कुल पेज दृश्य

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

Haiku world

haiku from abroad:


Traci Barlow



 
Bogdanka Stojanovski
full moon
lantern under the porch
fading

 
Prem Menon
changing
my timeline photo-
departing winter
 .
last rites-
I delete
her texts
.
 
Emanuela Nicolova
soft breath of spring
night dissolves
in its languor
.
 
Bill Muise, Guilph Ontario
morning frost
on the window
palm prints
.
a childlike voice
parents teach maturity
aging gracefully
.
hidden diary
in an old camera case
fading polaroids
.
underground cave
ancient hieroglyphs
burning candles
.

 


haiku geet: sanjiv

हाइकु गीत:
संजीव
.
रेवा लहरें
झुनझुना बजातीं
लोरी सुनातीं
.
मन लुभातीं
अठखेलियाँ कर
पीड़ा भुलातीं
.
राई सुनातीं  
मछलियों के संग
रासें रचातीं
.
रेवा लहरें
हँस खिलखिलातीं
ठेंगा दिखातीं

.
कुनमुनातीं
सुबह से गले मिल
जागें मुस्कातीं
.
चहचहातीं
चिरैयाँ तो खुद भी
गुनगुनातीं
.
रेवा लहरें
झट फिसल जातीं 
हाथ न आतीं
***

 

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
क्या बताएं?…
संजीव
.
फैसले नज़दीकियों के दरमियाँ हैं
क्या बतायें हम जी क्या मजबूरियाँ हैं

फूल तनहा शूल के घर महफ़िलें हैं
तितलियाँ हैं या हसीं मग़रूरियाँ

नुमाइंदे बोटियाँ खा-खा परेशां
वोटरों को चाँद जैसी रोटियाँ हैं

फास्ट रोज़ा व्रत करो कब कहा उसने?
छलावा करते रहे पंडित-मियाँ हैं

खेल मैदां पर न होता खेल जैसा
खिलाडी छिप चला करते गोटियाँ हैं

'सलिल' गर्मी प्यास है पानी नहीं है
प्रशासन मुस्तैद मँहगी टोटियाँ हैं

*** 

  

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

मुक्तक: संजीव

मुक्तक: संजीव

नवगीत: संजीव

sachitra kavita:

सचित्र कविता: संजीव

कृति चर्चा: अगीत आंजुरी

kruti charcha: sanjiv 
कृति चर्चा: 
अगीत आँजुरी: गुनगुनाती बाँसुरी
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: अगीत आँजुरी, अगीत संग्रहइं. नारायण प्रकाश श्रीवास्तव ‘नजर, आकार क्राउन, आवरण पेपर बैक, २००४, पृष्ठ ५४, ३०/-, संपर्क: ५४० मार्ग २ राजेंद्र नगर लखनऊ २२६००४] 

जीवन में रस माधुरी की निरंतरता अपरिहार्य है. श्वास-आस का संगन ही जीवन की दैनंदिन तल्खियों में माधुर्य घोलकर काव्य सृजन का उत्स बनता है। काव्य का सरसतम रूप गीत है। संक्षिप्तता, भाषा सौष्ठव, कोमलकांत शब्दावली, न्यूनतम शब्द, अधिकतम अभिव्यक्ति के पञ्च तत्व गीत और अगीत दोनों में होते हैं। गीत, नवगीत और अगीत तीनों में अंतर छंदानुशासन का है। गीत पूरी तरह छान्दस अनुशासन और विधान में कसा-गसा होता है। उसमें छूट लेने की गुंजाइश नहीं होती। नवगीत छ्नादास तो होता है पर नवगीतकार को अपना स्वतंत्र छंद रचने की स्वतंत्रता होती है। अगीत छंदानुशासन से पूरी तरह मुक्त होता है किन्तु लय की सत्ता तीनों विधाओं में समान रूप से महत्वपूर्ण होती है।
 

अभियंता का काम ही कंकर-कंकर को तराश कर शंकर करना है। वह सिकता तट से सलिल-धार में पहुँचकर भावांजुरि भर ले तो तो उसमें सृजन और ध्वंस, लय और विलय, ताल और थाप, पार्थक्य और मिलन, दरस और परस एक साथ शब्दायित होते हैं। ऐसी मन:स्थिति ही अगीत आंजुरी के सृजन की भाव भूमि बनती है।

‘ पक्षी करते कलरव
पशु कुलाँचे भरते
संदेश उजागर करते
कटी काली-गहरी रात
मिटा अंधियार
निकला है दिन नया
लेकर आशाओं का सूर्य नया
उठो, जागो और बढ़ो’

भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘उत्तिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत’

