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शनिवार, 24 अप्रैल 2021

लघु कथा

लघु कथा:
मैया
*
प्रसाद वितरण कर पुजारी ने थाली रखी ही थी कि उसने लाड़ से कहा: 'काए? हमाये पैले आरती कर लई? मैया तनकऊ खुस न हुईहैं। हमाये हींसा का परसाद किते गओ?'
'हओ मैया! पधारो, कउनौ की सामत आई है जो तुमाए परसाद खों हात लगाए? बिराजो और भोग लगाओ। हम अब्बइ आउत हैं, तब लौं देखत रहियो परसाद की थाली; कूकुर न जुठार दे.'
'अइसे कइसे जुठार दैहे? हम बाको मूँड न फोर देबी, जा तो धरो है लट्ठ।' कोने में रखी डंडी को इंगित करते हुए बालिका बोली।
पुजारी गया तो बालिका मुस्तैद हो गयी. कुछ देर बाद भिखारियों का झुण्ड निकला।'काए? दरसन नई किए? चलो, इतै आओ.… परसाद छोड़ खें कहूँ गए तो लापता हो जैहो जैसे लीलावती-कलावती के घरवारे हो गए हते. पंडत जी सें कथा नई सुनी का?'
भिखारियों को दरवाजे पर ठिठकता देख उसने फिर पुकार लगाई: 'दरवज्जे पे काए ठांड़े हो? इते लौ आउत मां गोड़ पिरात हैं का?' जा गरू थाल हमसें नई उठात बनें। लेओ' कहते हुए प्रसाद की पुड़िया उठाकर उसने हाथ बढ़ा दिया तो भिखारी ने हिम्मतकर पुड़िया ली और पुजारी को आते देख दहशत में जाने को उद्यत हुए तो बालिका फिर बोल पड़ी: 'इनखें सींग उगे हैं का जो बाग़ रए हो? परसाद लए बिना कउनौ नें जाए. ठीक है ना पंडज्जी?'
'हओ मैया!' अनदेखी करते हुए पुजारी ने कहा।
२४-४-२०२०
***

मुक्तक

मुक्तक
जो मुश्किलों में हँसी-खुशी गीत गाते हैं
वो हारते नहीं; हमेशा जीत जाते हैं
मैं 'सलिल' हूँ; ठहरा नहीं बहता रहा सदा
जो अंजुरी में रहे, लोग रीत जाते हैं.
*
२४-४-२०२०

लघुकथा बर्दाश्तगी

लघुकथा
बर्दाश्तगी
*
एक शायर मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके द्वारा संपादित किये जा रहे हम्द (उर्दू काव्य-विधा जिसमें परमेश्वर की प्रशंसा में की गयी कवितायेँ) संकलन के लिये कुछ रचनाएँ लिख दूँ, साथ ही जिज्ञासा भी की कि इसमें मुझे, मेरे धर्म या मेरे धर्मगुरु को आपत्ति तो न होगी? मैंने तत्काल सहमति देते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए ख़ुशी का वायस (कारण) है।
कुछ दिन बाद मित्र आये तो मैंने लिखे हुए हम्द सुनाये, उन्होंने प्रशंसा की और ले गये।
कई दिन यूँ ही बीत गये, कोई सूचना न मिली तो मैंने समाचार पूछा, उत्तर मिला वे सकुशल हैं पर किताब के बारे में मिलने पर बताएँगे। एक दिन वे आये कुछ सँकुचाते हुए। मैंने कारण पूछा तो बताया कि उन्हें मना कर दिया गया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ में हम्द नहीं कहा जा सकता जबकि मैंने अल्लाह के साथ- साथ चित्रगुप्त जी, शिव जी, विष्णु जी, ईसा मसीह, गुरु नानक, दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गणेश जी व भारत माता पर भी हम्द लिख दिये थे। कोई बात नहीं, आप केवल अल्लाह पर लिख हम्द ले लें। उन्होंने बताया कि किसी गैरमुस्लिम द्वारा अल्लाह पर लिख गया हम्द भी क़ुबूल नहीं किया गया।
किताब तो आप अपने पैसों से छपा रहे हैं फिर औरों का मश्वरा मानें या न मानें यह तो आपके इख़्तियार में है -मैंने पूछा।
नहीं, अगर उनकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे खिलाफ फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद दिया जाएगा। कोई मेरे बच्चों से शादी नहीं करेगा -वे चिंताग्रस्त थे।
अरे भाई! फ़िक्र मत करें, मेरे लिखे हुए हम्द लौटा दें, मैं कहीं और उपयोग कर लूँगा। मैंने उन्हें राहत देने के लिए कहा।
उन्हें तो कुफ्र कहते हुए ज़ब्त कर लिया गया। आपकी वज़ह से मैं भी मुश्किल में पड़ गया -वे बोले।
कैसी बात करते हैं? मैं आप के घर तो गया नहीं था, आपकी गुजारिश पर ही मैंने लिखे, आपको ठीक न लगते तो तुरंत वापिस कर देते। आपके यहां के अंदरूनी हालात से मुझे क्या लेना-देना? मुझे थोड़ा गरम होते देख वे जाते-जाते फिकरा कस गये 'आप लोगों के साथ यही मुश्किल है, बर्दाश्तगी का माद्दा ही नहीं है।'
***
२४-४-२०१७

