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बुधवार, 8 जून 2022

मुक्तिका,द्विपदी,विराट,समीक्षा,तेवरी,छंद गीतिका,poetry,ट्रेन, रेलगाड़ी

Prayer
SUN
*
O' Sun enlighten we all.
Help us to rise, not to fall.
Working without rest.
Always doing your best.
Destroying darkness.
Encouraging brightness.
Teaching Selfmotivation.
Having great fascination.
Showing path to every one.
Enjoying the job as fun.
We bow our Heads to you.
And promise the best to do.
8-6-2022
gyangnga engg. college
***
MOTHER EARTH
O mother earth! bless us all.
Do not judge short or tall.
We are blissed, you are kind.
Doing mischives, do not mind.
We feel safe in your arms
We are gifted with many charms.

Mountains, forests, and rivers.
Can make the life cycle reverse.

Forgive us for blunders we do.
Let our all the dreams come true.
8-6-2022
***
PRAYER
*
O' Almighty lord Ganesh!
Words are your sword ashesh.
You are always the First.
Make best from every worst.
You are symbol of wisdom.
You are innocent and handsome.
Ultimate terror to the Demon.
Shiv and Shiva's worthy son.
You bring us all the Shubha.
You bless the devotees with Vibha.
Be kind on us mother Riddhi.
Bless us all o mother Siddhi.
O lord Ganesh the Vighnesh.
Make us success o Karunesh.
6-6-2022
***
रेलगाड़ी और कविता
*
ट्रेन की सीटी नहीं, थी विरह की प्रस्तावना।
प्रेयसी को कर विदा, घर आए तो दिल ने कहा।।
*
रेलगाड़ी ले गयी तुमको न मेरा बस चला। 
याद ले जा पाई नहीं, दिल का जहां आबाद है।.
*
अश्क़ से भीगा हुआ रूमाल इंजन ले गया। 
जुदाई की तपिश ने, धीरज-बरफ़ पिघला दिया।। 
*
अरमानों को पंख दे दिए, हाँफ-दौड़ते एंजिन ने।
दूर दूरियाँ हुईं, निकटता निकट हुई दिल मिल पाए।।
*
सिग्नल कब तक रोके रहता, जानेवाला चला गया।
आनेवाला घर आया तो, खुशियों की बरसात हुई।।
*
पत्थर मैं, पर पत्थर-दिल वे हैं जो मुझको रौंद रहे।
तनहाई में मिला सिसकता प्लेटफॉर्म मुझसे बोला।।
*
आता अपनी कह संग सोता, जाते क्यों मुँह फेरे कह। 
कोई नाता नहीं निभाता, हूँ बदकिस्मत बर्थ कहे।।
*
भारी से भारी हो हल्का, पर न थैंक्यू कहता है। 
इंसां अहसां फरामोश है, कहे प्रसाधन बिना कहे।।
८-६-२०२२ 
***
विचित्र किन्तु सत्य
नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
सराहनेवाले सहस्त्रों, सीखनेवाले सैंकड़ों, प्राप्त समीक्षायें २६, कृति खरीदनेवाले ऊँगली पर गिनने लायक... क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाए?
*
समालोचना-
काल है संक्रांति का पठनीय नवगीत-गीत संग्रह
अमर नाथ
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४]
***
६५ गीत- नवगीतों का गुलदस्ता 'काल है संक्रान्ति का', लेकर आए हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर से, खासतौर से हिन्दी और बुन्देली प्रेमियों के लिए। नए अंदाज और नए कलेवर में लिखी इन रचनाओं में राजनीतिक, सामाजिक व चारित्रिक प्रदूषण को अत्यन्त सशक्त शैली में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। भूख, गरीबी, धन, धर्म, बन्दूक का आतंक, तथाकथित लोकतंत्र व स्वतंत्रता, सामाजिक रिश्तों का निरन्तर अवमूल्यन आदि विषयों पर कवि ने अपनी बेबाक कलम चलाई है। हिन्दी का लगभग प्रत्येक साहित्यकार अपने ज्ञान, मान की वृद्धि की कामना करते हुए मातु शारदे की अर्चना करने के बाद ही अपनी लेखनी को प्रवाहित करता है लेकिन सलिल जी ने न केवल मातु शारदे की अर्चना की अपितु भगवान चित्रगुप्त और अपने पूर्वजों की भी अर्चना करके नई परम्परा कायम की है। उन्होनें इन तीनों अर्चनाओं में व्यक्तिगत स्वयं के लिए कुछ न चाहकर सर्वसमाज की बेहतरी की कामना है। भगवान चित्रगुप्त से उनकी विनती है कि-
गैर न कोई, सब अपने है, काया में है आत्म सभी हम।
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित, छाया-माया, सुख-दुःख हो सम।।(शरणागत हम -पृष्ठ-६)
इसी प्रकार मातृ शारदे से वे हिन्दी भाषा के उत्थान की याचना कर रहे हैं-
हिन्दी हो भावी जगवाणी, जय-जय वीणापाणी ।।(स्तवन-पृष्ठ-८)
पुरखों को स्मरण कर उन्हें प्रणाम करते हुए भी कवि याचना करता है-
भू हो हिन्दी-धाम। आओ! करें प्रणाम।
सुमिर लें पुरखों को हम, आओ! करें प्रणाम।।(स्मरण -पृष्ठ-१०)
इन तीनों आराध्यों को स्मरण, नमन कर, भगिनी-प्रेम के प्रतीक रक्षाबन्धन पर्व के महत्व को दर्शाते हुए
सामाजिक रिश्तों में भगिनी को याद करते उन्हें अपने शब्दसुमन समर्पित करते है-
अर्पित शब्दहार उनको, जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन।
जो रोली अक्षत टीकाकर, आशा का मधुबन महकाती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
समर्पण कविता में रक्षाबंधन के महत्च को समझाते हुए कवि कहता है कि-
तिलक कहे सम्मान न कम हो, रक्षासूत्र कहे मत भय कर
श्रीफल कहे-कड़ा ऊपर से, बन लेकिन अंतर से सुखकर
कडुवाहट बाधा-संकट की, दे मिष्ठान्न दूर हँस करती
सदा शीश पर छाँव घनी हो, दे रूमाल भाव मन भरती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
कवि ने जब अपनी बहिन को याद किया है तो अपनी माँ को भी नहीं भूला। कवि बाल-शिकायत करते हुए काम तमाम कविता में माँ से पूछता है-
आने दो उनको, कहकर तुम नित्य फोड़ती अणुबम
झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस, पर निकले दम।
मुझ सी थी तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ?
नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच, क्या थीं तुम?
पोल खोलकर नहीं बढ़ाना मुझको घर का ताप।
मम्मी, मैया, माँ, महतारी, करूँ आपका जाप। (पृष्ठ-१२०)
अच्छाई, शुभलक्षणों व जीवन्तता के वाहक सूर्य को विभिन्न रूपों में याद करते हुए, उससे फरियाद करते हुए कवि ने उस पर नौ कवितायें रच डाली। काल है संक्रान्ति का जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है केवल सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन अथवा दक्षिणायन से उत्तरायण परिक्रमापथ के संक्रमण का जिक्र नहीं अपितु सामाजिक संक्रान्ति को उजागर करती है-
स्वभाशा को भूल, इंग्लिश से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को, तुम मत रुको सूरज।
प्राच्य पर पाश्चात्य का अब चढ़ गया है रंग
कौन किसको सम्हाले, पी रखी मद की भंग।
शराफत को शरारत नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है खुद नियति भी दंग।
तिमिर को लड़, जीतना, तुम मत चुको सूरज।
काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज।। (पृष्ठ-१६-१७)
सूरज को सम्बोधित अन्य रचनायें- संक्रांति काल है, उठो सूरज, जगो! सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज है।
इसी प्रकार नववर्ष पर भी कवि ने छह बार कलम चलाई है उसके विभिन्न रूपों, बिम्बों को व्याख्यायित करते हुए। हे साल नये, कब आया कब गया, झाँक रही है, सिर्फ सच, मत हिचक, आयेगा ही।
कवि ने नये साल से हर-बार कुछ नई चाहतें प्रकट की है।
हे साल नये! मेहनत के रच दे गान नए....। (हे साल नये-पृष्ठ-२४)
रोजी रोटी रहे खोजते, बीत गया, जीवन का घट भरते भरते रीत गया
रो-रो थक, फिर हँसा साल यह, कब आया कब गया, साल यह? (कब आया कब गया-पृष्ठ-३९)
टाँक रही है अपने सपने, नये वर्ष में, धूप सुबह की।
झाँक रही है खोल झरोखा, नये वर्ष में, धूप सुबह की।। (झाँक रही है -पृष्ठ-४२)
जयी हों विश्वास-आस, हँस बरस।
सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।। (सिर्फ सच -पृष्ठ-४४)
धर्म भाव कर्तव्य कभी बन पायेगा?
मानवता की मानव जय गुँजायेगा?
