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मंगलवार, 16 नवंबर 2021

गीत, दिवाली

 गीति रचना :

बाद दीपावली के...
संजीव
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*

रविवार, 14 नवंबर 2021

समीक्षा नवगीत, योगेंद्र प्रताप मौर्य,

कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४]
*
सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना।
नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। जब यह अनुभूति सार्वजनीन संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।
शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है?
कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर
खिली हुयी
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है
भोजपुरी को ताने
गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की पहचान उसके नाम से नहीं, उसके पति के नाम से की जाती है। गागर में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन
में रहने का
छाया हुआ नशा है
लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती -आस्था से उपजी विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना
अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?
धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत
शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर
तान सो गई
जनता की सरकार
कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान
इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है
'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे, जैसे प्रयोग कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है।
रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं-
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल
विसंगियों के साथ आशावादी उत्साह का स्वर नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा प्रवाह का साक्षी है-
ले आया ऋतुओं
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
योगेंद्र नागर और ग्राम्य दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध हो पाती है। इन नवगीतों में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है -
सुबह-सुबह
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे
गले की घंटी
करता बैल किसानी
उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है-
श्रम की सच्ची
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर
चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी
लेकिन हृदय महल है
नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।
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हास्य कविता, बाल महिमा, बुंदेली गीत

बाल दिवस पर
बाल महिमा 
*
दाढ़ी-मूँछें बढ़ रहीं, बहुत बढ़ गए बाल।
क्यों न कटाते हो इन्हें, क्यों जाते हो टाल?
लालू लल्ला से कहें, होगा कभी बबाल।
कह आतंकी सुशासन, दे न जेल में डाल।।
लल्ला बोला समझिए, नई समय की चाल।
दाढ़ीवाले कर रहे, कुर्सी पकड़ धमाल।।
बाल बराबर भी नहीं, गली आपकी दाल।
बाल बाल बच रहा है, भगवा मचा बबाल।।
बाल न बाँका कर सकी, ३७० ढाल।
मूँड़ मुड़ा ओले पड़ें, तो होगा बदहाल।।
बाल सफेद न धूप में, होते लगते साल।
बाल झड़ें तो यूँ लगे, हुआ शीश कंगाल।।
सधवा लगती खोपड़ी, जब हों लंबे बाल।
हो विधवा श्रंगार बिन, बिना बाल टकसाल।।
चाल-चलन की बाल ही, देते रहे मिसाल।
बाल उगाने के लिए, लगता भारी माल।।
मौज उसी की जो बने, किसी नाक का बाल।
बाल मूँछ का मरोड़ें, दुश्मन हो बेहाल।।
तेल लगाने की कला, सिखलाते हैं बाल।
जॉनी वॉकर ने करी चंपी, हुआ निहाल।।
नागिन जैसी चाल हो, तो बल खाते बाल।
लट बन चूमें सुमुखि के, गोरे-गोरे गाल।।
दाढ़ी-मूँछ बढ़ाइए, तब सुधरेंगे हाल।
सब जग को भरमाइए, रखकर लंबे बाल।।

बुंदेली गीत 
*
पुष्पाई है शुभ सुबह,
सूरज बिंदी संग
नीलाभित नभ सज रओ
भओ रतनारो रंग
*
झाँक मुँडेरे से गौरैया डोले
भोर भई बिद्या क्यों द्वार न खोले?
घिस ले दाँत गनेस, सुरसति मुँह धो
परबतिया कर स्नान, न नाहक उठ रो
बिसनू काय करे नाहक
लछमी खों तंग
*
हाँक रओ बैला खों भोला लै लठिया
संतोसी खों रुला रओ बैरी गठिया
किसना-रधिया छिप-छिप मिल रए नीम तले
बीना ऐंपन लिए बना रई हँस सतिया
मनमानी कर रए को रोके
सबई दबंग
***
नवगीत
*
सम अर्थक हैं,
नहीं कहो क्या
जीना-मरना?
*
सीता वन में;
राम अवध में
मर-मर जीते।
मिलन बना चिर विरह
किसी पर कभी न बीते।
मूरत बने एक की,
दूजी दूर अभी भी।
तब भी, अब भी
सिर्फ सियासत, सिर्फ सुभीते।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
मरना-तरना?
*
जमुन-रेणु जल,
वेणु-विरह सह,
नील हो गया।
श्याम पीत अंबर ओढ़े
कब-कहाँ खो गया?
पूछें कुरुक्षेत्र में लाशें
हाथ लगा क्या?
लुटीं गोपियाँ,
पार्थ-शीश नत,
हृदय रो गया।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
संसद-धरना?
*
कौन जिया,
ना मरा?
एक भी नाम बताओ।
कौन मरा,
बिन जिए?
उसी के जस मिल गाओ।
लोक; प्रजा; जन; गण का
खून तंत्र हँस चूसे
गुंडालय में
कृष्ण-कोट ले
दिल दहलाओ।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
हाँ - ना करना?
***
संजीव
१३-११-१९

