कुल पेज दृश्य

शनिवार, 8 अक्टूबर 2016

laghukatha

लघुकथा
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
***

laghukatha

लघुकथा
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।

प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि को सराह रहे थे रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
***

laghukatha

लघुकथा
चट्टान
*
मुझे चैतन्य क्यों नहीं बनाया? वह हमेशा शिकायत करती अपने सृजनहार से। उसे खुद नहीं मालुम कब से वह इसी तरह पड़ी थी, उपेक्षित और अनदेखी। न जाने कितने पतझर और सावन बीत गए लेकिन वह जैसी की तैसी पड़ी रही। कभी कोई भूला-भटका पर्यटक थककर सुस्ताने बैठ जाता तो वह हुलास अनुभव करती किन्तु चंद क्षणों का साथ छूटते ही फिर अकेलापन। इस दीर्घ जीवन-यात्रा में धरती और आकाश के अतिरिक्त उसके साथी थे कुछ पेड़-पौधे, पशु और परिंदे। कहते है सब दिन जात न एक समान। एक दिन कुछ दो पाये जानवर आये, पेड़ों के फल तोड़कर खाये, खरीदी जमीन को समतल कर इमारत खड़ी करने की बात करने लगे।

फिर एक-एक कर आए गड़गड़ - खड़खड़ करते दानवाकार यन्त्र जो वृक्षों का कत्ले-आम कर परिंदों को बेसहारा कर गए, टीलों को खोदने और तालाबों को पाटने लगे। उनका क्रंदन सुनकर उसकी छाती फटने लगी। मरती क्या न करती? उसने बदला लेने की ठानी और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसकी करुण पुकार सुनकर पसीजे मेघराज की छाती फट गयी। बिजली तांडव करना आरम्भ कर तड़तड़ाती हुई जहाँ-तहाँ गिरी। उसने भी प्रकृति के साथ कदमताल करते हुए अपना स्थान छोड़ा। पहाड़ी नदी की जलधार के साथ लुढ़कती हुई वह हर बाधा को पर कर दो पैरोंवाले जानवरों को रौंदते-कुचलते हुए केदारनाथ की शरण पाकर थम गयी।

खुद को महाबली समझनेवाले जानवरों को रुदन-क्रंदन करते देख उसका मन भर आया किंतु उसे विस्मय हुआ यह देखकर कि उन जानवरों ने अपनी गलती न मान, प्रकृति और भगवान को दोष देती कवितायें लिख-लिखकर टनों कागज़ काले कर दिए, पीड़ितों की सहायता के नाम पर अकथनीय भ्रष्टाचार किया और फिर इमारतें तानने की तैयारी आरंभ कर दी। उसे अनुभव हुआ कि इन चैतन्य जानवरों से लाख गुना बेहतर हैं कम चेतन कहे जानेवाले पशु-पक्षी और जड़ कही जानेवाली वह खुद जिसे कहा जाता है चट्टान।
***

