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शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

उपन्यास समीक्षा : दूसरा कैनवास

उपन्यास समीक्षा : दूसरा कैनवास
जीवन में भूमिकाएँ बदलने से बदलता है कैनवास
सुरेंद्र सिंह पवार
[दूसरा केनवास, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१०, पृष्ठ ९६, सजिल्द, बहुरंगी जैकेट सहित, मूल्य-२००रु।, पाथेय प्रकाशन, जबलपुर]
*
‘दूसरा केनवास’ कवियित्री एवं कथा लेखिका डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे का तीसरा उपन्यास है। वैसे साहित्य व कला के क्षेत्र में किसी सिध्दांत या अवधारणा की समाज के सन्दर्भ में स्थिति, वैचारिक परिदृश्य को केनवास कहते हैं. परन्तु, उपन्यास-लेखिका ने केनवास का शाब्दिक अर्थ वह सफेद कपडा या पटल लिया है जिस पर उनकी नायिका (सौम्या) चित्र बनाती है, रंग भरती है। हाँ! यह अवश्य है कि उस नायिका के जीवन की परिस्थितियाँ बदलने से भूमिकाएँ बदलती दिखाई गयीं हैं और बदला है, केनवास। तलाक (सम्बन्ध-विच्छेद) के बाद निराश-हताश सौम्या ने परिस्थितियों के अनुसार जब साहस भरा कदम उठाया तभी वह एक सफल जीवन जी सकी। एक तरह से जीवन के अलग-अलग सोपानों से गुजरती आज की स्त्री के अथक संघर्ष और अदम्य साहस की कहानी है यह उपन्यास-गाथा।

यह एक सामाजिक उपन्यास है, जिसमें समाज की चिर-लांछिता, चिर-वंचिता, चिर-वंदनी नारी को नई दीप्त के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इसमें आदर्शोंन्मुखी यथार्थवाद नहीं है, बल्कि स्थान, समय और स्थितियों के अनुरूप जो वातावरण निर्मित हुआ या होता जा रहा है, उसकी खुली चर्चा है। सौम्या और मोहन उपन्यास के केंद्र में हैं परन्तु अन्य पात्र यथा; अमित, डाली, नीलिमा, पीयूष, सौरभ, आंटी और अंकल की भूमिकाएँ भी अप्रासंगिक नहीं हैं। उपन्यास में फ्लेश बैक का प्रभावी-प्रयोग है, बिलकुल बड़े या छोटे परदे पर चलती मसाला फिल्मों या सास-बहू सीरियल्स की तरह। आज के दौर की घटनाओं तथा उसमें जीते-जागते लोगों की पसंद/ नापसंद का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सौम्या और अमित का तलाक, डाली से अमित और सौम्या का मोहन से विवाह, कम उम्र के पीयूष की नीलिमा से शादी, अंकल और आंटी के रहस्यमयी सम्बन्ध, अमित की मृत्यु के बाद डाली का अपने विधुर बॉस से पुनर्विवाह, अपाहिज मोहन के प्रति सौम्या का समर्पण सभी कुछ तो है इस उपन्यास में। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे जागरूक उपन्यासकार हैं। वे न केवल हृदयधर्मी हैं, न बुध्दिविलासी। उन्हें समाज की समस्याओं को हल करने की चिंता है। अपने उपन्यास में उन्होंने परम्परागत मूल्यों को कुछ सीमा तक अस्वीकार किया है, परन्तु जो नये मूल्य उपस्थित किये हैं वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अत: आश्वस्ति है कि ध्वंस से निर्माण की सम्भावनाओं को बल मिलता है---जैसा डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ने प्रस्तावना में लिखा है। कुल मिलाकर इस ९६ पृष्ठीय उपन्यासिका में जीवन दर्शन के सम्बन्ध में निर्व्दंद भाव से तर्क-वितर्क हैं,सौन्दर्य और कला की अपेक्षा उपयोगितावाद के तराजू पर तुलते मानव-मूल्य है।