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
जब तक मन में चाह थी, तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं, शेष रही है चाह.
.
राम नाम की चाह कर, आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल, कभी न मिटती चाह.
.
दुनिया कहती युक्ति कर, तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर, मिल मुक्ति बिन चाह.
.
भटक रहे बिन राह ही, जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर, चले जीव संजीव.
.
मुक्तक
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है
*
१४-११-२०१७

बाल कविता, बिटिया

बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***
१४-११-२०१६ 

बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
**
*
बाल कविता:
मेरे पिता
संजीव 'सलिल'
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
*
१४-११-२०१७

शनिवार, 13 नवंबर 2021

समीक्षा, नवगीत प्रदीप कुमार शुक्ल

कृति चर्चा :
"गाँव देखता टुकुर-टुकुर" शहर कर रहा मौज
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - गाँव देखता टुकुर-टुकुर, नवगीत संग्रह, नवगीतकार - प्रदीप कुमार शुक्ल, प्रथम संस्करण, वर्ष २०१८, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक, आकार - २१ से. x १४ से., पृष्ठ १०७, मूल्य ११०/-, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क - एन.एच.१, सेक्टर डी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर मार्ग, लखनऊ २२६०१२ चलभाष ९४१५०२९७१३ ]
*
गाँव से शहरों की ओर निरंतर तथा दिन-ब-दिन बढ़ते पलायन के दुष्काल में, गाँव से आकर महानगर में बसे किन्तु यादों, संपर्कों और स्मृतियों के माध्यम से गाँव से निरन्तर जुड़े नवगीतकार डॉ. प्रदीप शुक्ल द्वारा अपने गाँव को समर्पित यह नवगीत कृति अपनी माटी में जमीं ही नहीं अपितु उससे जुडी हुई जड़ों का जीवंत दस्तावेज है। खड़ी बोली और अवधी के गंगो-जमुनी संगम को समेटे यह प्रति नवगीत पटल पर नवाचार का एक पृष्ठ जोड़ती है। पेशे से चिकित्सक डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल भली-भाँति जानते हैं कि दर्द की दवा किसी एक जीवन सत्व में नहीं, विविध जीवन सत्वों के सम्यक-समुचित समायोजन और सेवन में होती है। उनके नवगीत किसी एक तत्व को न तो अतिरेकी महत्व देते हैं, न ही किसी तत्व की अवहेलना करते हैं। मानवीय चेतना परिवेश, परंपरा और जीवन मूल्यों में विकसित होने के साथ उन्हें नवता प्रदान करती है। संवेदनशीलता नवगीत लेखन और रोग निदान दोनों के लिए उर्वरक का कार्य करती है। प्रदीप जी की बहुआयामी संवेदनशीलता "गुल्लू का गाँव" बाल गीत संग्रह में चांचल्य, "यहै बतकही" अवधी नवगीत संग्रह में पारिवारिक सारल्य तथा "अम्मा रहतीं गाँव में" एवं "गाँव देखता टुकुर-टुकुर" दोनों हिन्दी नवगीत संग्रहों में समरसता की सरस धार प्रवाहित करती है। प्रदीप जी वाचिक परंपरा में अमीर खुसरो प्रणीत कह मुकरियाँ रचने में भी निपुण हैं। यह पृष्ठभूमि उनके नवगीतों को रस, लय व् छंद से समृद्ध करती है। उनका 'रामदीन' रोजी मिलने - न मिलने के चक्रव्यूह में घिरा हगोने के बाद भी धुकुर पुकुर करते दिल से सुरसतिया की अनकही पीड़ा में साझेदार है। गाँवों से पलायन, आजीविका अवसरों का भाव, युवाओं के जाने से नष्ट होती खेती, कॉन्क्रीटी सड़कों से पशुओं के नष्ट होते खुर, गावों को निगलने के लिए तटपर शहर और अपने अस्तित्व खोने की आशंका से टुकुर-टुकुर तकते गाँव सब कुछ चंद शब्दों में बयां कर देना कवी की सामर्थ्य का परिचायक है -
यहाँ शहर में
सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा,
वहाँ गाँव में रामदीन
बस दिन उजास के जोड़ रहा
मनरेगा में काम मिलेगा?
दिल करता है धुकुर-पुकुर
सुरतिया के
दोनों लड़के
सूरत गए कमाने हैं
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगी घमाने हैं
लँगड़ाकर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकर-टुकर।