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

dr. hira lal ray

लेख-
रायबहादुर हीरा लाल राय की काव्य प्रतिभा और दमोह दीपक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
​​
सनातन सलिला नर्मदा के तट पर साधकों की  परंपरा चिर काल से अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होती रही है। साधना भूमि नर्मदा के तट पर महादेव, उमा, जमदग्नि, परशुराम, अगस्त्य, विश्वामित्र , दत्तात्रेय, जाबालि, नरहरिदास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश 'ओशो', पदमश्री रामकिंकर उपाध्याय आदि ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की है। प्रशासनिक और सामाजिक क्षेत्र में जिन नरनहरों ने इस क्षेत्र की कीर्ति पताका फहराई उनमें रायबहादुर हीरालाल राय अग्रगण्य हैं। डॉ. राय की ख्याति मुख्यत: प्रशासक तथा पुरातत्वविद के रूप में है किन्तु शिक्षा तथा साहित्य के विकास में भी उनहोंने महती भूमिका  का निर्वहन किया है।  काव्य संस्कार उन्हें विरासत में प्राप्त हुआ था। ग्राम सूपा (महोबा उ.प्र) से बिलहरी (ऐतिहासिक पुष्पावती) नगरी में आकर बसे कालूराम के पुत्र रूप में जन्में नारायण दास मुड़वारा में जा बसे। वे अपने समय के प्रसिद्ध रामायणी थे। रामचरित मानस का सुमधुर स्वर में पाठ तथा विद्वतापूर्ण व्याख्या करने में उनका दूर-दूर तक सानी न था।  हैहय वंशी क्षत्रिय होने पर भी उन्हें सामान्यत: ब्राम्हणों को प्राप्त पदवी 'पाठक' प्राप्त थी। नारायणदास के पुत्र मनबोधराम में मानस की व्याख्या हेतु आवश्यक पांडित्य न होने पर भी अगाध रूचि थी।  अत:, वे अपने हाथ से लिखकर मानस की प्रतियाँ तैयार कर दान किया करते थे। 'पुस्तक दान महादान' उनके जीवन का मूलमन्त्र बन गया था। अल्प शिक्षित होने पर भी उन्हें सुख-समृद्धि और सन्तोष की कमी न थी।  कई सन्तानों के अल्प जीवी होने के पश्चात् प्राप्त अंतिम पुत्र को जीवनरक्षा हेतु ईश्वरार्पण कर उन्होंने उनका नाम भी ईश्वरदास ही रखा। ईश्वर ने अपने दास को दीर्घजीवी भी किया। एकमात्र संतान ईश्वरदास (संवत १९०४-१९६९) का लाड-प्यार खूब मिला फलत: वे प्राथमिक से अधिक शिक्षा न पा सके। इसकी कसक उन्होंने अपने २ पुत्रों हीरालाल और गोकुलप्रसाद को उच्च शिक्षित कर मिटाई। हीरालाल जी (जन्म आश्विन शुक्ल चतुर्थी संवत १९२४ विक्रम तदनुसार १ अक्टूबर सन १८६७ ई.)   ने प्रथम काव्य-सुमन अट्ठाइस मात्रिक यौगिक जातीय छंद में लिखा पद अपनी माता-पिता को ही समर्पित किया- 

सुमिरि जस मन न समाय हुलास 
शुभ श्री कमला मातु हमारी, पितु श्री ईश्वरदास।। 
कटनी तट सोहै अति सुंदर, मुड़वारा रह वास। 
दोउन को दोऊ कर जोरे, प्रणमत दोई दास ।। १ 

मुरवारा एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में अपनी बाल-प्रतिभा से शिक्षकों और निरीक्षकों को चकित करनेवाले हीरालाल ने सन १८८१ में माध्यमिक, १८८३ में एंट्रेंस, तथा १८८८ में बी.ए. शिक्षा प्राप्त कर गवर्नमेंट कॉलिजिएट हाई स्कूल में अध्यापक पदार्थ विज्ञान के रूप में अपने व्यक्तित्व का विकास आरम्भ किया। इस काल तक हीरालाल राय का काव्य-प्रेम काव्य पढ़ने, समझने और रसानंद लेने तक सीमित था।  १७ जनवरी सन १८९१ को सागर जिले में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स नियुक्त होने पर उन्होंने ग्राम्यांचलों में शिक्षा के प्रसार हेतु अपने काव्य-प्रेम को औजार की तरह प्रयोग किया। उन्होंने स्कूल-कांफ्रेंसों में, शिक्षकों हेतु विषय-चयन में तथा विद्यार्थियों के लिए पाठ्य सामग्री के सृजन में कविताओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। आपके संबोधनों में काव्यात्मक उद्धरणों का यथास्थान-यथोचित प्रयोग होता था। इससे वे सामान्य जनों हेतु सहज ग्राह्य हो जाते थे। विषय सामग्री को शुष्क तथा नीरस होने से बचाने के लिए प्रयुक्त काव्यांश सहज स्मरणीय भी होते थे। फलत:, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की जुबान पर पाठ्य सामग्री का काव्य रूप सहज ही चढ़ जाता था। 

