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शनिवार, 3 अप्रैल 2021

गीत बिन तुम्हारे

गीत 
बिन तुम्हारे...
संजीव 'सलिल'
*
बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.
चहचहाते पखेरू पर डालता कोई न डेरा.

उषा की अरुणाई मोहे, द्वार पर कुंडी खटकती.
भरम मन का जानकर भी, दृष्टि राहों पर अटकती..

अनमने मन चाय की ले चाह जगकर नहीं जगना.
दूध का गंजी में फटना या उफन गिरना-बिखरना..

साथियों से बिना कारण उलझना, कुछ भूल जाना.
अकेले में गीत कोई पुराना फिर गुनगुनाना..

साँझ बोझिल पाँव, तन का श्रांत, मन का क्लांत होना.
याद के बागों में कुछ कलमें लगाना, बीज बोना..

विगत पल्लव के तले, इस आज को फिर-फिर भुलाना.
कान बजना, कभी खुद पर खुद लुभाना-मुस्कुराना..

बिन तुम्हारे निशा का लगता अँधेरा क्यों घनेरा?
बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.
***

सरस्वती वंदना अंबरीश श्रीवास्तव

सरस्वती वंदना
अंबरीश श्रीवास्तव, सीतापुर
*
चतुर्भुजी माँ ब्राह्मी, वीणा पुस्तक सार | 
ज्ञान स्रोत हिन्दी बने, इसका हो व्यवहार || 
ज्ञानदायिनी शारदे, सब हों हिन्दी मीत | 
हिन्दी के व्यवहार से, छाये सबमें प्रीति || 
दुर्गम है हिन्दी नहीं, जन जन की आवाज़ | 
उर अंतर में ये बसी, अनुशासित अंदाज || 
यति गति लय भी गद्य में, रक्खें इसका ध्यान | 
अपनी शैली में लिखें , होगा कार्य महान || 
बोधगम्य हिन्दी लिखें, भरें शब्द भंडार | 
छोटे छोटे वाक्य हों , समुचित वर्ण प्रकार || 
सहज सौम्य अनुकूलतम, शब्दों का विन्यास | 
मुखरित होयें भाव सब , कर लें यही प्रयास || 
देना होगा ध्यान अब, देखें चिन्ह विराम | 
मात्राएँ सब ठीक हों, अवलोकें अभिराम || 
शब्दों की संयोजना , मन में उठते भाव | 
हिंदी में अभिव्यंजना , छोड़े अमिट प्रभाव || 
हिन्दी में सब काम हो , हिन्दी हो आधार | 
मातु करो सब पर कृपा, अपनी ये मनुहार ||

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

चित्रगुप्त भजन

भजन
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।
डगमग डगमग नैया डोले, झटपट आ उद्धार करो।।
*
तुमईं बिरंचि सृष्टि रच दी, हरि हो खें पालन करते हो।
हर हो हर को चरन सरन दे, सबकी झोली भरते हो।।
ध्यान धरम कछू आउत नइयां, तुमई हमाओ ध्यान धरो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
*
जैंसी करनी तैंसी भरनी, न्याओ तुमाओ है सच्चो।
कैसें महिमा जानौं तुमरी, ज्ञान हमाओ है कच्चो।।
मैया नंदिनी-इरावती सें, बिनती सिर पर हाथ धरो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
*
सादर मैया किरपा करके, मोरी मत निरमल कर दें।
काम क्रोध मद मोह लोभ हर, भगति भाव जी भर, भर दें।
कान खैंच लो भले पर पिता, बाँहों में भर प्यार करो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
***

दोहा से कुण्डलिया

कार्यशाला : दोहा से कुण्डलिया
जाने कितनी हो रही अपने मन में हूक।
क्यों होती ही जारही अजब चूक पर चूक। - रामदेव लाल 'विभोर'
अजब चूक पर चूक, विधाता की क्या मर्जी?
फाड़ रहा है वस्त्र, भूलकर सिलना दर्जी
हठधर्मी या जिद्द, पड़ेगी मँहगी कितनी?
ले जाएगी जान, न जाने जानें कितनी - संजीव

विमर्श दुर्गा पूजा

विमर्श 
दुर्गा पूजा
*
एक प्रश्न
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे महामीरी में रोजगार गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से उत्पादन का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
दुर्गा सप्तशती में महामारी को भी भगवती कहा गया है। रक्तबीज की तरह कोरोना भी अपने अंश से ही बढ़ता है। रक्तबीज तभी मारा जा सका जब रक्त बिंदु का संपर्क समाप्त हो गया। रक्त बिंदु और भूमि (सतह) के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़ा था मैया ने। आज बेटों की बारी है। कोरोना वायरस और हवा, मानवांग या स्थान के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़कर कोरोना को मार दें। यह न कर कोरोना के प्रसार में सहायक जन देशद्रोही ही नहीं मानव द्रोही भी हैं। उनके साथ कानून वही करे जो माँ ने शुंभ-निशुंभ के साथ किया। कोरोना को मानव बम बनाने की सोच को जड़-मूल से ही मिटाना होगा।
*
२-४-२०२० 
संजीव
९४२५१८३२४४
*

मुक्तक

मुक्तक
*
सिर्फ पानी नहीं आँसू, हर्ष भी हैं दर्द भी।
बहाती नारी न केवल, हैं बनाते मर्द भी।।
गर प्रवाहित हों नहीं तो हृदय ही फट जाएगा-
हों गुलाबी-लाल तो होते कभी ये जर्द भी।।
***