गीतज नवगीत विधा को सामाजिक विसंगति, समसामयिक विडंबना, पारिवारिक बिखराव, व्यक्तिगत दर्द, समष्टिगत पीड़ा, बेबस रुदन आदि का पर्याय माननकर शोकगीत, रुदाली या स्यापा बनाने की असफल कोशिश में निमग्न दुराग्रहियों को प्रदीप जी अपने नवगीतों में प्रकृति सौंदर्य के मनोरम शब्द चित्र अंकित कर सटीक और सशक्त उत्तर देते हैं -
जाड़े में धूप के बिछौने
गुड़हल की पत्ती से
लटक रहे मोती।
अलसाई सुबह बहुत
देर तलक सोती
खिड़की पर किरणों के
फुदक रहे छौने।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल ठीक ही लिखते हैं - "जब व्यक्ति की अनुभूति, अपनी रागात्मक अवस्था में यथार्थ को छूती है तो गीत का जन्म होता है। यथर्थ की यह आतंरिक सच्चाई जब गहन अनुभूति से शब्द-रूप में परिवर्तित होती है तो उसकी लोक संवेदना सामाजिक सरोकारों से जुड़ जाती है।" व्यक्तिगत पीड़ा का यह सार्वजनीकरण डॉ. प्रदीप शुक्ल के गीतों में सहज दृष्टव्य है किन्तु यह एकाकी या अतिरेकी नहीं है। गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह एक-दूसरे के लिए अश्पृश्य, सर्वथा भिन्न और अस्वीकार्य बनाने की जिद ठाने नासमझों को भारतीय परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों का समय सापेक्ष उल्लेख कर, प्रदीप जी अपनी रचनाओं में विद्रूपता से साथ सुरूपता का सम्यक सामंजस्य का नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हैं। 'गुलमुहर ने आज हमसे बात की' शीर्षक नवगीत की पंक्तियों में दिशाओं की महक महसूस कीजिए -
"प्यार से
पुचकार कर
उसने हमें विश्राम बोला
वहीं हमने देर तक
भटके हुए मन को टटोला
गुलमुहर ने फिर हमें
बातें कहीं उस रात की।
रात में उस रोज़
महकी थीं सभी चारों दिशाएँ
ओस भीगी रात में जब
खौल उठी थी शिराएँ
और फिर खामोशियाँ थीं
थम चुकी बरसात की
प्रदीप शुक्ल जी की अनेक रचनाएँ गीत-नवगीत दोनों के हाशियों या सीमा रेखाओं पर रची गई हैं। घर के आँगन में जाड़े की धूप का लजाना, कुहरे की चादर में शर्माना, गौरैया का उतरकर चूं-चूं-चूं बोलना, आहट सुनकर कुत्ते का आँखें खोलना और सन्नाटे का भागना जैसे छोटे-छोटे विवरण प्रदीप जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। इस परिवेश में दर्द की झालं नकली, अतिरेकी या थोपी हुई नहीं लगती। जीवन में धूप-छाँव की तरह सुख-दुख आते-जाते रहते हैं, प्रदीप जी उनका सम्यक सम्मिश्रण करने की सामर्थ्य रखते है-
खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में
आलस बिखरा
हर कोने में
दुबकी पड़ी रजाई
भोर अभी कुहरे की चादर
में बैठी शरमाई....
.... उतरी है गौरैया
आकर
चूं चूं चूं बोली
आहट सुनकर सोये कुत्ते
ने आँखें खोलीं
दबे भागा
आनन-फानन में
रात रानी की महक से सुवासित 'साँझ का गीत' कको भी महका रहा है-
खिल-खिल कर
हँसते हैं दूर खड़े तारे
अभी और चमकेंगे
रात के दुलारे
उन से ही पूछेंगे
रात की कहानी
खुशबू से महकेगी
अभी रात रानी
चंदा उग आया है
बरगद की डाल
ओ अमलतास, कनेर की बात, गुलमुहर के फूल, देखो आगे मौलसिरी है, जैसे नवगीत पादप संसार, गर्मी का गीत, फागुन, फागुन है पसरा, बरखा, बारिश, मेघा आये रे, बारिश को आना था,अगहन, जाड़े की धूप, चैट, मई का गीत, आदि ऋतुचक्र , यह भारत देश है मेरा, सीमा पर चिट्ठी, याद आयीं अम्मा में संबंधों तथा कहाँ गए तुम पानी, प्यासा रहा शहर, अच्छे दिन अभी लौटे नहीं हैं आदि सामाजिक-राजनैतिक-पर्यावरणीय विसंगतियों पर केंद्रित हैं। प्रदीप जी के गीतों की वैषयिक विविधता उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की परिचायक है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि आगामी संकलनों में रोगों पर केंद्रित दें। उनकी सृजन सामर्थ्य मौलिक और लीक से हटकर लिखने में विश्वास रखती है। 'कनेर की बात' बचपन की यादों से बाबस्ता है-
तुम कनेर की बात ना छेड़ो,
बचपन याद दिला जाता है,
हरी-भरी पतली डाली पर
एक नजर रक्खूँ माली पर
किसी तरह से मिल जाए वह
रख दूँ पूजा की थाली पर
बाबा कहते हैं ठाकुर को
पीला फूल बहुत भाता है
