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सोमवार, 16 अगस्त 2021

मुक्तक

मुक्तक सलिला :
संजीव
*
नयन में शत सपने सुकुमार
अधर का गीत करे श्रृंगार
दंत शोभित ज्यों मुक्तामाल
केश नागिन नर्तित बलिहार
*
भौंह ज्यों प्रत्यंचा ली तान
दृष्टि पत्थर में फूंके जान
नासिका ऊँची रहे सदैव
भाल का किंचित घटे न मान
*
सुराही कंठ बोल अनमोल
कर्ण में मिसरी सी दे घोल
कपोलों पर गुलाब खिल लाल
रहे नपनों-सपनों को तोल
*

कविता

एक कविता :
होता था घर एक.
संजीव 'सलिल'
*
शायद बच्चे पढेंगे'
होता था घर एक.'
शब्द चित्र अंकित किया
मित्र कार्य यह नेक.
अब नगरों में फ्लैट हैं,
बंगले औ' डुप्लेक्स.
फार्म हाउस का समय है
मिलते मल्टीप्लेक्स.
बेघर खुद को कर रहे
तोड़-तोड़ घर आज.
इसीलिये गायब खुशी
हर कोई नाराज़.
घर न इमारत-भवन है
घर होता सम्बन्ध.
नाते निभाते हैं जहाँ
बिना किसी अनुबंध.
बना फेसबुक भी 'सलिल'
घर की नयी मिसाल.
नाते नव नित बन रहे
देखें आप कमाल.
बिना मिले भी मन मिले,
होती जब तकरार.
दूजे पल ही बिखरता
निर्मल-निश्छल प्यार.
मतभेदों को हम नहीं
बना रहे मन-भेद.
लगे किसी को ठेस तो
सबको होता खेद.
नेह नर्मदा निरंतर
रहे प्रवाहित मित्र.
'फेसबुक' घर का बने
'सलिल' सनातन चित्र..
१६-८-२०१० 
*

रविवार, 15 अगस्त 2021

समीक्षा ओ मेरी तुम

कृति चर्चा : 
प्रणय-ऋचाओं का गुलदस्ता-‘ओ मेरी तुम’
सुरेन्द्र सिंह पँवार
*
गीत सृजन की सुदीर्घ शृंखला में अविराम साधना रत साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका यश:-सौरभ विंध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत मालाओं के सदृश भारत में विस्तृत है। ‘ओ मेरी तुम’ उनका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है, जिसमें 53 गीत-नवगीत और 52 दोहे (43 खड़ी बोली+9 बुन्देली) संग्रहित हैं। गीतकार ने गत सुधियों में विचरण करते मन की अनुभूतियों का शब्दांकन इन शृंगारिक गीतों-नवगीतों-दोहों में किया है। कृति कार सलिल ने अपनी ‘साधना’ (अर्धांगिनी डॉ साधना वर्मा) को उनकी अधि वार्षिकी-आयु पूर्ण होने (सेवा-निवृति) पर यह अनमोल कृति सृजित, संपादित, समर्पित और प्रकाशित की है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि नितांत निजी पलों में अनुभूत सत्य की यह अभिव्यक्ति प्रणय-ऋचाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जिसे भेंट कर उन्होंने अपनी जीवन संगिनी के अमूल्य अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन माना है।

गीतकार संजीव सुखद वैवाहिक जीवन(परिणय तिथि---01/31/1985) के तीस साल बाद, जब अपने विवाह-संस्कार की मधुर स्मृति में गोता लगाते हैं, फ्लेश-बैक में जाते हैं, विशेषकर ‘कन्यादान’ और ‘सिंदूर दान’ जैसी रस्में---- तब माँग भरने के बदले कन्या को ‘वर’ का दान करने और ‘कन्या का दान’ मिलने पर अपनी ‘जिंदगी को दान करने’ की उनकी माँग शिष्ट व विशिष्ट है। रस्मों और रीति-रिवाजों की ऐसी आदर्श व्याख्या-- सलिल जैसा भारतीय संस्कारों और परंपराओं का पुजारी ही कर सकता है।

माँग इतनी/माँग भर दूँ। आपको वर/ दान कर दूँ। मिले कन्या/दान मुझको, जिंदगी को दान कर दूँ॥(चाहता मन/पृष्ठ 10-11)

