सलिल सृजन १३ अप्रैल
सॉनेट
रचनाकार कौन है मेरा?
कहो किसलिए मुझे बनाया?
पलट कभी क्या मुझे न हेरा?
भू पर काहे मुझे पठाया?
प्रश्न कई गायब हैं उत्तर।
छोड़ो चिंता, मौज मनाओ।
मुस्कान नव सॉनेट रचकर।।
खुद को रचनाकार बनाओ।।
जिसका अंश उसी के सम हो।
राई-नौन उतारो यम हो।।
१३-४-२०२३
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सॉनेट
आशा
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पल में तोला, पल में माशा।
आशा और निराशा जीवन।
कर्म करो नित बिन प्रत्याशा।।
तभी बनेगी दुनिया मधुबन।।
सुख-दुःख दोनों साथी सच्चे।
धूप-छाँव आती-जाती है।
विहँस उतरते-चढ़ते बच्चे।।
मंज़िल छिनती-मिल जाती है।।
चुग्गा चुगती है गौरैया।
लेकिन खुद कम ही खाती है।
चूजे नाचें ता ता थैया।।
जब मैया चुग्गा लाती है।।
मन में आने दो न निराशा।
सच्ची जीवन साथ आशा।।
१३-४-२०२३
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मुक्तिका
सपनों की लहरों
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सपनों की लहरों मत रुकना।
टूट-बिखर, मत थक, फिर बढ़ना।।
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में।
अपनी किस्मत खुद ही लिखना।।
बाँहों में हो, चाहों में जो।
छल कर खुद को खुद मत ठगना।।
मंज़िल तुम तक खुद आएगी।
चलना गिरना उठना चढ़ना।।
बाधाओं को चित्र मानकर।
फ्रेम कोशिशों का ले मढ़ना।।
१३-४-२०२३
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सॉनेट
आलोक
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लोक में आलोक हो प्रभु!
तोम-तम भी साथ में हो।
हृदय में हो प्रेम हे विभु!
हाथ कोई हाथ में हो।
मुस्कुराएँ हम उषा में।
दोपहर में मेहनत कर।
साँझ झूमे मन खुशी से।।
रात में हो बात जी भर।।
नवाशा दीपक जलाएँ।
गीत गाएँ प्रयासों के।
तुझे सबमें देख पाएँ।।
रंग देखें उजासों के।।
तू बुलाए, दौड़ आएँ।
तुझे तुझसे ही मिलाएँ।।
१३-४-२०२२
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लेख :
नारी-दोहा दूहते
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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नारी जननी है, जन्मदायिनी है। वह जीवन में हर परिस्थिति से सार ग्रहण करती है। कन्या, भगिनी, सहचरी और माँ सभी भूमिकाओं में नारी जीवन में रस संचार करती है। नारी, 'सार सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय' को मूर्तित करती है। यही विशेषताएँ हिंदी के छंदराज दोहा में भी हैं। संस्कृत में इसका नाम 'दोग्धक' है, 'दोग्धि चित्तिमित्ति दोग्धकम्' जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन कर ले।१ नारी भी हर भूमिका में अपने स्वजनों-परोजनों के चित्त में स्थान पाती है। आधुनिक हिंदी के जन्म के पूर्व इसकी जननी प्राकृत भाषा में लगभग ३००० वर्ष पूर्व से दोहा कहा जाता रहा है। दोहा ने हर युग में नारी की हर भूमिका का प्रशस्ति गान ही नहीं किया है अपितु नारी के दर्द और पीड़ा, संघर्ष और उत्कर्ष में साक्षी भी रहा है। दोहा ने नारी की अद्भुत छवियों को अभिव्यक्त कर अमर कर दिया है। बदलते समाज के साथ-साथ बदलती नारी की बदलती छवियों, दायित्वों तथा अवदान का संयुक्त मूल्यांकन दोहे ने किया है। आइए, दृष्टिपात करें-
नारी वंदना
विक्रम संवत १६७७ में रचित 'ढोला मारू दा दोहा' में नारी को समस्त सुरों तथा असुरों की स्वामिनी मानते हुए,सरस्वती कहकर वंदना करते हुए अविरल मति का वरदान माँगा गया है। यहाँ सुरासुर में श्लेष अलंकार का सुन्दर प्रयोग है। सुरासुर के दो अर्थ देव-दानव तथा स्वर-अ स्वर (संगीत संबंधी) है।
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति।
विनय करीन इ वीनवूं,मुझ तउ अविरल मत्ति।।२
उत्सर्ग
काव्य शास्त्र, योग शास्त्र तथा जैनदर्शन के अप्रतिम विद्वान आचार्य हेमचन्द्र सूरी (११४५-१२२९) रचित ग्रंथ 'शब्दानुशासन' के एक दोहे में नायिका अपने पति का देहांत होने पर संतोष व्यक्त कर कहती है 'भला हुआ'। सामान्यत: सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग के लिए मंगलकामना ही करती हैं किन्तु विपरीत आचरण कर रही यह स्त्री अपने सुहाग के साथ-साथ राष्ट्र के प्रति भी कर्तव्य बोध के दिव्य भाव से भी संपन्न है। दोहा उसके इस आचरण पर प्रकाश डालता है-
भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणी म्हारा कंतु।
लज्जेजं तु बयसि अहू, जइ भग्गो घर एन्तु।।३
भला हुआ; मारा गया मेरा बहिन सुहाग।
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग।।
विदुषि
कर्णाटक के चालुक्य नरेश तैलप को ६ बार पराजित कर क्षमादान करने के बाद मालवा का परमार नरेश मुंज सातवें युद्ध में छलपूर्वक हराकर, बंदी बना लिया गया। उसकी ख्याति और व्यक्तित्व का प्रभाव यह की तैलप की विधवा बहिन मृणालिनी बंदी मुंज को दिल दे बैठी।काठियावाड़ गुजरात निवासी आचार्य मेरुतुंग रचित ऐतिहासिक कृति 'प्रबंध चिंतामणि'(१३०४ ई.) में मुंज मृणालवती प्रसंग में नीतिगत दोहों के माध्यम से ज्ञात होता है कि उस समय की नारियाँ विविध विषयों पर विद्वतापूर्ण विमर्श भी कर लेती थीं-
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, जुब्बण गयुं न झूरि।
जइ सक्कर सय खंडथिय, तौ इस मीठी चूरि।।
जा मति पच्छइ संपजइ, सा मति पहिली होइ।
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, बिघन न बेढ़इ कोइ।।
माया
संत शिरोमणि कबीर (सं १४५५-१५७५) के बीजक में नारी संबंधी कई दोहे प्राप्त होते हैं। कबीर नारी को 'माया' मानते हुए कहते हैं -
कबिरा माया चोरटी, मुसि मुसि लावै हाट।
एक कबीरा ना मुसै, कीन्हि बारहबाँट।।
पथ प्रदर्शक
गोस्वामी तुलसीदास (संवत १५५४-१६८०) जब अपनी पत्नी रत्नावली के रूप-पाश में अत्यधिक आसक्त होकर अपना धर्म और कर्तव्य भूल गए तब उनकी पत्नी रत्नावली ने उन्हें धिक्कारते हुए राह दिखाकर राम-भक्ति की ओर उन्मुख करते हुए कहा-
लाज न आवतु आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।।
