द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
*
९-६-२०१५
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 9 जून 2021
द्विपदियाँ (शे'र)
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द्विपदियाँ,
शे'र
दोहा का रंग आँसू के संग
दोहा सलिला
*
दोहा का रंग आँसू के संग
संजीव
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
*
दोहा का रंग आँसू के संग
संजीव
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
*
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
*
९-६-२०१५
शहतूत
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
बिरसा मुंडा
क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा आदिवासियों के 'भगवान' : अग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सभाली थी कमान
रांची. 28 अगस्त 1998 को देश की सर्वोच्च संस्था संसद भवन के परिसर में बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में बिरसा मुंडा को आदिवासी अधिकारों के आरंभिक प्रवर्तक संरक्षक तथा विदेशी सत्ता और दासता के आगे कभी न झुकने वाले योद्धा के रूप में याद करते हुए एक असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी थी। 16 अक्टूबर, 1989 इसी संसद भवन के केंद्रीय हॉल में बिरसा मुंडा की भव्य तस्वीर को स्थापित कर देश के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में बिरसा मुंडा को प्रथम आदिवासी नेता को महत्ता दी गई।
इस अवसर पर वक्ताओं ने बिरसा मुंडा को एक महान समाज सुधारक, रचनात्मक प्रतिभा के धनी और सबसे अधिक उत्साही राष्ट्रवादी बताते हुए ऐसा महान स्वतंत्रता सेनानी कहा जिसने जीवन पर्यंत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 15 नवंबर, 1989 को बिरसा मुंडा पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। गौरतलब है कि 19-20 मार्च 1940 में रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन स्थल का मुख्य द्वार बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया था।
बिरसा मुंडा के संदर्भ में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने दर्शाया कि देश में चल रहे अन्य राष्ट्रीयता स्वाधीनता संग्राम की भांति ही बिरसा का उलगुलान (आंदोलन) ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी था। बिरसा संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। ऐसी स्वतंत्रता जो राजनीतिक और धार्मिक हो। जिसके लिए पूर्व में छेड़े गए सरदार आंदोलन की सीमाओं से आगे बढ़कर 22 दिसंबर, 1889 की सर्द रात में अपने चुने हुए साथियों की उपस्थिति में संपूर्ण उलगुलान की घोषणा की। अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए दुराग्रही इतिहास और दर्शन अभी भी लोगों के मानस पटल से नहीं हटाया जा सका है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार व मानव शास्त्री कुमार सुरेश जैसे कई अन्य वरिष्ठ मनीषियों ने गांव-गांव घूमकर गहन अध्ययन विश्लेषण से बिरसा मुंडा अन्य आदिवासी नायकों व उनके आंदोलनों पर तथ्य व तर्कसंगत विवेचन प्रस्तुत कर नई विचार दृष्टि प्रदान की।
यह उलगुलान था तत्कालीन देशी-विदेशी शोषणकारी सत्ता और शक्तियों से शोषित-वंचित आदिवासी समुदाय को सम्मान-स्वतंत्रता और अधिकार दिलाने के लिए। जिनकी अन्यायकारी शासन व्यवस्था ने पूरे ग्रामीण के साथ-साथ जनजातीय अर्थव्यवस्था के भयावह विघटन तथा आदिवासी समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव की कगार पर पहुंचा दिया था। इस उलगुलान के कई महत्वपूर्ण आयाम थे। सामाजिक कूरीतियों के प्रती किया जागरुक
एक ओर जमीन तथा जंगलों से अन्य ग्रामीण व आदिवासी समुदाय को जबरन बेदखल कर जमीन, फसल तथा प्राकृतिक संसाधनों पर फौजी संगीनों के बल पर कायम साम्राज्य का जोरदार प्रतिरोध था तो दूसरी ओर आदिवासी समाज में जड़ जमाई नशाखोरी, अंधविश्वास, कुरीतियों व ओझागीरी इत्यादि गलत प्रवृत्तियों व आदतों के खिलाफ जबरदस्त सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण। यह पूरा का पूरा आंदोलन अनुकरणात्मक से अधिक प्रतिरोधात्मक था।
बिचौलिया के खिलाफ आंदोलन
सरदार आंदोलन जो मुख्य रूप से बिचौलिया एवं दिकुओं के खिलाफ था। बिरसा द्वारा छेड़े गए उलगुलान ने समस्त आदिवासी एवं अन्य देशज समुदायों पर भी गहरा असर डालकर उनमें जागरूकता लाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। जो उस समय बाहरी आक्रमणों के साथ-साथ अपने समुदाय की भीतर की आंतरिक कमजोरियों से लगातार टूटते और बिखरते जा रहे थे। इसका ही ऐतिहासिक दुष्परिणाम हुआ कि अंग्रेज शासकों द्वारा पुरस्कार के प्रलोभन दिए जाने पर बंदगांव के कुछ लोगों ने विश्वासघात कर धोखे से बिरसा को पकड़वाने का कृत्य कर डाला।कहा था मैं लौट कर आउंगा
आज बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस से लेकर उनके जन्मदिवस पर बड़े-बड़े कार्यक्रम के आयोजन से लेकर उनके नाम पर संस्था, स्थान, सड़क व चौराहों इत्यादि के नामकरण की होड़-सी मची हुई है। लेकिन बिरसा के विचारों और मूल्य-दर्शन को स्वयं के अंदर तथा समाज में विस्थापित करने वाले कितने ईमानदार लोग खड़े हैं बिरसा मुंडा भी जानते थे कि यह लड़ाई आखिरी नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि-मैं लौट कर आऊंगा! क्योंकि उलगुलान का अभी अंत नहीं हुआ है, उलगुलान जारी है...अबुआ दिसुम, अबुआ राज का सफर जारी है!