सामाजिक सौहार्द्र को क्षति पहुँचाते, मतभेदों को बढ़ाते नवगीतों की खरपतवार के बीच में प्रदीप शुक्ल के नवगीत पंकज पुष्पों की तरह अलग आनंदित करते हैं। इन गीतों की भाषा आक्रामक, तेवर विद्रोही, भाव मुद्रा टकराव प्रधान, भाषा पैनी, शब्द चुभते हुए नहीं हैं। रचनाकार विखंडन नहीं, सृजन और समन्वय का पक्षधर है। वह फिर से सूरज उगाने को गीत रचना का लक्ष्य मानता है। उसके गीतों में विसंगति सुसंगती स्थापित करने की पृष्ठभूमि का काम करती है। वह दर्द पर हर्ष की जय का गायक है। प्रदीप शुक्ल के नवगीत जीवन और जिजीविषा की जय गुँजाते हैं। 'मैं तो चलता हूँ' शीर्षक नवगीत प्रदीप जी के गीतों में नव हौसलों की बानगी पेश करता है। तुमको रुकना हो
रुक जाओ
मैं तो चलता हूँ.
माना बहुत कठिन है राहें
आगे बढ़ने की
मन में लेकिन है इच्छाएँ
सूरज चढ़ने की
तुम सूरज के किस्से गाओ
मैं बस चढ़ता हूँ
प्रदीप शुक्ल का चिकित्सक उन्हें सामाजिक परिवेश में नवगीतों के माध्यम से घाव लगाने या घावों को कुरेदने की मन:स्थिति से दूर है। वे गीतों के माध्यम से घावों की मरहम-पट्टी करते हैं या विसंगतियों से आहत-संत्रस्त मानों को राहत पहुँचाते हैं। सामाजिक विसंगतियों का अतिरेकी चित्रण कर, असंतोष की वृद्धि कर, जनक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े तथाकथित नवगीतकारों के रुष्ट होने या उनके द्वारा अनदेखे किए जाने जोखिम उठाकर भी डॉ. प्रदीप शुक्ल गीत-नवगीत को रस-सलिला के दो किनारे मानते हुए सटीक भाव-बिम्बों और सम्यक प्रतीकों के द्वारा हैं जो कहा जाना सामाजिक समरसता के है। प्रसाद गुण संपन्न भाषिक शब्दावली और अमिधा में बात करते ये गीत-नवगीत अवध की सरजमीं को तरह-तरह से सजदा करते हैं। दादा, आम आये, पाठक को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। इन नवगीतों में आशावादिता का जो स्वर बार-बार उभरता है वह बहुमूल्य और दुर्लभ है। ऐसा नहीं है की समाज के अमांगलिक पक्ष की और से बंद कर ली गयी हैं। नए साल में क्या बदलेगा, यह भारत देश है मेरा आदि नवगीतों में दीपक अँधेरे की किन्तु अर्चा दीपक के प्रकाश की है। भावी नवगीत को के उन्नयन का साक्षी बनकर अपनी सामायिक-सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करनी होगी, चिरजीवी होंगे। यह सृष्टि का सनातन सत्य है कि जो उपयोगी नहीं होता, मिटा जाता है। डॉ. प्रदीप शुक्ल के नवगीत अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ तथा विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के नवगीत सृजन आयोजनों की सार्थकता प्रमाणित करते हैं। जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही', गिरि मोहन गुरु, दयाराम गुप्त 'पथिक', निर्मल शुक्ल, मधु प्रधान, अशोक गीते, पूर्णिमा बर्मन, संजीव 'सलिल', संध्या सिंह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. वीरेंद्र निर्झर, बसंत शर्मा, गोपालकृष्ण 'आकुल', कल्पना रामानी, शीला पांडे,, रामशंकर वर्मा, धीरज श्रीवास्तव, शुभम श्रीवास्तव ॐ, गरिमा सक्सेना, अवनीश त्रिपाठी, शशि पुरवार, रोहित रूसिया, छाया सक्सेना, मिथिलेश बड़गैया आदि का नवगीत सृजन नवगीतों में प्रकृति, परिवेश और समाज की विसंगतियों के साथ-साथ उल्लास, आशावादिता, पर्व, श्रृंगार, आदि के माध्यम सुसंगतियों को भी शब्दांकित किया गया है। डॉ. प्रदीप शुक्ल इसी गीत-गंगा महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। भविष्य में यह नवगीतीय भावधारा अधिकाधिक पुष्ट होना है।
'गाँव देखता टुकुर-टुकुर' के नवगीत विसंगतिवादियों को भले ही रुचें किन्तु सुसंगतिवादी इनका स्वागत करने के साथ ही आगामी संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
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संपर्क - आचार्य ' सलिल', विश्ववाणी ,४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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सरस्वती वंदना मराठी, विनिता राहुरीकर

