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शनिवार, 5 जनवरी 2019

paryavaran aur vanaspati

* पर्यावरण विमर्श:

जीवनदात्री वनस्पति -

प्रो. किरण श्रीवास्तव, रायपुर

जैविक सत्ता के चारों ओर परिवेश की संज्ञा पर्यावरण है। विश्व के सब ओर परिव्याप्त महाकाश के अभिन्न अंग वायु, प्रकाश, ध्वनि, जल तथा शून्य का समन्वय ही पर्यावरण है। ब्रम्हांड के जीव-जंतुओं की पारस्परिक सापेक्षता, निर्भरता तथा ताल-मेल ही पृथ्वी के विभिन्न तत्वों के समायोजन व् संतुलन का कारण है। पञ्च तत्वों का भिन्न-भिन्न अनुपातों में सम्मिश्रण ही पर्यावरण को जीवोत्पत्ति तथा विकास के अनुकूल बनाता है। भारत की शाश्वत-सनातन संस्कृति युगों से प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरणीय वैविध्य के प्रति सजग-सचेष्ट ही नहीं आग्रही भी रही है।

यजुर्वेद के अर्न्तगत सम्पूर्ण वैश्विक सत्ता की शान्ति का आव्हान इसी पर्यावरणगत सतर्कता का द्योतक है। मन्त्र दृष्टा ऋषियों ने पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष की शान्ति की प्रार्थना करते समय ''वनस्पतयः शान्ति' का उद्घोष कर अंत में 'शान्तिरेव शान्ति' की अपेक्षा की थी। समय-साक्षी ऋषियों ने मानवता के इतिहास में सर्व प्रथम वृक्षों, पौधों, लताओं, जडी-बूटियों, घास-पत्तियों, फल-फूलों तथा बीजों में देवी शक्तियों की उपस्थति की अनुभूति तथा दर्शन कर प्रकृति और मानव के मध्य माँ-बेटे के सम्बन्ध की स्थापना कर समन्वय व सामंजस्य की सृष्टि की किंतु भोगवादी पाश्चात्य चिंतन ने प्रकृति को भोग्या मानकर उसका दोहन ही नहीं शोषण भी मानव का अधिकार मान लिया और प्राकृतिक तत्वों को असंतुलित कर विनाश के दरवाजे पर दस्तक दे दी है।

वैज्ञानिक, औद्योगिक, यांत्रिक तथा वाणिज्यिक विकास के साथ-साथ पर्यावरणीय विकृतियाँ दिन-ब -दिन बढाती ही जा रही हैं। अगणित कारखानों, संयंत्रों, वाहनों, संक्रामक कचरों, कंडीशनरों आदि से उत्सर्जित प्राणघाती गैसों से क्षरित ओजोन पार्ट, परमाण्विक विखंडन के फलस्वरूप महाकाश में ध्वनि एवं प्रकाश की किरणों का टकराव, धरती पर वायु एंव जल का घातक प्रदूषण मानव ही नहीं सकल जीव जगत के लिए महाकाल बन रहा है।

आज कलकल निनादिनी मातृ स्वरूपा सलिलायें सूख अथवा दूषित होकर जीवनदायिनी नहीं मरणदायिनी हो गयी हैं, इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मनुष्य मात्र की है। चौडे से चौडे राजपथों के निर्माण के नाम पर लाखों जीवनदायी वृक्षों का कत्ले-आम कर सुन्दरता के नाम पर चाँद झाडियाँ लगाकर खुद को छलने का अंजाम यह है कि शीतल बयार के लिए भी तरसना पद रहा है और हवा भी विषैली हो गयी है जिससे बचने के लिए मुखौटे लगाना पड़ते हैं। कारखानों की गगनचुम्बी चिमनियों से लगातार निकलता जहरीला धुँआ जीवनदायी ओषजन का नाश कर प्राणघाती गैसों से पछुआ और पुरवैया को प्रदूषित कर हर प्राणि के प्राण-हरण पर उतारू है। विश्व में निरंतर होते युद्धों के बम विस्फोटों, बारूदी प्रयोगों, कर्कश ध्वनियों और प्लास्टिक कचरे ढेरों ने मनुष्य को भविष्य के बारे में सोचने पर विवश कर दिया है।