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति।
तिसु आधी जो राम प्रति, होति न तौ भवभीति।।
जगजननी, पथप्रदर्शक तथा मर्यादाप्रिय रामचरित मानसकार तुलसीदास नारी को परखते रहने की सलाह देते हुए कहते हैं -
उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।
तुलसी परखब रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।
मंत्र तंत्र तंत्री तिया, पुरुष अश्व धन पाठ।
प्रतिगुण योग-वियोग ते, तुरत जाहिं ये आठ।।
नारि नगर भोजन सचिव, सेवक सखा अगार।
सरस परिहरे रंग रस, नीरस विषद विकार।।४
विदुषी रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) अपने पति रामबोला को कर्तव्य का पाठ पढ़कर तुलसीदास बना देती हैं। तुलसी राम भक्ति मार्ग पर पग बढ़ाते हैं तो रत्नावली बाधक नहीं होतीं, वे अपने परित्यग हेतु तुलसी को कभी दोष नहीं देतीं, इसे प्रारब्ध मानकर संतोष करती हैं।
'रतन' देव बस अमृत बिष, बिष अमरित बनि जात।
सूधि हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।।
'रतनावलि' औरै कछू, चहिय होइ कछू और।
भल चाहत 'रतनावली' विधि बस अनभल होइ।
रत्नावली से मिलने की चाह में तुलसी, सर्प को रस्सी समझकर उसे पकड़कर रत्नावली के कक्ष में पहुँच गए थे। रत्नावली इस प्रसंग को भूली नहीं, वे लिखती हैं -
जानि परै कहुँ रज्जु अहि, कहिं अहि रज्जु लषात।
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुँ, 'रतन' समय की बात।
तुलसी के रत्नावली से विमुख होकर राम भक्ति में लीन होने पर भी रत्नावली उनके प्रति मन कोई कटुता नहीं रखतीं और पति को नारी का सच्चा श्रृंगार कह कर अपनी उदार वृत्ति का परिचय देती हैं -
पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार।
सिब सिंगार 'रतनावली', इक पियु बिन निस्सार।।
तुलसी को कर्तव्य बोध कराने के लिए कहे गए अपने कटु वचन के प्रति खेद व्यक्त करते हुए रत्नावली लिखती हैं -
'रतनावलि' मुखबचन हूँ, इक सुख-दुःख को मूल।
सुख सरसावत वचन मधु, कटु उपजावत सूल।।
'रतनावलि' काँटो लग्यो, वैदनि दयो निकारि।
वचन लग्यो निकस्यो कहुँ, उन डारो हिय फारि।।
संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान, अप्रतिम दोहाकार अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) के नीति परक दोहे समय और साहित्य की थाती हैं। रहीम नारी के संरक्षण को आवश्यक मानते हैं-
उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें सँभारिए, पलटत लगै न बार।।
नारी के रूप की वंदना करते हुए कहा गया रहीम का यह दोहा कालजयी है-
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लोन।।
समाज में नारी को अभिव्यक्ति का अवसर न मिले तो अयोग्य जन आगे बढ़ जाते हैं। यह सनातन सत्य संसद में भारतीय स्त्रियों की अल्प संख्या और निरंतर बढ़ते जाते अपराधी सांसदों को देखकर भी कहा जा सकता है। तुलसी और रहीम दोनों ही इस सनातन सत्य को दोहा में कोयल के माध्यम से व्यक्त करते हैं -
'तुलसी' पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।। - तुलसी
पावस देखि रहीम मन, कोयल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।। - रहीम
दोहा सम्राट बिहारी (सं. १६६०-१७७३) नारी (राधा) से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित दुति होइ।।
बिहारी नारी के दैहिक सौंदर्य पर आत्मिक सौंदर्य को वरीयता देते हुए, सौंदर्य को समय-सापेक्ष बताते हैं-
समै समय सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोइ।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेति रुचि होइ।।
नारी अस्मिता का रक्षक दोहा
बुंदेलखंड की अतीव सुंदरी विदुषी कवयित्री-नर्तकी राय प्रवीण की कीर्ति दसों दिशों में फ़ैल गयी थी। वे ओरछा नरेश इंद्रजीत के प्रति समर्पित, उनकी प्रेयसी थीं। अकबर ने इस नारीरत्न को अपने दरबार में भेजने का संदेश भेजा। बादशाह की हुक्मउदूली करने पर राज्य संकट में पड़ जाता। राजगुरु केशवदास राज्य हित में रायप्रवीण के साथ अकबर के दरबार में गए। बादशाह द्वारा आमंत्रण दिए जाने पर राय प्रवीण ने एक दोहा कहा जिसे सुनकर अकबर पानी-पानी हो गया और अतिथियों का सम्मान कर उन्हें बिदा किया। रायप्रवीण की अस्मिता का रक्षक बन दोहा निम्न है-
बिनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान।
जूठी पातल भाखत हैं, बारी बायस स्वान।।
दृढ़ संकल्प की धनी
नारी जो पाना चाहती है, उसे पाने की राह भी निकाल ही लेती है। दृढ़ संकल्प की धनी गोकुल की नारी कुल मर्यादा का पालन करते हुए भी, कृष्ण की मुरली के रस का पान कर ही लेती है-
किती न गोकुल कुल बधू, किहि न काहि सुख दीन।
कौनैं तजि न कुल-गली, व्है मुरली सुर लीन।।
ठाकुर पृथ्वी सिंह 'रसनिधि' (रचनाकाल सं. १६६०-१७१७) भी नारी (राधा) से बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
राधा सब बाधा हरैं, श्याम सकल सुख देंय।
जिन उर जा जोरी बसै, निरबाधा मुख लेंय।।
मतिराम त्रिपाठी (१६०४ ई.-१७०१ई.) भूख-प्यास की परवाह न कर व्रत कर रही नारी से पूछते हैं -
नींद भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख।
जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख।।
नारी के रूप की वंदना करते हुए मतिराम, उसकी समता का प्रयास कर रहे चंद्रमा को दोषी ठहराते हैं-
तेरी मुख समता करी, साहस करि निरसंक।
धूरि परी अरविंद मुख, चंदहि लग्यो कलंक।।
महाभारत कथा में अभिमन्यु द्वारा माँ के गर्भ में चक्रव्यूह वेधन कला सीखने का वर्णन है। वृन्द (१६४३-१७२३ ई.) माँ के गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ रहे प्रभाव को उल्लेखनीय मानते हैं-
नियमित जननी-उदर में, कुल को लेत सभाव।
उछरत सिंहनि कौ गरभ, सुनी गरजत घनराव।।
बृज की नारियों की महिमा बताते हुए वृन्द कहते हैं कि उनके आगे ठकुराई नहीं चलती, स्वयं त्रिभुवनपति उनके पीछे-पीछे जंगल-जंगल घूमते हैं-
अगम पंथ है प्रेम को, जहँ ठकुराई नाहिं।
गोपिन के पाछे फिरे, त्रिभुवन पति बन माहिं।।
वृन्द नारी की तुलना पंडित और लता से करते हैं -
