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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020

विमर्श : मंदिर और वैभव

विमर्श :
मंदिर और वैभव 
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी आदि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे बाढ़ में सर्वस्व गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से रोजगार का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
*

दोहा

दोहा सलिला 
*
स्वाति-सलिल की बूँद से, को सीपी की दरकार।
पानी तब ही ले सके, मोती का आकार।।
*
त्रिगुणात्मकता प्रकृति का, प्राकृत सहज स्वभाव।
एक तत्व भी न्यून तो, रहता शेष अभाव।।
*
छाया छा या शीश पर, कुहरा बरखा घाम।
पड़े झेलना हो सखे!, पल में काम तमाम।।
*
वीतराग मिथलेश पर, जान जानकी मोह।
मौन-शांत कब तक सहें, कहिए विरह-विछोह?
*
बुद्धि विनीता ही रहे, करता ज्ञान घमंड।
मन न मुकुल हो सके तो, समझें पाया दंड।।
*
वसुंधरा बिन दे सके, कहें कौन आधार?
पग भू पर रख उड़ नहीं, नभ में खो आधार।।
*
बिंदु बिना रेखा नहीं, मिल गढ़ती हैं चित्र।
सीधी रह मत वक्र हो, रेखा बनकर मित्र।।
*
मंडन-मंडल बिन कहाँ, मंडला गहे महत्व।
नेह नर्मदा नहा ले, मूल यही है तत्व।।
*
नवधा भक्ति न कर्म बिन, आलस करे न लोक।
बिन वेतन मजदूर रवि, दे दिनकर आलोक।।
***
६-१०-२०१९ 

दोहा गीत

दोहा गीत-
बंद बाँसुरी
*
बंद बाँसुरी चैन की,
आफत में है जान।
माया-ममता घेरकर,
लिए ले रही जान।।
*
मंदिर-मस्जिद ने किया, प्रभु जी! बंटाधार
यह खुश तो नाराज वह, कैसे पाऊँ पार?
सर पर खड़ा चुनाव है,
करते तंग किसान
*
पप्पू कहकर उड़ाया, जिसका खूब मजाक
दिन-दिन जमती जा रही, उसकी भी अब धाक
रोहिंग्या गल-फाँस बन,
करते हैं हैरान
*
चंदा देते सेठ जो, चाहें ऊँचे भाव
जनता का क्या, सहेगी चुप रह सभी अभाव
पत्रकार क्रय कर लिए,
करें नित्य गुणगान
*
तिलक जनेऊ राम-शिव, की करता जयकार
चैन न लेने दे रहा, मैया! चतुर सियार
कैसे सो सकता कहें,
लंबी चादर तान?
*
गीदड़ मिलकर शेर को, देते धमकी रोज
राफेल से कैसे बचें, रहे तरीके खोज
पाँच राज्य हैं जीतना
लिया कमल ने ठान
*****
६-१०-२०१८ 

पैरोडी - ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा

एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हें, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूँगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, है जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
*****

लघुकथा समाधि

लघुकथा 
समाधि 
*
विश्व पुस्तक दिवस पर विश्व विद्यालय के ग्रंथागार में पधारे छात्र नेताओं, प्राध्यापकों, अधिकारियों, कुलपति तथा जनप्रतिनिधियों ने क्रमश: पुस्तकों की महत्ता पर लंबे-लंबे व्याख्यान दिए। 
द्वार पर खड़े एक चपरासी ने दूसरे से पूछा- 'क्या इनमें से किसी को कभी पुस्तकें लेते, पढ़ते या लौटाते देखा है?'
'चुप रह, सच उगलवा कर नौकरी से निकलवायेगा क्या? अब तो विद्यार्थी भी पुस्तकें लेने नहीं आते तो ये लोग क्यों आएंगे?' 
'फिर ये किताबें खरीदी ही क्यों जाती हैं?
'सरकार से प्राप्त हुए धन का उपयोग होने की रपट भेजना जरूरी होता है तभी तो अगले साल के बजट में राशि मिलती है, दूसरे किताबों की खरीदी से कुलपति, विभागाध्यक्ष, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि को कमीशन भी मिलता है।' 
'अच्छा, इसीलिये हर साल सैंकड़ों किताबों को दे दी जाती है समाधि।' 
***

लघुकथा काँच का प्याला

लघुकथा 
काँच का प्याला 
संजीव 
*
हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा- 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।' 
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी- 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। ' 
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया। 
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेटकर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न' 
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फुट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करो' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला। 
***

सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

आ भाषा म्हांरी है - राजेन्द्र स्वर्णकार

आ भाषा म्हांरी है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
*
आ भाषा म्हांरी है लोगां ! माता आ म्हांरी है !
राजस्थानी भाषा सगळा राजस्थान्यां री है !

