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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

चित्रालंकार:पर्वत

 चित्रालंकार:पर्वत

गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।

नवगीत- पड़ा मावठा

नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***

शेर / द्विपदी, दोहा

शेर / द्विपदी

मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७

लेख प्रेम गीत में संगीत चेतना

लेख 
प्रेम गीत में संगीत चेतना
संजीव
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

लघुकथा सबक

लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी. भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है. तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता.'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो कहने वाला सूर का पद. जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक '
***

गीत पसारा पसारा

गीत 
पसारा पसारा
---------------------
समा गया है तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
१७-२-२०१७

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

सोलह संस्कार

सोलह संस्कार 

१• गर्भाधान पुण्य नक्षत्र में गर्भधारण।
२• जातकर्म नार अलग होने के पूर्व।
३• पुंसवन - तीन माह पश्चाताप। 
४• सीमान्तोनयन - to prevent abortion/prematurity 6-8 month ANC।
४• जातकर्म - before cord cutting & bf initiation INC/PNC।
५• नामकरण - 11th day, after 10 days of asepsis neonatal care।
६• निष्क्रमण - 4th month outdoor sun/moonlight expo 
७• अन्नप्राशन - weaning 6 months।
८• चूड़ाकर्म- मुंडन 1,3,5 yr।
९• विद्यारम्भ- स्वरअक्षर बोध early pre school।
१०• कर्णभेद- dis prev श्रवण क्षमता।
११• यज्ञोपवीत जनेऊ। गायत्री आध्यात्मिकधार्मिक उन्नति। ब्रह्मचर्य दीक्षा मेखला दंड  गुरुकुल school gear।
१२• वेदारंभ- ज्ञानार्जन वसंत पंचमी।
१४• केशांत- अध्ययन उपरांत।
१४• समावर्तन- graduation। ritual, गुरुकुल से विदाई। 
१५• विवाह।
१६• अंत्येष्टि तथा त्रयोदशी ।
*

कृष्ण विमर्श


विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
https://meet.google.com/rsx-mnhd-nmi 
गूगल मीट पर जीवंत गोष्ठी
दिनांक १५ फरवरी सोमवार
समय दोपहर ३ बजे से ५:०० बजे तक।
विषय - मेरी दृष्टि में कृष्ण।
(श्री कृष्ण / गीता पर मनन-चिंतन, भजन, कविता , लोकगीत, चर्चा आदि)
समय सीमा - पाँच मिनिट ।
अध्यक्षता-आदरणीय आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी जबलपुर।
मुख्य अतिथि - पवन सेठी जी, मुंबई।
मुख्य वक्ता - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी। 
विशेष वक्ता - डॉ. कृष्णा चतुर्वेदी। 
संयोजक संचालक-सरला वर्मा, भोपाल।
सह संयोजक- आदरणीय बसंत शर्मा जी, जबलपुर।
तकनीकी संयोजन - प्रियंका खरे।
सरस्वती वंदना- इंदिरा गुप्ता दिल्ली।
अनुरोध
समयानुशासन प्रार्थनीय। वक्तागण समय सीमा का ध्यान रखें, कृपया। 
सरला वर्मा, 9770677453।
संचालक 
*
वक्ता सूची - सर्व आदरणीय 
१. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, जबलपुर। 
२. आदरणीय पवन सेठी जी, मुम्बई। 
३. डॉक्टर कृष्णकांत चतुर्वेदी जी, भोपाल। 
४. आदरणीय चंद्रा चतुर्वेदी जी, भोपाल। 
५. डॉ अनिल बाजपेई जी, जबलपुर। 
६. संध्या गोयल सुगम्य जी। 
७. आदरणीय इंदिरा गुप्ता दिल्ली। 
९. मनोरमा जैन पाखी जी भिंड। 
9, उमेश पाठक जी। 
१०. अरुण भटनागर जी, जबलपुर।  
११. बसंत शर्मा जी। 
*
लिंक https://meet.google.com/rsx-mnhd-nmi 

कृष्ण कौन हैं?

