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रविवार, 1 मई 2022

सॉनेट, दोहे, प्यार, शिव, तांडव छंद,काजी नज़रुल इस्लाम,तुम, नवगीत,कोरोना,मुक्तिका

सॉनेट
चमन
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चमन में साथी! अमन हो।
माँ धरित्री को नमन कर।
छत्र निज सिर पर गगन कर।।
दिशा हर तुझको वसन हो।।

पूर्णिमा निशि शशि सँगाती।
पवन पावक सलिल सूरज।
कह रहे ले ईश को भज।।
अनगिनत तारे बराती।

हर जनम हो श्वास संगी।
जिंदगी दे यही चंगी।
आस रंग से रही रंगी।।

न मन यदि; फिर भी नमन कर।
जगति को अपना वतन कर।
सुमन खिल; सुरभित चमन कर।।
१५-४-२०२२
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मुक्तिका • अपने हिस्से जितने गम हैं। गिने न जाते लेकिन कम हैं।। बरबस देख अधर मुस्काते। नैना बेबस होते नम हैं।। महाबली खुद को कहता जो अधिक न उससे निर्दय यम हैं।। दिये जगमगाते ऊपर से पाले अपने नीचे तम हैं।। मैं-मैं तू-तू तूतू मैंमैं जब तक मिलकर हुए न हम हैं।। उनका बम बम नाश कर रहा मंगलकारी शिव बम बम हैं।। रम-रम राम रमामय में रम वे मदहोश गुटककर रम हैं।। १५-४-२०२२ •••
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कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश : जड़ों से जुड़ाव अशेष
तुहिना वर्मा
*
[कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', आई.एस.बी.एन. ९७८-९३-५४८६-७६३-७, प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.X१४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी लेमिनेटेड, पृष्ठ ४७, मूल्य १५०/-, डायमंड बुक्स नई दिल्ली, संपादक संपर्क ९४२५१८३२४४।]
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लोककथाएँ लोक अर्थात जनसामान्य के सामुदायिक, सामाजिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभवों को कहनेवाली वे कहानियाँ हैं जो आकार में छोटी होती हुए भी, गूढ़ सत्यों को सामने लाकर पाठकों / श्रोताओं के जीवन को पूर्ण और सुंदर बनाती हैं। आम आदमी के दैनंदिन जीवन से जुड़ी ये कहानियाँ प्रकृति पुत्र मानव के निष्कपट और अनुग्रहीत मन की अनगढ़ अभिव्यक्ति की तरह होती हैं। प्राय:, वाचक या लेखक इनमें अपनी भाषा शैली और कहन का रंग घोलकर इन्हें पठनीय और आकर्षक बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि श्रोता या पाठक इनमें रूचि लेने के साथ कथ्य को अपने परिवेश से जुड़कर इनके माध्यम से दिए गए संदेश को ग्रहण कर सके। इसलिए इनका कथ्य या इनमें छिपा मूल विचार समान होते हुए भी इनकी कहन, शैली, भाषा आदि में भिन्नता मिलती है।

भारत के प्रसिद्ध प्रकाशन डायमंड बुक्स ने भारत कथा माला के अंतर्गत लोक कथा माला प्रकाशित कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। देश में दिनों-दिन बढ़ती जा रही शहरी अपसंस्कृति और दूरदर्शन तथा चलभाष के आकर्षण से दिग्भ्रमित युवजन आपकी पारंपरिक विरासत से दूर होते जा रहे हैं। पारम्परिक रूप से कही जाती रही लोककथाओं का मूल मनुष्य के प्रकृति और परिवार से जुड़ाव, उससे उपजी समस्याओं और समस्याओं के निदान में रहा है। तेजी से बदलती जीवन स्थितियों (शिक्षा, आर्थिक बेहतर, यान्त्रिक नीरसता, नगरीकरण, परिवारों का विघटन, व्यक्ति का आत्मकेंद्रित होते जाना) में लोककथाएँ अपना आकर्षण खोकर मृतप्राय हो रही हैं। हिंदी के स्थापित और नवोदित साहित्यकारों का ध्यान लोक साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की ओर न होना भी लोक साहित्य के नाश में सहायक है। इस विषम स्थिति में प्रसिद्ध छन्दशास्त्री और समालोचक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित ''२१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ' मध्यप्रदेश'' का डायमंड बुक्स द्वारा प्रस्तुत किया जाना लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने का सार्थक प्रयास है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

यह संकलन वस्तुत: मध्यप्रदेश के वनवासी आदिवासियों में कही-सुनी जाती वन्य लोककथाओं का संकलन है। पुस्तक का शीर्षक ''२१ श्रेष्ठ आदिवासी लोककथाएँ मध्य प्रदेश'' अधिक उपयुक्त होगा। पुस्तक के आरंभ में लेखक ने लोककथा के उद्भव, प्रकार, उपयोगिता, सामयिकता आदि को लेकर सारगर्भित पुरोवाक देकर पुस्तक को समृद्ध बनाने के साथ पाठकों की जानकारी बढ़ाई है। इस एक संकलन में में १९ वनवासी जनजातियों माड़िया, बैगा, हल्बा, कमार, भतरा, कोरकू, कुरुख, परधान, घड़वा, भील, देवार, मुरिया, मावची, निषाद, बिंझवार, वेनकार, भारिया, सौंर तथा बरोदिया की एक-एक लोककथाएँ सम्मिलित हैं जबकि सहरिया जनजाति की २ लोककथाएँ होना विस्मित करता है। वन्य जनजातियाँ जिन्हें अब तक सामान्यत: पिछड़ा और अविकसित समझा जाता है, उनमें इतनी सदियों पहले से उन्नत सोच और प्रकृति-पर्यावरण के प्रति सचेत-सजग करती सोच की उपस्थिति बताती है कि उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। सलिल जी का यह कार्य नागर और वन्य समाज के बीच की दूरी को कम करने का महत्वपूर्ण प्रयास है।

माड़िया लोककथा 'भीमदेव' में प्रलय पश्चात् सृष्टि के विकास-क्रम की कथा कही गयी है। बैगा लोककथा 'बाघा वशिष्ठ' में बैगा जनजाति किस तरह बनी यह बताया गया है। 'कौआ हाँकनी' में हल्बा जनजाति के विकास तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कमार लोककथा 'अमरबेल' में उपयोग के बाद वृक्षों पर टाँग दिए जनेऊ अमरबेल में बदल जाने की रोचक कल्पना है। बेवफा पत्नी और धोखेबाज मित्र को रंगरेली मानते हुए रंगेहाथ पकड़ने के बाद दोनों का कत्ल कर पति ने वन में दबा दिया। बरसात बाद उसी स्थान पर लाल-काले रंग के फूलवाला वृक्ष ऊगा जिसे परसा (पलाश) का फूल कहा गया। यह कहानी भतरा जनजातीय लोक कथा 'परसा का फूल' की है। कोरकू लोककथा 'झूठ की सजा' में शिववाहन नंदी को झूठा बोलने पर मैया पार्वती द्वारा शाप दिए जाने तथा लोक पर्व पोला मनाये जाने का वर्णन है। कुरुख जनजातीय लोक कथा 'कुलदेवता बाघ' में मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच मधुर संबंध उल्लेखनीय है। 'बड़ादेव' परधान जनजाति में कही जानेवाली लोककथा है। इसमें आदिवासियों के कुल देव बड़ादेव (शिव जी) से आशीषित होने के बाद भी नायक द्वारा श्रम की महत्ता और समानता की बात की गयी है। अकाल के बाद अतिवृष्टि से तालाब और गाँव को बचाने के लिए नायक झिटकू द्वारा आत्मबलिदान देने के फलस्वरूप घड़वा वनवासी झिटकू और उसकी पत्नी मिटको को लोक देव के रूप में पूजने की लोककथा 'गप्पा गोसाइन' है। भीली लोककथा 'नया जीवन' प्रलय तथा उसके पश्चात् जीवनारंभ की कहानी है।

