप-टप टपके तीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
डुकरो काँपें, ‘सलिल’
जोड़ कर राम भजे। (सड़क पर/27)

मिथकीय संदर्भ – 

                       नवगीतकर सलिल जी ने रामायण और महाभारत कालीन मिथकों यथा: कैकेयी, शंबूक, जटायु, हनुमान, कर्ण, भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, एकलव्य का प्रचुर प्रयोग किया है। एक-एक मिथक को कई-कई अर्थों में लिया है। जैसे, शिव को श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक के साथ-साथ शंकारि यानि शंकाओं का शत्रु माना है। आंचलिक मिथकों को प्रमुखता दी है; विंध्याचल, सतपुड़ा, मेकल, नर्मदा, जोहिला, शोण, अगस्त्य, बड़ादेव आदि। चित्रगुप्त का (चित्र उसका गुप्त, अक्षर ब्रह्म है वह) निराकार रूप तथा ‘पथवारी मैया’ ( दैवीय स्वरूप) नवीन सृजित मिथक है।

विध्याचल की/छाती पर हैं/ जाने कितने घाव
जंगल कटे/ परिंदे गायब/ छुप न पाती छाँव।
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना/ भोला छला गया/
‘आऊँ न जब तक झुके रहो’ कह/चतुरा चला गया।
समुद सुखाकर असुर संहारे/ किन्तु न लौटे आप
वचन निभाता/ विंध्य आज तक/ हारा जीवन दाँव।

शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर/ मेकल को ठगते।
रूठी नेह नर्मदा कूदी/ पर्वत से झट से।
जन कल्याण करें युग-युग से/
जग वंदया रेवा/सुर नर देव दनुज/
तट पर आ/ बसे बसाकर गाँव। (अंतर्जाल पर)

अब नहीं है वह समय जब/मधुर फल तुममें दिखा था
फांद अम्बर पकड़ तुमको/लपक कर मुंह में रखा था
छा गया दस दिश तिमिर तब/ चक्र जीवन का रुका था
देख आता वज्र, बालक/ विहंसकर नीचे झुका था
हनु हुआ घायल मगर/ वरदान तुमने दिए सूरज !

(काल है संक्रांति का/37)

बिम्ब विधान- 

                       गीत में बिम्ब धर्मी भाषा उसे अधिक संप्रेषणीय बनाती है। बिम्ब विधान किसी परंपरा का अनुगामी नहीं होता । सलिल जी ने गीतों में ऐंद्रिय बिम्ब- गंध, रूप, रस, स्पर्श, ध्वनि के साथ संश्लिष्ट बिम्ब और गतिशील बिंबों का बड़ा सार्थक प्रयोग किया है। जो कुछ जिंदगी में है, जिंदगी का परिवेश है, हमारे आसपास है, मध्य वर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास, सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न सब इनके नवगीतों में है। एक चित्रमय बिम्ब का विधान देखिए-

गोदी चढ़ा, उँगलिया थामी। दौड़ा, गिरा, उठाया तत्क्षण।

                       नवगीतकार सलिल जी ने नवगीतों में विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है,

जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।

मेहनतकश के हाथ हमेशा/रहते हैं क्यों खाली खाली/
मोटी तोंदों के महलों में/क्यों बसंत लाता खुशहाली/
ऊंची कुर्सी वाले पाते/अपने मुंह में/सदा बताशा।(सड़क पर/39)

                       देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुंह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है। सलिल के बिम्ब नितांत मौलिक, नवीन और टटके हैं,-

खों-खों करते/ बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा।
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी रुको पुकारें।
पछुआ अम्मा
बड़-बड़ करती
डाँट लगाती तगड़ी।(काल है संक्रांति का/103)

                       इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया। ‘ऊंघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (सड़क पर /63) में सतपुड़ा का नींद में ऊंघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियां’ (सड़क पर/78) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतनाको बिम्बित किया है।