मंगल छू, भू के मंगल का क्या होगा?
नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा? (सिर्फ सच -पृष्ठ-४६)
'कथन' कविता में कवि छंदयुक्त कविता का खुला समर्थन करते हुए नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि-
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
विरामों से पंक्तियाँ नव बना, मत कह
छंदहीना नयी कविता है सिरजनी।
मौन तजकर मनीषा,कह बात अपनी। (कथन -पृष्ठ-१४)
कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति भी जागरूक है और विभिन्न समस्याओं समस्याओं को तेजधार के साथ घिसा भी है-जल प्रदूषण के प्रति सचेत करते हुए कवि समाज से पूछता है-
कर पूजा पाखण्ड हम, कचरा देते डाल।
मैली होकर माँ नदी, कैसे हो खुशहाल?(सच की अरथी-पृष्ठ-56)
सामाजिक व पारिवारिक सम्बंधों में तेजी से हो रहे ह्रास को कवि बहुत मार्मिक अंदाज में कहता है कि -
जो रहे अपने, सिमटते जा रहे हैं।
आस के पग, चुप उखड़ते जा रहे हैं।। (कथन -पृष्ठ-१३)
वृद्धाश्रम- बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ, आँसू क्यों बहते रहते हैं? (राम बचाये -पृष्ठ-९४)
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब, है खुद-गर्जी। रब की मर्जी (रब की मर्जी -पृष्ठ-१०९)
रचनाकार एक तरफ तो नये साल से कह रहा है कि सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।(सिर्फ सच-पृष्ठ-४४)
किन्तु स्वयं ही दूसरी ओर वह यह भी कहकर नये साल को चिन्ता में डाल देता है कि- सत्य कब रहता यथावत, नित बदलता, सृजन की भी बदलती नित रही नपनी। (कथन-पृष्ठ-१३)
कवि वर्तमान दूषित राजनीतिक माहौल, गिरती लोकतांत्रिक परम्पराओं और आए दिन संविधान के उल्लंघन के प्रति काफी आक्रोषित नजर आता है।
प्रतिनिधि होकर जन से दूर, आँखें रहते भी, हो सूर।
संसद हो, चौपालों पर, राजनीति तज दे तंदूर।।
अब भ्रांति टाल दो, जगो, उठो।
संक्रांति काल है, जगो, उठो। (संक्राति काल है-पृष्ठ-२०)
श्वेत वसन नेता से, लेकिन मन काला।
अंधे न्यायालय ने, सच झुठला डाला।
निरपराध फँस जाता, अपराधी झूठा बच जाता है।
खुशि यों की मछली को चिंता का बगुला खा जाता है। (खुषियों की मछली- पृष्ठ-९९)
नेता पहले डाले दाना, फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत गोली मारें, करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नशा ,रहा डँस। लोकतंत्र का पंछी बेबस। (लोकतंत्र का पंछी -पृष्ठ-१००)
सत्ता पाते ही रंग बदले, यकीं न करना, किंचित पगले!
काम पड़े पीठ कर देता।
रंग बदलता है पल-पल में, पारंगत है बेहद छल में
केवल अपनी नैया खेता। जिम्मेदार नहीं है नेता।। (जिम्मेदार नहीं है नेता- पृष्ठ-१११)
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र
आँख दिखाते सभी पड़ौसी, देख हमारी फूट
अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद।
कब होगे आजाद? कहो हम, कब होंगे आजाद? (कब होगे आजाद-पृष्ठ-११३)
नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।
राज मुखौटे चहिए छपने। पल में बदल गए है नपने।
कल के गैर आज है अपने।। (कल के गैर-पृष्ठ-116)
सही, गलत हो गया अचंभा, कल की देवी अब है रंभा।
शीर्षासन कर रही सियासत, खड़ा करे पानी पर खम्भा।(कल का अपना -पृष्ठ-117)
लिये शपथ सब संविधान की, देश देवता है सबका
देश - हितों से करो न सौदा, तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद, झपटो, करो न सौदा जनहित का
भार करों का इतना ही हो, दरक न पाएँ दीवारें। (दरक न पाएँ दीवारें -पृष्ठ-१२८)
कवि जितना दुखी दूषित राजनीति से है उतना ही सतर्क आतंकवाद से भी है। लेकिन आतंकवाद से वह भयभीत नहीं बल्कि उसका सामना करने को तत्पर भी है।
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें।
धिक्-धिक् तुमने भू की कोख़ लजाई है, पैगम्बर, मजहब, रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर, तुमको जनने वाली माँ पछताई है
मानव होकर दानव से भी बदतर तुम, क्यों भाया है, बोलो! हाहाकार तुम्हें?
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें। (पेशावर के नर पिशाच-पृष्ठ-७१)
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे।
तुम्हें न भायी कभी किताब, हम पढ़-लिखकर बने नवाब
दंगे कर फैला आतंक, रौंदों जनगण को निश्शंक
तुम मातम फैलाओगे, हम फिर नव खुशियाँ लायेंगे
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे। (तुम बंदूक चलाओ तो-पृष्ठ-७२)
लाख दागों गोलियाँ, सर छेद दो, मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय, न, वापिस लौट पाया
तुम गये हो जीत, यह किंचित न सोचो
भोर होते ही उठाकर, फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा, मैं लडूँगा। मैं लडूँगा। (मैं लडूँगा- पृष्ठ-७४)
कवि का ध्यान गरीबी और दिहाड़ी मजदूरी पर जिन्दा रहने वालों की ओर भी गया है।
रावण रखकर रूप राम का, करे सिया से नैन-मटक्का
मक्का जानें खों जुम्मन ने बेच दई बीजन की मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस, बिटिया बार-गर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर ग्राहक को, भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार बाजरे की मजबूरी, भाटा-ज्वार दे गए सूली। गटक न पाए। भटक न जाए। (हाथों में मोबाइल-पृष्ठ-९७)
मिली दिहाड़ी चल बाजार।
चावल-दाल किलो भर ले-ले, दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर, धनिया मिर्ची ताजी....।
खाली जेब पसीना चूता अब मत रुक रे मन बेजार।
मिली दिहाड़ी चल बाजार। (मिली दिहाड़ी-पृष्ठ-81)
केवल दूषित राजनीति टूटते सम्बंध और नैतिकता में ह्रास की ही बात कवि नहीं करता अपितु आजकल के नकली साधुओं को भी अपनी लेखनी की चपेट में ले रहा है।
खुद को बतलाते अवतारी, मन भाती है दौलत नारी
अनुशासन कानून न मानें, कामचोर वाग्मी हैं भारी।
पोल खोल दो मन से ठान, वेश संत का, मन शैतान। (वेश संत का-पृष्ठ-८८)
रचनाकार मूलतः अभियंता है और उसे कनिष्ठ अभियंताओं के दर्द का अहसास है अतः उनके दर्द को भी उसने अपनी कलम से निःसृत किया है।
अगल जनम उपयंत्री न कीजो।
तेरा हर अफसर स्नातक, तुझ पर डिप्लोमा का पातक
वह डिग्री के साथ रहेगा तुझ पर हरदम वार करेगा
तुझे भेज साइट पर, सोये, तू उन्नति के अवसर खोये
तू है नींव, कलश है अफसर, इसीलिए वह पाता अवसर।
कर्मयोग तेरी किस्मत में, भोग-रोग उनकी किस्मत में।
कह न किसी से कभी पसीजो, श्रम-सीकर में खुशरह भीजो। (अगले जनम-पृष्ठ-७९-८०)
कवि धन की महिमा एवं उसके दुष्प्रभाव प्रभाव को बताते हुए कहता है कि-
सब दुनिया में कर अँधियारा, वह खरीद लेता उजियारा।
मेरी-तेरी खाट खड़ी हो, पर उसकी होती पौ-बारा।।
असहनीय संत्रास है, वह मालिक जग दास है।
वह खासों में खास है, रुपया जिसके पास है।। (खासों में खास- पृष्ठ-६८)
लेटा हूँ, मखमल की गादी पर, लेकिन नींद नहीं आती
इस करवट में पड़े दिखाई, कमसिन बर्तनवाली बाई।
देह साँवरी, नयन कटीले, अभी न हो पाई कुड़माई।
मलते-मलते बर्तन, खनके चूड़ी जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्र को बना भिखारी वह जाती है। ( लेटा हूँ-पृष्ठ-८३)
यह मत समझिये कि कवि केवल सामाजिक समस्याओ अथवा राजनीतिक या चारित्रिक गिरावट की ही बात कर सकता है , वह प्रेम भी उसी अंदाज में करता है-
अधर पर धर अधर, छिप, नवगीत का मुखड़ा कहा।
मन लय गुनगुनाता खुश हुआ। ( अधर पर- पृष्ठ-८५)
परमार्थ, परहित और सामाजिक चिन्तन भी इनकी कलम की स्याही से उजागर होते है-
अहर्निश चुप लहर सा बहता रहे।
दे सके औरों को कुछ, ले कुछ नहीं।
सिखाती है यही भू माता मही। (अहर्निश चुप लहर सा-पृष्ठ-९०)
क्यों आये है? क्या करना है? ज्ञात न,पर चर्चा करना है।
शिकवे-गिले, शिकायत हावी, यह अतीत था, यह ही भावी
