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मंगलवार, 3 सितंबर 2013

quran


           

        




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रविवार, 1 सितंबर 2013

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला :
संजीव
*
नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??

*
आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख

*
है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
*
मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
*
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
*
पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
*
'सलिल' तभी  सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
*
जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
*
जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
*
थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
*
'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
*
पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
*
तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
*
साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
*
हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
*
एक द्विपदी:

कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
*

salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in

train se bharat : monisha rajesh


 

 

ट्रेन की खिड़कियों से झांकता इंडिया


इसे जुनून नहीं तो क्या कहेंगे कि लंदन स्थित टाइम मैगजीन के दफ्तर में नौकरी करने वाली मोनीषा एक दिन सिर्फ यह जानने के बाद भारत में एक अजीबोगरीब सफर पर निकल पड़ी थी कि अब देशभर में रेलवे का एक अच्छा-खासा नेटवर्क तैयार हो चुका है। नवंबर 2009 की एक सर्द शाम ऑफिस में उसकी नज़र एक खबर पर पड़ी जिसके मुताबिक भारत में एक-दो नहीं बल्कि पूरी 80 मंजिलों तक अब हवाई नेटवर्क कायम हो चुका था। मगर भौगोलिक नज़रिए से भारत जैसे विशाल देश के मामले में इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा। और फिर देश के हर छोटे बड़े नगरों-शहरों तक हवाई रूट नहीं जाता था! लेकिन भारतीय रेल की पटरियां अब वाकई बहुत दूर निकल चुकी थीं और उन्हीं पर दौडऩे का एक झीना-सा ख्वाब उस शाम मोनीषा की आंखों में कहीं अटककर रह गया था। उसके हाथ एक जुनून लग चुका था।

हिंदुस्तान में एक रेल सैक्शन बन जाने से ‘अराउंड द वल्र्ड इन 80 डेज़’ की चुनौती को स्वीकार किया जा सका था और रिकार्ड 80 दिनों में पूरी दुनिया का चक्कर लगा लेना मुमकिन हुआ था। हैरानी की बात है न कि जो रेलवे नेटवर्क उन्नीसवीं शताब्दी में इस क्लासिक उपन्यास की प्रेरणा बना वही करीब 137 साल बाद एक बार फिर उतनी ही शिद्दत से की गई यात्रा का आधार भी बन गया। हालांकि पात्र इस बार कुछ बदल गए थे और जूल्स वर्न के ‘अराउंड द वल्र्ड इन 80 डेज़’ से प्रेरित और उत्साहित ब्रिटिश जर्नलिस्ट मोनीषा राजेश अपनी जड़ों की तलाश की खातिर एक लंबे सफर के लिए हिंदुस्तान की सरजमीं पर पहुंच चुकी थी।

 
मोनीषा के पास विदेशी यात्रियों के लिए भारतीय रेल का ‘इंडरेल पास’ था जिसकी मियाद कुल 90 दिनों की थी। लेकिन 80 रेलगाडिय़ों में सवारी का सपना इस अवधि के हिसाब से कुछ बड़ा था। बहरहाल, वो अपने देश को उसके असली रंग-ढंग में जानने की खातिर अपनी चमकती आंखों में सपना संजोए पहली रेलगाड़ी में सवार हो चुकी थी। चेन्नई एगमोर स्टेशन पर यात्रियों की रेलम-पेल और इंजनों के शोर ने स्टेशन के बाहर काफी पहले से ही अपनी मौजूदगी का आभास दिला दिया था। मोनीषा को लग गया था कि अगले कुछ महीने उसे अपनी दृश्य-श्रव्य इंद्रियों को ऐसे हमलों के लिए तैयार करना पड़ेगा। 