नवगीत

नवगीत 
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
२४-४-२०१७

नवगीत

नवगीत
*
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
जीवन-पथ में
मिले चले संग
हुआ रंग में भंग.
मन-मुटाव या
गलत फहमियों
ने, कर डाला तंग.
लहर-लहर के बीच
आ गयी शिला.
लहर बढ़ आगे,
एक साथ फिर
बहना चाहें
बोल न इन्हें अभागे.
भंग हुआ तो
कहो न क्यों फिर
हो अभंग हर छंद?
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
रोक-टोंक क्यों?
कहो तीसरा
अड़ा रहा क्यों टाँग?
कहे 'हलाला'
बहुत जरूरी
पिए मजहबी भाँग.
अनचाहा सम्बन्ध
सहे क्यों?
कोई यह बतलाओ.
सेज गैर की सजा
अलग हो, तब
निज साजन पाओ.
बैठे खोल
'हलाला सेंटर'
करे मौज-आनंद
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
२४-४-२०१७
हलाला- एक रस्म जिसके अनुसार तलाक पा चुकी स्त्री अपने पति से पुनर्विवाह करना चाहे तो उसे किसी अन्य से विवाह कर दुबारा तलाक लेना अनिवार्य है.

मंजुतिलका छंद

छंद सलिला:
मंजुतिलका छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण)।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. कण-कण से विराट बनी है यह सृष्टि
हरि की हर एक के प्रति है सम दृष्टि
जो बोया सो काटो है सत्य धर्म
जो लाए सो ले जाओ समझ मर्म
२. गरल पी है शांत, पार्वती संग कांत
अधर पर मुस्कान, सुनें कलरव गान
शीश सोहे गंग, विनत हुए अनंग
धन्य करें शशीश, विनत हैं जगदीश
आम आये बौर, हुए हर्षित गौर
फले कदली घौर, मिला शुभ को ठौर
अमियधर को चूम, रहा विषधर झूम
नर्मदा तट ठाँव, अमरकंटी छाँव
उमाघाट प्रवास, गुप्त ईश्वर हास
पूर्ण करते आस, न हो मंद प्रयास
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
२४-४-२०१४

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
***
२२-४-२०१५

कविता: अपनी बात



कविता:
अपनी बात:
संजीव
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ न आखिर मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ, संग-संग मुस्काना है
*
२३-४-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
सबके अपने-अपने कारण
कोई करता नहीं निवारण
चोर-चोर मौसेरे भाई
राजा आप आप ही चारण
सचमुच अच्छे दिन आये हैं
पहले पल में तोला
दूजे पल में माशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
करो भरोसा तनिक न इस पर
इन्हें लोक से प्यारे अफसर
धनपतियों के हित प्यारे हैं
पद-मद बोल रहा इनके सर
धृतराष्ट्री दरबार न रखना
तनिक न्याय की आशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
चौपड़ इनकी पाँसे इनके
छल-फरेबमय झाँसे इनके
जनास्था की की नीलामी
लोक-कंठ में फाँसे इनके
सत्य-धर्म जो स्वारथ साधे
यह इनकी परिभाषा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.**
२४-४-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
चल रहे पर अचल हैं हम
गीत भी हैं, गजल हैं हम
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हैं हम
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हैं हम
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हैं हम
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हैं हम
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हैं हम
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हैं हम
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हैं हम
कह रही संजीव दुनिया
कहें किससे सलिल हैं हम
२३-४-२०१५
***

मुक्तिका

मुक्तिका 
हँस इबादत करो . 
मत अदावत करो 
मौन बैठो न तुम 
कुछ शरारत करो 
सो लिये हो बहुत 
जग बगावत करो 
अब न फेरो नजर 
मिल इनायत करो 
आज शिकवे सुनो 
कल शिकायत करो 
छोड चलभाष दो 
खत किताबत करो 
बेहतरी का कदम 
हर रवायत करो
*
२४-४-२०१४ 