समस्याओं से उद्वेलित मानव-मन की शांति का एक मात्र समाधान पृथ्वी को उसका वानस्पतिक वैभव लौटाना है। धरती माता को धनी चुनरिया उढाकर ही उसके ममतामय आँचल में सुख की नींद ली जा सकती है, आँचल को तार-तार करने पर तो बद्दुआ ही मिल सकती है। विश्व विख्यात वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु ने वर्षों पूर्व पौधों में जीवन तथा चेतना कि उपस्थिति अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध कर दिखाई है। मानव के समान ही वनस्पतियों में भी सोने- जागने, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, आनंद-भय, वंशोत्पत्ति आदि प्राकृत इच्छाएँ पलती हैं। वैदिक ऋषियों ने कंकर में शंकर और कण-कण में भगवन कहकर इसी सत्य को इंगित किया है। बौद्ध तथा जैन दर्शन में हिंसा-निषेध के अर्न्तगत सिर्फ मानव नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की हिंसा का भी निषेध है। प्रकृति-पर्यावरण और मानव के अंतर्संबंध को अपनत्व, अभिन्नता व आत्मीयता के सूत्र में पिरोकर अनेक जातक कथाओं की रचना की जाने के पीछे उद्देश्य यही था कि सामान्य जन भी प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर सके।

आयुर्वेद ने नीम की रोगाणुहरण तथा ओषजन उत्सर्जन क्षमता को पहचानकर उसमें देवी शक्ति का वास होने का लोकाचार प्रचारित किया। पीपल में ब्रम्ह, बेल में शिव, तुलसी में विष्णु, आंवले में धन्वन्तरी, कदम्ब में कृष्ण आदि देवताओं को मानकर इनकी रक्षा व पूजा के पीछे वैज्ञानिक दृष्टि रही है। अशोक, मौलश्री, पारिजात, सदा सुहागन, अगरु, अंकोल, अर्जुन, आरग्वध, आमलकी, कुटज, कचनार, गंभारी, गुग्गुल, देवदारु, वरुण, विभीतक, थिगारू, कदलीफल (केला), श्रीफल (नारियल), जासौंन, पान अदि को घरों में लगाने की वास्तु-शास्त्रीय परंपरा पूर्णतः वैज्ञानिक है। आधुनिक नगरीय जीवन पद्धति में कम क्षेत्र में सघन बसाहट को देखते हुए सघन पौधारोपण कर पेड़ बनाने और बचाने को प्राथमिकता देना अपरिहार्य हो गया है। सतत बढ़ रहे अवसाद, मानसिक तनाव तथा अकेलेपन का एक इलाज मनुष्य और वनस्पति के मध्य सनातन सम्बन्ध को पुनर्जीवित करना ही है।
- डी १०५ शैलेन्द्र नगर रायपुर, छत्तीसगढ़।
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laghukatha: shabda aur arth

लघु कथा: शब्द और अर्थ --संजीव वर्मा "सलिल "


शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गण विहीन गण तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गण मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा 
*

geet dhvaja tirangi

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:
ध्वजा तिरंगी...
संजीव 'सलिल'
*
ध्वजा तिरंगी मात्र न झंडा 
जन गण का अभिमान है.
कभी न किंचित झुकने देंगे,
बस इतना अरमान है...
*
वीर शहीदों के वारिस हम,
जान हथेली पर लेकर
बलिदानों का पन्थ गहेंगे,
राष्ट्र-शत्रु की बलि देकर.
सरे जग को दिखला देंगे
भारत देश महान है...
*
रिश्वत-दुराचार दानव को,
अनुशासन से मारेंगे.
पौधारोपण, जल-संरक्षण,
जीवन नया निखारेंगे.
श्रम-कौशल को मिले प्रतिष्ठा,
कण-कण में भगवान है...
*
हिंदी ही होगी जग-वाणी,
यह अपना संकल्प है.
'सलिल' योग्यता अवसर पाए,
दूजा नहीं विकल्प है. 
सारी दुनिया कहे हर्ष से, 
भारत स्वर्ग समान है...
****

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत: 
लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
भारत माता का वंदन...