नव दुर्गा ज्यूं इण माता रा रूप निजर केई आवै
मोद बधावै मेवाड़ी मन हाड़ौती हरखावै
बागड़ी ढूंढाणी मेवाती मारवाड़ी है !
भांत भांत सिणगार सजायेड़ी आ रूपाळी है !
आ माता म्हारी है बीरा, माता आ थारी है ! !

मत करज्यो रे बै'म कै भायां सूं भाई न्यारा है
काळजियै री कोर है भाई आंख्यां रा तारा है
अणबण व्हो ; म्हैं जूदा नीं व्हांंमन में धारी है !
सावचेत रे टकरावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
सावचेत रे टरकावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
*

भाषा राजस्थानी कन्हैयालाल सेठिया

भाषा राजस्थानी
कन्हैयालाल सेठिया
*
जनपद री बोल्यां है मिणियां
मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी,
हाड़ोती, मरुवाणी।
सगळां स्यूं रळ बणी जकी बा
भाषा राजस्थानी।
रवै भरतपुर, अलवर अळघा
आ सोचो क्यां ताणी!
हिन्दी री मां, सखी बिरज री
भाषा राजस्थानी।
जनपद री बोल्यां है मिणियां
*

राजस्थानी भाषा पन्नालाल कटारिया 'बिठौड़ा'

राजस्थानी भाषा
*
वीर शिरोमणी धरती री पहचाण है या परिभाषा है
सारी भाषावां सूं न्यारी राजस्थानी भाषा है
समला जग में या जस पावे जन-जन री अभिलाषा है
सारी भाषावां सूं न्यारी राजस्थानी भाषा है
मायड़ भाषा रे सगला हेतालुवां ने हेलो है
अपणी भाषा में बतलाणों फरज आपणो पेलो है
सबद-सबद इतरो मीठो मन कैवे वाह-सा वाह-सा है
सारी भाषावां सूं न्यारी राजस्थानी भाषा है
गांव-स्हैर ढाणी-ढाणी जन-जन ने जाय जगाणो है
मासी काकी भुआ बिच्चै मां ने मान दिराणो है
अठा सूं बोल्या है बाङसा अर वठा सूं बोल्या माङसा है
सारी भाषवां सूं न्यारी राजस्थानी भाषा है
म्हांने म्हांकी मायड़ भाषा पे है घणो मान-अभिमान
म्हांके संग सगला जगआला गावे राजस्थानी गुणगान
आबाआली पीढ़ी रे मन री जीवन री आशा है
सारी भाषावां सूं न्यारी राजस्थानी भाषा है
(संकलित)
*

ढूंढाणी कविता राजेन्‍द्र स्‍वर्णकार

ढूंढाणी कविता
राजेन्‍द्र स्‍वर्णकार

*
आ माता म्हारी है बीरा, माता आ थारी है !


आ माता थारी है बैनड़, माता आ म्हारी है !
राजस्थानी आपां सगळा राजस्थान्यां री है !
आ भाषा म्हांरी है लोगां ! माता आ म्हांरी है !
राजस्थानी भाषा सगळा राजस्थान्यां री है !
राजस्थानी देह - आत्मा राजस्थान्यां री है !

नव दुर्गा ज्यूं इण माता रा रूप निजर केई आवै
मोद बधावै मेवाड़ी मन हाड़ौती हरखावै
बागड़ी ढूंढाणी मेवाती मारवाड़ी है !
भांत भांत सिणगार सजायेड़ी आ रूपाळी है !
आ माता म्हारी है बीरा, माता आ थारी है ! !

गरब सूं गवरल ज्यूं मायड़ नैं माथै उखण्यां घूमां
चिरमी मूमल काछबो गावां, लड़ली लूमां झूमां
मीठी मिसरी आ भाषा सगळां सूं प्यारी है !
चांदड़लै री उजियाळी आ सूरज री लाली है !
आ माता थारी है बैनड़, माता आ म्हारी है ! !