एक रचना 
कृष्ण कौन हैं?
*
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण पीर हैं,
दर्द-व्यथा की अकथ कथा हैं।  
कष्ट-समुद ही गया मथा हैं। 
जननि-जनक से दूर हुए थे,
विवश पूतना, दुष्ट बकासुर,
तृणावर्त, यमलार्जुन, कालिय,
दंभी इंद्र, कंस से निर्भय
निपट अकेले जूझ रहे थे,
नग्न-स्नान कुप्रथा-रूढ़ि से,
अंधभक्ति-श्रद्धा विमूढ़ से,
लडे-भिड़े, खुद गाय चराई,
वेणु बजाई, रास रचाई। 
छूम छनन छन, ता-ता-थैया, 
बलिहारी हों बाबा-मैया,  
उभर सके जननायक बनकर,
मिटा विपद ठांड़े थे तनकर,  
बंधु-सखा, निज भूमि छोड़ क्या 
आँखें रहते सूर हुए थे?
या फिर लोभस्वार्थ के कारण 
तजी भूमि; मजबूर हुए थे?
नहीं 'लोकहित' साध्य उन्हें था,
सत्-शिव ही आराध्य उन्हें था,
इसीलिए तो वे सुंदर थे,
मनभावन मोहक मनहर थे। 
थे कान्हा गोपाल मुरारी  
थे घनश्याम; जगत बलिहारी 
पौ फटती लालिमा भौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण दीन हैं,
आम आदमी पर न हीन हैं।  
निश-दिन जनहित हेतु लीन हैं। 
प्राणाधिक प्रिय गोकुल छोड़ा,
बन रणछोड़ विमुख; मुख मोड़ा,
जरासंध कह हँसा 'भगोड़ा',
समुद तीर पर बसा द्वारिका 
प्रश्न अनेकों बूझ रहे थे।
कालयवन से जा टकराए,
आक्रांता मय दनु चकराए,
नहीं अनीति सहन कर पाए,
कर्म-पंथ पर कदम बढ़ाए। 
द्रुपदसुता की लाज न जाए, 
मान रुक्मिणी का रह पाए,  
पार्थ-सुभद्रा शक्ति-संतुलन,
धर्म वरें, कर अरि-भय-भंजन,  
चक्र सुदर्शन लिए हाथ में 
शीश काटते क्रूर हुए थे?
या फिर अहं-द्वेष-जड़ता वर    
अहंकार से चूर हुए थे?
नहीं 'देशहित' साध्य उन्हें था,
सुख तजना आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे नटनागर थे,
सत्य कहूँ तो भट नागर थे। 
चक्र सुदर्शन के धारक थे,  
शिशुपालों को ग्रह मारक थे, 
धर्म-पथिक के लिए पौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण छली हैं,
जो जग सोचे कभी न करते।  
जो न रीति है; वह पथ वरते। 
बढ़ें अकेले; तनिक न डरते,
साथ अनेकों पग चल पड़ते। 
माधव को कंकर में शंकर,
विवश पाण्डवों में प्रलयंकर,
दिखे; प्रश्न-हल सूझ रहे थे।
कर्म करो फल की चिंता बिन,
लड़ो मिटा अन्यायी गिन-गिन,
होने दो ताण्डव ता तिक धिन,
भीष्म-द्रोण के गए बीत दिन। 
नवयुग; नवनिर्माण राह नव,  
मिटे पुरानी; मिले छाँह नव,   
सबके हित की पले चाह नव,
हो न सुदामा सी विपन्नता,  
और न केवल कुछ में धनता।  
क्या हरि सच से दूर हुए थे?
सुख समृद्धि यशयुक्त द्वारिका 
पाकर खुद मगरूर हुए थे?
नहीं 'प्रजा हित' साध्य उन्हें था,
मिटना भी आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे उन्नायक थे,
जगतारक शुभ के गायक थे। 
थे जसुदासुत-देवकीनंदन   
मनुज माथ पर शोभित चंदन
जीवनसत्व सुस्वादु नौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं। 
कौन बताए 
कृष्ण कौन हैं?
*
संजीव 
१५-२-२०२१
आचार्य कृष्णकान्त चतुर्वेदी जी 
भारतीय मनीषा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि, विद्वता के पर्याय, सरलता के सागर, वाग्विदग्धता के शिखर आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी का जन्म १९ दिसंबर १९३७ को हुआ। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ आपके व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं- 
जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला  
गौरव गंध उसे उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।।
कालिदास अकादमी उज्जैन के निदेशक, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में संस्कृत, पाली, प्रकृत विभाग के अध्यक्ष व् आचार्य पदों की गौरव वृद्धि कर चुके, भारत सरकार द्वारा शास्त्र-चूड़ामणि मनोनीत किये जा चुके, अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के सर्वाध्यक्ष निर्वाचित किये जा चुके, महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्राच्य विद्या के विशिष्ट विद्वान के रूप में सम्मानित, राजशेखर अकादमी के निदेशन आदि अनेक पदों की शोभा वृद्धि कर चुके आचार्य जी ने ४० छात्रों को पीएच डी, तथा २ छात्रों को डी.लिट् करने में मार्गदर्शन दिया है। राधा भाव सूत्र, आगत का स्वागत, अनुवाक, अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा, ड्वायर वेदांत तत्व समीक्षा, आगत का स्वागत, बृज गंधा, पिबत भागवतम, आदि बहुमूल्य कृतियों की रचना कर आचार्य जी ने भारती के वांग्मय कोष की वृद्धि की है। 