मुक्तिका

 मुक्तिका

*
अभावों का सूर्य, मौसम लापता बरसात का।
प्रभातों पर लगा पहरा अंधकारी रात का।।
वास्तव में श्री लिए जो वे न रह पाए सुबोध
समय जाने कब कहेगा दर्द इस संत्रास का।।
जिक्र नोटा का हुआ तो नोटवाले डर गए
संकुचित मजबूत सीने विषय है परिहास का।।
लोकतंत्री निजामत का राजसी देखो मिजाज
हार से डर कर बदलता हाय डेरा खास का।।
सांत्वना है 'सलिल' इतनी लोग सच सुन सनझते
मुखौटा हर एक नेता है चुनावी मास का।।
२-४-२०१९
***
संवस, ७९९९५५९६१८

हनुमान

पुरोवाक 
जप ले मन हनुमान: 

















गौतम बुद्ध नगर निवासी हनुमद्भक्त रीता सिवानी द्वारा रचित ४० भक्ति प्रधान दोहों का नित्य पाठ करने योग्य संग्रह। आरंभ में शुभ कामना ९ दोहों के रूप में
जय गणेश विघ्नेश्वर, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ।
कर्मदेव श्री चित्रगुप्त, रखिए सिर पर हाथ।।
सिया राम सह पवनसुत, वंदन कर स्वीकार।
करें कृपा संजीव हो, मम मन तव आगार।।
रीता मन-घट भर प्रभु, कृपा सलिल से नित्य।
विधि-हरि-हर हर विधि करें, हम पर कृपा अनित्य।।
प्रिय रीता दोहा रचे, प्रभु का कर गुणगान।
पवन-अंजनी सुत सहित, करें अभय मतिमान।।
सरस-सहज दोहे सभी, भक्ति-भाव भरपूर।
पढ़-सुन हर दिन गाइए, प्रभु हों सदय जरूर।।
हनुमतवत नि:स्वार्थ हों, काम करें निष्काम।
टेरें जब 'आ राम' हम, बैठें मन आ राम।।
प्रभु रीता-मनकामना, करिए पूर्ण तुरंत।
कीर्ति आपकी व्यापती, पल-पल दिशा-दिगंत।।
सफल साधना कर रहे, मन्वन्तर तक नाम।
तुहिना सम जीवन जिएँ, निर्मल अरु अभिराम।।
शब्द-शब्द 'जय हनु' कहे, दोहा-दोहा राम।
सीता सी लय साथ हो, जय प्रभु पूरनकाम।।
***
रीता उवाच:
निश्छल मन से जो जपे, जय जय जय हनुमान।
कृपा करें उन पर सदा, हनुमत कृपानिधान।।
लंकापति का तोड़कर, लंका में अभिमान।
सीता माता का पता, ले आए हनुमान।।
तोड़े रावण-भीम से, बलियों के अभिमान।
हनुमत जैसा कौन है, इस जग में बलवान।।
ग्यारहवें अवतार हैं, शंकर के हनुमान।
मद में रावण कह गया, उनको कपि नादान।।
कहे सुने हनुमत-कथा, मम से- जो इंसान।
उस पर करते हैं कृपा, जग के कृपानिधान।।
***

विमर्श 'कत्अ'

विमर्श 
'कत्अ'
*
'कत्अ' उर्दू काव्य का एक हिस्सा है। 'कत्अ' का शब्दकोशीय अर्थ 'टुकड़ा या भूखंड' है। 'उर्दू नज़्म की एक किस्म जिसमें गज़ल की तरह काफ़िए की पाबन्दी होती है और जिसमें कोई एक बात कही जाती है'१ कत्अ है। 'कत्अ' को सामान्यत: 'कता' कह या लिख लिया जाता है।
'प्राय: गज़लों में २-३ या इससे अधिक अशार ऐसे होते थे जो भाव की दृष्टि से एक सुगठित इकाई होते थे, इन्हीं को (गजल का) कता कहते थे।'... 'अब गजल से स्वतंत्र रूप से भी कते कहे जाते हैं। आजकल के कते चार मिसरों के होते हैं (वैसे यह अनिवार्य नहीं है) जिसमें दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफिया - हमरदीफ़ होते हैं।२
'कत्अ' के अर्थ 'काटा हुआ' है। यह रूप की दृष्टि से गजल और कसीदे से मिलता-जुलता है। यह गजल या कसीदे से काटा हुआ प्रतीत होता है। इसमें काफिये (तुक) का क्रम वही होता है जो गजल का होता है। कम से कम दो शे'र होते हैं, ज्यादा पर कोइ प्रतिबन्ध नहीं है। इसमें प्रत्येक शे'र का दूसरा मिस्रा हम काफिया (समान तुक) होता है। विषय की दृष्टि से सभी शे'रों का एक दूसरे से संबंध होना जरूरी होता है। इसमें हर प्रकार के विषय प्रस्तुत किये जा सकते हैं।३
ग़ालिब की मशहूर गजल 'दिले नादां तुझे हुआ क्या है' के निम्न चार शे'र 'कता' का उदाहरण है-
जबकि तुम बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है।
ये परि चेहरा लोग कैसे हैं
गम्ज़-ओ-इश्व-ओ-अदा क्या है।
शिकने-जुल्फ़े-अंबरी क्यों है
निग्हे-चश्मे-सुरमा सा क्या है।
सब्ज़-ओ-गुल कहाँ से आये है
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है।
फैज़ का एक कता देखें-
हम खस्तातनों से मुहत्सिबो, क्या माल-मनाल की पूछते हो।
इक उम्र में जो कुछ भर पाया, सब सामने लाये देते हैं
दमन में है मुश्ते-खाके-जिगर, सागर एन है कहने-हसरते-मै
लो हमने दामन झाड़ दिया, लो जाम उलटाए देते हैं
यह बिलकुल स्पष्ट है कि कता और मुक्तक समानार्थी नहीं हैं।
२-४-२०१७ 
***
सन्दर्भ- १. उर्दू हिंदी शब्दकोष, सं. मु. मुस्तफा खां 'मद्दाह', पृष्ठ ९५, २. उर्दू कविता और छन्दशास्त्र, नरेश नदीम पृष्ठ १६, ३.उर्दू काव्य शास्त्र में काव्य का स्वरुप, डॉ. रामदास 'नादार', पृष्ठ ८५-८६, ४.

