कुल पेज दृश्य

बुधवार, 30 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ६ आदर्शिनी श्रीवास्तव -पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छंद-छटा



 ६. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छंद-छटा

आदर्शिनी श्रीवास्तव
जन्म: २६ जून १९६४,गोंडा उ.प्र.। आत्मजा: श्रीमती सिद्धेश्वरी-डॉ. के०पी० श्रीवास्तव।जीवन साथी: श्री अभयकुमार श्रीवास्तव। शिक्षा: स्नातकोत्तर हिंदी साहित्य। लेखन विधा: कविता, गीत, ग़ज़ल, कहानी, लेख, संस्मरण, समीक्षा।प्रकाशित: तपस्विनी (काव्य संग्रह), नाद और झंकार (गीत संग्रह)। संपर्क:  १/८१ फेज़-१, श्रद्धापुरी , कंकड़ खेड़ा, मेरठ २५०००१, चलभाष:  ० ९४१०८८७७९४ / ८७५५९६७५६७ ईमेल: srivastava.adarshini@gmail.com, ब्लॉग: http//adarshinisrivastava.blog spot.in   कलिकाएँ अधखिली रुकी हैं, तरुओं पर कलरव है ठहरा।
*
सामान्यत: छंदों के लिए कोई  देश-विदेश नहीं होता।  ध्वनि और साहित्य को किसी क्षेत्र की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।  किसी भी स्थान के लोग, किसी भी समय, किसी भी छंद में अपनी रचना सृजित कर सकते हैं। फिर भी अलग- अलग क्षेत्रों के काव्य-सृजन में वहाँ प्रचलित संगीत, मनोभाव, धुन, वातावरण, स्थिति और प्रकृति काव्य सृजन पर अपना प्रभाव डालते हैं। इस काल का कवि साहित्य सृजन के प्रति समर्पित, मौन साधक नहीं है। उसमे संयम नहीं, छटपटाहट है। वह शीघ्रादिशीघ्र उथली यश-प्राप्ति चाहता है। वह चार पंक्तियाँ पढ़कर उसमें से ही भाव या शब्द ग्रहणकर यत्किंचित हेर-फेर कर अपनी रचना सृजित कर देना चाहता है। कहा गया है कि एक पृष्ठ लिखने के लिए चार सौ पृष्ठ पढ़ने की आवश्यकता है। छंद ही नहीं किसी भी प्रकार के साहित्य सृजन का उद्देश्य लेखन मात्र नहीं, भावाभिव्यक्ति तथा ज्ञान-प्रसार हो तो उसका प्रभाव पाठक पर गहरा तथा स्थाई होता है। नवपीढ़ी में मंच, यश और धन-प्राप्ति की लालसा उसे साहित्य के प्रति गंभीर नहीं होने देती। नव पीढ़ी का सौभाग्य है कि कुछ समकालिक छंदाचार्य औ छंद प्रेमी प्रयासरत हैं कि नई पीढ़ी को छंदों का शुद्ध रूप को समझा सकें ताकि वह स्तरीय सत्साहित्य का सृजन कर; अपने पुरातन साहित्य की रक्षा कर सके और अगली पीढ़ी के लिए उनका सृजन उदाहरण हो। कुछ रचनाकार इस अवसर का लाभ तत्परता से छंद सीखकर उठा भी रहे हैं। सवैया, घनाक्षरी, कवित्त, दोहा जैसे लयात्मक छंदों के प्रति रचनाकारों का ही नहीं सामान्य पाठकों और श्रोताओं का भी आकर्षण बढ़ा है। दुख है कि इसके बाद भी कई युवा रचनाकार छंद रचना को दुष्कर या कालबाह्य मानकर छंदहीन कविता का अंधानुकरण कर रहे हैं।  
उत्तर प्रदेश का पश्चिमी अंचल आरंभ से ही खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) का केंद्र है। इन क्षेत्रों में खड़ी बोली में छंद सृजन की प्रधानता हैं। कोई छंद गायन में जितना मोहक, तरल, सुगम और श्रुतिप्रिय होगा वह छंद उतना ही अधिक काव्य-पाठ के लिए प्रचलित होगा। प्रेममय-रागमय वृत्तियों की कलात्मक वाचिक अभिव्यक्ति ही काव्य है जो पाठक को आनंद, आह्लाद, करुणा और आश्चर्य से भर देती है।  किसी भी काव्य रचना में दो तत्व मुख्य होते हैं।
१. अंतर्जगत की अनुभूति और
२. काव्य लेखन का शिल्प।
जब हमारा मन आनंद की स्थूल सीमा से परे, लौकिक जगत से हटकर, लोकोत्तर आनंद पाकर एक अलग ही दुनिया में  विचरण करता है तब जिस आनंद को प्राप्त करता है; वह अभिव्यक्ति से परे होता है। काव्य की रमणीयता का अपना अलग महत्त्व है। इसके अंतर्गत ही काव्य का कथ्य, छंद, भाव और रस होता है। छंद काव्य का शरीर है, जब शरीर ही नहीं होगा तो आत्मा (कथ्य), मन (भाव) और रुचि (रस) का निवास कहाँ होगा? जितना सुगठित, समानुपातिक, सुंदर, स्वस्थ, शरीर होगा उसमें उतने ही अधिक रम्य भावों का समावेश अनुभूत होगा। रुग्ण शरीर में न स्वस्थ मन होता है; न आकर्षण। इसी तरह त्रुटिपूर्ण काव्य भी अरुचिकर प्रतीत होता है। उसके भेद, छंद, रस,  भाव,  गुण, अलंकार, दोष आदि का विवेचन काव्य साहित्य के अंतर्गत आता है। छंदशास्त्र काव्य का बाह्य आवरण अथवा वसन है। दाग रहित, स्वच्छ, सलवटरहित, भली-भाँति काटा-सिला हुआ, वसन सहज ही सबका मन आकर्षित करता है। पद्य में मात्रा एवं वर्णों की संख्या, उनके क्रम, नियमित विराम, गति-यति, प्रवाह, आदि से व्यवस्थित शब्द योजना ही छंद है। यदि इसमें व्याकरण सम्मत विधि से शब्द क्रम में कोई फेर-बदल किया जाए तो इसे दोष नहीं माना जाता। वर्णों और मात्राओं की गेय व्यवस्था ही छंद है। भाषा में शब्द, वर्ण और स्वर को सुव्यवस्थित विधि-विधान से रखना ही छंद-सृजन है। छंद से काव्य में चारुत्व और लावण्य आता है, काव्य श्रुतिप्रिय और मनोरम हो जाता है। ऋषि-मुनियों ने छंद को वेद का अंग (पैर) माना है। (पैर मानने में हीनता का भाव नहीं है। जिस प्रकार बिना पैर किसी भवन में प्रवेश नहीं किया जा सकता उसी प्रकार वेद-के प्रासाद में प्रवेश छंद को जाने बिना नहीं किया जा सकता। अर्थात वेद को पढ़ने, समझने और उसके रसामृत का पान करने के लिए छंद का समुचित ज्ञान ही एकमात्र मार्ग है।-सं.) छंदबद्ध रचना स्मृति में अधिक देर ठहरती है, आसानी से याद होती है, मन पर सुखद प्रभाव डालती है। यही कारण है कि सभी पुरातन ग्रंथ स्मृति, पुराण, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि छंदबद्ध हैं। 
छंद शास्त्र गणितीय और पूर्णत: विज्ञान सम्मत है। काव्य की अटारी छंद के गणों की नींव पर आधारित है l तीन-तीन वर्णों व भिन्न मात्रा भारों के हर गण का अपना रूप है, संकेत है, फल है और देवता है। वर्जित शब्द और दग्धाक्षरों का प्रयोग करना ही हो तो देववाची शब्द या मंगलात्मक शब्द/वर्ण से करने पर उस काव्य-दोष की निवृत्ति हो जाती है। काव्य शास्त्र में छंदों की संख्या कल्पनातीत (छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार मात्रिक छंद ९२,२७,७६३ तथा वार्णिक छंद १३, ४२, १७, ६२६ हैं जिनमें से लगभग ६१२ छंदों के उदाहरण प्राप्त हैं। -सं.) है। नए आचार्यगण आज भी नए छंदों का सृजन कर शोधपरक कार्य कर रहे हैं। (समय-समय पर देशी/विदेशी भाषाओँ के छंदों का हिन्दीकरण भी किया गया है। जैसे पंजाबी का माहिया, बृज का रास, बुंदेली का फाग, अंग्रेजी का सोनेट, जापानी  के हाइकु, तांका, बांका, स्नैर्यु आदि। -सं.)   समकालिक और भावी रचनाकारों के समक्ष चुनौती नवाविष्कृत छंदों को पढ़-समझ-सीखकर उनमें रचना करने की है। छंद का प्रमुख तत्व 'लय' है।  उच्चारण में मात्रा/वर्ण क्रम अगर व्यवस्थित हो तो काव्य के सौंदर्य में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है, अगर मात्रा/वर्ण-शुद्धता हो और गति पर ध्यान न दिया गया हो तो छंद त्रुटिपूर्ण हो जाता है:
