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रविवार, 6 दिसंबर 2020

मुक्तक

मुक्तक
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गौ भाषा को दुह करे,
अर्थ-दुग्ध का पान.
श्रावण या रमजान हो,
दोहा रस की खान.
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नेह से कोई न आला
मन तरा यदि नेह पाला
नेह दीपक दिवाली का
नेह है पावन शिवाला
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सुनीता पुनीता रहे जिंदगी
सुगीता कहे कर्म ही बंदगी
कर ईश-अर्पण न परिणाम सोच
महकती हों श्वासें सदा संदली
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बंद कौन है काया की कारा में?
बंदा है वह बँधा कर्म-धारा में
काया बसी आत्मा ही कायस्थ
करे बंदगी, सार यही सारा में
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६-१२-२०१७

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
*
जो चाहें वह बेच दें, जब चाहे अमिताभ
अच्छा है जो बच गए, हे बच्चन अजिताभ
*
हे माँ! वर दे टेर सुन, हुआ करिश्मा आज
हेमा से हेमा कहे, डगमग तेरा ताज
*
हैं तो वे धर्मेन्द्र पर, बदल लिया निज धर्म
है पत्थर तन में छिपा, मक्खन जैसा मर्म
*
नूतन है हर तनूजा, रखे करीना याद
जहाँ जन्म ले बिपाशा, हो न वहाँ आबाद
*
नयनों में काजोल भर, हुई शबाना मौन
शबनम की बूँदें झरीं, कहो पी गया कौन?
*
जय ललिता की बोलिए, शंकर रहें प्रसन्न
कहें जय किशन अगर तो, हो संगीत प्रसन्न
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अमिताभ = बहुत आभायुक्त, अजिताभ = जिसकी आभा अजेय हो, करिश्मा =चमत्कार, हेमा = धरती, सोना, धर्मेन्द्र = परम धार्मिक, नूतन = नयी, तनूजा = पुत्री, करीना = तरीका,बिपाशा = नदी, काजोल = काजल, शबाना = रात, शबनम = ओस, जय ललिता = पार्वती की जय,जय किशन = कृष्ण की जय
६-१२-२०१६

गीत

गीत :...
सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
६-१२-२०१३

मुक्तिका

 मुक्तिका:

है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
*********
६-१२-२०१२

लोककाव्य में श्री गणेश

लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
६-१२-२०१२ 

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

विरासत : विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह'

विरासत :
विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह' 
*
एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मुत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था। बनगिरी में ही एक पेड़ पर एक चिड़िया व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिड़िया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिड़िया के घोंसले वाला पेड़ भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।
चिड़िया और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिड़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोडवी आई। वह चिड़िया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिड़िया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली 'इस प्रकार ग़म में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।'
चिड़िया ने निराशा दिखाई 'हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?'
कठफोडवी ने समझाया 'एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।'
'कैसे?' चिड़िया ने पूछा।
'मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेनी चाहिए।' चिड़िया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया 'यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।'
अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेंढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला 'आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।'
ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला 'दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।'
मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पड़े। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।
कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।
तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।
चिड़िया कॄतज्ञ स्वर में मेंढक से बोली 'बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।'
मेंढक ने कहा 'आभार मानने की ज़रुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।'
एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी। मेंढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे। मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा। टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।
जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेंढकों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरू किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।

सीख -- 1. एकता में बल हैं। 2. अहंकारी का देर या सबेर अंत होता ही हैं।

विरासत : कहानी ग्यारह वर्ष का समय रामचंद्र शुक्ल

विरासत : कहानी  
ग्यारह वर्ष का समय
रामचंद्र शुक्ल
*
दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्‍पन्‍न हुई : मैं अपने स्‍थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्‍यान-मग्‍न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्‍चर्य नहीं हुआ; क्‍योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्‍हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्‍य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्‍हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।

मैंने पास जाकर कहा, "मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।"

वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, "चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्‍हारे यहाँ जानेवाला था।"

हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग के दोनों ओर की कृषि-सम्‍पन्‍न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्‍तृत राज्‍य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्‍था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्‍याचार की संभावना न थी। प्रस्‍तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।

अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्‍नदान और सूर्यातप-तप्‍त पृथिवी को वस्‍त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्‍था का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्‍वजा फहरा रही है। स्‍थान-स्‍थान पर प्रसन्‍न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।

एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्‍यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्‍टकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्‍या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।

अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्‍थान पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्‍यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्‍त हो गया। ‘इस समय क्‍या कर्तव्‍य है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्‍थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्‍त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्‍थान पर हैं।

दैवात् सम्‍मुख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्‍त स्‍थान हम लोगों ने विचारा। ज्‍यों-त्‍यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्‍हू-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्‍य सम्‍मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्‍वच्‍छ चंद्रिका में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई दिए।

मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्‍द मेरे मुख से निकल पड़े, "क्‍या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?" चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्‍चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्‍थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्‍छा ने मार्गज्ञान की व्‍यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्‍कर प्रतीत हुआ, क्‍योंकि जंगली वृक्षों और कण्‍टकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्‍छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा; मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्‍ब तक यह कष्‍ट हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्‍योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्‍यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्‍थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्‍मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्‍ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्‍तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्‍यों-का-त्‍यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्‍यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्‍य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्‍तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, "कहो मित्र! क्‍या है? क्‍या देख रहे हो?"

मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, "कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था।" मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्‍मय-युक्‍त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्‍य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्‍थान को इस अवस्‍था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्‍येक वस्‍तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्‍यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्‍पादक दृश्‍य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्‍दों द्वारा अनुभव करना असम्‍भव है।

कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचण्‍ड काल को साष्‍टांग दण्‍डवत् कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्‍न उपस्थित हुआ कि "वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्‍हें धारण करते थे?"