हम सब माता की संतानें,
नभ पर ध्वज फहराएंगे.
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
'जन गण मन' गुन्जायेंगे.
'झंडा ऊंचा रहे हमारा',
'वन्दे मातरम' गायेंगे.
वीर शहीदों के माथे पर
शोभित हो अक्षत-चन्दन...

नेता नहीं, नागरिक बनकर
करें देश का नव निर्माण.
लगन-परिश्रम, त्याग-समर्पण,
पत्थर में भी फूंकें प्राण.
खेत-कारखाने, मन-मन्दिर,
स्नेह भाव से हों संप्राण.
स्नेह-'सलिल' से मरुथल में भी
हरिया दें हम नन्दन वन... 

दूर करेंगे भेद-भाव मिल,
सबको अवसर मिलें समान.
शीघ्र और सस्ता होगा अब
सतत न्याय का सच्चा दान.
जो भी दुश्मन है भारत का
पहुंचा देंगे उसे मसान.
सारी दुनिया लोहा मने
विश्व-शांति का हो मंचन...

***

जनतंत्र की सोच को समर्पित कविता           

-संजीव सलिल
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक.
कैसे हम स्वाधीन, देश जब
लगता हमको क्षेपक?

हम में से
हर एक मानता,
निज हित सबसे पहले।
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले।

कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'।
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया।

किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की।
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की।
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना।
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना।

कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो।

तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?

लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार।

गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर।
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर।

न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित।
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?

आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
'सलिल' क्या हरदम आराध्य रहेगा?
***
नवगीत 
*
शहनाई बज रही
शहनाई बज रही 
शहर में मुखिया आये...
*
जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश 
करे मजूरी 
भूखी सुखिया 
फिर भी गाये. 
शहनाई बज रही 
शहर में मुखिया आये...
*
है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की 
लख मजबूरी, 
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही 
शहर में 
मुखिया आये...
*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें, 
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही 
शहर में 
मुखिया आये...
*

navgeet ugna nit

नवगीत:
संजीव
.
उगना नित
हँस सूरज
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज
लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज
कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
***
२.१.२०१५

navgeet aao bhi suraj

नवगीत: 
संजीव 

आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज! 

laghukatha katar,

लघुकथा- 
कतार 
*
दूरदर्शनी बहस में नोटबन्दी के कारण लग रही लंबी कतारों में खड़े आम आदमियों के दुःख-दर्द का रोना रो रहे नेताओं के घड़ियाली आँसुओं से ऊबे एक आम आदमी ने पूछा-
'गरीबी रेखा के नीचे जी रहे आम मतदातों के अमीर जनप्रतिनिधियों जब आप कुर्सी पर होते हैं तब आम आदमी को सड़कों पर रोककर काफिले में जाते समय, मन्दिरों में विशेष द्वार से भगवान के दर्शन करते समय, रेल और विमान यात्रा के समय विशेष द्वार से प्रवेश पाते समय क्या आपको कभी आम आदमी की कतार नहीं दिखी? यदि दिखी तो अपने क्या किया? क्या आपको अपने जीवन में रुपयों की जरूरत नहीं होती? होती है तो आप में से कोई भी बैंक की कतार में क्यों नहीं दिखता?
आप ऐसा दोहरा आचरण कर आम आदमी का मजाक बनाकर आम आदमी की बात कैसे कर सकते हैं? कालाबाजारियों, तस्करियों और काला धन जुटाते व्यापारियों से बटोर चंदा उपयोग न कर पाने के कारण आप जन गण द्वारा चुनी सरकार से सहयोग न कर जनमत का अपमान करते हैं तो जनता आप के साथ क्यों जुड़े?
सकपकाए नेता को कुछ उत्तर न सूझा तो जन समूह से आवाज आई 'वहां मत बैठे रहो, हमारे दुःख से दुखी हो तो हमारा साथ दो। तुम सबको बुला रही है कतार।
*

muktak, muktika

मुक्तिका 
*
नेह नर्मदा बहने दे 
मन को मन की कहने दे 
*
बिखरे गए रिश्ते-नाते
फ़िक्र न कर चुप तहने दे
*
अधिक जोड़ना क्यों नाहक
पीर पुरानी सहने दे
*
देह सजाते उम्र कटी
'सलिल' रूह को गहने दे
*
काला धन जिसने जोड़ा
उसको थोड़ा दहने दे
*