कहानी के अन्दर गुँथी हुई कहानियों से इस लघु-उपन्यास का ताना-बाना रचा गया है, ठीक किस्सागोई की शैली में, जहाँ कहानियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। हर पात्र की अपनी कहानी है, हर कहानी के अपने ट्विस्ट और टर्न हैं, परन्तु वे सभी नायिका सौम्या के इर्द-गिर्द घूमती है। उपन्यास की भाषा घरेलू है, लम्बे और ऊब भरे संभाषणों का नितान्त अभाव है। पात्र नपे-तुले शब्दों में
अपनी बात कहते हैं—सटीक और प्रभावशाली, जैसे
“और मौसी ने जब मोहन को खाना खिलाया पूरे बारह बज चुके थे. इतना बढ़िया खाना और इतने प्यार से खिलाती हो तभी तुम्हारी बिटिया बार-बार यहाँ चली आती है''।

‘नहीं’, बस इस बार गहरी नजर से उन्होंने मोहन को देखा था’, जब ससुराल में पूरी सुरक्षा नहीं मिलती तभी उसे मायका याद आता है’।”

कुछ नीति/सूत्र वाक्य इतने सुन्दर हैं कि उनमें मन डूब जाता है, यथा-

”कैसा चक्रव्यूह है जीवन, जिसमें व्यक्ति अभिमन्यु जैसा प्रवेश तो कर जाता है पर उससे निकल नहीं पाता।”

“हम कैसे कह दें कि बिटिया मायके में चार दिन ही भली होती है।”

“समय स्वयं एक वैद्य है पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे भर भले जाएँ पर याद आयें तो टीसते अवश्य है।”

“प्रेम में वासना नहीं होती, केवल समर्पण होता है, प्रिय के प्रति।”

“प्रशंसा में क्या होता है कि हर कोई खुश हो जाता है।”

"हँसनेवालों का साथ सभी देते है परन्तु रोना तो अकेले ही पड़ता है।”

उपन्यास-लेखिका एक गृहणी हैं। अपने उपन्यास के कलेवर में उन्होंने अपनी घर-गृहस्थी को विस्तार देने की पुरजोर कोशिश की है। जैसे, ‘अमित को करेले पसंद नहीं, माताजी को घुइंया, पर बनेंगे दोनों’, ‘सब चाँवल एक से नहीं होते, कोई लुचई होता है तो चिन्नौर और कोई बासमती’, ‘माँ जी के सिर में तेल लगाना’, ‘वेणी में गजरा गूंथना’ इत्यादि, इत्यादि। बावजूद इसके, उनकी नायिका क्लब/पार्टियों में जाती है, ऑफिस संचालित करती है, अपनी समस्याओं से उभरकर आगे पढाई करती है, दोबारा केनवास पर ब्रश चलाती है, रंग भरती है। वास्तविक जीवन की सजीवता और विशदता इस उपन्यास की विशेषता है। नायिका के तौर पर सौम्या का चरित्र उत्तम है। मोहन भी ठीक-ठाक है परन्तु पूर्वान्ह में अमित की भूमिका प्रतिनायक की सी दिखाई गई है। मध्यान्तर के बाद अमित का पुन:प्रवेश होता है, उसे अपने कृत्यों पर पछतावा होता है और अंत में सद्गति को प्राप्त होता है। कथानक के क्लाइमेक्स(चरमोत्कर्ष) पर सौम्या अपने बेटे सौरभ के समक्ष रहस्योद्घाटन करती है और उसे बीमार अमित की तीमारदारी के लिए भेजती है। अमित की मृत्यु के बाद सौरभ ही उसका अंतिम-संस्कार करता है। ऐसे सुखान्त का सृजन सिर्फ और सिर्फ श्रीमती शिवहरे जैसी समर्थ और संवेदनशील कथाकारा के लिए ही संभव है।

उपन्यास में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मानव बम से हत्या और कश्मीर में आतंकवादियों से मुठभेड़ जैसे समाचारों को प्राथमिकता मिली है, जो इस रचनाकाल की प्राथमिक सूचना है। एक बात और, नायिका के चरित्र में अतिरिक्त सहिष्णुता दिखने के चक्कर में उसे कुछ सोशल वर्क करते दिखाया गया है, रामदयाल दम्पत्ति जैसे असहाय लोगों की मदद परन्तु वहाँ वह (सौम्या) अपराधिक प्रकरण में फँसती दिखाई देती है। यह घटनाक्रम “हार की जीत”(सुदर्शन की ख्यात कहानी) के बाबा भारती की सीख का सहज स्मरण करा देता है कि इस घटना का उल्लेख किसी से न करना वर्ना लोग जरूरत मंदों की मदद करना बंद कर देंगे।