प्रतीक योजना- 

                       सलिल जी ने नवगीतों में अभिनव और अर्थ को चमत्कारिक भंगिमा देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया है। कुछ प्रकृति से उठाए हैं, कुछ मानवीय संवेदनाएं प्रतीक बनी हैं और कुछ आधुनिक जीवन को विसंगत करनेवाले तत्व प्रतीक बनकर उभरे हैं। नदी, किनारा, भँवर, सूरज, चंद्रमा, चाँदनी, लहरें, सागर, नौका, पतझड़, पनघट, अमराई, बसंत, टपरिया, दादुर, मोर, कोयल इत्यादि प्रकृति और जीवन के तत्व, सत्ता, सियासत, दहलीज, चौपाल, कारखाना, राजमार्ग, सड़क, पगडंडी, कुर्सी दलाल इत्यादि भावनात्मक तत्व तथा सिरफिरा मौसम, राजा, बजीर, प्यादा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दिशाहीन मोड जैसी जीवन की विसंगतियाँ को प्रतीक के रूप में नवगीतों में स्थान दिया है। सलिल जी सिर्फ विसंगति को नहीं उकेरते वरन उनके मध्य जीवन का राग तलाशते हैं, शाश्वत सत्य पर उनकी दृष्टि है। विसंगति को संगति में बदलना
उनका ध्येय है।

भाषायी सामर्थ्य- 

                       सलिल जी कहते हैं,

हिन्दी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।

                       वैसे सलिल जी ने हिन्दी के अलावा बुन्देली, पचेली, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, छतीसगढ़ी, मालवी, हरियाणवी और अंग्रेजी में भी कार्य किया है। सलिल जी ने बुन्देली का पुट देते नरेंद्र छंद [ईसुरी की चौकड़िया फागों पर आधारित] में नवगीत की सर्जना कर उसके माध्यम से समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं और अन्याय का व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है-

मिलती काय नें ऊंचीवारी
कुर्सी हमखों गुईंयाँ !
पेलां लेऊँ कमीसन भारी
बेंच खदानें सारी।
पाछूँ घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री।
अपनी दस पीढ़ी खेँ लाने
हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका
ठेंगे पे राम-रमैया। - (काल है संक्रांति का/51)

                       कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशज शब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गेल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुंह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, मां की सौं, कम लिखता हूं बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरे), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।

                       नवगीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का शब्दकोषीय अर्थ में उम्दा-उपयोग किया है। सलिल जी ने प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,

सागर उथला/ पर्वत गहरा
डाकू तो ईमानदार/ पर पाया चोर सिपाही
सौ अयोग्य पाये, तो/ दस ने पायी वाहवाही
नाली का पानी बहता है/ नदिया का जल ठहरा - (सड़क पर/54)

                       सलिल जी गणित एवं विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं अत: उनके नवगीतों की भाषा में प्रमेय तथा गणित के शब्दों/सूत्रों की उपस्थिति कोई आश्चर्य नहीं है। उनमें निर्माण और न्याय से जुड़ी शब्दावलियां भी यदा-कदा देखने को मिल जाती है-

प्यार बिका है
बीच बजार
परिधि केंद्र को घेरे मौन
चाप कर्ण को जोड़े कौन?
तिर्यक रेखा तन-मन को
बेध रही या बाँट रही?
हर रेखा में बिन्दु हजार
त्रिभुज-त्रिकोण न टकराते
संग-साथ रह बच जाते
एक दूसरे से सहयोग
करें, न हो, संयोग-वियोग
टिके वही
जिसका आधार   - (अंतर्जाल पर)

छंद विधान- 

                       छंद, सलिल जी की संस्कारगत उपलब्धि है। उन्हें काव्य शास्त्र की उपयोगिता का रहस्य ज्ञात है। वे गत तीन दशकों से हिन्दी के प्रचलित-अल्प प्रचलित छंदों को खोजकर एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिन्दी में उनके आदर्श प्रयोग प्रस्तुत कर रहे हैं। शीघ्र ही उनका छंद-शास्त्र प्रकाश में आने वाला है। स्वाभाविक है, अपने नवगीतों में उन्होंने दोहा, जनक, सरसी, भुजंगप्रयात, पीयूषवर्ष, सोरठा, सवैया, हरिगीतिका, वीर- छंद, लोहिड़ी, चौकड़िया-फाग आदि छंदों को स्थान देकर गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। उदाहरण के लिए यह त्रिपदिक जनक छंद,-