गीतकार सलिल एक सिविल इंजीनियर हैं; ईंट, पत्थर, लोहा और कंक्रीट जैसी सख्त और बेजान चीजों से गगनचुंबी इमारतें, सीधी-सपाट सड़कें और सड़क-सेतुओं के निर्माण के बहाने सुंदर तम [आधारभूत] सृजन उनका व्यवसाय रहा है। लेकिन उनका यह भी अटूट विश्वास है कि एक गुणवंत नारी जब अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी संभालती है तब ईंट-गारे की चारदीवारी से घिरा मकान, घर बनता है और-तभी सारे सपने, अपने बनकर किलकारी कर मचलने लगते हैं---

मृग नयनी को/ गजगामिनी होते देखा तो, मकाँ बन गया/ पल भर में घर।(तुम सोईं/31)

देखने की बात यह है कि संयोग और वियोग के धरातल पर रचे संग्रह के सभी शृंगारक गीतों के उद्दीपन में प्रकृति का विशेष उपादान है, जैसे- उषा की अरुणाई, कोकिल-स्वर, कमल दल, पनघट, पुरवैया के झौंके, महकता मोंगरा , अमलतास, मन महुआ, नीड़ लौटे परिंदे, चाँदनी, छिटके तारे, सावन, फागुन, पावस, हरसिंगार का मुस्काना, नंदन वन में चंदन-वंदन, हिरनिया की तरह कुलाँचें भरना, मरुवन का हरा होना। विभाव, अनुभव और संचारी भावों से परिपुष्ट स्थायी भाव रति को जागरण की स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय संयोग में मिलता है। शृंगार रस के देवता लक्ष्मी और विष्णु माने गए है जो सृष्टि के पोषण, पालन प्रक्रिया के संचालक हैं और यही भाव सुघड़-गृहिणी के सृष्टि-क्रम का साधन-यज्ञ है। गीतकार ने अपनी नायिका को सद्य:स्नाता कहा है और उसकी चेष्टा, मुद्राओं और कार्य व्यापार का सम्यक चित्रण किया है। विद्यापति के गीतों से सद्य:स्नाता का संदर्भ तलाशा तो उसका सीधा- सीधा अर्थ मिला, “अभी-अभी नहाई नायिका”। ऐसी नायिका की सलिल-क्रीड़ाओं को देखकर सौन्दर्य-भोगी ‘सलिल’ का हृदय पंच-शरों (कामदेव के पाँच तीरों- सम्मोहन, उन्मादन, स्तंभन, शोषण, तापन) से बिंध जाता है और उस अंतरंग क्षण की सुखद-स्मृति, जो संग्रह के गीतों-नवगीतों में है, में डूबने-अतराने लगता है। ‘ओ मेरी तुम’ के हमारे समाज में, जहाँ पति-पत्नी एक दूसरे का नाम नहीं लेते, ‘ऐ जी’, ‘ओ जी’ जैसे संबोधनों के अभ्यस्त हैं, स्नेह (दाम्पत्य-संबंधों) की सार्वजनिक स्वीकृति की परंपरा परिवारों में नहीं है। गीतकार सलिल ने इसे आरंभ कर तनिक जोखिम अवश्य उठाया है। उनका एक प्रयोग,----

चिबुक निशानी / लिए, देह की/इठलाया है।

बिखरी लट, फैला काजल भी/ इतराया ह

टूट बाजूबंद/ प्राण-पल/जोड़ गया है!

कँगना खनका/ प्रणय राग गा/ मुस्काया है।

बुझी पिपासा / तनिक, देह भई/ कुसमित टहनी/

ओ मृग नयनी! ओ पिक बयनी !! ओ मेरी तुम। (ओ मेरी तुम/पृष्ठ 68-69)

देखा जाए तो; गीतकार ने जब-जब वियोग के गीत गाये हैं, वे ‘संयोग’ से ज्यादा मुखर हुए हैं। नायिका का किसी कार्य वश प्रवास ( मायके) में होने पर संतृप्त नायक की स्थिति अलका पुरी से निष्कासित यक्ष के समान होती है जो अपनी प्रेमिका को मेघ के माध्यम से संदेश भेजता है--- गीत ‘बिन तुम्हारे’ में विरह का वैसा-ही हृदय स्पर्शी वर्णन किया गया है, विशेषकर उद्दीपन— जो सर्वथा मौलिक हैं, सहज-सरल हैं, अपने से जिए-भोगे हैं। --