पंडित बनिता अरु लता, सोभित आस्रय पाय।
अंग दर्पन तथा रसबोध जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता सैयद गुलाम अली 'रसलीन' (सं १७७१-१८८२) भी राधा रानी से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
राधा पद बाधा हरन, साधा करि रसलीन।
नारी सौंदर्य का शालीनतापूर्वक वर्णन करने में रसलीन का सानी नहीं है। चंद्रमुखी नायिका बालों को स्निग्ध कर इस तरह जूड़ा बाँध रही है कि नायक की पगड़ी भी लज्जित है -
यों बाँधति जूरो तिया, पटियन को चिकनाय।
पाग चिकनिया सीस की, या तें रही लजाय।।
अमी हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।
विक्रम सतसई के रचयिता चरखारी नरेश महाराज विक्रमादित्य सिंह (राज्यकाल सं. १८३९-१८८६) के दोहे नारी-सौंदर्य के लालित्यपूर्ण वर्णन तथा अनूठी उपमाओं से संपन्न हैं-
तरुनि तिहारो देखियतु, यह तिल ललित कपोल।
मनौ मदन बिधु गोद में, रविसुत करत किलोल।।
गौने आई नवल तिय, बैठी तियन समाज।
आस-पास प्रफुलित कमल, बीच कली छवि साज।।
रामसहाय अस्थाना 'भगत' (रचनाकाल सं. १८६०-१८८०) ने 'राम सतसई में ब्रज भाषा का उपयोग करते हुए नारी के लिए 'गहन जोबन नय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल' को आवश्यक मानते हैं। इस दोहे में रात्रि-रति से थकी नायिका भोर में आलस्य से जंभा रही है-
नैन उनींदे कच छुटे, सुखहि छुटे अंगिराय।
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जँभाय।।
शुद्ध साहित्यिक खड़ी हिंदी में रची गई 'हरिऔध सतसई' के रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध (१५ अप्रैल १८६५-१६ मार्च १९४७) 'सारी बाधाएँ हरे, नारी नयनानंद' कहकर नारी की सामर्थ्य का आभास कराते हैं। नारी के मातृत्व को प्रणतांजलि देते हुए उसकी ममता को पय-धार का कारण बताते हैं हरिऔध जी-
जो महि में होती नहीं, माता ममता भौन।
ललक बिठाता पुत्र को, नयन-पलक पर कौन।।
छाती में कढ़ता न क्यों, तब बन पय की धार।
जब माता उर में उमग, नहीं समाता प्यार।
रामचरित उपाध्याय (सं. १९२९) ने 'बृज सतसई' में नारी सौंदर्य और प्रशंसा के अनेक दोहे रचे हैं। वे एक दोहे में धर्म विमुख नारी को भी दंडित करने की सलाह देते हैं -
नारी गुरु पितु मातु सुत, सचिव महीपति मीत।
बंधु विप्रहु डंडिए, धर्म-विमुख यह नीत।।
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मंगलप्रसाद पुरस्कार से पुरस्कृत कृति 'वीर सतसई' के रचनाकार हरि प्रसाद द्विवेदी 'वियोगी हरि' (१८९५-१९८८ई.) नारी में चंडिका को देखते हैं। वे नारी की उपस्थिति मात्र से 'काम' को नष्ट होता देखते हैं -
जहँ नृत्यति नित चंडिका, तांडव नृत्य प्रचंड।
कुसुम तीर तँह काम के, होत आप सत-खंड।।
नारीरत्न पद्मिनी को 'सिंहिनी' तथा रूप-लोलुप सुलतान को 'कुत्ता' कहते हुए वियोगी हरि जी प्रणतांजलि अर्पित करते हैं-
वह चित्तौर की पद्मिनी, किमि पेहो सुल्तान।
कब सिंहनि अधरान कौ, कियौ स्वयं मधु पान।।
रण जाते चूड़ावत सरदार को मोहासक्त देखकर अपने सर काट कर भेंट देनेवाली रानी, रामकुँवर को बचाने के लिए अपने पुत्र की बलि देनेवाली पन्ना धाय, गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती, मुग़ल सम्राट को चुनौती देनेवाली चाँद बीबी, १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवानेवाली रानी लक्ष्मीबाई आदि के पराक्रम पर दोहांजलि देकर वियोगी हरि बाल विधवाओं की पीड़ा पर भी दोहा रचते हैं -
जहाँ बाल विधवा हियेँ, रहे धधकि अंगार।
सुख-सीतलता कौ तहाँ, करिहौ किमि संचार।।
सुधा संपादक दुलारेलाल भार्गव (१९५६ ई. -६-९-१९७५) नारी में दीपशिखा के दर्शन करते हैं-
दमकत दरपन-दरप दरि, दीपशिखा-दुति देह।
वह दृढ़ इकदिसि दिपत यह, मृदु दस दिसनि सनेह।।
इतना ही नहीं, यहाँ तक कहते हैं कि कामिनी की कृपा होने पर ईश्वर की ओर भी क्यों देखा जाए?
कविता कंचन कामिनी, करैं कृपा की कोर।
हाथ पसारै कौन फिर, वहि अनंत की ओर।।
गीत सम्राट बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' (८-१२-१८९७-२९-४-१९६०) की मुखरा नायिका नेत्रों में प्रिय की छवि होने का उलाहना देते हुए कहती है-
खीझहु मत; रंचक सुनहु, ओ सलज्ज सरदार।
हमरे दृग में लखि तुम्हें, विहँसि रह्यो संसार।।
राष्ट्रीय आत्मा के विशेषण से प्रसिद्ध राजाराम शुक्ल 'चितचोर' (सं. १९५५-) ने 'आँखों' पर लिखे दोहों में हर रस का समावेश किया है। कौवे अपनी निष्ठुर नायिका के नेत्रों की लाल रेखाओं को प्रेम पंथ नहीं; रसिकों के रुधिर से बनी बताते हैं-
लाल-लाल डोरे नहीं, प्रेम-पंथ की रेख।
हैं रसिकों के रुधिर से, अरुण हो रहे देख।।
'चंद्रमुखी के दृग बने. सूर्यमुखी के फूल', 'बिन बंधन अपराध बिन, बाँध लिया मजबूत', 'आँखों की ही है तुला, आँखों के ही बाँट', 'आनन आज्ञा पत्र पर, आँखें मुहर समान जैसी', 'क्यों न चलाऊँ आपकी आँखों पर अभियोग' सरस अभिव्यक्तियों के धनी चितचोर नारी की मादक मधुरता के गायक हैं-
प्रेम दृष्टि की माधुरी, अधर-माधुरी सान।
रूप माधुरी से मधुर, करा रही जलपान।।
राधावल्लभ पांडेय 'बंधु' (जन्म ऋषि पंचमी सं. १९४५) आधुनिक नारी के छलनामय आचरण पर शब्दाघात कर कहते हैं-
अनुचित उचित न सोचती, हरती है सम्मान।
भरी जवानी ताकती, काम भरी मुस्कान।।
जाल बिछाती फाँसती, करके यत्न महान।
ठगती भोले 'बंधु' को, मतलब की मुस्कान।।
दीनानाथ 'अशंक' नारी में देवियों का दिव्य दर्शन करते हैं-
नारी के प्रति आर्यजन, रखते भाव अनूप।
गिनते उसको शारदा; शक्ति रमा का रूप।।
'श्याम सतसई' के रचनाकार तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' (जन्म सं. १५५३) नारी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए उसे नर से श्रेष्ठ तथा प्रकृति को पतिव्रता बताते हैं -
माधव के उर में यदपि, बसते दीनानाथ। राधा उर को देखिए, बसते दीनानाथ।।
नहीं प्रकृति सी पतिव्रता, जग में नारी अन्य।
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।
