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रविवार, 26 जून 2022

मुक्तक,गीत,मुक्तिका,छंद शुद्ध ध्वनि,छंद आल्हा,हाइकु गीत,अविनाश ब्यौहारसत्यमित्रानंद सवैया


अभिनव प्रयोग
नवान्वेषित सवैया
सत्यमित्रानंद सवैया
*
विधान -
गणसूत्र - य न त त र त र भ ल ग।
पदभार - १२२ १११ २२१ २२१ २१२ २२१ २१२ २११ १२ ।
यति - ७-६-६-७ ।
*
गए हो तुम नहीं, हो दिलों में बसे, गई है देह ही, रहोगे तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलेंगे फिर यहीं।
*
तुम्हारा यश सदा, रौशनी दे हमें, रहेगा सूर्य सा, घटेगी यश नहीं।
दिये सा तुम जले, दी सदा रौशनी, बँधाई आस भी, न रोका पग कभी।
रहे भारत सदा, ही तुम्हारा ऋणी, तुम्हीं ने दी दिशा, तुम्हीं हो सत्व्रती।
कहेगा युग कथा, ये सन्यासी रहे, हमेशा कर्म के, विधाता खुद जयी।
*
मिला जो पद तजा, जा नई लीक पे, लिखी निर्माण की, नयी ही पटकथा।
बना मंदिर नया, दे दिया तीर्थ है, नया जिसे कहें, सभी गौरव कथा।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणास्रोत हो, हमें उजास दो, गढ़ें किस्मत नयी।
खड़े हैं सुर सभी, देवतालोक में, प्रशस्ति गा रहे, करें स्वागत सभी।
*
२६-६-२०१९