षटपदी

एक षटपदी :
संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..
********
२४-४-२०११

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
*
माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार.. 
*
भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप. 
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप.. 
*
दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान. 
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान.. 
*
रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार. 
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार.. 
*
माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक. 
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
*
२४-४-२०१० 

मुक्तक

मुक्तक
हम जाएँगे, फिर आएँगे, वसुधा को रहना होगा
गगन पवन से, अगन सलिल से, सब सुख-दुःख कहना होगा
ॐ प्रकाश सनातन, राहें बना-दिखाता सदा-सदा
काहे को रोना कोरोना-दर्द विहँस सहना होगा
*
कोरोना को अधिक न कोसो, अनुशासन लेकर आया 
उच्छृंखल करते मनमानी, हमें स्वशासन कब भाया?
प्रकृति दुखी मानव करनी से, वन पर्वत झरने रोते-
करें प्रदूषण मिटा स्वच्छता, दोष न अपना दिख पाया 
*
चारों ओर लगाओ पौधे, बचा सृष्टि को ओ मानव! 
बालारुण का नित प्रकाश लो, कलरव सुन गा ओ मानव! 
योग-ध्यानकर, नहा प्रार्थना प्रभु की कर, लो स्वल्पाहार 
मेहनत ज्यादा भोजन कम कर, स्वास्थ्य बचाओ ओ मानव!
*
२३-४-२०२१ 
 

पुरोवाक् मुक्तक माल पहनकर 'राग-विराग शिखर पर'

पुरोवाक्
मुक्तक माल पहनकर 'राग-विराग शिखर पर'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंदी साहित्य में 'मुक्तक' शब्द का प्रयोग तीन प्रसंगों में किया जाता है। १. मुक्तक छंद, २. मुक्तक काव्य तथा ३. मुक्तक रचना। सामान्यत: प्रथम दो प्रसंगों में मुक्तक शब्द 'काव्य' और 'छंद' की विशेषता इंगित करता है जबकि तीसरे प्रसंग में संज्ञा की तरह प्रयोग किया जाता है। कोई काव्य या छंद रचना अपने आपमें पूर्ण हो तो उसकी यह विशेषता 'मुक्तक' शब्द से अभिव्यक्त होती है। मुक्तक काव्य, मुक्तक छंद और मुक्तक रचना तीनों का उद्गम 'लोक' द्वारा रचे-कहे-सुने-लिखे गए वाचिक पदों से है। भारतीय लोक की आदिम-पुरातन भाषा-बोलिओं से यह परंपरा विद्वानों ने ग्रहण की। पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत से होते हुए यह काव्य विधा फारस पहुँची। कालान्तर में यवन आक्रांताओं के साथ फ़ारसी-अरबी भाषा के साथ यह भारत आई और भारतीय सीमान्त प्रांतों की भाषा-बोलिओं के साथ मिश्रित होकर उर्दू की काव्य विधाओं' के रूप में भारत में आ गई। 
 

मुक्तक छंद

’मुक्तक’ छंद वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं। मुक्तक, काव्य का वह रूप है जिसमें मुक्तककार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक छंद को (अ) पंक्ति संख्या, (आ) उच्चार संख्या तथा (इ) वर्ण संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
 
(अ) पंक्ति आधारित मुक्तक छंद 

इस आधार पर मुक्तक रचनाओं को द्विपदिक मुक्तक छंद (दोहा, सोरठा आदि), त्रिपदिक मुक्तक छंद (माहिया, हाइकु, जनक छंद, तसलीस आदि), चतुष्पदिक मुक्तक छंद (रोला, चौपदे, रुबाई आदि), पंचपदिक मुक्तक छंद (कहमुकरी आदि), षट्पदिक मुक्तक छंद (कुण्डलिया आदि), चौदहपदिक मुक्तक (सॉनेट) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

(क) द्विपदिक मुक्तक 
दोहा
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार। 
'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।    
सोरठा
संबंधों की नाव, पानी-पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव, नदी-नाव-पतवार में।।  
शे'र
बाप की दो बात सह नहीं पाते।
अफसरों की लात भी परसाद है।।

(ख) त्रिपदिक मुक्तक 
माहिया
भावी जीवन के ख्वाब
बिटिया ने देखे हैं              
महके हैं सुर्ख गुलाब।  
हाइकु 
ईंट-रेट का 
मंदिर मनहर 
देव लापता।                 
जनक छंद
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?        