बुंदेलखंड के श्रेष्ठ उपन्यासकार, चित्रकार और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य' (१६ मार्च १९०७-५ सितंबर १९८६) ने 'दिव्या दोहावली में चित्रों पर आधारित दोहे लिखकर कीर्तिमान स्थापित किया। नारी के नयनों को चाँद कहें या सूर्य? यह प्रश्न दिव्य जी का दोहा पूछ रहा है-
का कहिए इन दृगन कौं, कै चंदा कै भानु।
सौहैं ये शीतल लगें, पीछे होंय कृशानु।।
अलंकारों, उपमाओं और बिम्बों से सज्जित और समृद्ध दिव्य जी के बुंदेली में रचित दोहों में नारी की प्रकृति और स्वाभाव को संकेतों के माध्यम से केंद्र में रखा गया है। ननद - भौजाई के मधुर संबंध पर रचित एक दोहे में दिव्य जी कहते हैं-
परभृत कारे कान्ह की, भगिनी लगे सतभाइ।
ननद हमारी कुहिलिया, कस न हमें तिनगाइ।।
रामेश्वर शुक्ल 'करुण' श्रमजीवी नारी की विपन्नता और आधुनिक की दिशाहीनता को दो दोहों के माध्यम से सामने लाते हैं -
कृषक वधूटीं की दशा, को करि सकै बखान।
जाल निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।
धन्य पश्चिम सुंदरी, मोहनि मूरति-रूप।
नहिं आकर्षे काहि तव, मोहक रूप अनूप।।
मध्य भारत के दीवान बहादुर चंद्रभानु सिंह 'रज' बृज-अवधी मिश्रित भाषा में लिखी गयी 'प्रेम सतसई' में नारी की महिमा का बखान कई दोहों में करते हैं। वे भी श्याम के पहले राधा की वंदना करते हैं। रज नारी का अपमान करनेवालों को चेताते हुए कहते हैं-
अरे बावरे! ध्यान दे, मति करि तिय अपमान।
सति सावित्री जानकी, 'रज' नारी धौं आन।।
संबु राम नहिं करि सके, नहिं पाई निज तीय।
'रस' सोइ नारी स्वर्ग तें, लिए फेरि निज पीय।।
६३८४ दोहों के रचयिता किशोर चंद्र 'कपूर' (जन्म सं. १९५६, कानपुर) नारी को माया मानकर उसके प्रभाव को स्वीकार करते हैं-
माया से बचता नहीं, निर्धन अरु धनवान।
साधु संत छूटत नहीं, माया बड़ी महान।।
'नावक के तीर' तथा 'उग आई फिर दूब' दोहा सतसई सहित १४ कृतियों के रचयिता हरदोई में अनंत चतुर्दशी सं. २०१३ को जन्मे, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर दिवय नर्मदा हिंदी रत्न अलंकरण से अलंकृत डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' वर्षा, पूनम, शरद शाम आदि को नारी से जोड़कर सामयिक संदर्भों के अर्थगर्भित दोहे कहने में सिद्धहस्त हैं। वे नारी के अवदान को संजीवनी कहते हैं -
जब-जब मैं मूर्छित हुआ, लड़कर जीवन युद्ध।
दे चुंबन संजीवनी, तुमने किया प्रबुद्ध।। ५
नारी को प्रेरणा शक्ति के रूप में देखते हैं अनंत जी-
ओठों पर मुक्तक लिखूँ, लिखूँ वक्ष पर छंद।
आँखों पर ग़ज़लें लिखूँ, गति पर मत्तगयंद।। ६
अभियंता कवि चन्द्रसेन 'विराट' (३-१२-१९३६-१५-११-२०१८) अभिनव और मौलिक बिम्ब-विधान तथा नवीन उपमाओं के लिए जाने जाते रहे हैं। गीतों (१२), ग़ज़लों (१०), मुक्तक (३) तथा दोहों (३) के संकलनों के माध्यम से कालजयी साहित्य रचनेवाले विराट ने नारी को केंद्र में रखकर शताधिक दोहे कहे हैं। आधुनिकता के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं में होते नारी शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए विराट कहते हैं-
स्पर्धाएँ सौंदर्य की, रूपाओं की हाट।
धनकुबेर को लग गयी, सुंदरता की चाट।।
नारी शोषण के विरुद्ध दोहे लिखने में विराट जी संकेतों में सत्य को इस तरह उद्घाटित करते हैं कि पाठक के मन तक बात पहुँचे -
ठकुराइन मइके गई, पकी न घर में दाल।
घर की मुर्गी रामकली, उसको किया हलाल।।७
हरियाणा के राज्य कवि उदयभानु 'हंस' (२-८-१९२६-२६-२-२०१९) नारी के जीवन में औरों के हस्तक्षेप को कठपुतली के माध्यम से इंगित करते हैं-
कठपुतली के नाच पर, सब हैं भाव विभोर।
नहीं पता नेपथ्य में, कौन हिलाता डोर।।८
स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' (जन्म २६-११-१९२०) नारी के दो रूपों 'बेटी' और 'बहू' को केंद्र में रखकर एक मर्मस्पर्शी और मार्गदर्शी दोहा कहते हैं-
बेटी जैसी बहू है, इसका रखें विचार।
बहू बने बेटी सरिस, सुखी बसे परिवार।।९
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा पुरस्कृत के नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे नारी उत्पीड़न के प्रमुख कारण दहेज की कुप्रथा पर आघात करते हुए लिखते हैं-
सगुणपंछीयों को रहे, उल्लू-गिद्ध खदेड़।
क्वाँरी बुलबुल हो रही, दौलत देख अधेड़।।१०
परिणय प्रसंग में नारी की भूमिका को लेकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' अपनी बात कुछ व्यंजना और हास्य मिलाकर भिन्न दृष्टिकोण से सामने रखते हैं। यहाँ 'वरदान' में श्लेष का प्रयोग दृष्टव्य है।
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान।
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान।।
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन।
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन।।
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान।
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान।।११
डॉ. किशोर काबरा, कबीर की उलटबाँसी शैली का प्रयोग करते हुए व्यंजना में कहते हैं कि नारी द्वारा तिरस्कृत नर का उद्धार संभव नहीं-
कलियुग में श्री राम का, कैसे हो परित्राण।
स्पर्श अहल्या का मिला, राम हुए पाषाण।।१२
कल्पना रामानी नारी को अन्नपूर्णा कहते हुए उसकी बचत करने की प्रवृत्ति को सामने लाती हैं -
अन्नपूर्णा है सदा, जब भी पड़े अकाल।
संचित दानों से करे, नारी सदा कमाल।।१२
सीता को प्रतीक बनाकर नारी पर दोषारोपण की सामाजिक कुप्रवृत्ति पर आघात करते हैं कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'। सीता को मिले वनवास को न रोक पाने की आत्मग्लानि से श्री राम जलसमाधि लेकर जीवनांत कर लेते हैं -
सीताजी को त्यागकर, पछताए प्रभु खूब।
खिन्न हुए इस ग्लानि से, गए नदी में डूब।। १३
दुर्गावती, चाँदबीबी, लक्ष्मीबाई, अवंतीबाई, चेन्नमा आदि नारी आदि ने देश की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगाने में कोई संकोच नहीं किया। कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने स्वतंत्रता सत्याग्रह में महती भूमिका निभाई। नागार्जुन इन नारी रत्नों को कोयल की उपमा देते हुए एक दोहा कहकर उनके अवदान को नमन करते हैं-
