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सोमवार, 10 सितंबर 2018

samiksha

पुस्तक चर्चा:

रेत की व्यथा कथा- राम सेंगर

- रामशंकर वर्मा
१९४५ में जिला-हाथरस में जन्मे और वर्तमान में कटनी, मध्यप्रदेश की भूमि से साहित्य जगत को अपने नवगीतों से समृद्ध करने वाले राम सेंगर हिन्दी नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे देश के उन गिने-चुने नवगीतकारों में से एक हैं, जिनके नवगीत डा॰ शम्भुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-२’ व ‘नवगीत अर्द्धशती’ में स्थान पाने में समर्थ हो सके। नवगीत के चरणबद्ध विकास और उसके चरित्र में शिल्प, कथ्य, भाशा, युगबोध के बरक्स हुए परिर्वतनों को जानने के लिए नवगीत के प्रारम्भिक दौर के नवगीतकारों के नवगीतों पर पाठचर्या करना अनेक कारणों से उपयोगी है। स्वराजकामी भारतीय जनमानस ने जिन अच्छे दिनों की चाह में कन्धे से कन्धे मिलाकर विदेशी सत्ता से लोहा लिया, उसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विचलन, विखण्डन, स्वप्नभंग की अच्छी पड़ताल उनके नवगीतों में की गयी है। 

‘रेत की व्यथा कथा’ उद्भावना प्रकाशन से आने के पूर्व ‘शेष रहने के लिए-१९८६’, ‘जिरह फिर कभी होगी-२००१’ ‘एक गैल अपनी भी-२००९ तथा ‘ऊॅंट चल रहा है-२००९ जैसे उनके नवगीत संग्रह
 साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। 
               
‘रेत की व्यथा कथा’ में संकलित १०४ नवगीत कथ्य, भाषा-शैली, शब्द-विन्यास और शिल्प के स्तर पर उनकी परिपक्व पकड़ के साक्षी हैं। लोकसम्पृक्ति से आच्छादित आस-पास बिखरे विषयों पर उनकी पर्यवेक्षण दृष्टि बहुआयामी है। नयी पीढ़ी के गाँव से शहरों में विस्थापन के फलस्वरूप सामाजिक ताने-बाने की टूट-फूट की विडम्बना कितनी जीवंत हो उठी है इन पंक्तियों में-
ताराचंद, लोकमन, सुखई
गाँव छोड़ कर चले गये
गाँव, गाँव-सा रहा न भैया
रहते तो मर जाते। 
टुकड़े-टुकड़े बिकीं ज़मीनें
औने-पौने ठौर बिके
जीने के आसार रहे जो
चलती बिरियाँ नहीं दिखे
डब-डब आँखों से देखे
बाजों के टूटे पाते।                         

पलायन की बेबसी इन पंक्तियों में कितनी मार्मिक और सहजोर हो उठी है-
गाँव का 
खॅंडहरनुमा घर
एक हिस्सा था
खुशी से छोड़ आये। 

गाँव हमारा वृन्दावन था
इसी धीर नदिया के तीरे।
हैरत में हैं, कहाँ गया वह
लेश नहीं पहचान बची रे।
उजड़ गये रोजी-रोटी में
ख़ाकनसीनों के सब टोले।

पदलिप्सा और चाटुकारिता के विद्रूप समय में स्वयंभू सत्ताधीशों की हाँ में हाँ मिलाने की प्रवत्ति पर कटाक्ष कितना सटीक है इस नवगीत में। 
सुनो भाई!
तुम कहो सो ठीक
लो हम
कीच को कहते मलाई! 

बडे़ लोग हैं
बात-बात में
भारी बतरस घोलें। 
...
बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी।

विकास की दौड़ में मानवनिर्मित संरचनाओं में मृत्यु की असामयिक त्रासदी झेलने का विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं-             
डूब गया शिवदान 
नहर में
हुई बावरी माई। 

नवगीतों में वर्ण्य विषय की अछोर विविधता है उनके पास। पूँजीवादी  चलन में संकुल परिवारों से अलग-थलग पड़े बुर्जुगों का एकाकीपन, असहायता, घुटन को चित्रित करते हुए वे कहते हैं-

अच्छा ही हुआ
सब भूल गये।
...
नातों का विम्ब लगे
जिसका परिवार नाम
टूटता हुआ। 
...
कठिन समय ने
खाल उतारी
कैसे कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
...
पर इस एकाकीपन में भी अटूट जिजीविषा के सहारे सकारात्मक दैनिकचर्या के अद्भुत विम्ब भी हैं उनके पास-