प्रिन्टिंग और प्रूफ की गलतियों को अनदेखा किया जाए तो पाथेय प्रकाशन की यह सजिल्द सुंदर आवरण युक्त प्रस्तुति स्वागतेय है। भाषा-विन्यास, संयोजना, पात्रों का चयन, घटनाओं का क्रम, कथानक की कसावट ने इस उपन्यास को स्तरीय और संग्रहणीय बना दिया है। उनके ही पूर्व-प्रकाशित दो उपन्यास क्रमशः “धूनी” और “अधूरा मन” की तरह, या यूँ कहें, इस उपन्यास से उनकी ख्याति तीन गुना हो गई है।
२०१ शास्त्रीनगर, गढ़ा, जबलपुर- ३९३००१०४२९६ / ७०००३८८३३२
*

बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

सरस्वती स्तवन संजीव

शारद वंदना
संजीव
*
अम्ब विमल मति दे......
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।


जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे ।।१।।


साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।


लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
***
सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
सदय रहें नटवर-नटनागर.
पवन-नाद प्रवहे...
विद्युत्छटा अलौकिक वर दे.
चरणों में गतिमयता भर दे
अंग-अंग से भाव साधना-
चंचल 'सलिल' चारु चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके....
चित्र गुप्त, अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
जियें मूल्य शाश्वत शुचि पावन-
जीवन-कर्मों का शुचि मंचन.
मन्वन्तर महके।
***********************


सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
आशिष अक्षय दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें
'सलिल' विमल प्रवहे.....
***********************


सरस्वती वंदना
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सलिल-साधना
सरगम कंठ सजे....,
रुन-झुन रुन-झुन नूपुर बाजे.
नटवर-नटनागर उर साजे.
रास-लास उमगे.....
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य, छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे.....
सत-शिव-सुंदर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्मदेव पुलके.....
कंकर-कंकर प्रगटें शंकर.
निर्मल करें 'सलिल' प्रलयंकर.
गुप्त चित्र प्रगटे.....
***********************


सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बनाएँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
वह बल-विक्रम दे....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम.
मानवता का त्रास हरें हम.
स्वार्थ सकल तज दे.....
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
***********************

सरस्वती वंदना
*
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी!
जय-जय वीणा पाणी!!
*
अमल-धवल शुचि,
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान
प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी,
भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति
खेलें तव कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
*
स्वर, व्यंजन, गण,
शब्द-शक्तियाँ अनुपम।
वार्णिक-मात्रिक छंद
अनगिनत उत्तम।
अलंकार, रस, भाव,
बिंब तव चारण।
उक्ति-कहावत, रीति-
नीति शुभ परचम।
कंठ विराजित करते प्राणी
जय-जय वीणापाणी!!
*
कीर्ति-गान कर,
कलरव धन्य हुआ है।
यश गुंजाता गीत,
अनन्य हुआ है।
कल-कल नाद प्रार्थना,
अगणित रूपा,
सनन-सनन-सन वंदन
पवन बहा है।
हिंदी हो भावी जगवाणी
जय-जय वीणापाणी!!
***********************
संजीव वर्मा 'सलिल'
७९९९५५९६१८
मैया! आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों
पीर अधीर करे जब माता!
धीरज-संबल कभी न कम हों
आपद-विपदा, संकट में माँ!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हँस नव विहान का
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….

*
नेपाली हाइकु
*
शारदा अंबे!
कलम चलाउँदै
नमन गर्दछाैँ।
*
स्रष्टाहरुमा
अगाड़ी बढ़ि रहे 
लुकेर रहे। 
*
हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती


बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती

ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
***
संजीव
१८-११-२०१९
जैन मत 
हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 
संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!! वंदन बारंबार   
वीणावादिनी ह्रदय प्रतिष्ठित हो करिए भव-पार 

तिमिर हरो माँ! आत्मज्ञान दो; जग में भरो उजास 
दसों दिशा जिनवाणी गूँजे, वर दो हुलस सहास 
सकल सृष्टि पर कृपा करो माँ!, दो श्रद्धा-विश्वास  
राह दिखाओ भटक न जाएँ; मन में करो निवास
नभ नीलाभ सदृश विस्तृत है; ज्ञान अनंत-अपार
रत्नत्रयी वरदान मिले माँ!, तारो हमें निहार 

