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गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

जापानी छंद रेंगा

जापानी छंद रेंगा और कस्तूरी की तलाश

रेंगा ऐसा श्रृंखलाबद्ध छंद है जिसे दो छंदकार मिलकर रचते हैं।  रेंगा दो  दो या दो से अधिक सहयोगी कवि लिखते हिन्उ। इसमें दो या दो से अधिक छंद भी होते हैः। प्रत्येक छंद का स्वरूप एक ‘वाका’ या तांका छंद की तरह होता है। रेंगा एकाधिक कवियों द्वारा रचित वाका कविताओं के ढीले-ढाले समायोजन से बनी एक श्रृंखला-बद्ध कविता है। 

रेंगा कविता की आतंरिक मन:स्थिति और विषयगत भूमिका, कविता का प्रथम छंद (वह तांका जिससे कविता आरम्भ हुई है) तय करता है। हर ताँका के दो खंड होते हैं। पहला खंड ५-७-५ वर्ण-क्रम में लिखा एक ‘होक्कु’ होता है। (यही होक्कु अब स्वतन्त्र होकर ‘हाइकु’ कहलाने लगा है)। होक्कु ही रेंगा की मन:स्थिति और विषयगत भूमिका तैयार करता है। पहला कवि एक होक्कु लिखता है। उस होक्कु को आधार बनाकर कोई दूसरा कवि ताँका पूरा करने के लिए ७-७ वर्ण की उसमें दो पंक्तियाँ जोड़ता है। उन दो पंक्तियों को आधार बनाकर कोई अन्य दो कवि रेंगा का दूसरा छंद (तांका) तैयार करते हैं। कविता के अंत तक यह क्रम चलता रहता है। रेंगा को समाप्त करने के लिए प्राय: अंत में ७-७ वर्ण क्रम की दो अतिरिक्त पंक्तियाँ और जोड़ दी जाती हैं। रेंगा एकाधिक कवियों द्वारा रचित एक से अधिक तांकाओं की समवेत कविता है।

रेंगा कविता का आरंभ एक होक्कु से होता है। ‘कस्तूरी की तलाश’ रेंगा कविताओं का हिन्दी में पहला संकलन है। संकलन में संपादित सभी रेंगा कविताओं के ‘होक्कु’ स्वयं प्रदीप जी के हैं। कविता के शेष चरण अन्यान्य कविगण जोड़ते चले गई हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर रेंगा कवितायेँ ६ तांकाओं से जुड़कर बनी हैं। कुछ रेंगा छंदों का आनंद लें -

जीवनरेखा / रेत रेत हो गई / नदी की व्यथा // नारी सम थी कथा / सदियों की अव्यवस्था (रेंगा १)

नाजों में पली / अधखिली कली / खुशी से चली // खिलने से पहले / गुलदान में सजी (रेंगा ११)

बरसा पानी / नाचे मन मयूर / मस्ती में चूर // प्यासी धरा अघाई / छाया नव उल्लास (रेंगा २१)

गृह पालिका / स्नेह मयी जननी / कष्ट विमोचनी // जीवन की सुरभि / शांत व् तेजस्वनी (रेंगा ३०)

रंग बिरंगे / जीवन के सपने / आशा दौडाते // स्वप्न छलते रहे / सदा ही अनकहे (रेन्गा ४०)

हरित धरा / रंगीन पेड़ पौधे / मन मोहते // मानिए उपकार / उपहार संसार (रेंगा ५१)

पानी की बूंद / स्वाति नक्षत्र योग / बनते मोती // सीपी गर्भ में मोती / सिन्धु मन हर्षित (रेंगा ६१)

पीत वसन / वृक्ष हो गए ठूँठ / हवा बैरन // जीवन की तलाश / पुन: होगा विकास (रेन्गा ७१)

देहरी दीप / रोशन कर देता / घर बाहर // दीया लिखे कहानी / कलम रूपी बाती (रेंगा ८१)

गाता सावन / हो रही बरसात / झूलों की याद // महकती मेंहदी / नैन बसा मायका (रेंगा ९०)

पौधे उगते / ऊंचाइयों का अब / स्वप्न देखते // इतिहास रचते / पौधे आकाश छूते (रेंगा ९८)

इनके रेंगाकार  हैं -प्रदीप कुमार डाश, चंचला इंचुलकर, डा. अखिलेश शर्मा, रमा प्रवीर वर्मा, नीतू उमरे, गंगा पाण्डेय, किरण मिश्रा, रामेश्वर बंग, देवेन्द्र नारायण दास, मधु सिन्धी और सुधा राठौर।

प्रदीप कुमार डास ‘दीपक’ ने परिश्रम और सूझ-बूझ के साथ यह संकलन संपादित किया है। एक पूरी कविता संपादित करने के लिए वह जिन सहयोगी कवियों को एक के बाद एक प्रत्येक चरण के लिए प्रेरित कर सके, वह अद्भुत है। कवियों को पता ही नहीं चला कि वे रेंगा कविताओं के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने इस रचनात्मक कार्य के लिए स्वयं को मिलाकर ६५ कवियों को जोड़ा। उनके एक सहयोगी कवि का कथन है कि “एकला चलो” सिद्धांत के साथ गुपचुप अपने लक्ष्य को प्रदीप जी ने जिस खूबसूरती से अंजाम दिया, काबिले तारीफ़ है।

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