कुल पेज दृश्य

बुधवार, 7 सितंबर 2022

सॉनेट,देवता,नव गीत,दोहा,आंकिक उपमान,मुक्तक

सॉनेट
मैं-तू; तू-तू मैं-मैं करते 
एक-नेक जब मिलकर हों हम 
मिले ख़ुशी हों दूर सभी गम 
जग के सब सुख मिलकर वरते 

मेरा-तेरा कर दुःख पाते 
गैर न कोई कहीं सृष्टि में  
दिखे गैर तो खोट दृष्टि में 
सबकी खातिर मर; जी जाते  

सारे मानव सदा एक हों 
साथी नैतिकता-विवेक हों 
सदा इरादे सभी नेक हों 

नीर-क्षीर जैसे मिल पाएँ 
भुज भेंटें; हँस गले लगाएँ 
सु-मन सुमन जैसे खिल पाएँ 
७-
***
विमर्श:
देवता कौन हैं?
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना', भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, परा-प्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर- वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विष्णु-महेश) फिर डेढ़ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मंत्रों के विभिन्न देवता (उपास्य, इष्ट) हैं। प्रत्येक मंत्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करनेवाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे भूस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहनेवाले देवता।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि हैं।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व आदि) गण्य हैं।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवता पहचाने जाते हैं। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मावाचक करते हैं। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, संप्रदाय, अलग-अलग पूजा-पाठ बनाए गए।
धर्मशास्त्र में "तिस्त्रो देवता" (तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का का कार्य सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गई। निरुक्तकार यास्क के अनुसार,"देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत (शांति पर्व) तथा शतपथ ब्राह्मण में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम।।
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतंत्र माना जाता है। प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती, काली), शंकर, कृष्ण, इंद्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
देवता का एक वर्गीकरण जन्मा तथा अजन्मा होना भी है। त्रिदेव, त्रिदेवियाँ आदि अजन्मा हैं जबकि राम, कृष्ण, बुद्ध आदि जन्मा देवता हैं इसीलिए उन्हें अवतार कहा गया है।
देवता मानव, अर्ध मानव तथा अमानव भी है। राम, कृष्ण, सीता, राधा आदि मानव, जबकि हनुमान, नृसिंह आदि अर्ध मानव हैं जबकि मत्स्यावतार, कच्छपावतार आदि अमानव हैं।
प्राकृतिक शक्तियों और तत्वों को भी देवता कहा गया हैं क्योंकि उनके बिना जीवन संभव न होता। पवन देव (हवा), वैश्वानर (अग्नि), वरुण देव (जल), आकाश, भू देवी (पृथ्वी), वास्तु आदि ऐसे ही देवता हैं।
सार यह कि सनातन धर्म (जिसका कभी आरंभ या अंत नहीं होता) 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर सृष्टि के निर्माण में छोटे से छोटे तत्व की भूमिका स्वीकारते हुए उसके प्रति आभार मानता है और उसे देवता कहता है। इस अर्थ में मैं, आप, हम सब देवता हैं। इसीलिए आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और यह भी कि तुम सब भी ओशो हो बशर्ते तुम यह सत्य जान और मान पाओ।
अंत में प्रश्न यह कि हम खुद से पूछें कि हम देवता हैं तो क्या हमारा आचरण तदनुसार है? यदि हाँ तो धरती पर ही स्वर्ग है, यदि नहीं तो फिर नर्क और तब हम सब एक-दूसरे को स्वर्गवासी बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर रहे। हमारा ऐसा दुराचरण ही पर्यावरणीय समस्याओं और पारस्परिक टकराव का मूल कारण है।
आइए, प्रयास करें देवता बनने का।
***
नव गीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
***

दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
७-९-२०१७
***
छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
***
मुक्तक
मॉर्निंग नून ईवनिंग नाइट
खुद से करते है हम फाइट
रॉंग लग रहा है जो हमको
उसे जमाना कहता राइट
दोहा
आते अच्छे दिन सुना, 'गुड डे' कह हम मस्त
गुंडे मिलकर छेड़ते, गुड्डे-गुड्डी त्रस्त
७-९-२०१४
*