मैया शारद! करो कृपा दो; शुचिता बुद्धि विवेक 
संयम त्याग शील दो माता!, करूँ आचरण नेक 
हों विरंचि नित सदय दया पा, निभा सकें हम टेक
विष्णु-रमा, शिव-उमा वरद हों, राह न लेवें छेक 
हृदयंगम हो समय-सार झट, तीर्थंकर साकार 
जिन-नियमों संजीव करूँ माँ!, निर्मल हो आचार 

धन-संपति का मोह न हो, हो बैर भाव अनजान
चलूँ अहिंसा-पथ पर मैया!, धर्म-मर्म अनुमान
चिंतन में भी 'सलिल' न हिंसा, करे सतासत जान 
तीर्थ बने तन तीर्थंकर मन, श्वास-श्वास रस-खान 
कर्म-बंध से मुक्त करो माँ!, मिटा जन्म व्यापार
मुक्त मोह से रख महतारी!, कर संतति उद्धार
***
हाइकु
*
माँ सरस्वती!
अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रह सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।

*
शब्द-साधना
सत-शिव-सुंदर
पा अर्चित हो।
*
नित्य विराजें
मन-मंदिर संग
रमा-उमा के।
*
चित्र गुप्त है
सुर-सरगम का
नाद सुना दे।
*
दो वरदानी
अक्षर शिल्प कला
मातु भवानी!
*
सत-चित रूपा!
विहँस दिखला दे
रम्य रूप छवि।
**
संजीव
१८-९-२०१९
सरस्वती वंदना
भोजपुरी
संजीव
*
पल-पल सुमिरत माई सुरसती, अउर न पूजी केहू
कलम-काव्य में मन केंद्रित कर, अउर न लेखी केहू

रउआ जनम-जनम के नाता, कइसे ई छुटि जाई
नेह नरमदा नहा-नहा माटी कंचन बन जाई

अलंकार बिन खुश न रहेलू, काव्य-कामिनी मैया
काव्य कलश भर छंद क्षीर से, दे आँचल के छैंया

आखर-आखर साँच कहेलू, झूठ न कबहूँ बोले
हमरा के नव रस, बिम्ब-प्रतीक समो ले

किरपा करि सिखवावलु कविता, शब्द ब्रह्म रस खानी
बरनौं तोकर कीर्ति कहाँ तक, चकराइल मति-बानी

जिनगी भइल व्यर्थ आसिस बिन, दस दिस भयल अन्हरिया
धूप-दीप स्वीकार करेलु, अर्पित दोऊ बिरिया
***
२१-११-२०१९
सरस्वती वंदना
लेखनी ही साध मेरी, लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के, मात! तेरी वंदना हो।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

दोहा है रस-राज

दोहा है रस-राज 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
दोहा छंद की भावाभिव्यक्ति क्षमता अनुपम है। हर रस को दोहा छंद भली-भाँति अभिव्यक्त करता है। हर रस को केंद्र में दोहा रखकर दोहा रचने का आनंद अनूठा है। 
श्रृंगार रस
रसराज श्रृंगार रसराज अत्यंत व्यापक है। श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर। 'श्रृंग' का अर्थ है "कामोद्रेक", 'आर' का अर्थ है वृद्धि प्राप्ति। श्रृंगार का अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव प्रेम है। पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका द्वारा प्रेम की अभिव्यंजना श्रृंगार रस की विषय-वस्तु है। प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहा है। परकीया प्रिया-चित्रण को रस नहीं रसाभास कहा गया है किंतु 'लिव इन' के इस काल में यह मान्यता अनुपयुक्त प्रतीत होती है। श्रृंगार रस में अश्लीलता का समावेश न होने दें। श्रृंगार रस के २ भेद संयोग और वियोग हैं। प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है, कष्टों में पलता है, प्रिय के प्रति कल्याण-भाव रखकर खुद कष्ट सहता है। ऐसा प्रेम ही उदात्त श्रृंगार रस का विषय बनता है।
 संयोग श्रृंगार:
नायक-नायिका के मिलन, मिलन की कल्पना आदि का शब्द-चित्रण संयोग श्रृंगार का मुख्य विषय है।
उदाहरण:
नयन नयन से मिल झुके, उठे मिले बेचैन।
नयन नयन में बस गए, किंचित मिले न चैन।। 