अशुद्ध- मिले निश्छल नेह के समर्पित नैन थे जब से
शुद्ध-   नैन थे जब से मिले निश्छल समर्पित नेह के।   -आदर्शिनी  
yअशुद्धआ - बरु नरक कर भल वास ताता 
शुद्ध- बरु भल वास नरक कर ताता।     - गो. तुलसीदास 
स्पष्ट है कि छंद में गतिभंग दोष नहीं होना चाहिए। छंद में गति का महत्त्व इतना अधिक है कि गाँवों की अशिक्षित महिलाओं-पुरुषों द्वारा रचे-गाए लोकगीत भी गति व तुक से युक्त होते हैं। उनका रुदन तक एक लय और प्रवाह में होता है। सामान्यत: हर गीत, ग़ज़ल, मुक्तक आदि किसी न किसी छंद पर आधारित होते हैं।पश्चिमी उत्तर प्रदेश  में अधिक प्रचलित  कुछ मात्रिक, वार्णिक और मुक्तक छंदों की रस-धार में अवगाहन कर काव्यामृत का पान करें।  
दोहा- 
अर्द्धसम मात्रिक, द्विपदिक, चतुष्चरणिक छंद दोहा के विषम चरण १३-१३ और सम चरण ११-११ मात्राओं के होते हैं। चरणादि में एक शब्दीय जगण वर्जित तथा चरणान्त में गुरु-लघु आवश्यक होता है। उदाहरण:
नित्य नई ही वेदना, रही ह्रदय को चीर। 
तीन ताप से दग्ध है, जग का सकल शरीर।।    -आदर्शिनी
चौपाई-
सम मात्रिक, द्विपदिक, चतुष्चरणिक छंद चौपाई छंद के प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ तथा दो-दो चरणों में सम तुकांतता आवश्यक है। उदाहरण:
१. रघुपति भरत दमन रिपु लछमन। सहित अवधपुर बसहिं मुदित मन।।   -गो. तुलसीदास 
२. जन्म दिवस का पर्व मनाना। मत मिष्ठान्न अकेले खाना।। 
    मात-पिता को शीश नवाना। शुभ आशीष सभी से पाना।।     - संजीव वर्मा 'सलिल'
गीतिका-
भानु कवि के अनुसार यह चार पदों का सममात्रिक छंद है। प्रत्येक पंक्ति में २६ मात्राएँ तथा १४-१२ अथवा १२-१४ मात्राओं पर यति और अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य है।  हर पद में तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं, और चौबीसवीं मात्राएँ लघु हों तो छंद की गेयता सुन्दर प्रवाहमयी  होती है। उदाहरण:
१. शारदे के पद-कमल पर, पुष्प अर्पित कर दिया। 
    गीत तुम पर रच दिया, निज भावना का जल दिया।।    - आदर्शिनी  
२. नर्मदा को नमन कर, शिव-शिवा का वंदन किया। 
    नर्मदा-जल अमिय सम, कर पान हुलसाया हिया।।       - संजीव वर्मा 'सलिल'      
हरिगीतिका:
यह भी गीतिका की तरह चार पदों का सममात्रिक छंद है।  प्रत्येक पंक्ति में २८ मात्राएँ तथा १६-१४ पर मात्राओं पर यति और अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य है।  इसके हर पद में पाँचवी, बारहवीं, उन्नीसवीं और छब्बीसवीं  मात्राएँ लघु होना विशेषता है। हरिगीतिका शब्द की चार आवृत्तियों ४ x हरिगीतिका या ४ (११२१२) से यह छंद बनता है। उदाहरण:
१. 'हरिगीतिका' यदि चार बार मिला-सुना कर गाइए।
    यति सोलवीं फिर चौदवीं पर हो, सदा मुसकाइए।।      - आदर्शिनी   
२. बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में। 
    रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में।।     - संजीव वर्मा 'सलिल'
कुण्डलिया:
६ चरणों वाले इस छंद में पहला दो चरण दोहा और चार चरण रोला के होते हैं।  दोहा व रोला के प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इस छंद का श्री गणेश जिस शब्द या शब्द समूह से होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द समूह से करना अनिवार्य है। रोला की ११वीं मात्रा लघु होती हैं। उदाहरण: 
आए मेरे गाँव में, ये कैसे भूचाल?                                                                                                                              खुरपीवाले हाथ ने, ली बंदूक सँभाल।। 
ली बंदूक सँभाल, अदावत हँसती-गाती। 
रोज सुहानी भोर, अदालत चलकर जाती।।
लड़े मेढ़ से खेत, लड़ रहे माँ के जाए।
कैसे-कैसे हाय!, नए परिवर्तन आए।।   डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘ यायावर ‘
ताटंक (चौबोला):
इसके प्रत्येक पद में ३० मात्राएँ, १६-१४ पर यति  व पदांत में तीन गुरु अनिवार्य हैं।  उदाहरण:
१. सोलह-चौदह यतिमय दो पद, 'मगण' अंत में आया हो
    रचें छंद 'ताटंक' झूम ज्यों, 'चौबोला' मिल गाया हो।        - संजीव वर्मा 'सलिल'     
२. देख झाँककर भीतर अपने, उत्तर खुद मिल जाएगा। 
    बहुत जरूरी खुलनी तुझसे, भक्तिभाव की मधुशाला।।      - राजीव प्रखर
भुजंगप्रपात: 
'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति', भुजंगप्रयात  चार भगण ४ x (१२२) से बना छंद है l १, ६, ११ और १६ पर लघु मात्राएँ होती हैं l वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय, मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद।  उदाहरण: 
१. सितमगर है मुझको रुलाता बहुत है / मगर जान से भी वो प्यारा बहुत है   -आदर्शिनी
२. कहो आज काहे पुकारा मुझे है​? / 
छिपी हो कहाँ, क्यों गुहारा मुझे है?​
    पड़ा था अकेला, सहारा दिया क्यों- / न बोला-बताया, निहारा मुझे है।      - संजीव वर्मा 'सलिल'
विधाता छंद – 
इसमें २८ मात्राएँ और १४-१४ पर यति हैl १, ८, १५ और २२वीं मात्राएँ लघु होतीं हैंl (अथाष्टि जातीय वार्णिक छंद, यौगिक जातीय मात्रिक विधाता छंद, मापनी १२२२ १२२२ १२२२ १२२२, बह्र  मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।-सं.) उदाहरण:
    विधाता को / नमन कर ले, प्रयासों को / गगन कर ले 
    रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले - संजीव वर्मा 'सलिल'       
    संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७, सिद्धि = ८, तिथि = १५ 
स्रग्विणि छंद:
चार रगण ४ x (२१२) से बना मूल स्रग्विणि वर्णिक होता है l गुरु के स्थान पर दो लघु लगने पर वाचिक स्राग्विणि होता है l उदाहरण: 
मूल: साधना वंदना प्रार्थना तो करो / कामना याचना वासना को तजो                     - संजीव वर्मा 'सलिल'  