हर जन ताला, कहीं न चाबी।
मर्यादाओं का उल्लंघन। दिशा न दर्शन, दीन प्रदर्शन। (दिशा न दर्शन- पृष्ठ-१०५)
कवि अंधश्रद्धा के बिल्कुल खिलाफ है तो भाग्य-कर्म में विश्वास भी रखता है-
आदमी को देवता मन मानिये, आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए।
साफ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो, गैर को निज मसीहा मत मानिए।
नीति- मर्यादा, सुपावनधर्म है, आदमी का भाग्य, लिखता कर्म है।
शर्म आये, कुछ न ऐसा कीजिए, जागरण ही जिन्दगी का मर्म है।।
देवप्रिय निष्पाप है। अंधश्रद्धा पाप है। (अंधश्रद्धा -पृष्ठ-८९)
कवि ने एक तरफ बुन्देली के लोकप्रिय कवि ईसुरी के चौकड़िया फागों की तर्ज पर बुंदेली भाषा में ही नया प्रयोग किया है तो दूसरी ओर पंजाब के दुल्ला भाटी के लोहड़ी पर्व पर गाए जाने वाले लोकगीतों की तर्ज पर कविता को नए आयाम देने का प्रयास किया है-
मिलती काय नें ऊँची वारी, कुरसी हम खों गुइयाँ।
अपनी दस पीढ़ी खें लाने, हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका, ठेंगे पे राम-रमैया। (मिलती काय नें-पृष्ठ-५२)
सुंदरिये मुंदरिये, होय! सब मिल कविता करिए होय।
कौन किसी का प्यारा होय, स्वार्थ सभी का न्यारा होय। (सुंदरिये मुंदरिये होय -पृष्ठ-४९)
सोहर गीत किसी जमाने की विशेष पहचान होती थी। लेकिन इस लुप्त प्राय विधा पर भी कवि ने अपनी कलम चलाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे पद्य में किसी भी विधा पर रचना कर सकते है।
बुंदेली में लिखे इस सोहरगीत की बानगी देखें-
ओबामा आते देश में, करो पहुनाई।
चोला बदल कें आई किरनिया, सुसमा के संगे करें कर जुराई।
ओबामा आये देश में, करो पहुनाई। (ओबामा आते -पृष्ठ-५३)
कवि केवल नवगीत में ही माहिर नही है अपितुं छांदिक गीतों पर भी उसकी पूरी पकड़ है। उनका हरिगीतिका छंद देखे-
पहले गुना, तब ही चुना।
जिसको तजा वह था घुना।
सपना वही सबने बुना
जिसके लिए सिर था धुना। (पहले गुना -पृष्ठ-६१)
अब बुंदेली में वीर छंद (आल्ह छंद) देखें-
एक सिंग खों घेर भलई लें, सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की, देख सेर पोंके हर बार
ढेंंचू - ढेंचू रेंक भाग रओ, करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकल गयी, जान बखस दो, करें पुकार।
भारत वारे बड़ें लड़ैया, बिनसें हारे पाक सियार। (भारतवारे बड़े लड़ैया -पृष्ठ-६७)
इस सुन्दर दोहागीत को पढ़कर तो मन नाचने लगता है-
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक।
बगुला भगतों ने लिखीं, ध्यान कथाएँ खूब
मछली चोंचों में फँसी, खुद पानी में डूब।।
जाँच कर रहे केकड़े, रोक सके तो रोक।
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक। ( सच की अरथी -पृष्ठ-५५)
कवि ने दोहे व सोरठे का सम्मिलित प्रयोग करके शा नदार गीत की रचना की है। इस गीत में दोहे के एक दल को प्रारम्भ में तथा दूसरे दल को अंत में रखकर बीच में एक पूरा सोरठा समा दिया है।
दर्पण का दिल देखता, कहिए जग में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल, नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नजर उतारता, लेकर राई- नौन।। (दर्पण का दिल -पृष्ठ-५७)
अब वर्णिक छंद में सुप्रतिष्ठा जातीय के अन्तर्गत नायक छंद देखें-
उगना नित, हँस सूरज
धरती पर रखना पग, जलना नित, बुझना मत,
तजना मत, अपना मग, छिपना मत, छलना मत
चलना नित,उठ सूरज। उगना नित, हँस सूरज। (उगना नित-पृष्ठ-२८)
कवि का यह नवगीत-गीत संकलन निःसन्देह पठनीय है जो नए-नए बिम्ब और प्रतीक लेकर आया है। बुन्देली और सामान्य हिन्दी में रचे गए इन गीतों में न केवल ताजगी है अपितु नयापन भी है। हिन्दी, उर्दू, बुन्देली, अंग्रेजी व देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए इसे आमजन के लिए पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है। हिन्दीभाषा को विश्व पटल पर लाने की आकांक्षा समेटे यह ग्रंथ हिन्दी व बुन्देली पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा, ऐसी मेरी आशा है।
दिनांक-५ मई २०१६
अभिषेक १, उदयन १, सेक़्टर १, एकता विहार लखनऊ
***
मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
.
सो लिए हो बहुत
उठ बगावत करो
.
अब न फेरो नज़र
मिल इनायत करो
.
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
.
बेहतरी का 'सलिल'
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष प्रिय!
खत-किताबत करो
.
(दैशिक जातीय छंद)
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
***
छंद सलिला:
गीतिका छंद
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
६-६-२०१४
***
तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
४-६-२०१०
***
मुक्तिका
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं.
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता.
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं..
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो.
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताए हाट रहे हैं..
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं..
१-६-२०१०
***
मुक्तिका
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यों हो?
गैर अपनों को बनाते क्यों हो??
*
आबले पैर की ताकत कहकर
शूल-पत्थर को डराते क्यों हो??
*
गले लग जाओ, नहीं मुँह मोड़ो
आँखों से आँख चुराते क्यों हो??
*
धूप सहता है सिरस खिल-खिलकर
आग छिप उसमें लगाते क्यों हो??
*
दूरियाँ दूर ना करना है तो
पास तुम मुझको बुलाते क्यों हो??
७-८ जून २०१६
***
मुक्तिका
*
पहन जनेऊ, तिलक लगा ले।
मेहनत मत कर, गाल बजा ले।।
*
किशन आप, हर भक्तन राधा
मान, रास मत चूक रचा ले।।
*
घंटी-घंटा, झाँझ-मँजीरा
बज, कीर्तन जमकर गा ले।।
*
भोग दिखाकर ठाकुर जी को
ठेंगा दिखा, आप ही खा ले।।
*
हो न स्वर्गवासी लेकिन तू
भू पर 'सलिल' स्वर्ग-सुख पा ले।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास विकास, हरदोई
***
पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता
कवि चंद्रसेन विराट
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है।
गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है। फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है।
१२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है। और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है। पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है।
गीत तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं। कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है। चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।
विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि। गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!', 'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।
कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है। इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
१-६-२०१६
समीक्षक संपर्क- १२१ बैकुंठधाम कॉलोनी, आनंद बाजार के पीछे, इंदौर ४५२०१८, चलभाष ०९३२९८९५५४०
***
द्विपदी:
*
राम का है राज, फ़ौज़ हो न हो
फ़ौज़दार खुद को ये मन मानता है.
***
मुक्तिका:
*
सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
*
श्लेष को कर शेष जब चलता किया
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
*
उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
*
आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
*
मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में

