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बुधवार, 13 सितंबर 2017

samasya purti

समस्या पूर्ति
किसी अधर पर नहीं
आप भी अपनी प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करें-
*
किसी अधर पर नहीं शिवा-शिव की महिमा है
हरिश्चन्द्र की शेष न किंचित भी गरिमा है
विश्वनाथ सुनते अजान नित मन को मारे
सीढ़ी, सांड़, रांड़ काशी में, नहीं क्षमा है
*
किसी अधर पर नहीं शेष है राम नाम अब
राजनीति हैं खूब, नहीं मन में प्रणाम अब
अवध सत्य का वध कर सीता को भेजे वन
जान न पाया नेताजी को, हैं अनाम अब
*
किसी अधर पर नहीं मिले मुस्कान सुहानी
किसी डगर पर नहीं किशन या राधा रानी
नन्द-यशोदा, विदुर-सुदामा कहीं न मिलते
कंस हर जगह मुश्किल उनसे जान बचानी
*
किसी अधर पर नहीं प्रशंसा शेष किसी की
इसकी, उसकी निंदा ही हो रही न किसकी
दलदल मचा रहे हैं दल, संसद में जब-तब
हुआ उपेक्षित जनगण सुनता कोई न सिसकी
*
किसी अधर पर नहीं सोहती हिंदी भाषा
गलत बोलते अंग्रेजी, खुद बने तमाशा
माँ को भूले, चरण छापते है बीबी के-
जिनके सर पर है उधार उनसे क्या आशा?
*
किसी अधर पर नहीं परिश्रम-प्रति लगाव है
आसमान पर मँहगाई सँग चढ़े भाव हैं
टैक्स बढ़ा सरकारें लूट रहीं जनता को
दुष्कर होता जाता अब करना निभाव है
*
किसी अधर पर नहीं शेष अब जन-गण-मन है
स्त्री हो या पुरुष रह गया केवल तन है
माध्यम जन को कठिन हुआ है जीना-मरना
नेता-अभिनेता-अफसर का हुआ वतन है
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मंगलवार, 12 सितंबर 2017

मुक्तिका

मेरे लिए
.
आस का भुजहार तू मेरे लिए.
श्वास का श्रृंगार तू मेरे लिए.
.
स्नेह-सलिला नर्मदा के तीर पर
साधना-आगार तू मेरे लिए.
.
उषा, दोपहरी, सरस संध्या-निशा
कल्पना साकार तू मेरे लिए.
.
मोहिनी आभा प्रखर तव दीप्ति है
कीर्ति नव उपहार है मेरे लिए.
.
देख कांता-कांति हैं अपलक नयन
नाव तू,  पतवार है मेरे लिए.
.
हो विसर्जित मैं गया तुझमें सनम!
ज़िन्दगी हमवार है मेरे लिए.
.
मिले जो भी मिलन-पल तेरे दिए
छ्न्द तव मनुहार है मेरे लिए.
.
था अधूरा हुआ पूरा स्वप्न हर
हौसला-आगार तू मेरे लिए.
.
मैं हुआ नि:शेष, तू भी है नहीं
हम, न भ्रम आधार है मेरे लिए.
.
(उन्नीस मात्रिक,  महापौराणिक जातीय आनंदवर्धक छंद )

सोमवार, 11 सितंबर 2017

sansmaran mahadevi ji


संस्मरण :

ममतामयी महादेवी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है।

पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' को मूर्तिमंत करनेवाली कलम की स्वामिनी का लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।
हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था। महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह :
महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपना बना लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश:
जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले।
साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा।
रहीम ने कहा है-
'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'
महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चुकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे।
कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।
आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा।उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे. मैं धन्य हुआ.
उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगतीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...
माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।
जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह।
बिंदु सिंधु से जा मिला:
कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।
पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं ।इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है।
मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है?
तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव'। नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?'
सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया।
उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया। कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ।
तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा।
बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूंजता है।
मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'
मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना । उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं।
मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।'
लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया।
मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें।
कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी ।
बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं।
पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'
'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आसूं छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी।
'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'
कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।
जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल।
चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये ? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योंकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था।
स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।
मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'
मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?
'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
'थक गया न ? जा आराम कर।'
'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...
'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;
' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।'
अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'
'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला।
'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये।
उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'
सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया।
कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा।
चित्र : आभार गूगल.
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gan

छंद चर्चा:
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेड मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण'  होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग,  अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
  
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सारका कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।   [आभार:  कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]                                                                      ***                                    
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kundaliya

कुण्डलिया :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
संजीव 'सलिल'
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.