तसलीस
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा,
तभी पाता सफलता है सूरज।    

(ग) चतुष्पदिक 
मुक्तक
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
चौपदा
काहे को रोना कोरोना
कहता अनुशासन मानो।
मास्क पहनकर रखो दूरियाँ
बढ़ा ओषजन सुख जानो।
रुबाई
जहाँ नज़र जाती बस तू ही तू है
नदी मुस्कुराती बस तू ही तू है
दिखी सुबह चिड़िया प्रभाती सुनाती
उषा मन लुभाती बस तू ही तू है।

(घ) पंचपदिक मुक्तक
कहमुकरी
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया? 
नहिं कोरोना।                          
ताँका
घमंड थामे
हाथ में तलवार
लड़ने लगा
अपने ही साये से
उलटे मुँह गिरा  
                 

(ङ) षट्पदिक मुक्तक
कुण्डलिया
हैं ऊँची दूकान में, सब फीके पकवान।
जिसे देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, सहज कब ऊँचाई है।
ऊँचाई सध सके, नहीं तो नीचाई है।।   
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।

(च) अष्टपदिक मुक्तक 
उमड़-घुमड़ बरस रही रुके न मातमी घटा 
लगे कि आसमान नील सलिल धार पा फटा 
धीर वीर झूमता जुझारू युद्ध में डटा 
पवन विपक्ष सैन्य दल हटाय किंतु ना हटा?
लुभा रही हैं बिजलियाँ संयमी नहीं पटा 
हरावलों को रोकने अस्त्र-शस्त्र ले सटा
रुधिर धार श्रृंग से बहीं या काल की जटा 
रुण्ड-मुंड ढेर से समुद्र तीर था पटा        - नाराच छंद  

(छ) चौदह पदिक मुक्तक 

दूर अपने आप से मत भागिए 
देख दर्पण पूछिए निज मोल क्या?
अधिक अपने आप को मत आँकिए 
जमाना तुमको रहा है तोल क्या?

मोल हीरा बताता अपना नहीं
मिया मिट्ठू आप मुँह से जो बने 
सत्य होता है कभी सपना नहीं 
समर उसका सचाई से नित ठने 

पतन होता अंत में दसशीश सम 
मिटाते उसको सगे उसके रहे 
मारता जो वही पुजता ईश सम
स्वजन सारे साथ में उसके दहे 

क्या सबक कुछ सीख पाए हम कहो 
यदि नहीं तो याद नित उसकी तहो   -सॉनेट 

(ज) अनिश्चित पंक्ति संख्या के मुक्तक 
रेंगा 
संध्या के गाल 
आँके चुंबन लाल 
अरे किसने?           - नलिनीकांत 
पूछ रहा चंद्रमा 
छिप गया सूरज।   -संजीव 'सलिल'
चोका 
आया चुनाव 
नेता करें वायदे 
जीतें चुनाव 
भूलें झट वायदे 
दिलाओ याद 
वायदों को जुमला 
कहें बेशर्म 
तनिक नहीं लाज 
सत्ता है ध्येय 
देशसेवा की आड़ 
लूटता माली 
कलियों की इज्जत 
जिसने पाला 
उसे काटता साँप 
जागे जनता 
अब न जाए ठगी 

(आ) उच्चार (मात्रा) आधारित मुक्तक
'उच्चार' के दो प्रकार लघु उच्चार तथा दीर्घ उच्चार है। इन्हें सामान्यत: 'मात्रा' तथा उच्चार आधारित छंदों को मात्रिक छंद कहा जाता है। अत: इस आधार पर रचित मुक्तकों को 'मात्रिक मुक्तक कहा जाता है। हिंदी छंद शास्त्र में ५०० से अधिक मात्रिक छंद हैं।  मात्रिक मुक्तक दो मात्राओं से लेकर बत्तीस मात्राओं तक की पंक्तियों से रचे जाते हैं। बत्तीस मात्राओं से अधिक मात्राओं की पंक्तियों से रचे गए मुक्तक दंडक मुक्तक कहे जाते हैं। मात्रिक मुक्तक छंद के विविध प्रकार दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया आदि हैं। छंद प्रभाकर के अनुसार मात्रिक मुक्तक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ है। 

(इ) वर्णाधारित मुक्तक 
वर्णधारित मुक्तक 'गण' (लय खंड) को आधार बनाकर रचे जाते हैं। गण आठ हैं जिन्हें गणसूत्र 'यामतराजभानसलगा' से स्मरण रखा जाता है। वर्णधारित मुक्तक छंदों की संख्या १३,४२,१६६२६ है।  
 