हा! यही स्‍थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्‍लोल की ध्‍वनि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्‍छादित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्‍वर से मानो पुकार के कह रहे थे - ‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को,’ प्रत्‍येक पार्श्‍व से मानो यही ध्‍वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्‍न होने लगे।

मैं एक स्‍वच्‍छ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्‍वीतल में धँसा था, और शेषांश बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा; मेरे मित्र भी किसी विचार ही में डूबे थे; किंतु मैं नहीं कह सकता कि वह क्‍या था। यह सुंदर स्‍थान इस शोचनीय और पतित दशा को क्‍योंकर प्राप्‍त हुआ, मेरे चित्त में तो यही प्रश्‍न बार-बार उठने लगा; किंतु उसका संतोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान ने यथासाध्‍य प्रयत्‍न किया, परंतु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्‍क से होकर दौड़ गए।

हम लोग अधिक विलम्‍ब तक इस अवस्‍था में न रहने पाए। यह क्‍या? मधुसूदन! यह कौन-सा दृश्‍य है? जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया! कुछ दूर पर एक श्‍वेत वस्‍तु इसी खँडहर की ओर आती देख पड़ी! मुझे रोमांच हो आया; शरीर काँपने लगा। मैंने अपने मित्र को उस ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परंतु कहीं कुछ न देख पड़ा; मैं स्‍थापित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही दृश्‍य! अबकी बार ज्‍योत्‍स्‍नालोक में स्‍पष्‍ट रूप से हम लोगों ने देखा कि एक श्‍वेत परिच्‍छद धारिणी स्‍त्री एक जल-पात्र लिए खँडहर के एक पार्श्‍व से होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्‍हीं खँडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ अंतर्धान हो गई। इस अदृष्‍टपूर्व व्‍यापार को देख मेरे मस्तिष्‍क में पसीना आ गया और कई प्रकार के भ्रम उत्‍पन्‍न होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न-जाने कितनी अद्भुत–अद्भुत वस्‍तु मनुष्‍य की सूक्ष्‍म विचार-दृष्टि से वंचित पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्‍थान विशेष के संबंध में अनेक भयानक वार्ताएँ सुन रखी थीं, किंतु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्‍वास न था; नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस स्‍थान पर ठहरना दुष्‍कर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्‍यतीत होती जाती थी। हम दोनों को अब यह चिंता हुई कि यह स्‍त्री कौन है? इसका उचित परिशोध अवश्‍य लगाना चाहिए।

हम दोनों अपने स्‍थान से उठे और जिस ओर वह स्‍त्री जाती हुई देख पड़ी थी उसी ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्‍येक स्‍थान को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे हुए मकानों के भीतर जा-जा के श्रृगालों के स्‍वच्‍छंद विहार में बाधा डालने लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्‍चय हो गई थी कि हो न हो, वह स्‍त्री खँडहर के किसी गुप्‍त भाग में गई है। गिरी हुई दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे। बाह्य जगत् की कोई वस्‍तु दृष्टि के अंतर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्‍तव में खँडहर के एक भयानक भाग में इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की अपेक्षा अच्‍छी दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्‍तृत आँगन था जिसमें बेर और बबूल के पेड़ स्‍वच्‍छन्‍दतापूर्वक खड़े उस स्‍थान को मनुष्‍य-जाति-संबंध से मुक्‍त सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट बोल उठे, "मित्र ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जैसे मैंने इस स्‍थान को और कभी देखा हो, यही नहीं कह सकता, कब। प्रत्‍येक वस्‍तु यहाँ की पूर्व परिचित-सी जान पड़ती है।" मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्‍होंने आगे कुछ न कहा। मेरा चित्त इस स्‍थान के अनुसंधान करने को मुझे बाध्‍य करने लगा। इधर-उधर देखा तो एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के अर्धभाग तक वह पहुँच गई थी। इस पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे में चतुर्दिक वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी; मैं इसमें उतरने का यत्‍न करने लगा। बड़ी सावधानी से एक उभड़ी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गये। यह कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चंद्रमा का प्रकाश इसमें बेरोक-टोक आ रहा था। कोठरी के दाहिनी ओर एक द्वार दिखाई दिया, जिसमें एक जीर्ण किवाड़ लगा हुआ था, हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ को पीछे की ओर धीरे से धकेला तो जान पड़ा कि वे भीतर से बंद हैं।

मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के छोटे-छोटे रन्‍ध्रों से झाँका तो एक प्रशस्‍त कोठरी देख पड़ी। एक कोने में मंद-मंद एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि प्रदीप उसमें न होता तो अंधकार के अतिरिक्‍त हम लोग और कुछ न देख पाते।

हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्‍त्री की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग में आयी। अब तो किसी प्रकार का संदेह न रहा। एक बेर इच्‍छा हुई कि किवाड़ खटखटाएँ, किंतु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गये। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्‍द दीवार से होकर फिर आँगन में आए। मेरे मित्र ने कहा, "इसका शोध अवश्‍य लगाओ कि यह स्‍त्री कौन है?" अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घण्‍टे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्‍वेतवसनधारिणी स्‍त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आयी।

उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्‍तम्भित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्‍पष्‍ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्‍थायी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्‍यमान हो रहा था। सौम्‍यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।

कुछ काल तक किंकर्त्तव्‍यविमूढ़ होकर स्‍तब्‍ध लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे; अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्‍त्‍ विचारा। हम लोग अपने स्‍थान पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्‍मुख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा, "देवि ! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।" वह स्‍त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्‍ध और गंभीर स्‍वर से बोली, "तुम कौन हो और क्‍यों मुझे व्‍यर्थ कष्‍ट देते हो?" इसका उत्तर ही क्‍या था? मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा, "देवि! मुझे बड़ा कौतूहल है – दया करके यहाँ का सब रहस्‍य कहो।