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बिरसा मुंडा
मुक्तिका: अम्मी
मुक्तिका:
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********
*********
मंगलवार, 8 जून 2021
वंदना
वंदना
*
भोर भई पट खोल सुरसती
दरसन दे महतारी।
हात जोड़ ठाँड़े हैं सुर-नर
अकल देओ माँ! माँग रए वर
मौन न रह कुछ बोल सुरसती
काहे सुधी बिसारी?
ध्वनि-धुन, स्वर-सुर, वाक् देओ माँ!
मति गति-यति, लय-ताल, छंद गा
विधि-हरि-हर ने रमा-उमा सँग
तोरे भए पुजारी
नेह नरमदा की कलकल तू
पंछी गुंजाते कलरव तू
लोरी, बम्बुलिया, आल्हा तू
मैया! महिमा न्यारी
***
संजीव
८-६-२०२०
*
भोर भई पट खोल सुरसती
दरसन दे महतारी।
हात जोड़ ठाँड़े हैं सुर-नर
अकल देओ माँ! माँग रए वर
मौन न रह कुछ बोल सुरसती
काहे सुधी बिसारी?
ध्वनि-धुन, स्वर-सुर, वाक् देओ माँ!
मति गति-यति, लय-ताल, छंद गा
विधि-हरि-हर ने रमा-उमा सँग
तोरे भए पुजारी
नेह नरमदा की कलकल तू
पंछी गुंजाते कलरव तू
लोरी, बम्बुलिया, आल्हा तू
मैया! महिमा न्यारी
***
संजीव
८-६-२०२०
समीक्षा काल है संक्रांति का, अमरनाथ
सराहनेवाले सहस्त्रों, सीखनेवाले सैंकड़ों, प्राप्त समीक्षायें २६, कृति खरीदनेवाले ऊँगली पर गिनने लायक... क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाए?
*
समालोचना-
काल है संक्रांति का पठनीय नवगीत-गीत संग्रह
अमर नाथ
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४]
***
६५ गीत- नवगीतों का गुलदस्ता 'काल है संक्रान्ति का', लेकर आए हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर से, खासतौर से हिन्दी और बुन्देली प्रेमियों के लिए। नए अंदाज और नए कलेवर में लिखी इन रचनाओं में राजनीतिक, सामाजिक व चारित्रिक प्रदूषण को अत्यन्त सशक्त शैली में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। भूख, गरीबी, धन, धर्म, बन्दूक का आतंक, तथाकथित लोकतंत्र व स्वतंत्रता, सामाजिक रिश्तों का निरन्तर अवमूल्यन आदि विषयों पर कवि ने अपनी बेबाक कलम चलाई है। हिन्दी का लगभग प्रत्येक साहित्यकार अपने ज्ञान, मान की वृद्धि की कामना करते हुए मातु शारदे की अर्चना करने के बाद ही अपनी लेखनी को प्रवाहित करता है लेकिन सलिल जी ने न केवल मातु शारदे की अर्चना की अपितु भगवान चित्रगुप्त और अपने पूर्वजों की भी अर्चना करके नई परम्परा कायम की है। उन्होनें इन तीनों अर्चनाओं में व्यक्तिगत स्वयं के लिए कुछ न चाहकर सर्वसमाज की बेहतरी की कामना है। भगवान चित्रगुप्त से उनकी विनती है कि-
गैर न कोई, सब अपने है, काया में है आत्म सभी हम।
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित, छाया-माया, सुख-दुःख हो सम।।(शरणागत हम -पृष्ठ-६)
इसी प्रकार मातृ शारदे से वे हिन्दी भाषा के उत्थान की याचना कर रहे हैं-
हिन्दी हो भावी जगवाणी, जय-जय वीणापाणी ।।(स्तवन-पृष्ठ-८)
पुरखों को स्मरण कर उन्हें प्रणाम करते हुए भी कवि याचना करता है-
भू हो हिन्दी-धाम। आओ! करें प्रणाम।
सुमिर लें पुरखों को हम, आओ! करें प्रणाम।।(स्मरण -पृष्ठ-१०)
इन तीनों आराध्यों को स्मरण, नमन कर, भगिनी-प्रेम के प्रतीक रक्षाबन्धन पर्व के महत्व को दर्शाते हुए
सामाजिक रिश्तों में भगिनी को याद करते उन्हें अपने शब्दसुमन समर्पित करते है-
अर्पित शब्दहार उनको, जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन।
जो रोली अक्षत टीकाकर, आशा का मधुबन महकाती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
समर्पण कविता में रक्षाबंधन के महत्च को समझाते हुए कवि कहता है कि-
तिलक कहे सम्मान न कम हो, रक्षासूत्र कहे मत भय कर
श्रीफल कहे-कड़ा ऊपर से, बन लेकिन अंतर से सुखकर
कडुवाहट बाधा-संकट की, दे मिष्ठान्न दूर हँस करती
सदा शीश पर छाँव घनी हो, दे रूमाल भाव मन भरती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
कवि ने जब अपनी बहिन को याद किया है तो अपनी माँ को भी नहीं भूला। कवि बाल-शिकायत करते हुए काम तमाम कविता में माँ से पूछता है-
आने दो उनको, कहकर तुम नित्य फोड़ती अणुबम
झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस, पर निकले दम।
मुझ सी थी तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ?
नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच, क्या थीं तुम?
पोल खोलकर नहीं बढ़ाना मुझको घर का ताप।
मम्मी, मैया, माँ, महतारी, करूँ आपका जाप। (पृष्ठ-१२०)
अच्छाई, शुभलक्षणों व जीवन्तता के वाहक सूर्य को विभिन्न रूपों में याद करते हुए, उससे फरियाद करते हुए कवि ने उस पर नौ कवितायें रच डाली। काल है संक्रान्ति का जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है केवल सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन अथवा दक्षिणायन से उत्तरायण परिक्रमापथ के संक्रमण का जिक्र नहीं अपितु सामाजिक संक्रान्ति को उजागर करती है-
स्वभाशा को भूल, इंग्लिश से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को, तुम मत रुको सूरज।
प्राच्य पर पाश्चात्य का अब चढ़ गया है रंग
कौन किसको सम्हाले, पी रखी मद की भंग।
शराफत को शरारत नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है खुद नियति भी दंग।
तिमिर को लड़, जीतना, तुम मत चुको सूरज।
काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज।। (पृष्ठ-१६-१७)
सूरज को सम्बोधित अन्य रचनायें- संक्रांति काल है, उठो सूरज, जगो! सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज है।
इसी प्रकार नववर्ष पर भी कवि ने छह बार कलम चलाई है उसके विभिन्न रूपों, बिम्बों को व्याख्यायित करते हुए। हे साल नये, कब आया कब गया, झाँक रही है, सिर्फ सच, मत हिचक, आयेगा ही।
कवि ने नये साल से हर-बार कुछ नई चाहतें प्रकट की है।
हे साल नये! मेहनत के रच दे गान नए....। (हे साल नये-पृष्ठ-२४)
रोजी रोटी रहे खोजते, बीत गया, जीवन का घट भरते भरते रीत गया
रो-रो थक, फिर हँसा साल यह, कब आया कब गया, साल यह? (कब आया कब गया-पृष्ठ-३९)
टाँक रही है अपने सपने, नये वर्ष में, धूप सुबह की।
झाँक रही है खोल झरोखा, नये वर्ष में, धूप सुबह की।। (झाँक रही है -पृष्ठ-४२)
जयी हों विश्वास-आस, हँस बरस।
सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।। (सिर्फ सच -पृष्ठ-४४)
धर्म भाव कर्तव्य कभी बन पायेगा?
मानवता की मानव जय गुँजायेगा?
मंगल छू, भू के मंगल का क्या होगा?
नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा? (सिर्फ सच -पृष्ठ-४६)
'कथन' कविता में कवि छंदयुक्त कविता का खुला समर्थन करते हुए नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि-
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
विरामों से पंक्तियाँ नव बना, मत कह
छंदहीना नयी कविता है सिरजनी।
मौन तजकर मनीषा,कह बात अपनी। (कथन -पृष्ठ-१४)
कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति भी जागरूक है और विभिन्न समस्याओं समस्याओं को तेजधार के साथ घिसा भी है-जल प्रदूषण के प्रति सचेत करते हुए कवि समाज से पूछता है-
कर पूजा पाखण्ड हम, कचरा देते डाल।
मैली होकर माँ नदी, कैसे हो खुशहाल?(सच की अरथी-पृष्ठ-56)
सामाजिक व पारिवारिक सम्बंधों में तेजी से हो रहे ह्रास को कवि बहुत मार्मिक अंदाज में कहता है कि -
जो रहे अपने, सिमटते जा रहे हैं।
आस के पग, चुप उखड़ते जा रहे हैं।। (कथन -पृष्ठ-१३)
वृद्धाश्रम- बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ, आँसू क्यों बहते रहते हैं? (राम बचाये -पृष्ठ-९४)
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब, है खुद-गर्जी। रब की मर्जी (रब की मर्जी -पृष्ठ-१०९)
रचनाकार एक तरफ तो नये साल से कह रहा है कि सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।(सिर्फ सच-पृष्ठ-४४)
किन्तु स्वयं ही दूसरी ओर वह यह भी कहकर नये साल को चिन्ता में डाल देता है कि- सत्य कब रहता यथावत, नित बदलता, सृजन की भी बदलती नित रही नपनी। (कथन-पृष्ठ-१३)
कवि वर्तमान दूषित राजनीतिक माहौल, गिरती लोकतांत्रिक परम्पराओं और आए दिन संविधान के उल्लंघन के प्रति काफी आक्रोषित नजर आता है।
प्रतिनिधि होकर जन से दूर, आँखें रहते भी, हो सूर।
संसद हो, चौपालों पर, राजनीति तज दे तंदूर।।
अब भ्रांति टाल दो, जगो, उठो।
संक्रांति काल है, जगो, उठो। (संक्राति काल है-पृष्ठ-२०)
श्वेत वसन नेता से, लेकिन मन काला।
अंधे न्यायालय ने, सच झुठला डाला।
निरपराध फँस जाता, अपराधी झूठा बच जाता है।
खुशि यों की मछली को चिंता का बगुला खा जाता है। (खुषियों की मछली- पृष्ठ-९९)
नेता पहले डाले दाना, फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत गोली मारें, करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नशा ,रहा डँस। लोकतंत्र का पंछी बेबस। (लोकतंत्र का पंछी -पृष्ठ-१००)
सत्ता पाते ही रंग बदले, यकीं न करना, किंचित पगले!