इकली है तो क्या 
प्रसन्नमन
जीती जमुना बाई।  
...
कोठरी में 
क्या करे ठुकठुक!
आ, तुझे गा लूँ अगाये दुख!     
...
आम दिनों की तरह आज भी
जागे नौ के बाद। 
...
फूट रहे हैं
साँस-साँस में
गीत सृजन के
भले अकेला हूँ 
पर, मुझमें 
सृष्टि समाई है। 

उनके वर्ण्य विषय यथार्थ के मजबूत माँझे में बॅंधकर समकालीन युगबोध के विस्तृत नभ का भ्रमण कराते हैं। यांत्रिक और मानसिक तकनीक के दोधारे वार के फलस्वरूप ठेठ गाँवों के पुश्तैनी शिल्प, कुटीर-धन्धों का विनाश, आग्रही जातीयता के दुष्परिणाम, वैमनस्य, विवषता, संकीर्णता, घुन्नापन, भेदभाव, जैसी विकृत मनोवृत्तियॉं का चित्रण बखूबी उन्होंने किया है। लालफीताशाही, स्वार्थ, बाजारवाद, मॅंहगाई के बीच कम ही सही सहज रोमांस की प्रतीतियों को भी स्वर दिया है-

दूर किसी पर्वत पर
खिंची रजत रेखा-सा
झिलमिला रहा
पहला प्यार।
...
फिर दिखी हो!
कड़क सुन सौदामिनी की जागते हैं
रात, सपने में। 
                        
पुष्ट नवगीत में सूत्रवाक्य की तरह का अर्थवान, सम्प्रेषणीय, लययुक्त मुखडा उसके आकर्षण, स्वीकार्यता में अनायास वृद्धि और आगे के अन्तरों के प्रति सहज जिज्ञासा उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से संकलन के अधिकांश मुखड़े अद्भुत हैं-

हॅंसी-ठट्ठा ज़िन्दगी का
चले अपने साथ।
...
कल अपने भी दिन आयेंगे।
...
दिल रखने को नहीं छिपाई
मन की कोई बात।
...
बदल गये परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाये। 
...
सबकी जय-जयकार
बिरादर
सबकी जय-जयकार।
...
हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ
...
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
चरखा कात रही हैं अम्मा
दोनों हाथ साधते लय को।
...
चबूतरा बढ़ई टोले का
जुड़ी हुई चौपाल।                       
...
जन से कटे, मगन नभचारी
देख रहे हैं नब्ज़ हमारी।
...
ग़लत आउट दे दिया
आउट नहीं थे,
रिव्यू देखें....
सरासर ‘नो बाल’ है। 
...
चलो, छोड़ो कुर्सियों को
यहीं
इस दहलीज पर ही बैठ कर
दो बात करते हैं। 
...
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!
...
चढ़ी बाँस पर नटनी भैया
अब क्या घूँघट काढ़े।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।
इनके अतिरिक्त अन्य नवगीतों के मुखड़ों में भी कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग, संक्षिप्तता, गेयता, प्रवाह का निर्वाह उनके जैसे बड़े कद के नवगीतकार के सर्वथा अनुरूप है।   
                    
७० वर्षों का अकूत जीवन अनुभव, दर्षन उनके नवगीतों में अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है। समय का खुरदुरापन व्यक्त करने में उन्होंने कहीं कोताही नहीं की है। लोक में प्रचलित शब्दों के संरक्षण में भी कवि की महती भूमिका निर्विवाद है। बघेली और ब्रजभाषा के आँचलिक शब्दों का बेहद संजीदगी और करीने से प्रयोग उनके विपुल शब्द भण्डार का धनी होने का संकेत है। ऐसे शब्दों का अर्थ जानने के लिए मुझे उनसे फोन पर सम्पर्क करना पड़ा। शब्दकोशों भाशा के प्रति पाठकों के जुड़ाव और जिज्ञासा जगाने की यह चातुरी और कौशल विरले नवगीतकारों के पास है। 

धन्धे-टल्ले, जॉंगर, कीचकॉंद, घूमनियॉं टिकुरी, इकहड़ पहलवानी, झाऊ, झोल, हिलगंट, जगार, झाँझर, लाठ, घरपतुआ, डूँगरी-डबरे, खिसलपट्टी, मलीदा, गोड़गुलामी, सतनजा, गम्मत, गुन्ताड़े, अलसेट, तखमीने, घीसल, नरदे, चरावर, ठोप, गहगहा, टिटिहारोर, लवे लोहित, ग्यारसी, औझपा, निमकौड़ी, छाहुर, तकुआ-पोनी-पिंदिया आदि शब्दों का सटीक चयन ऐसा ही प्रयत्न है।   