वंदे वीणावादिनी वाणी!
नमो नमो मां कंबुज पाणी!
गीत ग़ज़ल मुक्तक ची दाता!
शब्द भाव शुचि उक्ति प्रदाता !
मुक्त छंद कविता बन फूला!
चरणी चढ़वु हे सुख मूला!
ग्यान दायिनी रूप अतूला!
हो जननि मज वर अनुकूला!२
वागीशा वरदायिनी अंबा!
कमल नयनि! जय बाहू प्रलंबा!
श्वेत वसन धारिणी जगदंबा!
ग्यान दायिनी ! कृपा कदंबा!३
अमल विमल पूजित सुरवृंदा!
जय मृदुहासिनी आनन चंदा!
दुख भय हारिणि! आनंदकंदा।!
ललित !रम्य ! गति मत्तगयंदा!!४
रसन कमल राजिनी मन हंसा!
करत देव मुनि सदा प्रशंशा।
काटिनि क्लेष कुमति घन कंसा!
तिमिर गहन जाड्यापह ध्वंशा!५
ध्याऊँ मात तुला निशि वासर!
कर कृपा समझ जड़ किंकर!
कर स्नेह हे मात पुस्त-कर!
सदा दे हे अंब सुअक्षर।
मात शारदे सुंदर स्वर दे!
कल्पन सुंदर! मौन मुखर दे!
मम कल्पन घट होउ ना रीता
हेच मागती विनित विनीता!
दोहा
आई मि तनया मंद मति, तुझ चरित अपार।
शब्द सुमन चा हार माते, मझ कडून कर स्वीकार।।
©विनिता राहुरीकर