काम पड़े पीठ कर देता।
रंग बदलता है पल-पल में, पारंगत है बेहद छल में
केवल अपनी नैया खेता। जिम्मेदार नहीं है नेता।। (जिम्मेदार नहीं है नेता- पृष्ठ-१११)
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र
आँख दिखाते सभी पड़ौसी, देख हमारी फूट
अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद।
कब होगे आजाद? कहो हम, कब होंगे आजाद? (कब होगे आजाद-पृष्ठ-११३)
नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।
राज मुखौटे चहिए छपने। पल में बदल गए है नपने।
कल के गैर आज है अपने।। (कल के गैर-पृष्ठ-116)
सही, गलत हो गया अचंभा, कल की देवी अब है रंभा।
शीर्षासन कर रही सियासत, खड़ा करे पानी पर खम्भा।(कल का अपना -पृष्ठ-117)
लिये शपथ सब संविधान की, देश देवता है सबका
देश - हितों से करो न सौदा, तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद, झपटो, करो न सौदा जनहित का
भार करों का इतना ही हो, दरक न पाएँ दीवारें। (दरक न पाएँ दीवारें -पृष्ठ-१२८)
कवि जितना दुखी दूषित राजनीति से है उतना ही सतर्क आतंकवाद से भी है। लेकिन आतंकवाद से वह भयभीत नहीं बल्कि उसका सामना करने को तत्पर भी है।
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें।
धिक्-धिक् तुमने भू की कोख़ लजाई है, पैगम्बर, मजहब, रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर, तुमको जनने वाली माँ पछताई है
मानव होकर दानव से भी बदतर तुम, क्यों भाया है, बोलो! हाहाकार तुम्हें?
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें। (पेशावर के नर पिशाच-पृष्ठ-७१)
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे।
तुम्हें न भायी कभी किताब, हम पढ़-लिखकर बने नवाब
दंगे कर फैला आतंक, रौंदों जनगण को निश्शंक
तुम मातम फैलाओगे, हम फिर नव खुशियाँ लायेंगे
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे। (तुम बंदूक चलाओ तो-पृष्ठ-७२)
लाख दागों गोलियाँ, सर छेद दो, मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय, न, वापिस लौट पाया
तुम गये हो जीत, यह किंचित न सोचो
भोर होते ही उठाकर, फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा, मैं लडूँगा। मैं लडूँगा। (मैं लडूँगा- पृष्ठ-७४)
कवि का ध्यान गरीबी और दिहाड़ी मजदूरी पर जिन्दा रहने वालों की ओर भी गया है।
रावण रखकर रूप राम का, करे सिया से नैन-मटक्का
मक्का जानें खों जुम्मन ने बेच दई बीजन की मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस, बिटिया बार-गर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर ग्राहक को, भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार बाजरे की मजबूरी, भाटा-ज्वार दे गए सूली। गटक न पाए। भटक न जाए। (हाथों में मोबाइल-पृष्ठ-९७)
मिली दिहाड़ी चल बाजार।
चावल-दाल किलो भर ले-ले, दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर, धनिया मिर्ची ताजी....।
खाली जेब पसीना चूता अब मत रुक रे मन बेजार।
मिली दिहाड़ी चल बाजार। (मिली दिहाड़ी-पृष्ठ-81)
केवल दूषित राजनीति टूटते सम्बंध और नैतिकता में ह्रास की ही बात कवि नहीं करता अपितु आजकल के नकली साधुओं को भी अपनी लेखनी की चपेट में ले रहा है।
खुद को बतलाते अवतारी, मन भाती है दौलत नारी
अनुशासन कानून न मानें, कामचोर वाग्मी हैं भारी।
पोल खोल दो मन से ठान, वेश संत का, मन शैतान। (वेश संत का-पृष्ठ-८८)
रचनाकार मूलतः अभियंता है और उसे कनिष्ठ अभियंताओं के दर्द का अहसास है अतः उनके दर्द को भी उसने अपनी कलम से निःसृत किया है।
अगल जनम उपयंत्री न कीजो।
तेरा हर अफसर स्नातक, तुझ पर डिप्लोमा का पातक
वह डिग्री के साथ रहेगा तुझ पर हरदम वार करेगा
तुझे भेज साइट पर, सोये, तू उन्नति के अवसर खोये
तू है नींव, कलश है अफसर, इसीलिए वह पाता अवसर।
कर्मयोग तेरी किस्मत में, भोग-रोग उनकी किस्मत में।
कह न किसी से कभी पसीजो, श्रम-सीकर में खुशरह भीजो। (अगले जनम-पृष्ठ-७९-८०)
कवि धन की महिमा एवं उसके दुष्प्रभाव प्रभाव को बताते हुए कहता है कि-
सब दुनिया में कर अँधियारा, वह खरीद लेता उजियारा।
मेरी-तेरी खाट खड़ी हो, पर उसकी होती पौ-बारा।।
असहनीय संत्रास है, वह मालिक जग दास है।
वह खासों में खास है, रुपया जिसके पास है।। (खासों में खास- पृष्ठ-६८)
लेटा हूँ, मखमल की गादी पर, लेकिन नींद नहीं आती
इस करवट में पड़े दिखाई, कमसिन बर्तनवाली बाई।
देह साँवरी, नयन कटीले, अभी न हो पाई कुड़माई।
मलते-मलते बर्तन, खनके चूड़ी जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्र को बना भिखारी वह जाती है। ( लेटा हूँ-पृष्ठ-८३)
यह मत समझिये कि कवि केवल सामाजिक समस्याओ अथवा राजनीतिक या चारित्रिक गिरावट की ही बात कर सकता है , वह प्रेम भी उसी अंदाज में करता है-