देवार जनजाति की लोककथा 'गोपाल राय गाथा' में राजभक्त महामल्ल गोपालराय द्वारा मुगलसम्राट द्वारा छल से बंदी बनाये गए राजा कल्याण राय को छुड़ाने की पराक्रम कथा है। कहानी के उत्तरार्ध में गोपालराय के प्रति राजा के मन में संदेह उपजाकर उसकी हत्या किए जाने और देवार लोकगायकों द्वारा गोपालराय के पराक्रम को याद को उसने वंशज मानने का आख्यान है। मुरिया जनजातीय लोककथा 'मौत' में सृष्टि में जीव के आवागमन की व्यवस्था स्थापित करने के लिए भगवन द्वारा अपने ही पुत्र मृत्यु का विधान रचने की कल्पना को जामुन के वृक्ष से जोड़ा गया है। 'राज-प्रजा' मावची लोककथा है। इसमें शर्म की महत्ता बताई गए है। 'वेणज हुए निषाद' इस जनजाति की उत्पत्ति कथा है। मामा-भांजे द्वारा अँधेरी रात में पशु के धोखे में राजा को बाण से बींध देने के कारण उनके वंशज 'बिंझवार' होने की कथा 'बाण बींध भए' है। 'धरती मिलती वीर को' वेनकार लोककथा है जिसमें पराक्रम की प्रतिष्ठा की गयी है। भरिया जनजाति में प्रचलिटी लोककथा 'बुरे काम का बुरा नतीजा' में शिव-भस्मासुर प्रसंग वर्णित है। सहरिया जनजाति के एकाकी स्वभाव और वन्य औषधियों की जानकारी संबंधी विशेषता बताई गयी है 'अपने में मस्त' में। 'शंकर का शाप' लोककथा आदिवासियों में गरीबी और अभाव को शिव जी की नाराजगी बताती है। सौंर लोककथा 'संतोष से सिद्धि' में भक्ति और धीरज को नारायण और लक्ष्मी का वरदान बताया गया है। संग्रह की अंतिम लोककथा 'पीपर पात मुकुट बना' बरोदिया जनजाति से संबंधित है। इस कथा में दूल्हे के मुकुट में पीपल का पत्ता लगाए जाने का कारन बताया गया है।

वास्तव में ये कहानियाँ केवल भारत के वनवासियों की नहीं हैं, विश्व के अन्य भागों में भी आदिवासियों के बीच प्रलय, सृष्टि निर्माण, दैवी शक्तियों से संबंध, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को कुलदेव मानने, मानव संस्कृति के विस्तार, नई जातियाँ बनने,पराक्रमी-उदार पुरुषों की प्रशंसा आदि से जुड़ी कथाएँ कही-सुनी जाती रही हैं।