षट्पदी, मुक्तक, गीत, गहोई

षट्पदी
*
करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
***

गीत
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
१३-११-२०१६

मुक्तक :
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
*
कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
*
सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
*
कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
*
सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
*
(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

मुक्तिका

मुक्तिका 
*
अब से रंजिश न किसी तौर से पाली जाए। 
प्यार करने की कसम प्यार से खा ली जाए।। 

जान पर जान लुटा दूँ तो कोई बात नहीं। 
बात की बात में की बात, ना खाली जाए।।

बात ईमान की ईमान से करना है भला। 
हो के बेईमान न ईमान सवाली जाए।।

रखो तशरीफ़ नहीं मैकदे में गर हाली 
शान साकी की न प्याली की सम्हाली जाए।।

आज कुछ बोलते कल और ही कुछ बोल रहे।
रब्बा संसद में न गुंडा न मवाली जाए।। 

***
नवगीत
*
सहनशीलता कमजोरी है
सीनाजोरी की जय
*
गुटबंदीकर
अपनी बात कहो
ताली पिटवाओ।
अन्य विचार
न सुनो; हूटकर
शालीनता भुलाओ।
वृद्धों का
अपमान करो फिर
छाती खूब फुलाओ।
श्रम की कद्र
न करो, श्रमिक के
हितकारी कहलाओ।
बातें करें किताबी पर
आचरण न किंचित है भय
*
नहीं गीत में
छंद जरूरी
मिथ्या भ्रम फैलाते।
नव कलमों को
गलत दिशा में
नाहक ही भटकाते।
खुद छंदों में
नव प्रयोग कर
आगे बढ़ते जाते।
कम साहित्य,
सियासत ज्यादा
करें; घूम मदमाते।
मौन न हारे,
शोर न जीते,
हो छंदों की ही जय
*
एक विधा को
दूजी का उच्छिष्ट
बताकर फूलो।
इसकी टोपी
उसके सर धर
सुख-सपनों में झूलो।
गीत न आश्रित
कविता-ग़ज़लों का
यह सच भी भूलो।
थाली के पानी में
बिम्ब दिखा कह
शशि को छू लो।
छद्म दर्द का,
गुटबंदी का,
बिस्तर बँधना है तय
*
संजीव
१२-११-२०१९

अपन्हुति अलंकार

अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
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१२-११-२०१५
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल',

दोहा यमक

दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
--संजीव 'सलिल'
*

शांति सौख्य सुख चैन दो, हे मेरे सरकार!
भाव घटें; सरकार हो, खुश कुछ कर सरकार।।
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर, नौ कर दिखे न दैव.
नौकर की ही चाह क्यों, मालिक करे सदैव?
*
करे कलेजा चाक री, अधम चाकरी सौत.
सजन न आये चौथ पर, अरमानों की मौत..
*
चढ़े हुए सर कार पर, हैं सरकार समान.
सफर करे सर कार क्यों?, बिन सरदार महान..
*
चाक घिस रहे जन्म से. कोइ न समझे पीर.
गुरु को टीचर कह रहे, मंत्री जी दे पीर..
*
रखा आँख पर चीर फिर, दिया कलेजा चीर.
पीर सिया की सलिल थी, राम रहे प्राचीर..
*
पी मत खा ले जाम तू, है यह नेक सलाह.
जाम मार्ग हो तो करे, वाहन इंजिन दाह..
*
कर वट की आराधना, ब्रम्हदेव का वास.
करवट ले सो चैन से, ले अधरों पर हास..
*
१२-११-२०११

प्रार्थना

 卐 ॐ 卐

हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
*

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

ईशावास्योपनिषद सानुवाद टीका

उपनिषद का शब्द कोशीय अर्थ है समीप बैठना, गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना, भिन्नार्थ ईश्वर के समीप होकर सत्य और ब्रह्म की प्रतीति करना। उपनिषद वेदांत का सार (निचोड़) है।
ईशावास्योपनिषद
उपनिषद श्रृंखला में प्रथम स्थान प्राप्त 'ईशावास्योपनिषद' शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। केवल १८ मंत्रों में ईश्वर के गुणों का वर्णन तथा अधर्म त्याग का उपदेश है।  इस उपनिषद का प्रयोजन ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्ति है। इसमें सभी कालों में सत्कार्म करने पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में है। सभी प्राणियों में आत्मा को परमात्मा का अंश जानकर अहिंसा की शिक्षा दी गयी है। 'कण-कण में भगवान' अथवा 'कंकर कंकर में शंकर' का लोक-सत्य इस उपनिषद में अन्तर्निहित है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख ईशावास्योपनिषद में है। इस उपनिषद के आरंभ में प्रयुक्त 'ईशावास्यमिदं सर्वम्‌' पद के कारण यह 'ईशोपनिषद' अथवा 'ईशावास्योपनिषद' के नाम से विख्यात है।
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।

प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत् को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
 ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥१॥


ईश समझना हमें चाहिए, उसे दिखे जो कुछ इस जग में।
नाम रूप तज दें प्रपंच सब, मत चाहें; किसका होता धन॥१॥
*
यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥


करते हुए कर्म इस जग में, जीना चाहो सौ वर्षों तक।
जिओ कर्म करते इस जग में, किंतु न होना लिप्त कर्म में॥२॥
*
असूर्या नाम के लोक अज्ञान से अंधा बना देनेवाले तिमिर से आवृत्त हैं। अपने यथार्थ रूप को न जाननेवाले मरणोपरांत उन लोकों में जाते हैं।
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जना:।।३।।