इस पर उसने उदास स्‍वर से कहा, "तुम हमारा परिचय लेके क्‍या करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्‍वी मण्‍डल में कोई नहीं है।"

मेरे मित्र से न रहा गया; हाथ जोड़कर उन्‍होंने फिर निवेदन किया, "देवि ! अपने वृत्तान्‍त से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्‍हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।" मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।

स्‍त्री ने करुण-स्‍वर से कहा, "तुम मेरे नेत्रों के सम्‍मुख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्‍छा बैठो।"

मेरे मित्र निकट के एक पत्‍थर पर बैठ गये। मैं भी उन्‍हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्‍त्री बोली -

"इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तान्‍त से तुम्‍हें परिचित करूँ, तुम्‍हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्‍हारे सिवा यह रहस्‍य संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्‍थान पर रहना दुष्‍कर हो जाएगा और आत्‍महत्‍या ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।"

हमलोगों के नेत्र गीले हो आये। मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्‍वर मेरा साक्षी है।"

स्‍त्री ने तब इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया –

"यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्‍ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामी एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्‍थान था। घर में उनकी स्‍त्री और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्‍हें और कोई संतान न थी। आज ग्‍यारह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।"

इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, "हे परमेश्‍वर! यह सब स्‍वप्‍न है या प्रत्‍यक्ष?" ये शब्‍द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गयी। उन्‍होंने अपने को बहुत सँभाला – और फिर सँभलकर बैठे, वह स्‍त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा, "क्‍यों, क्‍या है?"

मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, "कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का स्‍मरण आया। कृपा करके आगे कहो।"

स्‍त्री ने फिर कहना आरम्‍भ किया - "मेरे पिता का घर काशी में ... मुहल्‍ले में था। विवाह के एक वर्ष पश्‍चात् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्‍म हुआ। संध्‍या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्‍य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी; कुत्ते भी थोड़ी देर तक भूँककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्‍तब्‍ध हुई; सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्‍द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्‍चे भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्‍लाने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा !!!

"नौका आयी, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्‍न करने लगे। मल्‍लाहों ने भारी विपत्ति सम्‍मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्‍होंने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्‍होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था; मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत-से लोग रह गए थे; उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।"

"संध्‍या का समय था; मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते देख पड़े। उन्‍होंने आकर आद्योपरान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्‍मत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्‍वर जाने वे कहाँ गये! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्‍होंने सुना कि ग्राम के बहुत-से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्‍हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्‍यतीत हो गए। अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्‍हें आशा थी; किंतु अब उन्‍हें चिता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंध था, मेरे पिता स्‍वयं गए; किंतु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्‍भ हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्‍वर और भाग्‍य के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्‍यतीत हो गया।

"मेरी अवस्‍था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्‍तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्‍यतीत होने लगा। शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होने लगा। मेरे देवतुल्‍य पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्‍न करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब वृद्ध होने लगे; दिवारात्रि की चिंता ने उन्‍हें और भी वृद्ध बना दिया। घर के समस्‍त कार्य-संपादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्‍त्री का स्‍वभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तक तो किसी प्रकार चला। अंत में वह मुझसे डाह करने लगी और कष्‍ट देना प्रारम्‍भ किया, मैं चुपचाप सब सहन करती थी। धीरे-धीरे आश्‍वास-वाक्‍य के स्‍थान पर वह तीक्ष्‍ण वचनों से मेरा चित्त्‍ अधिक दु:खाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते; आनाकानी कर जाते और मेरे पिता की, वृद्धावस्‍था के कारण, कुछ नहीं चल सकती थी। मेरे दु:ख को समझने वाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बड़ा दु:ख हुआ। हा! मेरा स्‍वामी यदि इस समय होता तो क्‍या मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्‍या इन्‍हीं वचनों द्वारा मेरा सत्‍कार किया जाता। यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था। अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्‍छन्‍न होने लगा। मुझे संसार शून्‍य दिखाई देने लगा। एकांत में बैठकर मैं अपनी अवस्‍था पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाए। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्‍था में पाया तो तुरंत व्‍यंग्‍य-वचनों द्वारा आश्‍वासन देने लगी। मेरा शोकार्त्त हृदय अग्निशिखा की भाँति प्रज्‍वलित हो उठा; किंतु मौनावलम्‍बन के सिवा अन्‍य उपाय ही क्‍या था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं उठी। किसी से कुछ न कहा और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने परित्‍याग किया।

"मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्‍या विचार था। मुझे एक बेर अपने पति के स्‍थान को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्‍मत्त की-सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई दिया। केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अंत में मैं इस स्‍थान तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्‍था केवल 16 वर्ष की थी। मैंने इस स्‍थान को उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिह्न ऐसे मिले, जिनसे मुझे यह निश्‍चय हो गया कि चंद्रशेखर मिश्र का घर यही है। इस स्‍थान को देखकर मेरे आर्त्त हृदय पर बड़ा कठोर आधात पहुँचा।"

इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्‍दों को उसके हृदय ही में बंदी कर रखा; बाहर प्रकट होने न दिया। क्षणिक पर्यंत वह चुप रही; सिर नीचा किए भूमि की ओर देखती रही। इधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी; लिखित चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे; इंद्रियाँ अपना कार्य उस समय भूल गयी थीं। स्‍त्री ने फिर कहना आरम्‍भ किया –