नवगीतों में शिल्प, मुखड़े, अंतरे, विम्ब विधान, संक्षिप्तता, युगसापेक्षता, लय, छन्दानुशा
सन, आदि तत्व उसे गीत से प्रथक संज्ञा देने में समर्थ होते हैं। संवेदना तो गीत से विरासत में मिली ही है। गाँव की दोहपर में लोकजीवन के क्रियाकलाप, हॅंसी-ठिठौली, चौपालों की गपशप, ताल में सिंघाड़े तोड़ने, अलाव तापने जैसे अनेक विम्ब अनूठे बन पड़े हैं-  
                   
सुनी ख़बर पर
बदहवास-सी
एक रूलाई फूटी।
डोल कुएँ में गिरा
हाथ की रस्सी सहसा छूटी। 
...
बानक से बिदका कर
सब झरहा कुत्तों को
अजगर-सी पड़ी हुई
सड़क के दलिद्दर पर
मारता कुदक्के 
यह बानर।
...
विष्णु घोंट रहा है लेई
चोटी गूँथ रही हरदेई
बच्चू बना रहा घरपतुआ
चींटे काट रहे अक्षय को।
...
सड़क-बगिया-
खेल का मैदान-बच्चे
खिसलपट्टी
चाय पीने का इधर
आनन्द ही कुछ और है। 
...
मैली धुतिया
चीकट बंडी
पहन भरी बरसात में।
चला जा रहा मगन बहोरी
ले चमरौधा हाथ में। 
...
दंगाई कहर में
जले घर के मलबे पर
बैठे हैं बीड़ी सुलगाने।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।                       
...
संकलन के कई नवगीतों में वे आमजन की चिन्ता के साथ खड़े नजर आते हैं। पुश्तैनी कुटीर-उद्योग जो ग्राम्य समाज की आजीविका, शिल्प-कौशल का आधारस्तंभ थे, आयातित नीतियों और मशीनीकरण की भेंट चढ़ गये। तद्जनित विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी जैसी विसंगतियों, विवशताओं के अनेक चित्रों से पाठक उनकी जनपक्षधरता का आकलन कर सकते हैं। 

धन्धे, टल्ले बन्द हो गये
दस्तकार के हाथ कटे।
लुहर-भट्ठियाँ फूल गयीं सब
बिना काम हौसले लटे।
बढ़ई-कोरी-धींवर टोले
टोले महज़ कहाते।
...  
हाथ-पाँव चलते हैं तब तक
खेत कमायें, ढ़ेले फोड़ें
ठौर-मढ़ैया खड़ी हो न हो
पेट काट कर पैसा जोड़ें
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा
जो होगा देखा जायेगा
फूटा करम न भाये।
...
दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अंधा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
रचे में बोले
न यदि मिट्टी
तुष्टि के सम्मोह की कर जाँच 
कुछ नहीं होता
करिश्मों से 
हो न जब तक भावना में ऑंच
स्वयं से, बाहर 
निकल कर 
दीन-दुनिया से न जाये छिक!
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!                      
सहज सम्प्रेष्य भाषा में कहीं-कहीं लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग ने कथ्य में गजब का पैनापन दृष्टिगोचर होता है। 
चकमक दीदा
भखें मलीदा, चीरें एक
बघारें पाँच 
उद्धत को पानफूल
प्रेमी को दुतकारी 
निमकौडी़ पर
मरे न कोयल
कौआ को सब भावे चोट पाँव में
माथे मरहम, बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी...  इत्यादि।   

‘रेत की व्यथा-कथा’ नवगीतकारों की पुरानी पीढ़ी की अपनी विशिष्ट कहन, भाव-भंगिमा, लोकसम्पृक्ति पर सशक्त पकड़ का बहूमूल्य दस्तावेज है, इसका समादर किया जाना चाहिए। 
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गीत- नवगीत संग्रह - रेत की व्यथा कथा, रचनाकार- राम सेंगर, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन 
एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १३५, समीक्षा - रामशंकर वर्मा।