वियोग श्रृंगार:
नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो तो वियोग श्रृंगार होता है। यह अलगाव स्थाई भी हो सकता है, अस्थायी भी। कभी मिले बिना भी विरह हो सकता है, मिल चुकने के बाद भी हो सकता है। विरह व्यथा दोनों और भी हो सकती है, एक तरफा भी। प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
१. पूर्व राग पहले का आकर्षण
२. मान रूठना
३. प्रवास छोड़कर जाना
४. करुण विप्रलंभ मरने से पूर्व की करुणा।
उदाहरण:
मन करता चुप याद नित, नयन बहाते नीर।
पल-पल विकल गुहरातीं, सिय 'आओ रघुवीर'।। 

हास्यः
हास्य रस का स्थाई भाव 'हास्य 'है। साहित्य में हास्य रस का निरूपण कठिन होता है,थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक बनकर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए। हास्य और व्यंग्य में अंतर है। दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है। हास्य खिलखिलाता है, व्यंग्य चुभकर सोचने पर विवश करता है।

उदाहरण:
'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश।
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश।।  

व्यंग्यः
उदाहरण:
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क।
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'।। 

करुणः
भवभूति: 'एकोरसः करुण' अर्थात करूण रस एक मात्र रस है। करुण रस के दो भेद स्वनिष्ठ व परनिष्ठ हैं।
उदाहरण:
चीर द्रौपदी का खिंचा, विदुर रो रहे मौन।
भीग रहा है अंगरखा, धीर धराए कौन?।  

 रौद्रः
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण:
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश। ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।  

वीरः
स्थाई भाव उत्साह काव्य-वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस अवस्था में आस्वाद योग्य बनकर वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्य चार प्रवृत्तियाँ हैं।
उदाहरण:
१.दयावीर: जहाँ दुखी-पीड़ित जन की सहायता का भाव हो।
देख सुदामा दीन को, दुखी द्वारकानाथ।
गंगा-यमुना बह रहीं, सिसकें पकड़े हाथ।।  

२. दानवीर : इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता होना अनिवार्य है।
उदाहरण:
राणा थे निरुपाय झट, उठकर भामाशाह।
चरणों में धन रख कहें, नाथ! न भरिए आह।।  

३. धर्मवीर : इसके स्थाई भाव में धर्म का ज्ञान प्राप्त करना या धर्म-पालन करना प्रमुख है।
उदाहरण:
माया दुःख का मूल है, समझे राजकुमार।
वरण किया संन्यास तज, प्रिया पुत्र घर-द्वार।। 

4 युद्धवीर : काव्य व लोक में युद्धवीर की प्रतिष्ठा होती है। इसका स्थाई भाव 'शत्रुनाशक उत्साह' है।
उदाहरण:
धवल बर्फ हो गया था, वीर-रक्त से लाल।
झुका न भारत जननि का, लेकिन पल भर भाल।।  

भयानकः
विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के प्रयोग से जब भय उत्पन्न या प्रकट होकर रस में परिणत हो तब भयानक रस होता है। भय केवल मनुष्य में नहीं, समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
उदाहरण:
धांय-धांय गोले चले, टैंक हो गए ध्वस्त।
पाकिस्तानी सूर्य झट, सहम हो गया अस्त।।  

वीभत्सः
घृणित वस्तुओं को देख, सुन जुगुप्सा नामक स्थाई भाव विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व हो वीभत्स रस में परिणत हो जाता है। इसकी विशेषता तीव्रता से प्रभावित करना है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है। इसके आलंबन दुर्गंध, मांस-रक्त है, इनमें कीड़े पड़ना उद्दीपन, मोह आवेग व्याधि ,मरण आदि व्यभिचारी भाव है, अनुभाव की कोई सीमा नहीं है। वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि, अपशब्द, निंदा करना आदि, कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना , थूकना, आँखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना आदि हैं।