मुक्तक-
बिखर जाओ फिजाओं में चमन को आज महाकाओ
​बजा वीणा निगम-आगम ​कहें जो सत्य वह गाओ
​अनिल चेतन​ हुआ कैलाश पर ​श्री वास्तव में पा
बनो​ हीरो, तजो कटुता, मधुर मन मंजु ​हो जाओ
*

दोहा, कुण्डलिया

दोहे
*
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम 
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम

*
चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान 
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान

*
महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब 
वर्मा संरक्षण करे,  रहे वीरता डूब

*
मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान 
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान

*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत 
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत

*
कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
***

laghu katha khilone

लघुकथा :
खिलौने
*
दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद घर पहुँचते ही पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया तो वह उलटे पैर बाज़ार भागा। किराना लेकर आया तो बिटिया रानी ने शिकायत की 'माँ पिकनिक नहीं जाने दे रही।' पिकनिक के नाम से ही भड़क रही श्रीमती जी को जैसे-तैसे समझाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए हुए बेटा दिखा। उसे बुलाकर पूछ तो पता चला कि खेल का सामान चाहिए। 'ठीक है' पहली तारीख के बाद ले लेना' कहते हुए उसने चैन की साँस ली ही थी कि पिताजी क खाँसने और माँ के कराहने की आवाज़ सुन उनके पास पहुँच गया। माँ के पैताने बैठ हाल-चाल पूछा तो पाता चला कि न तो शाम की चाय मिली है, न दवाई है। बिटिया को आवाज़ देकर चाय लाने और बेटे को दवाई लाने भेजा और जूते उतारने लगा कि जीवन बीमा एजेंट का फोन आ गया 'क़िस्त चुकाने की आखिरी तारीख निकल रही है, समय पर क़िस्त न दी तो पालिसी लेप्स हो जाएगी। अगले दिन चेक ले जाने के लिए बुलाकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया।
आते समय एक अलमारी के कोने में पड़े हुए उस खिलौने पर दृष्टि पड़ी जिससे वह कभी खेलता था। अनायास ही उसने हाथ से उस छोटे से बल्ले को उठा लिया। ऐसा लगा गेंद-बल्ला कह रहे हैं 'तुझे ही तो बहुत जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की। रोज ऊँचाई नापता था न? तब हम तुम्हारे खिलौने थे, तुम जैसा चाहते वैसा ही उपयोग करते थे। अब हम रह गए हैं दर्शक और तुम हो गए हो सबके हाथ के खिलोने।
***

हाइकु गीत

हाइकु गीत 
*
बोल रे हिंदी 
कान में अमरित 
घोल रे हिंदी 
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
बहुत हुआ
अब न काम में हो
झोल रे हिंदी
*
सुने न अब
सब जग में पीटें
ढोल रे हिंदी
***

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

नाटिका राह

स्मरण महीयसी महादेवी जी: १ 
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  
​:

१. राह
*
एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।  
नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका 'विश्वास'। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अलप ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छिड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।    
युवक: 'चलो।'
युवती: "कहाँ।"
युवक: 'गृहस्थी बसाने।'
युवती: "गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?" 
युवक: 'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती: "यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
युवक: 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।' 

युवती: "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।"
युवक: 'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
युवती: "अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।"
युवक: 'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती: "इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
युवक: 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
युवती: "लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
युवक: 'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती: "ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
युवक: 'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती: "यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
युवक: 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती: "चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
युवक: 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती: "रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।"
युवक: 'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
युवती: "आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
युवक: 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती: "लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
युवक: 'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।' 
कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर। 
[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 
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व्यंग्य लेख: वाह रे मातृभक्त!