मुक्तक काव्य
इन सब मुक्तक छंदों का सम्मिलित रूप मुक्तक काव्य है। सामान्यत: मुक्तक को हर तरह से मुक्त होकर लिखी रचना मान लेना निराधार है। मुक्तक का वास्तविक अर्थ हर तरह के नियमों में बँधी वह रचना है, जिसकी पंक्तियों में अर्थ-भाव तथा रस की त्रिवेणी प्रवाहित होती हो।
मुक्तक काव्य वह काव्य रचना है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो, जिस काव्य रचना का कथ्य उसमें पूरी तरह से अभिव्यक्त हो गया हो या जिस काव्य रचना के कथ्य का पूर्व या पश्चात् की काव्य रचना से कोई संबंध न हो उसे मुक्तक काव्य कहा जाता है। 

‘अग्निपुराण’ के अनुसार ”मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्” अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं। 

तेरहवीं सदी के संस्कृत आचार्य महापात्र विश्वनाथ के शब्दों में ’छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं’ अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं। मुक्तक का शब्दार्थ ही है ’अन्यैः मुक्तमं इति मुक्तकं’ अर्थात जो अन्य मुक्तकों (श्लोकों या अंशों) से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं। 

अन्य काव्य-पदों से निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता के अंतःकरण में रस-सलिला प्रवाहित हो, कथ्य का पूर्ण आभास हो, वही मुक्तक है। ’मुक्त्मन्यें नालिंगितम....पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं’ अर्थात मुक्तक काव्य अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र काव्य रचना (छंद/इकाई) होती है। इसकी पूर्णता के लिए ना तो इसके पहले और ना इसके बाद में, किसी संदर्भ या कथा की आवश्यकता होती है। हिन्दी के रीतिकाल में मुक्तक काव्यों की रचना अधिक की गयी जबकि आधुनिक कला में प्रबंध काव्यों का प्रणयन अधिक किया गया है।

लोक प्रचलित मुक्तक 

आधुनिक हिन्दी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इस परिभाषा के अनुसार प्रबंध काव्यों से इतर प्रायः सभी रचनाएँ मुक्तक में समाविष्ट हो जाती हैं। लोकप्रचलित मुक्तक का संबंध फ़ारसी तथा उर्दू साहित्य से है। मुक्तिका की उदयिका या आरंभिका के साथ उदयिकोत्तर द्विपदी (गजल के मतला के साथ मतलासानी) संलग्न हो तो इस चतुष्पदी काव्य रचना को मुक्तक कहते हैं। मुक्तक एक समान मात्राभार या समान वर्णभार और समान लययुक्त चार पंक्तियों की रचना है। सामान्यतः इसका पहला, दूसरा और चौथा पद तुकान्त तथा तीसरा पद अतुकान्त होता है और जिसकी अभिव्यक्ति का केंद्र अंतिम दो पंक्तियों में होता है। 

गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ। 
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ।।
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ।।  ३२ मात्रिक  

मुक्तक वह नियमबद्ध काव्य रचना है जो स्वतंत्र कथ्य व्हो भाव संपन्न हो  पर काव्य रचना के नियमों में बँधी हो। मुक्तक छोटी -नियमबद्ध काव्य रचना है, जिसका विषय और भाव मुक्त-स्वतंत्र होता है। मुक्तिका (ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत आदि)  की हर द्विपदी (शे'र) स्वतंत्र मुक्तक है। अत: मुक्तिका मुक्तकों का गुच्छा है। मुक्तक किसी काव्य विधा का नाम नहीं है। मुक्तक वह हर छोटी रचना है, जो छंद नियमों का पालन करते हुए स्वतंत्र/मुक्त भाव रखती है। प्रो.शंभूनाथ तिवारी के अनुसार छोटे छंदों में कुछ लिखा तो वह मुक्तक है पर चौपाई दोहे में लंबी कथा कहेंगे तो वह मुक्तक नहीं होगा। मसनवी में शे'र होते हैं पर वे किसी कहानी का हिस्सा होते हैं, इसलिए मुक्तक नहीं हैं। रामचरित मानस में दोहा, चौपाई आदि छंद हैं पर वे भी कथा का हिस्सा हैं, मुक्त नहीं हैं।  

