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बुधवार, 9 जनवरी 2013

दो कवितायेँ: पंखुरी सिन्हा

दो कवितायेँ:
पंखुरी सिन्हा
 ***
1. सवाल का हल
जो हल कर रही हो तुम,
वो सवाल नहीं है,
सवाल ये नहीं है,
कि मेरे तुम्हारे बीच क्या है,
कितना प्यार, कितनी नफरत,
आक्रोश कितना, गणित कितना,
सवाल ये है कि वो लोग कहाँ हैं,
हमारे कितने दूर, कितने पास,
जो तय कर रहे हैं,
कि हमारे बीच क्या हो,
क्या ये सच नहीं है?
कि वो आसपास हैं,
करीब हमारे?
*
2. पश्चिम की ओर की खिड़की
प्राकृतिक विपदायों की त्रासदी थी,
कोई उनकी लगाम बनाकर,
कर रहा था शासन,
दूर और पास,
किन्ही ख़ास ज़िन्दिगों पर,
और उसे जैसे हर रात ये लगता रहा था,
कि एक खिड़की खुली छूट गयी है,
और घर लौटकर बंद करना है उसे।
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गीत: चलो हम सूरज उगायें -संजीव 'सलिल'

गीत:

चलो हम सूरज उगायें
*
संजीव 'सलिल'
*
चलो! हम सूरज उगाएं...
*
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....

विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलाएं...

आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
*
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सत सुनेंगे।
नाद अनहद गूंजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

*********************

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

बाल गीत: चूँ चूँ चिड़िया चुन दाना -संजीव 'सलिल'

बाल गीत
चूँ चूँ चिड़िया चुन दाना
संजीव 'सलिल'
*

*
चूँ-चूँ चिड़िया चुन दाना.
मुझे सुना मीठा गाना..

तुझको मित्र  बनाऊँगा
मैंने मन में है ठाना..

कौन-कौन तेरे घर में
मम्मी, पापा या नाना?

क्या तुझको भी पड़ता है
पढ़ने को शाला जाना?

दाल-भात है गरम-गरम
जितना मन-मर्जी खाना..

मुझे पूछना एक सवाल
जल्दी उत्तर बतलाना..

एक सरीखी चिड़ियों में
माँ को कैसे पहचाना?

सावधान रह इंसां से.
बातों में मत आ जाना..

जब हो तेरा जन्मदिवस
मुझे निमंत्रण भिजवाना..

अपनी गर्ल फ्रेंड से भी
मेरा परिचय करवाना..

बातें हमने बहुत करीं
चल अब तो चुग ले दाना..
****
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 7 जनवरी 2013

catoon : protect yourself

 

राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद
(कायस्थ सभाओं / संस्थाओं / मंदिरों / धर्मशालाओं / शिक्षा संस्थाओं / पत्र पत्रिकाओं का परिसंघ )
: कार्यालय :
राष्ट्रीय अध्यक्ष: जे. ऍफ़. १/७१, ब्लोक ६, मार्ग १० राजेन्द्र नगर पटना ८०००१६ बिहार
वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष: २०४ , विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन, जबलपुर, ४८२००१ मध्य प्रदेश
महामंत्री: २०९-२१० आयकर कॉलोनी, विनायकपुर, कानपुर २०८०२५ उत्तर प्रदेश
____________________________________________________________
क्रमांक: 055  / राकाम / वराउ / 2012                                                      जबलपुर, दिनाँक: 07-01-2013
प्रतिष्ठार्थ:
माननीय मुख्य मंत्री 
मध्य प्रदेश शासन भोपाल। (pstocmbpl@gmail.com)

विषय: श्री अनंत श्रीवास्तव, निवासी तुलसी नगर भोपाल पर श्री संभव कबीरपंथी द्वारा जानलेवा हमला। 
मान्यवर,
         वन्दे मातरम। 
                 सादर निवेदन है कि आपके कुशल नेतृत्व में मध्य प्रदेश प्रगति, सामाजिक समरसता तथा शांति-व्यवस्था की दिशा में सतत आगे बढ़ रहा है किन्तु आपराधिक मानसिकता के कुछ तत्व कानून-व्यवस्था को हाथ में लेकर अशांति पैदा करने से बाज नहीं आते। ऐसा ही एक प्रकरण गत 5 जनवरी को तुलसी नगर भोपाल में घटित हुआ जब श्री अनंत श्रीवास्तव पर श्री संभव कबीरपंथी तथा श्री टोनी कबीरपंथी द्वारा रिवोल्वर से हमला किया गया। बीच बचाव करने आये दोस्त को भी बख्शा नहीं गया और उस पर भी बट से आघात किया गया। यह समाचार दैनिक भास्कर जबलपुर दिनांक 07-01-2013 के पृष्ठ 9 पर प्रकाशित है। 

