दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 21 मार्च 2019
लेख गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता
त्रिभंगी छंद फागुन
मुक्तिका: भाल पर सूरज
एक गीत: नदी मर रही है
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
मुक्तक
नव वर्षोत्सव मंगलमय हो।
माँ की कृपा अमित-अक्षय हो।।
करें साधना सद्भावों की,
नित नव रचनाएँ निर्भय हों।। *
बुधवार, 20 मार्च 2019
होली के दोहे
*
होली हो ली हो रही, होली हो ली हर्ष
हा हा ही ही में सलिल, है सबका उत्कर्ष
होली = पर्व, हो चुकी, पवित्र, लिए हो
*
रंग रंग के रंग का, भले उतरता रंग
प्रेम रंग यदि चढ़ गया कभी न उतरे रंग
*
पड़ा भंग में रंग जब, हुआ रंग में भंग
रंग बदलते देखता, रंग रंग को दंग
*
शब्द-शब्द पर मल रहा, अर्थ अबीर गुलाल
अर्थ-अनर्थ न हो कहीं, मन में करे ख़याल
*
पिच् कारी दीवार पर, पिचकारी दी मार
जीत गई झट गंदगी, गई सफाई हार
*
दिखा सफाई हाथ की, कहें उठाकर माथ
देश साफ़ कर रहे हैं, बँटा रहे चुप हाथ
*
अनुशासन जन में रहे, शासन हो उद्दंड
दु:शासन तोड़े नियम, बना न मिलता दंड
*
अलंकार चर्चा न कर, रह जाते नर मौन
नारी सुन माँगे अगर, जान बचाए कौन?
*
गोरस मधुरस काव्य रस, नीरस नहीं सराह
करतल ध्वनि कर सरस की, करें सभी जन वाह
*
जला गंदगी स्वच्छ रख, मनु तन-मन-संसार
मत तन मन रख स्वच्छ तू, हो आसार में सार
*
आराधे राधे; कहे आ राधे! घनश्याम
वाम न होकर वाम हो, क्यों मुझसे हो श्याम
*
संवस
होली २०१८
हुरहुरे
बुरा न मानो होली है
*
भंग चढ़ाकर बताते हैं पेड़ों को शिव हरे हरे!
देख शिवहरे जी मुस्काए, खाकर गूझे खरे-खरे।।
गुझिया ले मिथिलेश मंजरी के मुँह में हँस डाल रहीं।
गीता लिए गुलाल गाल मीना के कर दे लाल रहीं।।
ले इलायचीवाले पेडे़, इला-सुमन छाया खाएँ।
अंजू-वसुधा भंग चढ़ाकर
झूम कबीरा मिल गाएँ।
भय से भागीं दूर विनीता, मुकुल खोजतीं गईं कहाँ?
आज न छोड़ूँ झट से रँग दूँ मिले माधुरी मुझे जहाँ।
संत बसंत दिख रहे, गुपचुप भाँग गटककर लोटा भर।
रंजन करें विवेक ढोल ले, शोभित नैना मटकाकर।
अमरनाथ बैला पर बैठे, पान चबाएँ लखनौआ।
राजिंदर ठेंगा दिखलाते, उड़ा रहे हैं कनकौआ।।
अतुल दौड़ते आगे, पीछे हैं अविनाश गुलाल लिए।
इंद्र-सुरेश कबीरा गाते, जयप्रकाश ठंडाई पिए।
राजकुमार न पीछे रसिया सुना रहे राजा को संग।
श्रीधर दाएँ झूम कबीरा, विजय नाचते लेकर चंग।
सलिल लगाए सबको टीका ले अबीर, हँस गले मिले।
स्नेह साधना नव आशा ले फले सुबह से साँझ ढले।
***
संवस
शुक्रवार, 15 मार्च 2019
समीक्षा: शिखर पर जिजीविषा -कुमार मनीष अरविन्द
गुरुवार, 14 मार्च 2019
दोहे आनुप्रासिक
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
*
सामयिक दोहा
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***
होली छंद
संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
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होली फाग
संजीव
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
होरी के जे हुरहुरे
संजीव 'सलिल'
*
होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात।
कौनऊ पढ़ मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात।।
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा।।
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
रंग कांता खों मले, सत्यजीत भई जंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