प्रसिद्ध मुक्तककार राजेंद्र वर्मा के अनुसार मुक्तक काव्य और मुक्तक विधा में अंतर है। मुक्तक काव्य अपनी विषय-वस्तु में पूर्वा पर आधारित नहीं होता। जैसे- दोहा, चौपाई, सवैया-घनाक्षरी छन्द आदि। मुक्तक का विधा के रूप में अर्थ भिन्न होता है। इसमें चार पंक्तियाँ होती हैं, चारों पंक्तियों में एक केन्द्रीय भाव होता है। कहन कुछ इस तरह होती है कि उसका निष्कर्ष या सार अंतिम दो पंक्तियों में हो जिनके कहते ही पाठक 'वाह' कह दे। मुक्तक में व्यंजनात्मकता, लाक्षणिकता तथा अलंकारिता हो तो उसे सराहना मिलती है। मुक्तककार की कहन या अंदाज़-ए-बयाँ उसकी पहचान होती है। मुहावरेदार प्रवाहयुक्त भाषा मुक्तक में जान फूँक देती है। 
 
मुक्तक और पदांत 

चतुष्पदी (मुक्तक) को पदांत नियम के आधार पर निम्नत: वर्गीकृत किया जा सकता है -

(ट) . पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में समान पदांत -
मतभेदों को सब हँसकर स्वीकार करें। 
मनभेदों की ध्वस्त हरेक दीवार करें।। 
ये जय जय वे हाय हाय अब बंद करें-
देश सभी का, सब इसका उद्धार करें।।       - बाईस मात्रिक, रास छंद  
(ठ). पहली दूसरी पंक्ति का समान पदांत, तीसरी चौथी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -
गौरैया कलरव। 
ता थैया अभिनव।। 
माँ रेवा रवकर। 
तारेंगी हँसकर।।                                     - दस मात्रिक, गौरैया कलरव छंद  
(ड). पहली तीसरी पंक्ति का समान पदांत,दूसरी चौथी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -  
श्वासें हैं महकीं। 
बाँहों में खुशबू। 
आसें हैं चहकीं।।
बाँहों में खुश तू।।                                    दस मात्रिक, आभासी दुनिया छंद
(ढ). पहली चौथी पंक्ति का समान पदांत, दूसरी तीसरी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -
कोरोना से मौत विनाश। 
भोगें सारे लोग अभाव।
नेता चाहे आम चुनाव।।
सत्तालोभी दानव।।                                - पंद्रह मात्रिक, भुजंगिनी छंद
(ण). पहली, तीसरी, चौथी पंक्ति का समान तुकांत-
प्रश्न उत्तर माँगते, हैं घूरती चुप्पी
मौन रहकर भी यदि मन, हो न पाए शांत
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी       -तेईस मात्रिक, उपमान छंद 


मुक्तक का वर्गीकरण कथ्य के लक्षणों या विशेषताओं के आधार पर भी किया जाता है। ऐसे कुछ प्रकार निम्न हैं- 

(त). गेय मुक्तक
(थ). वैचारिक मुक्तक
(द). रस प्रधान मुक्तक 
(ध). अलंकार प्रधान मुक्तक 
(न). नीति के मुक्तक 

आधुनिक काल में मुक्तक लेखन की परंपरा दिनोंदिन अधिकाधिक विस्तार पा रही है। सतत सृजनरत साहित्यकारों में बहुविधाई लेखन से प्रतिष्ठित सुनीता सिंह के मुक्तक देश-काल परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में पठनीय हैं। इस संग्रह में चतुष्पदिक मुक्तकों का संग्रह किया गया है। मुक्तकों की विविध मापानियाँ, विभिन्न विषय और उनमें प्रयुक्त विविध छंद मुक्तककार की रचना-सामर्थ्य का परिचायक हैं। गुरुतर प्रशासनिक कार्य-दायित्व का निर्वहन कर रहीं सुनीता, भारतीय गृहणी के सकल दायित्वों के साथ न्याय करते हुए भी विविध विधाओं में जिस द्रुत गति से सृजनरत हैं, वह विस्मित करता है। अला-अलग विधाओं के मानकों को जानना, समझना और उनकी सीमा में आत्मसात की हुई अनुभूतियों को व्यक्त कर पाना सहज नहीं होता। इस निकष पर खरा उतरने के लिए भाव प्रवण अन्तर्मन, प्रचुर शब्द भण्डार, संवेदनशील दृष्टि, भाषिक व्याकरण और पिङगल का ज्ञान तथा अनुभूत को अभिव्यक्त करने के लिए सटीक शब्द-चयन की सजगता सुनीता सिंह में है। 