                 विशेष चिंता का विषय यह है कि हमलावर दतिया कलेक्टर श्री जी. पी.कबीरपंथी के पुत्र हैं। वर्तमान प्रशासन व्यवस्था में कलेक्टर समूचे ढांचे का कंद्र बिंदु है। किसी कलेक्टर के पुत्र से आम नागरिक से अधिक विवेकपूर्ण तथा संयमित होने की अपेक्षा होती हैक्योंकि वह शैशव से पिता को कानून-व्यवस्था करते हुए देखता है। खेद है कि इस प्रकरण में पिता के शक्ति संपन्न होने के मद में बेटों द्वारा कानून-व्यवस्था को हाथ में लेकर आपराधिक आचरण कर दहशत फ़ैलाने का कार्य किया गया है।  उच्च पदस्थ अधिकारी का पुत्र कानून से ऊपर नहीं हो सकता।

                 अतः, आपसे सादर निवेदन है कि प्रकरण में पूर्ण पारदर्शिता से जांच की जाकर अपराधियों के विरुद्ध समुचित कार्यवाही तत्काल की जाए ताकि उच्छ्रिन्खलता और कानून को हाथ में लेने की मनोवृत्ति पर अंकुश लगे। समाज को यह सन्देश मिलना जरूरी है की पिता के उच्च पद पर होने से गलत काम करने पर सजा से छूट नहीं पाई जा सकती। आशा है आपकी ओर से अस्मुचित त्वरित कार्यवाही की सूचना प्राप्त होगी। 

                  देश तथा प्रदेश पर अपने कुशल नेतृत्व की छाप छोड़ने के साथ अपने नागरिकों के मन में शीघ्र न्याय प्राप्ति की आशा भी जगाई है। देश का बुद्धिजीवी शांतिप्रिय कायस्थ समाज आपके साथ है तथा आपसे न्यायप्राप्ति की आशा करता है। 

                                                                                                                         शुभाकांक्षी 

                                                                                                                संजीव वर्मा 'सलिल'   
                                                                                                              वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष  
                                                                                                          राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद  
प्रतिलिपि:
1. श्री त्रिलोकी प्रसाद वर्मा, राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, मुजफ्फरपुर 
2. डॉ. उमेश चन्द्र श्रीवास्तव, प्रधान महामंत्री, राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, कानपुर   
3. श्री अशोक श्रीवास्तव, संयोजक, विश्व कायस्थ परिषद्, नयी दिल्ली 
4. श्री कैलाश नारायण सारंग, अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा भोपाल 
5. कलेक्टर, भोपाल  (dmbhopal@mp.nic.in)
6. पुलिस आयुक्त भोपाल 
                  को त्वरित कार्यवाही हेतु। कृपया, की गयी कार्यवाही से अवगत करने हेतु अनुरोध है।

                                                                                                                संजीव वर्मा 'सलिल'   
                                                                                                              वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष  
                                                                                                          राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद

 