वाचिक: कुछ ठहर कर चलीं कुछ झिझक कर चलीं / लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं  -आदर्शिनी
वाचिक राधा:
रगण, तगण, मगण, यगण+२ (२१२, २२१, २२२, १२२, २) २३ मात्राओं से बना वाचिक राधा अतिजगती जातीय आधार छंद हैl उदाहरण:
वारि की बूँदें हुईं हैं घुँघरुओं के स्वर / आज चंदा कैद में है चाँदनी के घर  -आदर्शिनी
समानिका:
रगण,जगण+२ (२१२,१२१,२) ११ मात्राओं, ७ वर्णों से बना समानिका छंद उष्णिक जातीय छंद पर आधारित बह्र बहर फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं  है। उदाहरण: 
१. सत्य को न मारना  / झूठ से न हारना 
    गैर को न पूजना  / दीन से न भागना 
    बात आत्म की सुनें / सूर्य आप भी बनें  - संजीव वर्मा 'सलिल'
२. जाग जाग भोर है / पक्षियों का शोर है
    दंभ को मरोड़ दे / द्वंद आज छोड़ दे    -डॉ. वी. पी. भ्रमर
चामर:
रगण, जगण, रगण, जगण, रगण (२१२, १२१, २१२, १२१, २१२) उदाहरण:
वर्ष आज तो नया सभी प्रसन्न हो रहे / मातु सिंहवाहिनी स्वरूप पूज भी रहे  -कौशल कुमार आस
पंचचामर:
जगण, रगण, जगण, रगण, जगण + गुरु  (१२१, २१२, १२१, २१२ १२१ २) उदाहरण:
१. जवान या किसान ही महान है न भूलिए / उठाव या चढ़ाव ही न लक्ष्य मान झूलिए      - संजीव वर्मा 'सलिल'
२. किरण को ओढ़ दूर्वा हुई है और मखमली / गुलाल गाल हो गए सजा के ओस जब चली  -आदर्शिनी 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश उपरोक्त कुछ छंदों के अतिरिक्त सवैया, कवित्त और घनाक्षरी भी बहुत लोकप्रिय छंद है l
मत्तयगयंद सवैया:
यह सात वर्णों का छंद है इसमें ७ भगण और दो गुरु होते हैं l उदाहरण:
भोर भये जब आँख खुली तब देखत हूँ हर सू अँधियारा -आदर्शिनी
दुर्मिल सवैया:
इसमें २४ वर्ण होते हैं जो आठ सगणों (११२) से बनते हैं l अंत में सम तुकांत होता है l उदाहरण:
झकझोर हवा सहकार गिरे ऋतु आज लुभावन है गुइयाँ -आदर्शिनी
किरीट सवैया:
ये आठ भगणों (२११) से बना २१ वर्णीय वर्णिक छंद है l उदाहरण:
शोर उठा सब ओर अरे यह कौन दहा बनके अति पावक  -आदर्शिनी
सुमुखी सवैया:
ये छंद सात जगण ७ (१२१) +२ में लघु गुरु जोड़ने से बनता है l उदाहरण:
अनन्य हिमांशु सदा तरुणीजन की परिरम्भण-शीतलता -अज्ञात
गंगोदक सवैया:
८ रगण ८(राजभा) से बना ये आधार छंद है l उदाहरण: 
जिंदगी से नहीं है गिला है मुझे, जो न चाहा सभी तो मिला है मुझे  -आदर्शिनी
मनहर घनाक्षरी:
ये ३१ वर्णों का छंद है l ८,८,८,७ पर यति होती है l उदाहरण:
गगन ने खोले द्वार, संदली चली बयार, डारी-डारी, क्यारी-क्यारी मतवारी हो गई  - आदर्शिनी
रूप घनाक्षरी:
ये ३२ वर्णों का छंद है ८,८,८,८, वर्ण पर यति और अंत में गुरु लघु होता है उदहारण:
सोखि लीन्हों नीर कूप सरिता तडागन को, पाटल कदम्ब चम्पकादितरु जारे देत -अज्ञात
देव घनाक्षरी:
ये ३३ वर्णों का छंद है अंत में ३३ लघु l उदहारण:
तपन के तेज से लो, सिसक किसान उठे, वसुधा बेहाल हिय, जाता है दरक-दरक  -आनंद श्रीधर  

=====================

साहित्य त्रिवेणी ४ डा .प्रवीण कुमार श्रीवास्तव छंद चिकित्सा: प्रयोग और प्रभाव

                                                            ४. छंद चिकित्सा: प्रयोग और प्रभाव 
डा .प्रवीण कुमार श्रीवास्तव
*
परिचय: जन्म: एक जुलाई १९६१। आत्मज: श्रीमती सुनैना देवी-स्व . श्री प्रेम चन्द्र प्रसाद वर्मा। शिक्षा: एम.बी.बी.एस., डी. सी.पी. (पैथोलोजिस्ट)। प्रकाशित कथा संग्रह: कथा अंजलि, पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। 
***
सामान्यत: छंद और चिकित्सा विज्ञान में कोई अंतर्संबंध नहीं दिखता किन्तु सत्य इससे सर्वथा विपरीत है। आम जन को यह जानकर आश्चर्य होगा कि छंद और चिकित्सा विज्ञान में अंतरंग, अभिन्न और विशिष्ट संबंध है। छंद-चिकित्सा एक सुविचारित, शोधपरक संकल्पना है। इस क्षेत्र में अनेक प्रयोग, सर्वेक्षण और मूल्यांकन हो चुके हैं जिनमें ध्वनि अर्थात छंद और संगीत के मिश्रण का विशिष्ट, स्थाई और असाधारण प्रभाव कई गंभीर रोगों से ग्रस्त रोगियों पर होते हुए देखा गया है। छंद-चिकित्सा के अंतर्गत छंद के गायन की बारंबार आवृत्ति कर देखा जाता है कि रोगी के स्वास्थ्य और व्यवहार पर क्या प्रभाव हो रहा है? ध्वनि चिकित्सा छंदों तथा वाद्यों के विशिष्ट मिश्रित प्रयोग से निर्गमित ध्वनि तरंगों का लक्ष्य के तन-मन तथा मस्तिष्क पर हो रहे प्रभावों का गहन व सूक्ष्म अध्ययन कर की जाती है। प्रयोगों में पाया गया है कि ऐसे गंभीर रोगी जिनका उपचार करने में अन्य चिकित्सा प्रणालियाँ सफल नहीं हो सकीं उन पर ध्वनि-उपचार के परिणाम विस्मयजनक, त्वरित तथा स्थाई हुए। ऐसे प्रकरणों में छंदों का प्रयोग रोगी के मस्तिष्क पर तरंगाघात कर उसकी मानसिक उद्विग्नता का शमन कर उसे शांत करने में सफल हुआ। छंदों का प्रयोग संगीत की भौतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक अभिव्यक्ति के माध्यम से स्वास्थ्य में सुधार करता है।

छंद-चिकित्सा एक कलात्मक चिकित्सा-पद्धति है , जिसके द्वारा यह कल्पना की जाती है कि व्यक्ति का रोग उसके शरीर में ऊर्जा के असंतुलन से उत्पन्न हुआ है और इन ऊर्जाओं को छंद या संगीत के माध्यम से शांत व संतुलित किया जाए तो स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।  चिकित्सक रोगी की मनोदशा का अनुमान कर उसके मस्तिष्क को शुख-शांति की अनुबूती करने वाले छंद या संगीत की अभिव्यक्ति से रोगी में स्वस्थ्य होने की इच्छाशक्ति जाग्रत करता है।

आयुर्वेद में देह धारण की तीन धातुएँ बताई गयी हैं: वात, पित तथा कफ। इन तीन धातुओं का संतुलन बनाये रखने के लिए शब्द शक्ति, मंत्र शक्ति और छंद (गीत) शक्ति का भी प्रयोग होता रहा है। ऋषियों–मुनियों द्वारा संगीत व मंत्र साधना द्वारा अनेक सिद्धि व चमत्कारों का अधिकार प्राप्त करना संगीत के प्रभाव को दर्शाता है। संगीतार्षी तुम्बरा प्रथम संगीत चिकित्सक हैं जिन्होंने  अपनी पुस्तक 'संगीत स्वरामृत' में उल्लेख किया है कि ऊँची और असमान ध्वनि का वात पर, गंभीर  व स्थिर ध्वनि का पित पर तथा कोमल ध्वनि का कफ के गुणों पर प्रभाव पड़ता है यदि सांगीतिक छंद ध्वनियों से इन तीनों का संतुलन कर लिया जाय तो बीमारी की सम्भावना ख़त्म हो जाती है। कुछ रोगों पर गीत-संगीत के प्रभावों पर एक दृष्टि डालें:
ह्रदय रोग:
इस रोग में राग दरबारी व् राग सारंग से संबंधित गीत सुनाना लाभदायक है। इनसे सम्बंधित चित्रपटीय गीत निम्न हैं: तोरा मन दर्पण कहलाये (काजल),  राधिके तूने बंसरी चुरायी (बेटी-बेटा),  झनक-झनक तोरी बजे पायलिया (मेरे हुजूर)
, बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम (साजन),  जादूगर सइयाँ छोड़ मोरी (फागुन), ओ दुनिया के रखवाले (बैजू बावरा), मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए (मुगले आज़म) आदि। ह्रदय रोगियों को गायत्री मंत्र के श्रवण व जाप से लाभ होता है। 
अनिद्रा:
इस रोग के होने पर राग भैरवी राग मोहनी सुनना लाभकारी होता है, जिनके प्रमुख गीत इस प्रकार हैं: रात भर उनकी याद आती रही (गमन), नाचे मन मोरा (कोहिनूर), मीठे-मीठे बोल बोले पायलिया (सितारा), तू गंगा की मौज मै यमुना (बैजू बावरा), सावरे सावरे (अनुराधा), चिंगारी कोई भड़के (अमर प्रेम) छम छम बजे रे पायलिया (घूँघट ),  झूमती चली हवा (संगीत सम्राट तानसेन),  कुहू कुहू बोले रे कोयलिया (सुवर्ण सुंदरी) आदि।  
अम्लाधिक्य (एसिडिटी):
इस रोग में राग खमाज सुनने से लाभ मिलता है।  इस राग के प्रमुख गीत इस प्रकार हैं:  ओ रब्बा कोई तो बताए प्यार (संगीत), आयो कहाँ से घनश्याम (बुड्ढा मिल गया), छूकर मेरे मन को (याराना), कैसे बीते दिन कैसे बीते रतिया (ठुमरी अनुराधा), तकदीर का फसाना गाकर किसे सुनाएँ (सेहरा), रहते थे कभी जिनके दिल मे(ममता), हमने तुमसे प्यार किया है इतना (दूल्हा-दुल्हन), तुम कमसिन हो नादां हो (आयी मिलन की बेला) आदि। 
कमजोरी: इस रोग के होने पर राग जय जयवन्ती सुनना लाभकारी होता है। प्रमुख गीत हैं: मन मोहना बड़े झूठे (सीमा), बैरन नींद न आये (चाचा जिंदाबाद), मोहब्बत की राहों पे चलना संभल के (उड़न खटोला), साज हो तुम आवाज हूँ मैं (चन्द्रगुप्त), जिंदगी आज मेरे नाम से शर्माती है (दिल दिया दर्द लिया), तुम्हें जो भी देख लेगा (बीस साल बाद) आदि।  
याददाश्त:
याददाश्त कम होने पर राग शिव रंजनी सुनने से लाभ मिलता है। इस राग पर आधारित प्रमुख गीत हैं: ना किसी की आँख का नूर हूँ (लालकिला), मेरे नयना (महबूबा), दिल के झरोखे से तुझको (ब्रह्मचारी), ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम (संगम), जीता था जिसके (दिलवाले), जाने कहाँ गए वो दिन (मेरा नाम जोकर) आदि।
रक्ताल्पता (खून की कमी):
राग पीलू से सम्बंधित गीत सुनना चाहिए:  आज सोचा तो आँसू भर आए (हँसते जख्म), नदिया किनारे (अभिमान),  खाली हाथ शाम आयी है (इजाजत), तेरे बिन सुने नयन हमारे (लता रफी), मैंने रंग ली चुनरिया (दुल्हन एक रात की),  मोरे सइयाँ जी उतरेंगे पार(उड़न खटोला) आदि।
मनोरोग:
राग बिहाग या राग मधुमती सुनना लाभदायक होता है। प्रमुख गीत: तेरे प्यार में दिलदार (मेरे महबूब), पिया बावरी (खूबसूरत पुरानी), दिल जो न कह सका (भीगी रात), तुम तो प्यार हो (सेहरा), मेरे सुर और तेरे गीत (गूँज उठी शहनाई)
मतवारी नार ठुमक-ठुमक चली आए (आम्रपाली), सखी रे तन उलझे मन डोले (चित्रलेखा) आदि। 
उच्च रक्तचाप:
शास्त्रीय रागों में राग भूपाली को विलंबित या तीव्र गति से सुना जा सकता है।  ऊँचे रक्त चाप में सुनने योग्य कुछ प्रमुख गीत हैं: चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश (भाभी), ज्योति कलश छलके (भाभी की चूड़ियाँ), चलो दिलदार चलो (पाकीजा), नील गगन के तले (हमराज़) आदि। 
निम्न रक्तचाप:
ओ नींद न मुझको आये (पोस्ट बॉक्स ०९९९), बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना (जिस देश में गंगा बहती है), जब डाल-डाल पर (सिकंदरे आज़म), पंख होते तो उड़ आती रे (सेहरा) आदि।  
अस्थमा:
भक्ति पर आधारित गीत सुनने व गाने से लाभ होता है। राग मालकोश व् राग ललित सुनना चाहिए।  प्रमुख गीत: तू छुपी है कहाँ (नवरंग), मन तड़पत हरि दर्शन को आज (बैजू बावरा), आधा है चंद्रमा (नवरंग), एक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताज महल (लीडर) आदि। 
सिरदर्द:
राग भैरव सुनाना लाभ दायक है।  प्रमुख गीत: मोहे भूल गए साँवरिया (बैजू बावरा), राम तेरी गंगा मैली (शीर्षक), पूछो न कैसे रैन बिताई (तेरी सूरत मेरी आँखें), सोलह बरस की बाली उमर को सलाम (एक दूजे के लिए)
भय:
लोरी में एक तरह की कशिश होती है। बच्चा सबसे अधिक माँ की आवाज पहचानता है। लोरी के रूप में वह जो आवाज सुनता है उससे खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। लोरी सुनकर डर समाप्त हो जाता है। लोरी से मष्तिस्क का विकास होता है, दिमाग की कल्पनाशीलता तेज होती है। यही आगे चल कर बड़े बड़े अविष्कारों , कलाकृतियों और साहित्यिक रचनाओं की आधारशिला साबित होती है। 
एकाग्रता का अभाव:
गायत्री मंत्र 'ॐ भूर्भुव: स्व: त्त्सवितुर्वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात ॐ'  का जप छात्रों को सबसे ज्यादा लाभ पहुँचाता किसी छात्र का पढ़ने में मन नहीं लगता है तो रोजाना गायत्री मंत्र का जप करे। गायत्री मंत्र के नियमित जप से गंभीर से गंभीर व्याधियों का शमन होते देखा गया है।
तनाव और अवसाद (स्ट्रेस-डिप्रेसन):
गायत्री मंत्र के जप से स्ट्रेस और डिप्रेसन दूर होता है। जो  बातों को जरूरत से ज्यादा सोचता है, वह गायत्री मंत्र का जप करे। गायत्री मन्त्र से ऊर्जा का प्रवाह होता है, साथ ही प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती है।
श्वास रोग:
गायत्री मंत्र के नियमित पाठ से ऑक्सीजन का प्रवाह बढ़ता है,  साँस संबधी रोग दमा में भी आराम मिलता है।
त्वचा रोग:
गायत्री मंत्र का नियत समय पर निर्धारित संख्या में जप करने से त्वचा में निखार आता है। 
महामृत्यंजय मंत्र के लाभ:
यह मंत्र न केवल मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाता है बल्कि अटल मृत्यु को भी टाल सकता है।  छंदों के माध्यम से चिकित्सा पद्वति मे न केवल सुधार लाया जा सकता है बल्कि रोगी को शीघ्र स्वस्थ किया जा सकता है। हर अच्छे अस्पताल में छंद-चिकित्सा का न केवल प्रावधान होना चाहिए अपितु प्रयोगों को सूचीबद्ध कर उन पर संगोष्ठियाँ कर अनुभवों का आदान-प्रदान किया जाना चाहिए।  
संदर्भ: १. Music therapy– wikipedia, .२. Music in medical treatment. ३. Gayatri mantra in medical therapy .