जली ठूंठ पर बैठकर, गयी कोकिला कूक।
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बंदूक।।१४
नारी विवाह पश्चात् ससुराल आ जाती है तो सावन में भाई का स्मरण होना और न मिल पाने की विवशता, उसे व्यथित करती ही है। आर. सी.शर्मा 'आरसी' नारी-वेदना के इस पक्ष को सामने लाते हैं-
सावन बरसे आँख से, ब्याही कितनी दूर।
बाबुल भी मजबूर थे, मैं भी हूँ मजबूर।।
डॉ. शैल रस्तोगी (जन्म १-९-१९२७) नारी जीवन के दो पक्षों को दो दोहों के माध्यम से सामने लाती हैं -
पत्नी, माँ, बेटी, बहिन, भौजी, ननदी, सास।
एक ज़िंदगी में जिए, नारी सौ अहसास।।
बहुएँ बड़बोली हुईं, सासें दिन-दिन मौन।
उलटी गंगा बाह रही, घर को बाँधे कौन।।
डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' (१.४.१९३४-२०१९) संतानों के अन्यत्र जा बसने से उपजी विसंगति को इंगित करते हुए कहते हैं -
बीबी-बच्चे संग ले, शहर जा बसा पूत।
बूढ़ी आँखें साँझ से, घर में देखें भूत।।
नर्मदांचल के ख्यात साहित्यकार माणिक वर्मा (जन्म २५.१२.१९३८) अत्याधुनिकता की चाह में शालीनता-त्याग की कुप्रवृत्ति को इंगित करते हुए कहते हैं -
कटि जंघा पिंडलि कमर, दिया वक्ष भी खोल।
और कहाँ तक सभ्यता, बदला लेगी बोल।।
मधुकर अष्ठाना (२७.१०.१९३९) निरंतर बढ़ते यौन अपराधों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं -
नाबालिग से रेप क्यों, पतित हुआ यूँ देश।
हैवानों ने धर लिया, इंसानों का वेश।।
नारी विमर्श की बात स्थूल रूप से न कर, धूप, चाँदनी, आकाश, धुएँ और बाज चिड़िया, खेत के माध्यम से करते हैं डॉ. कुँवर बेचैन (१.७.१९४२-२९.४.२०२१) -
धूप साँवली हो गयी, हुई चाँदनी शाम।
जब से यह सारा गगन, हुआ धुएँ के नाम।।
फँस चंगुल में बाज के, चिड़िया हुई अचेत।
खड़ा देखता रह गया, हरी चरी का खेत।।
डॉ. राधेश्याम शुक्ल (२६.१०.१९४२) इस चलभाष काल में बिसराई जा चुकी चिट्ठी को नारी से जोड़ते हुए कहते हैं-
औरत चिट्ठी दर्द की, जिस पर पेट मुकाम।
फेंक गया है डाकिया, पत्थरवाले गाम।।
दिनेश शुक्ल (१-१-१९४३) तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ते रहने के नारी के हौसले को सलाम करते हैं -
गाँठ लगी धोती फ़टी, सौ थिगड़े पैबंद।
लड़की बुनती रात दिन, मुस्कानों के छंद।।
सूर्यदेव पाठक 'पराग' (२३-७-१९४३) नारी को नर की शक्ति कहते हैं -
नारी नर की शक्ति है, वही प्रेरणापुञ्ज।
जीवन रेगिस्तान में, सुंदर कुसुमित कुञ्ज।।
डॉ. रमा सिंह (१७.१०.१९४५) नारी के स्वाभिमान की रक्षा को महत्वपूर्ण मानती हैं -
अम्मा की आँखें मुझे, सदा दिलातीं याद।
कमज़र्फों के सामने, मत करना फरियाद।।
डॉ. मिथलेश दीक्षित (१-९-१९४६) नारी के दो रूपों की दो चरित्रों के माध्यम से चर्चा करते हुए युगीन विसंगति को इंगित करती हैं-
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।।
हिंदी के कालजयी छंद दोहा ने हर देश-काल में नारी की अस्मिता का सम्मान कर, उसके अधिकारों के बात की है, शौर्य का गुणगान किया है और पथ भटकी नारियों को सत्परामर्श देकर मार्ग दर्शन भी किया है। हिंदी के प्रतिष्ठित और नवोदित सभी दोहाकारों ने नारी को केंद्र में लेकर दोहे रचे हैं। आदि काल में देवी वंदना, वीरगाथा काल में वीरांगना प्रशस्ति, भक्ति काल में आत्मा-परमात्मा, रीति काल में श्रृंगार और नायिका वर्णन, आधुनिक काल में समसामयिक सामाजिक विसंगतियों के नारी पर प्रभाव को दोहे ने हमेशा ही ह्रदय में बसाया है। एक लेख में यह सब कुछ समेटा नहीं जा सकता। नारी सृष्टि का अर्धांग ही नहीं जननी भी है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। मैंने एक दोहे के माध्यम से नर-नारी की सहभागिता और समन्वय को इंगित किया है -
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान.
पा-देती वरदान वह, जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
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दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, हक लेती है छीन.
समता कर सकता न नर, कोशिश नाहक कीन.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
*
संदर्भ -
१. अनंतराम मिश्र 'अनंत', नावक के तीर।
२. दोहा-दोहा नर्मदा, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
३. हिंदी दोहा सार, सम्पादक बरजोर सिंह 'सरल',
४. रामचरित मानस, गोस्वामी तुलसीदास
५. नावक के तीर, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
६. उग आयी फिर दूब, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
७. चुटकी-चुटकी चाँदनी - चन्द्रसेन 'विराट'
८. दोहा सप्तशती - उदयभानु हंस
९. होते ही अंतर्मुखी - श्यामानंद सरस्वती 'रौशन'
१०. शब्दों के संवाद - आचार्य भगवत दुबे
११. दिव्यनर्मदा.इन / दोहा सलिला - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१२. बाबूजी का भारत मित्र, दोहा विशेषांक - संपादक रघुविंदर यादव
१३. स्वरूप सहस्रसई - कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'
१४. समकालीन दोहा कक्ष - संपादक हरेराम 'समीप'
•
सामयिक दोहे
*
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
*
तब्लीगी की फ़िक्र में, बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
*
बुला रहा जो उसे हो, सबसे भारी दंड
देव लात के बात से, कब मानें उद्द्ण्ड
*
नेताजी की चाह है, हर दिन कहीं चुनाव
कोरोना की फ़िक्र तज, सरकारों का चाव
*
मंत्री जी पहिनें नहीं, मास्क न कोई बात
किंतु नागरिक खा रहे, रोज पुलिसिया लात
*
दवा-ओषजन है नहीं, जनगण है लाचार
शासन झूठ परोसता, हर दिन सौ सौ बार
*
दवा ब्लैक में बेचना, निज आत्मा को मार
लानत है व्यापारियों, पड़े काल की मार
*
अँधा शासन प्रशासन, बहरा गूँगे लोग
लाजवाब जनतंत्र यह, ' सलिल' कीजिए सोग
*
भाँग विष नहीं घोल दें, मुफ्त न पीता कौन?
आश्वासन रूपी सुरा, नेता फिर हों मौन
*
देश लाश का ढेर है, फिर भी हैं हम मस्त
शेष न कहीं विपक्ष हो, सोच हो रहे त्रस्त
*
लोकतंत्र में 'तंत्र' का, अब है 'लोक' गुलाम
आजादी हैं नाम की, लेकिन देश गुलाम
१३-४-२०२१
***
***
दोहे
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
तब्लीगी की फ़िक्र में बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
बुला रहा जो उसे हो सबसे भारी दंड
देव लात के बात से कब मानें उद्द्ण्ड
***
कैसी हो लघुकथा?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
यह यक्षप्रश्न ऐसा है जिसका हर पांडव अलग-अलग उत्तर देता है और यक्ष का उत्तर सबसे अलग होना ही है। अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में दो लघुकथाकारों के चार मत होते हैं, इसलिए एक ही लघुकथाकार अलग-अलग समय पर अलग-अलग बातें कहता है। बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.... संपादक जी के कहे अनुसार 'कम में अधिक' कहना है तो मेरे मत में 'लघु' को 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह 'कम से कम में अधिक से अधिक कहने' में समर्थ होना चाहिए। कितना लघु? हो यह कथ्य की माँग और कथाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है।एक-दो वाक्यों से लेकर लगभग एक पृष्ठ तक। पश्चात्वर्ती पर अधिक महत्वपूर्ण तत्व है 'कथा', कथा वह जो कही जाए, कही वह जाए जो कहने योग्य हो, कहने योग्य वह जिसे कहने का कुछ उद्देश्य हो, निरुद्देश्य कथा कही जाए या न कही जाए, क्या फर्क पड़ता है? सोद्देश्य कथा तो उपन्यास, आख्यायिका, और कहानी में भी कही जाती है। लघुकथा सबसे भिन्न इसलिए है कि इसमें 'पिन पॉइंटेड' कहना है। चरित्र चित्रण, कथोकथन आदि का स्थान नहीं है। लघु कथा में अ. लघुता, आ. कथात्मकता, इ. मर्मस्पर्शिता/मर्मबेधकता तथा ई. उद्देश्य परकता ये चार तत्व अनिवार्य हैं। शीर्षक, मारक वाक्य, अंत, भाषा शैली, शब्द चयन वाक्य संरचना आदि विधा के तत्व नहीं लेखक की शैली के अंग हैं। लघुकथा के कई प्रकार हैं। भारत में सनातन साहित्यिक-सामाजिक विरासत का अभिन्न हिस्सा लघुकथा कई प्रकार से लोककथा, पर्व कथा, बाल कथा, बोध कथा, दृष्टांत कथा, उपदेश कथा, नुक्क्ड़ कथा, यात्रा कथा, शिकार कथा, गल्प, गप्प, आख्यान आदिके रूप में कहीं गयी है। ये विधा के तत्व नहीं प्रकार है। लक्षणात्मकता, व्यञजनात्मकता, सरसता, सरलता, प्रासंगिकता, समसामयिकता आदि लघुकथा विशेष की विशेषता है तत्व नहीं। लघुकथा की सुदीर्घ विरासत, प्रकार और प्रभाव जितना भारत में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
***
दोहा सलिला
*
ओवरटाइम कर रहे, दिवस-रात यमदूत
शाबासी यमराज दें, भत्ते बाँट अकूत
*
आहुति पाकर चंडिका, कंकाली के साथ
भ्रमण करें भयभीत जग, झुका नवाये माथ
*
जनसंख्या यमलोक में, बढ़ी नहीं भूखंड
रेट हाई हैं आजकल, बढ़ी डिमांड प्रचंड
*
हैं रसूल एकांत में, सब बंदों से दूर
कह सोशल डिस्टेंसिंग, बंदे करें जरूर
*
गुरु कहते रख स्वच्छता, बाँटो कड़ा प्रसाद
कोई भूखा ना रहे, तभी सुनूँ अरदास
*
ईसा मूसा नमस्ते करें, जोड़कर हाथ
गले क्यों मिलें दिल मिले, जनम जनम का साथ
*
आज सुरेंद्र नरेंद्र का, है समान संदेश
सुर नर व्यर्थ न घूमिए, मानें परमादेश
*
भोले भंडारी कहें, खुले रखो भंडार
जितना दो उतना बढ़े, सच मानो व्यापार
*
मौन लक्ष्मी दे रहीं, भक्तों को संदेश
दान दिया धन दस गुना, हो दे लाभ अशेष
*
शारद के भंडार को, जो बाँटे ले जोड़
इसीलिए तो लगी है, नवलेखन की होड़
*
चित्र गुप्त हो रहे हैं, उद्घाटित नित आज
नादां कहते दुर्वचन, रहा न दूजा काज
***
नवगीत:
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भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना
बाँसगुला केश सजा हेरूँ ऐना
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना
बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना
बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद
बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना
बगदई मैया पूजूँ, बगियाना भूल
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना, बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल, ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती, सैना = संकेत, बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना, बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना, बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात, बिजना = बाँस का पंखा.
१३-४-२०२०
***
सामयिक दोहे
सामयिक दोहे
*
लोकतंत्र की हो गई, आज हार्ट-गति तेज?
राजनीति को हार्ट ने, दिया सँदेसा भेज?
*
वादा कर जुमला बता, करते मन की बात
मनमानी को रोक दे, नोटा झटपट तात
*
मत करिए मत-दान पर, करिए जग मतदान
राज-नीति जन-हित करे, समय पूर्व अनुमान
*
लोकतंत्र में लोकमत, ठुकराएँ मत भूल
दल-हित साध न झोंकिए, निज आँखों में धूल
*
सत्ता साध्य न हो सखे, हो जन-हित आराध्य
खो न तंत्र विश्वास दे, जनहित से हो बाध्य
*
नोटा का उपयोग कर, दें उन सबको रोक
स्वार्थ साधते जो रहे, उनको ठीकरा लोक
*
'वृद्ध-रत्न' सम्मान दें, बच्चों को यदि आप।
कहें न क्या अपमान यह, रहे किस तरह माप?