बिरह-ब्यथा मिथलेस की, बिनसे सही न जाय।
छोड़ मुंगेली जबलपुर, आखें धुनी रमांय।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गायें संग प्रमोद के, विहँस कल्पना फाग।
पहन प्रेरणा घूमतीं, फूल-धतूरा पाग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
मुग्ध मंजरी देखकर, भूला राह बसंत।
मधु हाथों मधु पानकर, पवन बं रहे संत।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
विनिता की महिमा 'सलिल', मो सें बरनि न जाय।
दोहा-पिचकारी चला, घर छिप धता बतांय।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
नीला-पीला रंग सुमन, चेहरे-छाया खूब।
श्याम घटा में चाँदनी, जैसे जाए डूब।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गूझों का आनंद लें, लुक-छिप मृदुला माँग।
अनिल बीच में रोककरकर, अडा रहे हैं टाँग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
लाल गाल कर उषा के, अरुण हुआ मदमस्त।
सेव-पपडिया खा हुईं, मुदित सुनीता पस्त।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
काट लिए वनकोटि फिर, चाहें पुष्प पलाश।
माया-ममता बिन 'सलिल', फगुआ हुआ हताश।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
सामयिक दोहे-सोरठे
पत्र- गुरु की सीख
पत्र
*
प्रिय मित्र
मधुर स्मृति।
- तुमसे मिले अरसा हो गया। तुम्हें स्मरण होगा कि हम दोनों माध्यमिक विद्यालय में पहली बार मिले थे।
- तुम्हारे अग्रज अपने प्रिय शिष्य याने मुझे अनुजवत स्नेह देते थे, तुम तो अनुज थे ही। हममें स्पर्धा हो सकती थी अग्रज का नैकट्य पाने की किंतु इसके विपरीत हम स्नेह-सूत्र में आबद्ध हो गए।
यह नैकट्य और अधिक हो गया जब गाँधी जयंती पर हम दोनों को अग्रज से गरमागरम ताजा-ताजा डाँट का उपहार मिला, वह भी तब जब हमारी प्रस्तुतियों के बाद सभागार करतल ध्वनि से गूँजता रहा था।
वह डाँट अकारण तो नहीं थी पर सच कहूँ तो उसका अर्थ शिक्षा काल समाप्त होने के बाद दिन-ब-दिन अधिकाधिक समझ में आता रहा।
दूरभाष, चलभाष, दूरलेख और दूरवार्ता के इस काल में खतो-किताबत करना भले ही अजीब लगे, मुझे अतीत में डूबते-उतराते सुधियों की माला में शब्दों के मोती पिरोना ही भाता रहा है। बच्चों को भले ही मेरे पत्र और कागजात रद्दी का ढेर लगें, मेरे लिए तो वह सब कल से कल को जोड़ते हुए आज को जीने के माध्यम है। आज यह सब याद आने का का कारण दो अन्य मित्र बन गए हैं जिनका मानना है कि इस पटल पर साहित्यिक अधिनायकवाद और व्यक्तिगत तानाशाही को प्रश्रय दिया जा रहा है। एक कहते हैं दिन भर इंजीनियरिंग में मगज खपाने के बाद इस पटल पर आता हूँ तो मनोरंजन चाहता हूँ। वे बहुत आसानी से भूल जाते हैं कि पटल का उद्देश्य ही हिंदी भाषा व साहित्य का अध्ययन करना तथा अपनी सृजन सामर्थ्य को बढ़ाना है। उन्हें केवल एक नियम चाहिए कि कोई नियम न हो किंतु उनके अपने पटल पर विषयेतर सामग्री की प्रस्तुति उन्हें सह्य नहीं है। पटलानुशासन को भंग करने को अपना अधिकार माननेवाले इन मित्र को कोई अग्रजवत गुरु मिला होता और उसने वैसी फटकार लगाई होती जैसी हमारे अग्रज गुरु ने लगाई थी तो शायद बेहतर होता।