रविवार, 6 जनवरी 2013

जापानी भाषा देवनागरी से सक्षम बनी ?–डॉ. मधुसूदन

जापानी भाषा देवनागरी से सक्षम बनी ?–डॉ. मधुसूदन
clip_image002जापान को देवनागरी की सहायता.
जापानी, हमारी भाषा से कमज़ोर थी.
अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ की नीति अपनायी .
जापानी भाषा कैसे विकसी ?
(१) जापान और दूसरा इज़राएल.
मेरी सीमित जानकारी में, संसार भर में दो देश ऐसे हैं, जिनके आधुनिक इतिहास से हम भारत-प्रेमी अवश्य सीख ले सकते हैं; एक है जापान और दूसरा इज़राएल.
आज जापान का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. जापान की जनता सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित कुछ अलग है, वैसे ही इज़राएल की जनता भी. इज़राएल की जनता, वहाँ अनेकों देशों से आकर बसी है, इस लिए बहु भाषी भी है.
मेरी दृष्टि में, दोनों देशों के लिए, हमारी अपेक्षा कई अधिक, कठिनाइयाँ रही होंगी. जापान का, निम्न इतिहास पढने पर, आप मुझ से निश्चित ही, सहमत होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है.
(
२) कठिन काम.
जापान के लिए जापानी भाषा को समृद्ध और सक्षम करने का काम हमारी हिंदी की अपेक्षा, बहुत बहुत कठिन मानता हूँ, इस विषय में, मुझे तनिक भी, संदेह नहीं है. क्यों? क्यों कि जापानी भाषा चित्रलिपि वाली चीनी जैसी भाषा है. कहा जा सकता है, (मुझे कुछ आधार मिले हैं उनके बल पर) कि जापान ने परम्परागत चीनी भाषा में सुधार कर उसीका विस्तार किया, और उसीके आधार पर, जपानी का विकास किया.
(
३)जापानी भाषा कैसे विकसी ?
जापान ने, जापानी भाषा कैसे बिकसायी ? जापान की अपनी लिपि चीनी से ली गयी, जो मूलतः चित्रलिपि है. और चित्रलिपि,जिन वस्तुओं का चित्र बनाया जा सकता है, उन वस्तुओं को दर्शाना ठीक ठीक जानती है. पर, जो मानक चित्र बनता है, उसका उच्चारण कहीं भी चित्र में दिखाया नहीं जा सकता. यह उच्चारण उन्हें अभ्यास से ही कण्ठस्थ करना पडता है. इसी लिए उन्हों ने भी, हमारी देवनागरी का उपयोग कर अपनी वर्णमाला को सुव्यवस्थित किया है.
(
४) जापान को देवनागरी की सहायता.
जैसे उपर बताया गया है ही, कि, जपान ने भी देवनागरी का अनुकरण कर अपने उच्चार सुरक्षित किए थे.आजका जापानी ध्वन्यर्थक उच्चारण शायद अविकृत स्थिति में जीवित ना रहता, यदि जापान में संस्कृत अध्ययन की शिक्षा प्रणाली ना होती. जापान के प्राचीन संशोधको ने देवनागरी की ध्वन्यर्थक रचना के आधार पर उनके अपने उच्चारणों की पुनर्रचना पहले १२०४ के शोध पत्र में की थी. जपान ने उसका उपयोग कर, १७ वी शताब्दि में, देवनागरी उच्चारण के आधारपर अपनी मानक लिपि का अनुक्रम सुनिश्चित किया, और उसकी पुनर्रचना की. —(संशोधक) जेम्स बक.
लेखक: देवनागरी के कारण जपानी भाषा के उच्चारण टिक पाए. नहीं तो, जब जापानी भाषा चित्रमय ही है, तो उसका उच्चारण आप कैसे बचा के रख सकोगे ? देखा हमारी देवनागरी का प्रताप? और पढत मूर्ख रोमन लिपि अपनाने की बात करते हैं.
(
५) जापान की कठिनाई.
पर जब आदर, प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा, इत्यादि जैसे भाव दर्शक शब्द, आपको चित्र बनाकर दिखाने हो, तो कठिन ही होते होंगे . उसी प्रकार फिर विज्ञान, शास्त्र, या अभियान्त्रिकी की शब्दावलियाँ भी कठिन ही होंगी.
और फिर संकल्पनाओं की व्याख्या करना भी उनके लिए कितना कठिन हो जाता होगा, इसकी कल्पना हमें सपने में भी नहीं हो सकती.
इतनी जानकारी ही मुझे जपानियों के प्रति आदर से नत मस्तक होने पर विवश करती है; साथ, मुझे मेरी दैवीदेव नागरीऔर हिंदीपर गौरव का अनुभव भी होता है.
ऐसी कठिन समस्या को भी जापान ने सुलझाया, चित्रों को जोड जोड कर; पर अंग्रेज़ी को स्वीकार नहीं किया.
(६)संगणक पर, Universal Dictionary.
मैं ने जब संगणक पर, Universal Dictionary पर जाकर कुछ शब्दों को देखा तो, सच कहूंगा, जापान के अपने भाषा प्रेम से, मैं अभिभूत हो गया. कुछ उदाहरण नीचे देखिए. दिशाओं को जापानी कानजी परम्परा में कैसे लिखा जाता है, जानकारी के लिए दिखाया है.
निम्न जालस्थल पर, आप और भी उदाहरण देख सकते हैं. पर उनके उच्चारण तो वहां भी लिखे नहीं है.
http://www.japanese-language.aiyori.org/japanese-words-6.html
up =ऊपर—- down=नीचे —-
left=बाएँ—— right= दाहिने
middle = बीचमें front =सामने
back = पीछे —– inside = अंदर
outside =बाहर east =पूर्व
south = दक्षिण 西 west =पश्चिम
north = उत्तर