Krishna Rajput

***
पुस्तक सलिला:
'अंधी पीले कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है।
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं।
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है।
*
समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001,
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
***
दोहा सलिला
*
खेत ख़त्म कर बना लें, सडक शहर सरकार
खेती करने चाँद पर, जाओ कहे दरबार
*
पल-पल पल जीता रहा, पल-पल मर पल मौन
पल-पल मानव पूछता, पालक से तू कौन?
*
प्रथम रश्मि रवि की हँसी, लपक धरा को चूम
धरा-पुत्र सोता रहा, सुख न उसे मालूम
*
दल के दलदल में फँसा, नेता देता ज्ञान
जन की छाती पर दले, दाल- स्वार्थ की खान
*
खेल रही है सियासत, दलित-दलित का खेल
भूल सिया-सत छल रही, देश रहा चुप झेल
*
मीरा मत आ दौड़कर, ये तो हैं कोविंद
भूल भई तूने इन्हें, समझ लिया गोविन्द
*
लाल कृष्ण पीछे हुए, सम्मुख है अब राम
मीरा-यादव दुखी हैं, भला करेंगे राम
*
जो जनता के वक्ष पर दले स्वार्थ की दाल
वही दलित कलिकाल में, बनता वही भुआल
*
हिंदी घरवाली सुघड़, हुई उपेक्षित मीत
अंग्रेजी बन पड़ोसन, लुभा रही मन रीत
*
चाँद-चाँदनी नभ मकां, तारे पुत्र हजार
हम दो, दो हों हमारे, भूले बंटाढार
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वारे, सबसे आगे दीख
*
अधकचरा मस्तिष्क ही, लेता शब्द उधार
निज भाषा को भूलकर, परभाषा से प्यार
*
मन तक जो पहुँचा सके, अंतर्मन की बात
'सलिल' सफल साहित्य वह, जिसमें हों ज़ज्बात
*
हिंदी-उर्दू सहोदरी, अंग्रेजी है मीत
राम-राम करते रहे, घुसे न घर में रीत
*
घुसी वजह बेवजह में, बिना वजह क्यों बोल?
नामुमकिन मुमकिन लिए, होता डाँवाडोल
*
खुदी बेखुदी हो सके, खुद के हों दीदार
खुदा न रहता दूर तब, नफरत बनती प्यार
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वरे, सबसे आगे दीख
*
सुबह उषा फिर साँझ से, खूब लड़ाया लाड़
छिपा निशा की गोद में, सूरज लेकर आड़
*
तर्क वितर्क कुतर्क से, ठगा गया विश्वास
बिन श्रद्धा के ज्ञान का, कैसे हो आभास?
*
लगा-लगा दम, आदमी, हो बेदम मजबूर
कोई न कहता आ दमी, सभी भागते दूर
*
अपने अपने है नहीं, गैर नहीं हैं गैर
खुद को खुद ही परख लें, तभी रहेगी खैर
*
पेड़ कभी लगते नहीं, रोपी जाती पौध
अब जमीन ही है नहीं, खड़े सहस्त्रों सौध
*
मुक्तक
दर्द हों मेहमां तो हँसकर मेजबानी कीजिए
मेहमानी का मजा कुछ ग़मों को भी दीजिए
बेजुबां हो बेजुबानों से करें कुछ गुफ्तगू
जिंदगी की बंदगी का मजा हँसकर लीजिए
***
दाना देते परीक्षा, नादां बाँटे ज्ञान
रट्टू तोते आ रहे, अव्वल हैं अनजान
समझ-बूझ की है कमी, सिर्फ किताबी लोग
चला रहे हैं देश को, मनमर्जी भगवान
***
गौ माता के नाम पर, लड़-मरते इंसान
गौ बेबस हो देखती, आप बहुत हैरान
शरण घोलकर पी गया, भूल गया तहजीब
पूत आप ही लूटते भारत माँ की आन
***
मैं सपनों में नहीं जी रहा, सपने मुझमें जीते हैं।
कोशिश की बोतल में मदिरा, संघर्षों की पीते हैं।।
जो दिखलाते उत्तम खुद को; अन्यों को नीचा कहते-
सच मानो वे अंतर्मन से शत प्रतिशत ही रीते हैं।।
***
गीत
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
२६-६-२०१७
***
मुक्तिका:
*
गये जब से दिल्ली भटकने लगे हैं.
मिलीं कुर्सियाँ तो बहकने लगे हैं
कहाँ क्या लिखेंगे न ये राम जाने
न पूछो पढ़ा क्या बिचकने लगे हैं
रियायत का खाना खिला-खा रहे हैं
न मँहगाई जानें मटकने लगे हैं
बने शेर घर में पिटे हर कहीं वे
कभी जीत जाएँ तरसने लगे हैं
भगोड़ों के साथी न छोड़ेंगे सत्ता
न चूकेंगे मौका महकने लगे हैं
न भूली है जनता इमरजेंसी को
जो पूछा तो गुपचुप सटकने लगे हैं
किये पाप कितने कहाँ और किसने
किसे याद? सोचें चहकने लगे हैं
चुनावी है यारी हसीं खूब मंज़र
कि काँटे भी पल्लू झटकने लगे हैं
न संध्या न वंदन न पूजा न अर्चन
'सलिल' सूट पहने सरसने लगे हैं.
२६-६-२०१५
***
छंद सलिला:
शुद्ध ध्वनि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १८-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: २४ जून १५६४ रानी दुर्गावती शहादत दिवस, कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
***
छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
२६-६-२०१४






***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
२६-६-२०१०
***

शनिवार, 25 जून 2022

सॉनेट, राम कब हुए, गीत, मुक्तक, दीप्ति,दोहागीत,मुक्तिका, पुरुष विमर्श

सॉनेट 
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।

हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य  न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।

अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।

हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी। 
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में  ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,०००  वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।

वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ  लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसी लिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान


गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।


दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।


हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।


बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।


ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।


जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह, लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पाएँ चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बाँहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५-६-२०१३

***

दोहागीत :

मनुआ बेपरवाह.....

*

मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

*

ठेंगे पर दुनिया सकल,

जो कहना है- बोल.

अपने मन की गाँठ हर,

पंछी बनकर खोल..

गगन नाप ले पवन संग

सपनों में पर तोल.

कमसिन है लेकिन नहीं

संकल्पों में झोल.

आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

*

मौन करे कोशिश सदा,

कभी न पीटे ढोल.

जैसा है वैसा दिखे,

चाहे कोई न खोल..

बात कर रहा है खरी,

ज्ञात शब्द का मोल.

'सलिल'-धर में मीन बन,

चंचल करे किलोल.

कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

२५-६-२०११

***

मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***

शुक्रवार, 24 जून 2022

पिता, गीत, छंद पञ्चचामर,हाइकू, बरगद, विनीता राहुरीकर

 कवि और कविता : सरला वर्मा

सर ला दें भजकर भजन, अंजलि में भर आज। 
निशि-दिन मन संजीव हो, संगीता हर काज।।
*
योग किया; व्यय रोककर, गुना किया दिन-रात। 
भाग भाग से; भाग पा, भाग मिली सौगात।।
*
बुक बुटीक में कर दिया, दिल सुशील के नाम।
दम दे जमीं दमोह में, रूचि बैठी सिर थाम।। 
*
चेले केले खा रहे, छिलके ले आचार्य। 
मौन  हुए संतोष कर, उमा सधे सब काज।।
*
पहली-अंतिम शादियाँ, गई व्यवस्था टूट। 
शिखा भूमि पर व्यवस्था, कर दी बैठ अटूट।।
*
विद्या रेखा खींच दे, गुरु मंजरी ललाम। 
संत जयंत बसंत की, शैली काम अकाम।।
*
आकांक्षा इंद्रा-दया, ऋचा स्मिता रवींद्र। 
बने वसीयत कमल की आभा-विभा कवीन्द्र।        
*
वेद वंदना शशि करें, छाया वसुधा साथ। 
माया-गीता शालिनी, मौली थामे हाथ।।
*
शंभु नाथ आशीष दें, आस्था रहे अभंग। 
भावुकता के भाव को, देखे दुनिया दंग।।
*
गुडविल में गुड बिल छिपा, वर्षा कर भुगतान। 
दिल मजबूत करो सलिल, तभी बचेगी आन।।
*
हँसी लबों पर हो सदा, चेहरे पर हो ओज। 
माथे पर सूरज सजे, दे खुशियों को भोज।।
२४-६-२०२२ 
***
कृति चर्चा:
'पराई जमीन पर उगे पेड़' मन की तहें टटोलती कहानियाँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: 'पराई जमीन पर उगे पेड़, कहानी संग्रह, विनीता राहुरीकर, प्रथम संस्करण, २०१३, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १७८, मूल्य २५०/-, अरुणोदय प्रकाशन, ९ न्यू मार्किट, तात्या टोपे नगर भोपाल, ९१७५५२६७३६२४]
*
मनुष्य के विकास के साथ ही कहने की कला का विकास हुआ। कहने की कला ने विज्ञान बनकर साहित्य की कई विधाओं को जन्म दिया। गद्य में कहानी, भाषण, लघुकथा, परिचर्चा, साक्षात्कार, व्यंग्य, संस्मरण, चर्चा, संगोष्ठी आदि और पद्य में गीत, भजन आदि कहने की कला के विधिवत विकास के ही परिणाम हैं। कहानी वह जो कही जाए। कही वह जाए जो कहने योग्य हो। कहने योग्य वह जो किसी का शुभ करे। सत्य-शिव-सुन्दर की प्रस्तुति भारतीय वांग्मय का आदर्श है। साम्यवादी यथार्थवादी विडंबनाओं और विसंगतियों या पाश्चात्य विलासितापूर्ण लेखन को भारतीय मनीषा ने कभी भी नहीं सराहा। भारत में काम पर भी लिखा गया तो विज्ञान सम्मत तरीके से शालीनतापूर्वक। सबके मंगल भाव की कामना कर लिखा जाए तो उसके पाठक या श्रोता को अपने जीवन पथ में जाने-अनजाने आचरण को संयमित-संतुलित करने में सहायता मिल जाती है। सोद्देश्य लेखन की सकारात्मक ऊर्जा नकारात्मक ऊर्जा का शमन करती है।
युवा कहानीकार विनीता राहुरीकर के कहानी संग्रह 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' को पढ़ना जिंदगी की रेल में विविध यात्रियों से मिलते-बिछुड़ते हुए उनके साथ घटित प्रसंगों का साक्षी बनने जैसा है। पाठक के साथ न घटने पर भी कहानी के पात्रों के साथ घटी घटनाएँ पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। वह तटस्थ रहने का प्रयास करे तो भी उसकी संवेदना किसी पात्र के पक्ष और किसी अन्य पात्र के विरुद्ध हो जाती है। कभी सुख-संतोष, कभी दुःख-आक्रोश, कभी विवशता, कभी विद्रोह की लहरों में तैरता-डूबता पाठक-मन विनीता के कहानीकार की सामर्थ्य का लोहा मानता है।
विनीता जी की इन कहानियों में न तो लिजलिजी भावुकता है, न छद्म स्त्री विमर्श। ये कहानियाँ तथाकथित नारी अधिकारों की पैरोकारी करते नारों की तरह नहीं हैं। इनमें गलत से जूझकर सुधारने की भावना तो है किन्तु असहमति को कुचलकर अट्टहास करने की पाशविक प्रवृत्ति सिरे से नहीं है। इन कहानियों के पात्र सामान्य हैं। असामान्य परिस्थितियों में भी सामान्य रह पाने का पौरुष जीते पात्र जमीन से जुड़े हैं। पात्रों की अनुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर पाठक उन्हें अपने जीवन में देख-पहचान सकता है