८-६-२०१५

* 

मंगलवार, 7 जून 2022

छंद गीता, नवगीत,बरगद, जनकछंदी गीत, छंद कामरूप,सरस्वती, मात्रा गणना, दोहा विधान,मुक्तिका

मतिमान माँ ममतामयी!
द्युतिमान माँ करुणामयी
विधि-विष्णु-हर पर की कृपा
हर जीव ने तुमको जपा
जिह्वा विराजो तारिणी!
अजपा पुनीता फलप्रदा
बन बुद्धि-बल, बल बन बसीं
सब में सदा समतामयी
महनीय माँ, कमनीय माँ
रमणीय माँ, नमनीय माँ
कलकल निनादित कलरवी
सत सुर बसीं श्रवणीय माँ
मननीय माँ कैसे कहूँ
यश अपरिमित रचनामयी
अक्षर तुम्हीं ध्वनि नाद हो
निस्तब्ध शब्द-प्रकाश हो
तुम पीर, तुम संवेदना
तुम प्रीत, हर्ष-हुलास हो
कर जीव हर संजीव दो
रस-तारिका क्षमतामयी
***
संजीव
७-६-२०२०
मुक्तिका
*
कृपा करो माँ हंसवाहिनी!, करो कृपा
भवसागर में नाव फँसी है, भक्त धँसा
रही घेर माया फंदे में, मातु! बचा
रखो मोह से मुक्त, सृजन की डोर थमा
नहीं हाथ को हाथ सूझता, राह दिखा
उगा सूर्य नव आस जगा, भव त्रास मिटा
रहे शून्य से शू्न्य, सु मन से सुमन मिला
रहा अनकहा सत्य कह सके, काव्य-कथा
दिखा चित्र जो गुप्त, न मन में रहे व्यथा
'सलिल' सत्य नारायण की सच सिरज कथा
७-६-२०२०
***
श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस।
जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास।।
*
हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल।
जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हाल।।
*
धन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष।
काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष।।
*
गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत।
गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत।।
*
जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ।
जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ।।
*
लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल।।
लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल।।
*
गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास।
अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस।।.
*
गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार।
गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार।।
*
मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव।
मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव।।
*
वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य।
दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य।।
*
नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार।
उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार।।
*
है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश।
डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश।।
*
शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ।
गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ।।
*
बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन।
गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन।।
*
सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ।
लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ।।
७-६-२०१८
***
दोहा लेखन विधान
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
२. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणान्त में 'सरन' तथा सम चरणान्त में 'जात' वरीयता दें। विषम चरणान्त में अन्य गण हो तो लय के प्रति सजग हों।
६. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में में कल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरम्भ दोहे के विषम चरण में में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर ले सहजता से सध जाती है।
७. हिंदी दोहाकार हिंदी के व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
८. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक शब्द-रूपों का उपयोग न करें। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध रूप व्यवहार में लाएँ।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य। 'न' सही, 'ना' गलत। 'इक' गलत।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१२. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१३. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१४. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
***
एक सामयिक रचना-
*
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
मर्ज कर्ज का बढ़ाकर
करें नहीं उपचार.
उत्पादक को भिखारी
बना करें सत्कार.
गोली मारें फिर कहें
अन्यों का है काम.
लोकतंत्र का हो रहा
पल-पल काम तमाम.
दे सर्प-दंश
रोग का
उपचार कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
व्यापम हुआ गवाह रहे
हैं नहीं बाकी.
सत्ता-सुरा सुरूर चढ़ा,
गुंडई साकी.
खाकी बनी चेरी कुचलती
आम जन को नित्य.
झूठ को जनप्रतिनिधि ही
कह रहे हैं सत्य.
बाजीगरी ही
आंकड़ों की
आप कीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
*
कर-वृद्धि से टूटी कमर
कर न सके कर.
बैंकों की दे उधार,गड़ी
जमीन पे नजर.
पैदा करो, न दाम पा
सूली पे जा चढ़ो.
माला खरीदो, चित्र अपना
आप ही मढ़ो.
टूटे न नींद,
हो न खलल
ज़हर पीजिए.
शिव-राज में
शव-राज की
जयकार कीजिए.
७-६-२०१७
***
पुस्तक सलिला
'सही के हीरो' साधारण लोगों की असाधारणता की मार्मिक कहानियाँ
*
[पुस्तक विवरण- सही के हीरो, कहानी संग्रह, ISBN 9789385524400, डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण पेपर बैंक बहुरंगी, कहानीकार संपर्क- डी ७ जसूजा सिटी, जबलपुर ४८२००३]
*
मनुष्य में अनुभव किये हुए को कहने की अदम्य इच्छा वाक् क्षमता के रूप में विकसित हुई। अस्पष्ट स्फुट ध्वनियाँ क्रमशः सार्थक संवादों के रूप में आईं तो लयबद्ध कहन कविता के रूप में और क्रमबद्ध कथन कहानी के रूप में विकसित हुए। कहानी, कथा, किस्सा, गल्प, गप्प और चुटकुले विषयवस्तु के आकार और कथ्य के अनुरूप प्रकाश में आये। गद्य में निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत्त, व्यंग्य लेख, आत्मकथा, समीक्षा आदि विधाओं का विकास होने के बाद भी कहानी की लोकप्रियता सर्वकालों में सर्वाधिक थी, है और रहेगी। कहानी वह जो कही जाए, अर्थात उसमें कहे जाने और सुने जाने योग्य तत्व हों। वर्तमान पूँजीवादी राजनीति-प्रधान व्यक्तिपरक जीवन शैली में साहित्य संसाधनों और पहुँच के सफे पर हाशिये में रखे जा रहे जीवट और संघर्ष को पुनर्जीवन दे रहा है।
स्वतंत्रता के पश्चात अहिंसा की माला जपते दल विशेष ने सत्ता पर और हिंसा पर भरोसा करनेवाले अन्य दल विशेष ने शिक्षा संस्थानों और साहित्यिक अकादमियों पर कब्ज़ा कर साहित्यिक विधाओं में वैषम्य और विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण को सामने लाकर सामाजिक संघर्ष को तेज करनेवाले साहित्य और साहित्यकारों को पुरस्कृत किया। फलतः, आम आदमी के नाम पर स्त्री-पुरुष, संपन्न-विपन्न, नेता-जनता, श्रमिक-उद्योगपति, छात्र-शिक्षक, हिन्दू-मुस्लिम आदि के नाम पर टकराव ने सद्भाव, सहयोग, सहकार, विश्वास, निष्ठा आदि को अप्रासंगिक बनने का काम किया। इस पृष्ठभूमि में अत्यन्त अल्प संसाधनों और पिछड़े क्षेत्र से संघर्ष कर स्वयं को विशेषज्ञ चिकित्सक के रूप में स्थापित कर, अपने मरीजों के इलाज के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्ष को पहचान कर मानसिक संबल देनेवाले डॉ. अव्यक्त अग्रवाल ने निर्बल का बल बनने के अपने महाभियान में विवेच्य कहानी संग्रह के माध्यम से पाठकों को भी सहभागी बनने का अवसर दिया है।
इस कहानी संग्रह के अधिकांश पात्र निम्न जीवन स्तर और विपन्नता की मेंड़ पर लगातार चुभ रहे काँटों के बीच पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। नियति ने भले ही इन्हें मरने के लिए पैदा किया हो पर अपनी जिजीविषा के सहारे ये मौत के अनुकूल परिस्थितियों से जूझकर जीवन का राजमार्ग तलाश पाते हैं। साहित्य के प्रभाव, उपयोगिता और पठनीयता पर प्रश्न उठानेवाले इस संग्रह को पढ़ें तो उनके जीवन की नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता का वरण कर सकेगी। परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँसकर लहूलुहान होते हुए भी ऊपर उठने और आगे बढ़ने को प्रेरित करते इस कथा-संग्रह में कथाकार शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता है। कहानी के पात्र पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगति के हलाहल को कंठ में धारकर अपने सपने पूरे होते देखने का अमृत पान करते हुए कहीं काल्पनिक प्रतीत नहीं होते। ये कहानियाँ वास्तव में कल से प्राप्त विरासत को आज सँवार-सुधार कर कल को उज्जवल थाती देने का सारस्वत अनुष्ठान हैं।