संभवत: पहली बार भारत के मूल निवासी आदिवासी की लोककथाओं का संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन की विशेषता है की इसमें जनजातियों के आवास क्षेत्र आदि जानकारियाँ भी समाहित हैं। लेखक व्यवसाय से अभियंता रहा है। अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में निर्माण कार्य करते समय श्रमिकों और ग्रामवासियों में कही-सुनी जाती लोक कथाओं से जुड़े रहना और उन्हें खड़ी हिंदी में इस तरह प्रस्तुत करना की उनमें प्रकृति-पर्यावरण के साथ जुड़ाव, लोक और समाज के लिए संदेश, वनावासियों की सोच और जीवन पद्धति की झलक समाहित हो, समय और साहित्य की आवश्यकता है। इन कहानियों के लेखक का यह प्रयास पाठकों और समाजसेवियों द्वारा सराहा जाएगा। प्रकाशक को और पुस्तकें सामने लाना चाहिए।
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संपर्क : ०२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश।
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मुक्तिका
*
कर्ता करता
भर्ता भरता
इनसां उससे
रहता डरता
बिन कारण जो
डरता; मरता
पद पाकर क्यों
अकड़ा फिरता?
कह क्यों पर का
दुख ना हरता
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नव प्रयास
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कोरोना के व्याज, अनुशासित हम हो रहे।
घर के करते काज, प्रेम से।।
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थोड़े जिम्मेदार, हुए आजकल हम सभी।
आपस में तकरार, घट गई।।
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खूब हो रहा प्यार, मत उत्पादन बढ़ाना।
बंद घरों के द्वार, आजकल।।
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तबलीगी लतखोर, बातों से मानें नहीं।
मनुज वेश में ढोर, जेल दो।
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मिटे कोरोना
तजें विश्वास क्यों सूरज उषा ले आए हैं लाली
सुनाते गीत पंछी; बजाते पत्ते विहँस ताली
हुए आबाद घर फिर से; न अनबोला रहा बाकी
न आवारा कसें फिकरे, न लोफर दे रहे गाली
मिटे कोरोना तो भी; दूर अनुशासन नहीं करना
सजग हो जाएँ गम सब, छोड़ अनुशासन न फिर मरना
१५-४-२०२०
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तुम
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तुम हो या साकार है
बेला खुशबू मंद
आँख बोलती; देखती
जुबां; हो गयी बंद
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अमलतास बिंदी मुई, चटक दहकती आग
भौंहें तनी कमान सी, अधर मौन गा फाग
हाथों में शतदल कमल
राग-विरागी द्वन्द
तुम हो या साकार है
मद्धिम खुशबू मंद
*
कृष्ण घटाओं बीच में, बिजुरी जैसी माँग
अलस सुबह उल्लसित तुम, मन गदगद सुन बाँग
खनक-खनक कंगन कहें
मधुर अनसुने छंद
तुम हो या साकार है
मनहर खुशबू मंद
*
पीताभित पुखराज सम, मृदुल गुलाब कपोल
जवा कुसुम से अधरद्वय, दिल जाता लख डोल
हार कहें भुज हार दो
बनकर आनंदकंद
तुम हो या साकार है
मन्मथ खुशबू मंद
१५.४.२०१९
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काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीयता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्व का महानतम लोकतंत्र भारत अनेकता में एकता, विविधता में समानता, विशिष्टता में सामान्यता और स्व में सर्व के समन्वय और सामंजस्य का अभूतपूर्व उदाहरण था, है और रहेगा। समय-समय पर पारस्परिक टकराव, संघर्ष और विद्वेष के तूफ़ान आते-जाते रहे किन्तु राष्ट्रीयता, समानता, सहयोग, सद्भाव और वैश्विक चेतना के सनातन तत्व भारत में सदा व्याप्त रहे। स्वाधीनता सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योति रखनेवाले महापुरुषों में २४ मई १८९९ को जन्में तथा २९ अगस्त १९७६ को दिवंगत अग्रणी बांग्ला कवि, संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा, दार्शनिक, गायक, नाटककार तथा अभिनेता काजी नज़रुल इस्लाम अग्रगण्य रहे हैं।
अवदान-सम्मान
वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, देशप्रेमी तथा बंगलादेश के राष्ट्रीय कवि हैं। भारत और बांग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कवि' कहे गये। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार' तथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है। कोल्कता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कार से सम्मनित कर खुद को धन्य किया। रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की।भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया। भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जरी किया। बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये।
जन्म, परिवार तथा संघर्ष-
अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के शासनकाल में एक मुसलमान परिवार बंगाल के हाजीपुर को छोड़कर बर्दवान के पुरुलिया गाँव में आ बसा था। परिवार के किसी सदस्य के काज़ी होने के बाद से परिवार के सभी सदस्य नाम के साथ काजी जोड़ने लगे। इसी वंश के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून माँ काली से पुत्र देने हेतु प्रार्थना किया करती थी। उन्होंने २४ मई को एक पुत्र जन्मा जिसे कालांतर में काजी नज़रुल इस्लाम के नाम से जाना गया। उनका १ बड़ा भाई, २ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन थी । केवल ८ वर्ष की उम्र में उनके वालिद जो एक मज़ार और मस्जिद की देख-रेख करते थे, का इंतकाल हो गया। अभाव और गरीबी इतनी कि लोग उन्हें 'दुक्खू मियाँ' कहने लगे। हालात से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में फजल अहमद के मार्गदर्शन में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी पढ़ने के साथ-साथ भागवत, महाभारत, रामायण, पुराण और कुरआन आदि पढ़कर पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना करने लगे।
रानीगंज, बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे कक्षा में प्रथम आये। यहाँ आजीवन मित्र रहे निबारनचंद्र घटक तथा शैलजानंद मुखोपाध्याय से मित्रता हुई जो बाद में बांगला के प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार हुए। किसी विषय में अनुत्तीर्ण होने पर वे आसनसोल लौटकर माथुरन हाई स्कूल में श्री कुमुदरंजन मलिक के विद्यार्थी रहे। परीक्षा शुल्क की व्यवस्था न होने पर वे पढ़ाई छोड़कर समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटो' में सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिखने लगे और केवल ११ वर्ष की आयु में इस दल के मुख्य 'कवियाल' बने। उन्होंने रेल गार्डों के घरों में काम किया, अब्दुल वहीद बेकारी में १रु. मासिक पर काम किया साथ ही संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी बजाना जारी रखा जिससे प्रभावित होकर पुलिस सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला उन्हें अपने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला देश ले गये। अंग्रेज बंगालियों को सेना के अयोग्य भीरु मानते थे किंतु स्कूल की अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़कर १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनी' में यहाँ सैनिक शिक्षा लेने लगे।उन्हें ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा उत्तर-पश्चिम सीमांत पर भेज दिया गया। वहाँ से कराची आकर ;कारपोरल' के निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में १९१९ में 'हवलदार' हो गये। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा (आवारा की आत्मकथा) तथा जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्ति' प्रकाशित होने पर उन्हें ख्यति मिली।
एक पंजाबी मौलवी की मदद से उनहोंने फारसी सीखी और फारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़' का अनुवाद आरम्भ किया जो राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण १९३० में छप सकी। दूसरा अनुवाद 'काब्यापारा' १९३३ में तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम' १९५९-६० में छपी। ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल न २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर उन्हें श्रद्धान्जलि दी। बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ ने 'मुस्लिम भारत' समाचार पत्र कार्यालय में उनसे भेंट कर उन्हें अपना मित्र बनाकर नज्म 'लीचीचोर' माँग ली और मार्च-अप्रैल १९२१ में नजरुल को अपने साथ पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँव, जिला तिपेरा, हैड ऑफिस कोमिल्ला ले गये। अली अकबर के मित्र वीरेंद्र के पिता श्री इंद्र कुमार सेनगुप्त, माँ बिराजसुन्दरी, बहिन गिरिबाला, बहिन की १३ वर्षीय पुत्री प्रमिला (दोलन) उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। नजरुल बिराजसुंदरी को 'माँ' कहते। २ माह बाद अली अकबर की विधवा बहिन की बेटी नर्गिस बेगम के अस्त नजरुल का निकाह १७ जून १९२१ को होने के निमंत्रण पत्र बँट जाने के बाद अली अकबर द्वारा घर जमाई बनने की शर्त रखी जाने पर नजरुल निकाह रद्द कर दौलतपुर से कोमिल्ला लौट आये। उनकी कई कवितायेँ और गीत नर्गिस के लिये ही थे।अंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर अंग्रेजी-विरोध के कारण नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। 'धूमकेतु' पत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के कारण १९२३ में उन्हें एक वर्ष का कारावास दिया गया, छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। १८ जून १९२१ से ३ जुलाई तक नजरुल सेनगुप्त परिवार के साथ रहे। नज्म 'रेशमी डोर' में ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतो, आमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखकर और 'स्नेहातुर' कविता में नजरुल ने सेनगुप्त परिवार से स्नेहिल संबंधों को अभिव्यक्त किया। वे इस नैराश्य काल में एकमात्र आशावादी कविता 'पलक' लिख सके। ब्रम्ह समाज से जुडी उक्त प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह कर लिया।
विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम संतान तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी, इसका दूसरा भाग १९५२ में छपा। 'दारिद्र्य'शीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल' का प्रथम अनुवाद किया।
सांप्रदायिक सद्भाव के अग्रदूत
नजरुल की कृष्णभक्ति परक रचनाओं में आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में, अरे अरे सखि बार बार छि छि, अगर तुम राधा होते श्याम, कृष्ण कन्हैया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ, चक्र सुदर्शन छोड़ के मोहन तुम बने बनवारी, जन-जन मोहन संकटहारी, जपे त्रिभुवन कृष्ण के नाम, जयतु श्रीकृष्ण श्री कृष्ण मुरारी, झूले कदम के डार पे झूलना किशोर-किशोरी, झूलन झुलाए झाउ झक झोरे, तुम प्रेम के घन श्याम मैं प्रेम की श्याम-प्यारी, तुम हो मेरे प्रेम के मोहन मैं हूँ प्रेम अभिलाषी, देखो री मेरो गोपाल धरो है नवीन नट की साज , नाचे यशोदा के अँगना में शिशु गोपाल, प्रेम नगर का ठिकाना कर ले, मेरे तन के तुम अधिकारी ओ पीताम्बरधारी, यमुना के तीर पर सखी री सुनी मैं, राधा श्याम किशोर प्रीतम कृष्ण गोपाल, श्याम सुन्दर मन मन्दिर में आओ, सुन्दर हो तुम मनमोहन हो मेरे अंतर्यामी, सोवत-जागत आठूं जान रहत प्रभु मन में तुम्हरो ध्यान, हर का भजन कर ले मनुआ आदि नजरुल की प्रमुख कृष्ण भक्ति रचनाएँ हैं
टैगोर तथा शरत से प्रभावित नजरुल के लिखे दाता कर्ण, कवि कालिदास, शकुनि वध आदि नाटक खूब लोकप्रिय हुए।वे यथार्थ पर आधारित, प्रेम-गंध पूरित, देशी रागों और धुनों से सराबोर, वीरता, त्याग और करुणा प्रधान नाटक लिखते और खेलते थे। पारंपरिक रागों का शुद्ध प्रस्तुतीकरण करने के साथ आधुनिक धुनों में भी ओजस्वी बांगला ३००० से अधिक गीति-रचना तथा अधिकांश का गायन कर संगीत की विविध शैलियों को उन्होंने समृद्ध किया। इसे 'नजरूल गीति' या 'नजरुल संगीत' के नाम से जाना जाता है। विद्रोही, धूमकेतु, भांगरगान, राजबन्दिर, जबानबंदी तथा नजरुल गीति उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावली, भाग १, पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता विहीनविचारों का दर्पण है-
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं।
चोटी में हिंदुत्व नहीं, शायद पांडित्य है
जैसे कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व नहीं, शायद मौल्वित्व है।
और इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को,
बालों को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज जो लड़ाई छिड़ती है
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर।
कविता में विद्रोह मंत्र-
अपनी कविताओं के माध्यम से नज़रूल ने देश के प्रति बलिदान और विदेशी शासन के प्रति विद्रोह के भाव जगाये। मुसलमान होते हुए भी वे माँ काली के समर्पित भक्त थे। उनकी अनेक रचनाएँ माँ काली को ही समर्पित हैं। भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करने पर उनकी रचनाओं ने उन्हें 'विद्रोही कवि' का विरुद दिलवाया। अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध भी उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कवि, गायक, संगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचार, सामाजिक अनाचार, निर्बल के शोषण, साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात् बांगला के दूसरा महान कवि हैं। स्वाभिमानी, समन्ता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ते हुए किसी शायर को अपना उस्ताद नहीं बनाया। अपने धर्म निरपेक्ष सिद्धांतों के अनुसार वे मस्जिद में इबादत और माँ काली की पूजा में विरोधाभास नहीं मानते थे।
एक अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही है। नजरुल के लोकप्रिय नाटकों में १. चाशार शौंग, २. शौकुनी बोध, ३. राजा युधिष्ठिर, ४. दाता कोर्ना (कर्ण), ५. अकबर बादशाह, ६. कॉबि (कवि) कालिदास , ७. बिद्यान होतुम (विद्वान उल्लू), ८. आले आ १९२५-३१, ९. मधुमाला, १०. झली मली १९३०, ११. मधुमाला १९५९-६० मुख्य हैं। 'भंगार गान' में नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाट, भेंगे फेल कार-रे लोपात, रक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदी' अर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाट, रक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीर' अर्थात कहो, हे वीर कहो की मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुम घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'बिजली' में यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भरी मांग के कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया।