*
'उत्तम कोंग्रेसी' दिया, अलंकरण हो हर्ष।
भाजपाई किस तरह ले, उसे लगा अपकर्ष।।
*
'श्रेष्ठ यवन' क्यों दे रहे पंडित जी को मित्र।
'मर्द रत्न' महिला गहे, बहुत अजूबा चित्र।।
*
'फूल मित्र' ले रहे हैं, हँसकर शूल खिताब।
'उत्तम पत्थर'विरुद पा, पीटे शीश गुलाब।।
*
देने-लेने ने किया, सचमुच बंटाढार।
लेन-देन की सत्य ही महिमा सलिल अपार।।
***
१३.४.२०१९
***
पुरोवाक :
कहने-पढ़ने योग्य जीवन प्रसंगों से समृद्ध कांति शुक्ल की कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कंठजनित ध्वनि का उपयोग सीखने के बाद ध्वनियों को अर्थ देकर भाषा का विकास किया। कालान्तर में ध्वनि संकेतों की प्रचुरता के बाद उन्हें स्मरण रखने में कठिनाई अनुभव कर विविध माध्यमों पर संकेतों के माध्यम से अंकित किया। सहस्त्रों वर्षों में इन संकेतों के साथ विशिष्ट ध्वनियाँ संश्लिष्ट कर लिपि का विकास किया गया। भूमण्डल के विविध क्षेत्रों में विचरण करते विविध मानव समूहों में अलग-अलग भाषाओँ और लिपियों का विकास हुआ। लिपि के विकास के साथ ज्ञान राशि के संचयन का जो क्रम आरम्भ हुआ वह आज तक जारी है और सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा। मौखिक या वाचिक और लिखित दोनों माध्यमों में देखे-सुने को सुनाने या किसी अन्य से कहने की उत्कंठा ने कहानी को जान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सभी जातियों में चला आ रहा है सब जगह उनका समाविश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना प्रधान और मार्मिक उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी।"१ प्राचीन कहानियों में कथ्यगत घटनाक्रम सिलसिलेवार तथा भाव प्रधान रहा जबकि आधुनिक कहानी में घटना-श्रृंखला सीधी एक दिशा में न जाकर, इधर-उधर की घटनाओं से जुड़ती चलती है जिनका समाहार अंत में होता है।
चितà¥�र में ये शामिल हो सकता है: 1 वà¥�यकà¥�ति, चशà¥�मे और कà¥�लोज़अप कल्पना-सापेक्ष गद्यकाव्य का अन्य नाम कहानी है... प्रेमचंद कहानी को ऐसी रचना मानते हैं "जिसमें जीवन के किसी अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। बाबू श्याम सुन्दर दस के अनुसार कहानी "एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।" पश्चिमी कहानीकार एडगर एलिन पो के अनुसार कहानी "इतनी छोटी हो कि एक बैठक में पढ़ी जा सके और पाठक पर एक ही प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए लिखी गई हो।" २ "कहानी साहित्य की विकास यात्रा में समय के साथ इसके स्वरुप, सिद्धांत, उद्देश्य एवं कलेवर में आया बदलाव ही जीवंतता का द्योतक है।"३ मेहरुन्निसा परवेज़ के शब्दों में "कहानी मनुष्य के अंतर्मन की अभिव्यक्ति है, मनुष्य के जीवित रहने का सबूत है, उसके गूँगे दुःख, व्यथा, वेदना का दस्तावेज है।"४ स्वाति तिवारी के अनुसार "कहानी गपबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होतीं। वे किसी मन का वचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है, उसकी जिजीविषा है, उसके बनते-बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष हैं, कहानी इसी जीवन की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है, विविधता है, अत: फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता।"५
सारत: कहानी जीवन की एक झलक (स्नैपशॉट) है। डब्ल्यू. एच. हडसन के अनुसार कहानी में एक हुए केवल एक केंद्रीय विचार होना चाहिए जिसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए।६ कांति जी की लगभग सभी कहानियों में यह केंद्रीय एकोन्मुखता देखी जा सकती है। 'बदलता सन्दर्भ' की धोखा तेलिन हो या 'मुकाबला ऐसा भी' की भौजी उनके चरित्र में यह एकोन्मुखता ही उन कहांनियों का प्राण तत्व है।
कहानी के प्रमुख तत्व कथा वस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य हैं। इस पृष्ठ भूमि पर श्रीमती कांति शुक्ल की कहानियाँ संवेदना प्रधान, प्रवाहपूर्ण घटनाक्रम युक्त कथानक से समृद्ध हैं। वे कहानियों के कथानक का क्रमिक विकास कर पाठक में कौतूहलमय उत्सुकता जगाते हुए चार्म तक पहुंचाती हैं। स्टीवेंसन के अनुसार "कहानी के प्रारम्भ का वातावरण कुछ ऐसा होना चाहिए कि किसी सुनसान सड़क के किनारे सराय के कमरे में मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में कुछ लोग धीरे-धीरे बात कर रहे हों" आशय यह कि कहानी के आरम्भ में मूल संवेदना के अवतरण हेतु वातावरण की रचना की जानी चाहिए। कांति जी इस कला में निपुण हैं। 'संभावना शेष' के आरम्भ में नायक का मोहभंग, 'आखिर कब तक' और 'आशा-तृष्णा ना मरे' में केंद्रीय चरित का स्वप्न टूटना, 'करमन की गति न्यारी' में नायिका के बचपन की समृद्धि, 'ना माया ना राम' में बिटियों पर पहरेदारी, 'मुकाबला ऐसा भी' के नायक का सुदर्शन रूप आदि मूल कथा के प्रागट्य पूर्व का वातावरण ऐसा उपस्थित करते हैं कि पाठक के मन में आगे के घटनाक्रम के प्रति उत्सुकता जागने लगती है।
कांति जी रचित कहानियों में पात्रों और घटनाओं का विकास इस तरह होता है कि कथानक द्रुत गति से विकसित होकर आतंरिक कुतूहल अथवा संघर्ष के माध्यम से परिणति की ओर अग्रसर होता है। वे पाठक को वैचारिक ऊहापोह में उलझने-भटकने का अवकाश ही नहीं देतीं। 'समरथ का नहीं दोष गुसाई' में ठाकुर-पुत्र के दुर्व्यवहार के प्रत्युत्तर में पारबती की प्रतिक्रिया, उसकी अम्मा की समझाइश, ईंधन की कमी, पारबती का अकेले जाना, न लौटना और अंतत: मृत शरीर मिलना, यह सब इतने शीघ्र और सिलसिलेवार घटता है कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य घटनाक्रम की सम्भावना भी पाठक के मस्तिष्क में नहीं उपजती। कांति जी कहानी के कथानक के अनुरूप शब्द-जाल बुनने में दक्ष हैं। 'तेरे कितने रूप' में वैधव्य का वर्णन संतान के प्रति मोह में परिणित होता है तो 'संकल्प और विकल्प' में नवोढ़ा नायिका को मिली उपेक्षा उसके विद्रोह में। संघर्ष, द्वन्द, कुतूहल, आशंका, अनिश्चितता आदि मनोभावों से कहानी विकसित होती है। '५ क' (क्या, कब, कैसे, कहाँ और क्यों?) का यथावश्यक-यथास्थान प्रयोग कर कांति जी कथानक का विकास करती हैं।