'सही के हीरो' शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित देबाशीष साहा द्वारा निर्मित चित्र ही यह बता देता कि आम आदमियों के बीच में से उभरते हुए चरित नायक अपनी भाषा, भूषा, सोच और संघर्ष के साथ पाठक से रू-ब-रू होंगे। मर्मस्पर्शी कहानियाँ तथा प्रेरक कहानियाँ और संस्मरण दो भागों में क्रमशः १० + १८ कुल २८ हैं। संस्मरणात्मक कहानियाँ, पाठक को देखकर भी अनदेखे किये जाते पलों और व्यक्तियों से आँखें मिलाने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं। पात्रों और परिवेश के अनुकूल शब्द-चयन और वाक्य-संरचना कथानक को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। अंतर्जाल पर सर्वाधिक बिकनेवाले संग्रहों में सम्मिलित इस कृति की प्रथम कहानी 'लाइफगार्ड' के नायक एक बेसहारा बच्चे विक्टर को फ्रांसिस पालता है, युवा विक्टर अन्य बेसहारा बच्चे एडम को अपना लेता है और उसे विमाता से बचाने के लिए अपनी प्रेमिका से विवाह करने से कतराता है। डूबते फ्रांसिस को बचाते हुए मौत के कगार पर पहुँचे विक्टर की चिकित्सा अवधि के मध्य विक्टर की प्राणरक्षा की दुआ माँगते एडम और मारिया
एक दूसरे केइतने निकट आ जाते हैं कि नन्हा एडम विक्टर से मारिया मम्मी की माँग कर उसे नया जीवन देता है।
कहानी 'चने के दाने' एक न हो सके किशोर प्रेमियों के पुनर्मिलन की मर्मस्पर्शी गाथा है। कठोर ह्रदय पाठकों की भी ऑंखें नम कर सकने में समर्थ 'आधी परी' तथाकथित समझदारों द्वारा स्नेह-प्रेम की आड़ में अल्पविकसित का शोषण करने पर आधारित है। तरुणी प्रीति के बहाने जीवनसाथी चुनते समय स्वस्थ्य - समझ का संदेश देती है 'पासवर्ड' कहानी। 'एक अलग प्रेम कहानी' साधनहीन ग्रामीण दंपति के एकांतिक प्रेम के समान्तर चिकित्सक-रोगी के बीच महीन विश्वास तन्तु के टूटने तथा बढ़ते व्यवसायीकरण को इंगित करती व्यथा-कथा है। पारिवारिक रिश्तों के बिखरने पर केंद्रित चलचित्र 'बावर्ची' में नायक घरेलू नौकर बनकर परिवार के सदस्यों के बीच मरते स्नेह बंधन को जीवित करता है। कहानी जादूगर में नायिका के कैशोर्य काल का प्रेमी जो अब मनोचिकित्सक है, नायिका में उसके पति के प्रति घटते प्रेम को पुनर्जीवित करता है। 'बहुरुपिया' में साधनहीन भाई-बहिन का निर्मल प्रेम, 'आइसक्रीम कैंडी' में राजनेताओं के कारण आहत होते आमजन, 'ज़िंदगी एक स्टेशन' में बदलते सामाजिक ढाँचे के कारण स्थापित व्यवसायों के अलाभप्रद होने की समस्या और समाधान तथा 'मेरा चैंपियन' में पिता के सपने को पूरा करते पुत्र की कहानी है।
दूसरे भाग में 'सही का हीरो' एक साधनहीन किन्तु अपने सपने साकार करने के प्रति आत्मविश्वास से भरे बच्चे की कथा है। 'गूगल' किसी घटना को देखने के दो भिन्न दृष्टिकोण, 'मैं ठीक हूँ' मौत के मुख से लौटी नन्हीं बच्ची द्वारा जीवन की हर साँस का आनंद लेने की सीख, 'दुश्वारियाँ एक अवसर' अपंग बच्चे के संकल्प और सफलता, 'सफलता मंत्र' जीवन का आनंद लेने, 'मेरी पचमढ़ी और मैं' संस्मरण, 'आसान है' में सच को स्वीकार कर औरों को ख़ुशी देने, 'उमैया एक तमाशा' विपन्न बच्चों में छिपी प्रतिभा, 'एक और सुबह' बचपन की यादों, 'फाँस' जीवनानंद की खोज, 'लोकप्रियता का रहस्य' अपनी क्षमताओं की पहचान, 'वो अधूरी कहानी' जीवन के उद्देश्य की पहचान, 'सफलता सबसे शक्तिशाली मंत्र ' निज सामर्थ्य से साक्षात्, 'स्वतः प्रेरणा' मन की आवाज़ सुनने, 'हम सब रौशनी पुंज' निराशा में आशा, 'हवा का झौंका समीर' में बेसहारा बच्चों के लालन-पालन तथा 'ज़िन्दगी एक चैस बोर्ड' में अपने उद्देश्य की तलाश को केंद्र में रखकर कथा का ताना-बाना बुना गया है।
'सही का हीरो' कहानी संग्रह की विशेषता इसमें साधारणता का होना है। अधिकांश कहानियाँ जीवन में घटी वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। यथार्थ को कल्पना का आवरण पहनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि मूल घटना और पात्रों की विश्वसनीयता, उपयोगिता और सन्देशवाहकता बनी रहे। अधिकांश घटनाएँ और पात्र पाठक के इर्द-गिर्द से ही उठाये गए हैं किन्तु उन्हें देखने की दृष्टि, उनके मूल्याङ्कन का नज़रिया और उसने सीख लेने का हौसला बिलकुल नया है। इन कहानियों में अभाव-उपेक्षा, टकराव-बिखराव, सपने-नपने, गिराव-उठाव, निराशा-आशा, अवनति-उन्नति, विफलता-सफलता, नासमझी और समझदारी अर्थात जीवन रूपी इंद्रधनुष का हर रंग अपनी चमक और चटख के साथ उपस्थित है। नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय, पाठक को लड़ने, बदलने और जीतने का सन्देश देती है। शिल्प की दृष्टि से ये रचनाएँ कहानी, लघुकथा, संस्मरण, शब्द चित्र आदि विधाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल की भाषा सहज, सरस, सुगम, विषय, पात्र और परिवेश के अनुकूल है। किसी पहाड़ी से नि:सृत निर्झर की तरह अनगढ़पने में देने की आकुलता, नया ग्रहण करने की आतुरता और सबको अपना लेने की उत्सुकता पात्रों को जीवंत और प्रेरणादायी बनाती है। अव्यक्त जी खुद घटना को व्यक्त नहीं करते, वे पात्र या घटना को सामने आने देते हैं। कम से कम में अधिक से अधिक कहने का कौशल सहज नहीं होता किन्तु अव्यक्त जी इसे कुशलतापूर्वक साध सके हैं। वे पात्र के मुँह में शब्द ठूँसने या कहलाने का कोई प्रयास नहीं करते। उनके पात्र न तो भदेसी होने का दिखावा करते हैं, न सुसंस्कृत होने का पाखण्ड। कथ्य संक्षिप्त - गठा हुआ, संवाद सारगर्भित, भाषा शैली सहज - प्रचलित, शब्द चयन सम्यक - उपयुक्त, मुहावरों का यथोचित प्रयोग, हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन के अनुसार प्रयोग पाठक को बाँधता है। इस उद्देश्यपूर्ण कृति का सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्य में शुमार होना आश्वस्त करता है कि हिंदी तथा साहित्य के प्रेमी पाठकों का अभाव नहीं है। सही के हीरो' ही देश और समाज का गौरव बढ़ाकर मानवता को परिपुष्ट करते हैं। अव्यक्त जी को इस कृति हेतु बधाई। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
***
मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
***
छंद सलिला:
कामरूप छंद
*
लक्षण छंद:
कामरूप छंद , दे आनंद , रचकर खुश रहिए
मुँहदेखी नहीं , बात हमेशा , खरी-खरी कहिए
नौ निधि सात सुर , दस दिशाएँ , कीर्ति गाथा कहें
अंत में अंतर , भुला लघु-गुरु , तज- रिक्त कर रहें
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. गले लग जाओ , प्रिये! आओ , करो पूरी चाह
गीत मिल गाओ , प्रिये! आओ , मिटे सारी दाह
दूरियाँ कम कर , मुस्कुराओ , छिप भरो मत आह
मन मिले मन से , खिलखिलाओ , करें मिलकर वाह
२. चलें विद्यालय , पढ़ें-लिख-सुन , गुनें रहकर साथ
करें जुटकर श्रम , रखें ऊँचा , हमेशा निज माथ
रोप पौधे कुछ , सींच हर दिन , करें भू को हरा
प्रदूषण हो कम , हँसे जीवन / हर मनुज हो खरा
३. ईमान की हो , फिर प्रतिष्ठा , प्रयासों की जीत
दुश्मनों की हो , पराजय ही / विजय पायें मीत
आतंक हो अब , खत्म नारी , पा सके सम्मान
मुनाफाखोरी , न रिश्वत हो , जी सके इंसान
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
***
छंद सलिला:
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है , कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित , निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा , हरी पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो , हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
७-६-२०१४
***
अंतरजाल पर पहली बार :
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
- संजीव 'सलिल' *
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
शांति दग्ध उर को मिली.
मुरझाई कलिका खिली.
शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
'हे माँ! सब पर दया कर...
*
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
७-६-२०१०
*
***
बाल कविता :
तुहिना-दादी
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काए तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटे रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जाएँगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछताएँगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाएँ वह
वह गाएँ तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
***
कथा-गीत:
बूढ़ा बरगद
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारों.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों..
७-६-२०१०
***