एकदा भारतवर्षे सुरपुर सूचना मंत्री नारद महोदय अवतरित हुए। उन्होंने गौआधारित अर्थ व्यवस्था से संचालित देश में विदेशियों ताकतों द्वारा भैंसों के माध्यम से अर्थनीति और प्रकारान्तर से देशनीति को प्रभावित कर सरकार को कठपुतली की तरह नचाने की कोशिशों से जूझती लोकशक्ति की विजय का समाचार देवेंद्र को दिया। अपनी कुर्सी पर खतरे की आशंका का पूर्वानुमान कर देवेंद्र ने पुरोहित वर्ग का सहयोग लेकर महिष (भैंस) का बहिष्कार करनेवाली लोकशक्ति को महिषासुरमर्दिनी का उपासक बना दिया। देश के दुजितानेवाली लोकशक्ति दुर्गा शक्ति-साधकों की आराध्य हो गई। जननी जन्म भूमि को स्वर्ग से बेहतर बताकर सत्ता ने खुद को सुरक्षित मान लिया। 

समय बदला, आक्रांताओं ने गौपूजनजनित एकता से सशक्त हुए देश के गुलाम बनाने के लिए चंद गौओं को आगे रखकर हमला बोला। अंधभक्ति ने देशभक्तों की आँखों पर पट्टी का काम किया। हम घर में हार गए, हमलावर जीते ही नहीं सत्ता पर काबिज भी हो गए। कालांतर में शक्ति को एकत्रकर लोक-स्वातंत्र्य के लिए जूझनेवाली दुर्गावती, चेन्नम्मा व लक्ष्मीबाई भी माता ही कही गईं। अंग्रेजों के चंगुल से आजादी पाने के लिए लोकशक्ति को भारत माता कहकर 'वंदेमातरम' के जयघोष के साथ आत्माहुति देते साधुओं और शहीदों से वंदे मातरम् की विरासत सत्याग्रहियों ने ग्रहण कर ली।

सत्ता से टकराने-बदलने के स्थान पर सत्ता को साधकर काम कराने की कला को व्यावहारिक मानते हुए 'वंदे मातरम्' पर 'जनगण' के मन को प्राथमिकता मिल गई। लोक पर प्रशासन हावी होता गया। आत्मोत्सर्ग का सूत्र सत्ता प्राप्ति का उपकरण मात्र रह गया। भारत माता का भगवा वसन और कर का कमल सत्ता पाकर लोक विरोध की अनसुनी कर खेती का ख़ात्मा कर कारखानों की फसल उगाने की राह पर चल पड़ा। महामार्गों की आड़ में कृषि-भूमि हड़पने वाली नीति भूल गई कि सरकारी डंडा चलाकर कार्यालयों में गाने से राष्ट्रीयता नहीं पनपती। वंदे मातरम् गाकर काम कराने आई माता से रिश्वत लेने,  अकेले पाते ही माँ पर टूट पड़ने,  बूढ़ी होते ही माँ को घर से बाहर कर देने में छिपा अंतर्विरोध सत्ता की चकाचौंध में नहीं दिखता। 

कमलियों के पाखंड से ऊबी जनता ने सत्ता-सूत्र कमलनाथियों के हाथ पकड़ाया, इन पर भी पाखंड का भूत सवार होने लगा। विधायक बने चार दिन हुए नहीं कि जनप्रतिनिधि समय न होने का राग अलापकर लोकशक्ति को प्रतीक्षा कराने लगे, अपने और अपने चमचों के पैसे से स्वागत रैलियाँ कराने लगे, खुद अपना जयघोष करने लगे। जनप्रतिनिधि भूल गए कि इन्हें अपना गुणगान नहीं माँ की सेवा करनी है। वे वंदे मातरम् जरूरी कर मुँह की खा बैठे, ये वंदे मातरम् रोकने के व्याल-जाल में अपनी ढपली अपना राग अलाप कर अगली बार मुँह की खाने की जुगत कर रहे हैं। विनय भूल रहे विधायक लोक माता के कष्ट न हरकर चौबीस घंटे वंदे मातरम् जपें तो भी माँ प्रसन्न न होगी। माँ की वंदना का पथ लोकमाता की सुविधा जुटाना है,  सत्ता को प्रदर्शनप्रिय बनाना नहीं। 