Book Review, YUGPARIDHI,Novel, Dr. Chandra Chaturvedi, sanjiv verma salil, anil jain

Book Review 

A DIVINE SAGA OF KRISHNA'S SON PRADYUMN 

by- SANJIV VERMA ‘SALIL’

*

(YUGPARIDHI, Novel, Dr. Chandra Chaturvedi, 2019, Pages 363, Price 650/-, Naman Prakashan, NewDelhi 


A little has been written on Pradyumn particularly in the modern age when people do not spare time to read more than short story and haiku like poems and at such a time if Dr Chandra Chaturvedi has written something about least known and hardly popular character, Pradyumn, of our mythological literature she must be praised. 

Dr. Chandra Chaturvedi born on 18 December 1945, studied in Maharshi Sandipani Ved Vidya Pratishthan, Ujjain has been awarded a five year post- Doctoral UGC fellowship. It was the grace of Lord Krishna that she could create a fiction on a subject of universal importance.   

There is a lot of importance of Chakravyooh (a warfare method of ancient times) theories in Vaishnavism and these four (vyoohas) are Shrikrishna, Balram, Pradyumn and Aniruddh. According to the story, it so happened that Kamdeo, the legendary god of love, had been immolated under the influence of a curse of Lord Shiva as he hindered the penance of Shiva. Later the widow Rati was consoled on the promise that she would meet her husband in Tretayug in the form of Krishna.

According to the God Shankar nothing changes but transforms in this universe. There's only one beckon that works from this end to that, from the earth to the sky. Even scientists believe that energy neither generates nor destroys but changes its forms. 

So the author must be praised for sorting out this mythological character and for weaving a story which justifies the stories of Scriptures like Mahabharat, Vishnupuran, Gargsanhita and Naradbhaktisutra.

Dr Chandra herself has accepted that she went through works of Narendra Kohli, Chitra Chaturvedi, Manu Sharma etc based on mythological stories before she set out on her own work but she never compromised with originality. 

Generally Pradyumn is regarded as the love-laden husband of Rati but Chandra ji successful in presenting him as a great warrior. The story of Rati (transformed as Mayavati) expands from Tretayug to Dwaparyug which take into account many allusions such as, the immolation of Kamdeo owing to the curse, the boon to reunite, the story of Shambarasur, and many other episodes and myths have been beautifully interwoven. 

Chandra ji has coined the character of Devika's adopted Chitra (the niece of the Gardener Kubja) which is not to be found in any ancient book. Brought up in the lap of nature and watching the divine deeds of Radha and Krishna from her early age Chitra falls in love with Gopiballabh. She not only regards him as an epitome of god but loves him as a devotee. No doubt, watching the divinity on the face of Krishna even his mother Devaki uttered "may it be so that I could become like you". Here Chitra's devotion can be compared with that of Gopikas of Braj. 

A critic Dr. Sumanlata Shrivastava writes “The author herself, on behalf of Chitra, worships Krishna sitting in a valuable stone studded rocking seat, wearing a tiara and Peacock Feather and legendary golden flute. The author seems to be signing the song of devotion in praise of the Lord". 

Taking into consideration this valuable allusion from our ancient book and weaving a very tremendous novel interweaving into it Vedantic thoughts and Vashnav philosophy Dr Chandra has filled a void which our generation aspires to be filled for a long time. Because of its authenticity and originality the book will prove to be a milestone in Indian literature. 