मुक्तिका

मुक्तिका 
संजीव 'सलिल'
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
*
चोर कर रहे पहरेदारी
सच में सच रुसवाई बड़ी है..
*
बैठी कोष सम्हाले साली
खाली हाथों माई खड़ी है..
*
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पडी है..
*
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है..
२-४-२०१७
*************************

हाइकु के रंग भोजपुरी के संग

हाइकु के रंग भोजपुरी के संग
संजीव 'सलिल'
*
आपन त्रुटि
दोसरा माथे मढ़
जीव ना छूटी..
*
बिना बात के
माथा गरमाइल
केतना फीका?.
*
फनफनात
मेहरारू, मरद
हिनहिनात..
*
बांझो स्त्री के
दिल में ममता के
अमृत-धार..
*
धूप-छाँव बा
नजर के असर
छाँव-धूप बा..
*
तन एहर
प्यार-तकरार में
मन ओहर..
*
झूठ न होला
कवनो अनुभव
बोल अबोला..
*
सबुर दाढे
मेवा फरेला पर
कउनो हद?.
*
घर फूँक के
तमाशा देखल
समझदार?.
*
२-४-२०१० 

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

देवी कवच


। अथ देव्या कवचं ।
। यह देवी कवच है ।
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद: चामुंडा देवता,
अंगन्यासोक्तमातरो बीजं, दिग्बंधदेवतास्तत्त्वं ,
श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोग:।
। ॐ यह श्री चंडी कवच है, ब्रह्मा ऋषि ने गाया है।
। छंद अनुष्टुप, देव चामुंडा, अंग न्यास हित भाया है।
। मातृ-बीज दिग्बंध देव का, जगदंबा के हेतु करे।
। सप्तशती के पाठ जाप, विनियोग हेतु स्मरण करे।
।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।
।। ॐ चंडिका देवी नमन।।
मार्कण्डेय उवाच।।
मार्कण्डेय बोले।।
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्व रक्षाकरं नृणाम।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह।१।
ॐ लोक में परम गुप्त जो, सब प्रकार रक्षा करता।
नहीं कहा हो किसी अन्य से, कहें पितामह वह मुझसे।१।
ब्रम्होवाच
अस्तु गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकं।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने।२।
विधि बोले: हे विप्र! गुप्ततम, सब उपकारी साधन एक।
देवी कवच पवित्र दिवा है, उसको सुनिए महामुने।२।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकं।३।
पहली शैलपुत्री हैं, दूसरी ब्रह्मचारिणी।
चंद्रघंटा तीसरी हैं, कूष्माण्डा हैं चौथी।३।
पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम।४।
पाँचवी स्कन्द माता, छठी हैं कात्यायनी।
कालरात्रि सातवीं हैं, महागौरी हैं आठवीं।४।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।५।
नौवीं सिद्धिदात्री हैं, सुकीर्तिवान हैं नौ दुर्गा।
उक्त नामों को रखा है, ब्रह्म ने ही महात्मना।५।
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विश्मे दुर्गमें चैव भयार्ता: शरणं गता:।६।
जल रहा मनु अग्नि में या घिरा रण में शत्रुओं से।
विषम संकटग्रस्त हो भयभीत, आ मैया-शरण में ।६।
न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि।७।
बाल भी बाँका न होता, युद्ध खतरों संकटों में।
छू नहीं पाता उन्हें दुःख, शोक भय विपदा-क्षणों में।७।
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि: प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशय:।८।
भगवती को भक्तिपूर्वक याद जो करते निरंतर।
करें रक्षा अंब उनकी, अभ्युदय होता न संशय।८।
प्रेतसंस्था तु चामुंडा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढ़ा वैष्णवी गरुणासना।९।
प्रेतवाहनी हैं चामुंडा, वाराही महिषासनी।
ऐन्द्री ऐरावत आसीना, गरुण विराजीं वैष्णवी।९।
माहेश्वरी वृषारूढ़ा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया।१०।
वृषारूढ़ माहेश्वरी, कौमारी हैं मोर पर।
विष्णुप्रिया कर-कमल ले, रमा विराजित कमल पर ।१०।
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढ़ा सर्वाभरणभूषिता।११।
श्वेत रूप धरे देवी, ईश्वरी वृष पर विराजित।
हंस पर आरूढ़ ब्राह्मी, अलंकारों से अलंकृत।११।
इत्येता मातर: सर्वा: सर्वयोगसमन्विता:।
नानाभरणशोभाढ्या नानरत्नोपशोभिता।१२।
सब माताएँ योग की सर्व शक्ति से युक्त।
सब आभूषण सुसज्जित, रत्न न कोई त्यक्त।१२।
दृश्यन्ते रथमारूढ़ा देव्य: क्रोधसमाकुला।
शँखम् चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधं।१३।
सभी देवियाँ क्रोध से आकुल रथ आसीन।
शंख चक्र हल गदा सह, मूसल शक्ति प्रवीण।१३।
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गायुधमुत्तमम्।१४।
खेटक तोमर परशु अरु पाश लिए निज हाथ।
कुंत - त्रिशूल लिए हुए, धनु शार्ङ्ग है साथ।१४।
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्तायुधानीत्थम् देवानां च हिताय वै।१५।