वीर बांकुरां री बोली आ सेठ साहूकारां री
वाणी भगतां कवियां करसां राजां बिणजारां री
मरुधरती रो कण कण पग पग मा सिणगारी है !
बडो काळजो राखण वाळी निरवाळी न्यारी है !
आ माता म्हांरी है सुणज्यो, भाषा आ म्हांरी है !!

गरबीली ठसकै वाळी है , जबर मठोठ इंयै री
जद गूंजै; के कान ? खोलदै खिड़क्यां बंद हियै री
मत जाणीजो इण रा जायोड़ां में मुड़दारी है !
आज काल में हक़ लेवण री इब म्हांरै त्यारी है !
राजस्थानी देह - आत्मा राजस्थान्यां री है !!

मत करज्यो रे बै'म कै भायां सूं भाई न्यारा है
काळजियै री कोर है भाई आंख्यां रा तारा है
अणबण व्हो ; म्हैं जूदा नीं व्हां…मन में धारी है !
सावचेत रे टकरावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
सावचेत रे टरकावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
*

शेखावाटी कविता हवेली री पीड़ा

शेखावाटी कविता 
हवेली री पीड़ा
*



आँख्या-गीड़, उमड़ती भीड़
सूनी छोड़ग्या बेटी रा बाप !

बुझाग्या चुल्है रो ताप
कुण कमावै, कुण खावै
कुण चिणावै, कुण रेवै !

जंगी ढोलां पर चाल्योड़ी तरेड़
बोदी भींता रा खिंडता लेवड़ा

भुजणता चितराम
चारूंमेर लाग्योड़ी लेदरी
बतावै भूत-भविस अ’र वरतमान
री कहाणी ! कीं आणी न जाणी !

आदमखोर मिनख
बैंसग्या पड्योड़ा सांसर ज्यूं
भाखर मांय टांडै
जबरी जूण’र जमारो मांडै !

काकोसा आपरै जींवतै थकां
ई भींत पर
एक कीड़ी नी चढ़णै देवतां
पण टैम रै आगै कीं रो जोर ?

काकोसा खुद कांच री फ्रेम में
ऊपर टंगग्या
पेट भराई रै जुगाड़ मैं
सगळो कडुमो छोड्यो देस
बसग्या परदेस,
ठांवा रै ताळा, पोळ्यां में बैठग्या
ठाकर रूखाळा।

टूट्योड़ी सी खाट
ठाकरां रा ठाट
बीड्यां रो बंडल, चिलम’र सिगड़ी
कुणै में उतर्योड़ो घड़ो
गण्डक अ’र ससांर घेरणै तांई
एक लाठी
अरड़ावै पांगली पीड़ स्यूं गैली
बापड़ी सूनी हवेली
(अज्ञात)