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bundeli doha

बुंदेली दोहा सलिला 
संजीव
*
जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
*
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mahadeviji

तेरा तुझको अर्पण...
११ सितम्बर २०१७, संस्कारधानी जबलपुर की नातिन महीयसी महादेवी जी की ३० वीं पुण्यतिथि
पुण्य स्मरण उन्हीं की रचनाओं से.







मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
***

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रविवार, 10 सितंबर 2017

beti / bitiya

बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***

बालगीत

बिटिया

*

स्वर्गलोक से आयी बिटिया।
सबके दिल पर छाई बिटिया।।

यह परियों की शहजादी है।
खुशियाँ अनगिन लाई बिटिया।।

है नन्हीं, हौसले बड़े हैं।
कलियों सी मुस्काई बिटिया।।

जो मन भाये वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई बिटिया।।

मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई बिटिया।।

ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
भरमा मन भरमाई बिटिया।।

दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई बिटिया।।

मम्मी मैके जा क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई बिटिया।।

सात समंदर दूरी कितनी?
अंतरिक्ष हो आई बिटिया।।

*****
*
बाल गीत:
लंगडी
*आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
************
गीत :
राह देखती माँ की गोदी...
*
राह देखती माँ की गोदी
लाड़ो बिटिया आ जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
*
नटखट-चंचल भोलापन
तेरा जीवन की थाती है.
दीप यहाँ मैं दूर कहीं तू-
लेकिन मेरी बाती है. 

दीपक-बाती साथ रहें कुछ पल
तो तम् मिट जायेगा.
अगरु-धूप सा स्मृतियों का
धूम्र सुरभि फैलाएगा.

बहुत हुआ अब मत तरसाओ
घर-अँगना में छा जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
*
परस पुलक से भर देगा
जब तू कैयां में आयेगी.
बीत गयीं जो घड़ियाँ उनकी
फिर-फिर याद दिलायेगी.

सखी-सहेली, कौन कहाँ है?
किसने क्या खोया-पाया?
कौन कष्ट में भी हँसता है?
कौन सुखों में भरमाया?

पुरवाई-पछुआ से मिलकर
खिले जुन्हाई आ जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
*
कुण्डलिया 
प्यारी बिटिया! यही है दुनिया का दस्तूर।
हर दीपक के तले है, अँधियारा भरपूर।
अँधियारा भरपूर मगर उजियारे की जय।
बाद अमावस के फिर सूरज ऊगे निर्भय।
हार न मानो, लडो, कहे चाचा की चिठिया।
जय पा अत्याचार मिटाओ, प्यारी बिटिया।

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लोकतंत्र में लोक ही, होता जिम्मेवार।
वही बनाता देश की भली-बुरी सरकार।
छोटे-छोटे स्वार्थ हित, जब तोडे कानून।
तभी समझ लो कर रहा, आजादी का खून।
भारत माँ को पूजकर, हुआ न पूरा फ़र्ज़।
प्रकृति माँ को स्वच्छ रख, तब उतरे कुछ क़र्ज़।

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ग़ज़ल 

तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।

रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई।
दिए के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।

नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया।
ज़मीं काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।

सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे।
दिल पे बीती आ जुबां पर ज़माने पर छा गई

बनाती कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा।
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया 'सलिल' को सिखला गई ।।

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दोहे

जो सबको हितकर वही, होता है साहित्य।
कालजयी होता अमर, जैसे हो आदित्य.

सबको हितकर सीख दे, कविता पाठक धन्य।
बडभागी हैं कलम-कवि, कविता सत्य अनन्य।

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