दैत्य-दलों का नाश कर, हरें भक्त की पीर।
धारण करतीं शस्त्र सब, देवहितार्थ अधीर।१५।
नमस्तेsस्तु महारौद्रे महाघोर पराक्रमी।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनी।१६।
तुम्हें नमन है महारौद्रा, महाघोरा पराक्रमी।
महा बल-उत्साहवली, तुम्हीं भय विनाशिनी।१६।
त्राहिमां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैंद्री आग्नेय्यामग्निदेवता।१७।
त्राहिमाम् है कठिन देखना, तुमको देवी अरिभयवर्धक।
पूर्व दिशा में ऐन्द्री रक्षें, अग्निदेवता आग्नेय में।१७।
दक्षिणेवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी।१८।
दक्षिण में वाराही देवी अरु नैऋत्य में खड्गधारिणी।
पश्चिम में वारुणी बचाएँ वायव्य में मृगवाहिनी।१८।
उदीच्यां पातु कौमारी, ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि में रक्षेदधस्ताद वैष्णवी तथा।१९।
उत्तर में कौमारी और ईशान में शूलधारिणी।
ऊपर से रक्षे ब्राह्मणी, नीचे से रक्षे वैष्णवी।१९।
एवं दस दिशो रक्षेच्चामुंडा शववाहना।
जया में चागत: पातु, विजय पातु पृष्ठत:।२०।
रक्षें दसों दिशाओं में चामुंडा शव वाहना।
जया करें रक्षा आगे से, पीछे से रक्षें विजया।२०।
अजिता वामपार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्घ्नि व्यवस्थिता।२१।
वाम पार्श्व में रक्षें अजिता, दक्षिण में अपराजिता।
उद्योतिनी शिखा रक्षें , मस्तक रक्षें सदा उमा।२१।
मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये, यमघण्टा च नासिके।२२।
मालाधरी ललाट रक्षें यशस्विनी जी भौंहों को।
भौंह-मध्य को त्रिनेत्रा, यमघण्टा रक्षें नाक को।२२।
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोतयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ।२३।
नासिकायां सुगंधा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला, जिह्वायां च सरस्वती।२४।
नासिका को सुगंधा, ऊपरी अधर को चर्चिका।
अमृतकला निचला अधर, सरस्वती रक्षें जिह्वा।२४।
दंतान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चंडिका।
घंटिकां चित्रघंटा च महामाया च तालुके।२५।
दंत रक्षें कौमारी, कंठ भाग को चंडिका।
गलघंटिका चित्रघंटा, तालु रक्षें महामाया।२५।
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाच मे सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठवंशे धनुर्धरी।२६।
कामाक्षी चिबुक रक्षें , सर्वमंगला जी वाणी।
गर्दन रक्षें भद्रकाली, मेरुदंड को धनुर्धारी।२६।
नीलग्रीवा बहि:कण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू में वज्रधारिणी।२७।
नीलग्रीवा बाह्यकंठ को, कंठ नली नलकूबरी।
कंधों को खड्गिनी रक्षें, भुजाएँ वज्रधारिणी।२७।
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च।
नखांछूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी।२८।
कर द्वय रक्षें दण्डिनी, अँगुलियों को अम्बिका।
नखों को शूलेश्वरी, कुक्षि को कुल ईश्वरी।२८।
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मन:शोक विनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूल धारिणी।२९।
स्तन रक्षें महादेवी, मन को शोक विनाशिनी।
ललितादेवी ह्रदय रक्षें, उदर को शूलधारिणी।२९।
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढं जुड़े महिषवाहिनी ।३०।
नाभि रक्षें कामिनी देवी, गुह्य भाग गुह्येश्वरी।
पूतना कामिका लिंग, गुदा महिषवाहिनी। ३०।
कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विंध्यवासिनी।
जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकाम प्रदायिनी। ३१।
भगवती रक्षें कमर घुटने विंध्यवासिनी।
पिंडली महाबला सर्व कामनादायिनी। ३१।
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी।३२
टखने रक्षें नारसिंही, चरण-पृष्ठ तैजसी।
श्री पैरों की अंगुलियाँ, तलवे द्वय तलवासिनी। ३२।
नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा।३३।
पदनख दंष्ट्राकराली केश रक्षें ऊर्ध्वकेशिनी।
रोमावलियाँ कौबेरी, त्वचा रक्षें वागीश्वरी। ३३।
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अंत्राणिकालरात्रिश्च पित्तम् च मुकुटेश्वरी। ३४।
रक्त मज्जा वसा मांस, मेदास्थि रक्षें पार्वती।
आँतें रक्षें कालरात्रि, पित्त रक्षें मुकुटेश्वरी। ३४।
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूड़ामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वलमभेद्या सर्वसन्धिषु। ३५।
मूलाधार पद्मकोष पद्मावती, कफ चूड़ामणि।
नखज्वाल ज्वालामुखी, अभेदया रक्षें संधियां। ३५।
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी।३६।