सोमवार, 6 जून 2022

छंद गीतिका,शिरीष,दोहा, बगीचा,आम,आँवला, PRAYER Ganesh

PRAYER
*
O' Almighty lord Ganesh!
Words are your sword ashesh.
You are always the First.
Make best from every worst.
You are symbol of wisdom.
You are innocent and handsome.
Ultimate terror to the Demon.
Shiv and Shiva's worthy son.
You bring us all the Shubha.
You bless the devotees with Vibha.
Be kind on us mother Riddhi.
Bless us all o mother Siddhi.
O lord Ganesh the Vighnesh.
Make us success o Karunesh.
6-6-2022
***
स्वास्थ्य दोहावली
*
अमृत फल है आँवला, कर त्रिदोष का नाश।
आयुवृद्धि कर; स्वस्थ रख, कहता छू आकाश।।
*
नहा आँवला नीर से, रखें चर्म को नर्म।
पौधा रोपें; तरु बना, समझें पूजा-मर्म।।
*
अमित विटामिन सी लिए, करता तेज दिमाग।
नेत्र-ज्योति में वृद्धि हो, उपजा नव अनुराग।।
*
रक्त-शुद्धि-संचार कर, पाचन करता ठीक।
ओज-कांति को बढ़ाकर, नई बनाता लीक।।
*
जठर-अग्नि; मंदाग्नि में, फँकें आँवला चूर्ण।
शहद और घी लें मिला, भोजन पचता पूर्ण।।
*
भुनी पत्तियाँ फाँक लें, यदि मेथी के साथ।
दस्त बंद हो जाएंगे, नहीं दुखेगा माथ।।
*
फुला आँवला-चूर्ण को, आँख धोइए रोज।
त्रिफला मधु-घी खाइए, तिनका भी लें खोज।।
*
अाँतों में छाले अगर, मत हों अाप निराश।
शहद आँवला रस पिएँ, मिटे रोग का पाश।।
*
चूर्ण आँवला फाँकिए, नित भोजन के बाद।
आमाशय बेरोग हो, मिले भोज्य में स्वाद।।
*
खैरसार मुलहठी सँग, लघु इलायची कूट।
मिली अाँवला गोलियाँ, कंठ-रोग लें लूट।।
*
बढ़े पित्त-कफ; वमन हो, मत घबराएँ आप।
शहद-आँवला रस पाएँ, शक्ति सकेगी व्याप।।
५-६-२०१८
*
दोहा सलिला
आम खास का खास है......
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..
आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..
पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..
दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..
छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..
लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..
चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..
तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..
हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..
लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..
आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..
'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.
उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..
चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..
१४-६-२०११
***
दोहा दुनिया
शब्द विशेष :बाग़ बगीचा वाटिका, उपवन, उद्यान
*
गार्डन-गार्डन हार्ट है, बाग़-बाग़ दिल आज.
बगिया में कलिका खिली, भ्रमर बजाए साज..
*
बागीचा जंगल हुआ, देख-भाल बिन मौन.
उपवन के दिल में बसी, विहँस वाटिका कौन?
*
ओशो ने उद्यान में, पाई दिव्य प्रतीति.
अब तक खाली हाथ हम, निभा रहे हैं रीति..
*
ठिठक बगीचा देखता, पुलक हाथ ले हाथ.
कभी अधर धर चूमता, कभी लगाता माथ..
*
गुलशन-गुलशन गुल खिले, देखें लोग विदग्ध.
खिला रहा गुल कौन दल, जनता पूछे दग्ध..
६-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
***
एक प्रयोग-
चलता न बस, मिलता न जस, तपकर विहँस, सच जान रे
उगता सतत, रवि मौन रह, कब चाहता, युग दाम दे
तप तू करे, संयम धरे, कब माँगता, मनु नाम दे
कल्ले बढ़ें, हिल-मिल चढ़ें, नित नव छुएँ, ऊँचाइयाँ
जंगल सजे, घाटी हँसे, गिरि पर न हों तन्हाइयाँ
परिमल बिखर, छू ले शिखर, धरती सिहर, जय-जय कहे
फल्ली खटर-खट-खट बजे, करतल सहित दूरी तजे
जब तक न मानव काट ले या गिरा दे तूफ़ान आ
तब तक खिला रह धूप - आतप सह, धरा-जंगल सजा
जयगान तेरा करेंगे कवि, पूर्णिमा के संग मिल
नव कल्पना की अल्पना लाख ज्योत्सना जायेगी खिल
६-६-२०१६
***
पर्यावरण गीत -
बाँहों में शिरीष
*
बाँहों में भर शिरीष
जरा मुस्कुराइए
*
धरती है अगन-कुंड, ये
फूलों से लदा है
लू-लपट सह रहा है पर
न पथ से हटा है
ये बाल-हठ दिखा रहा
न बात मानता-
भ्रमरों का नहीं आज से
सदियों से सगा है
चाहों में पा शिरीष
मिलन गीत गाइए
*
संसद की खड़खड़ाहटें
सुन बज रही फली
सरहद पे हड़बड़ाहटें
बंदूक भी चली
पत्तों ने तालियाँ बजाईं
झूमता पवन-
चिड़ियों की चहचहाहटें
लो फिर खिली कली
राहों पे पा शिरीष
भीत भूल जाइए
*
अवधूत है या भूत
नहीं डर से डर रहा
जड़ जमा कर जमीन में
आदम से लड़ रहा
तू एक काट, सौ उगाऊँ
ले रहा शपथ-
संघर्षशील है, नहीं
बिन मौत रह रहा
दाहों में पसीना बहा
तो चहचहाइए
६-६-२०१६
***
छंद सलिला:
गीतिका छंद
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
६-६-२०१४
*

रविवार, 5 जून 2022

मुक्तिका, मुहब्बतनामा, नवगीत, आंकिक उपमान, मुक्तिका, तसलीस, सूरज


मुक्तिका:
मुहब्बतनामा
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.
गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.
अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.
महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.
पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.
सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.
नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.
माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.
नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.
जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.
उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.
सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.
दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.
न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.
जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.
न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.
अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.
बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.
कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.
पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.
चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.
सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.
रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.
लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.
कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.
दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.
दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.
सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.
बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.
तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.
नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.
कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.
अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.
शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.
धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.
जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.
कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.
मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.
तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.
चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.
बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.
निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.
भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.
नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.
महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.
हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६..
कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.
उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.
न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.
कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.
नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.
करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.
लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.
अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.
तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.
कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.
न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.
मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.
तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.
है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू खिला री मुहब्बत.६०.
न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री मुहब्बत.६१.
न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.
समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.
खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.
तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.
अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.
सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.
जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.
तरसती हैं आँखें झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.
भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.
सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.
न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.
उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३.
मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..
न तनकी, न मनकी, न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.
नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.
सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.
बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.
कभी देवता की, कभी देश-भू की
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.
पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.
हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.
हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.
ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.
मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.
फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.
गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.
पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.
मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.
न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.
कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.
कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.
महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.
लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.
मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.
रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.
पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.
जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.
समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.
काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.
नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.
शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.
न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.
'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.
'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.
नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.
जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.
नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.
नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.
'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.
बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.
ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा री मुहब्बत.११०.
'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.
अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.
'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.
'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.
'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.
'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.
चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.
कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.
छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.
उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.
'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.
लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.
तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.
रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.
प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.
***
***
नवगीत
*
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
तू-तू, मैं-मैं कर हम हारे
हम न मगर हो सके बेचारे
तारणहार कह रहे उनको
मत दे जिनके भाग्य सँवारे
ठगित देवयानी
भ्रम कच है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
काश आँख से चश्मा उतरे
रट्टू तोता यादें बिसरे
खुली आँख देखे क्या-कैसा?
छोड़ झुनझुना रोटी कस रे!
राग न त्याज्य
विराग न शुभ है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
'खुला' न खुला बंद है तब तक
तीन तलाक मिल रहे जब तक
एसिड डालो तो प्रचार हो
दूध मिले नागों को कब तक?
पत्थरबाज
न अपना कुछ है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
***
नवगीत-
*
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को
आकार मिल रहा।
अरमानों का कमल
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने
पात्र मौत का-
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या
पापाचार नहीं है?
एसिड-अपराधी को
एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर
तनिक स्वीकार नहीं है।
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का?
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अपराधों से नहीं,
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ,
सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
७-४-२०१४

***
छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।

५-६-२०१७
***
हाइकु सलिला
*
वंदना करें
अंतरात्मा से मिलें
दैवत्व वरें
*
प्रार्थना उसकी
जो न खुद प्रार्थी हो
सुन ले सबकी
*
साधना फले
यदि हो लगातार
सुफल मिले
*
गीत गाइए
पर्यावरण संग
मुस्कुराइए
*
तूफानी झौंका
सहमा कुत्ता भौंका
उड़ी झोपड़ी
५-६-२०१६
***
छंद सलिला:
शंकर छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १६ - १०, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
बम बम भोले जय शिव शंकर , गौरीपति उमेश
सोलह गुण-दस इन्द्रियपति जय , सदय हों सर्वेश
गुरु-लघु सबका अंत तुम्हीं में , तुम्हीं सबके नाथ
सुर नर असुर झुकाते प्रभु! तव , पद पद्म में माथ
उदाहरण:
१. जय-जय भारत भूमि सुपावन , मनुज को वरदान
तरसें लेने जन्म देव भी , कवि करें गुणगान
पुरवैया पछुआ मलयज , करें जीवन दान
हिमगिरि सागर रक्षक अद्भुत , हर छंद रस-खान
२. पैर जमीं पर जमा आसमां , पर कर हस्ताक्षर
कोई निरक्षर रहे न शेष , हर जन हो साक्षर
ख्वाब पाल जो अँखिया सोये , करे कर साकार
हर दिल दिल से जुड़े मिटाकर , आपसी तकरार
३.दिल की दुनिया का दौलत से , जोड़ मत संबंध
आस-प्यास का कभी हास से , हो नहीं अनुबंध
जो पाया नाकाफी कहकर , और अधिक न जोड़
तुझसे कम हो जहाँ उसीसे , करें तुलना-होड़
५-६-२०१४
***
यमक दोहे
हिंदी का उपहास कर, अंग्रेजी के गीत.
जो गाते वे जान लें, स्वस्थ्य नहीं यह रीत..
*
'मीन' संकुचित मत्स्य भी, 'मीन' मायने अर्थ.
अदल-बदल से अर्थ का, होता बहुत अनर्थ..
*
कहते हैं 'गुड रेस्ट' को, 'बैड रेस्ट' क्यों आप?
यह लगता वरदान- वह, लगता है अभिशाप..
*
'लैंड' करें फिर 'लैंड' का, नाप लीजिए मीत.
'बैंड' बजाकर 'बैंड' हो, 'बैंड' बाँधना रीत..
*
'सैड' कहा सुन 'सैड' हो, आप हो गये मौन.
दुःख का कारण क्या रहा, बतलायेगा कौन??
*
'सैंड' कर दिया 'सैंड' को, जा मोटर स्टैंड.
खड़े न नीचे पूछते, 'यू अंडरस्टैंड?',
*
'पेंट' कर रहे 'पेंट' को, 'सेंट' न करते' सेंट'.
'डेंट' कर रहे दाँत वे, कर खरोच को 'डेंट'..
*
'मातृ' हुआ 'मातर' पुनः. 'मादर' 'मदर' विकास.
भारत से इंग्लॅण्ड जा, शब्द कर रहे हास..
*
'पितृ' 'पितर' से 'फिदर' हो, 'फादर' दिखता आज.
पिता-पादरी अर्थ पा, साध रहा बहु काज..
*
'भ्रातृ' 'बिरादर' 'ब्रदर' है, गले मिलें मिल झूम.
भाईचारा अमित सुख किसे नहीं मालूम..
*
'पंथ' विहँस 'पथ' 'पाथ' हो, पहुँचा दूर विदेश.
हो 'दीवार' 'द वाल' क्या, दे सुन लें संदेश..
*
***
तसलीस गीतिका :
सूरज
*
बिना नागा निकलता है सूरज.
कभी आलस नहीं करते देखा..
तभी पाता सफलता है सूरज...
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज.
कह रहा तंम को जीत लूँगा मैं..
कम नहीं ख़ुद को आंकता सूरज...
*
उजाला सबको दे रहा सूरज.
कोई अपना न पराया कोई..
दुआएँ सबकी ले रहा सूरज...
*
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी..
आँख ऊषा से लडाता सूरज...
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज.
कोई अपना न पराया कोई..
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज.
दोपहर देखना भी मुश्किल हो..
शाम पश्चिम को सजाता सूरज...
*
कम निष्काम हर करता सूरज.
मंजिलें नित नयी वरता सूरज..
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज...
***
मुक्तिका:
अक्षर उपासक हैं....
*
उपासक हैं हम गर्व हमको, शब्दों के सँग- सँग सँवर जाएँगे हम.
गीतों में, मुक्तक में, ग़ज़लों में, लेखों में, मरकर भी जिंदा रहे आएँगे हम..
*
बुजुर्गों से पाया खज़ाना अदब का, न इसको घटायें, बढ़ा जाएँगे हम.
चादर अगर ज्यों की त्यों रह सकी तो, आखर भी ढाई सुमिर गाएँगे हम..
*
लिखना तो हक है, लिखेंगे हमेशा, न आलोचनाओं से डर जाएँगे हम.
कमियाँ रहेंगी ये हम जानते हैं, दाना बतायें सुधर पाएँगे हम..
*
गम हो, खुशी हो, मुहब्बत-शहादत, न हो इसमें नफ़रत, न गुस्सा-अदावत.
महाकाल के हम उपासक हैं सच्चे, समय की चुनौती को शरमाएँगे हम..
*
'खलिश' हो तो रचना में आती है खूबी, नादां 'सलिल' में खूबी ही डूबी.
फिर भी है वादा, न हम मौन होंगे, कल-कल में धुन औ' बहर गाएँगे हम..
५-६-२०१०
***