अधर पर धर अधर, छिप, नवगीत का मुखड़ा कहा।
मन लय गुनगुनाता खुश हुआ। ( अधर पर- पृष्ठ-८५)
परमार्थ, परहित और सामाजिक चिन्तन भी इनकी कलम की स्याही से उजागर होते है-
अहर्निश चुप लहर सा बहता रहे।
दे सके औरों को कुछ, ले कुछ नहीं।
सिखाती है यही भू माता मही। (अहर्निश चुप लहर सा-पृष्ठ-९०)
क्यों आये है? क्या करना है? ज्ञात न,पर चर्चा करना है।
शिकवे-गिले, शिकायत हावी, यह अतीत था, यह ही भावी
हर जन ताला, कहीं न चाबी।
मर्यादाओं का उल्लंघन। दिशा न दर्शन, दीन प्रदर्शन। (दिशा न दर्शन- पृष्ठ-१०५)
कवि अंधश्रद्धा के बिल्कुल खिलाफ है तो भाग्य-कर्म में विश्वास भी रखता है-
आदमी को देवता मन मानिये, आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए।
साफ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो, गैर को निज मसीहा मत मानिए।
नीति- मर्यादा, सुपावनधर्म है, आदमी का भाग्य, लिखता कर्म है।
शर्म आये, कुछ न ऐसा कीजिए, जागरण ही जिन्दगी का मर्म है।।
देवप्रिय निष्पाप है। अंधश्रद्धा पाप है। (अंधश्रद्धा -पृष्ठ-८९)
कवि ने एक तरफ बुन्देली के लोकप्रिय कवि ईसुरी के चौकड़िया फागों की तर्ज पर बुंदेली भाषा में ही नया प्रयोग किया है तो दूसरी ओर पंजाब के दुल्ला भाटी के लोहड़ी पर्व पर गाए जाने वाले लोकगीतों की तर्ज पर कविता को नए आयाम देने का प्रयास किया है-
मिलती काय नें ऊँची वारी, कुरसी हम खों गुइयाँ।
अपनी दस पीढ़ी खें लाने, हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका, ठेंगे पे राम-रमैया। (मिलती काय नें-पृष्ठ-५२)
सुंदरिये मुंदरिये, होय! सब मिल कविता करिए होय।
कौन किसी का प्यारा होय, स्वार्थ सभी का न्यारा होय। (सुंदरिये मुंदरिये होय -पृष्ठ-४९)
सोहर गीत किसी जमाने की विशेष पहचान होती थी। लेकिन इस लुप्त प्राय विधा पर भी कवि ने अपनी कलम चलाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे पद्य में किसी भी विधा पर रचना कर सकते है।
बुंदेली में लिखे इस सोहरगीत की बानगी देखें-
ओबामा आते देश में, करो पहुनाई।
चोला बदल कें आई किरनिया, सुसमा के संगे करें कर जुराई।
ओबामा आये देश में, करो पहुनाई। (ओबामा आते -पृष्ठ-५३)
कवि केवल नवगीत में ही माहिर नही है अपितुं छांदिक गीतों पर भी उसकी पूरी पकड़ है। उनका हरिगीतिका छंद देखे-
पहले गुना, तब ही चुना।
जिसको तजा वह था घुना।
सपना वही सबने बुना
जिसके लिए सिर था धुना। (पहले गुना -पृष्ठ-६१)
अब बुंदेली में वीर छंद (आल्ह छंद) देखें-
एक सिंग खों घेर भलई लें, सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की, देख सेर पोंके हर बार
ढेंंचू - ढेंचू रेंक भाग रओ, करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकल गयी, जान बखस दो, करें पुकार।
भारत वारे बड़ें लड़ैया, बिनसें हारे पाक सियार। (भारतवारे बड़े लड़ैया -पृष्ठ-६७)
इस सुन्दर दोहागीत को पढ़कर तो मन नाचने लगता है-
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक।
बगुला भगतों ने लिखीं, ध्यान कथाएँ खूब
मछली चोंचों में फँसी, खुद पानी में डूब।।
जाँच कर रहे केकड़े, रोक सके तो रोक।
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक। ( सच की अरथी -पृष्ठ-५५)
कवि ने दोहे व सोरठे का सम्मिलित प्रयोग करके शा नदार गीत की रचना की है। इस गीत में दोहे के एक दल को प्रारम्भ में तथा दूसरे दल को अंत में रखकर बीच में एक पूरा सोरठा समा दिया है।
दर्पण का दिल देखता, कहिए जग में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल, नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नजर उतारता, लेकर राई- नौन।। (दर्पण का दिल -पृष्ठ-५७)
अब वर्णिक छंद में सुप्रतिष्ठा जातीय के अन्तर्गत नायक छंद देखें-
उगना नित, हँस सूरज
धरती पर रखना पग, जलना नित, बुझना मत,
तजना मत, अपना मग, छिपना मत, छलना मत
चलना नित,उठ सूरज। उगना नित, हँस सूरज। (उगना नित-पृष्ठ-२८)
कवि का यह नवगीत-गीत संकलन निःसन्देह पठनीय है जो नए-नए बिम्ब और प्रतीक लेकर आया है। बुन्देली और सामान्य हिन्दी में रचे गए इन गीतों में न केवल ताजगी है अपितु नयापन भी है। हिन्दी, उर्दू, बुन्देली, अंग्रेजी व देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए इसे आमजन के लिए पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है। हिन्दीभाषा को विश्व पटल पर लाने की आकांक्षा समेटे यह ग्रंथ हिन्दी व बुन्देली पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा, ऐसी मेरी आशा है।
दिनांक-५ मई २०१६
अभिषेक १, उदयन १, सेक़्टर १
एकता विहार लखनऊ
चिप्पियाँ Labels:
अमरनाथ,
समीक्षा काल है संक्रांति का
मुक्तिका
मुक्तिका
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
.