जगद्गुरु रामानंदाचार्य सम्मान, पद्मश्री श्रीधर वाकणकर सम्मान, अखिल भारतीय कला सम्मान, ज्योतिष रत्न सम्मान, विद्वत मार्तण्ड, विद्वत रत्न, सम्मान, स्वामी अखंडानंद सामान, युगतुलसी रामकिंकर सम्मान, ललित कला सम्मान, अदि से सम्मानित किये जा चुके आचार्य श्री संस्कारधानी ही नहीं देश के गौरव पुत्र हैं। आप अफ्रीका, केन्या, वेबुये आदि देशों में भारतीय वांग्मय व् संस्कृति की पताका फहरा चुके हैं। आपकी उपस्थिति व आशीष हमारा सौभाग्य है।  विश्ववाणी  हिंदी संस्थान संरक्षक के रूप में आपको को धन्य पा रहा है। 
***
डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी 
जन्म - १८ दिसंबर १९४५, पन्ना मध्य प्रदेश। 
शिक्षा - एम.ए. संस्कृत, बी.एड., पीएच. डी., एम.डी.एस., पंच वर्षीय यूजीसी पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप महर्षि सांदीपनि वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी। 
संप्रति - प्राध्यापक तथा प्रवाचक वैदिक विश्वविद्यालय। 
रचनाएँ - १. कालिदास एवं अश्वघोष के दार्शनिक तत्व। २. वैष्णव आगम के वैदिक आधार। ३. उन्मेष काव्य संग्रह। ४. युग परिधि (श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न पर केंद्रित उपन्यास)।
परामर्शदात्री विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। 
अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। 
*
विशिष्ट वक्ता 
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा 
श्रद्धेय डॉ. सुरेश कुमार वर्मा नर्मदांचल की साधनास्थली संस्कारधानी जबलपुर के गौरव हैं। "सदा जीवन उच्च विचार" के सूत्र को जीवन में मूर्त करने वाले डॉ. वर्मा अपनी विद्वता के सूर्य को सरलता व् विनम्रता के श्वेत-श्याम मेघों से आवृत्त किये रहते हैं। २० दिसंबर १९३८ को जन्मे डॉ. वर्मा ने प्राध्यापक हिंदी, विभागाध्यक्ष हिंदी, प्राचार्य तथा अतिरिक्त संचालक उच्च शिक्षा के पदों पर रहकर शुचिता और समर्पण का इतिहास रचा है। आपके शिष्य आपको ऋषि परंपरा का आधुनिक प्रतिनिधि मानते हैं। 
शिक्षण तथा  सृजन राजपथ-जनपथ पर कदम-डर-कदम बढ़ते हुए आपने मुजताज महल, रेसमान, सबका मालिक एक, तथा महाराज छत्रसाल औपन्यासिक कृतियोन की रचना की है। निम्न मार्गी व दिशाहीन आपकी  नाट्य कृतियाँ हैं। जंग के बारजे पर तथा मंदिर एवं अन्य कहानियाँ कहानी संग्रह तथा करमन की गति न्यारी, मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ आपके निबंध संग्रह हैं। डॉ. राम कुमार वर्मा की नाट्यकला आलोचना तथा हिंदी अर्थान्तर भाषा विज्ञान का ग्रन्थ है। इन ग्रंथों से आपने बहुआयामी रचनाधर्मिता व् सृजन सामर्थ्य की पताका फहराई है। 
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा हिंदी समालोचना के क्षेत्र में व्याप्त शून्यता को दूर करने में सक्षम और समर्थ हैं। सामाजिक विषमता, विसंगति, बिखराब एयर टकराव के दिशाहीन मानक तय कर समाज में अराजकता बढ़ाने की दुष्प्रवृत्ति को रोकन ेमें जिस सात्विक और कल्याणकारी दृष्टि की आवश्यकता है, आप उससे संपन्न हैं। 
***
विशिष्ट वक्ता डॉ. इला घोष  
वैदिक-पौराणिक काल  की विदुषी महिलाओं गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, रोमशा, पार्वती, घोषवती की परंपरा को इस काल में महीयसी महादेवी जी व चित्रा चतुर्वेदी जी के पश्चात् आदरणीया िला घोष जी ने निरंतरता दी है। ४३ वर्षों तक महाविद्यालयों में शिक्षण तथा प्राचार्य के रूप में दिशा-दर्शन करने के साथ ७५ शोधपत्रों का लेखन-प्रकाशन व १३० शोध संगोष्ठियों को अपनी कारयित्री प्रतिभा से प्रकाशित करने वाली इला जी संस्कारधानी की गौरव हैं। 