४. Mahamritunjay mantra in medical therapy, ५. Lullabies- Wikipedia. ६. Raga therapy –raga music therapy.
***
लेखक संपर्क: ५०१, चर्च रोड सिविल लाइन्स सीतापुर उ. प्र. ।

मंगलवार, 29 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ८ अरुण कुमार निगम -छतीसगढ़ी भाषा में छंद की विकास यात्रा

८. छत्तीसगढ़ी भाषा में छंद की विकास यात्रा
अरुण कुमार निगम
परिचय: जन्म ४.८.१९५६ दुर्ग, छत्तीसगढ़। आत्मज: स्व. सुशीला-स्व. कोदूराम “दलित”। जीवन संगिनी: श्रीमती सपना निगम। लेखन विधा: छत्तीसगढ़ी व हिंदी में छंद, कविता, गीत , बाल गीत, गजल, प्रकाशित: शब्द गठरिया बाँध (हिंदी छंद संग्रह) , छंद के छ ( छत्तीसगढ़ी छंद संग्रह, विधान सहित) , चैत की चंदनिया (हिंदी कविता-गीत संग्रह), संप्रति: से. नि. मुख्य प्रबंधक भारतीय स्टेट बैंक, संपर्क: एच. आई. जी. १/२४ , आदित्य नगर, दुर्ग ४९१००१, चलभाष: ८३१९९ १५१६८, ९९०७१ ७४३३४, ई मेल: arun.nigam56@gmail.com।
*
मान्यता है कि विश्व की प्रथम कविता महाकवि वाल्मीकि के मुख से प्रणयरत क्रौंच पक्षी का वध देखकर अनुष्टुप छंद के रूप में जन्मी थी। छत्तीसगढ़ में भी मान्यता है कि वाल्मीकि का आश्रम ग्राम तुरतुरिया में स्थित था, अतः छत्तीसगढ़ की माटी में ही छंद ने जन्म लिया। लोक मान्यता है कि महाकवि कालिदास ने अपने अमर महाकाव्य मेघदूत की रचना छत्तीसगढ़ के सरगुजा स्थित रामगिरि पर्वत पर की थी। इसी पर्वत पर विश्व की प्रथम नाट्यशाला होने के प्रमाण हैं। भारतीय छंदों का विधान पंडित जगन्नाथ प्रसाद भानु के ग्रंथ 'छंद प्रभाकर' में मिलता है। यह भारत में हिंदी छंद विधान का प्रामाणिक ग्रंथ मान्य है। इस प्रकार छंदों से छत्तीसगढ़ का गहरा संबंध है। विद्वानों द्वारा छत्तीसगढ़ी में काव्य सृजन का प्रारंभ लगभग एक हजार वर्ष पुराना है किंतु प्राचीन काल का लिखित साहित्य बहुत ही कम उपलब्ध है, तथापि वाचिक परंपरा से वर्तमान तक पहुँचा है । डॉ. नरेंद्र वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के इन एक हजार वर्षों को तीन युगों में बाँटा है- सन् १००० से सन् १५०० तक गाथा युग, सन् १५०० से सन् १९०० तक भक्ति युग और सन् १९०० से आज तक आधुनिक युग। गाथा युग से अहिमन गाथा, केवला गाथा, फूलबासन गाथा, पंडवानी आदि हैं। भक्ति युग में कबीरदास जी के शिष्य धरमदास को छत्तीसगढ़ी का आदिकवि माना गया है। पंडित जगन्नाथप्रसाद भानु, पंडित सुंदरलाल शर्मा , नरसिंह दास, शुकलाल प्रसाद पांडेय, कपिलनाथ मिश्रा, कपिलनाथ कश्यप आदि कवियों से लेकर जनकवि कोदूराम 'दलित' तक छत्तीसगढ़ी में छंद पल्लवित-पुष्पित होता रहा। छत्तीसगढ़ी में कुछ कवियों ने छंद को आधार मानकर रचनाएँ कीं तो बहुतेरे कवियों ने लय को आधार मान कर गीत लिखे जो संयोग से कुछ छंदों के विधान के अनुरूप बन गए। छत्तीसगढ़ के छंद्कारों की कुछ छंदबद्ध रचनाएँ –
कवि धरमदास
कोई लादै काँसा पीतल, कोई लौंग सुपारी॥
हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी॥ -सार छंद
पंडित सुंदरलाल शर्मा
खरिका में लरिका लिए, देखेंव नंदकिशोर
चरखा सरिखा तभिच ले, गिंजरत हे मन मोर।। -दोहा
सुनत बात मुसकान मोहन| हम फोकट कहवैया नोहन।।
केरा जाँघ नख्ख हे मोती| कहौ बाँचिहौं कोनो कोती।।
कँवल बरोबर हाथ देखाथै| छाती हँड़ुला सोन लजाथै।।
बोड़री समुंद हवै पँड़की गर| कुँदरु होंठ दाँत दरमी-थर।। -चौपाई
दिन रात मोला हइरान करै। दुखदाई ये दाई जवानी जरै।।
मैं गोई अब कोन उपाय करौं। के कहूँ दहरा बिच बूड़ मरौं।। -त्रोटक छन्द
जन्मांध कवि नरसिंह दास (ग्राम घिवरा बिलासपुर में १९२७ में जन्म) ने सवैया, कवित्त, दोहे, चौपाई आदि रचे।
साँप के कुंडल कंकण साँप के साँप जनेऊ रहे लपटाई
साँप के हार हे साँप लपेटे, है साँप के पाग जटा शिर छाई।।
नरसिंह दास देखो सखि रे, बर बाउर हे बेला चढ़ि आई।
कोऊ सखी कहे कइसे हे छी:, कुछ ढंग नहीं सीख हावे छी: दाई।। -सवैया
शुकलाल प्रसाद पाण्डे
मुरछा ले झट जाग के, दुनों पुरुल पोटार
कलप कलप रोये लगिस, साहुन हर बम्फार।। -दोहा
मोर कन्हैया अउ बलदाऊ मोर राम अउ लछिमन।
मोर अभागन के मुँहपोंछन, मोर परान रतन धन।। -चौबोला
जब ले मिलगै ओ लमगोड़ी। मोर मोल होगे दू कौड़ी।।
मया दया भुरिया के सरगै। सबो प्रीति आगी मा जरगै।। -चौपाई
१७१७ ई. में जन्मे गिरिधर कविराय के बाद कुण्डलिया छंद लुप्त सा हो गया था। हिंदी में कुण्डलिया लिखनेवालों का अकाल सा हो गया था। १९वीं सदी के आसपास पठान सुल्तान, जुल्फिकार खाँ, पंडित अम्बिकादत्त व्यास, बाबा सुमेर सिंह, भारतेंदु हरिश्चन्द्र आदि कवियों ने सुप्रसिद्ध कवियों के दोहा के भाव को विस्तार देते हुए रोला छंद जोड़कर कुण्डलिया लिखीं किंतु उनका अपना योगदान रोला के रूप में ही रहा। तत्पश्चात हास्य कवि काका हाथरसी ने छः पदों की कविताएँ की और बहुत मशहूर हुए किन्तु वे कुण्डलिया नहीं बल्कि काका की फुलझड़ियाँ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। उनकी छ: पदीय फुलझड़ियाँ देखने-सुनने में कुण्डलिया की तरह थीं किन्तु कुण्डलिया का विधान उनमें नहीं था। मई सन् १९६७ में छत्तीसगढ़ के जनकवि कोदूराम 'दलित' का कुण्डलिया छन्दों का संग्रह ,सियानी गोठ, छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित हुआ। लोकोपयोगी विषय वस्तु के कारण यह कुण्डलिया संग्रह छत्तीसगढ़ी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ और दलित जी को छत्तीसगढ़ का गिरिधर कविराय माना गया। गिरधर कविराय अपनी नीतिपरक कुण्डलिया के लिए प्रसिद्ध हैं तो कोदूराम दलित जी के कुण्डलिया छन्दों में नीति के अलावा भारत के नव निर्माण, सरकारी योजना, विज्ञान, हास्य-व्यंग्य, देश-प्रेम, छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति जैसे अनेक रंगों के दर्शन होते हैं। दलित जी के नीतिपरक कुण्डलिया -
कतरनी अउ सूजी
काटय - छाँटय कतरनी, सूजी सीयत जाय
सहय अनादर कतरनी , सूजी आदर पाय
सूजी आदर पाय , रखय दरजी पगड़ी मां
अउर कतरनी ला चपकय वो गोड़ तरी-मां
फल पाथयँ उन वइसन, जइसन करथयँ करनी
सूजी सीयय, काटत - छाँटत जाय कतरनी।
दलित जी ने सामाजिक बुराई, छत्तीसगढ़ की गरिमा और आहार की महिमा औद्योगिक तीर्थ भिलाई को कुण्डलिया की विषय वस्तु बनाया। साठ के दशक में हमारा देश निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था। उस अवधि में सरकारी योजनाओं को सफल करने हेतु परिवार नियोजन पँचसाला योजना पर कुण्डलिया लिखीं। लोकतंत्र में वोट की महत्ता और चुनाव के प्रक्रिया बताते दलित जी ने कुण्डलिया 'वोट और राजा' शीर्षक से लिखीं। लोकतंत्र में प्रिंट मीडिया का भारी महत्व है। अखबार की भूमिका के लिए उनके विचार 'पेपर' नामक कुण्डलिया में देखे जा सकते हैं। मार्च १९१० को दुर्ग जिले के ग्राम टिकरी में जन्मे कवि कोदूराम 'दलित' जी प्रगतिशील विचारधारा के थे और हर किसम के परिवर्तन को स्वीकार करते थे। विज्ञान के समर्थन में विज्ञान, अणु, बिजली को विषय वस्तु बनाकर कुण्डलिया लिखीं | दलित जी कवि सम्मेलन के मंच में हास्य व्यंग्य के कवि के रूप में विख्यात थे । उनके कुण्डलिया छंदों में शिष्ट हास्य भी देखने को मिलता है -