हैं जो लोक असूर्य नाम के, घिरे हुए हैं अंधक तम से।
मरकर जाते वहीं वही जो, निज स्वरूप को जान न पाते।।३।।
*
जीव मन से अच्युत स्वरूप (स्थिर); एक और अगम्य है। इसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं पा सकतीं चूँकि यह मन से भी अधिक गतिशील है। आप निष्क्रिय रहते हुए भी अन्य का अतिक्रमण कर पाता है। वः नित्य चैतन्य आत्मतत्व ही वायु आदि देवों को जीवों की क्रियाशीलता हेतु प्रवृत्त करता है।

अनेजदेकं मनसो जैवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो S न्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।


वही तत्व अच्युत अगम्य है, परे इन्द्रियों से; मन से भी।
दौड़े आगे अन्य सभी के, अचल वायु को गति-प्रवृत्त कर।।४।। 
 *
वह आत्मा ही सोपधिक अवस्था में सक्रिय और निरुपाधिक अवस्था में निष्क्रिय होता है। वह दूर भी है और निकट भी वही है। वह अंदर भी है और बाहर भी वही है।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विंतके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।५।।


वह सक्रिय; निष्क्रिय भी है वह, दूर निकट जो भी है वह है।
वह ही अन्दर जो कुछ भी है, और वही जो कुछ बाहर है।।५।।
*
जो सब भूतों को अपने में ही देखता है और अपने आपको सब भूतों में देखता है, उसके अन्तर्मन में किसी के प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होती।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजिगुप्सते।।६।।


देख रहा जो सब भूतों को, खुद के अंदर भिन्न न जाने।
देखे खुद को सब भूतों में, कभी किसी से घृणा न करता।।६।।
*
जब सभी भूत तत्वज्ञ की दृष्टि में आत्मवत हो गए तब एकत्व अनुभव करनेवाले के लिए कौन सा मोह; कौन सा शोक रह गया?
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभू िद्वजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यते।।७।।

जो समस्त भूतों को जाने, आत्मरूप; हो गैर न कोई।
उसे मोह क्या?; उसे शोक क्या?, वह एकत्व देखता सबमें।।७।।
*
वह आत्मतत्व आकाश के समान व्यापी, शुक्र व कायारहित, अक्षत, स्थूल शरीररहित शुद्ध तथा पापहीन है। वह क्रांतदर्शी मनीषी सर्वनियन्ता स्वयं उत्पन्न होनेवाला है। उसी ने यथोचित कार्यों के लिए सब पदार्थों का निर्माण किया है।
स पर्यागाच्छुक्रमकायमव्रणस्नाविरं शुद्धपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोsर्थान्य व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।८।।

नभ सम व्याप्त, न शुक्र-लिंग-व्रण, तन बिन शुद्ध अपापी है वह।
कवि मनीषि वह सर्वनियंता, प्रगटे आप रचे सबको वह।।८।।
*
अविद्या की उपासना करनेवाले घोर तम में घिर जाते हैं और उससे भी अधिक घने अँधेरे में वे घिरते हैं जो कर्म तजकर केवल विद्या की उपासना में रत रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति, येsविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।९।।

अंधा करते तम में घिरते, करें अविद्याजनित कर्म जो।
उससे अधिक तम में घिरते वे, जो बिन कर्म लीन विद्या में।।९।।
*
अविद्यात्मक कर्मों के अनुष्ठान से दूसरा ही फल मिलता है, ऐसा धीर जनों से हमने सुना है जिन्होंने कर्म और ज्ञान का व्याख्यान किया है।
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१०।।

कर्म अविद्या-विद्या मय जो, उनका फल कुछ अन्य बताया।
सुना धीर पुरुषों से हमने, जिनने वह व्याख्यान किया है।।१०।।
*
विद्या और अविद्या दोनों को जो एक ही पुरुष द्वारा अनुष्ठेय समझता है, वह अविद्या के अनुष्ठान से मृत्यु का अतिक्रमण कर बाद में विद्या के प्रभाव से अमर हो जाता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।११।।

विद्या और अविद्या दोनों, एक पुरुष कृत जो समझे वह।
जीते मृत्यु अविद्या से फिर, होता अमर आत्म विद्या से।।११।।
*
अँधा बना देनेवाले सघन तम में प्रवेश कर जड़ हो जाते हैं वे जो सर्वव्यापी एकात्मभाव को भूलकर जो प्रकृति की उपासना करते हैं और उससे भी अधिक तम से घिर जाते हैं वे जो हिरण्यगर्भ नामक कार्यब्रह्म में ही रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति येsसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यांरता:।।१२।।