--------

Critic - Achary Sanjiv Verma 'Salil', 204 Vijay Apartment, Napier Town , Jabalpur 482001, Mobile 9425183244, Email - salil.sanjiv@gmail.com    

Translation By - Prof. Anil Jain, Deptt. of English, Govt. PG College, DAMOH MP 09630631158  Email - aniljaindamoh@gmail.com

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

नवगीत,शिक्षक दिवस,सुरेश उपाध्याय,,सीमा अग्रवाल, समीक्षा,लघुकथा,सॉनेट, दोहा,छापा

सॉनेट
छापा 
*
इस पर छापा; उस पर छापा 
बोल न है किस-किस पर छापा 
रंग-बिरंगा रूपया छापा 
समाचार मनमाना छापा 

साथ न जो दे उस पर छापा 
साथ न जो ले उस पर छापा 
छोड़े हाथ अगर तो छापा 
मोड़े लात अगर तो छापा 

मन की बात न मानी? छापा 
धन की बात न जानी छापा 
कुछ करने की ठानी छापा 
मुँह से निकली बानी छापा 

सत्ता का स्वभाव है छापा 
नेता का प्रभाव है छापा 
६-९-२०२२ 
***
वंदन 
वाग्देवी! कृपा करिए 
हाथ सिर पर विहँस धरिए 

वास कर मस्तिष्क में माँ 
नयन में जाएँ समा 
हृदय में रहिए विराजित 
कंठ में रह गुनगुना 
श्वास बनकर साथ रहिए 
वाग्देवी कृपा करिए 

अधर यश गा पुण्य पाए 
कीर्ति कानों में समाए 
कर तुम्हारे उपकरण हों 
कलम कवितांजलि चढ़ाए 
दूर पल भर भी न करिए 
वाग्देवी कृपा करिए 

अक्षरों के सुमन लाया 
शब्द का चंदन लगाया 
छंद का गलहार सुरभित 
पुस्तकी उपहार भाया 
सलिल को संजीव करिए 
वाग्देवी कृपा करिए 
६-९-२०२२ 
•••
विमर्श : आय और क्रय सामर्थ्य
पचास वर्ष पूर्व - एक पैसे में पाँच गोलगप्पे,
चालीस साल पूर्व - एक पैसे में दो गोलगप्पे
तीस वर्ष पूर्व - पाँच पैसे में दो गोलगप्पे
बीस वर्ष पूर्व - २५ पैसे में एक गोलगप्पा
दस वर्ष पूर्व - ५० पैसे में एक गोलगप्पा
अब - दो रूपए में एक गोलगप्पा
नौकरी आरंभ करने से अब तक गोलगप्पा का कीमत पचास साल में हजार गुणा बढ़ी।
जमीन २५ पैसे वर्ग फुट से १०००/- वर्ग फुट अर्थात ४००० गुना बढ़ी।
वेतन ४००/- से २००००/- अर्थात ५० गुना बढ़ा।
सोना २००/- से ५२,०००/- अर्थात २६० गुना बढ़ा।
क्रय क्षमता २ तोले से ०.४ तोला अर्थात एक चौथाई से भी कम।
सचाई
वस्तुओं की तुलना में क्रय सामर्थ्य में निरंतर ह्रास। अचल संपदा में बेतहाशा वृद्धि, अमीर और अमीर, गरीब और गरीब
निष्कर्ष
मुद्रा का द्रुत और त्वरित अवमूल्यन,
श्रमिक, किसान और कर्मचारी की क्रय सामर्थ्य चिन्तनीय कम, पूँजीपतियों, प्रशासनिक-न्यायिक अफसरों, नेताओं के आय और सम्पदा में अकूत वृद्धि।
५ % भारतीयों के पास ८०% संपदा।
किसी राजनैतिक दल को जान सामान्य की कोइ चिंता नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई
६-९-२०२०
***
विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
६-९-२०१९
***
मेरा परिचय :
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
६-९-२०१७
***
मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी
शत-शत वंदन