नजरुल ने धूमकेतु पत्रिका का प्रकाशन सन १२ अगस्त १९२२ से रवीन्द्र नाथ ठाकुर, शरत चन्द्र चटर्जी, बारीन्द्र कुमार घोष आदि विभूतियों के आशीष से आरंभ कर 'जागिये दे रे चमक मेरे, आछे जारा अर्ध चेतन! (' अर्धचेतना में जो अब भी चमको उन्हें जगाओ रे!') सन्देश दिया। धूमकेतु में की गयी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बाद में काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२), दो निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८), रूद्र मंगल, 'वशीर बंसी' तथा 'भंगारन' में प्रकाशित की गयीं जिन्हें सरकार ने अवैध घोषित कर दिया।
नजरुल रूसो के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की क्रांति से बहुत प्रभावित थे। १६ जनवरी १९२३ में नजरुल को कैद होने के बाद धूमकेतु का प्रकाशन बंद हो गया। १९६१ में धुन्केतु शीर्षक से उनका निबन्ध संकलन छपा। साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया बनकर नजरुल ने नौजूग (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग बानी'(युगवाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया। नजरुल की क्रन्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल में भूख-हड़ताल की, टैगोर के लिखित अनुरोध पर भी अनशन न तोडा तो उनकी माँ को स्वयं काराग्रह पहुँचकर अनशन तुडवाना पड़ा।कारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैं, हममें भी जोश जाग रहा है, हम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से हम 'मार्च पास्ट' के समय ऐसे ही गीत गायेंगे। इनके गीत गाने और सुनने से हमें कैद भी कैद नहीं लगेगी। ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीटी और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये।व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को ही कठिनाई में डाला है)।
शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थीं। गीत 'मरन-मरन' में 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसार' में जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेली? अलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल जनगन को निर्भयता का पाठ पढ़ा रहे थे। सन १९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर पैक्ट' गीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा की हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारामें विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे हैं। फिर एक बार संगठित हों, जाति, धर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांति, साम्य, अन्न, वस्त्र आदि अर्जित करें।सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मद, अरिंदम (शत्रुजयी), सव्यसाची (अर्जुन) और अनिरुद्ध (जिसे रोक न जा सके, श्रीकृष्ण का पौत्र) रखे।
स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखा क्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह की अंग्रेजों के उठे सर देखकर तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। प्रत्यक्षत: कुछ न कहकर परोक्षत: कहने की यही शैली दुष्यंत ने आपातकाल में 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं' लिखकर अपनायी। नर्गिस बेगम विवाह न हो पाने के बाद भीनजरुल को भुला न सकीं और बार-बार मिलने की चेष्टा करतीं। एक जुलाई १९३७ को एच एम् व्ही कंपनी के लिए रिकोर्ड गीत की पहली पंक्ति 'जार हाथ दिये माला, दिते पारो नाईं / कैनी मने राखा तारे? भूल जाओ तारे, भूले जाओ एके बारे।' (न हाथों में माला देकर भी न दे सकीं / क्यों करती हो याद?, बिसारो, भुला दो उसे एकदम)।
नजरुल ने कोमिल्ला में रहते हुए गाँधी जी के आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर जनानुभूतियों को अभिव्यक्ति दे अपर लोकप्रियता पाई। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? ट्रीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल)।
नजरुल गाँधी-दर्शन से पूर्णत: सहमत न थे।उनके अनुसार 'राजबंदी जवानों का लक्ष्य स्पष्ट है,गाँधी जी जिसे दुष्ट सरकार कहते हैं उसकी और अधिक वैध तथा सामूहिक उपकरणों से भर्त्सना करना ही आज उद्दिष्ट है। कवि ईश्वर की एक ऐसी चुनी हुई आवाज़ है जो सदैव यथार्थ और सत्य का पृष्ठपोषण करती है। वह ईश्वर और न्याय का पक्ष ग्रहण करती है और सभी घृणा योग्य उपकरणों को नष्ट-भ्रष्ट करने का साधन है।' उर्दू शायर फैज़ अहमद 'फैज़' ने कारावास में लिखा था 'मताए लौहो-कलम छीन गयी तो क्या गम है?/ कि खूने-दिल में डुबो ली हैं अंगुलियाँ मैंने/ज़बां पर मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है/हरेक हलक-ए-जंजीर में ज़बां मैंने।
नजरुल कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह करने के लिए ही उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत है, भेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के निर्देशों की पूर्ति करने यत्न ही किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतार, मरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि निशीथे, यात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वन, विकट मरुस्थल / सागर का विस्तार /निशा-तिमिर में, हमें लाँघना, पथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- आमरा शक्ति, आमरा बल, आमरा छात्र दल (हमारी शक्ति, हमारा बल, हमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने परायण गीत गाया- चल रे चल चल, ऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तल, अरुण प्रान्तेर तरुण दल, चल रे चल चल (चलो रे चलो, नभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में युवकों, आगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्या कहानी संग्रह ब्याथार दान १९२२, १९९२, रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं।
संगीत में दक्षता-
नजरुल में शैशव से हो संगीत के प्रति अभिरुचि, लग्न तथा प्रतिभा की त्रिवेणी प्रवाहित थी।उनके ग्राम के शास्त्रीय संगीत के प्रकन्द विद्वान क्षितीश्चन्द्र कांजीलाल ने इसे तराशा-निखारा। नसरुल की हारमोनियम, ढोलक और तबला वादन ततः साथ-साथ गायन में महारत थी। उन्होंने लगभग ४००० गीत रचे। 'छन्दसी' नामक गीति काव्य में उन्होंने दस संस्कृत-छंदों का प्रयोग किया।आकाशवाणी के लिये 'नव राग मालिका' के अंतर्गत लगभग ५०० प्रेम-गीत रचे। नजरुल ने उदासी भैरव, रूद्र भैरव, आशा भैरव, अरुण रंजनी, योगिनी, देवयानी चांपा, संध्या मालती, वनकुंतला, शंकरी, मीनाक्षी, रूप्म्न्जरी, निर्झणी (निर्झरिणी) शिव सरस्वती, रक्त हंस सारंग आदि अनेक नये रागों का शोध किया। हिंदी-उर्दू के प्रसिद्द कवी आमिर खुसरो की तरह नजरुल ने भी कई तालों का अविष्कार किया जिनमें बीस मात्रा की नौनंद ताल तथा सात मात्रा की प्रियाछ्न्द ताल मुख्य हैं। उनहोंने बांगला भाषा, संगीत, भावों और अनुभूतियों के अनुकूल रागों के प्रयोग को प्राथमिकता दी। उनकी रचनाओं में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत, अरबी संगीत नीर-क्षीर की तरह प्रवाहमान होते रहे। १९३० से १९४० के मध्य उन्होंने प्रतिदिन कम से कम १२ गीत तथा कुल ४००० गीत रचे जिनमें से आधे आज भी प्राप्त हैं तथा शेष को शोधा जाना आवश्यक है।
नजरुल के गीत बाउल, झूमर, संथाली आदि तथा सँपेरों के भठियाली, भाउआ आदि लोक गीतों पर आधारित, काव्यात्मक सौन्दर्य तथा श्रेष्ठ संगीतात्मकता से परिपूर्ण हैं। नजरुल ने बांगला काव्य में सर्वप्रथम 'गजल' काव्य विधा का प्रयोग कर औरों को राह दिखाई। उनकी आत्मकथा 'बांडुलेयेर आत्मकाहिनी' जुलाई १९१९ में 'बंगला-मुस्लिम साहित्य पत्रिका में छपी। प्रथम काव्य संग्रह 'बोधान' तथा उपन्यास 'बंधनहारा १९२० में प्रकाशित हुआ। राष्ट्रभाषा परिषद् वर्धा के तत्वावधान में नजरुल की जीवनि, प्रमुख कवितायेँ व गीत गोपाल हालदार के संपादन में छपे। १९३२ से ३५ के मध्य उनके ८०० गीत १० संग्रहों में छप चुके थे जिनमें से ६०० शास्त्रीय रागों तथा लोक संगीत की कीर्तन धुनों पर आधारित और ३० राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण थे। उनके अनेक गीतों में राग भैरव का प्रभाव दृष्टव्य है।
गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर के बांगला उपन्यास 'गोरा' के चलचित्रीकरण में नजरुल संगीत निर्देशक रहे। सचिन सेनगुप्ता के नाटक 'सिराजुद्दौला' में नजरुल का गीत-संगीत कमाल का था। सं १९३८ में वे कोलकाता रेडियो स्टेशन में समस्त कार्यक्रमों के अधिष्ठाता थे। उन्होंने संगीताधारित डोक्युमेंट्रियाँ हारामोनी, नव्राग मल्लिका आदि प्रसारित कीं। नजरुल के गीतों में फीरोजा बेगम, सुपर्वा सरकार, अंगूरबाला, इंदु बाला, अंजली मुखर्जी, ज्ञानेंद्र प्रसाद मुखर्जी, नीलोफर, यास्मीन, मानवेन्द्र मुखर्जी, कनिका मजूमदार, दिपाली नाग, सुकुमार मित्रा, महेंद्र मित्रा, धीरेन बासु, पूर्बी दत्ता, फिरदौस आरा, शाहीन समद, सुष्मिता गोस्वामी आदि ने अपनी आवाज़ देने का सौभाग्य पाया। एच एम् व्ही कंपनी ने नजरुल के सुयोग्य शिष्यों सचिन देव बर्मन, जोथिका रॉय, सुपर्वा सरकार, के मलिक, गीता बासु, सीता चौधरी आदि के लिये रिकार्ड बनाये। कमल-काँटा, नदी में ज्वार, मेरी कैफियत, भिखारी तुम कौन हो,आज भी रोये मन में कोयलिया, सावन की रात में गर स्मरण तुम आये के लिए नजरुल चिरकाल तक याद किये जायेंगे।
नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। उन्होंने कई चित्रपटीय गीतों में संगीत दिया। उनके कालजयी गीतों में से कुछ 'ये किसका तसव्वुर है (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), वो कब के आये भी (गायक अनीस खातून, संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार जिगर मुरादाबादी), एक लफ्ज़ मुहब्बत का (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), चौरंगी है ये चौरंगी (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), झूमे-झूमे मन मतवाला (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), आजा री निंदिया तू (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कैसे खेलन जावे सावन मां कजरिया (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी),सारा दिन छत पीटी हाथ हूँ दुखाई रे (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम), जो उनपे गुजरती है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), हम इश्क के मारों का इतना ही फसाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी), कोई उम्मीद बर नहीं आती (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार मिर्ज़ा ग़ालिब), आओ मेरी बिगड़ी के बनानेवाले (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार आरजू लखनवी), दिल संगे मलामत का हर चाँद निशाना है (संगीतकार काजी नजरुल इस्लाम-हनुमानप्रसाद शर्मा, गीतकार काजी नजरुल इस्लाम, आरजू लखनवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, परताऊ लखनवी)' आदि हैं।
सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल अज्ञात रोग से ग्रस्त होकर बधिर हो गये। कोलकाता तथा कराँची में स्वस्थ्य लाभ न होने पर चिंतित शुभचिंतकों ने 'नजरूल ट्रीटमेंट सोसायटी' गठित की। श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संस्तुति पर उन्हें लन्दन भेजा गया। वियना में मस्तिष्क रोग विशेषज्ञों ने उन्हें 'मोरबस पिक्स' नामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त पाया। सन १९६२ में उनकी पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी।सं १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये और अगस्त १९७६ को परलोकवासी हुए। नजरुल इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओं, अपनी यादों, अपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेष, विखंडन, अविश्वास, आतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्ष, नजरुल की राष्ट्रीयता, नजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। काजी नजरुल इस्लाम के एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-
"महाविद्रोही रण क्लांत
आमि शेई दिन होबो क्लांत
जोबे उतपीड़ितेर क्रंदनरोल
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना
अत्याचारीर खंग-कृपाण
भीम रणेभूमे रणेबे ना
विद्रोही ओ रणेक्लांत
आमि शेई दिन होबो शांत"
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब
आह या चीत्कार दुखी की
आग न नभ में लगा सकेगी।
और बंद तलवारें होंगी
चलना अत्याचारी की जब
तभी शांत मैं हो पाऊँगा
तभी शांत मैं हो जाऊँगा।)
१५-४-२०१६
***
छंद सलिला;
शिव स्तवन
संजीव
*
(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)
।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
१५-४-२०१४
***
प्यार के दोहे:
तन-मन हैं रथ-सारथी:
*
दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार।
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार।।
*
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार।
हो तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार।।
*
बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार।
बिन मन के तन को नहीं, कर पाते स्वीकार।।
*
दो अपूर्ण मिल एक हों, तब हो पाते पूर्ण।
अंतर से अंतर मिटे, हों तब ही संपूर्ण।।
*
जब लेते स्वीकार तब, मिट जाता है द्वैत।
करते अंगीकार तो, स्थापित हो अद्वैत।।
*
नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत.
'सलिल' न दानव मारते, कभी देव या संत..
*
अक्षर की आराधना, हो जीवन का ध्येय.
सत-शिव-सुन्दर हो 'सलिल', तब मानव को ज्ञेय..
*
सत-चित-आनंद पा सके, नर हो अगर नरेन्द्र.
जीवन की जय बोलकर, होता जीव जितेंद्र..
१५-४-२०१०
*