शेखावाटी कविता

शेखावाटी कविता
*



छाछ-राबड़ी, कांदो-रोटी, ई धरती को खाज।
झोटा देवै नीम हवा का, तीजण कर री नाज।।
पकी निमोली लुल झाला दे, नीम चढ़डी इठलावै।
मन चालै मोट्यारां का, जद टाबर गिटकू खावै।।
लूआ चालै भदै काकड़ी, सांगर निपजै जांटी।
कैर-फोगलो बिकै बजारां, वाह भाई शेखावाटी।।
रांभै गाय तुड़ावै बाछो, छतरी ताणै मोर।
गुट्टर-गूं कर चुगै कबूतर, बिखरै दाणा भोर।।
झग्गर झोटा दे' र धिराणी, बेल्यां दही बिलोवै।
फोई खातर टाबर-टोली काड हथेली जोवै।।
टीबां ऊपर लोट-पलेटा, अंग सुहावै माटी।
ल्हूर घालरी कामण गार्यां, वाह भाई शेखावटी।।
रोही को राजा रोहीड़ो, चटकीलै रंग फूल।
मस्तक करै मींझर की सोरम, लुलै नीमड़ा झूल।।
गुड़-गुड़ करतो हुक्को घूमै, घणी सुहाणी रातां।
सीधा सादा लोग मुलकता, भोली भोली बातां।।
ऊंट-ऊंटणी भोपा-भोपी, छान ओबरा टाटी।
कोट-कंगूरा छतर्यां ऊपर, वाह भाई शेखावाटी।।
नथली झूलै नाक, गलै में सोवै नोसेर हार।
जुलम करैं आंख्यां को काजल, मैंदी रचै सुप्यार।।
नेह-लाज ममता-समता को, घमों सुहाणो रूप
ईं धती की गजबण जाणै स्यालै की सी धूप।।
साफो बांधै मूंछ मरोड़ै, चित चोरै कद-काठी।
मरद अठे का रसिक हठीला, वाह भाई शेखावाटी।।
माल उतर ज्यावै चरखै की, सुगमो सावण आतां।
गावै गीत गुवाड़ा, गजबण करै सुरंगी बातां।।
झूलो झूलै चढ़ी ड़ावड्यां, ऊबकली मचकावै।
काका जोड्यां ल्हूर घालती, कामण मिल मुलकावै।।
तीज सुरंगी, जो' डा-पूजण,राखी गूगाजांटी।
कामणगारो सावणियो, नखराली शेखावाटी।।
सीली रात पपड्यो जुल्मी पिया पिया दे बोल।
विरै दरद की मारी को,सुण थिर मन ज्यावै डोल।।
भोर होय कुहुक कोयलड़ी, सोई हुक जगावै।
छतरी ताणै झूम मोरियो, नाचै कदम मिलावै।।
मौज करै सूवा-टूटूड़ी, चुगै कमेड़ी गाती।
मरवण ऊबी पीव उडिकै, वाह भाई शेखावटी।।
जच्चा ओढै पीलो मनहर, सदा सुहागण चुनड़ी।
अचकना बागो बनड़ो पैरै, बेस कसमुल बनड़ी।।
गठजोड़ै की जात चाव सै, होलर जणै सुभागण।
पौबारा को सगुण मिलै' जे, दोगड़ लियां सुहागण।
खर बायंो दैणी गौमाता, मिलै दही की काठी।
चाला कटै सगुण सध जाणै, वाह भाई शेखावाटी।
हरी-भरोटी, दोगड़-रोटी,गाय चुंघाती बाछो।
धोली चील लूंगती नोल्यो, मुर्दो सामीं जातो।।
साबत नाज हरी तरकारी, भोत भलेरा सूण।
दसरावै नै लीलटांस दिख, बदलै जाणी जूण।।
सोन चिड़ी सांप सिर बैठी, मिलै सुहागण मा ठी।
सगुण-सास्तर बल लोगां को, वाह भाई शेखावाटी।
ई धती को उजलो गौरव, अर इतिहास कहाणी।
मरु का गौरव ऊंडा कूआ, बो इमरत सो पाणी।।
अणथक सेवा अडिग साधना, समता और समाई।
पर-उपकारी मिनख लियां, कूआं जतरी गहराई।।
सेवा भावी तपसी माणस, सत सूं सतियां माठी।
दाता-सूर भलेरा नरवर, वाह भाई शेखावाटी।।
लूठा बुध बल कौसलधारी, लोग बड़ा ही सच्छम।
सीमा जग जांबाज रुखालै, खेती-पेसो-ऊधम।।
तकनीकी विज्ञान चिकित्सा, सैं में कला निधान।
ई' धरती का दीप जागता, धरती घणी महान।।।
धनवानां विद्वानां की, या सापुरसां की थाती।
घम अनमोल रतन निपजावै, वाह भाई शेखावाटी।।
छिछलो पणो घणी गहराई, फक घणो दोन्यां में।
कूआं मसैं भी गहरी मिलसी, मैठ अठे लोगां में।
बोलैकम सोचै परहित में, सेखी नही बधारै।
ओड़ी में आडा आवणिया, सैं का काम संवारै।।
बोली जाणी मीठी मिसरी, घमी सुहावै म्हाटी।
भाी चारो रल्यो खून में, वाह भाई शेखावाटी।।
संत अटै का सिरै मौर, या धरती है संतां की।
नेम-धरम घर लिछमी राखै, कर सेवा कंतां की।।
सरधा-इमरत हिवड़ै राखै, सांचै मन का लोग।
सुरग अठे है भोग अठै, है त्याग तपस्या जोग।।
मनसा नरड़ खाटू सालासर, जीण शंकरा घाटी।
धन धती तूं लोहगर की, वाह भाई शेखावाटी।।
जात-जडूला धोक-चूरमा, पितरां को जागरणो।
धुकै देवरा मंड-चूंतरा, सत जावै नहिं बरण्यो।।
खेतरपाल रिगतमल भैरूं, मामलियो म्हामाई।
रामदेवजी, गूगोजी की, जात लागती-आई।।
रात च्यानणी और अंधेरी, देव पितर में बांटी।
करै पालना लोग अठै का, वाह भाई शेखावाटी।।
जागरणां मोट्यार करै, अर राती जुगा लुगाई।
माल खेत की होय परकमा, जागै गंगा माई।।
जीवणमाता, मनसा माई, सिद्ध पीट साकंबरी।
खाटू हालो श्याम घणी, सालासार को बजरंगी।।
सीतला बागोर बिराजै, सिरै उदयपुरवाटी।
लक्ष्मीनाथ फतेहपुर राजै, वाह भाई शेखावाटी।।
गूगोजी को भोग गुलगला, खीर चूरमो सूणां।
कान्हो जलमै बणै पंजीरी, शिव छक ज्याय धतूरां।।
मालखेतजी, रामदेवजी, सकरबार सा' पीर।
मेला लोग उडिकै अणका, होकर घणा अधीर।।
तीज तिव्हांर बावड़ै साथै, गणगौर डबोवै जाती।
सूत्या देव जगै कातिक में, वाह भाई शेखावाटी।।
मन्दर नसियां जती सती, है छतर्यां सापुरसां की।
मठ-धूणां साधझू संतां का, धरा सिद्धि पीरां की।
पगल्यां मंड्या चबूतरा, मंडवा पितर वितान।
धज फहराता सिखरबंद ई' धरती की पैचाण।।
धुकै देवरा बुंगली-बुंगला, जगै दिव जग बाती।
अंतर मन सैं करै आरत्यां, वाह भाई शेखावाटी।।
बेल्यां मोल दही रोटी की, छाछ राबड़डी छाकां।
सरदा सारू चिकणी-चुपड़ी, आथण कै दोपार्यां।।
गुड़, कान्दो, मूली, मिरची, घी को मिरियो सक्कर में।
छप्पन भोग कठै लागै, अणे बगां की टक्कर में।
गूंद सूंठजद खाय बूड़ला, टाबर मांगै पांती।
बिना चकायां दर ना भावै, वाह भाई शेखावाटी।।
ऊंडी थाली ठेठ किनारां, खीर परोसी होय।
भलै मिनख का दरसण, जाणी बेल्यां होया होय।।
सीरो अमरस बिना दांत को, भोजन है मौमस को।
स्यालै बणै सूसुआ रोटी, सागै दही सबड़को।।
जरी-पल्ला को मुख चूरमो, घी में गलगच बाटी।
दूर सबड़का सुणै दाल का, वाह भाई शेखावाटी।।
फोगलै को सरस रायतो, गड़तुम्बां को आचार।
सामरथां की सोख मेटदे, निरबल को आधार।।
खींप फोग जांटी कै मन में, गूंजै मरुधर नाद।
कैर सांगरी खिंपोली की, सबजी घणी सुवाद।।
बिन पाणी रह ज्याय जीवता, कैर कैलिया जांटी।
या ही झलक मिलै लोगां में, वाह भाई शेखावाटी।।
सुघड़ सलौना मुखड़ां सोवै, आंख बांधतो ओज।
झूला चकरी किलकार्यां, अर बै मेलां की मौज।।
डैलर हींडा की चररर मरर सुण, झोटा मन नै भावै।
रंग बिरंगी सजै बानग्यां, मन डग-डग हो ज्यावै।।
काजल-टीकी खेल-खिलौणा, मिलैमूण अर लाठी।
मनचीत्या होवै मेलां में, वाह भाई शेखावाटी।।
जेठ साड में पड़ै तावड़ो, उठै घटा घनघोर।
मेलां की रुत सावण-भातो, चैत मायं गणगौर।।
पाकै गिटकू किरै काचरा, सौरम रै सिट्टां की।
बड़ी दूर सै खुसबू आवै, मट काचर मिठ्ठां की।।
लोहागर का आम रसीला, भोग चूरमो-बाटी।
ऐ मिलणा दुरलभ सुरगां में, वाह भाई शेखावाटी।।
ढलती रात बारियो बैरी, बोलै मीठा बोल।
धण को मन बेचैन करै, दे मन की गांठां खोल।।
चाकी जोवण उठ चालै, कजरारा नैण नवेली।।
रसियो पकड़ै बांह गौर की, होवै फेर ठिठोली।।