"इस स्‍थान को देख मेरा चित्त बहुत दग्‍ध हुआ। हा! यदि ईश्‍वर चाहता तो किसी दिन मैं इसी गृह की स्‍वामिनी होती। आज ईश्‍वर ने मुझको उसे इस अवस्‍था में दिखलाया। उसके आगे किसका वश है? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्‍य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का संदेह नहीं हो सकता था। मुझे बहुत-सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्‍त हुईं जो मेरी तुच्‍छ आवश्‍यकता के अनुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्‍थान अपने पिता के कष्‍टागार से प्रियतम प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्‍यावस्‍था के दिन व्‍यतीत हुए थे। यही स्‍थान मुझे प्रिय है। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग उसी करुणालय जगदीश्‍वर की, जिसने मुझे इस अवस्‍था में डाला, आराधना में बिताऊँगी। यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्‍वर को मैंने धन्‍यवाद दिया, जिसने ऐसा उपयुक्‍त स्‍थान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित् तुम पूछोगे कि इस अभागिनी ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्‍यों उपयुक्‍त विचारा? तो उसका उत्तर है कि यह दुष्‍ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण है, जो मनुष्‍य को उसके सत्‍य-पथ से विचलित कर देती हैं। दुष्‍ट और कुमार्गी लोगों के अत्‍याचार से बचा रहना भी कठिन कार्य है।"

इतना कहके वह स्‍त्री ठहर गयी। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक काष्‍ठपुत्तलिका की भाँति बैठे रहे। अंत में एक लंबी ठंडी साँस भर के उन्‍होंने कहा, "ईश्‍वर ! यह स्‍वप्‍न है या प्रत्‍यक्ष?" स्‍त्री उनका यह भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, "क्‍यों ! कैसा चित्त है?" मेरे मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, "तुम्‍हारी कथा का प्रभाव मेरे चित्त पर बहुत हुआ है; कृपा करके आगे कहो।"

स्‍त्री ने कहा, "मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं है। आज पाँच वर्ष मुझे इस स्‍थान पर आए हुए; संसार में किसी मनुष्‍य को आज तक यह प्रकट नहीं हुआ। यहाँ प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता; इससे मुझे अपने को गोपन रखने में विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि यदि मुझ पर पड़ी भी तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है; तुम्‍हारे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रकट होना नहीं चाहती; प्रकट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्‍थान पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब मैं बहुत दिन न रहूँगी।"

मैंने देखा, मेरे मित्र का चित्त भीतर-ही-भीतर आकुल और संतप्‍त हो रहा था; हृदय का वेग रोककर उन्‍होंने प्रश्‍न किया, "क्‍यों ! तुम्‍हें अपने पति का कुछ स्‍मरण है?"

स्‍त्री के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने उत्तर दिया, "मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्‍हें देखा था। वह मूर्ति यद्यपि मेरे हृदय–मंदिर में विद्यमान है; प्रचण्‍ड काल भी उसको वहाँ से हटाने में असमर्थ है।"

मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! तुमने बहुत कुछ रहस्‍य प्रकट किया; जो कुछ शेष है उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।"

स्‍त्री विस्‍मयोत्‍फुल्‍ल लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी आश्‍चर्य से उन्‍हीं की ओर देखने लगा। उन्‍होंने कहना आरम्‍भ किया –

"इस आख्‍यायिका में यही ज्ञात होना शेष है कि चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र की क्‍या दशा हुई। चंद्रशेखर मिश्र और उनकी पत्‍नी क्‍या हुए। सुनो, नाव पर मिश्र जी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के कारण वह उनसे पृथक् हो गया। उन्‍होंने समझा कि वह नाव ही पर है; कोई चिंता नहीं। इधर मनुष्‍यों की धक्‍का-मुक्‍की से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक उसी समय मल्‍लाह ने नाव खोल दी। उसने कई बेर अपने पिता को पुकारा; किंतु लोगों के कोलाहल में उन्‍हें कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गयी। बालक वहीं खड़ा रह गया और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके इधर-उधर भागे। नीचे भयानक जलप्रवाह; ऊपर अनन्‍त आकाश। लड़के ने एक छप्‍पर को बहते हुए अपनी ओर आते देखा; तुरंत वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका आया। छप्‍पर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत् उसी पर बैठा रहा। उसे यह ध्‍यान नहीं कि इस प्रकार कै दिन तक वह बहता गया। वह भय और दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्‍यापारी की नाव, जिस पर रूई लदी थी, पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्‍वामी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्‍था उस समय मृतप्राय थी। अनेक यत्‍न के उपरांत वह होश में लाया गया। उस सज्‍जन ने लड़के की नाव पर बड़ी सेवा की। नौका बराबर चलती रही; बीच में कहीं न रुकी; कई दिनों के उपरांत कलकत्ते पहुँची।

"वह बंगाली सज्‍जन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्‍छा प्रकट की। उसने उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो रहा।

"इसी प्रकार कई मास व्‍यतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिल-मिल गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था। दोनों में भ्रातृ–स्‍नेह स्‍थापित हो गया। वह सज्‍जन उस लड़के के भावी हित की चेष्‍टा में तत्‍पर हुआ। ईस्‍ट इंडिया कंपनी के स्‍थापित किए हुए एक अँग्रेजी स्‍कूल में अपने पुत्र के साथ-साथ उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्‍यान कम होने लगा। वह दत्तचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी बीच कई वर्ष व्‍यतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्‍य प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब पूर्व परिचित लोगों के ध्‍यान के लिए उसके मन में कम स्‍थान शेष रहा। मनुष्‍य का स्‍वभाव ही इस प्रकार का है। नौ वर्ष का समय निकल गया।

"इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्‍जन के उस पुत्र का विवाह हुआ। चंद्रशेखर का पुत्र भी उस समय वहाँ उपस्थित था। उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्‍यान हो आया, ‘मेरा भी विवाह हुआ है; अवश्‍य हुआ है।’ उसे अपने विवाह का बारम्‍बार ध्‍यान आने लगा। अपनी पाणिग्रहीता भार्या का भी उसे स्‍मरण हुआ। स्‍वदेश में लौटने को उसका चित्त आकुल होने लगा। रात्रि-दिन इसी चिंता में व्‍यतीत होने लगे।

हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ‘हैं! न कभी साक्षात् हुआ, न वार्तालाप हुआ, न लंबी-लंबी कोर्टशिप हुई; यह प्रेम कैसा?’ महाशय, रुष्‍ट न हूजिये। इस अदृष्‍ट प्रेम का धर्म और कर्तव्‍य से घनिष्‍ठ संबंध है। इसकी उत्‍पत्ति केवल सदाशय और नि:स्‍वार्थ हृदय में ही हो सकती है। इसकी जड़ संसार के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्‍त है। आपको संतुष्‍ट करने को मैं इतना और कहे देता हूँ कि इंग्‍लैंड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्‍सफील्‍ड का भी यही मत था।

"युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्‍य सज्‍जन पुरुष से अपने चित्त की अवस्‍था प्रकट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी। आज्ञा पाकर उसने स्‍वदेश की ओर यात्रा की, देश में आने पर उसे विदित हुआ कि ग्राम में अब कोई नहीं है। उसने लोगों से अपने पिता-माता के विषय में पूछताछ किया। कुछ थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे; और अब वे तीर्थ-स्‍थानों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्‍नी के दर्शनों की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्‍हारे पिता के घर का वह अनुसंधान करने लगा। बहुत दिनों के पश्‍चात् तुम्‍हारे ज्‍येष्‍ठ भ्राता से उसका साक्षात् हुआ, जिससे तुम्‍हारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश होकर संसार में घूमने लगा।"

इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। इधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्त ऊब रहा था; आश्‍चर्य से उन्‍हीं की ओर हम ताक रहे थे। उन्‍होंने फिर उस स्‍त्री की ओर देखकर कहा, "कदाचित् तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ है? यह वही अभागा मनुष्‍य तुम्‍हारे सम्‍मुख बैठा है।"

हम दोनों के शरीर में बिजुली-सी दौड़ गयी; वह स्‍त्री भूमि पर गिरने लगी; मेरे मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्‍हीं के सहारे बैठी। कुछ क्षण के उपरांत उसने बहुत धीमे स्‍वर से मेरे मित्र से कहा, "अपना हाथ दिखाओ।"

उन्‍होंने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्‍त्री कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही; फिर मुख ढाँपकर सिर नीचा करके बैठी रही। लज्‍जा का प्रवेश हुआ। क्‍योंकि यह एक हिंदू-रमणी का उसके पति के साथ प्रथम संयोग था।

आज इतने दिनों के उपरांत मेरे मित्र का गुप्‍त रहस्‍य प्रकाशित हुआ। उस रात्रि को मैं अपने मित्र का खँडहर में अतिथि रहा। सवेरा होते ही हम सब लोग प्रसन्‍नचित्त नगर में आए।
रचना वर्ष १९०३  
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कब क्या दिसंबर

कब क्या दिसंबर
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०१. एड्स जागरूकता दिवस, नागालैंड दिवस १९६३, सीमा सुरक्ष बल गठित १९६५, क्रांन्तिकारी राजा महेंद्र प्रताप जन्म १८८६  
०२. संत ज्ञानेश्वर दिवस, अरविन्द आश्रम स्कूल पॉन्डिचेरी १९४२  
०३. किसान दिवस, विश्व विकलाँग दिवस, शहीद खुदीराम बोस जन्म १८८९ शहीद ११-८-१९०८, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जयंती १८८४, यशपाल जन्म १९०३ चद्रसेन विराट जन्म १९३६, देवानंद निधन २०११, भारत-पाक युद्ध १९७१, भोपाल गैस रिसाव १९८४  
०४. भारतीय जल सेना दिवस, सती प्रथा समापन आदेश जारी १८२९ (लार्ड विलियम बेंटिक), शेख अब्दुल्ला जन्म १९०५  
०५. आर्थिक-सामाजिक विकास दिवस, महर्षि अरविन्द दिवस, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' जन्म १९१४, रामकृष्ण दीक्षित जन्म १९२८ 
०६. डॉ. अंबेडकर निधन १९५६, तुर्की महिला मताधिकार १९२९ 
०७. झंडा दिवस, भारत प्रथम विधवा विवाह १८५६, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जन्म १८७९   
०८. तेजबहादुर सप्रू जन्म १८७५, क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन) जन्म १८७९, शर्मिला टैगोर जन्म 
०९. संविधान सभा प्रथम बैठक १९४६, महाकवि सूरदास जन्म १४८४, क्रन्तिकारी राव तुलाराम जन्म १८२५, शत्रुघ्न सिन्हा जन्म,   
१०. मानव अधिकार दिवस, डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस निधन १९४२ चीन में  
११. डॉ. राजेंद्र प्रसाद  अध्यक्ष १९४६, कवि प्रदीप जन्म, ओशो जन्म १९३१, अमरीकी अंतरिक्ष  उतरे १९७२ (अपोलो) 
१२. मैथिलीशरण गुप्त निधन १९६४, प्रो. सत्य सहाय निधन २०१०, प्रिवीपर्स समाप्ति कानून पारित १०७१  
१३. भवानी प्रसाद तिवारी निधन 
१४. ऊर्जा बचत दिवस, उपेंद्र नाथ अश्क जन्म १९१०, राजकपूर जन्म १९२४, शैलेन्द्र जन्म १९६६
१५. सरदार पटेल निधन १९५० 
१६. बांगला देश दिवस १९७१, प्रथम परमाणु भट्टी कलपक्कम १९८५ 
१७. क्रन्तिकारी राजेंद्र लाहिड़ी निधन १९२७, भगत सिंह- स्कॉट के धोखे में सांडर्स को गोली मारी, नूरजहाँ निधन १६४५, सत्याग्रह स्थगित १९४०, पाक सेना सर्पण ढाका १९७१ 
१८. राष्ट्रीय संग्रहालय उद्घाटित १९६०    
१९. रामप्रसाद बिस्मिल-अशफ़ाक़ उल्ला खान शहीद १९२७, गोवा विजय १९६१,  
२०. क्रांतिकारी बाबा सोहन सिंह भखना शहीद १९६८, वनडे मातरम् रचना १८७६ (बंकिम चन्द्र चटर्जी) 
२२. श्रीनिवास रामानुजम जन्म १८८७ 
२३. स्वामी श्रद्धानन्द निधन १९२६
२४. राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस, विश्व भारती स्थापना १९२१, मो.रफ़ी जन्म १९२४
२५. बड़ा दिन, मदन मोहन मालवीय जन्म १८६१, मो. अली जिन्ना जन्म, अटल बिहारी बाजपेयी जन्म १९२४, कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव जन्म, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी निधन, अभिनेत्री साधना निधन २०१५ 
२६. शहीद ऊधम सिंह जन्म १८९९, डॉ. किशोर काबरा जन्म १९३४, यशपाल निधन १९७६,  
२७. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष स्थापित १९४५, जान गण मन गायन दिवस १९११ मिर्ज़ा ग़ालिब जन्म १७९७, बेनज़ीर भुट्टो हत्या २००७ 
२८. सुमित्रा नंदन पंत निधन १९७७, प्रथम सिनेमा गृह पेरिस १८९५, कश्मीर युद्ध १९४७
२९. कोलकाता मेट्रो कार्यारंभ १९७२    
३०. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराकर भारत को स्वतंत्र घोषित किया, बाबर मारा १५३०  
३१. स्वराज्य संकल्प लाहौर १९२९, विश्व युद्ध समाप्त १९४६, रघुवीर सहाय निधन, दुष्यंत कुमार निधन           