ब्रह्माणी! मम वीर्य बचाएँ, छाया को छत्रेश्वरी।
स्वाभिमान मन बुद्धि बचाएँ, मैया धर्मधारिणी।३६।
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकं।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना।३७।
प्राण-अपान व् व्यान-उदान बचायें वायु समान भी
वज्रहस्ता माँ, प्राण रक्षिये हे कल्याणशोभना। ३७।
रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा। ३८।
रस रूप गंध शब्दस्पर्श की, योगिनी रक्षा करें।
सत-रज-तम की सुरक्षा, नारायणी मैया करें। ३८।
आयू रक्षति वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यश: कीर्तिं च लक्ष्मी च धनं विद्यां च चक्रिणी। ३९।
आयु बचाएँ वाराही, धर्म बचाएँ वैष्णवी।
बचाएँ यश-कीर्ति-लक्ष्मी-धन-विद्या को चक्रिणी। ३९।
गोत्रमिन्द्राणि में रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी। ४०।
हे इन्द्राणि! गोत्र रक्षिए, पशु रक्षें हे चंडिका!
पुत्र रक्षें महालक्ष्मी, भार्या रक्षें भैरवी। ४०।
पंथानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वत: स्थिति। ४१।
सुपथा रक्षा करें पंथ की और मार्ग में क्षेमकरी।
राजद्वार में महालक्ष्मी, हर भय से विजया देवी। ४१।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष में देवि, जयंती पापनाशिनी। ४२।
रक्षाहीन रहे जो स्थल, नहीं कवच में कहे गए।
वे सब रक्षें देवी जयंती!, तुम हो पाप नाशिनी। ४२।
पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मन: .
कवचेनावृतो नित्यम् यत्र यत्रैव गच्छति। ४३।
जाएँ एक भी पग नहीं, यदि चाहें अपना भला।
रक्षित होकर कवच से, जहाँ जहाँ भी जाएँगे। ४३।
तत्र तत्रार्थ लाभश्च विजय: सर्वकामिक:।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितं।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्।४४।
वहाँ वहाँ धन लाभ जय सब कामों में पाएँगे।
चिंतन जिस जिस काम का, करें वही हो जाएँगे।
पा ऐश्वर्य अतुल परम भूतल पर यश पाएँगे।४४।
निर्भयो जायते मर्त्य: संग्रामेष्वपराजित:।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्य: कवचनावृत: पुमान्। ४५।
मरणशील मनु भी निर्भय हो, हार न हो संग्राम में।
पूज्यनीय हो तीन लोक में, अगर सुरक्षित कवच से। ४५।
इदं तु देव्या: कवचं देवानामपि दुर्लभं।
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धान्वित:। ४६।
यह जो देवी-कवच है, दुर्लभ देवों को रहा।
पाठ करे जो नित्य प्रति, त्रिसंध्या में सश्रद्धा। ४६।
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजित:।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जित:।४७।
दैवी कला मिले उसे, हारे नहीं त्रिलोक में।
हो शतायु, अपमृत्यु भय उसे नहीं होता कभी।४७।
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे लूताविस्फोटकादय:।
स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्।४८।
सकल व्याधियाँ नष्ट हों, मकरी चेचक कोढ़।
स्थावर जंगम कृत्रिम, विष का भय होता नहीं।४८।
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भूतले।
भूचरा: खेचराश्चैव, जलजाश्चोपदेशिका:।४९ ।
आभिचारिक प्रयोग सारे, मंत्र-यंत्र जो धरा पर।
भूचर खेचर जलज जो, उपदेशक हैं हानिप्रद।४९।
सहजा कुलजा माला, डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा, डाकिन्यश्च महाबला:।५०।
जन्मजा कुलजा माला, डाकिनी शाकिनी आदि।
अंतरिक्ष में विचरतीं, शक्तिशाली डाकिनी भी।५०।
ग्रहभूतपिशाचाश्च , यक्ष गन्धर्व - राक्षसा:।
ब्रह्मराक्षसवेताला: कुष्माण्डा भैरवादय:।५१।
ग्रह भूत पिशाच आदि, यक्ष गंधर्व राक्षस भी।
ब्रह्मराक्षस बैतालादि, कूष्माण्डा भैरवादि भी।५१।
नश्यन्ति दर्शनातस्य, कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्।५२।
देखते ही नष्ट होते, कवच हो यदु हृदय में।
मान-उन्नति प्राप्त हो, सम्मान राजा से मिले।५२।
यशसा वर्धते सोsपि कीर्ति मण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा।५३।
यश सदा बढ़ता रहे, कीर्ति से मंडित धरा हो।
जो जपे सत शांति चंडी, पूर्व उसके कवच भी।५३।
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैल वनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्तति: पुत्रपौत्रिकी।५४।
जब तक भूमण्डल टिका, पर्वत-कानन सहित यह।
तब तक धरती पर रहे, संतति पुत्र-पौत्र भी।५४।
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामाया प्रसादत:।५५।
देह अंत हो तो मिले, सुरदुर्लभ परलोक।
मिलता नित्यपुरुष को ही प्रसाद महामाया का । ५५।
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते।५६।
परम रूप पा भोगता, शिवानंद बड़भाग से। ५६।
***
संजीव
१.१.२०२०
९४२५१८३२४४