अशिक्षित व अल्प शिक्षित जन विशेषकर कन्याएँ तथा महिलाएँ जिन्हें पढ़ाने का चलन कम था, सुन कर शिक्षा सामग्री स्मरण कर पातीं तथा समझ कर अन्यों को बता पातीं। सरस पाठ्य सामग्री ने शिक्षा प्रति सामान्य जान के मन में आकर्षण उत्पन्न किया और डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स को निर्धारित से पर्याप्त अधिक संख्या में विद्यालय आरम्भ करने और विद्यालयों में अपेक्षा से अधिक विद्यार्थी भर्ती कराने में सफलता मिली।  डॉ. राय ने काव्यात्मक सामग्री का सम्यक प्रयोग कर कन्या विद्यालयों की स्थापना तथा कन्या छात्राओं के प्रवेश में भी आशातीत सफलता पायी। यहाँ तक की इन छात्राओं में से अनेक काव्य-रचना कर्म में भी प्रवीण हुईं। इन परिणामों से काव्य-सामग्री की उपादेयता व प्रासंगिकता के प्रीति सशंकित रहनेवाले महानुभावों को तो सबक मिला ही, अरबी-फ़ारसी मिश्रित हिंदी का प्रचलन कम हुआ और आधुनिक हिंदी को जड़ें जमने में सहायता मिली। 

सागर की असाधारण सफलता देखकर सरकार ने हीरालाल जी को सन १८९६ में एजेंसी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के पद पर रायपुर छत्तीसगढ़ पदस्थ किया। यहाँ कुछ क्षेत्र में उड़िया तथ अन्य आदिवासी भाषाएँ चलन में थीं। आपका भाषा तथा काव्य से लगाव इतना प्रगाढ़ था की अपने एक उड़िया स्कूल का निरीक्षण करने के पूर्व एक रात में उड़िया भाषा सीखी तथा कवितायें कण्ठस्थ कर लीं ताकि निरीक्षण के समय सुनकर जाँच सकें। आ व १८९९ के अकालों व १९०१ की जनगणना के कार्यों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को समर्पण भाव से निभाकर उच्चाधिकारियों से प्रशस्ति पाने के आबाद हीरालाल जी को सुपरिंटेंडेंट इथिनॉग्राफी (मनुष्य विज्ञानं) तथा गजेटियर तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। आपने पुरातात्विक सामग्री शिलालेखों को तलाशा और पढ़ाजिनमें से अनेक काव्य में थे। सन १९११ - १२ में आपने मध्यप्रांत और बरार के शिला और ताम्र लेखों की वर्णनात्मक सूची' तैयार कर ख्याति पाई। इसके समानातर आपने भाषाओँ पर भी काम किया और १८ भाषाएँ (हिंदी, बुन्देली, बघेली, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, मुड़िया, मारिया, कोरकू, गोंडी, परजा, हल्बी, गड़वा, कोलमी, नहली,  निमाड़ी) सीखीं। 

दमोह जिले का गजेटियर तैयार करते समय आपने पुरातत्व और प्रशासन जैसे शुष्क और नीरस विषयों की सामग्री प्रस्तुत करते समय स्वरचित दोहे तथा अन्य काव्य रचनाओं का प्रचुरता से प्रयोग किया।  डॉ. राय ने सन १९१७ में प्रकाशित 'दमोह-दीपक' का श्री गणेश और समापन ही नहीं अधिकांश अध्यायों (वर्तिकाओं) का आरम्भ भी संस्कृत ग्रन्थों की परम्परानुसार दोहा छंद से किया है। प्रथम वर्तिका के आदि में अर्ध सम मात्रिक द्विपदीय पयोधर दोहा (१२ गुरु, २४ लघु) छंद से है जिसमें १३-११ पर यति का विधान है -

बरसत को कूरा जमो, घर भीतर अँधियार। 
आलस तज अब देखिए, लै दीपक उजियार।।    - मुखपृष्ठ 

प्रथम वर्तिका के आरंभ में दमोह जिले की सीमा-वर्णन चौबीस मात्रिक नर दोहे (गुरु, १८ लघु) में होना डॉ. राय के काव्य-रचना-कौशल का परिचायक है- 