सो लिए हो बहुत
उठ बगावत करो
.
अब न फेरो नज़र
मिल इनायत करो
.
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
.
बेहतरी का 'सलिल'
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष प्रिय!
खत-किताबत करो
.
(दैशिक जातीय छंद)
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
*
नित इबादत करो
मत अदावत करो
.
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
.
सो लिए हो बहुत
उठ बगावत करो
.
अब न फेरो नज़र
मिल इनायत करो
.
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
.
बेहतरी का 'सलिल'
पग रवायत करो
.
छोड़ चलभाष प्रिय!
खत-किताबत करो
.
(दैशिक जातीय छंद)
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
गीतिका छंद
छंद सलिला:
गीतिका छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
*
6-6-2014
गीतिका छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
*
6-6-2014
चिप्पियाँ Labels:
गीतिका छंद
तेवरी / मुक्तिका
तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
संजीव 'सलिल'
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
***
4-6-2010
मुमकिन
संजीव 'सलिल'
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
***
4-6-2010
मुक्तिका
मुक्तिका
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं.
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता.
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं..
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो.
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताए हाट रहे हैं..
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं..
1-6-2010
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं.
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता.
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं..
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो.
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताए हाट रहे हैं..
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं..
1-6-2010
मुक्तिका
मुक्तिका
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यों हो?
गैर अपनों को बनाते क्यों हो??
*
आबले पैर की ताकत कहकर
शूल-पत्थर को डराते क्यों हो??
*
गले लग जाओ, नहीं मुँह मोड़ो
आँखों से आँख चुराते क्यों हो??
*
धूप सहता है सिरस खिल-खिलकर
आग छिप उसमें लगाते क्यों हो??
*
दूरियाँ दूर ना करना है तो
पास तुम मुझको बुलाते क्यों हो??
***
७-८ जून २०१६
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यों हो?
गैर अपनों को बनाते क्यों हो??
*
आबले पैर की ताकत कहकर
शूल-पत्थर को डराते क्यों हो??
*
गले लग जाओ, नहीं मुँह मोड़ो
आँखों से आँख चुराते क्यों हो??
*
धूप सहता है सिरस खिल-खिलकर
आग छिप उसमें लगाते क्यों हो??
*
दूरियाँ दूर ना करना है तो
पास तुम मुझको बुलाते क्यों हो??
***
७-८ जून २०१६
मुक्तिका
मुक्तिका
*
पहन जनेऊ, तिलक लगा ले।
मेहनत मत कर, गाल बजा ले।।
*
किशन आप, हर भक्तन राधा
मान, रास मत चूक रचा ले।।
*
घंटी-घंटा, झाँझ-मँजीरा
बज, कीर्तन जमकर गा ले।।
*
भोग दिखाकर ठाकुर जी को
ठेंगा दिखा, आप ही खा ले।।
*
हो न स्वर्गवासी लेकिन तू
भू पर 'सलिल' स्वर्ग-सुख पा ले।।
***
२-५-२०१६
सी २५६ आवास विकास, हरदोई
*
पहन जनेऊ, तिलक लगा ले।
मेहनत मत कर, गाल बजा ले।।
*
किशन आप, हर भक्तन राधा
मान, रास मत चूक रचा ले।।
*
घंटी-घंटा, झाँझ-मँजीरा
बज, कीर्तन जमकर गा ले।।
*
भोग दिखाकर ठाकुर जी को
ठेंगा दिखा, आप ही खा ले।।
*
हो न स्वर्गवासी लेकिन तू
भू पर 'सलिल' स्वर्ग-सुख पा ले।।
***
२-५-२०१६
सी २५६ आवास विकास, हरदोई
समीक्षा विराट काल है संक्रांति का
पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता
कवि चंद्रसेन विराट
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है।
गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है। फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है।
१२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है। और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है। पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है।
गीत तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं। कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है। चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।
विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि। गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!', 'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।
कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है। इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
१-६-२०१६
***
समीक्षक संपर्क- १२१ बैकुंठधाम कॉलोनी, आनंद बाजार के पीछे, इंदौर ४५२०१८, चलभाष ०९३२९८९५५४०द्विपदी:
संजीव
*
राम का है राज, फ़ौज़ हो न हो
फ़ौज़दार खुद को ये मन मानता है.
चिप्पियाँ Labels:
काल है संक्रांति का,
विराट,
समीक्षा
मुक्तिका
मुक्तिका:
संजीव
*
सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
*
श्लेष को कर शेष जब चलता किया
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
*
उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
*
आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
*
मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
८-६-२०१५
*
संजीव
*
सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
*
श्लेष को कर शेष जब चलता किया
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
*
उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
*
आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
*
मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
८-६-२०१५
*
मुक्तिका
मुक्तिका:
...क्यों हो???
संजीव 'सलिल'
*
लोक को मूर्ख बनाते क्यों हो?
रोज तुम दाम बढ़ाते क्यों हो?