उदाहरण:
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। 

अद्भुतः
अद्भुत रस के स्थाई भाव विस्मय में मानव की आदिम वृत्ति खेल-तमाशे या कला-कौशल से उत्पन्न विस्मय उदात्त भाव है। ऐसी शक्तियां और व्यंजना जिसमें चमत्कार प्रधान हो वह अद्भुत रस से संबंधित है। अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार कोके क्रिया-कलापों के आलंबन से प्रकट होता है। उनके अद्भुत व्यापार, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन बनती हैं। आँखें खुली रह जाना, एकटक देखना प्रसन्नता, रोमांच, कंपन, स्वेद आदि अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति, गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता आदि संचारी भाव धारणकर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।

उदाहरण:
पल में प्रगटे सामने, पल में होता लुप्त।
अट्टहास करता असुर, लखन पड़े चित सुप्त।।  

शांतः
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव व वैराग्य से होती है। विभाव, अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणित हो जाता है। आनंदवर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव कहा है। वैराग्यजनित आध्यात्मिक भाव शांत रस का विषय है संसार की अवस्था मृत्यु-जरा आदि इसके आलंबन हैं। जीवन की अनित्यता का अनुभाव, सत्संग-धार्मिक ग्रंथ पठन-श्रवण आदि उद्दीपन विभाव, और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव हैं। शांत रस के संचारी में ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है।
उदाहरण:
कल तक था अनुराग पर, उपजा आज विराग।
चीवर पहने चल दिया, भिक्षुक माया त्याग।। 

वात्सल्यः
वात्सल्य रस के प्रतिष्ठा विश्वनाथ ने की। सूर, तुलसी आदि के काव्य में वात्सल्य भाव के सुंदर विवेचन पश्चात इसे रस स्वीकार कर लिया गया। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सलता है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियाँ, लीलाएँ उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हँसना, उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं। आवेग, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद आदि संचारी भाव हैं।वात्सल्य रस के दो भेद हैं।
१ संयोग वात्सल्य
उदाहरण:
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। ‌
पिला रही पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।  
२ वियोग वात्सल्य
उदाहरण:
चपल छिपा कह खोज ले, मैया करें प्रतीति।
लाल कंस को मारकर, बना रहा नव रीति।।  

भक्तिः
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की सत्ता स्वतंत्र रूप से नहीं है। मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया। इस रस का संबंध मानव उच्च नैतिक आध्यात्मिकता से है।इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है। भगवान के प्रति समर्पण, कथा श्रवण, दया आदि उद्दीपन विभाव है। अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि हैं। अनेक कायिक, वाचिक, स्वेद आदि अनुभाव हैं। संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य, संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं।इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है |
उदाहरण:
चित्र गुप्त है नाथ का, सभी नाथ के चित्र।
हैं अनाथ के नाथ भी, दीन जनों के मित्र।।

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नवगीत


नवगीत
*
तू कल था
मैं आज हूं
*
उगते की जय बोलना
दुनिया का दस्तूर।
ढलते को सब भूलते,
यह है सत्य हुजूर।।
तू सिर तो
मैं ताज हूं
*
मुझको भी बिसराएंगे,
कहकर लोग अतीत।
हुआ न कोई भी यहां,
जो हो नहीं व्यतीत।।
तू है सुर
मैं साज हूं।।
*
नहीं धूप में किए हैं,
मैंने बाल सफेद।
कल बीता हो तजूंगा,
जगत न किंचित खेेद।।
क्या जाने
किस व्याज हूं?
***



नवगीत

नवगीत
*
चिरैया! आ, चहचहा
*
द्वार सूना टेरता है।
राह तोता हेरता है।
बाज कपटी ताक नभ से-
डाल फंदा घेरता है।
सँभलकर चल लगा पाए,
ना जमाना कहकहा।
चिरैया! आ, चहचहा
*
चिरैया माँ की निशानी
चिरैया माँ की कहानी
कह रही बदले समय में
चिरैया कर निगहबानी
मनो रमा है मन हमेशा
याद सिरहाने तहा
चिरैया! आ चहचहा
*
तौल री पर हारना मत।
हौसलों को मारना मत।
मत ठिठकना, मत बहकना-
ख्वाब अपने गाड़ना मत।
ज्योत्सना सँग महमहा
चिरैया! आ, चहचहा
*
संजीव
९४२४१८३२४४