विनीता जी का यह प्रथम कहानी संकलन है। उनके लेखन में ताजगी है। कहानियों के नए कथानक, पात्रों की सहज भाव-भंगिमा, भाषा पर पकड़, शब्दों का सटीक उपयोग कहानियों को पठनीय बनाता है। प्राय: सभी कहानियाँ सामाजिक समस्याओं से जुडी हुई हैं। समाज में अपने चतुर्दिक जो घटा है, उसे देख-परखकर उसके सकारात्मक-नकारात्मक पक्षों को उभारते हुए अपनी बात कहने की कला विनीता जी में है। विवेच्य संग्रह में १६ कहानियाँ हैं। कृति की शीर्षक कहानी 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' में पति-पत्नी के जीवन में प्रवेश करते अन्य स्त्री-पुरुषों के कारण पनपती दूरी, असुरक्षा फिर वापिस अपने सम्बन्ध-सूत्र में बँधने और उसे बचाने के मनोभाव बिम्बित हुए हैं। वरिष्ठ कथाकार मालती जोशी ने इस कहानी में प्रयुक्त प्रतीक के बार-बार दूहराव से आकर्षण खोने का तथ्य ठीक ही इंगित किया है। अपने सम्बन्ध को स्थायित्व देने और असुरक्षा से मुक्त होने के लिए संतति की कामना करना आदर्श भले ही न हो यथार्थ तो है ही। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु के जन्म से दाम्पत्य को स्थायित्व मिलता है।
वैभवशाली पति को ठुकरानेवाली 'ठकुराइन' दिवंगता सौतन के पुत्र को अपनाकर गरीबी में किन्तु स्वाभिमानपूर्वक जीवन गुजारती है। यह चरित्र असाधारण है। 'वट पूजा' कहानी में एक दूसरे को 'स्पेस' देने के मुगालते में दूर होते जाने की मरीचिका, अन्यों के प्रति आकर्षण तथा समय रहते अपने नैकट्य स्थापित कर संबंध को पुनर्जीवित करने की ललक स्पन्दित है। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की चाहत में अतीतजीवी होकर जड़ होते बुजुर्गो, उनके मोह में अपने भविष्य को सँवारने में चूकते या भविष्य को संवारने में कर्तव्य निभाने से चूकने का मलाल पाले युवा दंपति की कशमकश 'चिड़िया उड़ गई फुर्र' कहानी में उठाई गई है। 'समानांतर रेखाएँ कहानी में पति से घरेलू कार्य में सहयोग की अपेक्षा कर निराह होती कामकाजी पत्नी की विवशता पाठक के मन में सहानुभूति तो जगाती है किन्तु पति की भी कुछ अपेक्षा हो सकती है यह पक्ष अनछुआ रह जाने से बात एकतरफा हो गयी है।
पिता के सामान में किसी अपरिचित स्त्री के प्रेम-पत्र मिलने से व्यथित किशोरी पुत्री 'खंडित मूर्ति' कहानी के केंद्र में हैं। यह कथानक लीक से हटकर है। माता से यह जानकर कि वे पत्र किसी समय उन्हीं पति द्वारा रखे गए नाम ने लिखे थे, बेटी पूर्ववत हो पाती है। 'अनमोल धरोहर' कहानी में संयुक्त परिवार, पारिवारिक संबंधों और बुजुर्गों की महत्ता प्रतिपादित करती है। वृद्धों को अनुपयोगी करार देकर किनारे बैठाने के स्थान पर उन्हें उनके उपयुक्त जिम्मेदारी देकर उनकी उपादेयता और महत्त्व बनाये रखने का सत्य प्रतिपादित करती है कहानी 'नई जिम्मेदारी'। कैशोर्य में बलात्कार का शिकार हुई युवती का विवाह के प्रति अनिच्छुक होना और एक युवक द्वारा सब कुछ जानकर भी उसे उसके निर्दोष होने की अनुभूति कराकर विवाह हेती तत्पर होना कहानी 'तुम्हारी कोई गलती नहीं' में वर्णित है। निस्संतान पत्नी को बिना बताये दूसरा विवाह करनेवाले छलिया पति के निधन पर पत्नी के मन में भावनात्मक आवेगों की उथल-पुथल को सामने लाती है कहानी 'अनुत्तरित प्रश्न'। 'जिंदगी फिर मुस्कुरायेगी' में मृत्यु पश्चात अंगदान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 'दिखावे की काट' कहानी दिवंगत पिता की संपत्ति के प्रति पुत्र के मोह और पुत्री के कर्तव्य भाव पार आधृत है।
'बिना चेहरे की याद' में भिन्न रुचियों के विवाह से उपजी विसंगति और असंतोष को उठाया गया है किन्तु कोई समाधान सामने नहीं आ सका है। परिवारजनों की सहमति के बिना प्रेमविवाह कर अलग होने के बावजूद परिवारों से अलग न हो पाने से उपजी शिकायतों के बीच भी मुस्कुराते रहने का प्रयास करते युवा जोड़े की कहानी है 'धूल और जाले'। निस्संतान दम्पति द्वारा अन्य के सहयोग से संतान प्राप्ति के स्थान पर अनाथ शिशु को अपनाने को वरीयता 'चिड़िया और औरत' कहानी का कथ्य है। अंतिम कहानी 'गाँठ' का कथानक सद्य विवाहिता नायिका और उसकी सास में मध्य तालमेल में कमी के कारण पति के सामने उत्पन्न उलझन और पिता द्वारा बेटी को सही समझाइश देने के ताने-बाने से बुना गया है।