शनिवार, 8 सितंबर 2018

दोहा सलिला

गीत जन्म के गा रहा, हूँ मरघट में बैठ।
यम में दम हो तो करे, सुख-सपनों में पैठ।।
*
रात अमावस की मिली अंबर से उपहार।
दीप जला मैंने दिया,  उसका रूप सँवार।।
*
मरुथल मृगतृष्णा लिए, चाहे लेना भींच।
श्रम-सीकर मैंने बहा,  दिया मरुस्थल सींच।।
*
याद किसी की मन-बसी,  करती जब बेचैन।
विरह-मिलन के विषम-सम,  चरण रचूँ दिन-रैन।।
*
मन-मंदिर में जलाकर, माँ ने ममता-दीप।
जगा-किया संजीव झट,  मुस्का आँगन लीप।।
*
पापा को पा यूँ लगा, है सिर पर आकाश।
अँगुली सकता थाम फिर, गिर-उठकर मैं काश।।
*
जी में जी आया तभी,  जब जीजी के साथ।
पथ पर पग रख हँस चला, थाम हाथ में हाथ।।
*
चक्की से गेहूँ पिसा, लाया पहली बार।
माँ से सुन करते रहे, पापा प्यार-दुलार।।
*
गाय न घर में जब रही,  हुआ दूध बेस्वाद।
गोबर गुम अब यूरिया, फसल करे बरबाद।।
*
संध्या-वंदन कर हँसा, चंदा बोले रैन।
नैन मटक्का छोड़कर, घर आ जा; हो चैन।।
*
निशा-निशापति ने किया, छिप जी भरकर प्यार।
नटखट तारों से हुआ,  घर-अंबर गुलजार।।
***
8.9.2017

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

samiksha

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति
- अमरेन्द्र नारायण
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है। संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत।

स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो।
कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अमल-धवल, शुचि
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है- अंध शृद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप हैं।
संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं।
कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई।
गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है।
***
समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष, फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com।
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vimarsh 2

विमर्श: २ 
देवता कौन हैं? 
 
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना', भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, परा-प्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।

बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर- वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विष्णु-महेश) फिर डेढ़ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मंत्रों के विभिन्न देवता (उपास्य, इष्ट) हैं। प्रत्येक मंत्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार 
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करनेवाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहनेवाले देवता।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि हैं।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व आदि) गण्य हैं।

ऋग्वेद में स्तुतियों से देवता पहचाने जाते हैं। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मावाचक करते हैं। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, संप्रदाय, अलग-अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में "तिस्त्रो देवता" (तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का का कार्य सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गई। निरुक्तकार यास्क के अनुसार,"देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत (शांति पर्व) तथा शतपथ ब्राह्मण में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं।  
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम।। 
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतंत्र माना जाता है। प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती, काली), शंकर, कृष्ण, इंद्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
देवता का एक वर्गीकरण जन्मा तथा अजन्मा होना भी है। त्रिदेव, त्रिदेवियाँ आदि अजन्मा हैं जबकि राम, कृष्ण, बुद्ध आदि जन्मा देवता हैं इसी लिए उन्हें अवतार कहा गया है। 
देवता मानव तथा अमानव भी है। राम, कृष्ण, सीता, राधा आदि मानव, जबकि हनुमान, नृसिंह आदि अर्ध मानव हैं जबकि मत्स्यावतार, कच्छपावतार आदि अमानव हैं। 
प्राकृतिक शक्तियों और तत्वों को भी देवता कहा गया हैं क्योंकि उनके बिना जीवन संभव न होता। पवन देव (हवा), वैश्वानर (अग्नि), वरुण देव (जल), आकाश, पृथ्वी, वास्तु आदि ऐसे ही देवता हैं। 
सार यह कि सनातन धर्म (जिसका कभी आरंभ या अंत नहीं होता) 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर सृष्टि के निर्माण में छोटे से छोटे तत्व की भूमिका स्वीकारते हुए उसके प्रति आभार मानता है और उसे देवता कहता है।इस अर्थ में मैं, आप, हम सब देवता हैं। इसीलिए आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और यह भी कि तुम सब भी ओशो हो बशर्ते तुम यह सत्य जान और मान पाओ। 
अंत में प्रश्न यह कि हम खुद से पूछें कि हम देवता हैं तो क्या हमारा आचरण तदनुसार है? यदि हाँ तो धरती पर ही स्वर्ग है, यदि नहीं तो फिर नर्क और तब हम सब एक-दूसरे को स्वर्गवासी बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर रहे। हमारा ऐसा दुराचरण ही पर्यावरणीय समस्याओं और पारस्परिक टकराव का मूल कारण है। 
आइए, प्रयास करें देवता बनने का। 
***