शुक्रवार, 27 मई 2022

सॉनेट, नवगीत, तुम. पर्यावरण गीत, मुक्तक, सत्यमित्रानंद सवैया

सॉनेट
सुख-दुख
सुख-दुख माया या सच्चाई?
किसने देखा है बतलाओ?
नापा-तौला-मापा किसने?
गिना?, चित्र ही खींच दिखाओ।

रखो-उठा या पहन-ओढ़ या
बिछा-ओढ़ या खा-पी सकते?
बोओ-काटो, भिगा-सुखाकर
साथ बिठा मिल रो-गा- हँसते?

मेरा-तेरा, इसका-उसका
सबका सुख-दुख साझा है क्या?
अलग-अलग तो भी बतलाओ
सबका सुख-दुख न्यारा है क्या?

अगर नहीं तो कैसे जाना
सुख-दुख का अस्तित्व जगत में?
२७-५-२०२२
६:२६
•••
नवान्वेषित सवैया
सत्यमित्रानंद सवैया
*
विधान -
गणसूत्र - य न त त र त र भ ल ग।
पदभार - १२२ १११ २२१ २२१ २१२ २२१ २१२ २११ १२ ।
यति - ७-६-६-७ ।
*
गए हो तुम नहीं, हो दिलों में बसे, गई है देह ही, रहोगे तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलेंगे फिर यहीं।
*
तुम्हारा यश सदा, रौशनी दे हमें, रहेगा सूर्य सा, घटेगी यश नहीं।
दिये सा तुम जले, दी सदा रौशनी, बँधाई आस भी, न रोका पग कभी।
रहे भारत सदा, ही तुम्हारा ऋणी, तुम्हीं ने दी दिशा, तुम्हीं हो सत्व्रती।
कहेगा युग कथा, ये सन्यासी रहे, हमेशा कर्म के, विधाता खुद जयी।
*
मिला जो पद तजा, जा नई लीक पे, लिखी निर्माण की, नयी ही पटकथा।
बना मंदिर नया, दे दिया तीर्थ है, नया जिसे कहें, सभी गौरव कथा।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणास्रोत हो, हमें उजास दो, गढ़ें किस्मत नयी।
खड़े हैं सुर सभी, देवतालोक में, प्रशस्ति गा रहे, करें स्वागत सभी।
२७-५-२०२०
***
तीन नवगीत
*
१.
दोष गैर के
करते इंगित
पथ भूले नवगीत.
देखें, खुद की कमी
सुधारें तो
रच दें नव रीत.
*
अँगुली एक उठी गैरों पर
खुद पर उठतीं तीन.
अनदेखी कर
रहे बजाते
सुर साधे बिन बीन.
काला चश्मा चढ़ा
आज की
आँखों पर ऐसा-
धवन श्वेत
हंसा भी दिखता
करिया काग अतीत.
*
सब कुछ बुरा
न कभी रहा है,
भला न हो सकता.
नहीं बचाया
शुभ-उजियारा
तो वह खो सकता.
नव आशा का
सूर्य उगाएँ
तब निशांत होगा-
अमावसी तं
अमर हुआ, भ्रम
अब हो नहीं प्रतीत.
११.००
***
२.
सिसक रही क्यों कविता?
बोलो क्यों रोता नवगीत?
*
प्रगतिवाद ने
छीनी खुशियाँ
थोप दिया दुःख-दर्द.
ठूँस-ठूँस
कृत्रिम विडम्बना
खून कर दिया सर्द.
हँसी-ख़ुशी की
अनदेखी से
हार गयी है जीत.
*
महलों में बैठे
कुटियों का
दर्द बखान रहे.
नर को छल
नारी-शोषण का
कर यशगान रहे.
लेश न मतलब
लोक-देश से
हैं वैचारिक क्रीत.
*
नहीं लोक का
मंगल चाहें
करा रहे मत-भेद.
एक्य भुलाकर
फूट दिखाते
ताकि बढ़े मन-भेद.
नकली संत्रासों
को जय गा
करते सबको भीत.
११.४०
***
३.
मैं हूँ नवगीत
आइना दिल का,
दर्द-पीड़ा की कैद दो न मुझे.
*
मैं नहीं देह का
बाज़ार महज.
मैं नहीं दर्द की
मीनार महज.
मैं नया ख्वाब
एक बगीचा
रौंद नियमों से, खेद दो न मुझे.
*
अब भी
अरमान-हौसले बाकी.
कौतुकी हूँ
न हो टोका-टाकी.
मैं हूँ कोशिश
की केसरी क्यारी
शूल नफरत के, छेद दो न मुझे.
*
मैं हूँ गर मर्द
दोष दो न मुझे.
मैंने कविता से
मुहब्बत की है.
चाहकर भी न
न सँग रह पाए
कैसे मुमकिन है, खेद हो न मुझे?
*
जिंदगी मुझको
अपनी जीने दो.
थोड़ा हँसने दो
खिलखिलाने दो.
राग या त्याग
एक ही हैं मुझे
सुख या दुःख में भी भेद है न मुझे.
१२.३५
सरस्वती इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेकनोलोजी जबलपुर.
***
***
नवगीत:
*
पूज रहे हैं
खोखले आधार
*
संसद में बातें ही बातें हैं
उठ-पटक, छीन-झपट मातें हैं
अपने ही अपनों को छलते हैं-
अपने-सपने करते घातें हैं
अवमूल्यन
का गरम बाज़ार
पूज रहे हैं
खोखले आधार
*
तिमिराये दिन, गुमसुम रातें हैं
सबब फूट का बनती जातें हैं
न्यायालय दुराचार का कैदी-
सर पर चढ़, बैठ रही लातें हैं
मनमानी
की बनी मीनार
पूज रहे हैं
खोखले आधार
*
असमय ही शुभ अवसर आते हैं
अक्सर बिन आये ही जाते हैं
पक्षपात होना ही होना है-
बारिश में डूब गये छाते हैं
डोक्टर ही
हो रहे बीमार
पूज रहे हैं
खोखले आधार
२७-५-२०१७
***
पर्यावरण गीत
*
इतना बड़ा हमारा देश
नहीं बड़प्पन हममें शेष।
*
पैर तले से भूमि छिन गयी
हाथों में आकाश नहीं।
किसे दोष दूँ?, कौन कर रहा
मेरा सत्यानाश नहीं।
मानव-हाथ छ्ल जाकर नित
नोच रहा हूँ अपने केश।
इतना बड़ा हमारा देश
नहीं बड़प्पन हममें शेष।
*
छाँह, फूल.पत्ते,लकड़ी ले
कभी नहीं आभार किया।
जड़ें खोद, मेरे जीवन का
स्वार्थ हेतु व्यापार किया।
मुझको जीने नहीं दिया, खुद
मानव भी कर सका न ऐश।
इतना बड़ा हमारा देश
नहीं बड़प्पन हममें शेष।
*
मेरे आँसू की अनदेखी
करी काटकर बोटी-बोटी।
निष्ठुर-निर्मम दानव बनकर
मुझे जलाकर सेंकी रोटी।
कोेेई नहीं अदालत जिसमें
करून वृक्ष मैं, अर्जी पेश
इतना बड़ा हमारा देश
नहीं बड़प्पन हममें शेष
*
***
पर्यावरण गीत
*
सभ्य-श्रेष्ठ
खुद को कहता नर
करता अत्याचार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटे? धिक्कार।
*
बोये बीज, लगाईं कलमें
पानी सींच बढ़ाया।
पत्ते, काली, पुष्प, फल पाकर
मनुज अधिक ललचाया।
सोने के
अंडे पाने
मुर्गी को डाला मार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को नित
काटें? धिक्कार।
*
शाखा तोड़ी, तना काटकर
जड़ भी दी है खोद।
हरी-भरी भू मरुस्थली कर
बोनसाई ले गोद।
स्वार्थ साधता क्रूर दनुज सम
मानव बारम्बार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटें? धिक्कार।
*
ताप बढ़ा, बरसात घट रही
सूखे नदी-सरोवर।
गलती पर गलती, फिर गलती
करता मानव जोकर।
दण्ड दे रही कुदरत क्रोधित
सम्हलो करो सुधार।
पालें-पोसें वृक्ष
उन्हीं को हम
काटें? धिक्कार।