वादा करते हो बात मानोगे.
दूसरे पल ही भुलाते क्यों हो?
लाठियाँ भाँजते निहत्थों पर
लाज से मर नहीं जाते क्यों हो?
नाम तुमने रखा है मनमोहन.
मन तनिक भी नहीं भाते क्यों हो?
जो कपिल है वो कुटिल, धूर्त भी है.
करके विश्वास ठगाते क्यों हो?
ये न भूलो चुनाव फिर होंगे.
अंत खुद अपना बुलाते क्यों हो?
भोली है, मूर्ख नहीं है जनता.
तंत्र से जन को डराते क्यों हो?
घूस का धन जो विदेशों में है?
लाते वापिस न, छिपाते क्यों हो
बाबा या अन्ना नहीं एकाकी.
संग जनगण है, भुलाते क्यों हो?
...क्यों हो???
संजीव 'सलिल'
*
लोक को मूर्ख बनाते क्यों हो?
रोज तुम दाम बढ़ाते क्यों हो?
वादा करते हो बात मानोगे.
दूसरे पल ही भुलाते क्यों हो?
लाठियाँ भाँजते निहत्थों पर
लाज से मर नहीं जाते क्यों हो?
नाम तुमने रखा है मनमोहन.
मन तनिक भी नहीं भाते क्यों हो?
जो कपिल है वो कुटिल, धूर्त भी है.
करके विश्वास ठगाते क्यों हो?
ये न भूलो चुनाव फिर होंगे.
अंत खुद अपना बुलाते क्यों हो?
भोली है, मूर्ख नहीं है जनता.
तंत्र से जन को डराते क्यों हो?
घूस का धन जो विदेशों में है?
लाते वापिस न, छिपाते क्यों हो
बाबा या अन्ना नहीं एकाकी.
संग जनगण है, भुलाते क्यों हो?
८-६-२०११
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सोमवार, 7 जून 2021
मैं भारत हूँ
ॐ
भारत गीत
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'मैं अंधकार को जीत
उजाला पाने में रत हूँ,
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।'
*
सभ्यता सनातन मैं जानो
हूँ कल्प-कल्प से सच मानो
मैं पंचतत्व, मैं तीन लोक
मैं तीन देव हूँ सम्मानो
मैं ही गत, अब हूँ, आगत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*
जीवनदायिनी भारतमाता
मैं ही जनगण-मन विख्याता
हूँ वंदे मातरम् मैं अनुपम
मैं झंडा ऊँचा जग त्राता
मैं मानवता का स्वागत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*
मैं कंकरवासी शंकर हूँ
है चित्र गुप्त अभ्यंकर हूँ
हूँ शक्ति-शांति-निर्माण पथिक
मैं ही ओढ़े दिक् अंबर हूँ
मैं गीतागायक जागत हूँ
मैं भारत हूँ, मैं भारत हूँ।
*
संपर्क- ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८
जबलपुर नौरत्न
१. विवेक कृष्ण तन्खा, श्रेष्ठ वरिष्ठ अधिवक्ता, समाजसेवी सांसद राजसभा (कांग्रेस), संयोजक अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल कैम्प (रोटरी), vivek.tankha@gmail.com, ९८६८२ ४९९३३, ९०१३१ ८१३२२
२. स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरी, महामंडलेश्वर, अध्यक्ष गौ संवर्धन बोर्ड मध्य प्रदेश
३. तरुण कुमार भनोट, पूर्व वित्त मंत्री, विधायक कांग्रेस
४. अमरेंद्र नारायण, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सम्मानित दूर संचार अभियंता, लेखक, कवि, संयोजक एकता और शक्ति ९४२५८०७२००
५. राकेश सिंह, संसद लोक सभा (भाजपा), ०७६१ २४० ७३००, २४० २८४०. Fax: ०७६१ ४०१ ७७९९. Email Id: rakesh.singh@sansad. nic.in. Website: http://www.rakeshsingh.org.