पीठ ऊँटिया पूरबै, उत्तर बघमुख मूँछ। 
पच्छिम को पग शूकरी, दक्खिन बाड़ी पूँछ।।   -- पृष्ठ १ 

द्वितीय वर्तिका के आरम्भ में दमोह का इतिहास तीस मात्रिक छंद में है जिसमें १५-१५ पर यति तथा चरणान्त में गुरु-लघु का विधान है -

आदि गुप्त कलचुरि पड़िहार।  चंदेला गोहिल्ल निहार।। 
तुगलक खिलजी गोंड मुगल्ल।  बुंदेला मरहट्ठा दल्ल।।  
डेढ़ सहस बरसें किय भोग। तब फिरंगि  को आयो योग ।।   -- पृष्ठ ४ 

ऐतिहासिक जानकारियों के साथ यत्र-तत्र संस्कृत, उर्दू, बुन्देली के विविध ग्रन्थों से दिए गए पद्य-उद्धरण डॉ. राय के विषाद अध्ययन तथा गहन समझ का प्रमाण हैं। तृतीय वर्तिका के आरंभ में दमोह निवासी जातियों का परिचय देता नर दोहा दमोह जिले में दस जातियों की बहुलता बताता है -

चमरा, लोधी, गोंड़ अरु, कुर्मी, विप्र, अहीर। 
काछी, ढीमर, बानिया, ठाकुर- दस की भीर।।  -- पृष्ठ ३१

चतुर्थ वर्तिका में दमोह जिले की कृषि, जंगल, तथा वन्य प्राणियों की जानकारी देने के लिए भी डॉ. राय ने पुनः एक पयोधर दोहा रचा है- 

अर्ध माँहि कृषि, अर्ध में, है जंगल विस्तार। 
नाहर, तिंदुवा, रीछ जहँ, मृग सँग करत विहार।।    -- पृष्ठ ४१ 

उद्योग-धंधे और व्यापार किसी स्थान और जन-जीवन की समृद्धि तथा विकास की रीढ़ की हड्डी होते हैं। दमोह-दीपक की पंचम वर्तिका में डॉ. राय बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद जिसमें १६-१६ पर यति है, का प्रयोग कर इन जानकारी का संकेत करते हैं -

लाख अढ़ाइक नर अरु नारी। पालत जिव कर खेती-बारी।
लाखक करके उद्यम नाना। दौड़-धूप कर पावत खाना ।।    -- पृष्ठ ४७ 

आपद-विपदा जीवन का अभिन्न अंग हैं। षष्ठ वर्तिका में दमोहवासियों द्वारा झेली गयी प्रमुख विपदाओं का उल्लेख गयन्द दोहा (१३ गुरु, २२ लघु) छंद में है -

चार विपत व्यापी अधिक, ई दमोह के लोग। 
ठग, भुमियावट, काल अरु, प्राणघातकी रोग।।      -- पृष्ठ ५३

शासन-प्रशासन की गतिविधियों पर केंद्रित सप्तम वर्तिका का शुभारम्भ डॉ. राय ने चौबीस मात्रिक सोरठा (११- १३ पर यति) छंद से किया है -

फौजदारि  अरु माल, दीवानी सह तीन हैं। 
शासन अंग विशाल, आज काल के समय में।।     -- पृष्ठ ६५ 

बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में अष्टम वर्तिका का आरंभ कर डॉ. राय दमोह जिले के प्रमुख कस्बों का उल्लेख करते हैं -

ज़ाहिर ठौर ज़िले बिच नाना। तिनको अब कछु सुनहु बखाना। 
वर्णाक्षर के क्रम अनुसारा।  कहब कथा कछु कर विस्तारा।।         -- पृष्ठ ७१ 