गुरु जी की कविता और गुरु वन्दना
*
व्यंग्य रचना-
बाबू और यमराज
सुरेश उपाध्याय
*
दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान! यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबू ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
कि बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***
गुरु वन्दना
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष पाकर शिष्य गर्वित हो रहे थे। सबसे अंत में खड़ा, सहमा-सँकुचा वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पाता लपककर कमरे से निकल गए। दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा।
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हूँ, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखा तक नहीं। मेज पर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा, सामने उसके शिक्षक थे- 'मुझसे भूल हो गई, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गई उसके मन की पीड़ा।
६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]
*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं।
गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है।
सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं।
'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है । [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]
तुम मुझे दो । शब्द / और मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ
२ १२ २ । २ १ / २ २ /। २ १ २ २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो
२ १ २ २ । २ १ / २ २ । २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
फिर उन्हीं निश् । छल पलों को।/ तुम कहो तो ।/ आज फिर से
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ = २८ मात्रा
गुनगुना लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १७ मात्रा
ओस भीगी । पंखुरी सा ।/ मन सहन / निख । रा है ऐसे
२ १ २ २ । २१२ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २ २ = २८ मात्रा
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
२ १ २ २ । २ १ २ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक = २६ मात्रा
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २१ २
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १९ मात्रा
इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं।
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है', अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है', पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं।
पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य] का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?
२ १ २ १ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
हर घड़ी ऐ।से जियो /जै।/से यही बस । खास है
२ १ २ १।२ १ २ २ ।/ २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है।
'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६ अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६ संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है।
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३) प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं।
'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं।
'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०, १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।
सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है।
'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों समायोजन करा दिया है।
तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक छूने में समर्थ हैं.
इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ, वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे
गंध के कितने झरोखे / खोलता है
*
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता?
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए
रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा
*
'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं।
सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।'
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
६-९-२०१५

***
प्रसंगत विषय पर प्रतिष्ठित कवियों की और से स्वरचित रचनाएं : (भाग २)
रचनाकार--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'