इन कहानियों में आशा और आशंका, उत्सुकता और विमुखता, संघर्ष और समर्पण, सहयोग और द्वेष जैसे परस्पर विरोधी मनोभावों के गिरि-शिखरों के मध्य कथा-सलिला की अटूट धार प्रवाहित होकर बनते-बिगड़ते लहर-वर्तुलों की शब्दाभा से पाठक को मोहे रखती है। वेगमयी जलधार के किसी प्रपात से कूद पड़ने या किसी सागर में अचानक विलीन होने की तरह कहानियों का चरम आकस्मिक रूप से उपस्थित होकर पाठक को अतृप्त ही छोड़ देता है। ऐसा नहीं होता, यह कहानीकार की निपुणता का परिचायक है। कांति जी की कहानियों की परिणिति (क्लाइमेक्स) में ही उसका सौंदर्य है, इनमें निर्गति (एंटी क्लाईमेक्स) के लिए स्थान ही नहीं है। सीमित किन्तु जीवंत पात्र, अत्यल्प, आवश्यक और सार्थक संवाद, विश्लेषणात्मक चरित्र चित्रण, वातावरण का जीवंत शब्दांकन, इन कहानियों में यत्र-तत्र दृष्टव्य है।
कहानी के सकल रचना प्रसार में तीन स्थल आदि, मध्य और अंत बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। आरम्भ पूर्वपीठिका है तो अंत प्रतिपाद्य, मध्य इन दोनों के मध्य समन्वय सेतु का कार्य करता है। यदि अंत का निश्चय किए बिना कहानी कही जाए तो वह मध्य में भटक सकती है जबकि अंत को ही सब कुछ मान लिया जाए तो कहानी नद्य में प्रचारात्मक लग सकती है। इन तीनों तत्वों के मध्य संतुलन-समन्वय आवश्यक है। कांति जी इस निकष पर प्राय: सफल रही हैं। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के अनुसार 'आड़ी और 'आंत के तारतम्य में 'आंत को अधिक महत्त्व देना चाहिए क्योंकि मूल परिपाक का वही केंद्र बिंदु है।७ कांति जी की कहांनियों में अंत अधिकतर मर्मस्पर्शी हुआ है। 'अनुरक्त विरक्त' और 'चाह गयी चिंता मिटी' के अंत अपवाद स्वरूप हैं।
कहानी में कहानीकार का व्यक्तित्व हर तत्व में अन्तर्निहित होता है। शैली के माध्यम से कहानीकार की अभिव्यक्ति सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ एक्सप्रेशन) की परीक्षा होती है। कहानी में कविता की तुलना में अधिक और उपन्यास की तुलना में अल्प विवरण और वर्णन होते हैं। अत: वर्णन-सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ नरेशन) की परीक्षा भी शैली के माध्यम से होती है। भाषा, भाव और कल्पना अर्थात तन, मन और मस्तिष्क... इन कहानियों में इन तत्वों की प्रतीति भली प्रकार की जा सकती है। कांति जी की कहानियों का वैशिष्ट्य घटना क्रम का सहज विकास है। कहीं भी घटनाएँ थोपी हुई या आरोपित नहीं हैं। चरित्र चित्रण स्वाभाविक रूप से हुआ है। कहानीकार ने बलात किसी चरित्र को आदर्शवाद, या विद्रोह या विमर्श के पक्ष में खड़ा नहीं किया है, न किसी की जय-पराजय को ठूँसने की कोशिश की है।
कहानी के भाषिक विधान के सन्दर्भ में निम्न बिंदु विचारणीय होते हैं- भाषा पात्र को कितना जीवन करती है, भाषा कहानी की संवेदना को कितना उभारती है, भाषा कहानी के केन्द्रीय विचार को कितना सशक्त तरीके के व्यक्त करती है, भाषा कहानी के घटना क्रम के समय के साथ कितना न्याय करती है तथा भाषा वर्तमान युग सन्दर्भ में कितनी ग्राह्य और सहज है।८ ये कहानियाँ वतमान समय से ही हैं अत: समय के परिप्रेक्ष्य की तुलना में पात्र, घटनाक्रम और केन्द्रीय विचार के सन्दर्भ में इन कहानियों की भाषा का आकलन हो तो कांति जी अपनी छाप छोड़ने में सफल हैं। प्राय: सभी कहानियों की भाषा देश-काल. पात्र और परिस्थिति अनुकूल है।
कहानी का उद्देश्य न तो मनरंजन मात्र होता है, न उपदेश या परिष्करण, इससे हटकर कहानी का उद्देश्य कहानी लेखन का उद्देश्य मानव मन में सुप्त भावनाओं को उद्दीप्त कर उसे रस अर्थात उल्लास, उदात्तता और सार्थकता की प्रतीति कराना है। क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरकता और अहं से मुक्त होकर उदारता, उदात्तता, सर्वहित और नम्रता जनित आनंद की प्रतीति साहित्य सृजन का उद्देश्य होता है। कहानी भी एतदअनुसार कल्पना के माध्यम से यथार्थ का अन्वेषण कर जीवन को परिष्कृत करने का उपक्रम करती है। कांति जी की कहानियाँ इस निकष पर खरी उतरने के साथ-साथ किसी वाद विशेष, विचार विशेष, विमर्श विशेष के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। उनकी प्रतिबद्धताविहीनता ही निष्पक्षता और प्रमाणिकता का प्रमाण है। प्रथम कहानी संकलन के माध्यम से कांति जी भावी संकलनों के प्रति उत्सुकता जगाने में सफल हुई हैं। कहानी कला में शैली और शिल्पगत हो रहे अधुनातन प्रयोगों से दूर इन कहानियों में ब्यूटी पार्लर का सौंदर्य भले ही न हो किन्तु सलज्ज ग्राम्य बधूटी का सात्विक नैसर्गिक सौंदर्य है। यही इनका वैशिष्ट्य और शक्ति है।
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संदर्भ: १. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, २. आलोचना शास्त्र मोहन वल्लभ पंत, ३. समाधान डॉ. सुशीला कपूर, ४. अंतर संवाद रजनी सक्सेना, ५.मेरी प्रिय कथाएँ स्वाति तिवारी, ६. एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ लिटरेचर, ७. कहानी का रचना विधान जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, ८समकालीन हिंदी कहानी संपादक डॉ. प्रकाश आतुर में कृष्ण कुमार ।
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छंद बहर का मूल है: १
छंद परिचय:
दस मात्रिक दैशिक जातीय भव छंद।
षडवार्णिक गायत्री जातीय सोमराजी छंद।
संरचना: ISS ISS,
सूत्र: यगण यगण, यय।
बहर: फ़ऊलुं फ़ऊलुं ।
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कहेगा-कहेगा
सुनेगा-सुनेगा।
हमारा-तुम्हारा
फ़साना जमाना।
मिलेंगे-खिलेंगे
चलेंगे-बढ़ेंगे।
गिरेंगे-उठेंगे
बनेंगे निशाना।
न रोके रुकेंगे
न टोंके झुकेंगे।
कभी ना चुकेंगे
हमें लक्ष्य पाना।
नदी हो बहेंगे
न पीड़ा तहेंगे।
ख़ुशी से रहेंगे
सुनाएँ तराना।
नहीं हार मानें
नहीं रार ठानें।
नहीं भूल जाएँ
वफायें निभाना।
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एक कुंडली- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
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सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के
१३-४-२०१७
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जैनेन्द्र कुमार ने कहा था :
1. भाषा के बारे में कोई कुछ भी सुझाव दे, ध्यान मत दो ।
2. जिस लेखक को तिरस्कार मिलता है, वह उससे बेहत्तर लिखता है, जिसे जल्द पुरस्कार मिल जाता है
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रतन टाटा के सुविचार दोहानुवाद सहित
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
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