डॉ. राय ने दमोह दीपक का समापन बल (११ दूर, २६ लघु) दोहा छंद में किया है। 

दम में निशितम देख के, अष्टवार्तिक दीप।
लेस सिरावत ताहि अब, समुझि प्रभात समीप।।

दमोह-दीपककार ने विषयवस्तु के अनुरूप काव्य पंक्तियों का प्रणयन कर जहाँ अपनी रचना-सामर्थ्य का परिचय दिया है वहीं पूर्ववर्ती तथा समकालिक कवियों की उपयुक्त काव्यपंक्तियों का उदारतापूर्वक उपयोग कर विषय को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। अन्य कवियों की कृतियों / रचनाओं से उद्धरण लेते समय उनके नामों का उल्लेख करने की सजगता और सौजन्यता डॉ. राय ने प्रदर्शित की है तथापि कहीं-कहीं अपवाद हैं जो सम्बंधित रचना के रचनाकार की जानकारी न मिल पाने के कारण हो सकती है।  

द्वितीय वर्तिका  के अंतर्गत जटाशंकर से प्राप्त लगभग १४ वीं सदी के राजस्थानी भाषा के लेख  सारांश  डॉ.राय ने प्रस्तुत किया है- 

जो चित्तोड़ह जुझि (ज्झि) अउ, जिण ढिली (ल्ली) दलु जित्त। 
सो सुपसंसहि रभहकइ हरिसराअ तिअ सुत्त।।                    - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
खेदिअ गुज (ज्ज) र गौदहइ, कीय अधि (धी) अं मार। 
विजयसिंह किट संमलहु, पौरिस  कह संसार।।                  - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)

बटियागढ़ से प्राप्त संवत १३८५ (सन १३२८) के शिलालेख में तुगलकवंशीय महमूद संबंधी संस्कृत लेख के साथ डॉ. राय ने उसका हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है -

अस्ति कलियुगे राजा शकेंद्रो वसुधाधिप:।
योगिनीपुरमास्थाय यो भुंक्ते सकलां महीम।।
सर्वसागरपर्यन्तं वशीचक्रे नराधिपान। 
महमूद सुरत्राणों नाम्ना शूरोभिनन्दतु।।           - पृष्ठ १३   

कलियुग में पृथ्वी का मालिक शकेंद्र (मुसलमान राजा) है जो योगिनीपुर (दिल्ली) में रहकर तमाम पृथ्वी का भोग करता है और जिसने समुद्र पर्यन्त सब राजाओं को अपने वश भवन कर लिया है। उस शूरवीर दुल्तान महमूद का कल्याण हो। 

इसी वर्तिका में आगे बुंदेला छत्रसाल का वर्णन करते हे डॉ. राय ने महाकवि भूषण लिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं- 

चाक चक चमूके  अचाक चक चहूँ ओर, 
चाक की फिरत धाक चम्पत के लाल की। 
भूषण भनत पादसाही मारि जेर किन्ही, 
काऊ उमराव ना करेरी करवाल की।।........           - पृष्ठ २४  

सन १८५४ के तीसरे भीषण अकाल के वर्णन के बाद डॉ. राय ने गढ़ोला निवासी कवि भावसिंह लोधी रचित ४ पृष्ठीय कविता ज्यों की त्यों दी है जिसमें इस विपद एक दारुण वर्णन है।  कुछ पंक्तियाँ देखें- 

अगहन बरसे पूस में, भरी परै तुसार। 
माहु  दिनन में, गिरूआ करे पसार।।
गेहूं पिसी गवोटे आई।  तब गिरूआ ने दइ पियराई।।
रचे पतउआ डाँड़ी लाल, पेड़ो रच गयो बच गई बाल।। .......    पृष्ठ ५५ -५८  

अंतिम वर्तिका में बाँसा कलाँ की जानकारी में लाल कवि कृत 'छत्रप्रकाश' से लंबा वर्णन प्रस्तुत किया गया है। कुछ पंक्तियों का आनंद लें -

दांगी केशोराइ तहां कौ। ज़ाहिर जोर मवासी बांकौ ।।
बाँचि बरात डारि उहि दीनी। तुरतै तमकि तेग कर लीन्हीं।।
फिरी बरात बुंदेला जानी। तब बाँसा पर फ़ौज पलानी ।।
ठिल्यौ बुँदेला बम्ब दै, बांसा घेरयो जाइ ।।
त्योंही सन्मुख रन पिल्यो, दांगी बड़ी बलाइ।।  ......    पृष्ठ ९४-९५  