ट्रेन प्लेटफार्म से खिसकने लगी थी, मोनीषा के इस सफर में उसके साथ एक अंग्रेज़ फोटोग्राफर दोस्त भी था, जिसे खुद मोनीषा साथी और बॉडीगार्ड के तौर पर साथ ले आयी थी। रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर उत्सुकता से ताकती इन दो जोड़ी निगाहों को बहुत जल्द समझ में आ गया कि तेजी से गुम हो रहा जो नज़ारा उन्हें रोमांटिक लग रहा था वो वास्तव में, खिड़की के धुंधलाए शीशे की वजह से वैसा दिख रहा था! लेकिन यह तो शुरुआत भर थी, इस पूरे सफर में ऐसे कई झटके मोनीषा को लगने थे। 14 जनवरी, 2010 को चेन्नई से नागरकोइल के 14 घंटे के सफर के लिए पूरे तामझाम के साथ मोनीषा ट्रेन में सवार थी, उसके पिटारे में हैंड जैल, टिश्यू, फस्र्ट एड किट, सफरनामा दर्ज करने के लिए नोट बुक, भारतीय रेल के विशाल और जटिल नेटवर्क को दिखाने वाला एक बरसों पुराना मैप, कुछ किताबें वगैरह शामिल थीं। नागरकोइल जंक्शन से एक और ट्रेन ने उन्हें कुछ ही मिनटों में कन्याकुमारी छोड़ दिया था। अगले दिन यानी 15 जनवरी को सूर्य ग्रहण का नज़ारा अपनी आंखों और स्मृतियों में कैद करने के लिए मोनीषा की सवारी लग चुकी थी।

अक्सर मंजिलों की तरफ यात्राएं होती हैं, लेकिन मोनीषा की यात्रा इस लिहाज से और भी अजब-गजब हो गई थी कि वो उस मंजिल तक उसे लेकर जाने वाली थी जहां कोई न कोई बड़ी घटना या आयोजन तय था या फिर कोई महत्वपूर्ण स्थल को छू आने की कोशिश होती। देश के धुर दक्षिण से भारतीय रेल की पटरियों के साथ मोनीषा की सिलसिलेवार यात्रा शुरू हुई थी। अगले कुछ दिनों में खजुराहो नृत्योत्सव के मौके पर खजुराहो नगरी की दूरी नापी गई तो एक रोज़ पुणे के ओशो कम्युन की गतिविधियों को नज़दीक से देखने-सुनने के बाद मुंबई में लोकल ट्रेनों की नब्ज़ टटोलने से लेकर राजधानी में मैट्रो की सवारी और रेल म्युजि़यम तक की सैर मोनीषा ने कर डाली। हर दिन करीब 2 करोड़ सवारियों को देशभर में इधर से उधर पहुंचाने वाली भारतीय रेल के साथ अब पूरे चार महीने के लिए जैसे मोनीषा का गुपचुप करार हो गया था।

मोनीषा कहती है कि वो बचपन से सुनती आयी है कि असली हिंदुस्तान भारत की स्लीपर श्रेणी में सफर करता था, लिहाजा उसने खुद भी इसी क्लास में दिन-दिन भर कई-कई किलोमीटर का सफर कर डाला। हालांकि सुरक्षा की खातिर रात होते ही वो अपने एसी कोच में लौट जाती लेकिन दिन में अक्सर वो इस असली हिंदुस्तान से दौड़ती-भागती पटरियों पर संवाद करने में जुटी रहती।

वो कहती है ब्रिटेन की रेलगाडिय़ों और लंदन की मैट्रो ‘ट्यूब’ का सफर बेशक वल्र्ड-क्लास है, मगर उनमें न वो सहजता है और न आत्मीयता जो हिंदुस्तान की ट्रेनों में दिखती है। यहां की रेलगाडिय़ों में उसे अक्सर बिन मांगे सलाह मिलती रही तो आध्यात्मिकता की खुराक की भी कमी नहीं थी उन डिब्बों में जिनमें रात- दिन उठते-बैठते, सोते-जागते उसने चार महीनों में 40,000 किलोमीटर की दूरी को नापा।

इन फासलों और सफर में बिताए दिनों ने मोनीषा को एक दिलचस्प यात्रा वृत्तांत लिखने की प्रेरणा दी जो पिछले दिनों रोली बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘अराउंड इंडिया इन 80 ट्रेन्स’ की शक्ल में बाजार में आ चुका है। मगर भारत ही क्यों, रेल की पटरियां तो दुनियाभर के कोने-कोने में हैं और फिर ट्रांस-साइबेरियन रेलवे जैसे विशालकाय नेटवर्क भी हैं जिनके सफर में एक-दो नहीं बल्कि पूरे 8-10 टाइम ज़ोन पार हो जाते हैं! मोनीषा की भारतीयता की तलाश ही उसे यहां ले आयी हो, ऐसा नहीं है। इस महायात्रा की कामयाबी का जश्न मना रही इस युवा जर्नलिस्ट का कहना है कि उसकी अगली ट्रैवल राइटिंग का सिलसिला भी भारत की सरजमीं पर से ही होकर गुजरेगा।