(
७) डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का आलेख:
डॉ. राम मनोहर लोहिया जी के आलेख से निम्न उद्धृत करता हूँ; जो आपने प्रायः ५० वर्ष पूर्व लिखा था; जो आज भी उतना ही, सामयिक मानता हूँ.
लोहिया जी कहते हैं==>”जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है. ९०-१०० बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से भी कमज़ोर थी. १८५०-६० के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए. उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं? कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले.
पर, जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे. (जैसे हमारे नौकर दिल्ली में करते हैं,–मधुसूदन) जब जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया. सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी.
उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी. अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो. घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा. उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा.
(
८) संकल्प शक्ति चाहिए.
आगे लोहिया जी लिखते हैं,
हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है. सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं. अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है. इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं.
(
९)हिंदी किताबों की कमी?
लोहिया जी आगे कहते हैं; कि,
जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी? अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी. हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ.
संदर्भ: डॉ. लोहिया जी का आलेख, Universal Dictionary, डॉ. रघुवीर
हिंदी हितैषि जापान से क्या सीखें ? –डॉ. मधुसूदन
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(१) जापान ने अपनी उन्नति कैसे की?
जापानी विद्वानों ने जब उन्नीसवीँ शती के अंत में, संसार के आगे बढे हुए, देशों का अध्ययन किया; तो देखा, कि पाँच देश, अलग अलग क्षेत्रों में,विशेष रूप से, आगे बढे हुए थे।
(२) वे देश कौन से थे?
वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
(३) कौन से क्षेत्रो में, ये देश आगे बढे हुए थे?
देश और उन के उन्नति के क्षेत्रों की सूची
जर्मनी{ जर्मनी से जपान सर्वाधिक प्रभावित था।}:
भौतिकी, खगोल विज्ञान, भूगर्भ और खनिज विज्ञान, रसायन, प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, डाक्टरी, औषध विज्ञान, शिक्षा प्रणाली, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र.
Germany: physics, astronomy, geology and mineralogy, chemistry, zoology and botany, medicine, pharmacology, educational system, political science, economics;
फ्रान्स:
प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित, भौतिकी, रसायन, वास्तुविज्ञान (आर्किटेक्चर), विधि नियम, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, जन कल्याण.
France: zoology and botany, astronomy, mathematics, physics, chemistry, architecture, law, international relations, promotion of public welfare;
ब्रिटैन:
मशीनरी, भूगर्भ और खनन(खान-खुदाई) विज्ञान, लोह निर्माण , वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, पशु वर्धन, वाणिज्य, निर्धन कल्याण.
Britain: machinery, geology and mining, steel making, architecture, shipbuilding, cattle farming, commerce, poor-relief;
हॉलंड:
सींचाई, वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, निर्धन कल्याण.
Holland: irrigation, architecture, shipbuilding, political science, economics, poor-relief