मोहना के लगभग ७०० वर्ष पुराने ध्वस्त प्रायः शिव मन्दिर की सुंदर मूर्तियों संबंधी लोक-प्रचलित काव्य-पंक्तियों का आनंद लें- 

गणपति आठौ मातर:, ब्रम्हा शंभु रमेश। 
नवगह तिनके बीच में, बाजू भैरव वेष।। 
गंगा-जमुना देहरी, कीरतिमुख तल मांहिं। 
मुहनामठ चौखट लिखे, इतने देव दिखाहिं।।  

डॉ. राय रचित कोई स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ अथवा काव्य रचनाएँ न होने से उनके कवि होने में यह शंका हो सकती है  अथवा यह प्रश्न किया जा सकता है कि दमोह दीपक में प्रयोग की गयी अन्य कवियों की पंक्तियों की तरह शेष पंक्तियाँ भी  डॉ. राय रचित न हों।  इस शंका का निराकरण सहज ही हो सकता है। दृष्टव्य है कि अपवाद छोड़कर डॉ. राय ने अन्य कवियों की पंक्तियों का  उनका  कृति का नाम देने की सजगता  बरती है। अन्य कवियों के रचनाएँ किसी प्रसंग में उपयुक्त होने पर ही ली गयी हैं। कृति की रूपरेखा निर्धारण कर लिखी जाती समय अध्यायों की विषयवस्तु किसी अन्य को ज्ञात नहीं हो सकती, अत: किसी अन्य द्वारा अध्याय की परिचयात्मक पंक्तियाँ लिखी जाना संभव नहीं हो सकता। यदि लेखक ने विषयवस्तु की जानकारी देकर पंक्तियाँ लिखई होतीं तो वह रचनाकार के नाम का यथास्थान उल्लेख अवश्य करता। एक अन्य प्रमाण उद्धरणों की भाषा भी है। डॉ. राय द्वारा रचित पंक्तियों की भाषा उनके जीवनकाल में प्रचलित आधिनिक हिंदी का आरम्भिक रूप है और यह उनकी सभी पंक्तियों में एक सी है जबकि अन्य कवियों की पंक्तियों की भाषा डॉ. राय रचित पंक्तियों से सर्वथा भिन्न देशज या संस्कृतनिष्ठ या उर्दू मिश्रित है। डॉ. राय रचित स्वतंत्र काव्य कृति न होने का करण उनकी अतिशय व्यस्तता, बीमारी तथा प्रशासनिक दायित्व ही हो सकता है। 

डॉ. राय रचित काव्य पंक्तियों  से उनकी छंदशास्त्र संबंधी सामर्थ्य में किंचित भी सन्देह नहीं रहता। डॉ. राय ने दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग किया है। छंद-विधान ( संख्या, चरण संख्या, मात्रा संख्या, गति-यति, तुकांत नियम, लय, विराम चिन्ह आदि), भाषा शैली, सम्यक बिम्ब और प्रतीक आदि यह बताते हैं की डॉ. राय कुशल प्रशासक तथा ख्यात पुरातत्वविद होने के साथ-साथ कुशल तथा समर्थ कवि भी हैं. उनकी समस्त रचनाओं को एकत्र कर स्वतंत्र कृति प्रकाशित की जा सके तो डॉ.  राय के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू को सामने  सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी। 
*****
सहायक ग्रन्थ- 
१. हैहय क्षत्री मित्र, हीरालाल अंक, जनवरी-फरवरी १९३६ में प्रकाशित लेख। 
२. दमोह-दीपक, - राह बहादुर हीरालाल राय, १९१७। 
------------
संपर्क- समन्वयम 
२०४ विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड,
नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com 
९४२५१८३२४४ / ०७६१ २४१११३१ 
=================

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

geet aur pairody

एक गीत -एक पैरोडी 
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा           ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा       ३० 
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में                                २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में                                २१
ये बाँहों में 
बाँहें, ये बहकी निगाहें                                   २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा                                      १९ 
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा                            २२ 
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा                                 २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो                                २१
करे कोई दिल आरजू और क्या                                      १९ 
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे                            २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे                                   २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है                                २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा                                          १८ 

फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी 
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा   ३० 
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा       ३१ 
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा                        २२ 
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा                                २० 
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले                          २१  
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा                                  १८ 
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा                        २२ 
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा                                   २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे                            २१ 
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां                              २० 
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की                         २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की                                  २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको                                २१ 
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा                                    १७ 
*****

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

लघुकथा


लघु कथा - नव विधान और मूल्यों की आवश्यकता
*
पारंपरिक लघुकथा : उद्गम व् उपयोगिता -
                       लघु कथा का मूल संस्कृत वांग्मय में है। लघु अर्थात देखने में छोटी, कथा अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। यह बात कहने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए। उद्देश्य की विविधता लघु कथा के वर्गीकरण का आधार होती है।  बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा  आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इन कथन के माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गयीं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई। 

                       दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाये रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आये संकटों-कष्टों के कारन  शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी  से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल,   परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार  या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना  कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाये रह सका। 

आधुनिक हिंदी का उद्भव 

                       कालान्तर में आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था।विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छवनियों में हुआ जो रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई।  राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा  के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा।अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। 

सत्ता और साहित्य की बंदरबाँट 

                       सत्ता समीकरणों को चतुरता से साधते हुए आम चुनावों में विजयी कोंग्रेस ने सरकार बनायी। सरकार निर्विघ्न चले इस हेतु हिंसा में विश्वास रखने वाले साम्यवादियों को शिक्षा प्रतिष्ठानों में स्थान दिया गया। इस केर-बेर के संग ने समाजवादियों तथा तत्कालीन हिंदुत्ववादी शक्तियों को सत्ता से बाहर रखने में सफलता पा ली। साम्यवादी अपने बल पर कभी सत्ता-केंद्र में नहीं आ सके किन्तु शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी विचारों के अनुरूप सृजन और समीक्षा के मानक थोपने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया ताकि समाज के विविध वर्ग आपस में लड़ें और वे हँसिया-हथौड़ा चलकर सत्ता पा सकें। विधि का विधान कि कुछ प्रान्तों को छोड़ साम्यवादी साहित्यकार और राजनेता सफल नहीं हुए किंतु शिक्षा और साहित्य में अपनी विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने में सफल हो गए। परोक्षतः: कोंग्रेस ने इस कार्य में उन्हें समर्थन दिया और अपनी सत्ता बनाये रखने में उनका समर्थन लिया। गैर कॉंग्रेसवादी सरकार आते ही इस वर्ग ने शिक्षा संस्थानों में अराजकता, अभारतीयता और राष्ट्रीयता का उद्गोष किया और प्रतिबंधित होते ही आवेदन कर येन-केन-प्रकारेण जुगाड़े गए सम्मान वापसी की  नौटंकी की। 

साम्यवादी रचना विधान 

                        यह निर्विवाद है कि भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तिवाला है। अशिक्षाजनित सामाजिक प्रदूषण काल में छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा  और ब्राम्हणों द्वारा धर्म की आड़ में खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाये रखने के प्रयास में दलितवर्ग को निम्न बताने जैसी बुराइयों के पनपने पर उनके निराकरण के प्रयास सतत होते रहे किंतु विदेशी शासन ने इन्हें असफल कर समाज विभाजित किया। स्वतंत्रता के पश्चात बहुमत पाने में असफल साम्यवादियों ने यही तरीका अपनाया और एक ओर नक्सलवाद जैसे आंदोलन और दूसरी ओर अपनी विचारधारा के साहित्यिक मानक बनाकर उनके अनुरूप साहित्य की रचना कर समाज को पराभव में लेने का कुचक्र रचा पर पूरी तरह सफल न हो सके। ऐसे साहित्यकारों और समीक्षकों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में साम्यवादी विचारधारा के अनुकूल जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। इन तथाकथित साहित्यकारों की पृष्ठभूमि देखें तो अपने छात्र जीवन में ये साम्यवादी छात्र संगठनों से जुड़े मिलेंगे। कोढ़  में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।  

लघुकथा और शार्ट स्टोरी  

                       अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की हो सकती है। हिंदी लघु कथा का आकार सामान्यत: कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होता है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है पर वह 'लघुकथा' नहीं हो सकती। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है,  जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य  का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'

लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?