घम्मड़का लागै चाकी का, गजबण जोरा म्हाटी।
सोरी आवै नींद फेर तो, वाह भाई शेखावाटी।।
ऊंचा मरुआ ऊंडा कूआ, च्यारूं ढाणां भूण।
दोगड़ ल्याती पणिहार्यां कै, कमर चढ़ी रै मूण।।
पणघट पर भेली हो ज्यावै, मधुर याद मनरातां।
कोई भेद रह्वै ना बाकी, धुल धुल होवै बातां।।
रस लेती सरमावै एकण, दूजी कै मन आंटी।
तीजी खोलै मन की परतां, वाह भाई शेखावाटी।।
बारा बोलै भोर बारियो, मारै कीलियो झोल।
ओ ढाणै में चड़स थाम ले, बो' कीली दे खोल।।
कल-कल करती गंगा चालै, तिरपत होवै क्यारी।
धोरा डांड नीपजै सागै, हरख मनां रै भारी।।।
मींणत कस इंसान रीजता, उपजाऊ है माटी।
न्यारी न्यारी निपज निराली, वाह भाई शेखावाटी।।
चौकीदारी घमी जोर की, खबड़दार कह बोलै।
कोई रसियो मूमल गावै, सीली रा बिचोलै।।
परदेसां ले ज्याय भंवर नै, पापी पेट अनाड़ी।
भर जोबन में बलै कालजो, आ' धण की लाचारी।।
काली कोसां को अन्तर, रस रात कटै ना काटी।
बैरण याद हियै में खटकै, वाह भाई शेखावाटी।।
तिथ बारां की अलग कहाणी, व्रत पूजा हथफेरा।
कातिक न्हावै मंगसिर न्हावै, सीधा आला-कोरा।।
सावा जोग म्हूरत काड़ै, पण्डित ले पतड़ा पोथी।
धरम करम में घणी आस्था, बिसवासी लोगां की।।
रोली-मोली, तिलक-चोपड़ा, दिछणा की परिपाटी।
दुध्धड़िया म्हूरत फेरां का, वाह भाई शेखावाटी।।
(संकलित)
*