vimarsh

विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने २०१४ में दिए एक निर्णय में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है। इसके लिए पशुओं को असहनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। न्यायमूर्ति द्वय राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है। न्यायालय ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असहनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या केवल देव-बलि के लिए अथवा मानव की उदरपूर्ति लिए भी? देव-बली के नाम पर मा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो मांसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है कि हिंदू मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आप सोचें और अपनी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारियों, समाचार माध्यम और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुँचाइए।

muktak

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से
कहते सही उसूल है
*

सितम्बर

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र १८५०
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
भूल-चूक हेतु खेद है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

नवगीत संकलन और समीक्षा

नवगीत संकलन और समीक्षा
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१९८३
= राजेन्द्र गौतम,, गीत पर्व आया है, दिगंत प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली,  प्रथम संस्करण- जनवरी १९८३, ३०/-, पृष्ठ-९६    भूमिका माहेश्वर तिवारी  

१९९४ 
शशिकांत गीते, मृगजल के गुंतारे, शशिकांत गीते, ज्ञान साहित्य घर, जबलपुर, प्रथम संस्करण, ३०/-, पृष्ठ- ५७, भूमिका श्रीकांत जोशी

१९९८
राधेश्याम बंधु, प्यास के हिरन, पराग प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, ४०/-, पृष्ठ ९४  परिचय- संजीव सलिल

२००६ 
= राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है, अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ-१३६ समीक्षा- संजीव सलिल।
= श्रीकृष्ण शर्मा, फागुन के हस्ताक्षर, अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- ८६ समीक्षा- आचार्य भगवत दुबे।

२००८
= राधेश्याम बंधु, एक गुमसुम धूप, कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ ९६ समीक्षक- संजीव सलिल
रामकिशोर दाहिया, अल्पना अंगार पर, उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड, शाहदरा दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- १९२, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३। समीक्षा- संजीव वर्मा 'सलिल' 


२००९ 
= श्याम श्रीवास्तव लखनऊ, किन्तु मन हारा नहीं, उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ- १०४। भूमिका कुमार रवीन्द्र। 

२०११
= राधेश्याम बन्धु, नदियाँ क्यों चुप हैं, कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १५०/-, पृष्ठ-११२ समीक्षा डॉ. परमानंद श्रीवास्तव।


२०१२ 
राधेश्याम बंधु, नवगीत के नये प्रतिमान,  कोणार्क प्रकाशन, बी-३/१६३ यमुना विहार, दिल्ली ११००५३, प्रथम संसकरण , ५०० /-, पृष्ठ- ४६४ परिचय- संजीव सलिल।
वीरेन्द्र आस्तिक, दिन क्या बुरे थे, कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०,  जहाँगीरपुरी, दिल्ली ३३, प्रथम संस्करण, मूल्य- रूपये , पृष्ठ- ,  ISBN- 9788188790678 । परिचय- डॉ. संतोष कुमार तिवारी  
= सत्यनारायण, सभाध्यक्ष हँस रहा है, अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- १००। समीक्षा- डॉ. राजेन्द्र गौतम। 

२०१३ 
राम सेंगर, रेत की व्यथा कथा, उद्भावना प्रकाशन एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- १३५। समीक्षा - रामशंकर वर्मा।

२०१४
राघवेन्द्र तिवारी, जहाँ दरककर गिरा समय भी, पहले पहल प्रकाशन, २५-ए, प्रेस काम्प्लेक्स, भोपाल,  प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९ राघवेन्द्र तिवारी,  समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।
रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ- १४३, समीक्षा- संजीव 'सलिल' 
= रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ, अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद,  प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- ११२ समीक्षा गुलाब सिंह।
विनय मिश्र,, समय की आँख नम है, बोधि प्रकाशन, एफ-७७, सेक्टर-९, रोड नं.११, कर्तारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६,  प्रथम संस्करण, ११०/-, पृष्ठ- १४४। समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।
वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', नाप रहा हूँ तापमान को, ज्योति पर्व प्रकाशन, ९९-ज्ञान खंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, २४९/-, पृष्ठ- १२८। समीक्षा- संजय शुक्ल।

