कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 21 जून 2012

इतिहास के झरोखे से : रानी पद्मिनी --सौजन्य गोयल

इतिहास के झरोखे से :
रानी पद्मिनी
सौजन्य गोयल
 *
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया | 
 

तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |
 
अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |

रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -" मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |

उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया | 
 

इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली | आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया | जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -

बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे |
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |
चितौड़ यात्रा के दौरान पद्मिनी के महल को देखकर स्व.तनसिंह जी ने अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया -

यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |

कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |
 
  sojanyagoel@gmail.com
 

बुधवार, 20 जून 2012

छंद सलिला:

बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद 

-- संजीव 'सलिल'

    
                                                                                                               48478173.jpg?ir=1&redirect_counter=2
बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद
                                                                  संजीव 'सलिल'
*
                     आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६  मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है.     
                                                                            
छंद विधान:
   

आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.

गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, शौर्य-वीरता हो स्वीकार्य..

    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.

ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़.. 
      
    13365296.jpgMAHOBA,%20U.P.%20-%20udal.jpg
.                         
                    महाकवि जगनिक द्वारा १२ वीं सदी में रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे. 

                       पराक्रमी बनाफरी राजपूत योद्धा बंधु आल्हा और ऊदल इस वीरगाथा काव्य के नायक हैं. यह काव्य सदियों तक श्रुति-स्मृति परंपरा में गा-सुन-गाकर एक से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचा. विविध क्षेत्रों में इसके पथ में अंतर इसी कारण है. प्रतिभावान अल्हैतों को स्वनिर्मित छंद जोड़ने से भी आपत्ति न थी दल्तः कथा की अंतर्वस्तु भी संदेह के घेरे में आ गयी. बुंदेली, बघेली, रूहेली, बनाफरी, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी भाषियों ने चंद बरदाई के समकालिक, महोबा के चंदेल शासक परमर्दिदेव के राजकवि  महाकवि जगनिक रचित इस महाकाव्य को घर-घर तक पहुँचाया. इसे 'परमाल रासो' भी कहा जाता है.

                     
                          आज भी सावन आते ही घिरती घटाओं, गरजते मेघों के साथ  बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड आदि अंचलों में अल्हैत (आल्हा गायक) चौपालों पर इस तरह तान छेड़ते हैं मानो गरजते बादलों और तड़कती बिजली से होड़ ले रहे हों. १८६५ तक इस महाकाव्य का कोई प्रामाणिक पथ उपलब्ध नहीं था. १८७१ में चार्ल्स ईलिअट (Charles Elliott) ने अल्हैतों से सुन-सुनकर २३ पदों का संग्रह किया जो १८७१ में पहली बार मुद्रित हुआ. तत्पश्चात जोर्ज अब्राहम ग्रिअर्सन ने इसका परिवर्धित संस्करण प्रकाशित कराया. १८७६ में विलियम वाटरफील्ड ने इसका कुछ अंश अंग्रेजी युद्ध काव्य छन्द बैलेड (ballad) के छन्द विधान के अनुसार 'नौलखा हार या जागीर हेतु युद्ध' (The Nine-Lakh Chain or the maro Feud) शीर्षक से अनुवाद किया. कालांतर में इस तथा अंअनुवादित हिस्से का ग्रिअर्सन लिखित भूमिका सहित सारांश १९२३ में 'आल्हा गीत: उत्तर भारत के चारणों द्वारा गया राजपूती पराक्रम का आख्यान' (The Lay of Alha: A Saga of Rajput Chivalry as Sung by Minstrels of Northern India) शीर्षक से प्रकाशित हुआ.

                       महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:   
    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ..  
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
    ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
                 *
   Sharada%2Bmata%2BMaihar.JPG

    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार.. 
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल.
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
    ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी'), ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
                                      *
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
                                      *
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान.
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
    ('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
                                      *
                                                         
4292918593_a1f9f7d02d.jpg
चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, चनार किले में स्थित सोनवा मंडप जहाँ आल्हा-सोनवा का ब्याह हुआ था, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

अभिनव प्रयोग :

आल्हा में हास्य रस: बुंदेली के नीके बोल...
संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबऊ-कबऊ ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
*
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
*
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय.
                                                                        *
                                    डेट कर रए जिन-तिन कै सँग, रहें न कौनऊ कौनऊ साथ.
मजा लूट लें चार दिना फिर, न्यारे-सांझे झारें हाथ..
सात जनम की बात न करियो, सात दिना मां फोरें माथ.
तोड़ भरोसा एक-दूजे का, दोउऊ पल मां भए अनाथ..
*********
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



मंगलवार, 19 जून 2012

यह हिंदी है - ३ शब्द भंडार वर्धक उपसर्ग --संजीव 'सलिल', दीप्ति गुप्ता


यह हिंदी है -

शब्द भंडार वर्धक उपसर्ग संजीव 'सलिल', दीप्ति गुप्ता                                       
*
संवाद और साहित्य सृजन दोनों में शब्दों के बिना कम नहीं चलता. शब्द भंडार जितना अधिक होगा भावों की अभिव्यक्ति उतनी शुद्ध, सहज, सरल, सरस और सटीक होगी. कुछ शब्दों के साथ अन्य शब्द जोड़कर नये शब्द बनते हैं. नये शब्द के जुड़ने से कभी तो नये शब्द का अर्थ बदलता है, कभी नहीं बदलता.
उप' का अर्थ है समीप या निकट. सर्ग अर्थात सृष्टि करना या बनाना. उपसर्ग का अर्थ है वह शब्द जिसका स्वतंत्र रूप में कोई अर्थ न हो पर वह किसी शब्द के पहले जुड़ कर नया शब्द बना दे.

उदाहरण :
१. 'जय' के पहले 'परा' जुड़ जाए तो एक नया शब्द 'पराजय' बनता है जिसका अर्थ मूल शब्द 'जय' से विपरीत है.

२. 'भ्रमण' के पूर्व 'परि' जुड़ जाए तो नया शब्द 'परिभ्रमण' बना जिसका अर्थ मूल शब्द के समान 'घूमना' ही है.                                                                                                         

उपसर्ग की विशेषताएँ-
१. उपसर्ग स्वतंत्र शब्द नहीं शब्दांश है.
२. उपसर्ग का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता.
३. उपसर्ग का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता.
४. उपसर्ग जोड़ने से बना शब्द कभी-कभी मूल शब्द के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं करता, कभी-कभी अर्थ में नवीनता दिखती है, कभी-कभी अर्थ विपरीत हो जाता है.

कुछ प्रचलित उपसर्ग:                                                                                                 

-
अकल, अकाल, अकाम, अकिंचित, अकुलीन, अकुशल, अकूत, अकृपण, अक्रिय, अखिल, अगम, अगाध, अगोचर, अघोर, अचर, अचार, अछूत, अजर, अजरा, अजन्मा, अजित, अजीत, अजिर, अडिग, अतिथि, अदृष्ट, अधिक, अन्याय, अनृत, अनाज, अनाथ, अनाम, अनार, अनिंद्य, अनीत, अनंत, अपकार, अपरा, अपार, अपूर्ण, अबूझ, अमर, अमूल, अमृत, अलोप, अलौकिक, अलौना, अवमानना, अवतार, अवसर, अवाम, अविराम, अविश्वास, अविस्मरणीय, असत, असर, असार, असीम, असुर. 
अक -
अकसर, अकसीर।
अति = अधिक, ऊपर, उस पार
अत्यंत, अतिक्रमण, अतिकाल, अतिरिक्त, अतिरेक, अतिशय, अतिसार.
अधि = श्रेष्ठ, ऊपर, समीपता
अधिकार, अध्यात्म, अध्यक्ष, अधिपति, अधिरथ, अधिष्ठाता.
अनु - पश्चात्, समानता
अनुकरण, अनुक्रम, अनुनय, अनुचर, अनुभव, अनुमान, अनुरूप, अनुरोध, अनुपात, अनुलोम, अनुवाद, अनुशासन, अनुसार.
अप = लघुता, हीनता, अभाव
अपकार, अपमान, अपयश, अपरूपा, अपवाद, अपव्यय, अपशकुन, अपशब्द, अपहरण.
अभि - समीपता, और, इच्छा प्रगट करना
अभिचार, अभिजीत, अभिभावक, अभिमान, अभिलेश, अभिवादन, अभिशाप।
अव = हीनता, अनादर, पतन
अवगत, अवधारणा, अवनत, अवमानना, अवलोकन, अवतार, अवसान.
= सीमा, ओर ,समेत
आकाश, आचरण, आचार, आगमन, आजन्म, आजानु, आतप, आधार, आपात, आभार, आमरण, आमोद, आराम, आलोक, आवास.     
आविर + प्रगट, बाहर - आविर्भाव, आविष्कार                                                           
इति = ऐसा - इतिहास, इतिवृत्त, इतिपूर्व                                                          
उचट, उचाट, उछल, उतार, उधर, उधार, उमर, उलार.
उप = निकटता, सदृश, गौड़
उपकार, उपचार, उपदेश, उपनयन, उपवन,  उपवास,                                          उत / उद  = ऊपर, उत्कर्ष
उत्तम, उत्साह, उत्थान, उद्गम, उद्गार, उद्देश्य, उद्धार,  उद्बोध,         
चिर = बहुत - चिरकाल, चिरजीवी, चिरायु
दुर  / दुस = बुरा, कठिन, दुष्ट
दुराचार, दुर्गम, दुर्जन, दुर्दशा, दुर्निवार, दुर्योधन, दुर्लभ, दुर्व्यवस्था, दु :शासन, दु :सह.            
नि = भीतर, नीचे, अतिरिक्त - निवास, निदान, निरोग, निरोध, निमंत्रण, निषेध, निबन्ध, निवर्तमान, निरपेक्ष, नियोग, निषेध, निवारण, निवास, निकम्मा,
निर / निस =  बाहर, निषेध, रहित
निरपराध, निरंकुश, निर्जन, निर्धन, निर्बोध, निर्बंध, निर्भय, निर्मम, निर्माण, निर्मोही, निर्लेप, निर्लोभ, निर्वसन, निर्वाचन, निर्वासन, निर्विकार, निर्विरोध, निवृत्त.
नि: / निष्  = बिना, रहित
निष्कलंक, निष्काम, निष्प्राण, निष्पाप.   
नि = भीतर, नीचे, अतिरिक्त
निचाट, निदान, निबंध, निभाव, नियोग, निरोध, निवार, निवारण, निवास.
परा = उल्टा, अनादर, नाश
पराक्रम, परागण, पराजय, पराभव,
बहिर = बाहर - बहिर्द्वार, बहिष्कार, बहिर्मुख
परि = आसपास, चारों ओर, अतिशय
परिक्रमा, परिचय, परिजन, परितोष, परिभ्रमण, परिवाद, परिवर्तन, पर्याप्त.
प्र =  अधिक, आगे, ऊपर
प्रकाश, प्रखर, प्रचार, प्रताड़ना, प्रभार, प्रयास, प्रलय, प्रवर, प्रसन्न.
प्रति = विरोध, प्रत्येक, बराबरी
प्रत्यक्ष, प्रत्येक, प्रतिकूल, प्रतिक्षण, प्रतिनिधि, प्रतिरोध, प्रतिशोध.
बे = बेईमान, बेचारा, बेलगाम, बेदाम, बेलौस, बेबात, बेसहारा

प्र = प्रखर, प्रतुल, प्रस्तर, प्रपौत्र, प्रमाण,  प्रचार, प्रसार, प्रमोद, प्रधान, प्रलाप,      
प्रातस = सवेरे - प्रातःकाल, प्रातःस्मरण, प्रातःस्नान
अमा = पास - अमात्य, अमावस्या,
अलम = सुंदर - अलंकार, अलंकृत, अलंकरण
कु = बुरा -  कुकर्म, कुरूप, कुविचार, कुअवसर,
तिरस् = तुच्छ - तिरस्कार, तिरोभाव,
न = अभाव - नक्षत्र, नपुंसक, नकारना, नटेरना                                   
नाना = बहुत, विविध - नानारूप, नानाजाति, नाना प्रकार              
पर = दूसरा - परदेसी, पराधीन, परोपकार, परलोक, परजात,
पुरा = पहले - पुरातत्व, पुरातन, पुरावृत्त,
स = सहित - सगोत्र, सजातीय, सजीव, सरस, सकल, सजन, सरल, सहज
प्रादुर = प्रकट - प्रादुर्भाव
प्राक = पहले का - प्राक्कथन, प्रादुर्भाव, प्राक्कर्म
पूर्व = पहले का - पूर्वार्ध, पूर्वपक्ष,
पुनर =  पुनः, फिर, दोबारा - पुनर्जन्म, पुनरुक्त, पुनर्विवाह
स / सु / सं= सुखी, अच्छा, श्रेष्ठ                                                                                                            सकल, सगर, सचल, सजल, सप्रेम, समर, सरस, सहर, सुकर्म, सुगम, सुघड़, सुचारू, सुजय, सुडौल, सुदीप, सुधर, सुधार, सुधीर, सुनीति, सुप्रीत, सुफल, सुभीता, सुमन, सुयश, सुलभ, संकट, संकल्प, संकुल, संगम, संगति,  संग्रह, संग्राम, संचयन, संचार, सन्तान, संतोष, संभार, संयम, सन्यास, संलाप, संवाद, संरक्षण, संशय, सम्मान, सम्मुख, सम्मोहन.
स्वयं = अपने आप - स्वयंभू, स्वयंवर, स्वयंसिद्ध, स्वयंसेवक
सह = साथ - सहकारी, सहगमन, सहचर, सहज, सहोदर, सहानुभूति, सहभागी
स्व = अपना, निजी - स्वतंत्र, स्वदेश, स्वभाषा, स्वभाव, स्वराज्य, स्वलोक, स्वजाति, स्वधर्म, स्वकर्म    
सत = अच्छा - सदाचार, सज्जन, सत्कर्म, सत्पात्र, सद्गुरु, सत्परामर्श, सत्कार, सद्धर्म, सत्लोक
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
                                 


विषय: रियायती दर पर घुटने की सर्जरी


आत्मीयजनों !
अंतरजाल पर प्राप्त हुई एक सन्देश आप तक पहुँचा रहा हूँ. शेष
आप स्वयं समझदार हैं. कोई भी सज्जन इसमें वर्णित चिकित्सा
लाभ के जाने के पूर्व स्वयं पुष्टि कर लें. मेरी अथवा दिव्यनर्मदा
परिवार की कोइ जिम्मेदारी नहीं है।


एस @

विषय: रियायती दर पर घुटने की सर्जरी                                                                                

प्यारे दोस्तों,
कई लोग हैं जो 50 साल से ऊपर हैं और  ओस्टियोओर्थ्रोसिस
(osteoarthrosis) घुटने (OA) से पीड़ित हैं. यह अपनी गतिविधि
के स्तर को बहुत प्रभावित करता है. लंबे समय में यह जीवन के
हर पहलू को  गिरावट की ओर जाता है. उनमें से कई को ओस्टेटोमी
 (osteotomy) आपरेशन द्वारा दर्द से मुक्त किया जा सकता है. निजी
तौर पर अस्पताल में उन्हें 45,000.रूपए के आसपास आती है. कई
लोग वित्तीय कठिनाइयों के कारण इस प्रक्रिया से नहीं गुजर सकते हैं. 
                                                                                                                            
कुछ डॉक्टरों के समूह ने स्वेच्छा से  इन जरूरतमंद रोगियों को मुफ्त
सेवाओं की पेशकश की है. इनके अलावा गुजरात के कुछ परोपकारी
नागरिक भी कुछ खर्च वहन करने के लिए सहमत हो गए हैं. इस  कारण,
हम १०,००० रुपये में इस सर्जरी की पेशकश कर सकते हैं.इसमें वे सभी
शुल्क सम्मिलित हैं जो रोगी को अस्पताल में उठाना आवश्यक है.जैसे- 
(ऑपरेशन थियेटर प्रभार, आपरेशन के पहले और बाद में आवश्यक
दवाएं, प्रत्यारोपण शुल्क, सामान्य वार्ड में रहने के लिए प्रभार, पोस्ट
ऑपरेटिव एक्स - रे, भौतिक चिकित्सा प्रभार आदि)

हमारे समूह की ओर से, मैं आप जरूरतमंद व्यक्ति को यह संदेश प्रसरित
कर लाभ लेने का अनुरोध करता हूँ. यदि आप अपने समाज में ऐसे व्यक्ति
को देखते हैं टो कृपया, उन्हें  मुझसे मिलने का सुझाव दें. वे 079-26440118
पर मुझसे समय ले सकते हैं. उन्हें कहनाचाहिए  कि वे ऑपरेशन के लिए
रियायती दर पर मुझसे मिलना चाहते हैं. (कोई भी परामर्श शुल्क का
भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है)



पात्रता मापदंड
· आय 15,000 माह / रुपए से कम है.
· ओपरेशन के बाद 10 साल के लिए सक्रिय रहने की संभावना.
. धूम्रपान,तंबाकू, गुटका या शराब का सेवन नहीं करना चाहिए.



इस कार्यक्रम में आर्थिक रूप से योगदान करने के लिए कृपया,
कम से कम 5 लोगों तक यह संदेश पहुँचाएँ.  इस जागरूकता
अभियान के लिए किसी भी अतिरिक्त लागत के बिना जानकारी
जरूरतमंद व्यक्ति तक पहुँचती है.



शुभकामनाएं,
डा. धीरेन गंजवाला, परियोजना समन्वयक
डा. हितेश गज्जर  चलभाष : 9979432654

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

सोमवार, 18 जून 2012

कविता तुम -- दीप्ति गुप्ता

आत्मशक्ति  को समर्पित कविता 
 
                                     तुम
                                              -- दीप्ति गुप्ता 

          तुम एक लंबे अरसे से मेरे साथ हो
          तुम मेरे जन्म के बीस बरस बाद जन्मी
          फिर भी  मुझसे अधिक अक्लमंद
          समझदार, खुद्दार  और दमदार हो
               तुमने मुझे जीना सिखाया,
           कमजोर पलों में  सही पथ दिखाया
            मेरी बेरतीबी को तरतीब बनाया 
          तुम मेरा संबल हो,तुम मेरी हिम्मत हो
                     जब-जब मैं  अवसाद  में  डूबी
                  तुम सामने आकर खडी हो गई
                 तुम  मेरे जीने  की वजह बनी
           तुम मेरा मनोबल हो, तुम मेरी ताकत हो !
         जब कभी  सोते से उठ  बैठी  रात के स्याह अंधेरों में
         तुमने उजले सपने दिखाए, हज़ार सूरज आँखों में उगाए
                तुम जागती  रहती  मुझे  गले  लगाए
       तुम मेरी  कितनी अपनी हो,  तुम  मेरी आत्म सखी हो
                तुम  मेरे  जीवन का जाबांज  चिराग हो
                जो आंधी तूफ़ान में भी झुकता सिमटता
                उभर-उभर  आता, दिपदिपाता  रहता है
                  तुम  मेरी  हमसफर,  हमनवां  हो
             अब  तुम  मुझमे  पूरी  तरह घुल गई  हो
             इसलिए  अब   तुम   रु-ब-रु  नहीं     होती
             मुझे  अंदर   ही  अंदर   राह   दिखाती 
             मुझसे  एकरस   एकात्म   हो  गई  हो
             तुमने दुनिया  की  जंग लड़ानी सिखाई
                         जीने की कला सिखाई
             मेंरा क्रंदन,  मेरा रुदन, मेरा स्मित, मेरा हास तुम
                       मेरे कई जन्मों का इतिहास तुम
              मेरे  भीतर  दुबकी  क्षमताओं  को  मुखर बनाया
             मेरे बुझे जीवट को चमकाया,आत्मविश्वास को दमकाया
                     तुम मेरी हमराह, मेरी हमख्याल हो
                       किन शब्दों में तुम्हें शुक्रिया दूं
               तुम्हारा  क़र्ज़    अदा  करूँ,  मेरी  ‘आत्म शक्ति’ !     
               क्योंकि  मेरी  तुम  अब, तुम कहाँ  रह गई हो ?
         मैं 'तुम' ही बन गई हूँ ,मैं तुममय  हो  गई  हूँ;
 
                                                   दीप्ति

अभिनव बाल गीत: -- संजीव 'सलिल'

अभिनव बाल गीत:




संजीव 'सलिल'



*
शशि सा सुन्दर मुख मिला,
मेघ राशि से बाल.
बाल गीत रच बाल पर,
सचमुच 'सलिल' निहाल..
*




*
लहर लहर लहरा रहे, बाल पवन संग झूम.
गीत, गजल लिखता गगन, तुमको क्या मालूम.




केशव कईसन अस करी, अस कबहूँ न कराय.
नाना बाबा आह भर, बालों पर बलि जांय..



नागिन सम बल खा रहे,
बाल बुला भूचाल.
सर्वनाम होते फ़िदा,
संज्ञा करें धमाल..


 





 बाल हाल बतला रहे, पिया डालते तेल.
हौले-हौले गूंथते, रूचि-रूचि पोनीटेल.




बाल-बाल बच बाल से, बनते बाल बवाल..
ग्वाल-बाल की फ़ौज लख, हों अरमान निढाल..



क्रोध प्रिया का देखकर,
खड़े पिया के बाल.
राम बचाएं लग रहा,
घर जी का जंजाल..  
*




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in