सॉनेट, चिंतन, कौन, दोहा, घनाक्षरी,मुक्तिका, गीत,छाया शुक्ला, पारस मिश्रा, बुंदेली कहानी

सॉनेट
कौन
कौन हूँ मैं?, कौन जाने?
बताते पहचान मेरी।
लगाते किंचित न देरी।।
वही जो अब तक अजाने।।

कौन हूँ मैं? पूछता 'मैं'।
लोग कहते 'मैं' भुलाओ।
बोलता मैं मत भुलाओ।।
कौन हूँ मैं बूझता मैं।।

'तू' न 'मैं' है, मैं' न है 'तू'
'वह' कभी 'मैं', वह कभी 'तू'
वहीं है वह, जहाँ मैं-तू

भेजता है कहो कौन?
बुलाता है कहो कौन?
भुलाता है कहो कौन?
२५-४-२०२२ 
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चिंतन सलिला ७
कौन? 
• 
'कौन'? 
दरवाजा खटकते ही यह प्रश्न अपने आप ही मुँह से निकलता और फिर हम कहते हैं 'आता हूँ'। '

कौन' का उत्तर इस पर निर्भर करता है कि दरवाजा घर का है या मन का? '

कौन हूँ मैं?' इस छोटे से प्रश्न का उत्तर मानव चिर काल से खोज रहा है। उत्तर नहीं है ऐसा भी नहीं है। जितने मुँह उतने उत्तर- शिवोहम्, रामोहम्, कृष्णोहम्, अहं ब्रह्मास्मि, मानव, भारतीय, हिंदू, गोरा-काला, धर्म, पंथ, संप्रदाय, जाति, कुल, गोत्र, अल्ल, कुनबा, खानदान, वंश, प्रदेश, क्षेत्र, संभाग, जिला, गाँव, मोहल्ला, विद्यालय, महाविद्यालय, समूह टीम आदि अनेक आधारों पर कौन का उत्तर दिया जाता रहा है। 

'कौन' का देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित होता है। 

'कौन' पूछा था गुरु ने? 'जाबाली' उत्तर दिया था शिष्य ने। 'किसका पुत्र?', 'नहीं जानता।' 'माँ से पूछकर आ।' 'माँ ने कहा मेरे जन्म के पूर्व कई पुरुषों की सेवा में थी, मेरा पिता कौन, नहीं जानती।' 'तुम ब्राह्मण हो। इतना अप्रिय- लज्जाजनक सत्य समुदाय के बीच निर्भीकता के साथ स्वीकारनेवाला केवल ब्राह्मण ही हो सकता है।' बन गया था इतिहास। 

'कौन' का उत्तर किस आधार पर हो? सत्यवादी ब्राह्मण, कितने हैं इस देश में? 'ब्रह्मम् जानाति सह ब्राह्मण' जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण। ब्रह्म कौन? कौन है ब्रह्म? उपनिषद कहते हैं ब्रह्म अनंत है 'एकं सत्यं अनंतम् ब्रह्म', 'एकोहम् द्वितीयोनास्ति' एक ही है दूसरा हो नहीं सकता। 

कौन है ब्रह्मात्मज और ब्रह्मांशी? क्या वे ब्रह्म से पृथक, भिन्न, दूसरे नहीं होंगे? होंगे भी और नहीं भी होंगे। यह कैसे? उसी तरह जैसे धूप धरती पर सूर्य से अलग है किंतु सूर्य में रहते समय सूर्य ही है। माँ के गर्भ में आने के पूर्व पुत्र पिता का वीर्य अर्थात पिता ही होता है। ब्रह्म (परमात्मा) की संतान कोई एक नहीं, हर भूत (जीव) है। यही सत्य लोक ने 'कण-कण में भगवान' और 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर व्यक्त किया गया है। 

'कौन?' के साथ क्या, कब, कैसे, कहाँ को जोड़ें तो चिंतन-मनन, प्रश्न-उत्तर बहुआयामी होते जाते हैं। 