सरस्वती


सरस्वती वंदना
अम्ब विमल मति दे.....
*
प्रचलित रूप
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अंब विमल मति दे
जग सिरमौर बनायें भारत
वह बल विक्रम दे
अंब विमल मति दे
साहस शील ह्रदय में भर दे
जीवन त्याग तपोमय कर दे
संयम सत्य स्नेह का वर दे
स्वाभिमान भर दे
अंब विमल मति दे
लव कुश ध्रुव प्रह्लाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम
सीता सावित्री दुर्गा माँ
फिर घर घर भर दे
अंब विमल मति दे
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अंब विमल मति दे
*
मूल रचनाएँ
१.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
आशिष अक्षय दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
'सलिल' विमल प्रवहे.....
************************
२.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बनाएँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
वह बल-विक्रम दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम् हरें.
स्वार्थ सकल तज दे.....
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
*
३.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सलिल-साधना
सरगम कंठ सजे....,
रुन-झुन रुन-झुन नूपुर बाजे.
नटवर-नटनागर उर साजे.
रास-लास उमगे.....
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य, छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे.....
सत-शिव-सुंदर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्मदेव पुलके.....
कंकर-कंकर प्रगटें शंकर.
निर्मल करें 'सलिल' प्रलयंकर.
गुप्त चित्र प्रगटे.....
*
४.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
सदय रहें नटवर-नटनागर.
पवन-नाद प्रवहे...
विद्युत्छटा अलौकिक वर दे.
चरणों मने गतिमयता भर डॉ.
अंग-अंग से भाव साधना-
चंचल 'सलिल' चारू चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके....
चित्र गुप्त, अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
जियें मूल्य शाश्वत शुचि पावन-
जीवन-कर्मों का शुचि मंचन.
मन्वन्तर महके...
***************
रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट
नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

दोहांजलि

 दोहांजलि

*
जयललिता-लालित्य को
भूल सकेगा कौन?
शून्य एक उपजा,
भरे कौन?
छा गया मौन.
*
जननेत्री थीं लोकप्रिय,
अभिनेत्री संपूर्ण.
जयललिता
सौन्दर्य की
मूर्ति, शिष्ट-शालीन.
*
दीन जनों को राहतें,
दीं
जन-धन से खूब
समर्थकी जयकार में
हँसीं हमेशा डूब
*
भारी रहीं विपक्ष पर,
समर्थकों की इष्ट
स्वामिभक्ति
पाली प्रबल
भोगें शेष अनिष्ट
*
कर विपदा का सामना
पाई विजय विशेष
अंकित हैं
इतिहास में
'सलिल' न संशय लेश
***
५-१२-२०१६

द्विपदियाँ

दो द्विपदियाँ - दो स्थितियाँ
*
साथ थे तन न मन 'सलिल' पल भर
शेष शैया पे करवटें कितनी
*
संग थे तुम नहीं रहे पल भर
हैं मगर मन में चाहतें कितनी
*
५-१२-२०१६