क्या यह भारत के प्रति उस युवती की दीवानगी है जिसने एक बार बचपन में यहां अपनी जिंदगी के दो बरस बिताए जरूर थे लेकिन कभी बाथरूम में रखे साबुन कुतरने वाले चूहों, कभी दूधवालों तो कभी गैस सिलेंडरों की कालाबाजारी और बेशऊर पड़ोसी से त्रस्त होकर अपने परिवार के साथ दो साल बाद ही वो इंग्लैंड लौट गई थी। यह नब्बे के दिनों के शुरू की बात है। मोनीषा के डॉक्टर माता-पिता अपनी जड़ों को सींचने शेफिल्ड, इंग्लैंड से लौट आए थे, पूरे परिवार को चेन्नई में बसा भी लिया गया था, लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें अपने फैसले की खामियां साफ दिखने लगी थीं और थक-हारकर दुखी मन से वे एक बार फिर वहीं लौट गए जहां से आए थे।
मोनीषा तब बहुत छोटी थी, मगर उस प्रवास की यादें उसके पास बकाया हैं और शायद वो स्मृतियां ही उसकी बेचैनियों का सबब भी हैं।

80 रेलगाडिय़ों का सफर बेचैनियों के सहारे ही हो सकता है, यह मोनीषा से मिलकर जाहिर हो जाता है। दुबली-पतली काया में सिमटी इस युवती के पास मजबूत इरादों के साथ-साथ जुनून भी असीमित है। कभी गुजरात में सोमनाथ मंदिर और द्वारिका तो कभी राजस्थान के दूर-दराज स्थित मंदिर तक की यात्रा कर आना, और कभी सहयात्रियों की सलाह मानकर मध्य प्रदेश में ओरछा तो पश्चिमी तट पर दीव जैसे मोती तलाश लाना आसान नहीं होता। मोनीषा अपने इस सफर में गोवा से मुंबई तक की माण्डवी एक्सप्रेस की यात्रा को सबसे यादगार बताती हैं। हैरत होती है न सुनकर कि इंडियन महाराजा डक्कन ओडिसी जैसी लग्ज़री ट्रेन का सफर भी माण्डवी के आगे बौना साबित हुआ। मोनीषा ने इस राज़ पर से परदा उठाते हुए बताया कि यूरोप में जब भी उसने रेलों से सफर किया तो बाहर के खूबसूरत नज़ारों और उसके बीच हमेशा एक मोटा शीशा अटका रहा मगर माण्डवी में वो डिब्बे के गेट पर ही सीढिय़ों पर पैर लटकाए बैठी रही और कई बार तो पास से गुजरते पेड़-लताएं उसकी पहुंच में होते थे। कुदरती नज़ारों को इतना करीब से देखना-महसूसना उसके लिए एक अलग अनुभव रहा है।

एसी कोच का डिब्बा कैसे रात ढलते ही परदे गिरा देने के बाद घर का एक सुखद कमरा जैसा लगने लगता है, और राजधानी-शताब्दी जैसी गाडिय़ों में खाने-पीने का मज़ा क्या होता है, गर्द और गर्मी से झुलसती स्लीपर श्रेणी की यात्राएं वास्तव में कितनी आनंददायक होती हैं और कैसे रेलगाडिय़ां बस दूरियां नहीं नापतीं बल्कि साथ सफर करने वाले यात्रियों के दिलों के बीच से भी कई बार दूरियों को मिटा डालती हैं ये गाडिय़ां—ऐसे हजारों-हजार अनुभवों को मोनीषा ने इन यात्राओं के दौरान खुद जिया है। वेटलिस्टेड टिकटों के ‘कन्फर्म’ होने का इंतजार, तत्काल टिकटों की जोड़-घटा से लेकर भारतीय रेलवे के तमाम समीकरणों को सीख चुकी मोनीषा आज हमारे रेल शास्त्र को कई हिंदुस्तानियों के मुकाबले कहीं बेहतर ढंग से समझती है। यकीनन, भारतीय रेल को मोनीषा के रूप में एक ब्रांड एंबैसडर मिल गया है।

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(साभार: दैनिक ट्रिब्यून )

geet: anand pathak

एक गीत-
मिलन के पावन क्षणों में ...
आनंद पाठक 
*
 
चार दिन की ज़िन्दगी से चार पल हमने चुराये
मिलन के पावन क्षणों में ,दूर क्यों गुमसुम खड़ी हो ?
 