विनीता जी की कहानियाँ वर्तमान समाज में हो रहे परिवर्तनों, टकरावों, सामंजस्यों और समाधानों को लेकर लिखी गयी हैं। कहानियों का शिल्प सहज ग्राह्य है। नाटकीयता या अतिरेक इन कहानियों में नहीं है। भाषा शैली और शब्द चयन पात्रों और घटनाओं के अनुकूल है। 'हालत' शब्द का बहुवचन हिंदी में 'हालतों' और उर्दू में 'हालात' होता है, 'हालातों' पूरी तरह गलत है (खंडित मूर्ति, पृष्ठ ६५)। चरिते चित्रण स्वाभाविक और कथानुकूल है। अधिकांश कहानियों में स्त्री-विमर्श का स्वर मुखर होने के बावजूद एकांगी नहीं है। वे स्त्री विमर्श के नाम पर अशालीन होने की महिला कहानीकारों की दुष्प्रवृत्ति से पूरी तरह दूर रहकर शालीनता से समस्या को सामने लाती हैं। पारिवारिक इकाई, पुरुष या बुजुर्गों को समस्या का कारण न कहकर वे व्यक्ति-व्यक्ति में तालमेल की कमी को कारण मानकर परिवार के भीतर ही समाधान खोजते पात्र सामने लाती हैं। यह दृष्टिकोण स्वस्थ्य सामाजिक जीवन के विकास में सहायक है। उनके पाठक इन कहानियों में अपने जीवन में उत्पन्न समस्याओं के समाधान पा सकते हैं। एक कहानीकार के नाते यह विनीता जी की सफलता है कि वे समस्याओं का समाधान संघर्ष और जय-पराजय में नहीं सद्भाव और साहचर्य में पाती हैं।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
२४-६-२०१७
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छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
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प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव
पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.
रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।
२४-६-२०१५
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द्विपदी :
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कदमों से अंदाज़ा कद का कर लेते हैं
नज़र जमीं पर रखने वाले गलत न होते
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मुक्तक:
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रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
२४-६-२०१५
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शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर
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मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा:
'मन तू मन से मिल गया
है' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे
चार-कदम चल?
कौन जनता न कहीं
जाए तू बदल?
देख किसी और को
न जाए झट फिसल?
कैसे मान लूँ कि तेरी
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें
प्रीत हम अटल.
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने झुक कहा:
चक्रवात जैसी अपनी
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं
प्यार हो निबल
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त
ज्यों भ्रमर-कमल
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के
देख-जान लें
रीत प्रीत की निभा
सकें, सजल नयन
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा.
*
संगीत संध्या
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर
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: मुक्तिका:
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
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हाइकु सलिला
*
रात की बात
किसी को मिली जीत
किसी को मात..
*
फूल सा प्यारा
धरती पर तारा
राजदुलारा..
*
करते वंदन
लगाकर चन्दन
हँसे नंदन..
*
आता है याद
दूर जाते ही देश
यादें अशेष..
*
कुसुम-गंध
फैलती सब ओर.
देती आनंद..
*
देना या पाना
प्रभु की मर्जी
पा मुस्कुराना..
*
आंधी-तूफ़ान
देता है झकझोर
चले न जोर..
*
उखाड़े वृक्ष
पल में ही अनेक
आँधी है दक्ष..
*
बूँदें बरसें
सौधी गंध ले सँग
मन हरषे..
*
करे ऊधम
आँधी-तूफ़ान, लिए
हाथ में हाथ..
*
बादल छाये
सूरज खिसियाये
भू मुस्कुराये.
*
नापते नभ
आवारा की
तरह नाच बादल..
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मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..

बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..

ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..

कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..

खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..

खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..

गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..

राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..

कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
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कथा-गीत:
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...

है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.

धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.

मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.

वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.

रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.

कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.

मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.

है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.

जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.

अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.

बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.

भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारो.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो..
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गीत:
तो चलूँ ……
*
जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया, कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
जहाँ जो कुछ है वही है, नहीं कुछ हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
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स्मृति गीत / शोक गीत
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याद आ रही पिता तुम्हारी
याद आ रहीपिता तुम्हारी...
*
तुम सा कहाँ मनोबल पाऊँ?
जीवन का सब विष पी पाऊँ.
अमृत बाँट सकूँ स्वजनों को-
विपदा को हँस सह मुस्काऊँ.
विधि ने काहे बात बिगारी?
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
रही शीश पर जब तव छाया.
तनिक न विपदा से घबराया.
आँधी-तूफां जब-जब आये-
हँसकर मैंने गले लगाया.
बिना तुम्हारे हुआ भिखारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
मन न चाहता खुशी मनाऊँ.
कैसे जग कोगीत सुनाऊँ?
सपने में आकर मिल जाओ-
कुछ तो ढाढस-संबल पाऊँ.
भीगी अँखियाँ होकर खारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
२४-६-२०१०
*