६. अजय विश्नोई, विधायक भाजपा,
७. जीतेन्द्र जामदार, अस्थि शल्यज्ञ, विश्व हिन्दू परिषद्
८. कैलाश जैन
९. राजेश पाठक 'प्रवीण', महासचिव पाथेय, संचालक ७८९५६ ४९५०७
जबलपुर गौरव
१. साधना उपाध्याय, संयोजक त्रिवेणी परिषद्, ९७५२४ ९४६४१
२. प्रतुल श्रीवास्तव, पत्रकार, व्यंग्यकार, गुंजन कला सदन ६२६३२ ०००१४
३. संजय वर्मा, अभियंता, प्रोफेसर, सचिव इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी ९४२५८ ०३३३७
४. विनोद नयन, अभियंता, संयोजक प्रसंग संस्था ७९९९५ १६८५८
५. बसंत शर्मा, अध्यक्ष साहित्यकार, संचालक, उच्चाधिकारी रेलवे, अध्यक्ष अभियान संस्था ९७५२४ १५०३३
६. योगेश गनोरे, अध्यक्ष कदंब पर्यावरण संस्था, ९३००१ ०२६२१
७. डॉ. अखिलेश गुमाश्ता, अस्थि शल्यगत, संयोजक राम अवेयरनेस मूवमेंट
८. सुरेंद्र सिंह पवार, अभियंता, संपादक, समीक्षक संयोजक हम एक ९३००१ ०४२९६
९. संतोष नेमा, साहित्यकार, संचालक
जबलपुर श्री
१. अजिताभकृष्ण त्रिपाठी, प्राचार्य जानकी रमण महाविद्यालय, ७२४०८ ६०८८९
२. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' अभियंता, कवि, गायक, होम्योपैथिक चिकित्सक ९४२४३ २३२९७
४. उपासना उपाध्याय, कत्थक प्रशिक्षक ९८२७३ ६२६१६
५. विजय नेमा अनुज, साहित्यकार,वर्तिका संस्था, ९८२६५ ०६०२५
६. दीपक तिवारी, साहित्यकार, संचालक, संयोजक ९३००१५८६०९
७. सुरजीत गुहा, जीवन बीमा अधिकारी, बंगाली समाज की गतिविधियों के संयोजक
८. अनुकृति श्रीवास्तव, पत्रकार७०००४ ८१५७७,
९. चंदा स्वर्णकार ९३९९० ४५४२१४
जबलपुर नवरत्न
१. डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, हिंदी भाषाविद, श्रेष्ठ साहित्यकार
२. ज्ञानरंजन, साहित्यकार, संपादक,
३. आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, संस्कृतज्ञ
४. अमरेंद्र नारायण, संयुक्त राष्ट्र संघ पुरस्कृत दूरसंचार अभियंता, साहित्यकार, समाजसेवी
५. विवेक तन्खा, अधिवक्ता, समाजसेवी, सांसद
६. साधना उपाध्याय, शिक्षिका, साहित्यकार, समाजसेवी
७. स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरी
८. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', पत्रकार, साहित्यकार
जबलपुर गौरव
१. डॉ. जितेंद्र जामदार, चिकित्सक, समाजसेवी
२. डी. सी. जैन, अभियंता, शिक्षाविद, शिक्षा संस्थान
३. डॉ. इला घोष, वेदविद, संस्कृतज्ञ,
४. मोहन शशि, पत्रकार, समाजसेवी
५. अनामिका तिवारी, अंतर्राष्ट्रीय वनस्पतिविद, साहित्यकार
६. प्रतुल श्रीवास्तव, पत्रकार, व्यंग्यकार
७. राजेश पाठक 'प्रवीण', संचालक, समाजसेवी, साहित्यकार
८. अजिताभकृष्ण त्रिपाठी, प्राचार्य जानकीरमण महाविद्यालय
९. योगेश गनोरे, पर्यावरणविद
१०. मनोरमा तिवारी, वरिष्ठ साहित्यकार
११. सनातन बाजपेई, वरिष्ठ साहित्यकार
१२. जादूगर एस. के. निगम, समाजसेवी
१३. मुरलीधर नागराज, बांसुरीवादक
१४. आचार्य भगवत दुबे, साहित्यकार
१५. तापसी नागराज, आकाशवाणी गायिका
१६. अभय तिवारी, साहित्यकार
१७. डॉ, राजलक्ष्मी शिवहरे, साहित्यकार
१८. हरिशंकर दुबे, साहित्यकार
१९. इंजी देवेंद्र गौंटिया, साहित्यकार
२०. जयंत वर्मा, पत्रकार
जबलपुर श्री
१. डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, संस्कृतज्ञ, साहित्यकार
२. वीणा तिवारी, साहित्यकार
३. सनातन बाजपेई, साहित्यकार
४. विवेकरंजन, अभियंता, साहित्यकार
५. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', अभियंता, साहित्यकार, होम्योपैथिक चिकित्सक
६. सुरेंद्र सिंह पवार, अभियंता, साहित्यकार संपादक
७. सूरज राय सूरज, साहित्यकार
८. बसंत शर्मा, साहित्यकार, रेलवे अधकारी
९. दुर्गेश ब्योहार, अभियंता, संगीत शिक्षक
१०. विजय नेमा 'अनुज', समाजसेवी, साहित्यकार
११. संतोष नेमा, समाजसेवी, साहित्यकार
१२. चंदा स्वर्णकार साहित्यकार
१३. दीपक तिवारी, समाजसेवी, साहित्यकार
१४. विजय तिवारी 'किसलय', साहित्यकार, समाजसेवी
१५. उपासना उपाध्याय, कत्थक शिक्षक, समाजसेवा
१६. संजय वर्मा, अभियांत्रिकी प्राध्यापक, पर्यावरणविद, समाजसेवी, संगीत सेवी
१७. गीता गीत, साहित्यकार, संपादक
१८. प्रभात दुबे, साहित्यकार
१९.
२०
***
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मैं भारत हूँ
बुंदेली हाइकु
बुंदेली हाइकु
*
किरपा करो
*
छटा सुहानी
नरमदा भवानी
चूनर धानी
*
किरपा करो
हिरदै में बिराजो
मैया शारदा।
*
दरसन दो
माता बिंध्यबासिनी
बिपदा हरो
*
*
किरपा करो
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छटा सुहानी
नरमदा भवानी
चूनर धानी
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किरपा करो
हिरदै में बिराजो
मैया शारदा।
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दरसन दो
माता बिंध्यबासिनी
बिपदा हरो
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कथा-गीत: बूढ़ा बरगद
कथा-गीत:
बूढ़ा बरगद
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारों.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों..
७-६-२०१०
***
बूढ़ा बरगद
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारों.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारों..
७-६-२०१०
***
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बूढ़ा बरगद
बाल कविता : तुहिना-दादी
बाल कविता :
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काए तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटे रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जाएँगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछताएँगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाएँ वह
वह गाएँ तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
७-६-२०१०
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काए तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटे रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जाएँगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछताएँगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाएँ वह
वह गाएँ तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
७-६-२०१०
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