जानता हूँ इस डगर पर हैं लगे प्रतिबन्ध सारे
और मर्यादा खड़ी ले सामने अनुबन्ध सारे
मन की जब अन्तर्व्यथा नयनों से बहने लग गईं
तो समझ लो टूटने को हैं विकल सौगन्द सारे
 
हो नहीं पाया अभी तक प्रेम का मंगलाचरण तो
इस जनम के बाद भी अगले जनम की तुम कड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में...
 
आ गई तुम देहरी पर कौन सा विश्वास लेकर ?
कल्पनाओं में सजा किस रूप का आभास लेकर ?
प्रेम शाश्वत सत्य है ,मिथ्या नहीं ,शापित नहीं है
गहन चिन्तन मनन करते आ गई चिर प्यास लेकर
 
केश बिखरे, नैन बोझिल कह रहीं अपनी ज़ुबानी
प्रेम के इस द्वन्द में तुम स्वयं से कितनी लड़ी हो
मिलन के पावन क्षणॊं में...
 
हर ज़माने में लिखी जाती रहीं कितनी कथायें
कुछ प्रणय के पृष्ट थे तो कुछ में लिक्खी थीं व्यथायें
कौन लौटा राह से, इस राह पर जो चल चुका है
जब तलक है शेष आशा ,मिलन की संभावनायें
 
यह कभी संभव नहीं कि चाँद रूठे चाँदनी से
तुम हृदय की मुद्रिका में एक हीरे सी जड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में ...

*
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चित्रगुप्त रहस्य:
संजीव 'सलिल'
*
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम....'' चित्रगुप्त को प्रणाम जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में स्थित हैं.

''काया स्थितः सः कायस्थः'' किसी काया में स्थित होने पर वह (सकल सृष्टि का रचनाकार निराकार परात्पर परमब्रम्ह परमात्मा) कायस्थ कहा जाता है.


उसका चित्र या आकार नहीं होता वह जिस काया (देह) का निर्माण तथा चयन करता है उसके अनुरुप आकार या चित्र हो जाता है. काया से उस(आत्मा = परमात्मा का अंश) के निकलते ही काया को 'मिट्टी' कहा जाता है. 


काया से परे जाकर (समाधि या देहावसान के पश्चात्) ही सभी कायाओं के स्वामी से साक्षात् होता है. वही सकल कायाधारियों का कर्म देवता है. व्यवहार जगत में जो इस रहस्य को जानते और मानते हैं वे कायस्थ कहे जाते हैं. 
 कायस्थ विश्व मानवतावाद के पोषक और पालक हैं.  वे हर धर्म, हर पंथ, हर सम्प्रदाय के आस्था रखते हैं.  यही
*

राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद


(कायस्थ सभाओं / संस्थाओं / मंदिरों / धर्मशालाओं / शिक्षा संस्थाओं / पत्र पत्रिकाओं का परिसंघ )
: कार्यालय :
राष्ट्रीय अध्यक्ष: जे. ऍफ़. १/७१, ब्लोक ६, मार्ग १० राजेन्द्र नगर पटना ८०००१६ बिहार
वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष: २०४ , विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन, जबलपुर, ४८२००१ मध्य प्रदेश
महामंत्री: २०९-२१० आयकर कॉलोनी, विनायकपुर, कानपुर २०८०२५ उत्तर प्रदेश

प्रति:
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जयपुर दिनांक 28-10-2012। राष्ट्रीय चित्रगुप्त महापरिषद की केन्द्रीय कार्यकारिणी बैठक  राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री त्रिलोकी प्रसाद वर्मा मुजफ्फरपुर की अध्यक्षता में संपन्न हुई। बैठक में 6 राज्यों से पधारे 35 पदाधिकारी प्रतिनिधियों ने सहभागिता की। महामंत्री चित्रांश डॉ. यू. सी. श्रीवास्तव कानपूर ने बैठक का सञ्चालन करते हुए सनातनधर्मियों के हितों पर कुठाराघात करने और अन्य धर्मावलम्बियों की हित रक्षा की नीति की आलोचना की। समग्र क्रांति आन्दोलन में जे.पी. के अनुयायी रहे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कुमार अनुपम ने बिहार में कायस्थ नव जागरण आन्दोलन की चर्चा की। राजस्थान प्रदेश के संयोजक श्री सचिन खरे तथा उपाध्यक्ष अरुण माथुर ने जातिवादी व्यवस्था को समाज के लिए घातक निरूपित किया। दुर्ग छतीसगढ़ से पधारे राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री अरुण श्रीवास्तव 'विनीत' ने वर्तमान दलीय राजनैतिक प्रणाली से उत्पन्न भ्रष्टाचार को घातक बताया। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष उत्तर प्रदेश श्री कमलकांत वर्मा ने अन्ना हजारे तथा केजरीवाल के आंदोलनों में समाज के समर्थन के प्रति आभार व्यक्त किया।

राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष चित्रांश संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर ने देव चित्रगुप्त तथा कायस्थ धर्म की व्याख्या वैदिक-पौराणिक प्रसंगों द्वारा करते हुए निम्न प्रस्ताव प्रस्तुत किये जो सर्व सम्मति से पारित किये गए।

सामाजिक प्रस्ताव:

1. निराकार परात्पर परब्रम्ह अंश रूप में कायाओं में व्यापकर कायस्थ होते हैं। ऐसे सभी व्यक्ति जो इस सत्य को जानते और मानते हैं कायस्थ महावंश के अंग हैं। वर्ण, जाति, धर्म, पंथ, भाषा, भूषा, क्षेत्र या अन्य किसी भी आधार पर उनमें भेद स्वीकार्य नहीं हैं। महापरिषद में अहिन्दीभाषी सदस्य व पदाधिकारी बनाये जाएँ।

2. अन्य किसी भी पंथ / धर्म / मत के अनुयायी उक्त सूत्र को स्वीकार कर जड़-चेतन के प्रति समता-समानता-सद्भाव भाव धारणकर सनातन धर्म के कायस्थ महावंश में सम्मिलित हो सकते हैं। इस हेतु उन्हें निर्धारित प्रक्रिया का पालनकर अपने आचार-विचार को संयमित रखने, अन्य जनों की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा सबसे समतापरक व्यवहार करने का वचनपत्र देना होगा।

3. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा लाल बहादुर शास्त्री जी के निधन संबंधी नस्तियां एवं कागजात सार्वजनिक किये जाएँ। नेताजी  का मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किया जाए अथवा उनके अज्ञातवास की खोज की जाए तथा जिलाधिकारी फैजाबाद के नाजरात में रखे गुमनामी बाबा के सामान की जाँचकर सूची सार्वजानिक की जाए।

4. सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शंखनाद करते हुई कायस्थ समाज हर क्षेत्र में स्वच्छ छवि के उम्मीदवारों का समर्थन तथा मलिन छवि के उमीदवारों का सक्रिय विरोध करेगा।

राजनैतिक प्रस्ताव:

5. केन्द्रीय मंत्रिमंडल से एक मात्र कायस्थमंत्री को उनके विरुद्ध गंभीर आरोप न होते हुए हटाने तथा गंभीर आरोपों से घिरे मंत्रियों को बनाये रखने का विरोध करते हुए कोंग्रेस अध्यक्ष को लिखा जाए।

6. आरक्षण समाप्त किया जाए तथा सभी को योग्यतानुसार समान अवसर प्राप्ति सुनिश्चित की जाए अथवा सवर्णों के लिए आरक्षण सुनिश्चित कर कायस्थ, ब्राम्हण, क्षत्रिय तथा वैश्य को समान प्रतिशत दिया जाए।

7. आगामी चुनावों को देखते हुए चुनाव क्षेत्रवार कायस्थ मतदाता संख्या, उपयुक्त उम्मीदवार तथा समर्थित उम्मीदवार का चयन किया जाए। टिकिट प्राप्ति पश्चात् सामाजिक समीकरणों का विवेचन कर नीति निर्धारण हेतु समिति का निर्माण किया जाए।

धार्मिक प्रस्ताव:

8. श्री चित्रगुप्त मंदिर उज्जैन, खजुराहो, अयोध्या, पटना तथा कांची के उन्नयन हेतु विशेष योजना बनाई जाए। डाक टिकिट जारी किया जाए।

9. समकालिक कायस्थ महर्षियों महर्षि महेश योगी, सत्य साईं बाबा तथा सहजयोग प्रवर्तिका निर्मला देवी श्रीवास्तव पर डाक टिकिट जारी किया जाए।