प्रसंग है कि एक तरुणी अत्यंत ऊँची बिल्डिंग की छत पर इस तरह से जा बैठी है कि जैसे वह आत्महत्या करने वाली हो | विभिन्न कवियों से इस विषय पर रचना
करने को कहा जाता तो वे इस पर कैसे रचते ....
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'
*
आक्रोशित क्यों आज रूपसी,
प्रिय तेरा अवलंबन?
मन की डोर बँधी है मन से,
सात जन्म का बंधन|
बहकाता जग छले छलावा,
उससे बचकर रहना,
विषधर सी अनुभूति अगर हो,
तन-मन कर ले चन्दन|
ले-ले तेरी जान विधाता इतना क्रूर नहीं है|
बढ़ा कदम मत विचलित हो तू मंजिल दूर नहीं है|
_______________________________
जयशंकर प्रसाद
*
प्रज्ज्वलित ज्यों अनेक, मार्तंड आज भोर,
वक्ष धौंकनी समान, घन घमंड घोर-घोर |
थरथरा रहे अधर, भामिनी बनी हुई,
दग्ध दामिनी ललाट, निज भृकुटि तनी हुई |
विश्व सुन्दरी सुरम्य. कान्ति क्यों मलीन है?
आन-बान-शान हित, सहिष्णुता विलीन है,
है क्षणिक विचार किन्तु. क्रोधयुक्त लालिमा,
आत्मघात लक्ष्य है, कठोर भाव भंगिमा |
प्रचण्ड दग्ध दारिका , पग सँभल-सँभल धरो
झुको नहीं डिगो नहीं, सदैव देश हित मरो |
____________________________
सुमित्रानंदन पन्त
*
तुम हो मर्यादित मधु बन,
प्रियतम के प्राणों का धन,
अगणित स्वप्न भरे पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन!
उतरो ऊपर नील गगन से,
हे चिर रमणी, चिर नूतन!
मन के इस उर्वर आँगन में
जी लो ज्योतिर्मय जीवन!
___________________
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
*
दिए हैं तूने जिसे सब फूल फल.
आज वह नीचे रहा है हाथ मल,
क्रोध में मत हो विवश ऐ कामिनी!
आ उतर आ रूपसी ऋतु भामिनी!
प्राण खोकर क्या मिलेगा यह जहां?
ठाठ जीवन का मिलेगा सब यहाँ.
_____________________
मैथिली शरण गुप्त
*
नारी न निराश करो मन को
कुछ प्रेम करो निज यौवन को
अति सुन्दर दर्पण में दुहिता
अनुभूत करो मन की शुचिता
जीवन जीना भी एक कला
सँभलो कि सुयोग्य न जाय चला
है कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
हो किस नरेश के योग्य नहीं
नीचे उतरो ढक लो तन को
नारी न निराश करो मन को |
_____________________
भीगे भीगे नयन कोर हैं.
बैठी छत पर गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
स्नेह प्रीति की डोरी
आत्मघात करने को उद्यत
मूक हुई है भाषा,
किस निष्ठुर की एक फूँक का
देखूं खेल-तमाशा
मेरा सुन ले गीत रूपसी.
आलोकित कर मन को
उष्ण शुष्कता से आ नीचे
स्नेह मिले उपवन को
________________________
संत कबीरदास
*
दुहिता छज्जे पर चढ़ी, बिखराये है केश.
धमकाये हर एक को, सतगुरु का आदेश..
आत्मघात पर है अड़ी, सिर मँड़राए काल.
दुविधा में माने नहीं, जी का है जंजाल..
उतरेगी ललना तभी, जब हों आँखें चार.
रसगुल्ले को देखकर, ही उतरेगी नार..
___________________________
संत गोस्वामी तुलसीदास
*
दारा दुहिता भई दुखारी, गयी कूदि के बैठि अटारी..
तीव्र क्रोध झलके उर माथा, सबै आज सुमिरौ रघुनाथा..
कातर कन्त निकट चलि गयऊ, कूदनार्थ वह उद्यत भयऊ..
नीचे सास बजावे बाजा, चिंतित दीखै संत समाजा..
देवर सास ससुर बलिहारी. उतरि आव प्रिय विपदा भारी,.
बाजी लगती आज जान की. हनुमत रक्षा करें प्रान की..
अहंकार है अति दुखदायी, रघुपति सुमिरन शान्तिप्रदायी..
_______________________________________
काका हाथरसी
*
गोरी टावर जा चढ़ी, चले नहीं अब जोर|
ऊपर से मत कूदियो, सिग्नल यदि कमजोर||
सिग्नल यदि कमजोर, हुई डीजल की चोरी|
उलझ नहीं नादान, डेढ़ पसली भी तोरी|
कह काका कविराय, हमेशा मस्त मजा ले|
बदल वीक नेटवर्क, पोर्ट सिम अभी करा ले||
____________________________
- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
*
गौरी तू अम्बर चढ़ी, नीचे है पाताल,
नहीं स्वर्ग में जा सके, करती क्यों जंजाल,
करती क्यों जंजाल, उतर कर नीचे आजा
तेरा ये संसार, दुखी क्यों है बतलाजा
माने तेरी बात, सुनेंगे तेरी लोरी
शेष अभी है उम्र, करे क्यों हत्या गौरी ।
_________________________
- समोद सिंह चरौरा
*
आटा आटा कर रही, घर में कल्लो नार !
