कुल पेज दृश्य

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मुक्तक

मुक्तक 
*
श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाए हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*
व्यथा-कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिए व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
*
सूर्य छेड़ता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलता चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
*
वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
*
मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरारि 
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
१७-४-२०१४ 
*

कोई टिप्पणी नहीं: