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शुक्रवार, 10 जून 2016

प्रो सी बी श्रीवास्तव की कुछ हिन्दी गजले

  गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२
vivek1959@yahoo.co.in

हमें दर्द दे वो जीते, हम प्यार करके हारे,
जिन्हें हमने अपना माना, वे न हो सके हमारे।

ये भी खूब जिन्दगी का कैसा अजब सफर है,
खतरों भरी है सड़के, काटों भरे किनारें।।

है राह एक सबकी मंजिल अलग-अलग है,
इससे भी हर नजर में हैं जुदा-जुदा नजारे।

बातें बहुत होती हैं, सफरों में सहारों की
चलता है पर सड़क में हर एक बेसहारे।

कोई किसी का सच्चा साथी यहाॅ कहाॅ है ?
हर एक जी रहा है इस जग मंे मन को मारे।

चंदा का रूप सबको अक्सर बहुत लुभाता,
पर कोई कुछ न पाता दिखते जहाॅ सितारे।

देखा नहीं किसी ने सूरज सदा चमकते
हर दिन के आगे पीछे हैं साॅझ औ’ सकारे।

सुनते हैं प्यार का भी देते हैं कई दुहाई।
थोड़े हैं किंतु ऐसे होते जो सबके प्यारे।


गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२
vivek1959@yahoo.co.in
मेरे साथ तुम जो होते, न मैं बेकरार होता,
खुद से भी ष्षायद ज्यादा, मुझे तुमसे प्यार होता।

तुम बिन उदास मेरी मायूस जिन्दगी है,
होते जो पास तुम तो क्यों इन्तजार होता ?

मजबूरियाॅ तुम्हारी तुम्हें दूर ले गईं हंै,
वरना खुषी का हर दिन एक तैवहार होता।

मुूह माॅगी चाह सबको मिलती कहाॅ यहाॅ है ?
मिलती जो, कोई सपना क्यों तार-तार होता ?

हॅसने के वास्ते कुछ रोना है लाजिमी सा,
होता न चलन ये तो दिल पै न भार होता।

मुझकों जो मिले होते मुस्कान लिये तुम तो,
इस जिन्दगी में जाने कितना खुमार होता।

आ जाते जिन्दगी में मेरे राजदार बन जो,
सपनों की झाॅकियों का बढ़िया सिंगार होता।

हर रात रातरानी खुषबू बिखेर जाती,
हर दिन आलाप भरता सरगम-सितार होता।

तकदीर है कि ’यादों’ में आते तो तुम चुप हो,
पर काष कि किस्समत में कोई सुधार होता।।


जिन्दगी (गजल)
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
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सुख दुखों की एक आकस्मिक रवानीं जिंदगी
हार-जीतों की की बड़ी उलझी कहानीं जिंदगी
व्यक्ति श्रम और समय को सचमुच समझता बहुत कम
इसी से संसार में धूमिल कई की जिंदगी ।।1।।
कहीं कीचड़ में फॅसी सी फूल सी खिलती कहीं
कहीं उलझी उलझन में, दिखती कई की।
पर निराषा के तमस में भी है आषा की किरण
है इसीसे तो है सुहानी दुखभरी भी जिंदगी ।।2।।
कहीं तो बरसात दिखती कहीं जगमग चाॅदनी
कहीं हॅसती खिल-खिलाती कहीं अनमन जिंदगी।
भाव कई अनुभूतियाॅ कई, सोच कई, व्यवहार कई
पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी ।।3।।
 सह सके उन्होंने ही सजाई है कई की जिंदगी
कठिनाई से जो उनने नित रचा इतिहास
सुलभ या दुख की महत्ता कम, महत्ता है कर्म की
कर्म से ही सजी सॅवरी हुई सबकी जिंदगी ।।4।।


गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२
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मोहब्बत से नफरत की जब मात होगी,
तो दुनिया में सचमुच बड़ी बात होगी।

यहाॅ आदमी-आदमी जब बनेगा,
तभी दिल से दिल की सही बात होगी।

हरेक घर में खुषियों की होंगी बहारें,
कहीं भी न आॅसू की बरसात होगी।

चमक होगी आॅखों में, मुस्कान मुंह पै,
सजी मन में सपनों की बारात होगी।

सुस्वागत हो सबके सजे होंगे आॅगन,
सुनहरी सुबह, रूपहली रात होगी।

न होगा कोई मैल मन में किसी के,
जहाॅ पे ये अनमोल सौगात होगी।

सभी मजहब आपस में मिल के रहेंगे,
नई जिंदगी की षुरूआत होगी।


गजल

बहुत कमजोर है मन
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
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बहुत कमजोर है ये मन जहाॅ जाता फिसल जाता
समझने को बहुत है, पर बहुत कम ये समझ पाता।।
धरा पर हर कदम हर क्षण अनेकों दिखते आकर्षण
जहाॅ भी ये चला जाता, बचा खुद को नहीं पाता।।
अचानक ही लुभा लेती दमकती रूपसी माया
सदा अनजान सा नादान ये लालच में फॅस जाता।।
जहाॅ मिलती कड़कती धूप में इसको घनी छाया
वहीं पर बैठ कुछ पल काटने को ये ललच जाता।।
तरसता है उसे पाने, जहाॅ दिखती सरसता है
जिन्हें अपना समझता है नहीं उनसे कोई नाता।।
नदी से तेज बहती धार है दुनियाॅ में जीवन की
कहीं भी अपनी इच्छा से नहीं कोई ठहर पाता।।
सयाने सब बताते है, ये दुनियाॅ एक सपना है
जो भी मिलता है सपने में नहीं कोई काम है आता।।
सिमटते जब सुहाने दिन धुंधली षाम जाती है
समय जबलपुर बीत जाता है दुखी मन बैठ पछताता।।
भले वे हैं जो आने वाले कल का ध्यान रखते हैं
उन्हीं के साथ औरों का भी जीवन तक सॅवर जाता।।


गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
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परेषानी हुआ करती हैं दिल को इन्तजारों में
खुषी मिलती भला किसकों कभी झूठे सहारों में।
किसी के आसरे का सच में कोई भी भरोसा क्या ?
मिलीं नाकामियाॅ उनसे भी थे जो हम गवारों में।
जहाॅ जो आज है षायद न कल वैसा वहाॅ होगा
बदलती रहती है दुनियाॅ, नये दिन नये नजारों में।
कहाॅ पर्वत ढहेंगे कल, कहाॅ भूचाल आयेंगे
नजूमी भी बता सकते नहीं पढ़के सितारों में।
किसी के कल के बारे में कहा कुछ भी न जा सकता
हुआ करते फरक कईयों के कामों औ’ विचारों में।
कभी जिन्ना अलमबरदार थे हिन्दू मुसलमाॅ के
औ’ जाते-जाते थे हिन्दोस्ताॅ के जाॅ निसारों में।
बना गये मगर पाकिस्ताॅ, मिटा दस लाख लोगों को
जो सदियों से बसे थे अपने घर औ’ कारबारों में।
हुई बरबादियाॅ जैसी कभी भूली न जायेंगी
बराबर याद की जायेंगी नये इतिहासकारों में।
चमक तो ऊपरी दिखती सभी आॅखें को आकर्षक
मगर दिल की चमक होती किसी इक की हजारों में।
किसी के दिल को कोई पर भला कब जान पाया है ?
दमकते हीरों से ज्यादा है ककड़ आबषारों में।
वहीं ’इकबाल’ जिनने लिख्खा था ’हिन्दोस्ताॅ प्यारा’
चले गये छोड़ हिन्दोस्ताॅ, बॅटा इसको दो धारों में।
मन में और कुछ होता है, मुॅह कुछ और कहता है
कभी दिखती नहीं बिजली जो दौड़ा करती तारों में।
बहुत मुष्किल है कुछ भी भाॅप पाना कल कि क्या होगा।
हुआ करतीं बहुत सी बातें जब केवल इषारों में।
हजारों बार धोखे उनसे भी मिलते जो अपने हैं
सचाई को छुपाये रखते हैं, मन के विचारों में।
भला इससे सही है अपने पैरों पै खड़े होना
नहीं अच्छा समय खोना निरर्थक इन्तजारों में।
गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२
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बीत गये जो दिन उन्हंे वापस कोई पाता नहीं
पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।
बहती जाती है समय के साथ बेवस जिंदगी
समय की भॅवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।
तरंगे दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं
तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।
आती रहती हैं हमेषा मौसमी तब्दीलियाॅ
पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।
छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर
दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।
उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाॅ
वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।
जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाॅ
किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।
जुड़ गया है आॅसुओं का यादों से रिष्ता सघन
चाह के भी जिसकोे कोई अब बदल पाता नहीं।


आदमी (गजल)
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
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आदमी से बड़ा दुष्मन आदमी का कौन है ?
गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।
हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते
काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।
बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता
जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।
कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की
पर किसी को, माॅगने पर प्यार दे सकता नहीं।।
चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन
हॅस तो सकता है, मगर खुल कर हॅसा सकता नहीं।।
रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग
साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।
नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिके दगा
बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।
सारी दुनियाॅ में यही तो कबड्डी का खेल है
पसर जो पाया जहाॅ पर, फिर सिमट सकता नहीं।।
कैसे हो विष्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर
जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।


कहीं भी मन नहीं लगता
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
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लगाना चाहता हूॅ पर कहीं भी मन नहीं लगता
जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।
न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको
उदासी का कुहासा है सघन, मन से नही हटता
वही घर है, वही परिवार, दुनियाॅ भी वही जो थी
मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नही पगता।।
तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके
घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।
तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको
उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।
अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से
अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।
हमेषा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है
तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।
सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी
तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।
न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों
नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।


आदमीयत से बड़ा जग में नही कोई धरम

गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
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आदमी को फूलों की खुषबू लुटानी चाहिये।
दोपहर में भी न मुरझा मुस्कराना चाहिये।।
बदलता रहता है मौसम, हर जगह पर आये दिन
बेवफा मौसम को भी अपना बनाना चाहियें।
मान अपनी हार अॅधियारों से डरना है बुरा
मिटाने को अॅधेरे दीपक जलाना चाहिये।
मुष्किलें आती हैं अक्सर हर जगह हर राह में
आदमी को फर्ज पर अपना निभाना चाहिये
क्या सही है, क्या गलत है, क्या है करना लाजिमी
उतर के गहराई में, खुद मन बनाना चाहिये।
जिन्दगी के दिन हमेषा एक से रहते नहीं
अपने खुद पर रख भरोसा बढ़ते जाना चाहिये।
जो भी जिसका काम हो, हो जिन्दगी में जो जहाॅ
नेक नियती से उसे करके दिखाना चाहिये।
आदमीयत से बड़ा जग में है नहीं कोई धरम
बच्चों को सद्भाव की घुट्टी पिलाना चाहिये।
चार दिन की जिंदगी में बाॅटिये सबको खुषी
खुदगरज होके न औरों को सताना चाहिये।
किसी का भी दिल दुखे न हो सदा ऐसा जतन
भलाई कर दूसरों की, भूल जाना चाहिये।


गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
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हिलमिल रहो दो दिन को सभी आये हुये है

परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं
आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।
उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये
कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।
नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई
यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।
मजहब तो हर इन्सान की खुषियों के लिये हैं
ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।
औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं
क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।
दुनियाॅ बहुत बड़ी है औ’ ऊॅचा है आसमान
नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।
फूलों के रंग रूप औ’ खुषबू अलग है पर
हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।
मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता
हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।
कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो
जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।
इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो
इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।


गजल
प्रो सी बी  श्रीवास्तव विदग्ध
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फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२
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पीड़ा का भारी बोझ ये उठाये हुये हैं

चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुये है।
दुख-दर्दो को मुस्कानों में बहलाये हुये हैं।।
जब से है होष सबके लिये खपता रहा मैं
पर जिनको किया सब, वही बल खाये हुये हैं।।
करता रहा हर हाल मुष्किलों का सामना
पर जाने कि क्यों लोग मुॅह फुलाये हुये हैं।।
गम खाके अपनी चोट किसी से न कह सका
हम मन को कल के मोह में भरमाये हुये हैं।।
लगता है अकेले कहीं पै बैठ के रोयें
किससे कहें कि कितने गम उठाये हुये हैं।।
औरों से षिकायत नहीं अपनों से गिला है
जो मन पै परत मैल की चिपकाये हुये हैं।।
दिल पूॅछता है मुझसे कि कोई गल्ती कहाॅ है ?
धीरज धरे पर उसको हम समझाये हुये हैं।।
देखा है इस दुनियाॅ में कई करके भी भलाई
अनजानों से बदनामी ही तो पाये हुये हैं।।
करके भी सही औरों को हम खुष न कर सके
पीड़ा का भारी बोझ ये उठाये हुये हैं।।

muktika

 मुक्तिका
*
बाहर ताली, घर में गाली क्या नसीब है?
हर अपना हो गया सवाली क्या नसीब है??
.
काया की दुश्मन छाया, कैसी माया है?
अपनों से ही धोखा पाया क्या नसीब है??
.
अधिक गरीबों से गरीब हैं धनकुबेर ये
नींद चैन की कभी न पाते क्या नसीब है?
.
जैसा राजा प्रजा हुई है क्यों वैसी ही?
संसद बैठे चोर-मवाली क्या नसीब है?
.
छप्पन भोग लगाए जाते चखे न फिर भी
टुकुर-टुकुर ताका करता प्रभु क्या नसीब है?
.
हाड तोड़ मेहनत को रोटी-नोंन मिल रहा
चटखारे ले चटनी चाटे क्या नसीब है?
.
'ख़ास' न चाहे 'सलिल' बन सके 'आम' आदमी
'आम' न रहता, बने ख़ास गर, क्या नसीब है?
*****
[अवतारी जातीय, सारस छंद]
१०-६-२०१६    

गुरुवार, 9 जून 2016

एक ग़ज़ल : सपनों में लोकपाल था....

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल



सपनों में ’लोकपाल’ था  मुठ्ठी में इन्क़लाब
’दिल्ली’ में जा के ’आप’ को क्या हो गया जनाब !

वादे किए थे आप ने ,जुमलों का क्या हुआ
अपने का छोड़ और का लेने लगे हिसाब  ?

कुछ आँकड़ों में ’ आप’ को जन्नत दिखाई दी
गुफ़्तार ’आप’ की हुआ करती  है लाजवाब

लौटे हैं हाथ में लिए बुझते हुए  चराग
निकले थे घर से लोग जो लाने को माहताब

चढ़ती नहीं है काठ की हांडी ये बार बार
कीचड़ उछालने से ही  होंगे न कामयाब

जो बात इब्तिदा में थी अब वो नहीं रही
वो धार अब  नहीं है ,न तेवर ,न आब-ओ-ताब

गुमराह हो गया है  मेरा मीर-ए-कारवां
’आनन’ दिखा रहा है वो फिर भी हसीन ख़्वाब

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
आप [A.A.P]   =Noun or pronoun जो आप समझ लें
गुफ़्तार = बातचीत
मीर-ए-कारवाँ  = कारवां का नेतृत्व करने वाला


muktika

मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
***
[संस्कारी जातीय छंद ]


muktika

हिंदी ग़ज़ल 
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल। 
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे 
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो 
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले 
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा 
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो 
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा 
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
[महाभागवत जातीय छन्द]
२-५-२०१६ 
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई 

बुधवार, 8 जून 2016

muktika

मुक्तिका 
*
पहन जनेऊ, तिलक लगा ले।  
मेहनत मत कर, गाल बजा ले।। 
*
किशन आप, हर भक्तन राधा 
मान, रास मत चूक रचा ले।। 
*
घंटी-घंटा, झाँझ-मँजीरा 
बज, कीर्तन जमकर गा ले।।
*
भोग दिखाकर ठाकुर जी को 
ठेंगा दिखा, आप ही खा ले।।
*
हो न स्वर्गवासी लेकिन तू 
भू पर 'सलिल' स्वर्ग-सुख पा ले।।
***
२-५-२०१६ 
सी २५६ आवास विकास, हरदोई

samiksha

पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता 
कवि चंद्रसेन विराट
                             आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं।  मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं।  यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।  यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है।  

                             गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है।  फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है।  

                             १२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है।  और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है।  पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है।  

                             गीत  तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है  और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं।  कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है।  चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।

                             विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि।  गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन  स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!',  'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।

                             कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है।  इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

१-६-२०१६
***
समीक्षक संपर्क- १२१ बैकुंठधाम कॉलोनी, आनंद बाजार के पीछे, इंदौर ४५२०१८, चलभाष ०९३२९८९५५४०

muktika

मुक्तिका 
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यों हो?
गैर अपनों को बनाते क्यों हो??
*
आबले पैर की ताकत कहकर 
शूल-पत्थर को डराते क्यों हो??
*
गले लग जाओ, नहीं मुँह मोड़ो
आँखों से आँख चुराते क्यों हो?? 
*
धूप सहता है सिरस खिल-खिलकर 
आग छिप उसमें लगाते क्यों हो??
*
दूरियाँ दूर ना करना है तो 
पास तुम मुझको बुलाते क्यों हो??
***
७-८ जून २०१६

मंगलवार, 7 जून 2016

samiksha


पुस्तक सलिला
'सही के हीरो' साधारण लोगों की असाधारणता की मार्मिक कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सही के हीरो, कहानी संग्रह, ISBN 9789385524400, डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण पेपर बैंक बहुरंगी, कहानीकार संपर्क- डी ७ जसूजा सिटी, जबलपुर ४८२००३]
*
मनुष्य में अनुभव किये हुए को कहने की अदम्य इच्छा वाक् क्षमता के रूप में विकसित हुई। अस्पष्ट स्फुट ध्वनियाँ क्रमशः सार्थक संवादों के रूप में आईं तो लयबद्ध कहन कविता के रूप में और क्रमबद्ध कथन कहानी के रूप में विकसित हुए। कहानी, कथा, किस्सा, गल्प, गप्प और चुटकुले विषयवस्तु के आकार और कथ्य के अनुरूप प्रकाश में आये। गद्य में निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत्त, व्यंग्य लेख, आत्मकथा, समीक्षा आदि विधाओं का विकास होने के बाद भी कहानी की लोकप्रियता सर्वकालों में सर्वाधिक थी, है और रहेगी। कहानी वह जो कही जाए, अर्थात उसमें कहे जाने और सुने जाने योग्य तत्व हों। वर्तमान पूँजीवादी राजनीति-प्रधान व्यक्तिपरक जीवन शैली में साहित्य संसाधनों और पहुँच के सफे पर हाशिये में रखे जा रहे जीवट और संघर्ष को पुनर्जीवन दे रहा है।

स्वतंत्रता के पश्चात अहिंसा की माला जपते दल विशेष ने सत्ता पर और हिंसा पर भरोसा करनेवाले अन्य दल विशेष ने शिक्षा संस्थानों और साहित्यिक अकादमियों पर कब्ज़ा कर साहित्यिक विधाओं में वैषम्य और विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण को सामने लाकर सामाजिक संघर्ष को तेज करनेवाले साहित्य और साहित्यकारों को पुरस्कृत किया। फलतः, आम आदमी के नाम पर स्त्री-पुरुष, संपन्न-विपन्न, नेता-जनता, श्रमिक-उद्योगपति, छात्र-शिक्षक, हिन्दू-मुस्लिम आदि के नाम पर टकराव ने सद्भाव, सहयोग, सहकार, विश्वास, निष्ठा आदि को अप्रासंगिक बनने का काम किया। इस पृष्ठभूमि में अत्यन्त अल्प संसाधनों और पिछड़े क्षेत्र से संघर्ष कर स्वयं को विशेषज्ञ चिकित्सक के रूप में स्थापित कर, अपने मरीजों के इलाज के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्ष को पहचान कर मानसिक संबल देनेवाले डॉ. अव्यक्त अग्रवाल ने निर्बल का बल बनने के अपने महाभियान में विवेच्य कहानी संग्रह के माध्यम से पाठकों को भी सहभागी बनने का अवसर दिया है।

इस कहानी संग्रह के अधिकांश पात्र निम्न जीवन स्तर और विपन्नता की मेंड़ पर लगातार चुभ रहे काँटों के बीच पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। नियति ने भले ही इन्हें मरने के लिए पैदा किया हो पर अपनी जिजीविषा के सहारे ये मौत के अनुकूल परिस्थितियों से जूझकर जीवन का राजमार्ग तलाश पाते हैं। साहित्य के प्रभाव, उपयोगिता और पठनीयता पर प्रश्न उठानेवाले इस संग्रह को पढ़ें तो उनके जीवन की नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता का वरण कर सकेगी। परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँसकर लहूलुहान होते हुए भी ऊपर उठने और आगे बढ़ने को प्रेरित करते इस कथा-संग्रह में कथाकार शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता है। कहानी के पात्र पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगति के हलाहल को कंठ में धारकर अपने सपने पूरे होते देखने का अमृत पान करते हुए कहीं काल्पनिक प्रतीत नहीं होते। ये कहानियाँ वास्तव में कल से प्राप्त विरासत को आज सँवार-सुधार कर कल को उज्जवल थाती देने का सारस्वत अनुष्ठान हैं।

'सही के हीरो' शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित देबाशीष साहा द्वारा निर्मित चित्र ही यह बता देता कि आम आदमियों के बीच में से उभरते हुए चरित नायक अपनी भाषा, भूषा, सोच और संघर्ष के साथ पाठक से रू-ब-रू होंगे। मर्मस्पर्शी कहानियाँ तथा प्रेरक कहानियाँ और संस्मरण दो भागों में क्रमशः १० + १८ कुल २८ हैं। संस्मरणात्मक कहानियाँ, पाठक को देखकर भी अनदेखे किये जाते पलों और व्यक्तियों से आँखें मिलाने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं। पात्रों और परिवेश के अनुकूल शब्द-चयन और वाक्य-संरचना कथानक को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। अंतर्जाल पर सर्वाधिक बिकनेवाले संग्रहों में सम्मिलित इस कृति की प्रथम कहानी 'लाइफगार्ड' के नायक एक बेसहारा बच्चे विक्टर को फ्रांसिस पालता है, युवा विक्टर अन्य बेसहारा बच्चे एडम को अपना लेता है और उसे विमाता से बचाने के लिए अपनी प्रेमिका से विवाह करने से कतराता है। डूबते फ्रांसिस को बचाते हुए मौत के कगार पर पहुँचे विक्टर की चिकित्सा अवधि के मध्य विक्टर की प्राणरक्षा की दुआ माँगते एडम और मारिया
एक दूसरे केइतने निकट आ जाते हैं कि नन्हा एडम विक्टर से मारिया मम्मी की माँग कर उसे नया जीवन देता है।

कहानी 'चने के दाने' एक न हो सके किशोर प्रेमियों के पुनर्मिलन की मर्मस्पर्शी गाथा है। कठोर ह्रदय पाठकों की भी ऑंखें नम कर सकने में समर्थ 'आधी परी' तथाकथित समझदारों द्वारा स्नेह-प्रेम की आड़ में अल्पविकसित का शोषण करने पर आधारित है। तरुणी प्रीति के बहाने जीवनसाथी चुनते समय स्वस्थ्य - समझ का संदेश देती है 'पासवर्ड' कहानी। 'एक अलग प्रेम कहानी' साधनहीन ग्रामीण दंपति के एकांतिक प्रेम के समान्तर चिकित्सक-रोगी के बीच महीन विश्वास तन्तु के टूटने तथा बढ़ते व्यवसायीकरण को इंगित करती व्यथा-कथा है। पारिवारिक रिश्तों के बिखरने पर केंद्रित चलचित्र 'बावर्ची' में नायक घरेलू नौकर बनकर परिवार के सदस्यों के बीच मरते स्नेह बंधन को जीवित करता है। कहानी जादूगर में नायिका के कैशोर्य काल का प्रेमी जो अब मनोचिकित्सक है, नायिका में उसके पति के प्रति घटते प्रेम को पुनर्जीवित करता है। 'बहुरुपिया' में साधनहीन भाई-बहिन का निर्मल प्रेम, 'आइसक्रीम कैंडी' में राजनेताओं के कारण आहत होते आमजन, 'ज़िंदगी एक स्टेशन' में बदलते सामाजिक ढाँचे के कारण स्थापित व्यवसायों के अलाभप्रद होने की समस्या और समाधान तथा 'मेरा चैंपियन' में पिता के सपने को पूरा करते पुत्र की कहानी है।

दूसरे भाग में 'सही का हीरो' एक साधनहीन किन्तु अपने सपने साकार करने के प्रति आत्मविश्वास से भरे बच्चे की कथा है। 'गूगल' किसी घटना को देखने के दो भिन्न दृष्टिकोण, 'मैं ठीक हूँ' मौत के मुख से लौटी नन्हीं बच्ची द्वारा जीवन की हर साँस का आनंद लेने की सीख, 'दुश्वारियाँ एक अवसर' अपंग बच्चे के संकल्प और सफलता, 'सफलता मंत्र' जीवन का आनंद लेने, 'मेरी पचमढ़ी और मैं' संस्मरण, 'आसान है' में सच को स्वीकार कर औरों को ख़ुशी देने, 'उमैया एक तमाशा' विपन्न बच्चों में छिपी प्रतिभा, 'एक और सुबह' बचपन की यादों, 'फाँस' जीवनानंद की खोज, 'लोकप्रियता का रहस्य' अपनी क्षमताओं की पहचान, 'वो अधूरी कहानी' जीवन के उद्देश्य की पहचान, 'सफलता सबसे शक्तिशाली मंत्र ' निज सामर्थ्य से साक्षात्, 'स्वतः प्रेरणा' मन की आवाज़ सुनने, 'हम सब रौशनी पुंज' निराशा में आशा, 'हवा का झौंका समीर' में बेसहारा बच्चों के लालन-पालन तथा 'ज़िन्दगी एक चैस बोर्ड' में अपने उद्देश्य की तलाश को केंद्र में रखकर कथा का ताना-बाना बुना गया है।

'सही का हीरो' कहानी संग्रह की विशेषता इसमें साधारणता का होना है। अधिकांश कहानियाँ जीवन में घटी वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। यथार्थ को कल्पना का आवरण पहनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि मूल घटना और पात्रों की विश्वसनीयता, उपयोगिता और सन्देशवाहकता बनी रहे। अधिकांश घटनाएँ और पात्र पाठक के इर्द-गिर्द से ही उठाये गए हैं किन्तु उन्हें देखने की दृष्टि, उनके मूल्याङ्कन का नज़रिया और उसने सीख लेने का हौसला बिलकुल नया है। इन कहानियों में अभाव-उपेक्षा, टकराव-बिखराव, सपने-नपने, गिराव-उठाव, निराशा-आशा, अवनति-उन्नति, विफलता-सफलता, नासमझी और समझदारी अर्थात जीवन रूपी इंद्रधनुष का हर रंग अपनी चमक और चटख के साथ उपस्थित है। नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय, पाठक को लड़ने, बदलने और जीतने का सन्देश देती है। शिल्प की दृष्टि से ये रचनाएँ कहानी, लघुकथा, संस्मरण, शब्द चित्र आदि विधाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।

डॉ. अव्यक्त अग्रवाल की भाषा सहज, सरस, सुगम, विषय, पात्र और परिवेश के अनुकूल है। किसी पहाड़ी से नि:सृत निर्झर की तरह अनगढ़पने में देने की आकुलता, नया ग्रहण करने की आतुरता और सबको अपना लेने की उत्सुकता पात्रों को जीवंत और प्रेरणादायी बनाती है। अव्यक्त जी खुद घटना को व्यक्त नहीं करते, वे पात्र या घटना को सामने आने देते हैं। कम से कम में अधिक से अधिक कहने का कौशल सहज नहीं होता किन्तु अव्यक्त जी इसे कुशलतापूर्वक साध सके हैं। वे पात्र के मुँह में शब्द ठूँसने या कहलाने का कोई प्रयास नहीं करते। उनके पात्र न तो भदेसी होने का दिखावा करते हैं, न सुसंस्कृत होने का पाखण्ड। कथ्य संक्षिप्त - गठा हुआ, संवाद सारगर्भित, भाषा शैली सहज - प्रचलित, शब्द चयन सम्यक - उपयुक्त, मुहावरों का यथोचित प्रयोग, हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन के अनुसार प्रयोग पाठक को बाँधता है। इस उद्देश्यपूर्ण कृति का सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्य में शुमार होना आश्वस्त करता है कि हिंदी तथा साहित्य के प्रेमी पाठकों का अभाव नहीं है। सही के हीरो' ही देश और समाज का गौरव बढ़ाकर मानवता को परिपुष्ट करते हैं। अव्यक्त जी को इस कृति हेतु बधाई। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
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-२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
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sakhi chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा ३३ : सखी  छन्द 
गुरुवार, ७  जून 2016 


​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा तथा इंद्रवज्रा छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ सखी छन्द ​से

छन्द लक्षण -
सखी मानव जातीय चौदह मात्रिक छन्द है।  सखी छन्द के पंक्तयांत में लघु गुरु गुरु (१२२ यगण) या तीन गुरु (२२२ मगण) मात्राएँ होती हैं।  

लक्षण छंद -
चौदह सुमात्रा सखी है 
हो य-म तुकांती सदा ही। 
मानव न भूले हमेशा 
है वतन - भाषा पूजा ही।।  
संकेत- य-म = यगण या मगण 

उदाहरण- 
०१.  मुक्तिका 
*
आँख जब भी बोलती है 
राज दिल के खोलती है 
.
मन बनाता है बहाना 
जुबां गुपचुप तोलती है 
*
ख्वाब करवट ले रहे हैं 
संग कोशिश डोलती है 
*
कामना जनभावना हो 
श्वास में रस घोलती है 
*
वृत्ति आदिम सगा-साथी 
झुका आँख टटोलती है 
*
याचनामय दृष्टि, दाता 
पेंडुलम संग डोलती है 
*
२. राजनीति मायावी है 
    लोभ नीति ही प्यारी है 
    लोक नीति से दूरी है 
    देश भूल मक्कारी है 
***
    
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

दोहा सलिला
*
श्वास सुशीला है मगर, आस हुई खुद्दार।
मंज़िल के दर बाँधती, कोशिश बंदनवार।।
*
नभ मैका तज जब गयीं, बूँदे निज ससुराल। 
सास धरा 'मूँ चायना', करती भई निहाल।। 
*
पावस लख पग द्रुत बढ़े, पहुँचे जल्दी गेह।  
देख षोडशी दामिनी, होते मेघ विदेह।।
*

मुक्तक 
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।। 
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का, 
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
*
एक प्रयोग- * चलता न बस, मिलता न जस, तपकर विहँस, सच जान रे उगता सतत, रवि मौन रह, कब चाहता, युग दाम दे तप तू करे, संयम धरे, कब माँगता, मनु नाम दे मन मारना मत, हारना मत, पा-लुटाना मान रे अंकुर धरा की कोख से फूटें, सहज सुख-दुःख सहें कल्ले बढ़ें, हिल-मिल चढ़ें, ऊँचाइयाँ, नित नव छुएँ तन्हाइयाँ गिरि पर न हों, जंगल सजे, घाटी हँसे परिमल बिखर, छू ले शिखर, धरती सिहर, जय-जय कहे फल्ली खटर-खट-खट बजे, करतल सहित आलाप ले जब तक न मानव काट ले या गिरा दे तूफ़ान आ तब तक खिला रह धूप - आतप सह, धरा-जंगल सजा रच पूर्णिमा के संग कुछ नवगीत, नव अभिव्यक्ति के जय गान तेरा कवि करेंगे, वरेंगे नव चेतना नव कल्पना की अल्पना लख जायेगी खिल ज्योत्सना जो हो पराजित उसे तुझसे मिलेगी नव प्रेरणा नीरस सरस हो जायेगा, पाकर 'सलिल' संवेदना *** [यौगिक जातीय हरिगतिका छंद, बहर साम्य- मुतफायलुं x ४ पदादि लघु , मुस्तफअलन x ४ पदादि गुरु]

doha

दोहा सलिला



दोहा सलिला

आओ! भेंट शिरीष से, हो जमीन की बात
कैसे हँस जी रहा है, नित सह-सह आघात?
*
खड़ा सिरस निज पैर पर, ज्यों हठयोगी सिद्ध
हाय! नोंचने आ गये, मानव रूपी गिद्ध
*
कुछ न किसी से माँगता, करे नहीं अभिमान
देख पराई चूपड़ी, मत ललचा इंसान
*
गिरि, घाटी, बस्तियों को, खिल करता गुलज़ार
मनुज काटकर जलाता, कैसा अत्याचार?
*
फिर खिलने को झर रहा, सिरस नहीं गमगीन
तनिक कष्ट में क्यों हुआ, मुखड़ा मनुज मलीन?
***


सोमवार, 6 जून 2016

सखी छन्द

रसानंद दे छंद नर्मदा ३३ : सखी छन्द

​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा तथा इंद्रवज्रा छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ सखी छन्द ​से

छन्द लक्षण -
सखी मानव जातीय चौदह मात्रिक छन्द है। सखी छन्द के पंक्तयांत में लघु गुरु गुरु (१२२ यगण) या तीन गुरु (२२२ मगण) मात्राएँ होती हैं।

लक्षण छंद -
चौदह सुमात्रा सखी है
हो य-म तुकांती सदा ही।
मानव न भूले हमेशा
है वतन - भाषा पूजा ही।।
संकेत- य-म = यगण या मगण

उदाहरण-
०१. मुक्तिका
*
आँख जब भी बोलती है
राज दिल के खोलती है
.
मन बनाता है बहाना
जुबां गुपचुप तोलती है
*
ख्वाब करवट ले रहे हैं
संग कोशिश डोलती है
*
कामना जनभावना हो
श्वास में रस घोलती है
*
वृत्ति आदिम सगा-साथी
झुका आँख टटोलती है
*
याचनामय दृष्टि, दाता
पेंडुलम संग डोलती है
*
२. राजनीति मायावी है
लोभ नीति ही प्यारी है
लोक नीति से दूरी है
देश भूल मक्कारी है
***

muktika

मुक्तिका
*
आँख जब भी बोलती है
राज दिल के खोलती है
.
मन बनाता है बहाना
जुबां गुपचुप तोलती है
*
ख्वाब करवट ले रहे हैं
संग कोशिश डोलती है
*
कामना जनभावना हो
श्वास में रस घोलती है
*
वृत्ति आदिम सगा-साथी
झुका आँख टटोलती है
*
याचनामय दृष्टि, दाता
पेंडुलम संग डोलती है
***
{ मानव जातीय सखी छंद}

navgeet

एक गीत -
बाँहों में भर शिरीष
जरा मुस्कुराइए
*
धरती है अगन-कुंड, ये
फूलों से लदा है
लू-लपट सह रहा है पर
न पथ से हटा है
ये बाल-हठ दिखा रहा
न बात मानता-
भ्रमरों का नहीं आज से
सदियों से सगा है
चाहों में पा शिरीष
मिलन गीत गाइए
*
संसद की खड़खड़ाहटें
सुन बज रही फली
सरहद पे हड़बड़ाहटें
बंदूक भी चली
पत्तों ने तालियाँ बजाईं
झूमता पवन-
चिड़ियों की चहचहाहटें
लो फिर खिली कली
राहों पे पा शिरीष
भीत भूल जाइए
*
अवधूत है या भूत
नहीं डर से डर रहा
जड़ जमा कर जमीन में
आदम से लड़ रहा
तू एक काट, सौ उगाऊँ
ले रहा शपथ-
संघर्षशील है, नहीं
बिन मौत रह रहा
दाहों में पसीना बहा
तो चहचहाइए
***
६-६-२०१६, ००.४५
जबलपुर