खटारा साइकिल -
अरे खटारा साइकिल, निच्चट गए बुढ़ाय
बेचे बर ले जाव तो, कोन्हों नहीं बिसाय
कोन्हों नहीं बिसाय, खियागें सब पुरजा मन
सुधरइया मन घलो हार खागें सब्बो झन
लगिस जंग अउ उड़िस रंग, सिकुड़िस तन सारा
पुरगे मूँड़ा तोर, साइकिल अरे खटारा।।
जनकवि कोदूराम 'दलित' जी के काव्य में कुण्डलिया के अलावा दोहा, रोला, सोरठा, उल्लाला, सार, सरसी, चौपई, चौपाई, ताटंक, कुकुभ, लावणी, श्रृंगार, पद्धरि, पद पादाकुलक, घनाक्षरी आदि छंद होते थे। उनके समकालीन कवियों में इतने छंदों में छत्तीसगढ़ी रचनाएँ देखने में नहीं आईं। दलित जी के बाद सत्तर के दशक में गायक-गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के गीतों में भी दोहा, घनाक्षरी, आल्हा, सवैया आदि छंद देखने में आए। उनके लय आधारित गीत छंदों के विधान के करीब हैं। मस्तुरिया जी के खंड काव्य 'सोनाखान के आगी' के बहुत से पद आल्हा छंद के समान हैं। सन् १९६७ में दलित जी के निधन के पश्चात छत्तीसगढ़ी में छंदबद्ध रचनाएँ लगभग शून्य सी हो गईं। सन् २०१५ में दलित जी के सुपुत्र अरुण कुमार निगम ने छत्तीसगढ़ी में 'छंद के छ' किताब में लगभग पचास छंदों का विधान छत्तीसगढ़ी भाषा में सोदाहरण समझाया। सन् २०१६ से वाट्सएप पर 'छंद के छ' नाम से ही ऑनलाइन कक्षाओं द्वारा अरुण कुमार निगम तथा नवागढ़ (बेमेतरा) के कवि रमेश कुमार सिंह चौहान छत्तीसगढ़ में छंद लेखन के गुर सिखा रहे हैं। सन् २०१५ में अरुण कुमार निगम की पुस्तक 'छन्द के छ' तथा रमेश कुमार सिंह चौहान के तीन छंद संग्रह आए। आँखी रहिके अंधरा(कुण्डलिया), दोहा के रंग जी में दोहा के अतिरिक्त सिंहावलोकनी दोहा, दोहा गीत, दोहा ददरिया, दोहा मुक्तक आदि तथा सन् २०१७ में 'छंद चालीसा' में चालीस छंद विधान सहित संग्रहित हैं | सन् २०१६ में बिलासपुर के कवि बुधराम यादव की दोहा सतसई ';चकमक चिनगारी भरे'; प्रकाशित हुई जिसमें ७०७ छत्तीसगढ़ी दोहे संग्रहित हैं। वर्ष २०१८में ग्राम हथबंद के कवि चोवाराम वर्मा “बादल” के छंद संग्रह “छंद बिरवा” में विभिन्न छंद विधान सहित दिए गए हैं | छंद के छ की ऑनलाइन कक्षाओं में साधनारत कविगण दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया, छप्पय, अमृत ध्वनि, सार, सरसी, आल्हा, ताटंक, कुकुभ, लावणी, रूपमाला, विष्णुपद, शंकर, शोभन, उल्लाला, उल्लाल, गीतिका, हरिगीतिका, महाभुजंग प्रयात, शक्ति, विधाता, बरवै, कज्जल, घनाक्षरी, चौपाई, चौपई, त्रिभंगी, सवैया छंद में भुजंगप्रयात, बागीश्वरी, मंदारमाला, सर्वगामी, आभार, गंगोदक, सुमुखी, मुक्ताहरा, वाम, लवंगलता, मदिरा, मत्तगयन्द, चकोर, किरीट, अरसात, मोद, दुर्मिल, सुंदरी, अरविन्द, सुखी सवैया आदि छंद सीख और लिख रहे हैं | इन सभी छंदों का संग्रह “छंद खजाना” नामक ब्लॉग में है, जिसे गूगल पर पढ़ा जा सकता है |
वर्तमान दौर के कविगण शकुन्तला शर्मा, सूर्यकांत गुप्ता, हेमलाल साहू, चोवाराम वर्मा ';बादल', श्रीमती आशा देशमुख, श्रीमती वसंती वर्मा, कन्हैया लाल साहू “अमित” , गजानंद गजानंद पात्रे, अतनु जोगी, सुखन जोगी, जीतेंद्र वर्मा खैरझिटिया, अजय अमृतांशु, मोहन लाल वर्मा, सुखदेव सिंह अहिलेश्वर 'अँजोर', ज्ञानुदास मानिकपुरी, रश्मि रामेश्वर गुप्ता, दुर्गाशंकर इजारदार,बलराम चंद्राकर, मोहान कुमार निषाद, राजेश निषाद, ललित साहू “जखमी”, संतोष फरिकार,जगदीश साहू, कौशल कुमार साहू, पोखन जायसवाल, आशा आजाद , श्रीमती ज्योति गभेल, श्रीमती नीलम जायसवाल, मथुरा प्रसाद वर्मा, बोधन राम निषादराज, पुरुषोत्तम ठेठवार, ईश्वरलाल साहू, कुलदीप सिन्हा. गुमान प्रसाद साहू, दीनदयाल टंडन, बालक दास, महेंद्र देवांगन माटी, राजकिशोर धीरही, राम कुमार साहू, राम कुमार चंद्रवंशी, सुरेश पैगवार, हेमंत कुमार मानिकपुरी \ स्थानाभाव के कारन इन सबकी प्रतिनिधि छंदबद्ध कविताएँ यहाँ दे पाना संभव नहीं है |
===========

साहित्य त्रिवेणी ९ छत्तीसगढ़ी साहित्य में काव्य शिल्प-छंद -रमेशकुमार सिंह चौहान

९. छत्तीसगढ़ी काव्य में छंद वैविध्य  
-रमेशकुमार सिंह चौहान

संपर्क: मिश्रापारा, नवागढ़, जिला-बेमेतरा ४९१३३७ छत्तीसगढ़, चलभाष: ९९७७०६९५४५, ८८३९०२४८७१। 
*
श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘१ लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परंपरा का प्रारंभ हो चुका था ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखायें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापि विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है।  छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने हिंदी को ‘छंद प्रभाकर‘ एवं 'काव्य प्रभाकर' जैसे कालजयी ग्रंथ भेंट किये हैं।  यहाँ  के साहित्य और लोक साहित्य में छंद का स्वर अंतर्निहित है।
छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें। भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचीन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंश, खड़ी बोली से होते हुये आज की हिंदी एवं आनुषंगिक बोलियों में क्रमोत्तर विकसित होती रही। हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग से कौन परिचित नही है।  इस दौर में अधिकाधिक छान्दस काव्य साहित्य का सृजन हुआ। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह विदित है कि छत्तीसगढ़ी नाचा, रहस, रामलीला, कृष्ण लीला के मंचन में छांदिक रचनाओं की प्रस्तुति का प्रचलन रहा है । 
डॉ. नरेंद्रदेव वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में छत्तीसगढ़ी साहित्य को गाथा युग (सन् १००० से १५००), भक्ति युग (१५०० से १९००) एवं आधुनिक युग (१९०० से अब तक) में विभाजित किया है ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य लिखित से अधिक वाचिक  परंपरा से आगे आया। उस जमाने में छापाखाने की कमी इसका वजह हो सकती है। ये कवितायें अपनी गेयता और लयबद्धता के कारण वाचिक रूप से आगे बढ़ती गईं। गाथा काल की ‘अहिमन रानी‘, ‘केवला रानी‘ ‘फुलबासन‘, पण्ड़वानी‘ आदि वाचिक परंपरा की धरोहर के रूप में चिरस्थाई हैं । ये रचनायें अनुशासन के डोर में बंधे छंद के आलोक से प्रदीप्तमान रहीं। भक्ति काल में कबीरदास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत १५२०) धनी धर्मदास छत्तीसगढ़ी के आदि कवि हैं, जिनके पदों में छंद विधा का पुट मिलता है:
ये धट भीतर वधिक बसत हे  (16 मात्रा) / दिये लोग की ठाठी । (12 मात्रा)
धरमदास विनमय कर जोड़ी (16 मात्रा) / सत गुरु चरनन दासी। (12 मात्रा)    (यौगिक जाति, सार छंद -सं.) 