भारत में हर मौसम अपनी नयनाभिराम छटा बिखेरता है। प्रथम वर्षा में माटी और बर्षा-बूंदों के मिलान से उठती सौंधी-सौंधी सुगंध मन-प्राण को आनंदित कर देती है-

पहली-पहली बारिश सौंधी बहुत सुहावन होती है।  ३० 
रस बरसे आंगन में टप-टप, बहुत लुभावन होती हैं।।
प्रीत चुनरिया रंग-बिरंगी ओढ़ ह्रदय जब लेता है-
भाव सुरीले, धुन-लय मीठे, सरगम पावन होती है।८।  -  (ताटंक छंद)

ऋतुओं के समागम का अपना अलग आनंद है। कवयित्री ग्रीष्म में शीत की प्रतीति को शब्दित करती है- 

गर्मी उफने बाहर तो सुराही में है शीत रे! २८ 
मीठी तेरी बर्फी से, लवाही मेरी मीत रे!
लह-लह करती फसल लहे, बहुत सुगंधित हवा चली-
हलवे से ज्यादा सौंधे, ये पुरवाई के गीत रे! ८८/२।        -  (विधाता छंद)

गेहूँ की फसल पकने पर ऐसी प्रतीत होती है मानों खेतों पर सोना बिखरा है-

खेर्तों में बिखरा सोना।   १४ 
धरती का निखरा होना।। 
हरियाली के गीतों का- 
फसलों में बाली बोना।९०।         - (सखी छंद) 

परिवर्तन ही जीवन है। सुख-दुःख जीवन में धूप-छाँव की तरह आते-जाते हैं। सुख मिलने पर आदमी अपनों से दूर हो एकाकी होकर भोगना चाहता है जबकि दुःख को अपनों के साथ बाँटना चाहता है। तुलसी कहते हैं 'धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपत काल परखिहहिं चारि'। शैली के अनुसार 'अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस दैट टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट'  बकौल शैलेंद्र 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'। सुनीता जी के अनुसार पीड़ा में मन और अधिक निखरता है -

पीर सियाही में डूबा मन और निखरकर आया है।   ३० 
जितना सिमटा है अपने में, और बिखर घबराया है।।
ठहरी नस में बहता विष है, भीगी आँखें जलती हैं -  
जितना गहराई में उतरा, और शिखर पर पाया है।५।    - (ताटंक छंद)

इन मुक्तकों में यत्र-तत्र जीवन-दर्शन के दर्शन होते हैं। सामान्यत: दर्शन और वैराग्य की बातें मनुष्य वृद्धावस्था में करता है किन्तु कवि-मन को परिपक्व होने के लिए आयु की प्रौढ़ता की आवश्यकता नहीं होती। कवि की अनुभूतियाँ उसे परिपक्व बनाती हैं। सुनीता जी के लिए जीवन अनमोल उपहार है। इसीलिए वे जीवन के पल-पल का उपयोग करती हैं और कुछ न कुछ नया गढ़ती-बढ़ती हैं। 

जीवन कोई भार नहीं है।   १६ 
जीत-हार व्यापार नहीं है।।
रत्न सुदर्शन रंग भरा ये -
सस्ता यह उपहार नहीं है।१७।       - (अरिल्ल छंद)

जीवन में चुनौतियाँ न हों तो जीवन नीरस हो जाएगा। आगे बढ़ने का आनंद तभी है जब पग-पग पर बाधाएँ हों। इस भाव को व्यक्त करता है निम्न मुक्तक -

तुम डुबोते रहो, हम उबर जाएँगे। २१ 
टूटटे-टूटते हम सँवर जाएँगे।।
साथ देना न तुम, कोई शिकवा नहीं-
धूप सहते हुए हम निखर जाएँगे।३०।   - (त्रैलोक छंद)

सामान्य माध्यम वर्ग और पारंपरिक समाज की कन्या के लिए उन्नति की रह आसान होती। वही बिटिया आगे बढ़ पति है जिसमें जिजीविषा, लगन और असफलता से हताशा न होकर आगे बढ़ने का माद्दा होता है। सुनीता ने अपनी अल्प समय में अपनी जीवन यात्रा में प्रशासनिक सेवा और साहित्य के क्षेत्रों में शिखर तक पहुँचकर अपने जीवट की जय बोली है। संघर्षरत युवा कुछ मुक्तकों में अपने लिए सफलता के सूत्र पा सकते हैं- 