***
गीत :
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
चंचल चितवन मृगया करती
मीठी वाणी थकन मिटाती।
रूप माधुरी मन ललचाकर -
संतों से वैराग छुड़ाती।
खोटा सिक्का
दरस-परस पा
खरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
उषा गाल पर, माथे सूरज
अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता।
चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट
शारद-रमा-उमा संयुक्ता।
ध्यान किया तो
रीता मन-घट
भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
सदा सुहागन, तुलसी चौरा
बिना तुम्हारे आँगन सूना।
तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं
तुम्हें सुमिरता है मन दूना।
साथ तुम्हारे गगन
हुआ मन, दूर हुईं तो
धरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एन्ड टेक्नोलॉजी
जबलपुर, २६.५.२०१६
***

मुक्तक:
*
भाषण देते उपन्यास सा, है प्रयास लघुकथा हमारा
आश्वासन वह महाकाव्य है, जिसे लिखा बिन पढ़े बिसारा
मत देकर मत करो अपेक्षा, नेताजी कुछ काम करेंगे-
भूल न करते मतदाता को चेहरा दिखलायें दोबारा
***
नवगीत:
*
चलो मिल सूरज उगायें
*
सघनतम तिमिर हो जब
उज्ज्वलतम कल हो तब
जब निराश अंतर्मन-
नव आशा फल हो तब
विघ्न-बाधा मिल भगायें
चलो मिल सूरज उगायें
*
पत्थर का वक्ष फोड़
भूतल को दें झिंझोड़
अमिय धार प्रवहित हो
कालकूट जाल तोड़
मरकर भी जी जाएँ
चलो मिल सूरज उगायें
*
अपनापन अपनों का
धंधा हो सपनों का
बंधन मत तोड़ 'सलिल'
अपने ही नपनों का
भूसुर-भुसुत बनायें

चलो मिल सूरज उगायें
***
नवगीत:
*
ध्वस्त हुए विश्वास किले
*
जूही-चमेली
बगिया तजकर
वन-वन भटकें
गोदी खेली
कलियाँ ही
फूलों को खटकें
भँवरे करते मौज
समय के अधर सिले
ध्वस्त हुए विश्वास किले
*
चटक-मटक पर
ठहरें नज़रें
फिर फिर अटकें
श्रम के दर की
चढ़ें न सीढ़ी
युव मन ठिठकें
शाखों से क्यों
वल्लरियों के वदन छिले
ध्वस्त हुए विश्वास किले
***
नवगीत:
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
२७-५-२०१५
***
नवगीत:
*
अंधड़-तूफां आया
बिजली पल में
गोल हुई
*
निष्ठा की कमजोर जड़ें
विश्वासों के तरु उखड़े
आशाओं के नीड़ गिरे
मेघों ने धमकाया
खलिहानों में
दौड़ हुई.
*
नुक्कड़ पर आपाधापी
शेफाली थर-थर काँपी
थे ध्वज भगवा, नील, हरे
दोनों को थर्राया
गिरने की भी
होड़ हुई.
*
उखड़ी जड़ खापों की भी
निकली दम पापों की भी
गलती करते बिना डरे
शैतां भी शर्माया
घर खुद का तो
छोड़ मुई!.
*
२६-५-२००१५:
जबलपुर में ५० कि.मी. की गति से चक्रवातजनित आंधी-तूफ़ान, भारी तबाही के बाद रचित.

गुरुवार, 26 मई 2022

मनहरण घनाक्षरी, मुक्तिका, नवगीत, भोजपुरी हाइकु, हाइकु भोजपुरी, विमर्श, दोहा,

विमर्श :
शरद तैलंग -
 दोहों के सम चरणों के अंत में तुकांत समान होना दोष माना जाता है या नहीं?
जैसे बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव। 
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव ।। 
जैसे यहां दोनों सम चरणों में "पाँव" आ रहा है। 
संजीव वर्मा 'सलिल' 
दोहा का सम चरण सम तुकान्ती गुरु-लघु (२ १) होना अनिवार्य है। सम चरण के पदांत में एक ही शब्द की आवृत्ति तभी हो जब उससे भिन्नार्थ सूचित हो अर्थात यमक हो। यहाँ पाँव भारी होना मुहावरे को दो विविधार्थों में प्रयोग किया गया है। दुर्भाग्य तब जब हाथी पाँव रोग हो, सौभाग्य तब जब स्त्री गर्भवती हो। इसमें दोष नहीं है। 
शरद - 
पात्र और सुपात्र हो या दोनों जगहों पर होय, होय, हो जिसका अर्थ भी समान हो तो क्या मान्य है ? 
संजीव वर्मा 'सलिल' 
सार्थक है तो मान्य, निरर्थक है तो अमान्य। 
कथाकार का लक्ष्य है, गढ़ना समुचित पात्र। 
पाठक कहे सुपात्र या, कह दे उसे कुपात्र।। 
या,
मुख्य पात्र के हाथ में, हो यदि भिक्षा पात्र। 
क्षात्र कहे करवाल ले, गात्र धर्म है; मात्र।। 
पाठक अपनी राय दें।
***
मुक्तिका
तेरे लिए
(१९ मात्रिक महापौराणिकजातीय आनंदवर्धक छंद)
*
जी रहा हूँ श्वास हर तेरे लिए
पी रहा हूँ प्यास हर तेरे लिए
*
हर ख़ुशी-आनंद है तेरे लिए
मीत! मेरा छंद है तेरे लिए
*
मधुर अनहद नाद है तेरे लिए
भोग, रसना, स्वाद है तेरे लिए
*
वाक् है, संवाद है तेरे लिए
प्रभु सुने फ़रियाद है तेरे लिए
*
जिंदगी का भान है तेरे लिए
बन्दगी में गान है तेरे लिए
*
सावनी जलधार है तेरे लिए
फागुनी सिंगार है तेरे लिए
*
खिला हरसिंगार है तेरे लिए
सनम ये भुजहार है तेरे लिए
२६-५-२०१७
***
नवगीत
*
तन पर
पहरेदार बिठा दो
चाहे जितने,
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
तनता-झुकता
बढ़ता-रुकता
तन ही हरदम।
हारे ज्ञानी
झुका न पाये
मन का परचम।
बाखर-छानी
रोक सकी कब
पानी चूता?
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
ताना-बाना
बुने कबीरा
ढाई आखर।
ज्यों की त्यों ही
धर जाता है
अपनी चादर।
पैर पटककर
सना धूल में
नाहक जूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
चढ़ी शीश पर
नहीं उतरती
क़र्ज़ गठरिया।
आस-मदारी
नचा रहा है
श्वास बँदरिया।
आसमान में
छिपा न मिलता
इब्नबतूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
२६-५-२०१६
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
*
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३१ : मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी)
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर तथा मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी)छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए उपेन्द्रवज्रा छन्द से
उपेन्द्र वज्रा *
छंद-लक्षण:
उपेन्द्र वज्रा द्विपदिक मात्रिक छंद है. इसके हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७
मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
सरोद सायास गया बजाया
न हाथ रोका नत माथ बोला
तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
हवेलियों ने झुकना न सीखा।
मिटा दिया है सहसा हवा ने-
फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
रखें जमा पैर, हटा न पाये-
भले महाकाल हमें मनायें।
२६-५-२०१६
***
दोहा सलिला
जनगण ने प्रतिनिधि चुने, कर पायें वे काम
जो इसमें बाधक बने, वह भोगे परिणाम
*
सकल भूमि सरकार की, किसके हैं ये लोग?
जाएँ कहाँ बताइए?, तज घड़ियाली सोग
***
कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
२६-५-२०१५
***
पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
***
भोजपुरी हाइकु:
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
२६-५-२०१३
*