द्वार पर कुंडी खटकती / भरम मन का जानकर भी/ दृष्टि राहों पर अटकती।

अनमने मन/चाय की ले/चाह, जगकर नहीं जगना ।

दूध का गंजी में फटना/या उफन गिरना-बिखरना।

साथियों से/ बिना कारण /उलझना, कुछ भूल जाना।

अकेले में गीत कोई / पुराना फिर गुनगुनाना।

साँझ बोझिल पाँव/ तन का श्रांत/ मन का क्लांत होना।

याद के बागों में कुछ/ कलमें लगाना, बीज बोना।

विगत पल्लव के तले/ इस आज को/फिर-फिर भुलाना।

कान बजना/ कभी खुद पर/खुद लुभाना-मुस्कराना।(पृष्ठ/४८-४९)

और; यहाँ तो विप्रलंभ की पराकाष्ठा ही हो गई, जब वियोगी गा उठा-

बिना तुम्हारे

सूर्य उगता

पर नहीं होता सबेरा। (बिना तुम्हारे/पृष्ठ 48)

इतर इससे, उम्र और अनुभव के इस पड़ाव में गीतकार का अध्यात्म की तरफ झुक जाना आश्चर्य चकित नहीं करता। उसका दैहिक-सौन्दर्य से परे आत्मीय-सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होना सहज है, स्वाभाविक है। द्वैत तज अद्वैत का वरण इसकी अंतिम फल श्रुति है।

मैं तुम हम बनकर हर पल को/ बांटे आजीवन खुशहाली। (तुम बिन/पृष्ठ 34)

संग्रह में ज्यादातर गीत, नवगीत के साँचे में ढले हैं। यानी उनमें एक मुखड़ा है, दो से तीन अंतरे हैं, मुखड़ों की पंक्ति-संख्या या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा संख्या का कोई बंधन नहीं है। यद्यपि मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान पद भार की पंक्ति प्रत्येक अंतरे के अंत में विद्यमान है, जिसे गाने के बाद मुखड़े को दोहराए जाने से निरन्तरता की प्रतीति होती है। इन गीतों–नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी तरफ मृदुल-हास है, नोक-झौंक है, रूठना-मनाना है। एक लाक्षणिक दृश्य है; जहां बावरा-सजन परिजनों की उपस्थिति में सजनी से न मिल पाने के कारण खीजता है, ऐसी स्थिति में गीत के शब्द अपने साधारण या प्रचलित अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ बतलाने लगते हैं—

लल्ली-लल्ला करते हल्ला/ देवर बना हुआ दुमछल्ला/

ननद सहेली बनी न छोड़े/ भौजाई का पल भर पल्ला। (तुम मुस्काई-2/41)

संग्रह के गीतों–नवगीतों की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे यथा- तन्नक (थोड़ा/बुन्देली), मुतकी (अधिक-स्त्रीलिंग/बुन्देली), फुनिया (अंग्रेजी शब्द फोन से व्युत्पति जिसका देशज अर्थ टेलीफोन या मोबाइल पर निरर्थक चर्चा से है), सुड़की चाय (देशज-चाय को सुड़ककर पीना), राह काट गई करिया बिल्ली (एक रूढ़िगत मुहावरा/ ‘बिल्ली ने रास्ता काटा’ का बुन्देली संस्करण), चंदा–तारे हिरा गए (अदृश्य हो जाने को या गुम जाने को बुन्देली में ‘हिरा गए’ प्रचलित है) के प्रयोग से लाया गया टटकापन विशिष्ट है। यदि दोहा एवं सोरठा को प्रयुक्त कर तुम हो या (पृष्ठ- 50/51)। हरिगीतिका छंद में सजनी मिलो (पृष्ठ-61), दस मात्रिक दैशिक छंद पर आधारित मखमली-मखमली (पृष्ठ-106), दोहा सलिला मुग्ध (पृष्ठ-107/111), बुन्देली दोहे (पृष्ठ-112) तथा तुमको देखा (पृष्ठ-56-57), तुम क्या जानो (पृष्ठ -58), मनुहार (पृष्ठ-59), तुम कैसे (पृष्ठ-60), धूल में फूल (पृष्ठ-62), मन का इकतारा (पृष्ठ-63) की गजल-सजल छोड़ दी जाए तो शेष गीत, नवगीत की ही शैली में हैं। वैसे लोक-शैली या धुनो पर दो-एक गीत/नवगीत और होते तो पढ़ने का आनंद दुगना हो जाता। इन गीतों-नवगीतों में अलंकारिकता के प्रति अधिक रुझान नहीं है, फिर भी ‘बरगद बब्बा’ या ‘सूरज ससुरा’ जैसे उपमेय-उपमान और ‘मन्मथ भजते अंतर्मन मथ’ जैसे यमक के साथ पुनरुक्ति[SSP1] प्रकाश अलंकारों व पद-मैत्री अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। पूर्ण पुनरुक्त पदावली—खनक-खनक, टप-टप, झूल-झूल, अपूर्ण पुनरुक्त पदावली— तुड़ी-मुड़ी, ऐ जी-ओ जी, तन-मन-धन, शारदा-रमा-उमा, विरोधाभाषी शब्द-सुख-दुःख, ज्ञान-कर्म, धरा -गगन, मिलन-विरह व सहयोगी शब्दों-ठुमरी-ख्याल, कथा-वार्ता, चूल्हा–चौका, नख-शिख के प्रयोग के प्रति गीतकार जागरूक रहा है। कुछ गीतों-नवगीतों में सलिल (तख्खलुस/उपनाम) का पर्यायवाची अर्थ में तथा ‘नेह नर्मदा’ ‘द्वैत-अद्वैत’ जैसी शब्दावलियों के प्रयोग के प्रति आसक्ति दिखाई देती है। ऐसे ही प्रस्तुत मकता (मक्तअ) में