झरते फूल हरसिंगार के, आयी बसंत बहार, सृजन का अधर, तेरी याद सता गयी, झरते हुए फूल ने, अस्ताचलगामी सूर्य की छह ने, पक्षी एक सुन्दर सा, आदि अगीत मन को बाँधते हैं। संकलन की लागत और मूल्य न्यून करने की चाह ने रचनाओं का मुद्रण इस तरह किया है जैसे पंक्तियाँ बाग़ में न टहलकर भण्डार गृह में भर दी गयी हों। लगभग १२० पृष्ठ की सामग्री ५६ पृष्ठ में ठूँस दी जाए तो पाठक का आनंद घटता है। उसे पंक्ति न छूट जाय की चंता करनी होती है जो रसानंद प्राप्ति में बाधक होती है। नज़र की नज़र में यह बात आ जाती तो कृति की नयनाभिरामिता के साथ उसकी पठनीयता भी बढ़ती। नज़र की यह कृति अन्य अगीत संग्रहों को पढ़ने की उत्सुकता जगाती है।

*** 

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

कृति चर्चा: (पद्य/दोहा समीक्षा) दोहे पर्यावरण के

kruti charcha: dohe paryavaran ke  
कृति चर्चा: (पद्य/दोहा समीक्षा)
दोहे पर्यावरण के : श्लोक ऋचाएं मन्त्र
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: दोहे पर्यावरण के, दोहा संग्रहकृष्णस्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’, आकार डिमाई, आवरण पेपर बैक दोरंगा, २००४, पृष्ठ ५०, ३०/-, संपर्क: गीतांजलि, ८ आवास मंडल उपनिवेश, नर्मदापुर ४६१००१] 

समयजयी दोहा सधा, मैथिलेन्द्र को मीत
‘दोहे पर्यावरण के, करें प्रकृति से प्रीत

जननि प्रकृति को मानते, हैं भारत के लोग
इसीलिये पूजन करें, किन्तु न शोषण-भोग

दोहन-शोषण प्रकृति का, करता पश्चिम खूब
आमंत्रित निज नाश कर, गया भोग से ऊब

वृक्ष सहित हँसती धरा, होता मरु श्रीहीन
काट वन्य श्री हो रहा, मानव खुद ही दीन

नित्य प्रदूषित कर रहा, मनुज पवन भू नीर
‘सलिल’-खाद्य हो शुद्ध तो, मिटे रोग दुःख पीर

जैविक खेती के लिये, गाय एक वरदान
माता और सपूत हों, गाय और इंसान

मैथिलेन्द्र सच बोलते, बैठ नर्मदा-तीर
पर्यावरण सुधार लें, हम सब धरकर धीर


सहज-सरल भाषा रखी, पाठक लें आनंद
कथ्य-तथ्य स्पष्ट हैं, जो न गुने मतिमंद

पीपल तुलसी नीम के, लिखे कई उपयोग
सेब आँवला बिही भी, हरें व्याधियाँ-रोग

दोहे पर्यावरण के, श्लोक ऋचाएँ मंत्र
जंगन का हित साधने, दोहा उत्तम यंत्र

साधुवाद के पात्र हैं, शर्मा कृष्णस्वरूप
दोहा दुनिया में सजे मैथिलेन्द्र बन भूप

***  

शनिवार, 31 जनवरी 2015

कृति चर्चा (पद्य समीक्षा): संजीव

kruti-charcha: sanjiv

काव्याभिनंदन: भाव-चन्दन
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: काव्याभिनंदन, काव्य संग्रह, संपादक विकास मिश्र, आकार डिमाई, आवरण पेपर बैक, २००६, पृष्ठ ५६, यू.एस.एम. पत्रिका २ बी १३६ नेहरू नगर गाज़ियाबाद २०१००१]
पूत धरा के धरा पर, रहे जमाये पैर
माँ हिंदी को सेवते, वाणी-सुर निर्वैर
शंकाएँ निर्मूल कर, वरा सदा विश्वास
कर्मवीर ने कर्म पर, कभी न छोड़ी आस
रजनी का तम पी लिया, देकर सृजन-उजास
मिला कलम में ही तुम्हें, ईश्वर का आभास
श्रम-निष्ठा के गीत नित, रचे अनवरत मीत
शब्द-जगत प्रति समर्पण, तुम्हें सुहाई रीत
तरु तुम शाखाएँ हुईं, रचनाएँ-अखबार
जीवन को दे पूर्णता, सरस सृजन-संसार
वीतराग-अनुराग मिल, जब जाते हैं खिल
कहे उमाशंकर जगत, सृजन-धार अविकल
कवि मित्रों ने समर्पित, किया भाव-चंदन
काव्य पंक्तियों से किया, अर्पित अभिनन्दन
छोटे-बड़े सभी खड़े, शब्द-सिपाही साथ
कवितांजलि अर्पित करें, मिला हाथ से हाथ
पृष्ठभूमि सबकी अलग, किन्तु भाव है एक
वंदन-चंदन समर्पित, उसे रहा जो नेक
मृदुल किन्तु दृढ़ मनस है, संकल्पी है आत्म
सत-शिव-सुंदर सृजन में, देख रहे परमात्म
नेह-नर्मदा-नीर ले, आया है संजीव
सफल साधना सुयश दे, कलम बने गांडीव
***