संस्कृत वांग्मय में शिल्प कलाएँ, संस्कृत वांग्मये कृषि विज्ञानं, ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन, वैदिक संस्कृति संरचना, नारी योगदान विभूषित, सफलता के सूत्र- वैदिक दृष्टि, व्यक्तित्व विकास में वैदिक वांग्मय का योगदान, तमसा तीरे तथा महीयसी आदि कृतियां आपके पांडित्य तथा सृजन-सामर्थ्य का जीवंत प्रमाण हैं। 
दिल्ली संस्कृत साहित्य अकादमी, द्वारा वर्ष २००३ में 'संस्कृत साहित्ये जल विग्यानम व् 'ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन' को तथा वर्ष २००४ में 'वैदिक संस्कृति संरचना'  को कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा भोज पुरस्कार से सामंत्रित किया जाना आपके सृजन की श्रेष्ठता का प्रमाण है। संस्कृत, हिंदी, बांग्ला  के मध्य भाषिक सृजन सेतु की दिशा में आपकी सक्रियता स्तुत्य है। वेद-विज्ञान को वर्तमान विज्ञान के प्रकाश में परिभाषित-विश्लेषित करने की दिशा में आपके सत्प्रयाह सराहनीय हैं। हिंदी छंद के प्रति आपका आकर्षण और उनमें रचना की अभिलाष आपके व्यक्तित्व का अनुकरणीय पहलू है। 
***
०१ आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी 
०२ डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी 
०३ आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
०४ पवन सेठी 
०४ सरला वर्मा 
०५ अचल सिंह 
०६ इंद्रा गुप्ता, 
०७ कुमकुम सिन्हा 
०८ पुष्पा सक्सेना 
०९ राहुल श्रीवास्तव 
१० संध्या गोयल सुगम्या 
११ उमेश पाठक  
१२ मनोरमा जैन 'पाखी' 
१३ रेखा श्रीवास्तव 
१४ 
*
डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी - 
कृष्ण भक्ति के गोपी भाव के साक्षी हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाई जी' संबंधी विविध प्रसंगों को सुनाकर चंद्रा जी ने गोपी भाव की श्रेष्ठता प्रतिपादित की। 
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी - 
मानव के अंत:करण में विराजमान भाव वैविध्य के नियंता, लीलाविहारी, समस्र रस विग्रह के रूप श्रीकृष्ण हर दृष्टि में भिन्न रूप धारी हैं। गोकुल के कृष्ण, द्वारिकावासी कृष्ण, गीता के उद्गाता कृष्ण  एक ही हैं भिन्न? कृष्ण एक हैं जो अनेक रूपों में व्याप्त हैं।  कृष्ण अनिर्वचनीय है, उन पर पड़नेवाली दृष्टि भी अनिवर्चनीय हो यह स्वाभाविक है। । 
पवन सेठी - जीव की मूल प्रवृत्तियान पलायन, निरोध, जिज्ञासा, सुषुप्ति, रचनात्मकता, संचय, सामूहिकता, काम, दैन्य, पौरुष, क्षुधा, हास आदि  कृष्ण के व्यक्तित्व पूर्णता के साथ उपस्थित रहीं। कृष्ण का व्यक्तित्व  आप्तकाम, निष्काम, उभयमुखी है।    
संध्या गोयल 'सुगम्या' - कहानी कन्हैया के गोपी लीला प्रसंग पर केंद्रित कहानी में प्रेम के आध्यात्मिक प्रसंगों को, लौकिक दृष्टि  से लिखने -चित्रित करने प्रवृत्ति को उद्घाटित किया गया। धर्म जीवन से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। इसलिए जितनी दृष्टियाँ, उतने रूप। 
मनोरमा जैन 'पाखी' - कृष्ण के दो रूप लोक रंजक  और लोक रक्षक के व्याप्त।  २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ के समवयस्क चचेरे भाई कृष्ण हैं। नेमिनाथ बलशाली थे। कृष्ण को भय था कि नेमिनाथ को सत्ता न मिल जाए। चुनौती मिलने पर कृष्ण के पाञ्चजन्य को नेमिनाथ ने बजाया। भीत कृष्ण ने नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ की राजकुमारी  तय कराया। राह में भोज में भक्ष्य पशुओं  नेमिनाथ को वैराग्य हो गया। 
कृष्ण नवमें वासुदेव हैं। वे पश्चात् तीर्थंकर परंपरा में कृष्ण तीर्थंकर होंगे। कृष्ण नेमिनाथ से प्रभावित थे। राजकुमारी राजुलमती ने विह्वल होकर दीक्षा  ग्रहण कर ली। कृष्ण राजवंशी थे पर आम लोगों के बीच में पले-बढ़े और मृत्यु  भी जंगल में हुई।  
संजीव 'वर्मा'  सलिल' - 