राजनीति के गलियारों को समझना होगा कि वंदे मातरम् की माँ एक प्रतिमा मात्र नहीं,  देश की आम जनता है जिसे जग-हितकारी नीतियाँ चाहिए, जन जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप करनेवाली सरकार चाहिए, कमजोर का पक्ष लेनेवाला कानून, पुलिस और न्याय व्यवस्था चाहिए। अंतर्जाल पर अश्लील सामग्री रोकना मातृवंदना है या एक गीत गाना? यह सोचने का अवकाश किसी पास नहीं है।

हर दल और हर नेता की दृष्टि अगले चुनाव पर है। चुनाव में जिताने-हरानेवाली लोकमाता की अनदेखी कर माता की जयकारा लगाना सुविधाजनक भले ही हो पर उससे लक्ष्य नहीं मिल सकता। दोनों राष्ट्रीय दलों का यह मानना कि केवल वंदे मातरम् की दम पर सत्ता उनकी झोली में आ गिरेगी, सही नहीं है । लोकमाता के बड़े पूत नहीं सम्हले तो छोटे पूत अवसर चूकनेवाले नहीं हैं। लोकमाता भी 'तू नहीं और सही,  और नहीं और सही' की नीति अपना कर 'नोटा' का दाँव मारकर बिसात पर बाजी पलटना जान चुकी है। कमलियों के तमाम दाँव-पेंच 'नोटा' के आगे भोथरे सिद्ध हुए और मामा को भांजों ने जमीन सूँघा दी।

'हम नहीं सुधरेंगे' की जिद कर रहे बड़के बच्चे याद रखें कि इतिहास खुद को दोहराता है और यह भी कि इस देश में ऐसे भी प्रधानमंत्री हो गए हैं जिनके पास पाँच सांसद भी नहीं थे। तीन चौथाई बहुमत पाने की शाही गर्जनाओं का हश्र सामने है। अगली बार की लड़ाई वंदे मातरम' के नाम से नहीं काम से ही जीती जा सकती है । नारद जी सारे परिदृश्य को देखकर नारायण नारायण भूलकर वंदे मातरम् गुनगुनाते हुए चल पड़े हैं, सुरेंद्र को सूचित करने।                                                  *****


 

बुधवार, 2 जनवरी 2019

कुमार रवींद्र

कुमार रवींद्र की याद में
कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य 
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार  संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
                       'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है। 

                       कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।

                       एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।

                       काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.

                       भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
                 श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है—  खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण 
                  कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को  ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है। 
                     हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं। 
                      बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त  रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है। 
                        गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें',  ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर' 
                        गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है। 
                        कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
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राम सेंगर

अमृत जयन्ती की देहरी पर राम सेंगर
जन्म २-१-१९४५, नगला आल, सिकन्दराऊ, हाथरस उत्तर प्रदेश।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली। 
३. एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: जाग्रति कॉलोनी, विनोबा वार्ड, पोस्ट जुहला, बरही रोड, कटनी ४८३५०१। चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
२.१.२०१९