छज्जे ऊपर आ गयी, गिरने को तैयार !!
गिरने को तैयार, दूर से देखें प्यादे !
कहती बारम्बार, सजन से आटा लादे !!
कह समोद कविराय, कूद मत छत से माता !
दौड़ा दौड़ा जाय, सजनवा लेने आटा !!
**
अंबरीश
आटा जीवन दे कहे, कुण्डलिया शुभ छंद.
गृहिणी तो स्वच्छंद हैं किन्तु कन्त मतिमंद.
किन्तु कन्त मतिमंद, भूल भारी कर जाता.
महिषी हो जब क्रुद्ध, तभी वह आटा लाता .
बचकर रहना मित्र, गाल सूजे दे चाटा.
सदा रहे यह ध्यान, नहीं है घर में आटा.
_____________________________
प्रमोद तिवारी
*
तू है एक बहादुर नारी मरने की क्यों ठानी
समय कहाँ अब बच पाया जो भरे आँख में पानी
है अनमोल मिला जो तुझको जीवन इसे सम्हालो
नये सिरे से फिर जुट जाओ छोड़ो बात पुरानी
**
अम्बरीष
मनभावन है सुन्दर रचना, अपने मन को भाई.
कथ्य सहज संदेशपरक है, देता हृदय बधाई..
मार लिया मैदान आपने, अब है सबकी बारी.
है सौभाग्य हमारा पाया, अनुपम मित्र 'तिवारी'.
_____________________________
राजेंद्र कुमार
*
न राह, न मंजिल,न जाने किधर था किनारा।
किधर पग पसारे सब ओर पाए बेसहारा।।
किस्मत का लेखा समझ,जो बैठ गया।
सपना न पूरा होगा कभी,यूं जो हार गया।।
____________________________
रमेश एस. पाल रवि
*
ऊबकर जिंदगी से कोई डूब जायेगा
फ़िर तराना ज़माना उसका खूब गायेगा
जाना है पगली सबको , एक दिन आयेगा
उस दिन जाना , जिस दिन महबूब बुलायेगा
*
नार निडर नशीली छत पर बैठी
इनको लगा के वो आत्महत्या करेगी
गये उसको बचाने , खुद ही गिर पड़े
नार अबला बेचारी अब क्या करेगी ?
**
अम्बरीष
निडर नशीली बैठी छत पर कहलाती जो नारि.
दहक रही है उसकी काया हुआ वाष्पित वारि.
वारि संहनित हुआ गगन में बरस गए हैं बादल.
जमा हुआ जल बह निकला है धुला क्लेश बन काजल.
आत्मघात को उकसाती है यही कालिमा प्यारे.
स्नेह नदी बहती है नीचे उसमें अभी नहा रे..
*
अबला पर, अबला मत समझें, सबको ले डूबेगी.
हाथों में होंगीं हथकड़ियाँ, भावों से खेलेगी.
दुनिया देखे खेल तमाशा, तिल-तिल कर मरना है
इसीलिये तो बला समझ, हर अबला से डरना है..
_________________________________
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
*
ना लड़का न लड़की तुम, जीना है बेकार !!
कूदना ही बेहतर है, जाओ नर्क सिधार !
**
अंबरीष
जीवन रंगों से भरा, प्रकृति बाँटती प्यार.
स्वर्ग नर्क सारा यहीं. लगा स्वयं में धार
________________________
फणीन्द्र कुमार
*
बिखरे-बिखरे केश, लिए बैठी है नारी,
गहराई को नाप , संकुचित है बेचारी,
मरने की ली ठान, मगर मुश्किल है कितना,
कूदेगी क्या खाक, अगर सोचेगी इतना ||
___________________________
संजीव वर्मा 'सलिल'
नीलाम्बर पर चित्र लिखे से मेघ भटकते
सलिल धार को शांत देखते रहे ठिठकते
एक ब्रम्ह तन-मन में बँट दो हो जाता है
बैठ किनारे देख रहा जो खो जाता है
केश राशि में छिपा न मालुम नर या नारी?
चित्त अशांत-शांत चिंगारी या अग्यारी ?
पहरा देती अट्टालिका खड़ी एकाकी
अम्बरीष हो मुखर सराहे शुभ बेबाकी
**
धारार्यें हों एक, सहज, हमको समझायें,
ज्ञान भक्ति दो मार्ग. मिलें, प्रभु तक पहुँचायें.
एक ब्रह्म बँट तन मन में, है अलख जगाता,
सारे नारी रूप, वही नर. उससे नाता.
_______________________
रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
दुष्यंत कुमार
*
दृश्य सुन्दर सामने आने लगे हैं
छा रहे थे मेघ जो जाने लगे हैं
अब न रहना इमारत में कैद मुझको
मुक्ति के स्वर टेरते भाने लगे हैं
_____________________
गोपाल प्रसाद व्यास
*
प्रकृति को परमेश्वर मानो
मत रार मनुज इससे ठानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
____________________
महादेवी वर्मा
ये नीर भरी जल की बदली
उमड़ी थी कल, पर आज चली
बिन बरसे ताके गगन विवश
है काल सत्य ही महाबली
_____________________
नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
छत पे बैठ भा रही है ज़िन्दगी
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
__________________
शैलेन्द्र
गगन रे झूठ मत बोलो
न अब बरसात आना है
गए हैं मेघ सब वापिस