एक अन्य अग्रजवत सुकवि मित्र हैं। इन्हें देश के संविधान को बदलने की माँग से आरंभ कर नया दल बनाने का प्रयास करते, उम्मीदवार तय करते, उच्च प्रशासनिक पद पर रहे साहित्यकार मित्र के साथ-साथ वर्तमान नेतृत्व के प्रचार की लत है। अपने साहित्यिक अनुभव से नवोदितों को लाभ देने के स्थान पर ये उन्हें राजनैतिक दीक्षा देने हेतु तत्पर हैं। इनके पास पटल पर साहित्य चर्चा हेतु समयाभाव है किंतु राजनीति की बातों के लिए समय ही समय है। इन्हें भी पटल के उद्देश्य व नियम फूटी आँखों नहीं सुहाते। वे यह भी नहीं समझना चाहते कि नव संविधान चाहते तथा सत्ता पर बैठे लोग परस्पर विरोधी विचार रखते हैं और वे कभी एक साथ नहीं आ सकते।
आज गुरु जी बहुत याद रहे हैं। साप्ताहिक धर्मयुग में सहसंपादक होकर जाने के बाद भी वे पत्रों के माध्यम से भाषा-साहित्य सिखाते-बताते रहते थे। दो सौ से अधिक सहभागियों के इस पटल को चंद असहमतियों के कारण बंद करना तो ठीक न होगा। समय और शब्द के अनुशासन को भंग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाकर गुरु से मिली सीख की अवमानना कर नहीं सकता। पटल के उद्देश्यों और नियमों का यथावश्यक यथाशक्ति पालन करते हुए कार्य करना ही उचित लगता है। मुझे मालूम है तुम्हें भी यही सही लगेगा क्योंकि उस दिन डाँट-प्रसाद हम दोनों ने ही पाया था, मैंने कुछ अधिक तुमने कुछ कम। पैट्रिस लुमुंबा यूनिवर्सिटी मास्को में पढ़ते समय और उसके बाद भी मेरी ही तरह तुम भी उस दिन मिली सीख को भूल नहीं सके होगे।
तुम्हारा वर्तमान पता नहीं जानता इसलिए यह पत्र तुम तक नहीं पहुँचा सकता किंतु जिस तरह भूमि पर जल गिराकर हम सूर्य को जलांजलि दे लेते हैं, उसी तरह पटल पर पत्र रखकर तुम तक पहुँच गया मान लेता हूँ।
पटल पर पत्र है तो सदस्य पढ़ेंगे ही। उस दिन तो हम तीनों के अलावा कोई था नहीं जो गुरु जी की सीख और उसकी पृष्ठभूमि बता सके। तुम और गुरु जी से पटल की शोभा-वृद्धि हो नहीं सकी है इसलिए यह दायित्व भी मैं ही निभा देता हूँ।
उस दिन गाँधी जयंती थी, वर्ष १९६६, सेठ नन्हेंलाल घासीराम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय होशंगाबाद का सभागार, मुख्य अतिथि श्री रामनाथ सिंह जिलाध्यक्ष, अध्यक्ष श्री गोपाल प्रसाद पाठक प्राचार्य (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त), संचालक गुरु जी। सभागार माननीय शिक्षक वृंद (सुरेंद्र कुमार मेहता, के. सी. दुबे, शंकर लाल तिवारी, जी. एस. शर्मा, पाटनकर, जी. एस. ठाकुर, अग्रवाल आदि) तथा विद्यार्थियों से खचाखच भरा हुआ था। विद्यालय के श्रेष्ठ छात्र वक्ता राधेश्याम साँकल्ले व सुषमा खंडेलवाल अध्ययन पूर्ण कर चुके थे, हम दोनों से अपेक्षा की जा रही थी कि हम जिला और संभागीय भाषण, वादविवाद आदि प्रतियोगिताओं में विद्यालय को विजयी बना सकें। अपेक्षा का यह दबाव हम दोनों को प्रभावित कर रहा होगा, यह तब तो नहीं समझ सका था, अब अनुमान होता है। कुछ वक्ताओं के बाद तुम्हारा नाम पुकारा गया। सभी के चेहरों पर उत्सुकता थी, तुम्हारा सुदर्शन व्यक्तित्व, गुरु जी का अनुज होना तथा मेधावी होना इसका कारण था। तुम मंच पर आए, मुट्ठी में कागज जिसे तुमने खोला नहीं था, यथोचित संबोधन के बाद जैसे ही तुमने भाषण आरंभ किया जोरदार ठहाके से सभागार गूँज उठा, संभवतः तुम्हें भी कुछ भूल हो जाने का अनुमान हुआ हो, तुमने दुबारा आरंभ किया फिर वही ठहाका, तुम हतप्रभ हुए पर हार नहीं मानी, एक पल रुककर कुछ सोचा और फिर बिना किसी भूल-चूक के बिना कागज की सहायता लिए भाषण पूर्ण किया, सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा।