आधुनिक काल के प्रारंभिक दशकों में हिंदी भाषा, साहित्य और साहित्य शास्त्र के विकास के लिये अथक प्रयत्न किए गए।  इस प्रयत्न में तीन महान विभूतियों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. कामता प्रसाद गुरू एवं आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘‘भानु‘‘ का योगदान अविस्मरणीय है। ये तीनों ने क्रमशः भाषा, व्याकरण एवं साहित्य शास्त्र में अद्वितीय योगदान किया। आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने साहित्य शास्त्र में ‘छंद प्रभाकर‘ (१८९४) की रचना की ।  आचार्य ‘भानु‘ स्वयं छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पंक्ति के कवि हैं।  आाचार्य ‘भानु‘ छंद को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-
‘‘मत्त बरण गति-यति नियम, अंतहि समताबंद। 
जा पद रचना में मिले, ‘भानु‘ भनत स्वइ छंद।।‘‘ २
आधुनिक युग में पं. सुंदरलाल शर्मा, आचार्य ‘भानु‘, शुकलाल पाण्ड़े, कपिलनाथ मिश्र  आदि छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रथम सोपान के कवि हैं जिनकी रचनाओं में छंद सहज ही देखने को मिलते हैं। पं. सुंदरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुरोधा साहित्यकार हैं। उनकी कृति ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में दोहा, चौपाई, त्रोटक आदि छंदों का साहसिक अनुप्रयोग देखते हुए उन्हें छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम सामर्थ्यवान कवि कहा गया। उनकी रचनाओं में कुछ छंद पद दृष्टव्य हैं -
दोहा: जगदिश्वर के पाँव मा, आपन मूड़ नवाय।
सिरी कृष्ण भगवान के, कहिहौं चरित सुनाय।।
चौपाई: काजर आंजे अलगा डारे । मुड़ कोराये पाटी पारे।।
पाँव रचाये बीरा खाये । तरूवा मा टिकली चटकाये।।
बड़का टेड़गा खोपा पारे । गोंदा खोचे गजरा डारे।।
नगदा लाली गांग लगाये । बेनी मा फुँदरी लटकाये।।
खोटल टिकली झाल बिराजै । खिनवा लुरकी कानन राजै।।
तेखर खल्हे झुमका झूलै । देखत उन्खर तो दिल भूलै।।
एक-एक के धरे हाथ हे । गिजगिज-गिजगिज करत जात हे।।
चुटकी-चुटका गोड़ सुहावै । चुटपुट-चुटपुट बाज बजावै ३ - (छत्तीसगढ़ी दान लीला-पं. सुंदरलाल शर्मा)
शुकलाल प्रसाद पाण्ड़े छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पड़ाव के कवि हैं । शुकलालजी ने कई प्रकार छंदों के रंग से अपने साहित्य को रंगा हैं:
चौपाई: बहे लगिस फेर निचट गर्रा। जी होगे दुन्नो के हर्रा।।
येती-ओती खुब झोंका ले। लगिस जहाज निचच्टे हाले।।
जानेन अब ये देथे खपले। बुड़ेन अब सब समुंद म झप ले।।
धुक-धुक धुक-धुक धुक्की धड़के। डेरी भुजा नैन हर फरके।।
दोहा- मुरछा ले झट जाग के, दुन्नो पुरूल पोटार।
कलप-कलप रोये लगिस, साहुन हर बम्हार।।
चौबोला-मोर कन्हैया ! अउ बलदाऊ ! मोर राम लछिमन।
मोर अभागिन के मुँह पोछन ! मोर-परान रतन धन।।
मोर लेवाई आवा बछर! चाट देह ला झारौ।।
उर माम सक कसक ला जी के मैहर  अपन निकारौ।।४
कपिलनाथ कश्यप ने छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करते हुए अपने दो महाकाव्यों में छंद को सम्यक स्थान दिया है। उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड़ काव्य ‘हीराकुमार‘ से ‘सरसी छंद‘ का उदाहरण प्रस्तुत है : 
कंचनपुर मा तइहा तइहा, रहैं एक धनवान।
जेखर धन-दौलत अतका की, बनै न करत बखान।।४ 
श्री कश्यपजी रचित ‘समधी के फजीता‘ कविता  में ‘सार छंद‘ का अनुपम प्रयोग देखते ही बनता है-
दुहला हा तो दुलही पाइस, बाम्हन पाइस टक्का ।
सबै बराती बरा सोंहारी, समधी धक्कम धक्का ।।
नाऊ बजनियां दोऊ झगरे, नेग चुका दा पक्का ।
पास म एको कौड़ी नई हे, समधी हक्का बक्का ।।
काढ़ मूस के ब्याह करायो, गांठी सुख्खम खुख्खा ।
सादी नई बरबादी भइगे, घर मा फुक्कम फुक्का।।
पूँजी रह तो सबो गंवागे, अब काकर मुँह तक्का।
टुटहा गाड़ा एक बचे हे, ओखरो नइये चक्का।।५ 
छत्तीसगढ़ी के चर्चित हस्ताक्षर नरसिंहदास ने अपना परिचय ही दोहा छंद में दिया है जिसमें पिंगल शास्त्र का उल्लेख करना उनके छंद के प्रति रुचि को उजागर करता है:
पुत्र पिताम्बर दास के, नरिंसह दास नाम। / जन्म भूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम ।।
पिंगल शास्त्र न पढ़ेंव कछु, मैं निरक्षर अधाम। / अंध मंदमति मूढ़ है, जानत जानकि राम ।। 6
नरसिंह दास के रचनायें कवित्त (घनाक्षरी), सवैया आदि छंद शिल्प  से अलंकृत हैं:
कवित्त: आइगे बरात गाँव तीर भोला बबाजी के,
देखे जाबो चला गिंया, संगी ला जगाव रे।
डारो टोपी धोती पाँव, पैजामा ल कसिगर
गल बंधा अँग-अँग, कुरता लगाव रे।।
हेरा पनही दोड़त बनही कहे नरसिंग दास
एक बार हुँआ करि, सबे कहूँ धाव रे।
पहुँच गये सुक्खा भये देखी भूत-प्रेत
कहे नहीं बाचान दाई ददा प्राण ले भगाव रे।।
सवैया: साँप के कुण्डल कंकण साँप के, साँप जनेउ रहे लपटाई।
साँप के हार हे साँप लपेटे, हे साँप के पाग जटा सिर छाई।।
दास नरसिंह देखो सखि रे, बर बाउर हे बइला चढ़ि आई।
कोउ सखी कहे कइसे हे छी कुछ ढंग खीख हावे छी दाई।।७ 
छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल का द्वितीय सोपान स्वाधीनता आंदोलन एवं आजादी के पश्चात का है। इस युग के हस्ताक्षर नारायणलाल परमार, कुंजबिहारी चौबे, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, कोदूराम दलित एवं श्यामलाल चतुर्वेदी हैं।  नारायण लाल परमार की रचनाओं में गेय छंद के साथ-साथ मुक्त छंद भी मिलते हैं। श्यामलाल चतुर्वेदी जी के रचना में सार छंद दृष्टव्य है: 
रात कहै अब कोन दिनो मा, घपटे हैं अँधियारी।
सूपा सही रितोवय बादर, अलमल एक्केदारी।।
सुरूज दरस कहितिन कोनो, बात कहां अब पाहा।
हाय-हाय के हवा गइस गुंजिस अब ही-ही हाहा।।
कोदूराम ‘दलित‘ ने विभिन्न  छंदों के  भरपूर प्रयोग अपनी रचनाओं में किए हैं:
दोहा- पाँव जान पनही मिलय, घोड़ा जान असवार।
सजन जान समधी मिलय, करम जान ससुरार।।
कुण्ड़लियां- छत्तीसगढ़ पैदा करय , अड़बड़ चाँउर दार।
हवय लोग मन इहाँ के, सिधवा अउ उदार।।
सिधवा अउ उदार, हवयँ दिन रात कमावयँ।
दे दूसर ला भात , अपन मन बासी खावयँ।।
ठगथयँ बपुरा मन ला , बंचक मन अड़बड़।
पिछड़े हवय अतेक, इही करन छत्तीसगढ़।।
चौपाई- बन्दौं छत्तीसगढ़ शुचिधामा। परम मनोहर  सुखद ललामा 
  जहाँ सिहावादिक गिरिमाला। महानदी जहँ बहति विशाला 
            मनमोहन  वन  उपवन अहई। शीतल - मंद पवन तहँ  बहई 
            जहँ तीरथ  राजिम अतिपावन। शवरी नारायण मन भावन 
            अति  उर्वरा   भूमि  जहँ  केरी। लौहादिक जहँ खान घनेरी 
            उपजत फल अरु विविध अनाजू। हरषित लखि अति मनुज समाजू 
            बन्दौं छत्तीसगढ़ के ग्रामा। दायक अमित शांति दृ विश्रामा 
            बसत लोग जहँ भोले-भाले। मन के  उजले  तन के  काले 
            धारण  करते  एक लँगोटी।  जो करीब  आधा  गज  होती 
            मर मर  कर  दिन-रात कमाते। द्य पर-हित में सर्वस्व लुटाते ८ 
लाला जगदलपुरी, केयर भूषण, हरि ठाकुर, लक्ष्मण मस्तुरिया, विमल पाठक, डॉ. विनय पाठक, दानेश्वर शर्मा, मुकुंद कौशल, नरेंद्र वर्मा आदि कवियों ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद की छनक गुंजित की है। पं.दानेश्वर शर्मा घनाक्षरी छन्द को ध्वनित करते हुये लिखते हैं:
बइठ बहिनी पारवती काय साग राँधे रहे
हालचाल कइसे हवय परभू ‘पसुपति के ?
बइठत हवँव लछमिन, जिमी कांदा राँधे रहेंव
‘पसुपति‘ धुर्रा छानत होही वो बिरिज के
टोला नहीं कहँ बही, पूछत हवँव आन ल
कहां हवय आजकल साँप् के धरइया ह?