सच का सूत न समय कात पाया लेकिन

सच की चादर सलिल कबीरा तहता है।(मन का इकतारा/पृष्ठ63)

में सूत और चादर के साथ ‘सच’ की आवृति, पुनरावृत्ति दोष है।--- सलिल रसज्ञ हैं,--- भाषा-विज्ञानी हैं,--- शब्दों के जादूगर हैं, वे ऐसी अपरिहार्य स्थिति को टालने में समर्थ हैं। हाँ, एक शे’र में अतिशयोक्ति का प्रशस्त-प्रयोग है,

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे।

कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या, कर गुजरा तरुणाई में॥ (तुम क्या जानो /58)

“गीत” को परिभाषित करते हुए अनंत राम ‘अनंत’ लिखते हैं,-- “गीत कविता का अनुभूति एवं विशुद्ध भाव-प्रणव वह अंतर्मुखी रूप है, जिसमें कवि की वैयक्तिक अभिरुचियाँ, परिवेशगत संस्कार, विचार तथा उसके राग-विराग पूरे उन्मेष के साथ उभर कर सामने आते हैं”। वहीं “नवगीत” को व्याख्यायित करते हुए आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने एक आलेख में लिखा है कि “नवगीत में आम-आदमी को या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है”। उक्त परिप्रेक्ष्य में समीक्ष्य संग्रह ‘ओ मेरी तुम’ के गीत–नवगीत कथ्य, भाषा-सौष्ठव, भाषा-शक्ति, भाव-प्रवणता, अर्थ, ध्वनि एवं नाद सौन्दर्य के अप्रतिम उदाहरण हैं। इनमें लास्य है ! चारुत्व है !! माधुर्य है !!! परंतु ऐसा भी हो सकता है कि नवगीत की सारी अर्हता पूरी करने के बावजूद इन में ‘काल है संक्रांति का’ (सलिल का पहला नवगीत संकलन/2016 )-जैसा समष्टि के प्रति झुकाव और ‘सड़क पर’ ( सलिल का दूसरा नवगीत संकलन/2018)-जैसा आम-आदमी के पक्ष में खड़े होने का भाव न होने से नवगीत के धुरंधर इन्हें पहली-पाँत (पंक्ति) में बिठाने में कतिपय संकोच करें। अत: मेरा यह व्यक्तिगत सुझाव है कि इन गीतों को ‘शृंगार परक गीत’ या ‘प्रणय-ऋचाएं’ संज्ञापित करना अधिक तर्क-संगत होगा, बनिस्बत नवगीत के।