उच्चतर माध्यमिक वर्ग के कुछ वक्ताओं के बाद मेरे नाम की घोषणा हुई। माध्यमिक वर्ग को बापू का जीवनी तथा उच्चतर माध्यमिक वर्ग को बापू के संस्मरण सुनाना थे। अंत में दोनों वर्गों से कुछ अन्य विद्यार्थी काव्य पाठ करने वाले थे। मैंने पूर्व वक्ताओं द्वारा बापू का जीवनी के कुछ अनुल्लिखित पक्षों के साथ कुछ संस्मरण, गरम दल-नरम दल के टकराव आदि की चर्चा कर एक कविता सुनाकर हुए समापन किया, सभागार में देर तक करतल ध्वनि गूँजती रही। मुख्य अतिथि ने अपने वक्तव्य में हम दोनों की विशेष प्रशंसा की।
समारोह के पश्चात सभी से अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई मिल रही थी किंतु गुरु जी के चरण स्पर्श करने पर उन्होंने एक शब्द भी न कहा, मेरे मन को ठेस लगी, मैं सिर झुकाए सोचता रहा गुरु जी का आशीष क्यों नहीं मिला?, क्या गल्ती हुई? गल्ती हुई तो इतनी तालियाँ और प्रशंसा क्यों मिली? सच कहूँ तो एक पल के लिए यह भी लगा कि तुम उनके 'अनुज' हो, तुमसे चूक हुई, तुम दो बार 'गाँधी जी का जन्मदिन' के स्थान पर 'गणेश जी का जन्मदिन' कह गए पर तीसरी बार सुधारकर पूरा भाषण प्रभावी ढँग से- दिया। शायद इसलिए गुरु जी नाराज हैं लेकिन तुम्हारी गलती के कारण मुझसे नाराज क्यों हैं? ऐसा लगा वे पक्षपात कर रहे हैं, मुझे मेरा श्रेय नहीं दे रहे। मन आहत हुआ, कुछ देर बाद सबके चले जाने पर गुरु जी बोले 'तुम दोनों से सबसे अधिक आशा थी, तुम्हीं दोनों ने निराश किया। इसने एक नहीं दो-दो बार गलती की।'
'पर बाद सुधार भी तो ली थी' मैंने धीरे से कहा कि उनकी नाराजी कम हो।
'बाद में सुधारने से- पहले का गलत मिट जाता है क्या? टूटे धागे को जोड़ देने पर भी गाँठ तो पड़ जाती है न?'
तुमने माफी माँगी और कहा 'संजीव तो बहुत अच्छा बोले।'
गुरु जी ने तीखी निगाह से- मुझे देखा फिर कहा 'यह तो पहली बार बोल रहा था, गल्ती की फिर सुधारी पर तुम तो कई बार बोल चुके हो, अच्छा बोलते हो फिर क्यों गलती की?'
'इसने गलती की? कब? क्या? इसे तो सबसे अधिक तालियाँ मिलीं, ईनाम भी।' तुम्हारे मुँह से निकला।
मैं मुँह लटकाए-सिर झुकाए हाथ में पकड़े पुरस्कार को देखते हुए अपना गलती कोशिश करने पर भी समझ नहीं पा रहा था।
'ताली और ईनाम से क्या होता है? गलत तो गलत ही रहेगा। तुम्हें बापू के संस्मरण सुनाना थे तुमने जीवनी क्यों सुनाई? इतने पर भी रुके नहीं, कविता भी सुना दी। क्यों?, क्या तुम्हें पता है कितनी बड़ी गलती का है तुमने? तुम्हारे कारण ३ बच्चे तैयारी करने के बाद भी कुछ नहीं सुना सके क्योंकि अतिथियों ने जो समय दिया था, वह समाप्त हो गया था।
तुम अकेले ४ वक्ताओं का समय खा गए।
अगर तुमसे पहलेवाले वह सब सुना देते जो तुमने कहा और तुम्हें मौका न मिलता तो कैसा लगता? क्या तुम्हारे ईनाम से उन बच्चों को अवसर न मिलने की भरपाई हो जाएगी?
मैं निरुत्तर था। तुम्हें शब्दानुशासन तोड़ने और मुझे विषयानुशासन व समयानुशासन तोड़ने के लिए प्रताड़ित कर रहे गुरु ने जो सीख दी, उसे कैसे और क्यों भुला दूँ? गुरु से घात क्यों करूँ?
समय, विषय और शब्द का अनुशासन जिन्हें स्वीकार्य न हो वे स्वीकार करें या पटल छोड़ दें। मुझे पटल भंग करना स्वीकार्य है, अनुशासन भंग करना नहीं। जिन्हें उच्छृंखलता पसंद हो, वे स्वतंत्र पटल बना लें।
गुरु पूर्णिमा हो, न हो, गुरु जी और उनकी सीख जीवन का पाथेय बनकर मेरे साथ है, तुम्हारे साथ भी होगी, जिन्हें यह सीख देनेवाले गुरु नहीं मिले उनके लिए अफसोस ही किया जा सकता है। गुरु-चरणों में नमन।
तुम्हारा बालमित्र