 

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

कृष्णकान्त चतुर्वेदी














आचार्य कृष्णकान्त चतुर्वेदी जी 
भारतीय मनीषा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि, विद्वता के पर्याय, सरलता के सागर, वाग्विदग्धता के शिखर आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी का जन्म १९ दिसंबर १९३७ को हुआ। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ आपके व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं- 
जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला  
गौरव गंध उसे उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।।
कालिदास अकादमी उज्जैन के निदेशक, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में संस्कृत, पाली, प्रकृत विभाग के अध्यक्ष व् आचार्य पदों की गौरव वृद्धि कर चुके, भारत सरकार द्वारा शास्त्र-चूड़ामणि मनोनीत किये जा चुके, अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के सर्वाध्यक्ष निर्वाचित किये जा चुके, महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्राच्य विद्या के विशिष्ट विद्वान के रूप में सम्मानित, राजशेखर अकादमी के निदेशन आदि अनेक पदों की शोभा वृद्धि कर चुके आचार्य जी ने ४० छात्रों को पी एच डी, तथा २ छात्रों को डी.लिट् करने में मार्गदर्शन दिया है। राधा भाव सूत्र, आगत का स्वागत, अनुवाक, अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा, ड्वायर वेदांत तत्व समीक्षा, आगत का स्वागत, बृज गंधा, पिबत भागवतम, आदि अबहुमूल्य कृतियों की रच कर आचार्य जी ने भारती के वांग्मय कोष की वृद्धि की है। 
जगद्गुरु रामानंदाचार्य सम्मान, पद्मश्री श्रीधर वाकणकर सम्मान, अखिल भारतीय कला सम्मान, ज्योतिष रत्न सम्मान, विद्वत मार्तण्ड, विद्वत रत्न, सम्मान, स्वामी अखंडानंद सामान, युगतुलसी रामकिंकर सम्मान, ललित कला सम्मान, अदि से सम्मानित किये जा चुके आचार्य श्री संस्कारधानी ही नहीं देश के गौरव पुत्र हैं। आप अफ्रीका, केन्या, वेबुये आदि देशों में भारतीय वांग्मय व् संस्कृति की पताका फहरा चुके हैं। आपकी उपस्थिति व आशीष हमारा सौभाग्य है। 
***
विशिष्ट वक्ता 
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा 
श्रद्धेय डॉ. सुरेश कुमार वर्मा नर्मदांचल की साधनास्थली संस्कारधानी जबलपुर के गौरव हैं। "सदा जीवन उच्च विचार" के सूत्र को जीवन में मूर्त करने वाले डॉ. वर्मा अपनी विद्वता के सूर्य को सरलता व् विनम्रता के श्वेत-श्याम मेघों से आवृत्त किये रहते हैं। २० दिसंबर १९३८ को जन्मे डॉ. वर्मा ने प्राध्यापक हिंदी, विभागाध्यक्ष हिंदी, प्राचार्य तथा अतिरिक्त संचालक उच्च शिक्षा के पदों पर रहकर शुचिता और समर्पण का इतिहास रचा है। आपके शिष्य आपको ऋषि परंपरा का आधुनिक प्रतिनिधि मानते हैं। 