1Roopam Dass

सोरठा, यमक, श्लेष

छंद सोरठा
अलंकार यमक
*
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया
***
छंद सोरठा
अलंकार श्लेष
सूरज-नेता रोज, ऊँचाई पा तपाते
झुलस रहे हैं लोग, कर पूजा सर झुकाते
***
संवस
१.४.२०१९

दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र

श्री दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र
*
ॐ मंत्र कीलक शिव ऋषि ने, छंद अनुष्टुप में रच गाया।
प्रमुदित देव महाशारद ने, श्री जगदंबा हेतु रचाया।।
सप्तशती के पाठ-जाप सँग, हो विनियोग मिले फल उत्तम।
ॐ चण्डिका देवी नमन शत, मारकण्डे' ऋषि ने गुंजाया।।
*
देह विशुद्ध ज्ञान है जिनकी, तीनों वेद नेत्र हैं जिनके।
उन शिव जी का शत-शत वंदन, मुकुट शीश पर अर्ध चन्द्र है।१।
*
मन्त्र-सिद्धि में बाधा कीलक, अभिकीलन कर करें निवारण।
कुशल-क्षेम हित सप्तशती को, जान करें नित जप-पारायण।२।
*
अन्य मंत्र-जाप से भी होता, उच्चाटन-कल्याण किंतु जो
देवी पूजन सप्तशती से, करते देवी उन्हें सिद्ध हो।३।
*
अन्य मंत्र स्तोत्रौषधि की, उन्हें नहीं कुछ आवश्यकता है।
बिना अन्य जप, मंत्र-यंत्र के, सब अभिचारक कर्म सिद्ध हों।४।
*
अन्य मंत्र भी फलदायी पर, भक्त-मनों में रहे न शंका।
सप्तशती ही नियत समय में, उत्तम फल दे बजता डंका।५।
*
महादेव ने सप्तशती को गुप्त किया, थे पुण्य अनश्वर।
अन्य मंत्र-जप-पुण्य मिटे पर, सप्तशती के फल थे अक्षर।६।
*
अन्य स्तोत्र का जपकर्ता भी, करे पाठ यदि सप्तशती का।
हो उसका कल्याण सर्वदा, किंचितमात्र न इसमें शंका।७।
*
कृष्ण-पक्ष की चौथ-अष्टमी, पूज भगवती कर सब अर्पण।
करें प्रार्थना ले प्रसाद अन्यथा विफल जप बिना समर्पण।८।
*
निष्कीलन, स्तोत्र पाठ कर उच्च स्वरों में सिद्धि मिले हर।
देव-गण, गंधर्व हो सके भक्त, न उसको हो कोंचित डर।९।
*
हो न सके अपमृत्यु कभी भी, जग में विचरण करे अभय हो।
अंत समय में देह त्यागकर, मुक्ति वरण करता ही है वो।१०।
*
कीलन-निष्कीलन जाने बिन, स्तोत्र-पाठ से हो अनिष्ट भी।
ग्यानी जन कीलन-निष्कीलन, जान पाठ करते विधिवत ही।११।
*
नारीगण सौभाग्य पा रहीं, जो वह देवी का प्रसाद है।
नित्य स्तोत्र का पाठ करे जो पाती रहे प्रसाद सर्वदा।१२।
*
पाठ मंद स्वर में करते जो, पाते फल-परिणाम स्वल्प ही।
पूर्ण सिद्धि-फल मिलता तब ही, सस्वर पाठ करें जब खुद ही।१३।
*
दें प्रसाद-सौभाग्य सम्पदा, सुख-सरोगी, मोक्ष जगदंबा।
अरि नाशें जो उनकी स्तुति, क्यों न करें नित पूजें अंबा।१४।
३१-३--२०१७
***