समन्वय प्रकाशन संस्थान, जबलपुर से प्रकाशित और श्रीपाल प्रिंटर्स से मुद्रित समीक्ष्य-संकलन ‘ओ मेरी तुम’ का आकर्षक-आवरण शीर्षक के अनुरूप है। किताब के करीने से तराशे कोने इसकी दूसरी खूबी है। यदि प्रिन्ट-लाइन और प्रिंटर्स-डेविल्स (मुद्रण-की-भूलें) को अनदेखा किया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय कृति है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ द्वारा सृजित और संकलित ये उपहार-गीत---गीतकार की अंतरंग भावनाओं का आवेग है, अंतरतम विचारों की अभिव्यक्ति है, आत्मीय-संबंधों की आश्वस्त है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये गीत उनके अधरों का शृंगार हैं, जिनके लिए लिखे गए।----- श्रम सार्थक हुआ। देर-सबेर जब सुधी-पाठक इनमें डूबेंगे, तो उन्हें भी पर्याप्त रस प्राप्त होगा, ऐसा विश्वास है।

201,शास्त्रीनगर,गढ़ा,जबलपुर(मध्य प्रदेश)-482003/ 9300104296/7000388332




राष्ट्रगीत

!! हमारा राष्ट्रगीत !!
[ इसका प्रथम पद ही हम गाते हैं ]
*
जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा
द्राविड़-उत्कल-बंग
विन्ध्य-हिमाचल, यमुना-गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जय गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा
युग-युग धावित यात्री
हे चिर-सारथी
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माँझे
तव शंखध्वनि बाजे
संकट-दुख-श्राता
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथ
पीड़ित मूर्च्छित-देशे
जागृत दिल तव अविचल मंगल
नत-नत-नयन अनिमेष
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करिजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता
जन-गण-मन-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे !
जय-जय-जय, जय हे
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूरब-उदय-गिरि-भाले
साहे विहंगम, पूर्ण समीरण
नव-जीवन-रस ढाले
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
- रवीन्द्रनाथ टैगोर  

दोहा पचेली

दोहा पचेली में
*
ठाँड़ी खेती खेत में, जब लौं अपनी नांय।
गाभिन गैया ताकियो, जब लौं नई बिआय।।
*
नीलकंठ कीरा भखैं, हमें दरस से काम।
कथरिन खों फेंकें नई, चिलरन भले तमाम।।
*
बाप न मारी लोखरी, बीटा तीरंदाज।
बात मम्योरे की करें, मामा से तज लाज।।
*
पानी में रै कहें करें, बे मगरा सें बैर।
बैठो मगरा-पीठ पे, बानर करबे सैर।।
*
घर खों बैरी ढा रओ, लंका कैसो पाप।
कूकुर धोए बच्छ हो, कबऊँ न बचियो आप।।
*
६.८.२०१८

हिंदी है

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
******

मुक्तक

स्वाधीनता दिवस पर :
मुक्तक
संजीव
*
शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे
*
जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो
*
मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए
*
और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है
*
प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम
*
गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए
*
स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें
*
हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए
*
धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह
*
नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा
*
तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता
*
धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब
*
लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा
*
धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो
*
शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम
=====

दोहागीत

सामयिक दोहागीत:
क्या सचमुच?
संजीव
*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत
स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत
संसद में भी कर रहे
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार
सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय
बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर
मना रहे आनंद
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद
दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून
सत्ता की ऑंखें 'सलिल'
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*