पाँव शिखर पर धीरे-धीरे चढ़ते हैं।    २२ / १५ 
थम दम ले फिर हौले-हौले बढ़ते हैं।।
अब न रुकेंगे सुन लो ऐ दुनियावालो!
हम यत्नों से किस्मत अपनी गढ़ते हैं।८७ / १ ।    - (मात्रिक कुंडल छंद / वार्णिक अतिशक्वरी छंद) 

यह मुक्तक बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय मात्रिक कुण्डल छंद होने के साथ-साथ १५ x ४ = ६० अक्षरी अतिशक्वरी जातीय छंद के विधान पर खरा उतरता है। वार्णिकमात्रिक दोनों कसौटियों पर सही छंद लिखने के लिए अभ्यास और दक्षता दोनों आवश्यक हैं। 

'सब दिन जात न एक समान'। धैर्यवान व्यक्ति भी घटनाओं के चक्रव्यूह में घिरकर असहायता अनुभव करने लगता है। तब 'हारे को हरिनाम' अर्थात ईश्वरीय सहायता ही एकमात्र निदान बचता है-

झंझावातों से जग के जब मन घबराता है।   २६ 
छ्व्यूह से लाख जतन कर निकल न पाता है।।
ऐसे में सब तुम पर छोड़ा प्रभु! जो हो करना-
डूब रही नैया को तू ही पार लगता है।७२।      - (विष्णुपद छंद)

इन मुक्तकों का वैशिष्ट्य उनकी मुहावरेदार भाषा, सरल-सटीक शब्द चयन, स्पष्ट भाव बोध तथा सरसता है। सुनीता जी ने जाने-अनजाने अनेक छंदों का प्रयोग इन मुक्तकों में किया है जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है। छान्दस विधानानुरूप होने के कारण ये मुक्तक सहज गेय हैं। मुक्तकों में अमिधा, व्यंजना तथा लक्षणा का यथस्थान उपयोग  किया गया है। शांत, श्रृंगार, भक्ति, करुण आदि रास यत्र-तत्र मुक्तकों में अन्तर्निहित हैं। इससे पहले गीत, दोहे, कविता, बाल गीत, हज़ल आदि विधाओं में अपना जौहर दिखा चुकी सुनीता जी इस बार मुक्तक के ग्रह पर सृजन पताका फहरा रही हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ये मुक्तक सामान्य पाठक से लेकर विद्वानों तक सभी के द्वारा सराहे जाएँगे। 
*
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com  

   



शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

मुक्तिका मुहब्बतनामा

मुक्तिका 
मुहब्बतनामा
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.
गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.
अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.
महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.
पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.
सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.
नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.
माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.
नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.
जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.
उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.
सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.
दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.
न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.
जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.
न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.
अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.
बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.
कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.
पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.
चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.
सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.
रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.
लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.
कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.
दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.
दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.
सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.
बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.
तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.
नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.
कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.
अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.
शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.
धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.
जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.
कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.
मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.
तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.
चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.
बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.
निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.
भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.
नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.
महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.
हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६.
.
कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.
उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.
न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.
कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.
नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.
करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.
लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.
अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.
तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.
कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.
न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.
मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.
तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.
है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू खिला री मुहब्बत.६०.
न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री मुहब्बत.६१.
न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.
समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.
खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.
तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.
अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.
सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.
जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.
तरसती हैं आँखें झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.
भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.
सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.
न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.
उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३.
मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..
न तनकी, न मनकी, न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.
नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.
सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.
बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.
कभी देवता की, कभी देश-भू की
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.
पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.
हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.
हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.
ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.
मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.
फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.
गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.
पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.
मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.
न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.
कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.
कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.
महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.
लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.
मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.
रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.
पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.
जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.
समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.
काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.
नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.
शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.
न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.
'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.
'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.
नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.
जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.
नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.
नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.
'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.
बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.
ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा री मुहब्बत.११०.
'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.
अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.
'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.
'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.
'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.
'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.
चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.
कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.
छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.
उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.
'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.
लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.
तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.
रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.
प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.
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पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर मुक्तिका

पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका












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मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
*
संजीव
२३-४-२०२०

विमर्श : चाहिए या चाहिये?

विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें ए का प्रयोग ही सही है।

मुक्तक

मुक्तक
*
इस दुनिया में जान लुटाता किस पर कौन?
जान अगर बेजान साथ में जाता कौन?
जान जान की जान मुसीबत में डाले
जान जान की जान न जान बताता कौन?
*
२३-४-२०१९ 

लघुकथा जाति

लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
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संवस
२३-४-२०१९