भुजंगप्रयात छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा २३: ०२-०४-२०१६
भुजंगप्रयात छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, तथा छप्पय छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए भुजंगप्रयात छन्द से.
चार यगण आवृत्ति ही है छंद भुजंगप्रयात
*
'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात भुजंगप्रयात छंद की हर पंक्ति यगण की चार आवृत्तियों से बनती है।
यमाता X ४ या ४ (लघु गुरु गुरु) अथवा निहारा निहारा निहारा निहारा के समभारीय पंक्तियों से भुजंगप्रयात छंद का पद बनता है।
मापनी- १२२ १२२ १२२ १२२
उदाहरण-
०१. कहूं किन्नरी किन्नरी लै बजावैं ।
सुरी आसुरी बाँसुरी गीत गावैं।।
कहूँ जक्षिनी पक्षिनी लै पढ़ावैं।
नगी कन्यका पन्नगी को नचावैं।।
०२. न आँसू, न आहें, न कोई गिला है।
वही जी रहा हूँ, मुझे जो मिला है।।
कुआँ खोद मैं रोज पानी निकालूँ
जला आग चूल्हे, दिला से उबालूँ ।।
मुक्तक -
०३. कहो आज काहे पुकारा मुझे है?
छिपी हो कहाँ, क्यों गुहारा मुझे है?
पड़ा था अकेला, सहारा दिया क्यों -
न बोला-बताया, निहारा मुझे है।
मुक्तिका-
०४. न छूटा तुम्हारा बहाना बनाना
न छूटा हमारा तुम्हें यूँ बुलाना
न भूली तुम्हारी निगाहें, न आहें
न भूला फसाना, न भूला तराना
नहीं रोक पाया, नहीं टोंक पाया
न भा ही सका हूँ, नहीं याद जाना
न देखो हमें तो न फेरो निगाहें
न आ ही सको तो नहीं याद आना
न 'संजीव' की हो, नहीं हो परायी
न वादा भुलाना, न वादा निभाना
महाभुजंगप्रयात सवैया- ८ यगण प्रति पंक्ति
०५. तुम्हें देखिबे की महाचाह बाढ़ी मिलापै विचारे सराहै स्मरै जू
रहे बैठि न्यारी घटा देखि कारी बिहारी बिहारी बिहारी ररै जू -भिखारीदास
०६. जपो राम-सीता, भजो श्याम-राधा, करो आरती भी, सुने भारती भी
रचो झूम दोहा, सवैया विमोहा, कहो कुंडली भी, सुने मंडली भी
न जोड़ो न तोड़ो, न मोड़ो न छोड़ो, न फाड़ो न फोड़ो, न मूँछें मरोड़ो
बना ना बहाना, रचा जो सुनाना, गले से लगाना, सगा भी बताना
वागाक्षरी सवैया- उक्त महाभुजङ्गप्रयात की हर पंक्ति में से अंत का एक गुरु कम कर,
०७. सदा सत्य बोलौ, हिये गाँठ खोलौ, यही मानवी गात को
करौ भक्ति साँची, महा प्रेमराची, बिसारो न त्रैलोक्य के तात को - भानु
०८. न आतंक जीते, न पाखण्ड जीते, जयी भारती माँ, हमेशा रहें
न रूठें न खीझें, न छोड़ें न भागें, कहानी सदा सत्य ही जो कहें
न भूलें-भुलायें, न भागें-भगायें, न लूटें-लुटायें, नदी सा बहें
न रोना न सोना, न जादू न टोना, न जोड़ा गँवायें,न त्यागा गहें
उर्दू रुक्न 'फ़ऊलुन' के चार बार दोहराव से भुजंगप्रयात छन्द बन सकता है यदि 'लुन' को 'लुं' की तरह प्रयोग किया जाए तथा 'ऊ' को दो लघु न किया जाए।
०९. शिकारी न जाने निशाना लगाना
न छोड़े मियाँ वो बहाने बनाना
कहे जो न थोड़ा, करे जो न थोड़ा
न कोई भरोसा, न कोई ठिकाना
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
बौरा-गौरा को नमन, करता बौरा आम.
खास बन सके, आम हर, हे हरि-उमा प्रणाम..
*
देख रहा चलभाष पर, कल की झलकी आज.
नन्हा पग सपने बड़े, कल हो इसका राज..
*

गीत

गीत
मीत तुम्हारी राह हेरता...
संजीव 'सलिल'
*
मीत तुम्हारी राह हेरता...
*
सुधियों के उपवन में तुमने
वासंती शत सुमन खिलाये.
विकल अकेले प्राण देखकर-
भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.
चाह जगा कर आह हुए गुम
मूँदे नयन दरश करते हम-
आँख खुली तो तुम्हें न पाकर
मन बौराये, तन भरमाये..
मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर
मन ही मन में तुम्हें टेरता.
मीत तुम्हारी राह हेरता...
*
मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.
बाहर खोजा, भीतर पाया-
खुद को तुम पर वार गया हूँ..
नेह नर्मदा के निनाद सा
अनहद नाद सुनाते हो तुम-
ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!
पार न पाकर पार गया हूँ.
ताना-बाना बुने बुने कबीरा
किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.
मीत तुम्हारी राह हेरता...
*****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

एक गीत भक्तों से सावधान

एक गीत 
भक्तों से सावधान
*
जो दुश्मन देश के, निश्चय ही हारेंगे
दिख रहे विरोधी जो वे भी ना मारेंगे
जो तटस्थ-गुरुजन हैं, वे ही तो तारेंगे
मुट्ठी में कब किसके, बँधता है आसमान
भक्तों से सावधान
*
देशभक्ति नारा है, आडंबर प्यारा है
सेना का शौर्य भी स्वार्थों पर वारा है
मनमानी व्याख्या कर सत्य को बुहारा है
जो सहमत केवल वे, हैं इनको मानदान
भक्तों से सावधान
*
अनुशासन तुम चाहो, ये पल-पल तोड़ेंगे
शासन की वल्गाएँ स्वार्थ हेतु मोड़ेंगे
गाली गुस्सा नफरत, हिंसा नहिं छोड़ेंगे
कंधे पर विक्रम के लदे लगें भासमान
भक्तों से सावधान
*
संवस, ७९९९५५९६१८
३१.३.२०१९