व्यंग्य कविता

सामयिक व्यंग्य कविता:
मौसमी बुखार
संजीव 'सलिल'
**
अमरीकनों ने डटकर खाए
सूअर मांस के व्यंजन
और सारी दुनिया को निर्यात किया
शूकर ज्वर अर्थात स्वाइन फ़्लू
ग्लोबलाइजेशन अर्थात
वैश्वीकरण का सुदृढ़ क्लू..
*
वसुधैव कुटुम्बकम'
भारत की सभ्यता का अंग है
हमारी संवेदना और सहानुभूति से
सारी दुनिया दंग है.
हमने पश्चिम की अन्य अनेक बुराइयों की तरह
स्वाइन फ़्लू को भी
गले से लगा लिया.
और फिर शिकार हुए मरीजों को
कुत्तों की मौत मरने से बचा लिया
अर्थात डॉक्टरों की देख-रेख में
मौत के मुँह में जाने का सौभाग्य (?) दिलाकर
विकसित होने का तमगा पा लिया.
*
प्रभु ने शूकर ज्वर का
भारतीयकरण कर दिया
उससे भी अधिक खतरनाक
मौसमी ज्वर ने
नेताओं और कवियों की
खाल में घर कर लिया.
स्वाधीनता दिवस निकट आते ही
घडियाली देश-प्रेम का कीटाणु,
पर्यवरण दिवस निकट आते ही
प्रकृति-प्रेम का विषाणु,
हिन्दी दिवस निकट आते ही
हिन्दी प्रेम का रोगाणु,
मित्रता दिवस निकट आते ही
भाई-चारे का बैक्टीरिया और
वैलेंटाइन दिवस निकट आते ही
प्रेम-प्रदर्शन का लवेरिया
हमारी रगों में दौड़ने लगता है.
*
'एकोहम बहुस्याम' और'
विश्वैकनीडं' के सिद्धांत के अनुसार
विदेशों की 'डे' परंपरा के
समर्थन और विरोध में
सड़कों पर हुल्लड़कामी हुड़दंगों में
आशातीत वृद्धि हो जाती है.
लाखों टन कागज़ पर
विज्ञप्तियाँ छपाकर
वक्तव्यवीरों की आत्मा
गदगदायमान होकर
अगले अवसर की तलाश में जुट जाती है.
मौसमी बुखार की हर फसल
दूरदर्शनी कार्यक्रमों,संसद व् विधायिका के सत्रों का
कत्ले-आम कर देती है
और जनता जाने-अनजाने
अपने खून-पसीने की कमाई का
खून होते देख आँसू बहाती है.
१५-८-२०१० 
***

शनिवार, 14 अगस्त 2021

मुक्तिका

मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
**
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में मेरे, तेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
११-८-२०१०

**********************************

मुक्तक

मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
*****

गले मिले दोहा यमक

गले मिले दोहा यमक
*
अजब गजब दुनिया सलिल, दिखा रही है रंग.
रंग बदलती है कभी, कभी कर रही जंग.
*
जंग करे बेबात ही, नापाकी है पाक
जंग लगी है अक्ल में, तनिक न बाकी धाक
*
तंग कर रहे और को, जो उनका दिल तंग
भंग हुआ सपना तुरत, जैसे उत्तरी भंग
*
संगदिलों को मत रखें, सलिल कभी भी संग
गंग नहाएँ दूर हो, नहीं लगाएँ अंग
*
हल्ला-गुल्ला शब्द है,
मौन करे संवाद।
क्वीन जिया में पैठकर
करे विहँस आबाद।
क्या लेना है शब्द से,
रखें भाव से काम।
नहीं शब्द से काम से,
ही होता है नाम।
*

नवगीत

नवगीत
*
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
गए विदेशी दूर
स्वदेशी अफसर
हुए पराए.
सत्ता-सुविधा लीन
हुए जन प्रतिनिधि
खेले-खाए.
कृषक, श्रमिक,
अभियंता शोषित
शिक्षक है अस्थाई.
न्याय व्यवस्था
अंधी-बहरी, है
दयालु नाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
अस्पताल है
डॉक्टर गायब
रोगी राम भरोसे.
अंगरेजी में
मँहगी औषधि
लिखें, कंपनी पोसे.
दस प्रतिशत ने
अस्सी प्रतिशत
देश संपदा पाई.
देशभक्त पर
सौ बंदिश हैं
कृपा देश-घाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*

बरवै-दोहा गीत

बरवै-दोहा गीत:
*
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
कल तक आए नहीं तो,
रहे जोड़ते हाथ.
आज आ गए बरसने,
जोड़ रहा जग हाथ.
करें भरोसा किसका
हो निश्शंक?
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
अनावृष्टि से काँपती,
कहीं मनुज की जान.
अधिक वृष्टि ले रही है,
कहीं निकाले जान.
निष्ठुर नियति चुभाती
जैसे डंक
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
*
बादल-सांसद गरजते,
एक साथ मिल आज.
बंटाढार हुआ 'सलिल'
बिगड़े सबके काज.
घर का भेदी ढाता
जैसे लंक
मेघा गरजे बरसे,
है आतंक
****
१४.८.२०१८