२०१५
= राजेन्द्र वर्मा, कागज की नाव, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण,  १५०/-, पृष्ठ-८० समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल।
रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, प्रथम संस्करण, ३००/-, पृष्ठ-१५९ , समीक्षा- जगदीश पंकज।
= शिवानंद सिंह 'सहयोगी', सूरज भी क्यों बंधक, कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रथम संस्करण, २००/-, पृष्ठ-१२८, ISBN-979-81-920238-7-8 समीक्षा- डा. पशुपतिनाथ उपाध्याय। 
= शीला पांडे, रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे, बोधि प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, ८०/-, पृष्ठ-८८, ISBN 978-93-85942-02-0,  समीक्षा- मधुकर अष्ठाना।  
= सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२ समीक्षा- संजीव 'सलिल'।*
= सुरेशचंद्र सर्वहारा, ढलती हुई धूप, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक्र ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर। प्रथम संस्करण, १०० रुपये, पृष्ठ-१२० , ISBN 978-93-84989-80-5 समीक्षा- आचार्य संजीव 'सलिल'।*

२०१६

= पंकज मिश्र 'अटल', बोलना सख्त मना है, बोधि प्रकाशन, एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६। प्रथम संस्करण, १००/-, पृष्ठ- १३६, SBN 978-93-85942-09-9 समीक्षा- संजीव सलिल। 

= श्याम श्रीवास्तव, जबलपुर, यादों की नागफनी, शैली प्रकाशन, २० सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम । प्रथम संस्करण, १२०/-, पृष्ठ- ६२ समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।*
= श्याम श्रीवास्तव लखनऊ, जिंदगी की तलाश में, नमन प्रकाशन, २१० चिन्टल्स हाउस, १६ स्टेशन रोड, लखनऊ-२२६००१। प्रथम संस्करण, अजिल्द १५०/-, सजिल्द २००/-, पृष्ठ-९९ , ISBN 978-81-89763-42-8 समीक्षा- रामशंकर वर्मा। 
= सत्येन्द्र तिवारी, मनचाहा आकाश, शुभाञ्जली प्रकाशन, कानपुर-२०८०२३, प्रथम संस्करण, पेपरबैक १८०/-, सजिल्द २५०/-, पृष्ठ-१२०, समीक्षा- डॉ. मधु प्रधान
= सुरेश कुमार पंडा, अँजुरी भर धूप, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर, प्रथम संस्करण,  रु. १५०, पृष्ठ- १०४, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४। समीक्षा- संजीव 'सलिल' *
= संजय शुक्ल, फटे पाँवों में महावर, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद । प्रथम संस्करण,  पेपरबैक १८०/-, सजिल्द २५०/-, पृष्ठ-१०४ समीक्षा- जगदीश पंकज।

२०१७ 

रमेश गौतम, इस हवा को क्या हुआ, अयन प्रकाशन, १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३० , प्रथम संस्करण, ४००/-, पृष्ठ- २०८, आइएसबीएन संख्या-९७८-८१-७४०८-९९०-८ समीक्षा- शिवानंद सिंह सहयोगी 
वीरेन्द्र आस्तिक, गीत अपने ही सुने, के के पब्लिकेशन्स, ४८०६/२४, भरतराम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२, प्रथम संस्करण, ३९५/-पृष्ठ : १२८ समीक्षा- अवनीश सिंह चौहान
वेद प्रकाश शर्मा वेद, अक्षर की आँखों से, अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण,. १५०पृष्ठ १२८ समीक्षा- जगदीश पंकज
= शशि पाधा, लौट आया मधुमास, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, २५०/-, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- योगिता यादव 
= शिवानंद सहयोगी, शब्द अपाहिज मौनी बाबा, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, ३४०/-, पृष्ठ- १७१ समीक्षा- मधुकर अस्थाना। 
= शुभम श्रीवास्तव 'ओम', फिर उठेगा शोर एक दिन, अयन प्रकाशन, १/२०,महरौली,नई दिल्ली - ११००३०, प्रथम संस्करण, रु. २४०, पृष्ठ- ११२, आईएसबीएन ९७८८१७४०८७००३ समीक्षा- राजा अवस्थी  

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्लाखोह मची- रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।

इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है।
शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।
इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं।
ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में।
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में।
इन नवगीतों का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है।

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके।
फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी।
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके।
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे।

'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।
अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे?

बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-
डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत।
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला।
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला।
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत।

असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है। आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-
दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।....
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।

आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं-
मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है।
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।

संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । / हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द, 'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।

'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं।

'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ' जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद, 'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।
समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
२१.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्लाखोह मची, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १४३, समीक्षा- संजीव सलिल