मेवाती रचना

मेवाती रचना 
*
उत्तर तो दिल्ली बसे, दक्खन में बैराठ
अरावली जमना बीच बसे यू बेकुंठ से मेवात।

हमारे एतिहस से नाख़बर है तु जामना
हम क्षत्रिय हैं, हमारे पुरवाज राम और कान्हा।

लहु जिगर से सवारा हिन्द के तस्वीर को
हस्ते हस्ते झेला हमने बलबन की समशीर को।

खानवाः में हमने ही बाबर को ललकारा
मज़हब से पहले मुल्क, दिया हसन खां ने नारा।

हमारे खून से ही लाल हल्दी की घाटी
शिवजी को निकला, ये थी हमारी छाती।

सवाईओ की तरह मुगलो को डोली न भिजवाई
कोम की खातिर बाहड़ ने फांसी है खायी।

हमने झेला फिरंगी फंदो के कहर को
समसुदीन की शहादत पर नाज है हर बसर को।

दोहा और रुपरका में हमने हजारो सर कटवाए
रायसीना में अंग्रेज हमने गहते में चलवाये।

ना ज़ज़िया के डर सु, ना मुगलो के तलवर सु
हमने इस्लाम को लिया ख्वाजा और सालर सु।

राजा बल्ली को बिमा , सदुल्ला को अकेरा
यसीन को रेहना, घण्डी का घेरा ।

गलिब को ननिहाल, डाग को पुश्तैनी घर
अलावाल को बसायो यु शहर अलवर।

तारीख बताती हैं हमारी कुर्बानिया
कोटला और इन्दोर हमरी निशांया।

यहाँ चोखा की बिरादरी ,मूसा की मीनारें।
यहाँ चुहुड सीड की वाणी ,लाल दस की दीवारें।