संयुक्त राज्य अमरिका:
औद्योगिक अधिनियम, कृषि, पशु-संवर्धन, खनन विज्ञान, संप्रेषण विज्ञान, वाणिज्य अधि नियम.
U.S.A.: industrial law, agriculture, cattle farming, mining, communications, commercial law
(Nakayama, 1989, p. 100).
फिर जापान ने इन देशों से उपर्युक्त विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। अधिक से अधिक जापानियों को ऐसे ज्ञान से अवगत कराना ही उसका उद्देश्य था। जिससे अपेक्षा थी कि सारे जापान की उन्नति हो।
(४) तो फिर क्या, जापान ने सभी जापानियों को ऐसा ज्ञान पाने के लिए अंग्रेज़ी पढायी?
उत्तर: नहीं, यह अंग्रेज़ी पढाने का प्रश्न भी शायद जापान के, सामने नहीं था। क्यों कि जिन ५ देशों से जापान सीखना चाहता था, वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
मात्र अंग्रेज़ी सीखने से इन पाँचो, देशों से, सीखना संभव नहीं था।
दूसरा सभी जापानियों को पाँचो देशों की भाषाएं भी सीखना असंभव ही था।
५) क्या जर्मनी, फ्रांस, और हॉलंड में, अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती ? अंग्रेज़ी तो अंतर राष्ट्रीय भाषा है ना?
उत्तर: नहीं। जर्मनी में जर्मन, फ्रांस में फ़्रांसीसी, हॉलण्ड में डच भाषा बोली जाती थी। पर, इंग्लैंड और अमरिका में भी कुछ अलग अंग्रेज़ी का चलन था। उस समय अमरिका भी विशेष आगे बढा हुआ नहीं था, यह अनुमान आप उसके उस समय के, उन्नति के क्षेत्रों को देखकर भी लगा सकते हैं।
६) तो फिर जापान ने क्या किया?
जापान ने बहुत सुलझा हुआ निर्णय लिया। उसके सामने दो पर्याय थे।
७) कौन से दो पर्याय थे?
एक पर्याय था:
सारे जापानियों को परदेशी भाषाओं में पढाकर शिक्षित करें, उसके बाद वे जपानी, परदेशी विषयों को पढकर विशेषज्ञ होकर जपान की उन्नति में योगदान देने के लिए तैय्यार हो जाय।
(८) दूसरा पर्याय क्या था? {जो जापान नें अपनाया }
कि कुछ गिने चुने मेधावी युवाओं को इन पाँचो देशों में पढने भेजे। ये मेधावी छात्र वहाँ की भाषा सीखे, और फिर अलग अलग विषयों के निष्णात होकर वापस आएँ। वापस आ कर उन निष्णातों नें, जो मेधावी तो थे ही, सारे ज्ञान को जापानी में अनुवादित किया, या स्वतंत्र रीति से लिखा। सारी पाठ्य पुस्तकें जापानी में तैय्यार हो गयी।
(९) इसमें जापान का क्या लाभ हुआ?
जापान की सारी जनता को, उन पाँचो देशों की ज्ञान राशि सहजता से जापानी भाषा में उपलब्ध हुयी।
(१०) तो क्या हुआ?
तो प्रत्येक जापानी का किसी विशेष विषय में विशेषज्ञ होने में लगने वाला समय बचा।
करोडों छात्र वर्ष बचे, उतने वर्ष उत्पादन की क्षमता बढी। समृद्धि भी इसी के कारण बढी। छात्र वर्ष बचने के कारण शिक्षा पर शासन का खर्च भी बचा। उतनी ही शीघ्रता से जापान प्रगति कर पाया। जापान का प्रत्येक नागरिक का जीवन मान भी ऊंचा हो पाया। जापानी शीघ्रता से कम वर्ष लगा कर विशेषज्ञ हो गया। अनुमानतः प्रत्येक जापानी के ५-५ वर्ष बचे, तो उतने अधिक वर्ष वह प्रत्यक्ष उत्पादन में लगाता था।
११) एक और विशेष बात हुयी जापान अपनी चित्र लिपि युक्त भाषा भी बचा पाया।
अपनी अस्मिता, राष्ट्र गौरव भी बढा पाया। भाषा राष्ट्र की संस्कृति का कवच कहा जा सकता है। उसके बचने से जापान की अस्मिता भी अखंडित रही होगी।
(१२) मुझे एक प्रश्न सताता है। जब जापान अपनी कठिनातिकठिन चित्रलिपि द्वारा प्रगति कर पाया, तो हम अपनी सर्वोत्तम देव नागरी लिपि के होते हुए भी आज तक कैसे अंग्रेज़ी की बैसाखी पर लडखडा रहे हैं? हमारा सामान्य नागरिक क्यों आगे बढ नहीं पाया है?

मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।


विश्व कायस्थ कोंफेरेंस हैदराबाद 809 दिसंबर 2012 में
मुख्य अतिथि श्री सुबोधकांत सहाय के साथ आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
पीत वस्त्र में