नहीं उनको बुलाना है
____________________
नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
पछुआ ने तन-मन सिहराया
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
______________________
प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
ये है अपनी नदी सुहावन मेंढक आ टर्राया था
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
_______________________________
विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
*
अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण को शिष्य रूप में आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं। आपका क्या विचार है सोचिए? किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
६-९-२०१४
***
जाकी रही भावना जैसी
शिक्षक दिवस पर मंगल कामनाएँ प्राप्त कर धन्यता अनुभव हुई। सभी के प्रति ह्रदय से आभार।
विशेष आभार नर्मदांचल के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के प्रति जिनके स्नेहादेश को स्वीकार कर नर्मदापुरम (होशंगाबाद) में शिवसंकल्प साहित्य परिषद् के शिक्षक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से चयनित शिक्षकों तथा साहित्यकारों को सम्मानित करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ नवगीतकार अग्रजवत श्री विनोद निगम और अपने गुरु, हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्य कवि, धर्मयुग के उपसंपादक रहे श्री सुरेश उपाध्याय जी तथा भाभी श्रीमती आशा उपाध्याय जी के दर्शन, चरणस्पर्श, स्वादिष्ट भोजन और मर्मस्पर्शी कवितायेँ सुनने का सौभाग्य मिला।
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा। हिंदी भाषा, व्याकरण, साहित्य, पिंगल, वास्तु, विधि, नागरिक अभियांत्रिकी और अन्य विषयों/विधाओं जो कुछ जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ बाँटता रहता हूँ। हिन्दयुग्म/साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, ब्लॉगों, फेसबुक पृष्ठों, वॉट्सऐप समूहों, और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ। इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ। इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है। हिंदी के कई व्याख्याताओं और प्राध्यापकों ने छंद, अलंकार तथा व्याकरण संबंधी लेख मालाओं की छायाप्रतियां निकलकर उनसे विद्यार्थियों को पढ़ाया। युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो। गूगल सर्च पर अपना नाम टंकित करने पर अंग्रेजी में ४ लाख साथ हजार और हिंदी में दो लाख उनहत्तर हजार परिणाम प्राप्त हुए। दिव्यनर्मदा.इन का पाठकांक ४० लाख २८ हजार १२३ है। ७५ पुस्तकों की भूमिकाएँ ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने तथा ५०० से अधिक छंदों की रचना करने के बाद भी स्थानीय आकाशवाणी केंद्र, अखबार और साहित्यिक मठाधीश मुझे साहित्यकार ही नहीं मानते।

मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु… मैं यह जानता हूँ कि मैं एक विद्यार्थी था, हूँ, और रहूँगा , शेष जाकी रही भावना जैसी.....
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म

***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?

सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.

क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.

क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
धरती बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.

क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
६-९-२०१०
***
सॉनेट 
शिक्षक देते सीख नमन 
सुख पाना तो कर संतोष 
महकाता है अनिल चमन 
पा आलोक न करना रोष 

सरला बुद्धि हमेशा साथ 
बचा अस्मिता करो प्रयास 
गुरु छाया पा ऊँचा माथ 
संगीता हो महके श्वास

देव कांत दें संरक्षण 
मनोरमा मति अमल धवल 
हो सुनीति को आरक्षण 
विभा निरुपमा रहे नवल 

शिक्षक से पा शाश्वत सीख 
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख 
५-९-२०२२ 
*