पांडव बिहार ये ,चन्दर प्रभु को तिजारा
शांति सागर की समाधी , मस्तान साह को डेरा।

जो काम कभी नबियो को हो वो मिलो
उसी तब्लीग को दुनिआ में मेवात से सिलसिला चलो।

यह भूमि है आलिमो की यहाँ वलियो के नज़ारे।
घासेड़ा को मूसा ,हाजी महताब के सितारे।।
(संकलित)

अरदास गणपत मेघवाल नाड़सर

अरदास 
गणपत मेघवाल नाड़सर
*
आँगन कंवारो रेबा दीज्यै पणं रंडापो मत दीज्ये
भगवान जवानी दे दीज्यै पणं पछै बुढापो मत दीज्यै
हाथी दीज्ये घोडा दीज्यै गधा गधेडी मत दीज्यै
सुगरां री संगत दे दीज्यै नशा नशैडी मत दीज्यै
घर दीज्यै घरवाली दीज्यै खींचाताणीं मत दीज्यै
जूणं बलद री दे दीज्ये तेली री घाणीं मत दीज्यै
काजल दीज्यै टीकी दीज्यै पोडर वोडर मत दीज्यै
पतली नार पदमणीं दीज्यै तूं बुलडोजर मत दीज्यै
टाबर दीज्यै टींगर दीज्यै बगनां बोगा मत दीज्यै
जोगो एक देय दीज्यै पणं दो नांजोगा मत दीज्यै
भारत री मुद्रा दै दीज्यै डालर वालर मत दीज्यै
कामेतणं घर वाली दीज्यै ब्यूटी पालर मत दीज्यै
कैंसर वैंसर मत दीज्यै तूं दिल का दौरा दे दीज्यै
जीणों दौरो धिक ज्यावेला मरणां सौरा दे दीज्यै
नेता और मिनिस्टर दीज्यै भ्रष्टाचारी मत दीज्यै
भारत मां री सेवा दीज्यै तूं गद्दारी मत दीज्यै
भागवत री भगती दीज्यै रामायण गीता दीज्यै
नर में तूं नारायण दीज्यै नारी में सीता दीज्यै
मंदिर दीज्यै मस्जिद दीज्ये दंगा रोला मत दीज्यै
हाथां में हुन्नर दे दीज्यै तूं हथगोला मत दीज्यै
दया धरम री पूंजी दीज्यै वाणी में सुरसत दीज्यै
भजन करणं री खातर दाता थौडी तूं फुरसत दीज्यै
घी में गच गच मत दीज्यै तूं लूखी सूखी दे दीज्यै
मरती बेल्यां महर करीज्यै लकड्यां सूखी दे दीज्यै
कवि नें कीं मत दीज्यै कविता नें इज्जत दीज्यै
जिवूं जठा तक लिखतो रेवूं इतरी तूं हिम्मत दीज्यै
घर वाली न सद् बुद्धि दीज्ये बेटा बहू की भीड़ मती बोलज्य्
एक का इक्कीस दिज्ये होता ही सब न कण कण का कर दीजै
पन वृद्धाश्रम में भेजण आळा मत दीजे
गैली गूंगी दीजै पण ज्यादा सुन्दर करकसा नार मत दीजै
*

राजस्थान

राजस्थान खास क्यों हैं...?


१. भारत के सबसे अधिक अमीर सौ व्यक्तियों में से ३५ राजस्थानी/मारवाड़ी व्यापारी हैं।
२. दंगो में हजारों लोग मारे गए हैं राजस्थान में एक भी नहीं।
३. राजस्थान अकेले इतने सैनिक देश को देता है जितने केरल, आन्ध्र-प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात मिलकर भी नहीं दे पाते।
४. सबसे ज्यादा कर्नल सूबेदार राजस्थान से हैं।
५. उच्च शिक्षण संस्थानों में राजस्थानी इतने हैं कि महाराष्ट्र और गुजरात मिलाने से भी बराबरी नहीं कर सकते।
६. राजस्थान अकेला ऐसा राज्य है जहाँ किसान कृषि कारणों से आत्म- हत्या नहीं करते। राजस्थानी बुज़दिल नही दिलेर होते हैं।
7. आज भी राजस्थान में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार हैं।
८. हम एक रिक्शा चलानेवालों को भी भाई कह कर बुलाते हैं।
प्यारो राजस्थान.....
रंगीलो राजस्थान.