नीर नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर
पल-पल उठ गिरती लहर

कौन उदासी- विरागी
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?(सड़क पर/79)

                       पंजाब में लोहिड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी को याद कर गाए जाने वाले लोकगीत की तर्ज पर “सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!” का अभिनव प्रयोग नव गीत में किया गया है,-

सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय।
कौन किसी का प्यार, होय।
स्वार्थ सभी का प्यार, होय।।
जनता का रखवाला, होय।
नेता तभी दुलारा, होय।। (काल है संक्रांति का/49)

                       और, आल्हा छंद, वीर रस और बुन्देली में रचे इस नवगीत के क्या कहने?-

भारत वारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे
पाक सियार।

एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार।
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंकें हर बार।
ढेंचू- ढेंचू रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार।
पोल खुल गयी,
हवा निकर गई
जान बखस दो
करे पुकार।(काल है संक्रांति का/67)

                       छंद-शास्त्री सलिल जी ने नवगीतों में जहां विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है, वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के लिए उनका स्पष्ट उल्लेख और छंद विधान भी रचना के अंत में दिया है।

अलंकार-

                       जहां तक भाषा में अलंकारिकता का प्रश्न है, सलिल जी ने कहीं भी अलंकारों का सायास प्रयोग नहीं किया। अभिव्यक्ति की सहज भंगिमा से जो अलंकार बने हैं, उन्हें आने दिया है। उनके गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारों (उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग है।

अनुप्रास-

1-मेघ बजे, मेघ बजे, मेघ बजे रे
धरती की आँखों में स्वप्न सजे रे।

2- अनहद अक्षय अजर अमर है
अमित अभय अविजित अविनाशी।

यमक-

‘हलधर हल धर शहर न जाएं’

उपमा-

1-ऊंघ रहा सतपुड़ा, लपेटे मटमैली खादी।

2-प्रथा की चूनर न भाती

3-उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका।

रुपक-

नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र

श्लेष –

पूंछ दबा शासक व्यालों की/ पोंछ पसीना बहाल का।

विरोधाभास-

आंखे रहते सूर हो गए

जब हम खुद से दूर हो गए

खुद से खुद की भेंट हुई तो

जग जीवन से दूर हो गए.

अन्योक्ति-

कहा किसी ने,- नहीं लौटता/पुन: नदी में बहता पानी/

पर नाविक आता है तट पर/बार-बार ले नई कहानी/

दिल में अगर/ हौसला हो तो/फिर पहले सी बातें होंगी।

हर युग में दादी होती है/होते है पोती और पोते/

समय देखता लाड़-प्यार के/ रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते/

नयी कहानी/ नयी रवानी/सुखमय सारी बातें होंगी।

                       इसके अलावा, पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी- शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकताआभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप- छांव, सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।

रस-

                       नवगीत में व्यंग्य- वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-

जब भी मुड़कर पीछे देखा/ गलत मिल कर्मों का लेखा/
एक बार नहीं सौ बार अजाने/ लांघी थी निज किस्मत रेखा/
माया ममता/ मोह क्षोभ में/फंस पछताए जन्म गवाएं।(सड़क पर/64)
बिक रहा/ बेदाम ही इंसान है/कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू/व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है/
सत्य जिह्वा पर/ असत का गान है।
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो।( सड़क पर /65)

हम में से हर एक तीस मार खां
कोई नहीं किसी से कम।
हम आपस में उलझ-उलझ कर
दिखा रहे हैं अपनी दम।
देख छिपकली ड़र जाते पर
कहते डरा न सकता यम
आँख के अंधे, देख-न देखें
दरक रही है दीवारें।(काल है संक्रांति का/127)