शिक्षण तथा  सृजन राजपथ-जनपथ पर कदम-डर-कदम बढ़ते हुए आपने मुजताज महल, रेसमान, सबका मालिक एक, तथा महाराज छत्रसाल औपन्यासिक कृतियोन की रचना की है। निम्न मार्गी व दिशाहीन आपकी  नाट्य कृतियाँ हैं। जंग के बारजे पर तथा मंदिर एवं अन्य कहानियाँ कहानी संग्रह तथा करमन की गति न्यारी, मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ आपके निबंध संग्रह हैं। डॉ. राम कुमार वर्मा की नाट्यकला आलोचना तथा हिंदी अर्थान्तर भाषा विज्ञान का ग्रन्थ है। इन ग्रंथों से आपने बहुआयामी रचनाधर्मिता व् सृजन सामर्थ्य की पताका फहराई है। 
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा हिंदी समालोचना के क्षेत्र में व्याप्त शून्यता को दूर करने में सक्षम और समर्थ हैं। सामाजिक विषमता, विसंगति, बिखराब एयर टकराव के दिशाहीन मानक तय कर समाज में अराजकता बढ़ाने की दुष्प्रवृत्ति को रोकन ेमें जिस सात्विक और कल्याणकारी दृष्टि की आवश्यकता है, आप उससे संपन्न हैं। 
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विशिष्ट वक्ता डॉ. इला घोष  
वैदिक-पौराणिक काल  की विदुषी महिलाओं गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, रोमशा, पार्वती, घोषवती की परंपरा को इस काल में महीयसी महादेवी जी व चित्रा चतुर्वेदी जी के पश्चात् आदरणीया िला घोष जी ने निरंतरता दी है। ४३ वर्षों तक महाविद्यालयों में शिक्षण तथा प्राचार्य के रूप में दिशा-दर्शन करने के साथ ७५ शोधपत्रों का लेखन-प्रकाशन व १३० शोध संगोष्ठियों को अपनी कारयित्री प्रतिभा से प्रकाशित करने वाली इला जी संस्कारधानी की गौरव हैं। 
संस्कृत वांग्मय में शिल्प कलाएँ, संस्कृत वांग्मये कृषि विज्ञानं, ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन, वैदिक संस्कृति संरचना, नारी योगदान विभूषित, सफलता के सूत्र- वैदिक दृष्टि, व्यक्तित्व विकास में वैदिक वांग्मय का योगदान, तमसा तीरे तथा महीयसी आदि कृतियां आपके पांडित्य तथा सृजन-सामर्थ्य का जीवंत प्रमाण हैं। 
दिल्ली संस्कृत साहित्य अकादमी, द्वारा वर्ष २००३ में 'संस्कृत साहित्ये जल विग्यानम व् 'ऋग्वैदिक ऋषिकाएँ: जीवन एवं दर्शन' को तथा वर्ष २००४ में 'वैदिक संस्कृति संरचना'  को कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा भोज पुरस्कार से सामंत्रित किया जाना आपके सृजन की श्रेष्ठता का प्रमाण है। संस्कृत, हिंदी, बांग्ला  के मध्य भाषिक सृजन सेतु की दिशा में आपकी सक्रियता स्तुत्य है। वेद-विज्ञान को वर्तमान विज्ञान के प्रकाश में परिभाषित-विश्लेषित करने की दिशा में आपके सत्प्रयाह सराहनीय हैं। हिंदी छंद के प्रति आपका आकर्षण और उनमें रचना की अभिलाष आपके व्यक्तित्व का अनुकरणीय पहलू है। 
***

डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी

डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी














*
जन्म - १८ दिसंबर १९४५, पन्ना मध्य प्रदेश। 
शिक्षा - एम.ए. संस्कृत, बी.एड., पीएच. डी., एम.डी.एस., पंच वर्षीय यूजीसी पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप महर्षि सांदीपनि वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी। 
संप्रति - प्राध्यापक तथा प्रवाचक वैदिक विश्वविद्यालय। 
रचनाएँ - १. कालिदास एवं अश्वघोष के दार्शनिक तत्व। २. वैष्णव आगम के वैदिक आधार। ३. उन्मेष काव्य संग्रह। ४. युग परिधि (श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न पर केंद्रित उपन्यास)।
परामर्शदात्री विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। 
अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। 
*

कार्यशाला दोहा+रोला=कुंडलिया

कार्यशाला
दोहा+रोला=कुंडलिया
*
"बाधाओं से भागना, हिम्मत का अपमान।
बाधाओं का सामना, वीरों की पहचान।" -पुष्पा जोशी
वीरों की पहचान, रखें पुष्पा मन अपना
जोशीली मन-वृत्ति, करें पूरा हर सपना
बने जीव संजीव, जीतकर विपदाओं से
सलिल मिटा जग तृषा, जूझकर बाधाओं से  - सलिल 
*

भ्रमर दोहा

 दोहा सलिला

*
[भ्रमर दोहा- २६ वर्ण, ४ लघु, २२ गुरु]
मात्राएँ हों दीर्घ ही, दोहा में बाईस
भौंरे की गुंजार से, हो भौंरी को टीस
*
फैलुं फैलुं फायलुं, फैलुं फैलुं फाय
चोखा दोहा भ्रामरी, गुं-गुं-गुं गुंजाय
*
श्वासें श्वासों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?
*
जीते-हारे क्यों कहो?, पूछें कृष्णा नैन
पाँचों बैठे मौन हो, क्या बोलें बेचैन?
*
तोलो-बोलो ही सही, सीधी सच्ची रीत
पाया-खोने से नहीं, होते हीरो भीत
*
नेता देता है सदा, वादों की सौगात
भूले से माने नहीं, जो बोली थी बात
*
शीशा देखे सुंदरी, रीझे-खीझे मुग्ध
सैंया हेरे दूर से, अंगारे सा दग्ध
*
बोले कैसे बींदड़ी, पाती पाई आज
सिंदूरी हो गाल ने, खोला सारा राज
*
चच्चा को गच्चा दिया, बच्चा ऐंठा खूब
सच्ची लुच्चा हो गया, बप्पा बैठा डूब
*
बुन्देली आल्हा सुनो, फागें भी विख्यात
राई का सानी नहीं, गाओ जी सें तात
*
१४-२-२०१७

लघु कथा वैलेंटाइन

लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"हैं न, देख सूर्य धरती को धू की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न. धरती माने या न माने सोराज धुप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करून और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ की किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
***
१४-२-२०१७ 

हास्य वैलेंटाइन

हास्य सलिला:
वैलेंटाइन पर्व:
संजीव
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर
***

दोहा सलिला: वैलेंटाइन

दोहा सलिला:
वैलेंटाइन
संजीव
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
*
१४-२-२०१७ 

कार्यशाला दोहा से कुंडली

कार्यशाला
दोहा से कुंडली
*
साजन हैं मन में बसे, भले नजर से दूर
सजनी प्रिय के नाम से, हुई जगत मशहूर -मिथलेश
हुई जगत मशहूर, तड़पती रहे रात दिन
अमन चैन है दूर, सजनि का साजन के बिन
निकट रहे या दूर, नहीं प्रिय है दूजा जन
सजनी के मन बसे, हमेशा से ही साजन - संजीव
***

सवैया

सवैया 
यति - ७-७-६-६ 
महिमा है हिंदी की, गरिमा है हिंदी की, हिंदी बोलिए तो, पूजा हो जाती है
जो न हिंदी बोलता, मन भी न खोलता, भूले अपनापा, दूरी हो जाती है
भारती की आरती, जनता उतारती, शारदा मातु की, कृपा हो जाती है 
रात हो या प्रभात, कीर्ति सूर्य सी मिले, श्रोता को कविता, आप ही भाती है 
१४-२-२०१७ 

नवगीत: जन चाहता

नवगीत:
जन चाहता
संजीव
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आक आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
*
१४-२-२०१५ 

हाइकु

हाइकु
संजीव
.
दर्द की धूप
जो सहे बिना झुलसे
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
*
१४-२-२०१५