'कौन?' का उत्तर व्यष्टि और समष्टि के संदर्भ में भिन्न होकर भी अभिन्न और अभिन्न होकर भी भिन्न होता है। 
२५-४-२०२२ 
संजीव, ९४२५१८३२४४ 
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बुंदेली कथा ४
बाप भलो नें भैया
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एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा देत हती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे।
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई।
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! तुमें जो काम दए थे उनखों का भओ?
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से राग-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै।
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ।
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए।
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौटबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है।
तुमें और कौन सो काम करने है?
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए।
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धर दइयो।
कुँवर नें सोची संझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठो बहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाई कई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें।
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते।
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ ध्यान देना बंद कर दौ।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।
२५-४-२०१७
***
दोहा वार्ता
*
छाया शुक्ला
सम्बन्धों के मूल्य का, कौन करे भावार्थ ।
अब बनते हैं मित्र भी, लेकर मन मे स्वार्थ ।।
*
संजीव
बिना स्वार्थ तृष्णा हरे, सदा सलिल की धार
बिना मोह छाया करे, तरु सर पर हर बार
संबंधों का मोल कब, लें धरती-आकाश
पवन-वन्हि की मित्रता, बिना स्वार्थ साकार
२५-४-२०१७
***
एक गीत
.
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ

***
मुक्तिका
हँस इबादत करो
मत अदावत करो
मौन बैठें न हम
कुछ शरारत करो
सो लिए हैं बहुत
जग बगावत करो
फिर न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
फेंक चलभाष हँस
खत किताबत करो
मन को मंदिर कहो
दिल अदालत करो
मुझसे मत प्रेम की
तुम वकालत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२५-४-२०१६

***
प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..

नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
२५-४-२०११
***
एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
*
फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई. बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर, ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास, धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी, जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
***
दोहा सलिला
*
मैं-तुम बिसरायें कहें, हम सम हैं बस एक.
एक प्रशासक है वही, जिसमें परम विवेक..
२५-४-२०१०
*

मुक्तिका, दोहा, श्रमिक दिवस, समीक्षा, सुमित्र, नवगीत, भोजपुरी, मुक्तक,शे'र

मुक्तिका
*
परमपिता ने भेंट दी, देह धरोहर मान
स्वच्छ रखें सत्कारिए, बनिए मीत सुजान
*
मन में तन का वास है, तन में मन का वास
मन की गति है असीमित, तन सीमित पहचान
*
तन को मन सामर्थ्य दे, मन को तन आकार
पूरक; प्रतिद्वंदी नहीं, जीव धरोहर जान
*
मन के साधे तन सधे, तन साधे मन साध
दोनों साधे योगकर, पूर्ण बने इंसान
*
मन का मनका फेर ले, तन का मनका छोड़
तभी झलक दिख सकेगी, उनकी जो भगवान
***
दोहा सलिला
देह देन रघुवीर की, इसको रखें सम्हाल
काया राखे धर्म है, पाकर जीव निहाल
देह धनुष पर अहर्निश, धरें श्वास का तीर
आस किला रक्षित रखे, संयम की प्राचीर
जहाँ देह तहँ राम हैं, हैं विदेह मिथलेश
दश रथ हैं दश इंद्रियाँ, रथी राम अवधेश
को विद? वह जो देह को, जान न पाले मोह
पंचतत्व का समन्वय, कोरो ना विद्रोह
रह एकाकी भरत सम, करें राम से प्रीत
लखन रखें अंतर बना, सिय धीरज की जीत
स्वास्थ्य अवध भेदे न नर, वानर भरत सतर्क
तीर नियम का साधते, करें न कोई फर्क
आशा की संजीवनी, शैली सलिल समान
मुँह कर पग हँस धो रहे, सियाराम सुख मान
***
श्रमिक दिवस पर
गीत
*
आदिशक्ति हम करो अनुकरण
अन्य युक्ति तज करो पथ वरण
करो परिश्रम स्वेद बहाओ
तब दो रोटी खाओ-पचाओ
इंसानों बढ़ तजो आवरण
कंकर-कंकर में शंकर है
द्रोह करे तो प्रलयंकर है
डरो, लोभ निज करो संवरण
तुमसे हम कब?, हमसे तुम हो
हम बिन महलों पल में गुम हो
तोंदों पिचको, तभी संतरण
१-५-२०२०
***
मुक्तिका:
संजीव
.
हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं.
.
कह रहे हमसे फफोले हाथ के
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं
.
आबलों को शूल से शिकवा नहीं
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं.
*
कलश महलों के न हमको चाहिए
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं.
.
स्वेद गंगा में नहाते रोज ही
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है.
३-५-२०१५