भोर हुई, हाथों ने थामा
चैया प्याली, संग अख़बार
अँखिया खोज रहीं हो बेकल
समाचार क्या है सरकार?
आतंकी है सादर सिर पर
साधु संत सज्जन हैं भार
अनुबंधों के प्रबंधों से
संबंधों का बंटाढार। (अंतर्जाल पर)

                       राजनैतिक प्रदूषण पर कलम चलते हुए “लोक तंत्र का पंछी बेबस” शीर्षक नवगीत में वे लिखते है,

नेता पहले दाना डालें
फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत की गोली मारें
करें न किञ्चित सोच। (अंतर्जाल पर)

                       वहीं एक श्रंगारिक नवगीत में नेताओं और नव-धनाढ्यों पर ली गई व्यंजनात्मक चुटकी,

इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तन वाली
देह साँवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्रों को
बना भिखारी वह जाती है। (अंतर्जाल पर)

युगबोध एवं लोकचेतना –

                       जैसा कि- राम देव लाल विभोर लिखते हैं, “वास्तव में नवगीत गीत से इतर नहीं है, किन्तु अग्रसर अवश्य है। अत: गीत की अजस्त्र धारा व्यैक्तिकता व आध्यात्म वृति के तटबंध पारकर युगबोध का दामन पकड़ने लगती है”। सलिल ने दिशा बोध और युग बोध वाली जो जुझारू रचनाएं भी रचीं वे हर संघर्षशील, दुःखी, पीड़ित आम आदमी को अपनी से लगती हैं, जिन्हें पढ़ कर वह कह दे कि “अरे वाह ! कवि ने मेरे मन की बात कह दी।“ इसमें अत्युक्ति नहीं कि सलिल के गीत/नवगीत लोकप्रियता की कसौटी पर खरे तो हैं ही, उनमें अनुभूतियों की ऐसी प्रेरणा मिलती है जो हमें अनुप्राणित करती है और बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आदि से अंत तक जमीनी-हकीकत, मानवीय-सोच और सरोकारों, लोकाचारों की पार्थिव वास्तविकताओं से उनकी युग प्रतिबद्धता अपेक्षित रहती है।

                       एक बात और, नवगीतों ने गीत को परंपरावादी रोमानी वातावरण से निकालकर यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल जी के नवगीतों में प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएं हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण है। सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर प्रभाती-गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है,

उषा-किरण रतनार सोहती
वसुधा नभ का हृदय मोहती
कलरव करती चुन मुन चिड़िया
पुरवैया की बाट जोहती
गुनो सूर्य लाता है/ सेकर अच्छे दिन।
(काल है संक्रांति का/26)

                       ऐसे नवगीतों में संक्रांति-काल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए उनकी चेतावनी और सावधानी से भरे संदेश अंतर्निहित हैं,-

सूरज को ढोते बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग सांप फिर साथ हुए
गूंज रहे वंशी मादल
लूट छिपा माल दो
जगो उठो। (अंतर्जाल पर)

प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण- 

                       कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निश-दिन (आठों- प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने की नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है/ समर्थ सहस्त्रबाहू की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह--दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है-

घट रहा भूजल / समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा निरंतर बढ़ रहा /
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है/

दैव एक लुहार की अब जड़ रहा /
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है?(सड़क पर/66)

नवगीत और देश-

                       भारत का संविधान देश के नागरिकों के लिए अधिकार देता है, परंतु यथार्थ इसके विपरीत है-

तंत्र घुमाता लाठियां, जन खाता है मार
उजियारे की हो रही, अंधकार से हार
सरहद पर बम फट रहे, सैनिक हैं निरुपाय
रण जीते तो सियासत, हारें भूल बताय
बाँट रहे हैं रेवड़ी/ अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?(अंतर्जाल पर)

                       लेकिन यहाँ नवगीतकार अपील करता है, यह न सोचें कि देश ने हमें क्या दिया बल्कि यह सोचें कि हम देश के लिए क्या कर रहे हैं।–