दोहा सलिला

 दोहा सलिला-

कवि-कविता
*
जन कवि जन की बात को, करता है अभिव्यक्त
सुख-दुःख से जुड़ता रहे, शुभ में हो अनुरक्त
*
हो न लोक को पीर यह, जिस कवि का हो साध्य
घाघ-वृंद सम लोक कवि, रीति-नीति आराध्य
*
राग तजे वैराग को, भक्ति-भाव से जोड़
सूर-कबीरा भक्त कवि, दें समाज को मोड़
*
आल्हा-रासो रच किया, कलम-पराक्रम खूब
कविपुंगव बलिदान के, रंग गए थे डूब
*
जिसके मन को मोहती, थी पायल-झंकार
श्रंगारी कवि पर गया, देश-काल बलिहार
*
हँसा-हँसाकर भुलाई, जिसने युग की पीर
मंचों पर ताली मिली, वह हो गया अमीर
*
पीर-दर्द को शब्द दे, भर नयनों में नीर
जो कवि वह होता अमर, कविता बने नज़ीर
*
बच्चन, सुमन, नवीन से, कवि लूटें हर मंच
कविता-प्रस्तुति सौ टका, रही हमेशा टंच
*
महीयसी की श्रेष्ठता, निर्विवाद लें मान
प्रस्तुति गहन गंभीर थी, थीं न मंच की जान
*
काका की कविता सकी, हँसा हमें तत्काल
कथ्य-छंद की भूल पर, हुआ न किन्तु बवाल
*
समय-समय की बात है, समय-समय के लोग
सतहीपन का लग गया, मित्र आजकल रोग
*

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

लघुकथा लेखन

लघुकथा लेखन 
कक्षा १० वीं 
५ अंकों का प्रश्न
*
- लघु = छोटी, कथा = कहानी 
- बब्बा-दादी, नाना-नानी, माँ, दीदी आदि कहानी कहती हैं। 
कहानी और लघुकथा 
कहानी लंबी होती है। उसमें बहुत सी घटनाएँ होती हैं। कहानी में अनेक पात्र होते हैं। 
लघुकथा छोटी होती है। लघुकथा में एक मुख्य घटना होती है। लघुकथा में पात्र कम होते हैं। 
लघुकथा पढ़ने का उद्देश्य
१. रचनात्मकता का विकास - 
२. शब्द भंडार की वृध्दि -
३. भाषा का सुधार -
४. विराम चिन्हों के प्रयोग की जानकारी -
५. कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की क्षमता का विकास -
६, अपनी बात रोचक तरीके से प्रस्तुत करना -
७. लघुकथा से शिक्षा या संदेश मिलना - 
लघुकथा के तत्व
१. घटना -
२. शब्द सीमा - १००- १२० 
३. पात्र संख्या - सीमित हो। 
४. घटनाक्रम - संक्षिप्त हो, 
५. संदेश - 
६. संवाद - 
७. अनुच्छेद - यथावश्यक, लगभग ५ - ६। 
८. शीर्षक - 
९. भाषा शैली -
प्रश्न के प्रकार  :
१. कुछ संकेतों के आधार पर लघुकथा की रचना करना - किसी संकेत को छोड़ें नहीं, संकेतों का प्रयोग क्रमवार करें, आवश्यक हो तो १-२ संकेत जोड़ सकते हैं।  
२. किसी घटना के आधार पर लघुकथा लिखना - घटना के कारण तथा प्रभाव पर विचार करें। 
३. अपने मन से कल्पना के आधार पर लघुकथा लिखना - अपने आस-पास घटी, समाचार पत्र में पढ़ी या दूरदर्शन पर देखी किसी घटना, उसके प्रभाव और उससे मिले संदेश पर विचारकर, कुछ बिंदु लिखें, फिर उन्हें वाक्यों में ढालें।   
४. किसी अधूरी लघुकथा को पूर्ण करना - लघुकथा के परिवेश, पात्रों और घटना पर विचार करे सोचें - आगे क्या-कैसे घटा होगा?   
अन्य पाठ्येतर जानकारी
लघुकथा के पर्यायवाची शब्द - नन्नी कानियाँ (बुंदेली), मिन्नी कहानी (पंजाबी)। 
कहानी के पर्यायवाची शब्द - कथा, किस्सा, गल्प। 
कहानी के प्रकार - बाल कथा, दृष्टांत कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, पर्व कथा, धार्मिक कथा, पर्यटन कथा, शिकार कथा, ऐतिहासिक कथा,  सामाजिक कथा। 
पुस्तकें - हितोपदेश, पंचतंत्र, बैताल कथाएँ, किस्सा हातिमताई, अलीबाबा की कहानियाँ, सिंदबाद की कहानी। 
 

Sanjeev Verma Salil | जाने लघुकथा लेखन | True Media Studio

समीक्षा गीत स्पर्श - पूर्णिमा निगम ‘पूनम'

कृति चर्चा : 
गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत 
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी. x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]

साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है। 
गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया। 
गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है। 
पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा - 
भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना 
ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है? 
लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने -
अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं 
न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी -
जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम
दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम 
जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी - 
जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई 
पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई 
अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं 
पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है -
तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है 
इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है
दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये- 
मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो 
बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो। 
लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके - 
रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं 
फलत:, 
नींद हमें आती नहीं है / काँटे सा लगता बिस्तर 
जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए 
नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं 
'बदनाम गली' इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है' याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें- 
रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का
जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ 
वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो 
रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ 
इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए 
अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं - 
तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं 
हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती 
आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही 
मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद 
अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं 
ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं -
एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो
तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं 
याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश'। 
एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं 
जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां करने की कला कोई पूनम से सीखे। 
उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं 
बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं 
देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो 
लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर 
आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई 
राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया 
साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन 
गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी - 
पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई 
सुख से अधिक यंत्रणा / मिलती है अंतर के महामिलन में 
अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा। 
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
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४-१२-२०१९