महू तो उही ल कहिथँव, कालीदाह गेय होही
पुक-गेंद खेलत होही नाँग के नथइया ह ।
छत्तीसगढ के सुप्रसिद्ध गायक कवि लक्ष्मण मस्तुरिया के आव्हान के गीतों के अतिरिक्त दोहों की भी कम प्रसिद्धि नही है:
भेड़ चाल भागे नही, मन मा राखे धीर।
काम सधे मनखे बने, मगन रहे गँभीर।।
जोरे ले दुख नइ घटे, छोड़े ले सुख आय।
पेट भरे ओंघावत बइठे, भुखहा दउंडत जाय।।
धन संपत जोरे बहुत, नइ जावे कु साथ।
पुरखा-पीढ़ी खप गए, सब गे खाली हाथ।।
सुख-छइहां बाहर नहीं, अपने भीतर खोज।
सबले आगू मया मिले, रद्दा रेंगव सोझ।।
लक्ष्मण मस्तुरिया द्वारा रचित ‘सोनाखान के आगी‘ आल्हा छंद के धुन में  अनुगुंजित है:
धरम धाम भारत भुईंया के, मंझ मे हे छत्तीसगढ़ राज।
जिहां के माटी सोनहा धनहा, लोहा कोइला उगलै खान।।
जोंक नदी इन्द्रावती तक ले, गढ़ छत्तीसगढ़ छाती कस।
उती बर सरगुजा कटाकट, दक्खिन बस्तर बागी कस।।
जिहां भिलाई कोरबा ठाढ़े, पथरा सिरमिट भरे खदान।
तांबा-पीतल टीन कांछ के, इहां माटी म थाथी खान।।९ 
रामकैलाश तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ने छत्तीसगढ़ी में ‘दीब्य-गीता‘ की रचना कर दोहा को ‘दुलड़िया‘ एवं चौपाई को ‘चरलड़िया‘ नाम दिये हैं:
दोहा (दुइलड़िया): गीता जी के ज्ञान पढ़, जउन समझ नहि पाय।
अइसन मनखे असुर जस, अधम बनय बछताय।।
चौपाई (चरलड़िया): जउन पढ़य नहि गीता भाई। मनखे तन सूंरा के नाई।
जे जानय नहि गीता भाई। अधम मनुख के कहां भलाई।१० 
छत्तीसगढ़ी साहित्य मेंअपनी समिधा अर्पित करते हुये बुधराम यादव ने छत्तीसगढ़ी में सतसई दोहा संग्रह ‘चकमक चिन्गारी भरे‘ छत्तीसगढ़ साहित्य को भेंट किया है: 
तैं लूबे अउ टोरबे, जइसन बोबे बीज ।
अमली आमा नइ फरय, लाख जतन ले सींच।।
नदिया तरिया घाट अउ, गली खोर चौपाल।
साफ-सफाई नित करन, बिन कुछु करे सवाल।।११ 
छत्तीसगढ़ी साहित्य के काव्य शिल्प में अरूण निगम द्वारा २०१५ में रचित ‘छंद के छ‘ छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद शिल्प को प्रोत्साहित करने में सफल रहा। ‘छंद के छ‘ में प्रत्येक स्वरचित छंद के नीचे उस छंद के छंद विधान को समझाया गया है। मात्रा गिनने की  रीति, छंद गठन की रीति को सहज छत्तीसगढ़ी में समझाया गया है। इस पुस्तक में प्रचलित छंद दोहा, सोरठा, रोला, कुण्ड़लियां छप्पय, गीतिका घनाक्षरी आदि के साथ-साथ अप्रचलित छंद शोभान, अमृत ध्वनि, कुकुभ, छन्नपकैया, कहमुकरिया आदि को जनसमान्य के लिये प्रस्तुत किया गया है। आदरणीय कोदूराम ‘दलित‘ ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद का बीजारोपण किया जिसे  उनके सुपुत्र अरूण निगम की रचनाओं में पल्लवित- पुष्पित किया है।  
गंगोदक सवैया:
खेत मा साँस हे खेत मा आँस हे खेत हे तो इहाँ देह मा जान हे ।
देख मोती सहीं दीखथे गहूँ, धान के खेत मा सोन के खान हे ।।
माँग के खेत ला का बनाबे इहाँ खेत ला छोड़ ये मोर ईमान हे ।
कारखाना लगा जा अऊ ठौर मा, मोर ये खेत मा आन हे मान हे ।
जलहरण घनाक्षरी:
रखिया के बरी ला बनाये के बिचार हवे
धनी टोर दूहूँ छानी फरे रखिया के फर
डरिद के दार घलो रतिहा भिंजोय दूहूँ
चरिहा मा डार, जाहूँ तरिया बड़े फजर
दार ला नँगत धोहूँ चिबोर-चिबोर बने
फोकला ला फेक दूहूँ दार दिखही उज्जर
तियारे पहटनीन ला आही पहट काली
सील लोढ़हा मा दार पीस देही वो सुग्घर
कहमुकरिया-
सौतन कस पोटारिस बइहांँ / डौकी लइका कल्लर कइयाँ
चल-चलन मा निच्चट बजारू / क सखि भाटो, ना सखि दारू १२ 
अरूण निगम सेवा निवृत्ति के पश्चात सोशल मिडिया वाट्सऐप में ‘छन्द के छ‘ नामक समूह बनाकर छंद-ज्ञान बाँट रहे हैं। उनके इस सद्प्रयास की उपज श्रीमती शंकुतला शर्मा, श्री सूर्यकांत गुप्ता, श्री हेमलाल साहू, श्री चोवा राम वर्मा आदि हैं। फेसबुक में  ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य मंच‘ समूह में छंद की अलख जगाते हुए मैंने छत्तीसगढ़ी कुण्डलिया संग्रह ‘आँखी रहिके अंधरा‘, दोहा संग्रह ‘दोहा के रंग‘ तथा ‘सुरता‘ में दोहा, रोला कुण्ड़लियां, सवैया, आल्हा, गीतिका, हरिगीतिका, त्रिभंगी, घनाक्षरी आदि छत्तीसगढ़ी में लिखे-परिभाषित किए हैं-  
दोहा- चार चरण दू डांड के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तैं मतिमंद ।।
रोला- आठ चरण पद चार, छंद सुघ्घर रोला के ।
ग्यारा तेरा होय, लगे उल्टा दोहा के ।।
विषम चरण के अंत, गुरू लघु जरूरी होथे ।
गुरू-गुरू के जोड़, अंत सम चरण पिरोथे ।।
आल्हा- दू पद चार चरण मा, रहिथे सुघ्घर आल्हा छंद ।
विषम चरण के सोलह मात्रा, पंद्रह मात्रा बाकी बंद ।।
गीतिका छंद-  गीत गुरतुर गा बने तैं, गीतिका के छंद ला ।
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ।
मातरा छब्बीस होथे, चार पद सुघ्घर गुथे ।
आठ ठन एखर चरण हे, गीतिका एला कथे ।१३ 
छत्तीसगढ़ी राजभाषा के प्रांतीय सम्मेलन में श्री चोवाराम वर्मा ‘बादल’ रचित ‘छंद बिरवा‘ में ५० प्रकार के मात्रिक एवं वार्णिक छंदों के विधान एवं उदाहरण तथा मेरे द्वारा रचित ‘छंद चालीसा‘ में ४० छंदों को उसी छंद में उकेरते हुये विधान व उदाहरण दिए गए हैं।
छत्तीसगढ़ी लोकभाषा ददरिया, सुवा, भोजली, भड़ौनी, करमा, पंथी आदि लोकगीतों को पल्लवित करती रही है। इन गीतों का व्यापक प्रभाव छत्तीसगढ़ी साहित्य में है। गेयता को प्रमु ख साधन मानकर छत्तीसगढ़ी लोककाव्य का सृजन हुआ है। छंद- विधान की मात्रिकता, वार्णिकता को महत्व न देकर उनके लय, प्रवाह को आधार मानकर कई कवियों ने अपनी रचनाओं में छंद विधा का प्रयोग किया है। इन रचनाओं में छंद का आभास तो है किन्तु छंद विधान का पूर्ण पालन नहीं है तथापि‘छत्तीसगढ़ी साहित्य छंद विधा से ओत-प्रोत है ।
संदर्भ ग्रंथ: १. ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ (प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय, १९७३), २. छंद प्रभाकर जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ३. जनपदीय भाषा और साहित्य छत्तीसगढ़ी कविता एवं कवि, ४. हीरा कुमार‘-कपिलनाथ कष्यप, ५-६-७. जनपदीय भाषा और साहित्यः छत्तीसगढ़ी कविता एवं कवि, ८. श्री अरूण निगम का ब्लाग ‘सियानी गोठ‘, ९.सेनाखान के आगी-लक्ष्मण मस्तुरिया, १० दीब्य-गीता-रामकैलाष तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ११ .‘चकमक चिन्गारी भरे‘ सतसई दोहा संग्रह-बुधराम यादव, १२. छंद के छ-अरूण निगम, १३. ‘सुरता‘ -छत्तीसगढ़ी कविता के कोठी।  
============