जैनेन्द्र

स्मरणांजलि:
हिंदी उपन्यास जगत में विराग में राग के शोधक जैनेन्द्र   
संजीव 
*
हिंदी के अनूठे उपन्यासकार (जन्म २ जनवरी १९०५, कौडियागंज अलीगढ़ - निधन २४ दिसंबर१९८८) उनके बचपन का नाम आनंदीलाल  था। इनकी मुख्य देन उपन्यास तथा कहानी है। एक साहित्य विचारक के रूप में भी इनका स्थान मान्य है। इनके जन्म के दो वर्ष पश्चात इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता एवं मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। वहीं जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। उनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। उनका घर का नाम आनंदी लाल था। सन १९१२ में उन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। प्राइवेट रूप से मैट्रिक परीक्षा में बैठने की तैयारी के लिए वह बिजनौर आ गए। १९१९ में उन्होंने यह परीक्षा बिजनौर से न देकर पंजाब से उत्तीर्ण की। जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई।  १९२० से स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में भाग लेना प्रारंभ किया। १९२१ में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से दिल्ली आ गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे, परंतु अंत में उसे भी छोड़ दिया।
सन १९२१ से २३ के बीच जैनेंद्र ने अपनी माता की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। परंतु सन २३ में वे नागपुर चले गए और वहाँ राजनीतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष ये झंडा सत्याग्रह में गिरफ्तार होकर तीन माह के बाद छूटे। दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से अपने को अलग कर लिया। जीविका की खोज में ये कलकत्ते भी गए, परंतु वहाँ से भी इन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन कार्य आरंभ किया।  देश जाग उठा था' शीर्षक से लिखा लेख 'देवी अहिंसे' नाम से चर्चित हुआ। १९२९ में प्रथम कहानी संग्रह 'फांसी' और प्रथम उपन्यास 'परख' प्रकाशित । १९४६ में राजनीतिक सक्रियता से विराग एवं सर्वतोभावेन लेखन व चिंतन को समर्पित । साहित्य अकादेमी की स्थापना (१९५४) पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी प्रथम उच्चस्तरीय समिति में शामिल किए गए। 
जैनेन्द्र की प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं- उपन्यासः 'परख' (१९२९), 'सुनीता' (१९३५), 'त्यागपत्र' (१९३७), 'कल्याणी' (१९३९), 'विवर्त' (१९५३), 'सुखदा' (१९५३), 'व्यतीत' (१९५३) तथा 'जयवर्धन' (१९५६)। कहानी संग्रहः 'फाँसी' (१९२९), 'वातायन' (१९३०), 'नीलम देश की राजकन्या' (१९३३), 'एक रात' (१९३४), 'दो चिड़ियाँ' (१९३५), 'पाजेब' (१९४२), 'जयसंधि' (१९४९) तथा 'जैनेंद्र की कहानियाँ' (सात भाग)।निबंध संग्रहः 'प्रस्तुत प्रश्न' (१९३६), 'जड़ की बात' (१९४५), 'पूर्वोदय' (१९५१), 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' (१९५३), 'मंथन' (१९५३), 'सोच विचार' (१९५३), 'काम, प्रेम और परिवार' (१९५३), तथा 'ये और वे' (१९५४)। अनूदित ग्रंथः 'मंदालिनी' (नाटक-१९३५), 'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-१९३७), तथा 'पाप और प्रकाश' (नाटक-१९५३)। सह लेखनः 'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-१९३२)। संपादित ग्रंथः 'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-१९५१) तथा 'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-१९५२)। (सहायक ग्रंथ- जैनेंद्र- साहित्य और समीक्षाः रामरतन भटनागर।), मुक्तिबोध, अनाम स्वामी, दशार्क (उपन्यास) ; अपना-जपना भाग्य, नीलम देश की राजकन्या, जाह्नवी, साधु की हठ, अभागे लोग, दो सहेलियां, महामहिम (कहानी-संग्रह); समय और हम, समय समस्या और सिद्धांत, काम प्रेम और परिवार, पूर्वोदय, मंथन, साहित्य का श्रेय और प्रेय, वृत्त विहार (निबंध व विचार संग्रह); राष्ट्र और राज्य, कहानी-आनुभव और शिल्प, बंगला देश का यक्ष प्रश्न, इतस्तत: (ललित निबंध व संस्मरण); मेरे भटकाव, स्मृति पर्व, कश्मीर की वह यात्रा, विहंगावलोकन (अन्यान्य निंबध) आदि। 
'मुक्तिबोध' उपन्यास पर साहित्य अकादेमी सम्मान ( १९६८) । १९७१ में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण  । साहित्य अकादेमी की 'महत्तर सदस्यता' तथा 'अणुव्रत सम्मान' से विभूषित (१९८२) । १९८४ में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान 'भारत भारती' से सम्मानित। 
जैनेन्द्र हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक हैं। वे  अपने पात्रों की सामान्य गति में नियति के सूक्ष्म संकेतों को कुशलता से प्रस्तुत करते हैं। उनके उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं। जैनेन्द्र अपने पथ के अनूठे अन्वेषक थे। उन्होंने प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ के मार्ग को नहीं अपनाया, जो उस  समय का राजमार्ग था। वे प्रेमचन्द के विलोम नहीं प्रेरक थे। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को साथ-साथ रखकर ही जीवन और इतिहास को उसकी समग्रता के साथ समझा जा सकता है। जैनेन्द्र का सबसे बड़ा योगदान हिन्दी गद्य के निर्माण में था। भाषा के स्तर पर जैनेन्द्र की प्रयोगपरकता ने हिन्दी को तराशने का अभूतपूर्व काम किया। जैनेन्द्र के गद्य की पीठिका पर अज्ञेय का गद्य आकारित हुआ। हिन्दी कहानी ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ जैनेन्द्र से ही सीखा। जैनेन्द्र ने हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया `सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है।--रवींद्र कालिया 
जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्वों के समावेश से दुरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत होते हैं। जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से अप्रभावित और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित होकर प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार करते हैं। इसीलिए जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की भरमार न होकर पात्रों की अल्पसंख्या के कारण वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता है।
क्रांतिकारिता तथा आतंकवादिता के आदर्शवादी तत्व जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं। बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होता है। वे नारी का यत्किंचित आश्रय, सहानुभूति या प्रेम पाते ही टूटकर गिर पड़ते हैं , उनका बाह्य स्वभाव कोमल बन जाता है। जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में प्रधानता लिए हुए होते हैं। उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है, साथ ही पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखकर क्षुब्ध-व्यथित होती है। पुरुष से कठोरता की अपेक्षा के समय विनम्रता पाना भी उसे असह्य हो जाता है। जैनेन्द्र को पढ़े बिना हिंदी साहित्य संसार का यथार्थ परिचय नहीं पाया जा सकता। 
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मंगलवार, 1 जनवरी 2019