खेत गोड़कर/ करो बुवाई
ऊसर बंजर जमीन कड़ी है
मंहगाई की जाल बड़ी है
सच मुश्किल की आई घड़ी है
नहीं पीर की कोई जड़ी है
अब कोशिश की हो पहुनाई। - (अंतर्जाल पर )

                       आलस्य को त्यागकर कर्म में विश्वास रखता नवगीत, राष्ट्र-ऋण (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण के अलावा) से उऋण होने का संदेश भी देता है- 

जाग जुलाहे भोर हो गयी
साँसों का चरखा तक धिन-धिन
आसों का धागा बन पल दिन
ताना बाना कथनी करनी
बना नमूना खाने गिन-गिन
ज्यों की त्यों उजली चादर ले
मन पतंग तन डोर हो गयी।
जाग जुलाहे भोर हो गयी।   -(अंतर्जाल पर)

                       वस्तुत: सलिल जी का चिंतन राष्ट्र देवता और विश्ववाणी हिन्दी के प्रति न केवल विनम्र प्रणति है, बल्कि प्रकृति के गहन कांतरों में कूटस्थ हो, अवभृथ स्नान पश्चात जीवन वीणा को ब्रह्म नाद से भर उसे “रसो वै स:” से सराबोर कर अपने आपको सर्वतोभावेन सच्चिदानन्द देवता के प्रति समर्पित करते हुए विश्व कल्याण के चिरंतन भारतीय संदेश को सार्थक करता है।

नवगीतीय नवाचार -

                       आचार्य संजीव सलिल जी ने अपने समकालिकों द्वारा अनदेखा किए जाने का खतरा उठाकर भी नवगीतीय नवाचार को सबसे पहले अपनाया। विश्ववाणी हिन्दी संस्थान अभियान जबलपुर की गोष्ठियों में सलिल जी आरंभ से साहित्यिक विधाओं विशेषकर नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख और कहानी में विसंगति और विडंबवा प्रधान नकारात्मक लेखन को चुनौते देकर सकारात्मक लेखन को प्रतिष्ठित-प्रोत्साहित करते रहे हैं। यही कारण रहा है कि नवगीत कोशों में उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी हैं किन्तु ऐसा कर नवगीत कोशकारों ने अपने कोश और अपनी निष्पक्षता को ही संदेह के घेरे में ला दिया है। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' प्रणीत नवगीत कोश में सलिल के व्यतित्व तथा कृतित्व को स्थान देकर पूर्व नवगीतकारों की त्रुटि का निराकरण किया गया है। सलिल जी के नवगीतीय नवाचार से प्रेरित हिकार सकारात्मक नवगीत लिखनेवाले दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। नवगीतों में लोक में व्याप्त वाचिक छंदों का जितन व्यापक और मौलक प्रयोग सलिल जी ने किया है उसके विश्लेषण के लिए अलग से अध्ययन की आवश्यकता है। 
                       

और अंत में- 

                       एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ ने डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ’यायावर’ से कहा था कि,- “मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, यदि ऐसा नहीं है तो क्या उनके गीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से संभव होगा? मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं”(साहित्य-संस्कार-जुलाई-2020 में प्रकाशित)। स्वर्गीय इन्द्र जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए हमने ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और
न्यायसंगत माना। ‘सलिल’ के गीतों-नवगीतों की रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। एक बात और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन ‘सलिल’ इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य में अच्छी पकड़ है। अध्यवसायी-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं, यह उनकी विनम्रता है। हमें यह कहने में भी कतई संकोच नहीं कि आचार्य संजीव वर्मा सलिल आज-के नवगीतकारों से पृथक-परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नवगीतकार हैं। आज अवश्यकत इस बात की है कि सलिलजी के जीवन काल में ही उनके साहित्य विशेषकर नवगीतों पर विविध दृष्टियों से शोध कार्य संपन्न हों। सलिल जी  स्वस्थ रहें, साधनारत रहें, यही शुभेच्छा है!

कविता बने, साँसों की वायु ।
जियो सलिल! तुम बनो शतायु।।

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- सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ 201, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)

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