***
कृति चर्चा:
दोहों में प्रणय-सुवास: यादें बनी लिबास
*
[कृति विवरण: यादें बनीं लिबास, दोहा संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संकरण, २०१७, आई.एस.बी.एन. ९७८-८१-७६६७-३४६-४, पृष्ठ १०४ मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, आकर २१ सेमी x १४ सेमी,भावना प्रकाशन, १०९-ए पटपड़गंज दिल्ली ११००९२, दूरभाष ९३१२८६९९४७, दोहाकार संपर्क ११२ सराफा, मोतीलाल नेहरू वार्ड, निकट कोतवाली जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६५२०२७, ९३००१२१७०२]
*
बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार दोहा हिंदी ही नहीं बहुतेरी भारतीय भाषाओँ का कालजयी सर्वाधिक लोकप्रिय ही नहीं लोकोपयोगी छंद भी है। हर काल में दोहा कवियों की काव्याभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम रहा है। आदिकाल (१४०० सदी से पूर्व) चंदबरदाई आदि कवियों ने रासो काव्यों में वीर रस प्रधान दोहों की रचना कर योद्धाओं को पराक्रम हेतु प्रेरित किया। भक्तिकाल (१३७५ से ११७०० ई. पू.) में निर्गुण भक्ति धारांतर्गत ज्ञानाश्रयी भाव धारा के कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, मलूकदास, सुंदरदास, धर्मदास आदि ने तथा प्रेमाश्रयी भाव धारा के मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, शेख नबी, कासिम शाह, नूर मोहम्मद आदि ने आध्यात्मिक भाव संपन्न दोहे प्रभु-अर्पित किए। सगुण भावधारा की रामाश्रयी शाखा में तुलसीदास, रत्नावली, अग्रदास, नाभा दास, केशवदास, हृदयराम, प्राणचंद चौहान, महाराज विश्वनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह आदि ने कृष्णाश्रयी शाखा के सूरदास, नंददास,कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुज दास, कृष्णदास, मीरा, रसखान, रहीम के साथ मिलकर दोहा को इष्ट के प्रति समर्पण का माध्यम बनाया। रीतिकाल (१७००-१९०० ई. पू. मे केशव, बिहारी, भूषण, मतिराम, घनानन्द, सेनापति आदि ने मुख्यत: श्रृंगार तथा आलंकारिकता की अभिव्यक्ति करने के लिए दोहा को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और यथार्थवादी युग में पारम्परिक हिंदी छंदों की उपेक्षा का शिकार दोहा भी हुआ। नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) में तथाकथित प्रगतिवादी कविता से मोह भंग होने के साथ-साथ आंग्ल साहित्य के अनुकरण की प्रवृत्ति भी घटी। अंतरजाल पर हिंदी भाषा और साहित्य को नव प्रतिष्ठा मिली। गीत और दोहा फिर उत्कर्ष की ओर अग्रसर हुए।
सनातन सलिला नर्मदा के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का काव्य प्रवेश लगभग १९५० में हुआ। शिक्षक तथा पत्रकार रहते हुए आपने कलम को तराशा। पारिवारिक संस्कार, अध्ययन वृत्ति तथा साहित्यकारों की संगति ने उम्र के साथ अध्ययन और सृजन के क्षेत्र में उन्हें गहराई और ऊँचाई की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। दोहा संग्रह ''यादें बनीं लिबास'' में यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप्ति है उनकी जिन्होंने कवी के जीवन में प्रवेश कर उसे पूर्णता प्रदान की, जो जाकर भी जा न सकी, जिसकी उपस्थिति की प्रतीति कवि को पल-पल होती है। उसे उपस्थित मानते ही अनुपस्थिति अपना अस्तित्व बताने लगती है और तब उसकी संगति के समय की यादें कवि-मन को उसी तरह आवृत्त कर लेती हैं जैसे लिबास तन को ढाँकता है। शीर्षक की सार्थकता पूरी कृति में उसी तरह अनुभव की जा सकती है जैसे बगिया में सुमन-सुरभि। प्रेम, रूप-सौंदर्य, देह-दर्शन, नयन, स्वप्न, वसंत, सावन, फागुन आदि अनेक शीर्षकों के अंतर्गत सहेजे गए दोहे कहे-अनकहे उन्हीं के लिए कहे गए हैं जो विदेह होकर भी जानना छाती हैं कि उनका स्मरण सायास है या अनायास? उन्हें निश्चय ही संतुष्टि होगी यह जानकर कि जब स्मृतियाँ अभिन्न हों तो लिबास बन जाती हैं, तब याद नहीं करना पड़ता।
याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।
अपना तो ये हाल है, यादें बनीं लिबास।।
जिसने आजीवन शैया से उठाकर धरा पर पग रखने से आरंभ कर धरा को छोड़ शैया पर जाने तक पल-पल रीति-रिवाजों का पालन मन-प्राण से किया ही उसे स्मृतियों के दोहांजलि समर्पित करने के पूर्व ईश स्मरण की विरासत की रीति न निभाकर उपालंभ का अवसर नाराज कैसे करें अग्रजवत सुमित्र जी। 'वीणापाणि स्तवन' तथा 'प्रार्थना के स्वर' शीर्षकांतर्गत पाँच-पाँच दोहों से शब्द ब्रम्ह आराधना का श्री गणेश कर बिना कहे कह दिया कि तुम्हारी जीवन पद्धति से ही जीवन जिया जा रहा है। -
वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक।
सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक।।
सुमित्र जी 'रस' को 'काव्य' ही नहीं 'जीवन' का भी 'प्राण' मानते हैं। वे जानते-मानते हैं की प्रकृति बिना पुरुष भले ही वह परम् पुरुष हो, सृष्टि की रचना नहीं कर सकता।
रस ही जीवन-प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
सामान्यत: प्रकृति के समर्पण की गाथा कवी लिखते आये हैं किन्तु सत्य यह भी है समर्पण तो पुरुष भी करता है। इस सत्य की प्रतीति और अभिव्यक्ति सुमित्र ही कर सकता है, स्वामी नहीं-
साँसों में हो तुम बसे, बचे कहाँ हम शेष।
अहम् समर्पित कर दिया, और करें आदेश।।
कृति में श्रृंगार का इंद्रधनुष विविध रंगों और छटाओं का सौंदर्य बिखरता है। संयोग (रूप ज्योति की दिव्यता) तथा वियोग (तुम बिन दिन पतझर लगें, यादें बनीं लिबास) बिना देखे दिख जाने की तरह सुलभ है।
निर्गुण श्रृंगार को कबीरी फकीरी के बिना जीना दुष्कर है किंतु सुमित्र जी सांसारिकता का निर्वाह करते हुए भी निर्गुण को सगुण में पा सके हैं-
निराकार की साधना, कठिन योग पर्याय।
योग शून्य का शून्य में, शून्य प्रेम संकाय।।
सगुण श्रृंगार को लिखना तलवार पर धार की तरह है। भाव जरा डगमगाया कि मांसलता की राह से होते हुए नश्वरता और क्षण भंगुरता की नियति का शिकार हो जाता है जबकि कोई 'चाहक' अपनी 'चाह' को अकाल काल कवलित होते नहीं देखना चाहता। सुमित्र का तन की बात करते हुए भी मन को रंगारंग रखकर 'नट-कौशल' का परिचय देते हुए बच निकलते हैं-
अनुभव होता प्रेम का जैसे जलधि तरंग।
नस नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।
शिक्षक (टीचर नहीं) रहकर बरसों सिखाने के पूर्व सीखने की नर्मदा में बार-बार डुबकी लगा चुके कवि का शब्द-भंडार समृद्ध होना स्वाभाविक है। वह संस्कृत निष्ठ शब्दों( उच्चार, विन्यास, मकरंद, कुंतल, सुफलित, ऊर्ध्वमुख, तन्मयता, अध्यादेश, जलजात, मनसिज, अवदान, उत्पात, मुक्माताल, शैयाशायी, कल्याणिका, द्युतिमान, विन्यास, तिष्यरक्षिता, निर्झरी, उत्कटता आदि) के साथ देशज शब्दों (गैल, अरगनी, कथरी, मजूर, उजास, दहलान, कुलाँच, कातिक, दरस-परस, तिरती, सँझवाती, अँकवार आदि) का प्रयोग पूरी सहजता के साथ करता है। यही नहीं आंग्ल शब्दों (वैलेंटाइन, स्वेटर, सीट, कूलर, कोर्स, मोबाइल, टाइमपास, इंटरनेटी आदि) यथा स्थान सही अर्थों में प्रयोग करते हुए भी उससे चूक नहीं होती। कवि का पत्रकार समाज में प्रचलित अन्य भाषाओँ के शब्द संपदा से सुपरचित होने के नाते उन्हें पूरी उदारता के साथ यथावसर प्रयोग करता है।अरबी (मतलब, इबादत, तासीर, तकदीर, सवाल, गायब, किताब, कंदील, मियाद, ख़याल, इत्र, फरोश, गलतफहमी, उम्र, करीब, सलीब, नज़ीर, सफर, शरीर, जिला आदि), फ़ारसी (आवाज़, ज़िंदगी, ख्वाब, जागीर, बदर) शब्दों को प्रयोग करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है। अरबी 'जिला' और फ़ारसी 'बदर' को मिलाकर 'जिलाबदर', उम्र (अरबी) और दराज (फारसी) का प्रयोग करने में भी कवि कोताही नहीं करता। स्पष्ट है कि कवि खैरात की उस भाषा का उपयोग कर रहा है जिसे आधुनिक हिंदी कहा जाता है, वह भाषिक शुद्धता के नाम पर भाषिक साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं है। यहाँ उल्लेखनीय है कि आंग्ल शब्द 'लेन्टर्न' का हिंदीकृत रूप 'लालटेन' भी कवि को स्वीकार है।
अलंकार संपन्नता इस दोहा संग्रह का वैशिष्ट्य है। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, श्लेष, संदेह आदि अलंकार यत्र-तत्र पूरी स्वाभाविकता सहित प्रयुक्त हुए हैं। कुछ अलंकारों के एक-एक उदाहरण देखें। दोहा छंद में अन्त्यानुप्रास आवश्यक होता है, अत: वह सर्वत्र है ही। छेकानुप्रास अधरों पर रख बाँसुरी, और बाँध भुजपाश / नदी आग की पी गया, फिर भी बुझी न प्यास, वृत्यानुप्रास (चंचल चितवन चंद्रमुख, चारु चंपई चीर / चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर), श्रुत्यानुप्रास ( नींद निगोड़ी बस गई, जाकर उनके पास / धीरे-धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास) , लाटानुप्रास (संजीवन की शक्ति है, प्यार प्यार बस प्यार) तथा पुनरुक्ति प्रकाश (आँखों आँखों दे दिया / मन का चाहा दान) की छटा मोहक है।
वृत्नुयाप्रास काबू का प्रिय अलंकार है-
मुख मयंक, मंजुल मुखर, मधुर मदिर मुस्कान।
मन-मरल मोहित मुदित, मनसिज मुक्त मान।।
सुमुखि सलौनी सांवरी, सुखदा सुषमा सार।
सुरभित सुमन सनेह सर, सपन सरोज संवार।।
चंचल चितवन चन्द्रमुख, चारु चंपई चीर।
चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर।।
सभंग मुख यमक (कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार ) तथा अभंग गर्भ यमक (बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास) दृष्टव्य हैं।
उपमा के १६ प्रकारों में से कुछ की झलक देखें- धर्म लुप्तोपमा (नयन तुम्हारे वेद सम), उपमेय लुप्तोपमा (हिरन सरीखी याद है, चौपाई सी चारुता), धर्मोपमेय लुप्तोपमा (अनुप्रास सी नासिका, उत्प्रेक्षा सी छवि-छटा, अक्षर से लगते अधर, मन महुआ सा हो गया)।
यमक अलंकार दोहा दरबार में हाजिरी बजा रहा है-वेणु वेणुधर की बजी, रेशम रेशम तो कहा, हुई रेशमी शाम। / रेशम रेशम सुन कहा, रेशम किसका नाम।। आदि।
श्लेष भी छूटा नहीं है, यहाँ खेत द्विअर्थी है -
सपने बोये खेत में, दी आँसू की खाद।
जब लहराती है फसल, तुम आते हो याद।।
रूपक की छवि मत्तगयंदी चाल लख, काया रस-आगार आदि में है।
कुंतल मानो काव्य घन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
संदेह अलंकार जाग रही है आँख या जाग रही है पीर, मुख सरोज या चन्द्रमा में है।
कवि अपनी प्रेयसी में सर्वत्र अलंकारों का सादृश्य देखता है-
यमक सरीखी दृष्टि है, वाणी श्लेष समान।
अतिशयोक्ति सी मधुरता, रूपक सी मुस्कान।।
विरोधाभास अलंकार 'शब्दों का है मौन व्रत', 'एकाकी संवाद' आदि में है।
दोहे जैसी देह, अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग, कोलाहल का कोर्स, यादों के स्तूप, फूल तुम्हारी याद के, कोलाहल का कोर्स, आँखों के आकाश, आँखों का अखबार, पलक पुराण आदि सरस् अभिव्यक्तियाँ पाठक को बाँधती हैं।
कवि ने शब्द युग्मों (रंग-बिरंग, भाषा-भूषा, नदी-नाव, ऊंचे-नीचे, दरस-परस, तन-मन, हर्ष-विषाद, रात-दिन, किसने-कब-कैसे आदि) का प्रयोग कुशलता से लिया है।
इन दोहों में शब्दावृत्ति (धीरे-धीरे कह गई, प्यार प्यार बस प्यार, देख-देखकर विकलता, आँखों-आँखों दे दिया, अभी-अभी जो था यहाँ, अभी-अभी है दूर, सच्ची-सच्ची बताओ, महक-महक मेंहदी कहे, मह-मह करता प्यार, खन-खन करती चूड़ियाँ, उखड़ी-उखड़ी साँस, सुंदर-सुंदर दृश्य हैं, सुंदर-सुंदर लोग, सर-सर चलती पवनिया, फर-फर उड़ते केश, घाटी-घाटी गूँजती, उजली-उजली धूप, रात-रात भर जागता, कभी-कभी ऐसा लगे, सूना-सूना घर मगर, मन-ही-मन, युगों-युगों की प्यास, अश्रु-अश्रु में फर्क है आदि) माधुर्य और लालित्य वृद्धि करती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोहों की रचना भिन्न काल तथा मन:स्थितियों में हुई तथा मुद्रण के पूर्व पाठ्य शुद्धि में सजगता नहीं रखे जा सकी। इससे उपजी त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह बदमजगी उत्पन्न करती हैं। अनुनासिक तथा अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोष भी हैं।
दोहे के विषम चरण में १४ मात्रा होने का या अधिकत्व दोष पर्वत हो जाएंगे, प्रेम रंग में जो रंगी, डूब गए मंझधार में, बहुरूपिया बन आ गया आदि में है। सम चरण में १२ मात्रा का मात्राधिक्य दोष जीवन का एहसास, पी गई कविता प्यास आदि में है। सम चरण में न्यूनत्व दोष रूपराशि अमीतिया १२ मात्रा में है।
आँखों के आकाश में, घूमें सोच-विचार में तथ्य दोष है चूँकि सोच-विचार आँख नहीं मन की क्रिया है।
अपवाद स्वरूप पदांत दोष भी है। ऐसा लगता नवोदितों के लिए काव्य दोषों के उदाहरण रखे गए हैं। इन्हें काव्य दोष शीर्षक के अंतर्गत रखा जाता तो उपयोगी होता।
ओर-छोर मन का नहीं, छोटा है आकाश।
लघुतम निर्मल रूप है, जैसे किरन उजास।।
संशय प्रिय करना नहीं, अर्पित जीवन पुण्य।
जनम-जनम तक प्रीती यह, बनी रहे अक्षुण्य।।
मन का विद्यापीठ में लिंग दोष, अक्षुण्य (अक्षुण्ण), रूचता (रुचता) अदि में टंकण दोष है।
औगुनधर्मी, मधुवंती, मधुता, पवनिया आदि नव प्रयोग मोहक हैं।
पत्रकार रहा कवि अख़बार, खबर (बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार, शरणार्थी फागुन हुआ, यही ख़बर है आज) और चर्चा (फागुन की चर्चा करो) की अर्चा न करे, यह कैसे संभव है?
कवि स्मरण वैशिष्ट्य-
सुमित्रजी ने कई दोहों में कवियों का स्मरण स्थान-स्थान पर इस तरह किया है कि वह मूल कथ्य के साथ संगुफित होकर समरस हो गया है, आरोपित नहीं प्रतीत होता-
कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वनगन्ध।
हो दोनों का मिलन जब मिटे द्वैत की धुंध।।
मन मोती यों चुन लिया, जैसे चुने मराल।
मान सरोवर जिंदगी मन हो गया मराल।
रूप-धूप है सिरजती, घनानंद रसखान।।
ले वसंत से मधुरिमा, मन होता रसखान।।
मन के हाथों बिक गए, कितने ग़ालिब-मीर।।
पलक पुलिन अश्रुज तुहिन, पुतली पंकज भान।
नयन सरोवर में बसें, साधें सलिल समान।।
खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल।
फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।
गंग वृन्द दादू वली, या रहीम मतिमान।
दोहों के रसलीन से कितने हुए इमाम।।
किन्तु बिहारी की छटा, घटा न पाया एक।।
तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने इतिहास।
कौन कहे मीरा कथा, आँसू का उपवास।।
घनानंद का अश्रुधान, अर्पित कृष्ण सुजान।
उसी अहज़रु की धार में, डूबे थे रसखान।।
आँसू डूबी साँस से, रचित ईसुरी फाग।
रजऊ ब्रम्ह थी जीव थी, ऐसा था अनुराग।।
आंसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविन्द।
विद्यापति का अश्रुदल, खिला गीत अरविन्द।।
सारत: 'यादें बनी लिबास' सुमित्र जी के मानस पटल पर विचरते विचार-परिंदों के कलरव का गुंजन है जो दोहा की लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, नव्यता, माधुर्य तथा संप्रेषणीयता के पंचतत्वों का सम्यक सम्मिश्रण कर काव्यानंद की प्रतीति कराती है। पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय कृति से हिंदी के सारस्वत कोष की अभिवृद्धि हुई है।
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
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३०-११-२०१४
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मुक्तक
चढ़ी काठ की हांडी तजकर ममता-बंधन सारे
खलिश न बाकी, कुसुम हो रहे उसे शूल भी सारे
अगन हुई राकेशी शीतल, भव-बाधा कब व्याधे
कर्माहुति दे धर्मदेव को वह पल-पल आराधे.
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दोहा
भाषा वाहक भाव की, अंतर्मन का चित्र
मित्र शत्रु है कौन-कब, कहे बिन कहे मित्र