जनवरी २०१९

ॐ 
जनवरी २०१८ 
कब क्या?
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१. ईसाई नव वर्ष। 
३. सावित्री बाई फुले जयंती।
४. लुई ब्रेक जयंती।
५. परमहंस योगानंद जयंती।
१०. विश्व हिंदी दिवस।
१२. विवेकानंद / महेश योगी जयन्ती, युवा दिवस।
१३. गुरु गोबिंद सिंह जयंती।
१४. मकर संक्रांति, बीहू, बैसाखी, पोंगल, ओणम।
१५. थल सेना दिवस, कुंभ शाही स्नान।
१९. ओशो महोत्सव।
२०. शाकंभरी पूर्णिमा।
२३. नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती।
२६. गणतंत्र दिवस।
२७. स्वामी रामानंदाचार्य जयंती।
२८. लाला लजपत राय जयंती।
३०. म. गाँधी शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस।
३१. मैहर बाबा दिवस।
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साहित्यकार / कलाकार:
सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती
१. अर्चना निगम ९४२५८७६२३१
त्रिभवन कौल स्व.
राकेश भ्रमर ९४२५३२३१९५
विनोद शलभ ९२२९४३९९००
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' ९८९३२६६०१४
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ९८६९०७८४८५
२. राम सेंगर ९८९३२४९३५६
राजकुमार महोबिआ ७९७४८५१८४४
राजेंद्र साहू ९८२६५०६०२५
४. शिब्बू दादा ८९८९००१३५५
८. पुष्पलता ब्योहार ०७६१ २४४८१५२
१२. आदर्श मुनि त्रिवेदी ९४२५३६२९८५
संतोष सरगम ८८१५०१५१३१
१५. अशोक झरिया ९४२५४४६०३०
१६. हिमकर श्याम ८६०३१७१७१०
२३. अशोक मिजाज ९९२६३४६७८५
२६. उमा सोनी 'कोशिश' ९८२६१९१८७१
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