अंधक तम घुस जड़ होते वे, जो प्रकृति को उपासते हैं।
और सघन तम घिर जड़ होते, वे जो कार्यब्रह्म में रहते।।१२।।
*
संभव (कार्यब्रह्म) और असंभव (अव्याकृत प्रकृति) की अलग-अलग उपासना का फल, दोनों के समुच्चयित पूजन के फल से भिन्न है, ऐसा हमने धीर पुरुषों से सुना है जिन्होंने इस तत्व का साक्षात्कार किया है।
अन्य देवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसंभवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१३।।

संभव और असंभव पूजन, अलग करें फल अलग मिलें तब।
ब्रह्म-प्रकृति सह पूजन का फल, भिन्न सुना है धीर जनों से।।१३।।
*
जो यह समझता है कि संभूति और विनाश इन दोनों का साथ ही साथ एक ही व्यक्ति के द्वारा अनुष्ठान होना चाहिए, वह विनाश से मृत्यु को पार कर, असंभूति से अमृतत्व पाता है।
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्वा संभूत्यामृतमश्नुते।।१४।।ईजटख


ब्रह्म-प्रकृति की सह उपासना, अनुष्ठेय होता जिसको वह।
करता पार विनाश-मृत्यु को, और अमृत को पा लेता है।।१४।।
*
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥


कनक पात्र से ढका सत्य मुख, तुम दो हटा आवरण उसका। 
सब का पालन करनेवाले, हे प्रभु! सत्य-धर्म पालूँ मैं॥१५॥

सकल जगत का पोषण करने और अकेले चलनेवाले हे पूषा!, यम!, सूर्य!  तथा प्रजापति पुत्र! तुम अपने किरण जाल को दूर करो ताकि मैं तुम्हारा सर्व कल्याणकारी देख सकूँ, जो हर प्राणी में तथा मुझमें भी भासमान है।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह। 
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योsसावसौ पुरुष: सोsहमस्मि॥१६॥       
  
जगपोषक पूषा एकाकी, यम रवि प्रजापति सुत किरणें। 
लो समेट, छवि कल्याणी मैं, देख सकूँ जो सबमें-मुझमें॥१६॥  

प्राण वायु, सकल सृष्टि में व्याप्त वायु में विलीन हो जाए, अंत में शरीर भस्म हो जाए, मन जीवन में जो कुछ किया उसे स्मरण कर, स्मरण करने योग्य परम ब्रह्म को स्मरण करे।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरं। 
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥१७॥ 

प्राण वायु सर्वात्म वायु में, हो विलीन;हो भस्म देह यह। 
याद ब्रह्म को; निज कर्मों को,करो याद जो याद-योग्य हो॥१७॥

हे अग्नि देव! अच्छी राह से हमें ले चलो। तुम सब कर्मों को जानते हो। हमसे पाप कर्मों को दूर करो। हम तुम्हें बार बार नमन करते हैं। 
अग्ने नय सुपथा राये असमान्, विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। 
युयोध्यस्मज्जहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥१८॥    

अग्नि! ले चलो सुपथ पर मुझे, कर्म-ज्ञान-फल ज्ञाता हो तुम। 
दूर करो मुझसे पापों को, बार-बार मैं नमन कर रहा॥१८॥       

।। इति श्री भगवत्पूज्यपाद के शिष्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री शंकर भगवत रचित वाजपेव संहिता उपनिषद काव्यानुवाद टीका पूर्ण हुई।। 
***


प्रभु के प्रेम को जानें
यह बताता है कि प्रभु को कैसे पाया जाये, आप अपने लिए उसके प्रेम को कैसे अनुभव कर सकते हैं।
इसका अर्थ यही है कि परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। हे अग्ने! हे विश्व के अधिष्ठाता! आप कर्म-मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। आप हमें पाप कर्मों से बचायें और हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करें। यही हम बार-बार नमन करते हैं। ईशावास्य उपनिषद में संभूति तथा असंभूति, विद्या तथा अविद्या के परस्पर भेद का ही स्पष्ट निदर्शन है। अंत में आदित्यजगत पुरुष के साथ आत्मा की एकता प्रतिपादित कर कर्मी और उपासक को संसार के दु:खों से कैसे मोक्ष प्राप्त होता है, इसका भी निर्देश किया गया है। फलत: लघुकाय होने पर भी यह उपनिषद अपनी नवीन दृष्टि के कारण उपनिषदों में नितांत महनीय माना गया है।








ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥१॥




कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥




असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जना:।।३ ।।




अनेजदेकं मनसो जैवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो S न्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।




तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विंतके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।५।.