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नवगीत:
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जो हुआ सो हुआ
.
बाँध लो मुट्ठियाँ
चल पड़ो रख कदम
जो गये, वे गये
किन्तु बाकी हैं हम
है शपथ ईश की
आँख करना न नम
नीलकण्ठित बनो
पी सको सकल गम
वृक्ष कोशिश बने
हो सफलता सुआ
.
हो चुका पूर्व में
यह नहीं है प्रथम
राह कष्टों भरी
कोशिशें हों न कम
शेष साहस अभी
है बहुत हममें दम
सूर्य हैं सच कहें
हम मिटायेंगे तम
उठ बढ़ें, जय वरें
छोड़कर हर खुआ
.
चाहते क्यों रहें
देव का हम करम?
पालते क्यों रहें
व्यर्थ मन में भरम?
श्रम करें तज शरम
साथ रहना धरम
लोक अपना बनाएंगे
फिर श्रेष्ठ हम
गन्स जल स्वेद है
माथ से जो चुआ
१-५-२०१७
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भोजपुरी दोहा का रचना विधान:
दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११ मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष स्वतः मिट जाता है. अ, इ, उ, ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ गिनी जाती हैं
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कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..
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कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.
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कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..
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जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति न मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की और कोई चाह शेष न रही.
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गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..
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अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर भोग-विलास करनेवाला निम्न है.
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नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..
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सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
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खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..
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ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.
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सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..
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शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख बाँटने कोई नहीं आएगा. इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:
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रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..
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फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..
समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.
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बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..
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दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.
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दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..
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किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर परेशान हो जाते हैं..
१-५-२०१५

***
मुक्तिका:
मौन क्यों हो?

मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..

टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..

शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..

बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों की शह से इक्के पर हैं हावी दुप्पियाँ..

तमाचों-मुक्कों ने मानी हार जिद के सामने.
मुस्कुराकर 'सलिल' जीतीं, प्यार की कुछ झप्पियाँ..
१-५-२०११
***
शे'र
माँ ने सुना कहानी भूखा सुला दिया
ऐसा करिश्मा कोई और कर नहीं सकता।
दोहा
*
महल खंडहर हो रहे, देख रहे सब मौन.
चाह न महलों की करें, ऐसे कितने? कौन?
१-५-२०१०
*