                       सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।   

                       सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघु कथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघु कथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत: वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रबंधित करना कैसे ठीक हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति? 

                       'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के सन्दर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप  में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है।

                     अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म  राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?

लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें

                          डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना  के स्तरों पर लघुकथाएँ  लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रूचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोडनेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।

सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता

                          पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से सांस लेने दी जाए। नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है?

                          सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते है जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल साम्यवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में नहीं किया जा सकता। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा देती लघु कथाओं को हो चुना जाना उपयुक्त होगा। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।

                        डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा माँ विहीन कैसे हो सकता है। हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसका प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किन्तु किसी वर्ग विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बन्द करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।

लघुकथा  के तत्व

                       कुंवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है।  डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में  'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिक एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।' 

                        बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो,  शैली तथा सामाजिक महत्व । नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे? बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। 

                          डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र' अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'। 

लघुकथा के तत्व  

                         मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री का अध्ययन से स्पष्ट होता है कि लघुकथा के ३ तत्व,  १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं। 

१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी  घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघ्यकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो। 
  
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण  नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए  संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं। 

.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार  काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।                                                                                                                                                                                                     क्रमश: 
सन्दर्भ-
१. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा  
२. सारिका लघुकथा अंक १९८४ 
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३,  सम्पादक कुंवर प्रेमिल 
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल 
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल 
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७ 


लेखक परिचय - नाम: संजीव वर्मा 'सलिल' 
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश। 
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा। 
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा। 
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।   
संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, अध्यक्ष अभियान जबलपुर, महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन, संयोजक विश्व हिंदी परिषद, संचालक समन्वय प्रकाशन। 
प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव भक्ति गीत, २. भूकंप के साथ जीना सीखें  जनोपयोगी तकनीकी, ३. लोकतंत्र का मक़बरा कविताएँ , ४. मीत मेरे  कविताएँ , ५. काल है संक्रांति का  गीत-नवगीत संग्रह।  
संपादन: १० पुस्तकें, ६ पत्रिकाएं, १६ स्मारिकाएँ। 
भूमिका लेखन: ३२ पुस्तकें , तकनीकी प्रपत्र १२, पुस्तक समीक्षा लगभग ३००। 

संपर्क- समन्वय,२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail,com , चलभाष ९४२५१८३२४४।
  





रविवार, 2 अक्टूबर 2016

navratri aur saptshloki durga stotra

नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद सहित)
*
नवरात्रि पर्व में  मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है।  रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना की जाती है। विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन करने हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानीपूर्ण आवश्यक है, अन्यथा  संभावित हैं। इसलिए इसे कम किया जाता है दुर्गा-चालीसा विधिपूर्वक दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है। 

कुमारी पूजन

नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है।  नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मानकर पूजन कर स्वादिष्ट मिष्ठान्न सहित भोजन के पश्चात् दान-दक्षिणा भेंट की जाती है। 

सतश्लोकी दुर्गा 
ॐ 
निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया। 
महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।। 
नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप- 
विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।।
जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश। 
आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।।
सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान- 
क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष?
*

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥

शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप।
कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।'
*
देव्युवाच-
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥ 

देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे?
अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।'
*
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः 
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः 
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।


ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने
छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में
श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।।
*
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१ 

ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब।
बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१।

*
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२ 

माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है?
सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र सदा रहता है।२।
*
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३

मंगल का भी मंगल  करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का।  
रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३।

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। 
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४

शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर। 
सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४
*
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५

सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी। 
देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५ 
*
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥६

शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते। 
रहे विपन्न न कभी आश्रितआश्रित सबसे आश्रय पाते।६। 
*
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७
माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, सब भव-बाधा। 
कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७
*
॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥ 
।यहाँ श्री सतश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ
***