10. सनातन धर्मियों हेतु निर्धारित 16 संस्कारों की सामयिकता पर विचार के समय तथा प्रक्रिया का पुनर्निर्धारण किया जाए।

11. विक्रम संवत अनुसार वर्ष भर के तीज-त्योहारों के औचित्य,  पूजन-विधान आदि का निर्धारण कर पत्रक जारी किया जाए ताकि युवा पीढ़ी अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा से अवगत हो सके।

12. कायस्थों तथा श्री चित्रगुप्त के उद्भव एवम योगदान पर शोधकर प्रामाणिक सामग्री प्रकाशित की जाए।

अन्य:

14. गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे कायस्थों का सर्वेक्षण कर उन्हें आय वृद्धि के साधन तथा अवसर प्रदान किये जाएँ।

14. निर्धन छात्रों को अध्ययन हेतु शिक्षण शुल्क तथा पुस्तकें प्रदान करने हेतु समर्थ कायस्थ जनों से संपर्क कर आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाए।

15. विधवा / विधुर विवाह, कन्या भ्रूण संरक्षण / बाल विवाह निषेध, कन्या-शिक्षा, पुत्र-पुत्री समानता, पौधारोपण, जल संरक्षण, पर्यावरण शुद्धिकरण, खुले स्थान पर शौच-निषेध, पुस्तकालय / वाचनालय स्थापना आदि कार्यक्रम इकाई  स्तर पर अपनाएं जाएं।

भाषा विविधा:

दोहा सलिला सिरायकी : ३ 

संजीव

[सिरायकी (लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी, मूल लिपि लिंडा): पंजाब - पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की लोकभाषा, उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से, सह बोलियाँ मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली. सिरायकी में हिंदी के हर वर्ग का ३ रा व्यंजन (ग,ज,ड, द तथा ब) उच्च घोष में बोला तथा रेखांकित कर लिखा जाता है. उच्चारण में 'स' का 'ह', 'इ' का 'हि', 'न' का 'ण' हो जाता है. सिरायकी में दोहा लेखन में हुई त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]

*

हब्बो इत्था मिलण हे, निज करमां डा फल।

रब्बा मैंनूँ मुकुति दे, आतम पाए कल।।

*

सब्भे दिन मन मर्जियाँ, कानूनों डा खून ।

नेता-अफसर खा रए, लोकतंत्र मिल भून।।

*

मीती बोली सुणा- हो , खुशियों दी बरसात।

असां तुवाडे पुत्र हां, ।।

*

खुदगर्जी तज जिंदगी, आपण हित दी सोच।

संबंधों डी जान हे, लाज-हया-संकोच।।

*

ह्ब्बो डी गलती करे, हँस-मुस्काकर माफ़।

कमजोरां कूँ पिआर ही, हे सुच्चा इन्साफ।।

*

THINK: Saboodana : Non Vegetarian Or Veg?


Is Saboodana A Non-Vegetarian Or Vegetarian Food?

Narendra Chandrasen Kavalani
*
Saboodana (साबूदाना )is popular food eaten during fasting and religious events ... Well, read the attached story and then decide yourself!!

In Tamil Nadu, India,in Salem area on the road from Salem to Coimbatore there are many saboodana factories.
We start getting terribly bad smell when we were about 2 kms away from the factories.
Saboodana is made by root like sweet potato. Kerala has this root each weighing about 6kgs. Factory owners buy these roots in bulk during season, make it to pulp and put it in pits of about 40ft x 25ft.
Pits are in open ground and the pulp is allowed to rot for several months. Thousands of tons of roots rot in pits.
There are huge electricbulbs throughout the night where millions of insects fall in the pits.
While pulp is rotting, water is added everyday due to which 2" long white color eel is automatically born
like pests are born automatically in gutter. The walls of pits are covered
by millions ofeels and factory owners with the help of machine crush the pulp with the eels which also become paste.
This action is repeated many times during 5-6 months.
The pulp is thus ready as roots and millions & millions of pests and insects crushed and pasted together. This paste is then passed through round mesh and made into small balls and then polished. This is saboodana.
Now I know why many people don't eat Saboodana treating this asnon-vegetarian. If you find it appropriate and if you think after reading this one cannot relish Saboodana, pass on to those whom you want to save from this tasty food.
​*