गीत

गीत -
हम
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
१४-८-२०१७
*

नवगीत

नवगीत :
संजीव
*
सब्जी-चाँवल,
आटा-दाल
देख रसोई
हुई निहाल
*
चूहा झाँके आँखें फाड़
बना कनस्तर खाली आड़
चूल्हा काँखा, विवश जला
ज्यों-त्यों ऊगा सूर्य, बला
धुँआ करें सीती लकड़ी
खों-खों सुन भागी मकड़ी
फूँक मार बेहाल हुई
घर-लछमी चुप लाल हुई
गौरैया झींके
बदहाल
मुनिया जाएगी
हुआ बबाल
*
माचिस-तीली आग लगा
झुलसी देता समय दगा
दाना ले झटपट भागी
चीटी सह न सकी आगी
कैथ, चटनी, नोंन, मिरच
प्याज़ याद आये, सच बच
आसमान को छूटे भाव
जैसे-तैसे करें निभाव
तिलचट्टा है
सुस्त निढाल
छिपी छिपकली
बन कर काल
*
पुंगी रोटी खा लल्ला
हँस थामे धोती पल्ला
सदा सुहागन लाई चाय
मगन मोगरा करता हाय
खनकी चूड़ी दैया रे!
पायल बाजी मैया रे!
नैन उठे मिल झुक हैं बंद
कहे-अनकहे मादक छंद
दो दिल धड़के,
कर करताल
बजा मँजीरा
लख भूचाल
*
'दाल जल रही' कह निकरी
डुकरो कहे 'बहू बिगरी,
मत बौरा, जा टैम भया
रासन लइयो साँझ नया'
दमा खाँसता, झुकी कमर
उमर घटे पर रोग अमर
चूं-चूं खोल किवार निकल
जाते हेरे नज़र पिघल
'गबरू कभऊँ
न होय निढाल
करियो किरपा
राम दयाल'
१४-८-२०१५ 
*

कुण्डलियाँ

कुण्डलियाँ:
आती उजली भोर..
संजीव 'सलिल'
*
छाती छाती ठोंककर, छा ती है चहुँ ओर.
जाग सम्हल सरकार जा, आती उजली भोर..
आती उजली भोर, न बंदिश व्यर्थ लगाओ.
जनगण-प्रतिनिधि अन्ना, को सादर बुलवाओ..
कहे 'सलिल' कविराय, ना नादिरशाही भाती.
आम आदमी खड़ा, वज्र कर अपनी छाती..
*
रामदेव से छल किया, चल शकुनी सी चाल.
अन्ना से मत कर कपट, आयेगा भूचाल..
आएगा भूचाल, पलट जायेगी सत्ता.
पल में कट जायेगा, रे मनमोहन पत्ता..
नहीं बचे सरकार नाम होगा बदनाम.
लोकपाल से क्यों डरता? कर कर इसे सलाम..
*
अनशन पर प्रतिबन्ध है, क्यों, बतला इसका राज?
जनगण-मन को कुचलना, नहीं सुहाता काज..
नहीं सुहाता काज, लाज थोड़ी तो कर ले.
क्या मुँह ले फहराय तिरंगा? सच को स्वर दे..
चोरों का सरदार बना ईमानदार मन.
तज कुर्सी आ तू भी कर ले अब तो अनशन..
१४-८-२०११ 
*

हास्य आल्हा

बुंदेली लोकमानस में प्रतिष्ठित छंद आल्हा :

तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..

कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..

नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..

बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
१४-८-२०११ 

गीत

स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना:
गीत
भारत माँ को नमन करें....
संजीव 'सलिल'
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर

राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर

सद्भावों की करें साधना 
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से'

जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचाएं
नदियाँ-झरने गान सुनाएँ
पंछी कलरव कर इठलायें

भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे

सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
१४-८-२०१० 
***

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
जंगल में
जनतंत्र आ गया
पशु खुश हैं
मन-मंत्र भा गया
गुराएँ-चीखें-रम्भाएँ
काँव-काँव का
यंत्र भा गया
कपटी गीदड़
पूजता बाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
शतुरमुर्ग-गर्दभ
हैं प्रतिनिधि
स्वार्थ साधते
गेंडे हर विधि
शूकर संविधान
परिषद में
गिद्ध रखें
परदेश में निधि
पापी जाते
काशी-काबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
मानुष कैट-वाक्
करते हैं
भौंक-झपट
लड़ते-भिड़ते हैं
खुद कानून
बनाकर-तोड़ें
कुचल निबल
मातम करते हैं
मिटी रसोई
बसते ढाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
१३-८-२०१५ 
*