 
: ताज महल अगर प्रेम की निशानी है
तो "गढ़ चित्तोड़" एक शेर की कहानी है.
"कुछ लोग हार कर भी जीत जाते हैं !
कुछ लोग जीत कर भी हार जाते हैं !!
नहीं दिखते है अकबर के ताबूत कहीं पर भी,
लेकिन
"राणा के घोड़े हर चौराहे पर आज भी नज़र आते है।।

मारवाड़ी कविता

मारवाड़ी कविता
"गाँव री याद" 
*गाँव रा गुवाड़ छुट्या, लारे रह गया खेत । 
धोरां माथली झीणी झीणी,उड़ती बाळू रेत ।।
उड़ती बाळू रेत,नीम री छाया छूटी । 
फोफलिया रो साग ,छूटी बाजरी री रोटी ।। 
अषाढ़ा रे महीने में जद,खेत बावण जाता । 
हळ चलाता,तेजो गाता, कांदा रोटी खाता ।। 
कांदा रोटी खाता,भादवे में काढता 'नीनाण'। 
खेत मायला झुपड़ा में,सोता खूंटी ताण ।। 
गरज गरज कर मेह बरसतो,खूब नाचता मोर।
खेजड़ी रा खोखा खाता,बोरटी रा बोर ।। 
बोरटी रा बोर ,खावंता काकड़िया मतीरा । 
'सिराधां' में जीमता ,देसी घी रा सीरा ।। 
आसोजां में बाजरी रा,सिट्टा भी पक जाता । 
काती रे महीने में सगळा,मोठ उपाड़न जाता ।।
मोठ उपाड़न जाता,सागे तोड़ता गुवार । 
सर्दी गर्मी सहकर के भी, सुखी हो परिवार ।। 
गाँव के हर एक घर में, गाय भैंस रो धीणो । 
घी दूध भी घर का मिलता, वो हो असली जीणो ।।
वो हो असली जीणो, कदे नहीं पड़ता था बीमार ।
गाँव में ही छोड़ आया ,ज़िन्दगी रो सार ।। 
सियाळे में धूंई तपता, करता खूब हताई । 
आपस में मिलजुल कर रहता,सगळा भाई भाई ।।
(संकलित)

मारवाड़ी मेंहदी

 


हाड़ौती रचना दा'जी रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया'

हाड़ौती रचना
दा'जी
रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया'
*
कांधा पै 
बठाण'र म्हने 
च्यारूं मेरी फरै छा 
म्हारा दा'जी 
म्हूं 
बैठ्यो-बैठ्यो 
वांका कांधा पै 
वांकी खोपड़ी में 
मारतो रैवेछो
कड़कोल्या 
होता रैवेछा राजी 
म्हारा दा'जी

हाड़ौती रचना ऊँड़ाई रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया'


हाड़ौती रचना
ऊँड़ाई 
रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया' 
*
पाँच हात 
दस हात 
पचास,
सौ पान सौ। 
नापतो ई चाल्ज्या 
तू ई 
थाक जावैगो,
ऊमर की पीढ्याँ 
पाक जावैगो 
नै मलैगी 
थाह 
अथाह छै 
ऊंडो 
भ्रस्टाचार को मूंडो। 
*

हरयाणवी सरस्वती वंदना वीना तवंर

हरयाणवी
सरस्वती वंदना
वीना तवंर, गुरुग्राम
*
शारदे माता वीणा वादिनी,
करू तनै प्रणाम। 
वन्दना करु हे मेरी माता,
दे दे बुध्दि ज्ञान। 
मेरी लेखनी नै वर दे, 
शक्ति मनै दे दे।
मैं भीतर ले मन तै चाहू,
तू मेट मेरा अज्ञान।
धौले-धौले कपड़े पहनै,
मोर की करै सवारी।
वीणा बाजै हाथ मै थारे,
तोडे सै अभिमान।
सदा हाथ मै पत्रा रखती, 
कलम मै करै सै वास,
कवि, लेखक और गुणीजनो का,
करती तू कल्याण। 
थोड़ा सा मनै भी वर दे,
दे दे शब्द भंडार। 
कलम दवा त तै लिखती जाऊँ,
जीभ गावै गुणगान 
सच्चाई लिखवाईए री माता, 
झूठ ना धरू ध्यान।
शब्दों सै सेवा करके मैं,
बढ़ाऊँ देस का मान।
***