लघुकथा काँच का प्याला

लघुकथा
काँच का प्याला
*
हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।'
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। '
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया।
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेत कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न।'
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फूट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला।
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बुंदेली कथा संतोषी हरदम सुखी

संतोषी हरदम सुखी

किसी समय एक गाँव में एक पति-पत्नि बुधुआ और लछमी गरीबी के कारण लकड़ी काट-बेचकर अपना पेट भरते थे। लछमी लकड़ी बेचने जाते समय लकड़ी के गट्ठे से एक लकड़ी निकालकर आँगन के एक कोने में रख देती और सपरने (नहाने) के बाद हर दिन आँवले और पीपल के वृक्ष में पानी ढारकर प्रणाम करती। झोपड़़ी की मरम्मत के लिए ईंटे पाती तो कुछ ईंटे अधिक बनाकर रख लेती। झोपड़़ी और आसपास की जगह लीप-पोतकर साफ रखती। गाँव की बाकी औरतों की तरह न तो किसी की चुगली करती, न फालतू घूमती। बुधुआ भी काम से काम रखता और नशा न कर, लछमी की मदद करता। गाँववाले उनकी हँसी उड़ाते, उन्हें घर घुस्सू कहते पर उन्हें कोइ फर्क न पड़ता था। 

एक दिन एक साधु गाँव में आए। उन्होंने गाँव में बच्चों को दिन भर खेलते-कूदते देखकर अपने पास बुलाया और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा तो पता चला गाँव में पाठशाला ही नहीं है। साधु ने गाँव में घूमकर देखा कि ज्यादातर घरों के आसपास कचरा है बहुत कम घर साफ-सुथरे हैं। साधु ने कुछ बच्चों को बुलाकर प्रसाद देते हुए दोपहर में गाँव के स्त्री-पुरुषों को बुलाने को कहा। सब लोग आ गए तो साधु ने एक कथा सुनाकर पेड़ों में देवताओं के रहने और पौधा लगाकर, पेड़ बनने तक उसकी देखभाल और रक्षा करने से पुण्य मिलने की बात कही।

लोगों ने कहा कि लछमी का घरवाला झाड़ काटत आय और जे खुद लकड़ी बेचत आय। ईंसे ईको पाप लगहै। साधु के पूछने पर लछमी ने बताया कि उसका घरवाला सूखे और टूटे हुए झाड़ काटता है, हरे झाड़ नहीं काटता और बरसात के पहले खाली बंजर जमीन में बीज डाल देता है जो अंकुरित होकर नए झाड़ बनते हैं और वह खुद रोज सपरने के बाद पौधों को पानी देती है। साधु ने लछमी की बातों से उसकी सचाई और कपड़ों से गरीबी का अनुमान कर लिया। साधु ने लछमी की तारीफ कर गाँववालों से सीख लेने को कहा।

साधु ने बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए पाठशाला बनाने के लिए कहा। लोग अपनी गरीबी का रोना रोते हुए सरकार को दोष देने लगे। तब लछमी ने कहा की पाठशाला बनाने के लिए ईंटों की जरूरत होगी तो वह बिना मजूरी लिए ईंटे बनाने में मदद करेगी और अपने पति से पाठशाला की खिड़की-दरवाजों की लकड़ी दिलवाएगी। यह सुनकर गाँववालों में उमंग जागी।  हर एक ने कुछ न कुछ देने का वायदा किया। साधु ने पटवारी को बुलाकर जमीन के बारे में उपाय पूछा तो वह बोला कि कोई दान में दे दे तो बाधा नहीं है। सरकारी जमीन तो मुश्किल से मिलेगी। तब गाँव के मुखिया ने अपने खेत के एक कोने में पाठशाला बनाने के लिए जमीन दी। 

गाँव के मजूर रविवार के दिन बिना मजूरी लिए काम करते, कुम्हार ईंटों के दाम आधा लेते। बड़े किसान मजूरी में अनाज देते। बुधुआ ने लकड़ी दी तो बढ़ई ने बिना मजूरी खिड़कियों-दरवाजों के चौखट-पल्ले बना दिए। पाठशाला का कमरा बनता देखकर आस-पास के गाँववाले भी मदद करने लगे कि उनके बच्चे भीपढ़ सकेंगे। साधु महाराज ने गाँव  की स्त्री-पुरुषों के साथ जाकर जिलाधिकारी और विधायक से बात कर उन्हें गाँववालों के प्रयास की जानकारी देते हुए पाठशाला का अधिग्रहण कर शिक्षक नियुक्ति की माँग की तथा उद्घाटन करने का अनुरोध किया।  दोनों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। 

कुछ दिन बाद गाँव में पाठशाला आरंभ हो गयी। बच्चे-बच्चियाँ पढ़ने लगे। गाँव में साफ़-सफाई रहने लगी बुधुआ और लक्ष्मी अब भी सूखे झाड़ों की लकड़ी काटते-बेचते हैं। उन्होंने पाठशाला के चारों और बीज बो दिए थे जिनमें से अंकुर निकर आए। बच्चों के समूह बनाकर उन्हें पौधों की देखभाल का जम्मा सौंपा गया है। जहाँ पहले आपस में खींच-तान रहती थी अब भाई चारा बढ़ने लगा है। सबने सुख का एक सूत्र जान लिया है 'संतोषी हरदम सुखी।

***