समीक्षा- पल पल प्रीत पली मधु प्रमोद

पल-पल प्रीत पली - महकी काव्य कली 
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण - पल-पल प्रीत पली, काव्य संकलन, मधु प्रमोद, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८-८१-९३५५०१-३-७, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २००रु., प्रकाशक उषा पब्लिकेशंस, मीणा की गली अलवर ३०१००१, दूरभाष ०१४४ २३३७३२८, चलभाष ९४१४८९३१२०, ईमेल mpalawat24@gmail.com ]
*
 मानव और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर सूक्षम अनुभूतियों को ग्रहण करना, अनुभूत की अनुभूति कर इस तरह अभिव्यक्त कर सकना कि अन्य जान सम-वेदना अनुभव करें, का ही है। सकल मानवीय विकास इसी धुरी पर केंद्रित रहा है। विविध भूभागों की प्रकृति और अपरिवेश के अनुकूल मानव ने प्रकृति से ध्वनि ग्रहण कर अपने कंठ से उच्चारने की कला विकसित की। फलत: वह अनुभूत को अभिव्यक्त और अभिव्यक्त को ग्रहण कर सका। इसका माध्यम बनी विविध बोलिया जो परिष्कृत होकर भाषाएँ बनीं। अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम अंग चेष्टाएँ, भाव मुद्राएँ आदि से नाट्य व नृत्य का विकास हुआ जबकि बिंदु और रेखा से चित्रकला विकसित हुई। वाचिक अभिव्यक्ति गद्य व पद्य के रूप में सामने आई। विवेच्य कृति पद्य विधा में रची गयी है। 
मरुभूमि की शान गुलाबी नगरी जयपुर निवासी कवयित्री मधु प्रमोद रचित १० काव्य कृतियाँ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाश कुसुम, दूर तुमसे रहकर, मन का आनंद, अकुल-व्याकुल मन, रू-ब-रू जो कह न पाए, भजन सरिता, भक्ति सरोवर पुजारन प्रभु के दर की, पट खोल जरा घट के के बाद पल-पल प्रीत पली की ९५ काव्य रचनाओं में गीत व हिंदी ग़ज़ल शिल्प की काव्य रचनाएँ हैं। मधु जी के काव्य में शिल्प पर कथ्य को वरीयता मिली है। यह सही है कि कथ्य को कहने के लिए लिए ही रचना की जाती है किन्तु यह भी उतना ही सही है कि शिल्पगत बारीकियाँ कथ्य को प्रभावी बनाती हैं। 
ग़ज़ल मूलत: अरबी-फारसी भाषाओँ से आई काव्य विधा है। संस्कृत साहित्य के द्विपदिक श्लोकों में उच्चार आधारित लचीली साम्यता को ग़ज़ल में तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) के रूप में रूढ़ कर दिया गया है। उर्दू ग़ज़ल वाचिक काव्य परंपरा से उद्भूत है इसलिए भारतीय लोककाव्य की तरह गायन में लय बनाये रखने के लिए गुरु को लघु और लघु उच्चारित करने की छूट ली गयी है। हिंदी ग़ज़ल वैशिष्ट्य उसे हिंदी व्याकरण पिंगल के अनुसार लिखा जाना है। हिंदी छंद शास्त्र में छंद के मुख्य दो प्रकर मातृ और वार्णिक हैं। अत, हिंदी ग़ज़ल इन्हीं में से किसी एक पर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी ग़ज़ल के आधार पर भारतीय भाषाओँ के शब्द भंडार को लेकर उर्दू ग़ज़ल निर्धारित लयखण्डों (बह्रों) पर आधारित होती हैं। मधु जी की ग़ज़लनुमा रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल की रीती-निति से सर्वथा अलग अपनी राह आप बनाती हैं। इनमें पंक्तियों का पदभार समान नहीं है, यति भी भिन्न-भिन्न हैं, केवक तुकांतता को साधा गया है। 
इन रचनाओं की भाषा आम लोगों द्वारा दैनंदिन जीवन में बोली जानेवाली भाषा है। यह मधु जी की ताकत और कमजोरी दोनों है। ताकत इसलिए कि इसे आम पाठक को समझने में आसानी होती है, कमजोरी इसलिए कि इससे रचनाकार की स्वतंत्र शैली या पहचान नहीं बनती। मधु जी बहुधा प्रसाद गुण संपन्न भाषा और अमिधा में अपनी बात कहती है। लक्षणा या व्यजना का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। उनकी ग़ज़लें जहाँ गीत के निकट होती हैं, अधिक प्रभाव छोड़ती हैं -
मन मुझसे बातें करता है, मैं मन से बतियाती हूँ। 
रो-रोकर, हँस-हँसकर जीवन मैं सहज कर पाती हूँ। 
पीले पत्ते टूटे सारे, देखो हर एक डाल के
वृद्ध हैं सारे बैठे हुए नीचे उस तिरपाल के 
मधु जी के गीत अपेक्षाकृत अधिक भाव प्रवण हैं- 
मैंने हँसना सीख लिया है, जग की झूठी बातों पर
सहलाये भूड़ घाव ह्रदय के रातों के सन्नाटों पर 
विश्वासों से झोली भरकर आस का दीप जलाने दो 
मुझको दो आवाज़ जरा तुम, पास तो मुझको आने दो 
किसी रचनाकार की दसवीं कृति में उससे परिपक्वता की आशा करना बेमानी नाहने है किन्तु इस कृति की रचनाओं को तराशे जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। गीति रचनाओं में लयबद्धता, मधुरता, सरसता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता आदि होना उन्हें स्मरणीय बनाता है। इस संकलन की रचनाएँ या आभास देती हैं कि रचनाकार को उचित मार्गदर्शन मिले तो वे सफल और सशक्त गीतकार बन सकती हैं। 
*
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्व वाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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